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आतंकियों के मानवाधिकार पर सुनवाई हो सकती है तो अयोध्या पर क्यों नहीं? Featured

By November 01, 2018 527
अयोध्या विवाद सुलझने का नाम ही नहीं ले रहा है, जो लोग यह उम्मीद लगाए थे कि 29 अक्टूबर को जब सुप्रीम कोर्ट इस मुददे पर सुनवाई शुरू करेगा तब वह सवा सौ करोड़ लोगों की जनभावनाओं को अनदेखा नहीं कर पायेगी। इसकी वजह भी थी। अयोध्या विवाद दशकों से कोर्ट की चौखट पर इंसाफ के लिये दस्तक दे रहा है, लेकिन तीन जजों की खंडपीठ ने तीन मिनट में मुकदमे की तारीख दे दी। अगर सुप्रीम कोर्ट के रवैये पर उंगली उठ रही है तो उसे अदालत की अवमानना बता कर खारिज नहीं किया जा सकता है। कोई भी संस्था या सरकार ही नहीं किसी का धर्म भी देशहित से ऊपर नहीं हो सकता है। क्या लोगों के बीच खाई बढ़ाने वाले मसलों पर समय रहते निर्णय नहीं लिया जायेगा ? इंसाफ के नाम पर अदालतों से तारीख पर तारीख मिलेगी तो इसे सिस्टम में व्याप्त खामियों का जामा पहना कर खारिज नहीं किया जा सकता है। अगर आतंकवादियों के मानवाधिकार की रक्षा के लिये देर रात्रि को कोर्ट बैठ सकती है तो फिर देश की सवा सौ करोड़ की जनता के 'मानवाधिकारों' की रक्षा के लिये ऐसा क्यों नहीं किया जा सकता है। एक बार को यह मान भी लिया जाए कि निचली अदालतों ने फैसला सुनाने में लम्बा समय लिया तो सुप्रीम कोर्ट भी तो इससे अछूता नहीं रह गया है। यहां भी सात वर्षों से मामला लटका हुआ है। अयोध्या विवाद को सुलझाने के लिये सुप्रीम कोर्ट की पूर्व की बेंच जिस तरह से तत्परता दिखा रही थी, ऐसा वर्तमान बेंच में होता नहीं दिख रहा है तो फिर लोगों के मन−मस्तिष्क में सवाल तो उठेंगे ही।
 
सुप्रीम कोर्ट की नई बेंच से जब यह उम्मीद जताई जा रही थी कि वह अयोध्या विवाद की सुनवाई दिन−प्रतिदिन करने के बारे में फैसला देगा, तब उसने विवाद को जनवरी 2019 की तारीख देकर लम्बे समय तक के लिये तक टाल दिया गया। ऐसा इसलिये कहा जा रहा है क्योंकि मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता वाली तीन जजों वाली बेंच का कहना था कि जनवरी में सुप्रीम कोर्ट की नई पीठ ही यह तय करेगी कि इस मामले की सुनवाई जनवरी, फरवरी, मार्च या अप्रैल में कब होगी ?
 
अयोध्या विवाद पर इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसले पर रोक लगाए हुए सात साल बीत चुके हैं। फिर भी मामला का जहां का तहां ही है ? दुख की बात यह भी है कि अयोध्या विवाद में एक पक्षकार तो चाहता है कि जल्द से जल्द विवाद सुलझ जाये, लेकिन दूसरा पक्ष इसमें रोड़ा लगाने और तारीख आगे बढ़ाने में ज्यादा रूचि नहीं लेता है।
 
सुप्रीम कोर्ट के विद्वान न्यायाधीश जब यह कहते हैं कि उनकी और भी प्राथमिकताएं हैं तो इसका मतलब तो यही निकलता है कि अन्य अदालतों की तरह सुप्रीम कोर्ट भी मुकदमों के बोझ से दबा हुआ है। मगर सच्चाई यह भी है कि इतना दबाव होने के बाद भी सुप्रीम कोर्ट समय−समय पर कई मामलों की मैरिट से हटकर सुनवाई करती रही है। नाराजगी सिर्फ तारीख मिलने की नहीं है। बेंच का व्यवहार भी ऐसा था मानो उसे मामले की गंभीरता का अहसास नहीं हो या फिर वह ऐसा दर्शा रही होगी। सुप्रीम अदालत की तीन जजों की पीठ केवल यह बताने के लिए बैठी की मामले की सुनवाई नई पीठ करेगी तो उनकी मंशा चाहे जितनी भी साफ हो, उस पर उंगली भी उठेगी और सियासत भी होगी।
 
इसकी वजह भी है। अयोध्या मामले की सुनवाई टलने से उन लोगों की मंशा पूरी हो गई जो कहा करते थे कि इस विवाद की सुनवाई लोकसभा चुनाव के बाद की जाए। वहीं वह लोग दुखी हैं जो समय रहते इंसाफ चाहते थे। समय पर इंसाफ नहीं होना भी किसी अपराध से कम नहीं है। खासकर तब जब कोई मसला करोड़ों लोगों की आस्था से जुड़ा हो। यह सच है कि अदालत आस्था पर नहीं चलती है, अगर पूरे मसले को जमीनी विवाद मानकर कोर्ट सुनवाई कर रही है तो फिर तो यह काम और भी आसान हो जाता है।
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