हम हमेशा से ही लगातार चलते घटनाक्रम में इतने ज़्यादा उलझे होते हैं कि बड़ी-बड़ी घटनाएं भी चन्द दिनों में विस्मृत सी हो जाती हैं और हम खारे समंदर में फेंके खुद के कचरे को वापस समंदर द्वारा हम पर फेकते हुए देखते रहते हैं. हर लहर अपने साथ हमे वही सब देती जाती है, जो हमने समंदर को दिया होता है, और हम अपने-अपने तरीके से चर्चाएं करते हैं. समंदर ने बस्तियां उजाड़ दीं, समंदर ने जहाज़ को निगल लिया, नदियां जहरीली हो गई, हवा प्रदूषित हो गई और तो और हमारा भोजन जहरीला हो गया सही भी है, सारा कुछ हमारे लिए हानिकारक हो गया है. सच पूछा जाए तो हमने ही अपने स्वार्थ और अज्ञानता से खुद ही ज़हर घोला है और घोलते ही जा रहे हैं।
यह तो पर्यावरण प्रदूषण का स्तर है, जो लगातार बद से बदतर होता जा रहा है. इससे भी विकट समस्या वर्तमान समय मे हो रहे संस्कारिक पतन की भी है। जिसपर पूरा देश दुखी और परेशान है। विभिन्न अपराधों विशेष कर बलात्कार के खिलाफ लगातार हो रहे जन आंदोलनों, विरोध प्रदर्शन इत्यादि का कोई भी खास असर नहीं हो रहा है, जिस कारण इस तरह के अपराधों में कमी नहीं आ रही है। जबतक सरकार इस ओर ध्यान नही देगी कोई परिवर्तन नही आएगा. ये सभी जानते हैं कि तकलीफ के कारण क्या हैं और उसका निवारण क्या है।
सरकारें भी खामोश तमाशबीन हैं कोई अपनी सत्ता के रास्ते मे कांटे नहीं उगाना चाहता सबको अपनी राहों में फूल बिछे ही चाहिए फिर वो किसी मासूम की अर्थी के हों या जांबाज़ शहीद के उन्हें क्या फर्क पड़ता है।
जिनकी पीड़ा है, वे ही सुलग रहे हैं, और उनकी आग में घी का काम करती हैं, हमारी विभिन्न व्यवस्थाओं के नाम की अव्यवस्थाएं भी कुछ कम नहीं हैं, इनके नाम बहुत हैं हर सरकार पुरानी सरकार की कमियां गिना कर कुछ और नई व्यवस्था जोड़ देती है. अपनी वाहवाही के लिए पुरानी को बदहाल साबित कर नई व्यवस्था को महिमा मंडित करके अनापशनाप खर्च करके कुछ बन्दर बांट के बाद पलटकर नहीं देखती उनका क्रियान्वयन ऐसा हो रहा है।
जब तक आंकड़ों के आधार पर विकास कार्यों की गणना की जाती रहेगी, तब तक सही गुणवत्ता के काम नहीं हो पाएंगे सबको सब पता है, पर कहे कौन फिर सहे कौन! सबकी अपनी मजबूरी सबके अपने स्वार्थ हैं
लेख - “नीता झा”