निर्भया की मां ने कहा- दरिंदगी के आंकड़े बेटियों का दर्द खुद बयां कर रहे हैं

नई दिल्ली. मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल में 9 साल की बच्ची बेबी (बदला हुआ नाम) की दुष्कर्म के बाद हत्या से लोगाें का आक्रोश उबाल पर है। घटना के 24 घंटे बाद पुलिस ने आरोपी को गिरफ्तार कर लिया है। देशभर से लगातार बच्चियों के साथ रेप और हत्या की खबरों से सुरक्षा व्यवस्थाओं पर सवाल उठने लगे हैं। इन घटनाओं को लेकर दिल्ली दुष्कर्म की पीड़िता निर्भया की मां आशा देवी ने दुख जताया है। उन्होंने भास्कर के बृजेंद्र सरवरिया से बातचीत की।
आशा देवी कहती हैं- सरकारें सख्त कानून की बातें करती हैं, लेकिन दरिंदगी के आंकड़े बेटियों का दर्द खुद बयां कर रहे हैं। भोपाल की घटना दु:खद और शर्मसार करने वाली है। देश में पिछले डेढ़ से दो साल में ऐसी कई बच्चियां दरिंदगी की शिकार हुईं, जिनकी उम्र छह माह से दो या तीन साल तक थी। इनमें से कई पीड़ित परिवार अपनी बेटी को न्याय दिलाने के लिए कोर्ट की दहलीज तक भी नहीं पहुंच पाए। इसके पीछे कई कारण हो सकते हैं, लेकिन सरकार ने नन्हीं बच्चियों के साथ ऐसे घृणित अपराध रोकने के लिए जो कानून बनाया है, वह भी अब बेअसर दिख रहा है।

सरकार की शैली से दुखी- निर्भया के मुजरिमों को आज तक फांसी नहीं हुई
मेरी बेटी के साथ जो कुछ भी हुआ, उसे बीते सात साल हो चुके हैं, लेकिन निर्भया के मुजरिमों को आज तक फांसी नहीं हुई। सुप्रीम कोर्ट ने फांसी का फैसला सुनाया, लेकिन उसके बाद मामला फिर लोअर कोर्ट और मर्सी पिटीशनों में फंसकर रह गया। डेढ़ साल से कभी कोर्ट तो कभी थाने। बस इन्हीं के चक्कर काट रहे हैं। निर्भया का मामला तो पूरी दुनिया जानती है, लेकिन भोपाल में नौ साल की मासूम के साथ जो कुछ भी हुआ, क्या दुनिया उसे जान पाएगी। याद रख पाएगी। शायद नहीं। क्योंकि घटना के ज्यादा से ज्यादा दो-तीन साल बाद लोग सब भुला देते हैं। किसी को भी बच्ची और पीड़ित परिवार का दर्द याद नहीं रहता। ये मेरा अनुभव है।
 
कोर्ट में मामला आते ही दलीलें दी जाने लगतीं
जब मामला कोर्ट-कचहरी में फंसता है तो ऐसे दरिंदे आरोपियों के संवैधानिक अधिकारों की बातें होने लगती हैं। कचहरी में दलीलें दी जाती हैं कि आरेापी बूढ़ा है, नाबालिग है, इसे कम से कम सजा दी जाए। जेल में उसे कोई तकलीफ न हो, वो प्रताड़ित न किया जाए। बगैरह-बगैरह। पीड़ित और उसके परिवार के अधिकारों की बात कोई नहीं करता। क्या हम जैसे परिवारोें के अधिकार कोर्ट-कचहरी में जाकर खत्म हो जाते हैं? मेरा मानना है कि आरोपी कोई भी हो, कैसा भी हो, उसके अपराध के अनुसार उससे बर्ताव होना चाहिए। दुष्कर्म जैसे घृणित अपराधों में आरोपियों के संवैधानिक अधिकार स्वत: खत्म हो जाने वाला कानून व्यवस्था में लाया जाना चाहिए। हमारे परिवार ने सात साल क्या-क्या नहीं भुगता, लेकिन हम लड़ रहे हैं अपनी बेटी के न्याय के लिए।

बच्चियों से रेप पर फांसी का प्रावधान, सजा किसी को नहीं
देश में 12 साल से कम उम्र की बच्चियोें के साथ दुष्कर्म जैसे अपराधों में फांसी की सजा का प्रावधान है।  इस कानून को बने हुए एक से डेढ़ साल हो गए, लेकिन आंकड़े हजारों बेटियों का दर्द खुद-ब-खुद बयां कर रहे हैं। कानून बनने के बाद से सैकड़ों बच्चियां देशभर में दरिंदों की बलि चढ़ चुकी हैं, लेकिन आज तक किसी भी अपराधी को फांसी नहीं हुई, क्योंकि जिस कानून व्यवस्था के अनुसार आरोपी अपराधी बनता है, उसी कानून व्यवस्था के तहत ही वह अपराधी से सामान्य मानवी बनकर जिंदगी गुजार सकता है। हमारी व्यवस्था में सर्वस्वीकार्यता व्याप्त है।

सोच बदलना होगी, कोर्ट के भीतर भी एकसाथ नजर आना चाहिए
दरअसल, कमजोरी हमारे समाज और व्यवस्था की ही है। जरूरत है कि यह सर्वस्वीकार्यता वाली सोच बदले। यहां हर किसी को एक नजर या नजरिए से नहीं देखा जाना चाहिए। जिस आरोपी को कोर्ट के बाहर सजा दिलाने के लिए हजारों लोग एक साथ आते हैं, वही लोग कोर्ट के भीतर कभी साथ नजर नहीं आते। ये व्यवहार बदलना चाहिए। बच्ची को न्याय दिलाते-दिलाते कहीं पीड़ित परिवार ही कानून व्यवस्था के चक्रव्यूह में फंसकर खुद ही सजा न भुगतने लगे, इस व्यवस्था को बदलना चाहिए। जो परिवार अपनी बच्चियों को न्याय दिलाने के लिए कानूनी लड़ाई लड़ना चाहता हो, उसे हर स्तर पर सरकारी मदद मिलनी चाहिए, ताकि वह इंसाफ की लड़ाई में कभी हार न माने।

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