ईश्वर दुबे
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Bhilai
जब भी चुनाव आते हैं तब राजनीतिक दलों में दलबदल तेज हो जाता है। पिछले विधानसभा के चुनाव के दौरान भी बेधड़क दलबदल हुआ था और अब लोकसभा चुनाव के पहले एक बार फिर दलबदल की आहट सुनाई देने लगी है। हालांकि इस बार भाजपा से किसी दूसरे दल में जाने वाले कहीं दिखाई नहीं दे रहे लेकिन अन्य दलों से भाजपा में आने के लिए जरूर बातचीत चल रही है लेकिन कुछ बीजेपी में आए लोगों का हश्र देखकर और कुछ स्थानीय भाजपा नेताओं का विरोध दलबदल की राह में गति अवरोधक बना हुआ है।
दरअसल, अब देश की राजनीति में दलबदल कोई ऐसा मुद्दा नहीं रहा जिससे कि शर्मिंदगी महसूस हो जिस तरह से राष्ट्रीय राजनीति में नीतेश कुमार ने दलबदल का परिणाम हर बार मुख्यमंत्री बनकर दिखाया है उससे अब वे राजनीतिज्ञ जो लंबा संघर्ष नहीं करना चाहते जो विपक्ष की बजाय सत्ता पक्ष की राजनीति करने में विश्वास रखते हैं वह जरूर इस समय भाजपा में एंट्री करने के दरवाजे तलाश रहे हैं और कुछ विपक्षी नेताओं को भाजपा के नेता ही ऑफर देकर भाजपा में बुला रहे हैं जिससे कि पार्टी के अंदर गुटबाजी के कारण पार्टी के नेताओं को स्थानीय स्तर पर कमजोर करने के लिए विरोधी दल के नेताओं को पार्टी में आमंत्रित कर रहे हैं। विधानसभा चुनाव के बाद पंचायत और नगर निगमों के जनप्रतिनिधि भाजपा ज्वाइन कर चुके हैं और कुछ महापौर और कुछ जिला पंचायत अध्यक्ष भाजपा ज्वाइन करने की राह पर है।
बहरहाल, मंगलवार को विभिन्न सड़क परियोजनाओं का लोकार्पण एवं भूमिपूजन कार्यक्रम के दौरान जबलपुर में केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी की उपस्थिति में मुख्यमंत्री डॉक्टर मोहन यादव ने कांग्रेस विधायक विधायक ओंकार सिंह मरकाम को जिस तरह से पार्टी में आने का ऑफर दिया उनसे कहा कि वह गलत पटरी पर बैठे हैं। मुख्यमंत्री जब ऐसा कह रहे थे तब विधायक ओमकार सिंह मरकाम हाथ जोड़ खड़े हुए और मुस्कुराते रहे। हालांकि बाद में उन्होंने इन सब बातों को बेबुनियाद बताया लेकिन पार्टी में विभिन्न अंचलों में विभिन्न स्तर पर स्थानीय समीकरणों के हिसाब से दलबदल को हवा दी जा रही है और इस दल बादल में कांग्रेस के साथ-साथ बसपा, सपा और आप के नेताओं को भी अपने नेताओं को संभालना मुश्किल हो सकता है क्योंकि भाजपा जिस तरह से हारी हुई बाजी भी जीत रही है उस अन्य दलों के नेताओं का मनोबल टूट रहा है और वे विपक्ष में रहकर संघर्ष करने की बजाय सत्ताधारी दल के साथ जुड़कर राजनीति करने में समझदारी समझ रहे हैं।
कुल मिलाकर प्रदेश की राजनीति में एक बार फिर दलबदल का दौर आने वाला है हवा में वैसे तो कुछ बड़े नाम भी चल रहे हैं लेकिन स्थानीय स्तर पर समीकरणों के हिसाब से दल बदल किया जा सकता है।
भारतीय जनता पार्टी की चुनाव पूर्व रणनीति कामयाब होती दिख रही है। हालांकि चुनाव पूर्व रणनीति की कामयाबी इस बात की गारंटी नहीं होती है कि पार्टी चुनाव जीत जाएगी। लेकिन इससे नेताओं, कार्यकर्ताओं और मतदाताओं में एक सकारात्मक संदेश जाता है। महज छह महीने पहले विपक्षी गठबंधन के बारे में सकारात्मक संदेश बना था। जब विपक्षी पार्टियां एकजुट हुई थीं और एक के बाद एक चार बैठकें हुईं और यह प्रचार हुआ कि भाजपा के हर उम्मीदवार के खिलाफ विपक्ष का एक साझा उम्मीदवार होगा तो मनोवैज्ञानिक स्तर पर देश के मतदाताओं में एक बड़ा संदेश गया था। विपक्ष के नेताओं और कार्यकर्ताओं में भी धारणा के स्तर पर सकारात्मक स्थिति बनी थी। ठीक वैसी ही स्थिति अब भाजपा और उसके गठबंधन को लेकर बन रही है। छह महीने पहले विपक्ष की जो स्थिति थी उससे भाजपा में चिंता बढ़ी थी। अब उसने टेबल टर्न कर दिया है। उसने ऐसी राजनीति की है, जिससे धारणा बदल गई है। भाजपा ने विपक्ष के गेम प्लान को पंक्चर करने के लिए पहले उसके मुकाबले ज्यादा बड़ा गठबंधन बनाने का फैसला किया था। तभी जुलाई में भाजपा ने 38 पार्टियों के साथ एनडीए की बैठक की। लेकिन जल्दी ही उसको समझ में आ गया कि आकार में विपक्ष से बड़ा गठबंधन बनाना अच्छी रणनीति नहीं होगी। इसलिए उसने अपना आकार बढ़ाने की बजाय विपक्षी गठबंधन का आकार छोटा करना शुरू कर दिया। उसने विपक्ष को कमजोर करने की राजनीति की। अयोध्या में राम मंदिर के उद्घाटन से हिंदू पुनरुत्थान का नैरेटिव बनाने के बाद भी भाजपा ने राज्यों में अपनी राजनीतिक कमजोरियों को दूर करने का प्रयास किया।
भाजपा की चुनाव पूर्व रणनीति की कामयाबी में दो बातें अहम हैं। पहली बात तो यह कि उसने अपनी कमजोरी और विपक्षी गठबंधन की ताकत को पहचाना और दूसरी बात यह कि अपनी कमजोरी को दूर करने के लिए साम, दाम, दंड और भेद सभी उपायों का इस्तेमाल किया। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की पहल पर जून से अगस्त के बीच विपक्षी गठबंधन ने जैसी एकता दिखाई थी उससे भाजपा को अपनी कमजोरी का अहसास हुआ। भाजपा की कमजोरी दो स्तर पर थी। पहला, सामाजिक समीकरण और दूसरा विपक्षी गठबंधन की पार्टियों के मजबूत असर वाले राज्यों में उसका कमजोर होना। अगर किसी पार्टी को अपनी कमजोरी का पता चल जाए तो उसे दूर करना बहुत आसान हो जाता है। सो, भाजपा ने अपनी इन दोनों कमजोरियों को पहचाना। उसने उन राज्यों की पहचान की, जहां विपक्षी गठबंधन उसको नुकसान पहुंचा सकता था और उन राज्यों में अपने को मजबूत करने और साथ साथ विपक्ष को कमजोर करने का भरपूर प्रयास किया। भाजपा का यह प्रयास काफी हद तक कामयाब हो गया।
हकीकत यह है कि भाजपा को इसमें ज्यादा प्रयास करने की जरुरत ही नहीं पड़ी। विपक्षी गठबंधन की फॉल्टलाइन पहले से सबको पता थी और साथ ही गठबंधन की केंद्रीय पार्टी यानी कांग्रेस के काम करने का तरीका भी भाजपा को पता था। भाजपा को पता था कि कांग्रेस फैसला करने में बहुत देरी करेगी और कांग्रेस ने सचमुच देरी की, जिसका फायदा भाजपा ने उठाया। लेकिन उसको ज्यादा फायदा विपक्षी पार्टियों की आंतरिक राजनीति और आपस के पारंपरिक टकराव से हुआ। भाजपा को अजित पवार की महत्वाकांक्षा का पता था और उनकी मजबूरियों को भी पता था। इसलिए भाजपा ने उनके ऊपर लगाए गए भ्रष्टाचार के आरोपों को बड़ी सुविधाजनक तरीके से भुला दिया और उनको उप मुख्यमंत्री बना दिया। उनको खुश करने के लिए केंद्रीय एजेंसियों का रुख चाचा शरद पवार के साथ रह गए परिवार के दूसरे लोगों की ओर कर दिया गया। अजित पवार और उनके बेटे पार्थ के प्रतिद्वंद्वी के तौर पर उभर रहे शरद पवार के पोते रोहित पवार के यहां अब केंद्रीय एजेंसियों की कार्रवाई चल रही है। महाराष्ट्र में भाजपा पहले ही शिव सेना को तोड़ चुकी थी और विपक्षी गठबंधन की एकता बनने के बाद एनसीपी को भी तोड़ दिया। सो, 48 लोकसभा सीट वाले राज्य में भाजपा भले अभी बहुत मजबूत हो गई नहीं दिख रही हो लेकिन उसने विपक्ष को कमजोर कर दिया।
महाराष्ट्र के बाद उसके लिए दूसरा कमजोर राज्य कर्नाटक था, जहां विधानसभा चुनाव में वोक्कालिगा वोट कांग्रेस की ओर जाने से भाजपा और एचडी देवगौड़ा की पार्टी जेडीएस दोनों को नुकसान हुआ था। सो, भाजपा ने दुश्मन के दुश्मन को दोस्त बना लिया। डीके शिवकुमार की वजह से वोक्कालिगा वोट पर मंडरा रहे खतरे को देखते हुए एचडी देवगौड़ा ने भाजपा के साथ तालमेल कर लिया। हालांकि तब भी यह नहीं कहा जा सकता है कि भाजपा और जेडीएस राज्य की 28 लोकसभा सीटों में से अपनी 27 सीटें बचा लेंगे लेकिन वहां अपने को मजबूत करके भाजपा ने नुकसान कम करने का प्रयास किया है।
कर्नाटक के बाद तीसरा राज्य बिहार था, जहां के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने विपक्ष को एकजुट करने का प्रयास शुरू किया था और कामयाब हुए थे। भाजपा को नीतीश की महत्वाकांक्षा और गठबंधन के अंदर की खींचतान का अंदाजा था। सो, उसने जबरदस्त रणनीतिक लचीलापन दिखाते हुए नीतीश कुमार से फिर तालमेल कर लिया। नीतीश को मुख्यमंत्री बनाए रखते हुए उनकी पार्टी जनता दल यू की एनडीए में वापसी कराई गई। जरुरत पडऩे पर घनघोर राजनीतिक व वैचारिक दुश्मन को भी साथ जोडऩे के लिए जिस उच्च स्तर का लचीलापन होना चाहिए वह भाजपा के शीर्ष नेतृत्व ने दिखाया। उसका नतीजा यह हुआ कि बिहार में, जहां एनडीए को सबसे ज्यादा नुकसान की संभावना दिख रही थी वह लगभग खत्म हो गई। नीतीश कुमार के भाजपा के साथ लौट जाने से बिहार की 40 लोकसभा सीटों पर सामाजिक व राजनीतिक समीकरण एनडीए के पक्ष में हो गया तो साथ ही पूरे देश में विपक्षी गठबंधन 'इंडियाÓ के बिखरने का संदेश चला गया। बिहार के बाद झारखंड में एक मजबूत गठबंधन सरकार को अस्थिर करने का प्रयास चल रहा है।
भाजपा के लिए मुश्किल राज्यों में एक पश्चिम बंगाल भी है, जहां पिछली बार भाजपा को छप्पर फाड़ सीटें मिली थीं। उसने 42 में से 18 सीटें जीत ली थीं और उसके बाद विधानसभा चुनाव में भी उसने अपना वोट आधार कायम रखा था। वहां भी विपक्षी पार्टियों का गठबंधन होने की संभावना कम ही दिख रही है। कांग्रेस के प्रदेश नेतृत्व का राज्य में सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस के साथ टकराव और वामपंथी पार्टियों के साथ संघर्ष के पुराने इतिहास की वजह से विपक्षी एकजुटता की संभावना काफी कम है। उत्तर प्रदेश में भाजपा को इस बात की आशंका थी कि अगर पिछली बार की तरह बहुजन समाज पार्टी और समाजवादी पार्टी के बीच तालमेल हो गया तो उसको नुकसान हो सकता है। लेकिन मायावती ने अपने जन्मदिन के मौके पर यानी 15 जनवरी को ऐलान कर दिया कि वे अकेले चुनाव लड़ेंगी तो भाजपा के रास्ते की एक बड़ी बाधा टल गई। हालांकि यह नहीं कहा जा सकता है कि पश्चिम बंगाल और उत्तर प्रदेश में विपक्षी एकता नहीं बनने के पीछे भाजपा या केंद्र सरकार की कोई रणनीति रही है लेकिन दोनों राज्यों के राजनीतिक घटनाक्रम की एकमात्र लाभार्थी भाजपा ही है।
जो रिपोर्ट पेश की गई है, उस पर गौर करते हुए हर बिंदु पर अहसास होता है कि यह आर्थिक से ज्यादा एक राजनीतिक दस्तावेज है, जिसे चुनावी मकसद से मीडिया में बड़ी सुर्खियां बनाने के लिए लिहाज से तैयार किया गया है।
परंपरा यह है कि बजट पेश होने से पहले भारत सरकार संसद में गुजर रहे वर्ष का आर्थिक सर्वेक्षण पेश करती है। आम समझ है कि बजट ऐसा आर्थिक दस्तावेज होता है, जिसे सरकार की राजनीतिक प्राथमिकताओं के मुताबिक तैयार किया जाता है। जबकि आर्थिक सर्वेक्षण ठोस आंकड़ों पर आधारित दस्तावेज है, जिससे देश की असल आर्थिक सूरत की जानकारी मिलती है। आर्थिक सर्वेक्षण को सरकार के प्रमुख आर्थिक सलाहकार तैयार करते हैं। इस बार भी उन्होंने ऐसा किया है, लेकिन परंपरा से अलग हटते हुए उसे प्रेस कांफ्रेंस के जरिए अंतरिम बजट पेश होने तीन दिन पहले जारी कर दिया गया। बाद में सफाई दी गई कि चूंकि इस बार पूर्ण बजट पेश नहीं हो रहा है, इसलिए ये दस्तावेज संसद से बाहर जारी किया गया है- लोकसभा चुनाव के बाद पूर्ण बजट पेश होगा, तब आर्थिक सर्वेक्षण पेश किया जाएगा। बहरहाल, जो रिपोर्ट पेश की गई है, उस पर गौर करते हुए हर बिंदु पर अहसास होता है कि यह आर्थिक से ज्यादा एक राजनीतिक दस्तावेज है, जिसे चुनावी मकसद से मीडिया में बड़ी सुर्खियां बनाने के लिए लिहाज से तैयार किया गया है। मसलन, अगले वित्त वर्ष में आर्थिक वृद्धि दर 7 प्रतिशत रहने का अनुमान लगाया गया है, जबकि भारतीय रिजर्व बैंक, अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष, और विश्व बैंक के अनुमान 6.3-6.4 प्रतिशत के दायरे में हैं। फिर 2030 तक सात ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था बनने का सपना इसमें दिखाया गया है। इन संदर्भों में सरकार की जो आलोचनाएं रही हैं, उनका जवाब भी इसमें देने की कोशिश की गई है। जैसेकि मुख्य आर्थिक सलाहकार वी नागेश्वरन ने कहा कि मोदी काल की औसतन सात प्रतिशत की वृद्धि दर यूपीए काल के 8-9 प्रतिशत से बेहतर है, क्योंकि तब विश्व अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर आज से दो गुना ज्यादा थी। इसके अलावा रोजगार के उन आंकड़ों का सहारा लेकर आर्थिक वृद्धि को समावेशी बताने की कोशिश भी की गई है, जिन पर विशेषज्ञ हलकों से वाजिब सवाल उठाए गए हैँ। तो सार यह है कि आर्थिक सलाहकार ने सत्ताधारी पार्टी को खुशहाली की कहानी दी हैं, जिनसे वह चुनावी हेडलाइन्स बना सके।
आजादी का अमृत महोत्सव मना रहे भारत देश के सभी धर्मों के नागरिकों के लिये एक समान धर्मनिरपेक्ष कानून होना चाहिये। संविधान के संस्थापकों ने राज्य के नीति निदेशक तत्त्व के माध्यम से इसको लागू करने की ज़िम्मेदारी बाद की सरकारों को हस्तांतरित कर दी थी। लेकिन पूर्व की सरकारों ने वोट बैंक के चलते समान नागरिक संहिता को लागू नहीं होने दिया, अब भारतीय जनता पार्टी एवं नरेन्द्र मोदी सरकार इस बड़ी विसंगति को दूर करने के लिये तत्पर हुई है, जिसके लागू होने से देश सशक्त होगा। विडम्बना है कि मुस्लिम समुदाय को उनके शरीयत कानून से अनेक ऐसे अधिकार मिले हुए हैं, जो मानवता के विपरीत हैं और मानव मूल्यों एवं भारत के संविधान का हनन है। यह कानून एक मुस्लिम पुरुष को अपनी मौजूदा पत्नियों की सहमति के बिना चार विवाह करने की अनुमति देता है, वहीं बाल-विवाह एवं यौन शोषण को जायज मानता है। जबकि देश में बाल विवाह कानूनन अपराध है। केरल हाईकोर्ट ने एक उदाहरण प्रस्तुत करते हुए समान कानून संहिता को लागू किया है।
लड़की की शादी 18 साल की उम्र और लड़के की शादी 21 साल के बाद ही की जा सकती है। यदि इस उम्र सीमा से नीचे के लड़के या लड़की की शादी की जाती है, तो शादी अवैध घोषित मानी जाती है। इतना ही नहीं बाल विवाह कराने वालों को जेल भी हो सकती है। इसी तरह यौन शोषण का मामला है। बाल विवाह एवं यौन शोषण दोनों ही अपराध है। जाहिर है कि बच्चे चाहे जिस भी धर्म के हों, उनके खिलाफ होने वाले अपराधों को समान नजर से देखना और बरतना एक स्वाभाविक कानूनी प्रक्रिया है। नाबालिग बच्चों को उनके खिलाफ यौन अपराधों और शोषण से सुरक्षा देने के लिए पाक्सो कानून बनाया गया। लेकिन भारत में मुस्लिमों के लिए शरीयत कानून को भी मान्यता मिली हुई है जिसके कारण बच्चों पर हो रहे अपराधों पर दोयम दर्जा अपनाया जाता है, इसको लेकर कई बार सामुदायिक परंपराओं के लिहाज से भी इस प्रावधान की प्रासंगिकता को कसौटी पर रखने की कोशिश की जाती है। केरल उच्च न्यायालय ने एक मामले की सुनवाई के बाद इसी द्वंद्व एवं दोहरे नजरिये पर स्पष्ट राय दी है, जिसमें किसी धर्म के तहत बनाए गए अलग नियम के मुकाबले पाक्सो कानून को न्याय का आधार बनाया गया है। यह एक अनूठी पहल है जिसमें पाक्सो कानून को धर्म नहीं, इंसान को एक ही नजर से देखने का उपक्रम है। यही इंसाफ का तकाजा है और उसकी बुनियाद है।
केरल हाईकोर्ट ने स्पष्ट कहा कि मुस्लिम कानून के तहत नाबालिगों की शादी पॉक्सो एक्ट से बाहर नहीं हो सकती है। यदि दूल्हा या दुल्हन नाबालिग है और मुस्लिम कानून के तहत उनकी शादी भले ही वैध हो, लेकिन पॉक्सो एक्ट उन पर भी लागू होगा। निश्चित ही मुस्लिम धर्म की मान्यता का हवाला देते हुए अब तक हो रहे बाल विवाह एवं बच्चों के यौन शोषण पर नियंत्रण स्थापित करने की दृष्टि से एक समानता एवं अपराध मुक्ति का परिवेश निर्मित होगा। यानी आज आवश्यकता इस बात की है कि मुस्लिम समुदाय में बाल-विवाह एवं वैवाहिक संबंध को पुनः परिभाषित किया जाए और अधिकारों और कर्तव्यों का पारदर्शी तरीके से परिमार्जन, परिवर्तन एवं संशोधित किया जाए। मुस्लिम समाज में तलाक, बहु-विवाह, बाल विवाह की पूर्ण उन्मुक्ति अन्य समुदायों के पतियों को इस्लाम में परिवर्तित करके अपनी पत्नियों को छोड़ने, अनेक पत्नियां रखने, बाल-यौन-शोषण और उनकी जुड़ी कानूनी कार्यवाही से बचने में सक्षम बनाती है। मूल्यहीनता के जिस भंवर में मुस्लिम समाज धंसता जा रहा है उसे समय रहते उससे निकाला जाए, क्योंकि इससे प्रभुत्व, प्रभाव, धार्मिक आग्रहों और वर्चस्व की लड़ाई में कुंठित मानसिकता ही हावी होती है। भले ही अब बच्चों के खिलाफ होने वाले यौन अपराधों और शोषण के संदर्भ में पाक्सो कानून और किसी धर्म के विशेष नियमों के बीच की स्थिति को लेकर नई बहस खड़ी हो, कानून की समानता को लागू किया ही जाना चाहिए।
केरल उच्च न्यायालय ने एक साहसिक कदम उठाते हुए न्याय की तुला में सबकी समानता की बात को उजागर किया है। कोर्ट ने बाल विवाह को मानवाधिकारों का भी उल्लंघन बताया। क्योंकि बाल विवाह के कारण बच्चा सही से विकसित नहीं हो पाता है। यह सभ्य समाज के लिए एक बुराई है। मुस्लिम कानून के जरिये बाल-अपराध को खुली छूट का फायदा यह समुदाय उठाता रहा है। लेकिन पॉक्सो एक्ट को परिभाषित करते हुए कोर्ट ने कहा कि ये कानून शादी की आड़ में बच्चों के साथ शारीरिक संबंध बनाने से रोकता है। जैसा कि अक्सर कहा जाता है, एक कानून लोगों की इच्छा की अभिव्यक्ति या प्रतिबिंब है। आजकल केरल न्यायालय के फैसले के साथ-साथ श्रद्धा हत्याकांड के विविध पक्षों पर बहस हो रही है और कहीं ‘लव जिहाद’ और ‘घर वापसी’ जैसे मुद्दों पर दंगल चल रहा है। नया भारत निर्मित करने की बात हो रही है, ऐसे में एक धर्म-विशेष के अलग कानून होने की स्थितियों पर पुनर्विचार अपेक्षित है। क्यों मुस्लिम कानून के हिसाब से नाबालिग की शादी वैध मानी जाये? भले ही इस सवाल को केरल हाईकोर्ट ने पूरी तरह से स्पष्ट करते हुए कहा कि पॉक्सो एक्ट एक विशेष कानून है, यह विशेष रूप से बच्चों को यौन अपराधों से सुरक्षा देने के लिए बनाया गया है। एक बच्चे के खिलाफ हर प्रकार के यौन शोषण को अपराध माना जाता है। नाबालिग विवाह को भी इससे बाहर नहीं रखा गया है। पॉक्सो एक्ट को बाल शोषण से संबंधित न्यायशास्त्र से उत्पन्न सिद्धांतों के आधार पर बनाया गया है। ये कानून कमजोर, भोले-भाले और मासूम बच्चों की रक्षा करने के लिए बनाया गया है। इस कानून के तहत बच्चों की यौन अपराधों से रक्षा की जाती है। इसमें नाबालिग विवाह को यौन शोषण के रूप में ही स्पष्ट किया गया है।
यह उजला सच है कि पाक्सो कानून के प्रभावी होने के बावजूद हिन्दू हो या मुसलमान एवं अन्य धर्मों को मानने वाले समुदायों में बाल विवाह के मामले अक्सर सामने आते रहते हैं। हिन्दुओं में अक्षय तृतीया के मौके पर होने वाले बाल विवाह आज भी प्रशासन के लिए चुनौती बने रहते हैं। इसलिए सभी पक्षों को इस मसले पर सोच-समझ कर एक ठोस निष्कर्ष तक पहुंचने की जरूरत है, जिसमें नाबालिगों को हर स्तर के अपराध से सुरक्षित किया जा सके। बाल-विवाह एवं उनका यौन शोषण पर लगाम और उनकी सुरक्षा सुनिश्चित करना आज हर तरह से आवश्यक है। भारत समाज में बच्चों के खिलाफ हो रहे अत्याचार एवं हिंसा के लिये न जाने कितने लोग जिम्मेदार हैं। समय रहते जागना, जगे रहना और दूसरों को जगाने का सिलसिला बन जाना चाहिए। किसी भी धर्म के हों, यदि हम बच्चों के साथ खड़े नहीं होंगे, तो दरअसल अपने हिस्से की संवेदनाओं, जिम्मेदारियों एवं कर्तव्यों को घटा देंगे, अपने मासूम बच्चों को कमजोर कर देंगे। घरों में कैद बच्चियां जो परिवार, समाज रचेंगी, वह भी कमजोर ही होगा। संयुक्त राष्ट्र महासचिव को केवल आंकड़े नहीं गिनाने चाहिए, बल्कि एक धर्म-विशेष के बच्चों के हो रहे शोषण एवं अत्याचार के लिये दुनिया में सार्थक मुहिम का सूत्रपात करना चाहिए। दुनिया की तमाम सरकारों से बच्चों के हाल पूछना चाहिए, उनके हो रहे बाल-विवाहों एवं यौन शोषण को रोकने क उपाय सुझाये जाने चाहिए।
निर्विवाद रूप से बाल विवाह मानवाधिकारों का उल्लंघन है, धर्म-विशेष का होने से उसे आरक्षण नहीं मिल सकता। समाज में प्रचलित परंपराओं और रीतियों में अगर कभी कोई खास पहलू किसी पक्ष के लिए अन्याय का वाहक होता है, तो उसके निवारण के लिए व्यवस्थागत इंतजाम किए जाने ही चाहिए। मगर ऐसे मौके अक्सर आते रहते हैं, जब परंपराओं और कानूनों के बीच विवाद एवं द्वंद्व की स्थिति पैदा हो जाती है। कानून के सामने भी ऐसा द्वंद्व रहा है। इसलिये केरल हाई कोर्ट का ताजा फैसला इसलिये बेहद अहम माना जा रहा है, क्योंकि इसी तरह के मामलों में पहले तीन अन्य उच्च न्यायालयों ने अठारह साल से कम उम्र की लड़की की शादी के मामले को पर्सनल लॉ के तहत सही बता कर खारिज कर दिया था। पर केरल में एक सदस्यीय पीठ के सामने आए इस मामले में जांच के बाद एक अलग पहलू यह भी पाया गया कि नाबालिग लड़की के माता-पिता की जानकारी के बिना आरोपी ने उसे बहला-फुसला कर अगवा किया था। ऐसे में किसी भी धार्मिक कानून के दायरे में खुद भी इस पर विचार किया जाना चाहिए कि ऐसा विवाह कितना सही है। ऐसा संक्रमणग्रस्त समाज मूल्य और नैतिकता से परे एक बीमार समाज को जन्म देगा।
-ललित गर्ग
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तम्भकार हैं)
औद्योगिक नीति को आर्थिक परिवर्तन को प्रोत्साहित करने के लिए राज्य द्वारा रणनीतिक प्रयास के रूप में परिभाषित किया गया है, अर्थात क्षेत्रों के बीच या भीतर निम्न से उच्च उत्पादकता गतिविधियों में बदलाव. भारत का लक्ष्य 2025-26 तक अपने विनिर्माण सकल मूल्य वर्धित (जीवीए) को लगभग 3 गुना बढ़ाकर 1 ट्रिलियन डॉलर तक पहुंचाना है. वैश्विक अर्थव्यवस्था में विनिर्माण प्रतिस्पर्धा को बढ़ाने के लिए उच्च प्रौद्योगिकी आधारित बुनियादी ढाँचा और कुशल जनशक्ति महत्वपूर्ण हैं. उदा. अत्यधिक बोझिल रेल परिवहन.
भारत जैसे विकासशील राष्ट्र के लिए औद्योगिक नीति बहुत प्रकार से महत्वपूर्ण हैं, क्योंकि यहाँ नियोजित अर्थव्यवस्था के माध्यम से औद्योगिक विकास हो रहा है. देश में प्रकृतिक साधन पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध हैं लेकिन उनका उचित विदोहन नहीं हो रहा है. यहाँ प्रतिव्यक्ति आय कम होने के कारण पूँजी निर्माण की दर भी कम है तथा उपलब्ध पूँजी सीमित मात्रा में है. अत: आवश्यक है कि उसका उचित प्रयोग किया जाए.
देश का सन्तुलित विकास करने कि लिए संसाधनों को उचित दिशा में प्रवाहित करने कि लिए, उत्पादन बढ़ाने के लिए, वितरण की व्यवस्था सुधारने के लिए, एकाधिकार, संयोजन और अधिकार युक्त हितों को समाप्त करने अथवा नियन्त्रित करने के लिए कुछ गिने हुए व्यक्तियों के हाथ में धन अथवा आर्थिक सत्ता के केन्द्रीकरण को रोकने के लिए, असमताएँ घटाने के लिए, बेरोजगारी की समस्या को हल करने के लिए, विदेशों पर निर्भरता समाप्त करने कि लिए तथा देश को सुरक्षा की दृष्टि से मजबूत बनाने के लिए एक उपयुक्त एवं स्पष्ट औद्योगिक नीति की आवश्यकता होती है.
वे क्षेत्र जहाँ व्यक्तिगत उद्यमी पहुँचने में समर्थ नहीं हैं, सार्वजनिक क्षेत्र में रखे जाएँ और सरकार उनका उत्तरदायित्व अपने ऊपर ले. साथ ही यह भी आवश्यक है कि निजी क्षेत्र का उचित नियन्त्रण भी होना चाहिए जिससे कि विकास योजनाएँ ठीक प्रकार से चलती रहे.
मध्यम और बड़े पैमाने के औद्योगिक और सेवा क्षेत्रों की तुलना में एमएसएमई क्षेत्र अपेक्षाकृत कम अनुकूल रूप से ऋण उपलब्धता और कार्यशील पूंजी की ऋण लागत के मामले में स्थित है. भारत अभी भी परिवहन उपकरण, मशीनरी (इलेक्ट्रिकल और गैर-इलेक्ट्रिकल), रसायन और उर्वरक, प्लास्टिक सामग्री आदि के लिए विदेशी आयात पर निर्भर है. औद्योगिक स्थान लागत प्रभावी बिंदुओं के संदर्भ के बिना स्थापित किए गए थे और अक्सर राजनीति से प्रेरित होते हैं. निजी क्षेत्र के उदारीकरण के 30 साल बाद भी सरकार टैरिफ दीवारें खड़ी करते हुए फिर से सब्सिडी और लाइसेंस दे रही है.
लालफीताशाही और तनावपूर्ण श्रम-प्रबंधन संबंधों की विशेषता वाले अप्रभावी नीति कार्यान्वयन के कारण इनमें से अधिकांश सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यम घाटे में चल रहे हैं. वर्तमान में पीएलआई के तहत चुने गए कई उद्योग अत्यधिक पूंजीगत और कौशल गहन हैं. हमारे भारी संख्या में अकुशल श्रमिकों के लिए रोजगार सृजन के लक्ष्य पर विचार किया जाना चाहिए और अनावश्यक सब्सिडी से बचना चाहिए. हमें गैर-निष्पादित फर्मों के साथ सख्त होना होगा. जरूरत पड़ने पर हम उनसे समर्थन वापस ले सकते हैं. इसके लिए अतिरिक्त प्रयासों की आवश्यकता है जो भारत में नौकरशाही की पारंपरिक संस्कृति से परे जाते हैं.
उत्पादकता में सुधार के लिए अनुसंधान और विकास को प्रोत्साहित करने, विस्तार सेवाओं, व्यावसायिक प्रशिक्षण, विनियमों और बुनियादी ढांचे में सुधार की आवश्यकता है. छोटी और मध्यम आकार की फर्मों की सहायता के लिए इन नीतियों को स्थानीय विकेंद्रीकृत संदर्भों में अनुकूलित करने की आवश्यकता है. रोजगार सृजन के लिए. उदा. नवीकरणीय ऊर्जा उत्पादन और भंडारण, बायोप्लास्टिक्स, ड्रिप सिंचाई और वर्षा संचयन की तकनीकें, समुद्र की दीवारों का सुदृढीकरण, हरित ऊर्जा से चलने वाले तिपहिया सार्वजनिक परिवहन आदि. औद्योगिक नीति में ऐसे उद्योग का निर्माण शामिल होना चाहिए जो नवाचार, प्रौद्योगिकी, वित्तीय रूप से व्यवहार्य और पर्यावरण के अनुकूल हो और जिसका लाभ समाज के सभी वर्गों द्वारा साझा किया गया हो.
औद्योगिकीकरण से अर्थव्यवस्था सन्तुलित होगी तथा कृषि की अनिश्चितता कम हो जायेगी. रोज़गार में वृद्धि, औद्योगिकीकरण के फलस्वरूप नए-नए उद्योगों का निर्माण होगा और देश के लाखों बेरोज़गारों को इन उद्योगों में काम मिलने लगेगा इससे बेरोज़गारी कम होगी.
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भारत का प्रभावशाली सांस्कृतिक संगठन है। उसके विचार एवं गतिविधियों से समाज का मानस बनता और बदलता है। इसलिए अकसर विभिन्न विषयों को लेकर चर्चा चलती है कि उन विषयों पर संघ का विचार क्या है? कई बार ऐसा भी होता है कि भारतीयता विरोधी और विदेशी विचार से अनुप्राणित समूह भी राष्ट्रीय प्रतीक और संघ के संदर्भ में मिथ्याप्रचार कर देते हैं। दोनों ही कारणों से बौद्धिक जगत से लेकर आम समाज में भी संघ के दृष्टिकोण को जानने की उत्सुकता रहती है। भारतीय संविधान भी ऐसा ही विषय है, जिस पर संघ के विचार सब जानना चाहते हैं। दरअसल, भारत विरोधी ताकतों ने अपने समय में यह मिथ्या प्रचार जमकर किया है कि आरएसएस संविधान विरोधी है? वह वर्तमान संविधान को खत्म करके नया संविधान लागू करना चाहता है। मजेदार बात यह है कि गोएबल्स की अवधारणा में विश्वास रखने वाले गिरोहों ने इस तरह के झूठ की बाकायदा एक पुस्तिका भी तैयार करा ली, जिस पर वर्तमान सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत का चित्र एवं नाम प्रकाशित किया गया और लिखा गया था- नया भारतीय संविधान। संघ की ओर से इस दुष्प्रचार के विरुद्ध पुलिस में शिकायत दर्ज करा दी गई, उसके बाद से यह मिथ्या प्रचार काफी हद तक रुक गया। और भी अनेक प्रकार के भ्रम खड़े करने के प्रयास संघ विरोधी एवं भारत विरोधी ताकतों की ओर से किए गए हैं लेकिन बिना पैर के झूठ संघ की प्रामाणिक एवं देशभक्त छवि के कारण समाज में टिकते ही नहीं हैं।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की अब तक की यात्रा देखकर यह कहने में कोई संकोच नहीं कि यह संगठन राष्ट्रभक्ति का पर्याय है। अपने राष्ट्र और राष्ट्रीय प्रतीकों के प्रति संघ की पूर्ण निष्ठा एवं सम्मान है। संविधान के संदर्भ में ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के शीर्ष पदाधिकारी अनेक बार सद्भावना प्रकट कर चुके हैं। वर्तमान सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत ने तो 19 जनवरी, 2020 को बरेली के रुहेलखंड विश्वविद्यालय में ‘भविष्य का भारत: राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का दृष्टिकोण’ विषय पर अपने व्याख्यान में स्पष्ट कहा है- “संघ का कोई एजेंडा नहीं है, वह भारत के संविधान को मानता है। हम शक्ति का कोई दूसरा केंद्र नहीं चाहते। संविधान के अलावा कोई शक्ति केंद्र होगा, तो हम उसका विरोध करेंगे”। यानी संघ न केवल संविधान में पूर्ण विश्वास करता है अपितु उसके मुकाबले अन्य किसी व्यवस्था के खड़ा होने का विरोधी है। इससे अधिक स्पष्ट और मत क्या हो सकता है? इसी तरह वर्ष 2018 में 17 से 19 सितंबर तक इसी शीर्षक से आयोजित व्याख्यानमाला में उन्होंने कहा कि “हमारे प्रजातांत्रिक देश में, हमने एक संविधान को स्वीकार किया है। वह संविधान हमारे लोगों ने तैयार किया है। हमारा संविधान, हमारे देश की चेतना है। इसलिए उस संविधान के अनुशासन का पालन करना, यह सबका कर्तव्य है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ इसको पहले से मानता है”। संघ के इतिहास में यह पहली व्याख्यानमाला थी, जिसमें सभी प्रकार की विचारधाराओं के प्रमुख लोगों को आमंत्रित किया गया था और उनके समक्ष संघ के सर्वोच्च अधिकारी ने अपना दृष्टिकोण रखा था। सरसंघचालक डॉ. भागवत न केवल यह बता रहे हैं कि संविधान के अनुशासन का पालन संघ पहले से करता आया है अपितु वे अन्य से भी आग्रह कर रहे हैं कि संविधान का पालन करना सभी अपना कर्तव्य समझें। नागरिक अपने संविधान के मर्म को जानें, इसके लिए सरसंघचालक आग्रह करते हैं कि हमें अपने बच्चों को जीवन के प्रारंभिक चरण में ही संविधान पढ़ाना चाहिए। (हिन्दी मासिक पत्रिका -विवेक के साथ साक्षात्कार– 9 अक्टूबर, 2020)
संविधान के प्रति नागरिक बोध बढ़े इसके लिए सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत का आग्रह इतना अधिक है कि दिल्ली में आयोजित व्याख्यानमाला ‘भविष्य का भारत’ में दूसरे दिन अपने उद्बोधन के दौरान वे संविधान की प्रस्तावना को पूरा पढ़कर सुनाते हैं और फिर उस पर चर्चा करते हैं। बहरहाल, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जिस विचार को लेकर 1925 से अब तक चला है, वही विचार संविधान के केंद्र में है- राष्ट्रीय एकात्मता। समाज में बंधुत्व, राष्ट्रीय एकता एवं अखण्डता की भावना बढ़े, यही संविधान की उद्देशिका में है और यही संघ का उद्घोष है। यह बात हम सब भी जानते हैं और संघ भी मानता है कि भारत की संस्कृति हम सबको जोड़ती है। इसलिए संघ भारतीय सांस्कृतिक मूल्यों की समाज में स्थापना के प्रयत्न करता है। भारतीय मूल्यों का अनुपालन जितना अधिक बढ़ेगा, संविधान का उद्देश्य उतना ही अधिक पूर्णता की ओर बढ़ेगा। इस संदर्भ में 9 जून, 2016 को नागपुर में आयोजित संघ शिक्षा वर्ग तृतीय वर्ष के समापन समारोह में डॉ. मोहन भागवत के संबोधन की इस बात को याद रखना चाहिए- “इस देश की संस्कृति हम सब को जोड़ती है, यह प्राकृतिक सत्य है। हमारे संविधान में भी इस भावनात्मक एकता पर बल दिया गया है। हमारी मानसिकता इन्हीं मूल्यों से ओतप्रोत है”। सरसंघचालक डॉ. भागवत यह भी याद दिलाते हैं कि हमने केवल राजनीतिक एवं आर्थिक समता प्राप्त करने के लिए संविधान का निर्माण नहीं किया। अपितु हमने 26 जनवरी, 1949 को अपने संविधान को इसलिए स्वयं को आत्मार्पित किया ताकि समाज में राजनीतिक और आर्थिक समता के साथ सामाजिक समता भी आए। इसलिए हमें संविधान के पूर्ण लक्ष्य की ओर बढ़ना चाहिए। इस हेतु संविधान निर्माता डॉ. बाबासाहब अंबेडकर की चेतावनी का स्मरण कराते हुए 5 अक्टूबर, 2022 को विजयादशमी के उत्सव में सरसंघचालक डॉ. भागवत ने कहा है- “संविधान के कारण राजनीतिक तथा आर्थिक समता का पथ प्रशस्त हो गया, परन्तु सामाजिक समता को लाये बिना वास्तविक एवं टिकाऊ परिवर्तन नहीं आयेगा, ऐसी चेतावनी पूज्य डॉ. बाबासाहब अंबेडकर जी ने हम सबको दी थी”।
हमारा लक्ष्य क्या है, हम उस ओर कैसे आगे बढ़ सकते हैं, देश की नीतियां क्या होनी चाहिए? इन सब बातों को लेकर स्पष्टता प्राप्त करने के लिए भी सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत ने संविधान के आश्रय में जाने का सुझाव देते हैं। नागपुर में होने वाले विजयादशमी के उत्सव में 3 अक्टूबर, 2014 को अपने संबोधन में उन्होंने कहा है- “ऐसी नीतियां चलाकर, देश के जिस स्वरूप के निर्माण की आकांक्षा अपने संविधान ने दिग्दर्शित की है, उस ओर देश को बढ़ाने का काम करना होगा”। अकसर शासन-प्रशासन के किसी निर्णय या समाज में घटने वाली किसी घटना पर हम उतावलेपन में अपनी प्रतिक्रिया देते हैं। कई बार ऐसा होता है कि उस प्रतिक्रिया से सामाजिक ताने-बाने पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। विरोध या आक्रोश व्यक्त करते समय राष्ट्रीय एकात्मता, पंथ, प्रांत, भाषा आदि विविधताओं का सम्मान बना रहे इसके लिए वे आग्रह करते हैं कि प्रतिक्रिया संविधान की मर्यादा के दायरे में रहे। इसके साथ ही 25 अक्टूबर, 2020 को विजयादशमी के अपने संबोधन में सरसंघचालक डॉ. भागवत ने संविधान का खोल ओढ़ने वाले सियारों से भी सावधान किया है। वे कहते हैं- “दुर्भाग्य से अपने देश में इन बातों (राष्ट्रीय एकात्मता, पंथ, प्रांत, जाति, भाषा आदि विविधताओं) पर प्रामाणिक निष्ठा न रखने वाले अथवा इन मूल्यों का विरोध करने वाले लोग भी, अपने आप को प्रजातंत्र, संविधान, कानून, पंथनिरपेक्षता आदि मूल्यों के सबसे बड़े रखवाले बताकर, समाज को भ्रमित करने का कार्य करते चले आ रहे हैं। 25 नवम्बर, 1949 के संविधान सभा में दिये अपने भाषण में श्रद्धेय डॉ. बाबासाहब आंबेडकर ने उनके ऐसे तरीकों को ‘अराजकता का व्याकरण’ कहा था। ऐसे छद्मवेषी उपद्रव करने वालों को पहचानना एवं उनके षड्यंत्रों को नाकाम करना तथा भ्रमवश उनका साथ देने से बचना समाज को सीखना पड़ेगा”। संविधान को बचाने के लिए समाज में यह जागरूकता आवश्यक है कि वास्तव में संविधान एवं लोकतंत्र का विरोधी कौन है? वे कौन&से समूह हैं, जो भारत के विचार में आस्था न रखकर देश के बाहर से प्रेरणा पाते हैं? स्मरण रखें, जिनकी जड़ें भारत में हैं और जो भारतीय संस्कृति से ही प्रेरणा पाते हैं, वे भारत के सभी राष्ट्रीय प्रतीकों के प्रति स्वाभाविक ही पूर्ण निष्ठा एवं श्रद्धा रखते हैं।
-लोकेन्द्र सिंह
(लेखक माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय में सहायक प्राध्यापक हैं।)
ब्रिटेन में ऋषि सुनक के प्रधानमंत्री बनने पर भारत में बधाइयों का तांता लगना चाहिए था लेकिन अफसोस है कि हमारे नेताओं के बीच फूहड़ बहस चल पड़ी है। कांग्रेस के दो प्रमुख नेता, जो काफी पढ़े-लिखे और समझदार हैं, उन्होंने बयान दे मारा कि सुनक जैसे ‘अल्पसंख्यक’ को यदि ब्रिटेन-जैसा कट्टरपंथी देश अपना प्रधानमंत्री बना सकता है तो भारत किसी अल्पसंख्यक को अपना नेता क्यों नहीं बना पाया? यह बहस चलाने वाले क्यों नहीं समझते कि भारत तो ब्रिटेन के मुकाबले कहीं अधिक उदार राष्ट्र है। इसमें सर्वधर्म, सर्वभाषा, सर्ववर्ग, सर्वजाति समभाव की धारणा ही इसके संविधान का मूल है।
उनके उक्त बयान का असली आशय क्या है? उसका असली हमला भाजपा पर है। भाजपा की हिंदुत्व की अवधारणा ने कांग्रेसियों के होश उड़ा रखे हैं। हर चुनाव के बाद उनकी पार्टी सिकुड़ती जा रही है। कांग्रेस ने कई बार हिंदुत्व का पासा फेंका और दांव मारा लेकिन उसका पासा कभी सीधा पड़ा ही नहीं। अयोध्या में राजीव गांधी द्वारा राम-मंदिर का दरवाजा खुलवाना और राहुल का मंदिर-मंदिर भटकना अभी तक किसी काम नहीं आया तो अब कांग्रेस के नेताओं ने भाजपा को रगड़ा देने के लिए ऋषि सुनक को अपना औजार बना लिया है। लेकिन वे भूल गए कि ब्रिटेन के मुकाबले भारत कहीं अधिक सहिष्णु रहा है।
जब कांग्रेसी ‘अल्पसंख्यक’ शब्द का प्रयोग करते हैं तो उनका अर्थ सिर्फ मुसलमान ही होता है। भारत में डॉ. जाकिर हुसैन, फखरुद्दीन अली अहमद और डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम राष्ट्रपति बने। क्या ये तीनों महानुभाव मुसलमान नहीं थे? भारत के कई अत्यंत योग्य मुसलमान सज्जन उप-राष्ट्रपति, मुख्य न्यायाधीश, राज्यपाल, मुख्यमंत्री, सेनापति आदि रह चुके हैं। ब्रिटेन हमें क्या सिखाएगा? अभी उदारता में तो वह पहली बार घुटनों के बल चला है। सुनक को प्रधानमंत्री तो उसने मजबूरी में बनाया है। छह साल में पांच प्रधानमंत्री उलट गए, तब जाकर सुनक को स्वीकार किया गया है।
वे प्रधानमंत्री इसलिए नहीं बनाए गए हैं, क्योंकि वे अश्वेत हैं, हिंदू हैं या वे ब्रिटिशतेर मूल के हैं। वे ही कंजर्वेटिव पार्टी के अंतिम तारणहार दिखाई पड़ रहे थे। वे ‘अल्पसंख्यक’ होने के कारण नहीं, अपनी योग्यता के कारण प्रधानमंत्री बने हैं। भारत तो एक इतालवी और कैथोलिक महिला (सोनिया गांधी) को भी सहर्ष प्रधानमंत्री मानने को तैयार था लेकिन वह स्वयं त्यागमूर्ति सिद्ध हुईं और उन्होंने एक सिख को, जो कि अत्यंत योग्य, अनुभवी और शिष्ट व्यक्ति थे याने डॉ. मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री पद सौंप दिया।
क्या भारत के सिख बहुसंख्यक हैं? ऋषि सुनक का प्रधानमंत्री बनना अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक की श्रेणी से बाहर का प्रपंच है। उन्हें संख्या के आधार पर नहीं, उनकी योग्यता के आधार पर यह पद मिला है। 2025 के अगले चुनाव में यदि वे चुने गए और प्रधानमंत्री बन गए तो क्या वे अल्पसंख्यकों के वोट से बन जाएंगे? ब्रिटेन के लगभग 7 करोड़ लोगों में से भारतीय मूल के मुश्किल से 15 लाख लोग हैं। क्या इन ढाई प्रतिशत लोगों के वोट पर कोई 10, डाउनिंग स्ट्रीट में जाकर बैठ सकता है? तो फिर इस फूहड़ बहस की तुक क्या है?
-डॉ. वेदप्रताप वैदिक
भारतीय मूल के ऋषि सुनक एक नया इतिहास रचते हुए ब्रिटेन के नए प्रधानमंत्री की शपथ ले चुके हैं। उन्होंने पेनी मोरडॉन्ट को मात देते हुए जीत हासिल की है। कंजरवेटिव पार्टी का नेतृत्व करने की रेस ऋषि सुनक जीत चुके हैं। पार्टी ने उन्हें अपना नया नेता चुन लिया है। यह पहली बार हुआ है जब कोई भारतीय मूल का व्यक्ति ब्रिटेन का प्रधानमंत्री बना है। हालांकि इससे ब्रिटेन पर छाए राजनीतिक और आर्थिक संकट के बादल कितने कम होंगे, यह भविष्य के गर्भ में है। लेकिन सुनक के बहाने यदि ब्रिटेन आर्थिक संकट से उबरने में सक्षम हो सका तो यह न केवल सुनक के लिये बल्कि भारत के लिये गर्व का विषय होगा। भले ही सुनक के सामने कई मुश्किल चुनौतियां और सवाल हैं, लेकिन उन्हें एक सूरज बनकर उन जटिल हालातों से ब्रिटेन को बाहर निकालना है।
भारत में सुनक की जीत पर काफी खुशी मनाई जा रही है, यह दीपावली का विलक्षण एवं सुखद तोहफा इसलिये है कि भारत पर दो सौ वर्षों तक राज करने वाले ब्रिटेन पर अब भारतवंशी का राज होगा। सुनक के रूप में उस ब्रिटेन को भारतीय मूल का पहला प्रधानमंत्री मिलने से निश्चित ही भारत का गौरव दुनिया में बढ़ा है। 42 साल के सुनक आधुनिक दौर में ब्रिटेन के सबसे कम उम्र के प्रधानमंत्री हैं। किंग चार्ल्स तृतीय के ऑफिस ने उनके नाम पर मुहर लगा दी है। सुनक का ब्रिटेन का प्रधानमंत्री बनना इस मायने में भी बेहद अहम बात है कि ब्रिटेन में भारतीय मूल के लोग अल्पसंख्यक हैं। उनकी आबादी कम है। इसके बावजूद सुनक को ब्रिटेन में प्रधानमंत्री बनने का मौका मिल गया है। एक और खास बात यह है कि सुनक को ऐसी पार्टी ने अपना नेता चुना है, जो रूढ़िवादी विचारों के लिए जानी जाती है। प्रवासी लोगों के लिए कंजर्वेटिव पार्टी का रुख उदार नहीं रहा है। दुनिया में बढ़ रही कट्टरता और अल्पसंख्यकों को निशाना बनाए जाने की बढ़ती हरकतों के बीच ब्रिटेन और वहां की कंजर्वेटिव पार्टी ने जो फैसला किया है, वह दुनिया को एक नई राह दिखाएगा, यह उम्मीद की जानी चाहिए। यह दुनिया की बदलती सोच का भी परिचायक है, वहीं दुनिया में भारत की सर्व-स्वीकार्यता का भी द्योतक है।
ब्रिटेन गहरे आर्थिक संकट की ओर बढ़ता दिख रहा है। महंगाई 40 साल के उच्चतम स्तर पर है। बैंक ऑफ इंग्लैंड का अनुमान है कि इस साल इंफ्लेशन 11 प्रतिशत के ऊपर जा सकती है। ऋषि सुनक इससे पहले बोरिस जॉनसन सरकार में वित्त मंत्री रह चुके हैं। उनके मंत्री रहते ब्रिटेन में महंगाई 40 साल के उच्चतम स्तर पर पहुंच गई थी। टैक्स भी बढ़ाए गए थे। जॉनसन मंत्रिमंडल से इस्तीफा देते हुए सुनक ने लिखा था कि कम टैक्स रेट और ऊंची ग्रोथ रेट वाली इकॉनमी तभी बनाई जा सकती है, जब ‘हम कड़ी मेहनत करने, कुर्बानियां देने और कड़े फैसले करने को तैयार हों। मेरा मानना है कि जनता सच सुनने को तैयार है। आम-जनता को यह बताया जाना चाहिए कि बेहतरी का रास्ता है, लेकिन यह आसान नहीं है।‘ सुनक ने तब जिस कड़ी मेहनत की बात की थी, वह अब उन्हें खुद करके दिखानी होगी। उनके पास जीये गये राजनीतिक कड़वे अनुभव हैं। उन अनुभवों से यदि वे ब्रिटेन की अर्थ-व्यवस्था को उबार सके तो यह समूची दुनिया के लिये एक रोशनी होगी।
निश्चित ही सुनक ने एक कांटों भरा ताज पहना है। ब्रिटेन की आर्थिक स्थिति बेहद चुनौतीपूर्ण है। इन असाधारण चुनौतियों से पार पाना सुनक की सबसे बड़ी अग्नि-परीक्षा है। ब्रिटेन की अर्थव्यवस्था के आपूर्ति पक्ष में कमजोरी अब एक तत्काल चिंता का विषय है। जबकि उत्पादन इसकी पूर्व-कोविड प्रवृत्ति से 2.6 प्रतिशत से कम है। ऐसे में सकल घरेलू उत्पाद को अतिरिक्त 1.4 प्रतिशत की दर से बढ़ाना होगा। अर्थव्यवस्था के सामने व्यापार की शर्तें भी बड़ी चुनौती है। आने वाले दिनों में इससे घरेलू और कॉर्पोरेट दोनों क्षेत्रों पर असर पड़ेगा। आर्थिक रूप से कमजोर लोग इससे और परेशान हो सकते हैं। प्रमुख नीतिगत सवाल यह है कि इस नुकसान को कैसे आवंटित किया जाए। मांग गिरने से निकट भविष्य में बेरोजगारी बढ़ने की आशंका है। भविष्य में बढ़ने वाली बेरोजगारी पर काबू पाना एवं बढ़ती महंगाई को नियंत्रित करना भी आसान नहीं है। अध्ययन के मुताबिक, 2023 तक महंगाई उच्च स्तर पर पहुंच सकती है, जिससे निपटना चुनौतीपूर्ण होगा। एक तरफ खुदरा महंगाई दर दोहरे अंकों में होने से जीवनयापन का संकट है। दूसरी ओर रुकी हुई आर्थिक वृद्धि की समस्या है, जो बदले में कम राजस्व और उच्च ऋण की ओर ले जाती है। अब अगर सरकार मुद्रास्फीति को नियंत्रित करने के लिए खर्च पर अंकुश लगाती है, तो यह आर्थिक विकास को और नीचे ले जाएगी। आईएफएस की रिपोर्ट कहती है कि यह किसी भी ब्रिटिश नीति निर्माता के लिए सबसे अधिक चिंताजनक है।
इन आर्थिक चुनौतियों के साथ-साथ ऋषि सुनक के सामने सबसे पहली राजनीतिक चुनौती तो यही है कि उन्हें साबित करना है कि वह पार्टी को नियंत्रित कर सकते हैं। कंजरवेटिव पार्टी के पास संसद में बहुमत है लेकिन वह ब्रेग्जिट समेत तमाम मुद्दों पर बंटी हुई है। ऐसे में पार्टी को एक करना भी एक चुनौती है। आने वाले दिनों में पार्टी के ही कुछ लोगों द्वारा हाई टैक्स का विरोध किया जा सकता है। लोग स्वास्थ्य और रक्षा जैसे क्षेत्रों के खर्च में कटौती का भी विरोध कर सकते हैं। सुनक को ऐसे स्वरों को भी संभालना होगा, संतुलित राजनीति का नया अध्याय लिखते हुए ब्रिटेन पर छाये निराशा के बादल का छांटना होगा। गहन समस्याओं एवं निराशाओं के बीच प्रधानमंत्री का ताज धारण करके सुनक ने साहस एवं हौसलों का परिचय दिया है। एक कर्मयोद्धा की भांति इन सब समस्याओं को सुलझाने के लिये अभिनव उपक्रम करने होंगे।
ऋषि सुनक स्वयं को भारतीय एवं हिंदू कहकर गर्व महसूस करते हैं और अपनी धार्मिक पहचान को लेकर वह काफी मुखर रहते हैं। वह नियमित रूप से मंदिर जाते हैं और उनकी बेटियों, अनुष्का और कृष्णा की जड़ें भी भारतीय संस्कृति से जुड़ी हैं। सुनक जब सांसद बने थे तब उन्होंने भगवत गीता की शपथ ली थी। एक रैली में सुनक ने कहा था कि भले ही वह एक ब्रिटिश नागरिक हैं, उन्हें अपने ‘हिंदू होने पर गर्व’ है। कैलिफोर्निया की स्टैनफोर्ड यूनिवर्सिटी में एमबीए की पढ़ाई के दौरान सुनक की मुलाकात उनकी फैशन डिजाइनर अक्षता मूर्ति से हुई थी। अगस्त 2009 में अक्षता और ऋषि शादी के बंधन में बंध गए। अक्षता इंफोसिस के को-फाउंडर और भारत के सबसे अमीर लोगों की सूची में शामिल नारायण मूर्ति की बेटी हैं। सुनक कई बार इसका जिक्र कर चुके हैं कि उन्हें अपने सास और ससुर पर बेहद गर्व है।
ऋषि सुनक को हाउस ऑफ कॉमन्स में सबसे अमीर शख्स कहा जाता है जिनकी कुल संपत्ति 730 मिलियन पाउंड है। कुछ रिपोर्ट्स तो यहां तक दावा करती हैं उनकी पत्नी ब्रिटेन के सम्राट से भी ज्यादा अमीर हैं। माना जाता है कि दंपति की कुल संपत्ति का एक बड़ा हिस्सा इंफोसिस की हिस्सेदारी से आता है। हालांकि 2015 में राजनीति में कदम रखने से पहले फाइनेंस के क्षेत्र में सुनक का एक सफल करियर रहा है। दंपति के पास लंदन, कैलिफोर्निया, सैंटा मोनिका और यॉर्कशायर में कई घर हैं। अक्सर सुनक और अक्षता मूर्ति अपनी संपत्ति को लेकर सुर्खियां बटोर चुके हैं।
साल 2015 में यॉर्कशायर की रिचमंड सीट जीतकर टोरी नेता ऋषि सुनक का राजनीतिक सफर शुरू हुआ। फरवरी 2020 में साजिद जाविद के इस्तीफे के बाद सुनक चांसलर ऑफ एक्सचेकर के पद पर पहुंच गए। सुनक के कम अनुभव को लेकर कुछ लोगों को उन पर संदेह था लेकिन कोविड महामारी के दौरान आर्थिक मोर्चे को सफलतापूर्वक संभालकर उन्होंने अपने आलोचकों को गलत साबित कर दिया। कुछ महीनों पहले तक सुनक बोरिस जॉनसन कैबिनेट में वित्तमंत्री थे लेकिन उनके इस्तीफे ने ब्रिटेन में एक राजनीतिक परिवर्तन की नींव रखी। आज टैक्स-कटौती के लुभावने वादों के बजाय महंगाई को कम करने और अर्थव्यवस्था को बेहतर स्थिति में लाने की अपनी रणनीति की बदौलत ऋषि सुनक ब्रिटेन के प्रधानमंत्री बनने जा रहे हैं।
आधुनिक उदारवादी लोकतंत्र में परंपरावादी राजनीतिक दलों के अंतर्द्वंद्व कितने चुनौतीपूर्ण हो सकते हैं, इसका सर्वश्रेष्ठ उदाहरण ब्रिटेन है। डेढ़ महीना पहले ब्रिटेन की प्रधानमंत्री बनीं लिज ट्रस ने आर्थिक अस्थिरता के दौर में देश की अपेक्षाओं पर खरा न उतर पाने की आशंका जाहिर करते हुए अपने पद से इस्तीफा दे दिया। पिछले कुछ वर्षों में ब्रिटिश राजनीति आप्रवासन और महंगाई जैसे मुद्दों पर अनिर्णय की स्थिति में रही है, जिसके चलते देश की अर्थव्यवस्था कमजोर हुई है और राजनीतिक अस्थिरता बढ़ी है। 2019 में तत्कालीन प्रधानमंत्री टेरीजा मे ने ब्रेक्जिट को लेकर यूरोपीय संघ के साथ समझौते को संसद से पास न करा पाने की वजह से इस्तीफा दिया था। फिर बोरिस जानसन प्रधानमंत्री बने थे। उसके बाद कोरोना और रूस-यूक्रेन युद्ध से उपजी समस्याओं का सामना ब्रिटेन की जनता को करना पड़ा। उनकी नीतियों को लेकर कंजर्वेटिव पार्टी में ही सवाल खड़े हुए और अंततः उन्हें इस वर्ष जुलाई में पद से हटना पड़ा। उनके बाद कंजर्वेटिव पार्टी ने लिज ट्रस को अपना नेता चुना, जिनकी प्राथमिकता राष्ट्रीय स्वास्थ्य योजना, आप्रवासन और महंगाई को लेकर देश में बनी ऊहापोह की स्थिति को दूर करना था। राष्ट्रीय स्वास्थ्य योजना के अंतर्गत छियासठ लाख से ज्यादा लोग आते हैं, लेकिन उनका मुफ्त इलाज सुनिश्चित नहीं हो रहा है और इससे लोग नाराज हैं। देश में सरकारी कर बढ़ाने की आशंकाओं के बाद सत्तारुढ़ कंजर्वेटिव पार्टी का विरोध बढ़ा है। इसका एक प्रमुख कारण कंजर्वेटिव पार्टी के भीतर आपसी विवाद भी रहे हैं, जो राजनीतिक अदूरदर्शिता के रूप में सामने आते हैं।
वैश्विक सहयोग और विविधता को स्वीकार न कर पाने के चलते उदारवादी लोकतंत्र ब्रिटेन, गहरे संकट में फंसता दिखाई दे रहा है। कंजर्वेटिव पार्टी की वैश्विक बदलावों के साथ सामंजस्य बिठा पाने में नाकामी देश में राजनीतिक अस्थिरता के रूप में सामने आयी और मंदी से परेशान ब्रिटिश जनता देश में मध्यावधि चुनाव भी नहीं चाहती, लेकिन सत्तारुढ़ कंजर्वेटिव पार्टी के अंतर्द्वंद्व से देश की समस्याओं में इजाफा ही हो रहा है। इन समस्याओं के बीच सुनक एक रोशनी के रूप में उभरे हैं, देखना है कि उनका शासन काल ब्रिटेन को नयी शक्ति, नया वातायन दे पाता है या नहीं? 200 साल तक भारत पर राज करने वाले अंग्रेजों के मुल्क को अब एक भारतवंशी किस रूप में चला पायेगा?
-ललित गर्ग
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तम्भकार हैं)
इस पृथ्वी पर रहने वाले मानवों की भलाई के लिए खाद्य पदार्थों के अपव्यय एवं नुकसान को रोका जाना आज की बड़ी आवश्यकता बन गया है। पूरे विश्व में ही आज खाद्य पदार्थों की बर्बादी बड़े स्तर पर हो रही है। इससे नागरिकों की खाद्य सुरक्षा पर भी एक गम्भीर प्रश्न चिह्न लग गया है। यूनाइटेड नेशन्स के पर्यावरण कार्यक्रम के एक अनुमान के अनुसार पूरे विश्व में 14 प्रतिशत खाद्य पदार्थों का नुकसान खाद्य पदार्थों को उत्पत्ति स्थल से खुदरा बिक्री स्थल तक पहुंचाने में हो जाता है। इसके अलावा, अन्य 17 प्रतिशत खाद्य पदार्थों का नुकसान इन्हें खुदरा बिक्री स्थल से उपभोक्ता के स्थल तक पहुंचाने में हो जाता है। खाद्य पदार्थों के इतने बड़े नुकसान का वातावरण में उत्सर्जित हो रही कुल गैसों में 8 से 10 प्रतिशत तक का योगदान रहता है। आज खाद्य पदार्थों में इस भारी मात्रा में हो रहे नुकसान का असर पूरे विश्व में रह रहे मानवों को खाद्य पदार्थ उपलब्ध कराने पर बहुत विपरीत रूप से पड़ रहा है एवं खाद्य पदार्थों की उपलब्धता में लगातार हो रही कमी के चलते ही विश्व के सभी देशों में मुद्रास्फीति की समस्या भी खड़ी हो गई है।
खाद्य पदार्थों के अपव्यय एवं नुकसान की समस्या दिनों दिन बहुत गम्भीर होती जा रही है। यह केवल खाद्य पदार्थों के अपव्यय एवं नुकसान से जुड़ा हुआ विषय नहीं है बल्कि इन पदार्थों के उत्पादन पर खर्च किये जाने वाले समय, पानी, खाद, श्रम, एक स्थान से दूसरे स्थान तक ले जाने हेतु लागत एवं अन्य स्त्रोतों के अपव्यय का गम्भीर विषय भी शामिल है। विभिन्न खाद्य पदार्थों के होने वाले अपव्यय एवं नुकसान में एक स्थान से दूसरे स्थान तक लाने ले जाने में खर्च होने वाले डीजल, पेट्रोल का भी न केवल अपव्यय होता है बल्कि वातावरण में एमिशन गैस को फैलाने में भी इसकी बहुत बड़ी भूमिका रहती है। खाद्य पदार्थों की आपूर्ति करने वाली आपूर्ति चैन एवं इन खाद्य पदार्थों के कुल जीवन चक्र पर भी विपरीत असर पड़ता है। कुल मिलाकर खाद्य पदार्थों के अपव्यय एवं नुकसान से सभी देशों पर ही हर प्रकार से बहुत विपरीत प्रभाव पड़ रहा है।
वर्ष 2014 में किए गए एक अध्ययन प्रतिवेदन के अनुसार खाद्य पदार्थों के अपव्यय एवं नुकसान से देश को भारी आर्थिक हानि भी होती है। इस प्रतिवेदन के अनुसार भारत को वर्ष 2014 में इस मद पर 92,156 करोड़ रुपए का आर्थिक नुकसान हुआ था। न केवल खाद्य सामग्री के उत्पादन तक बल्कि खाद्य सामग्री के उत्पादन के बाद भी भारी नुकसान होते हुए देखा गया है। भारत में इस नुकसान का आकलन वर्ष 1968 से किया जा रहा है एवं इस नुकसान को नियंत्रित करने के प्रयास भी निरंतर किए जा रहे हैं परंतु उचित परिणाम अभी तक दिखाई नहीं दे रहे हैं। विशेष रूप से उत्पादन के बाद के नुकसान को समाप्त करने के लिए आज सम्पूर्ण सप्लाई चैन को ही ठीक करने की जरूरत है। उचित स्तर पर अधोसंरचना के विकसित न होने के चलते भी अक्सर सब्ज़ियों एवं फलों का अधिक नुकसान होते देखा गया है।
140 करोड़ नागरिकों की जनसंख्या वाले भारत जैसे एक विकासशील देश के लिए एक लाख करोड़ रुपए से अधिक की राशि के खाद्य पदार्थों का नुकसान, बहुत भारी नुक्सान है, जो देश की आर्थिक प्रगति को भी सीधे-सीधे ही प्रभावित कर रहा है। एक अनुमान के अनुसार यदि खाद्य पदार्थों के इस नुकसान को रोक दिया जाये तो देश के सकल घरेलू उत्पाद में भी उछाल लाया जा सकता है एवं इससे अंततः नागरिकों की आय में वृद्धि हो सकती है।
खाद्य पदार्थों का अपव्यय एवं नुकसान विभिन्न स्तरों पर होता है। सबसे पहले तो किसान द्वारा विभिन्न प्रकार की फसलों की बुआई के समय से ही खाद्य पदार्थों का अपव्यय एवं नुकसान प्रारम्भ हो जाता है। फिर फसल के पकने के बाद फसल की कटाई करने से लेकर फसल के उत्पाद को मंडी में पहुंचाने तक भी खाद्य पदार्थों का अपव्यय एवं नुकसान होता है। मंडी से खुदरा व्यापारी तक उत्पाद को पहुंचाने पर भी नुकसान होता है। इसके बाद खुदरा व्यापारी से खाद्य पदार्थों को उपभोक्ता तक पहुंचाने में भी नुकसान होता है। हालांकि इस पूरी चैन में कोई भी व्यक्ति खाद्य पदार्थों में नुक्सान होने देना नहीं चाहता है परंतु फिर भी इसे रोक पाने में असमर्थता-सी महसूस की जा रही है।
खाद्य पदार्थों के अपव्यय एवं नुकसान को रोकने हेतु सबसे पहले तो अधोसंरचना को विकसित करने एवं सप्लाई चैन का अर्थपूर्ण उपयोग करने की आज सबसे अधिक आवश्यकता है। कोल्ड स्टोरेज हालांकि बहुत बड़ी मात्रा में स्थापित किए जा रहे हैं परंतु यह अभी भी इनकी लगातार बढ़ रही मांग की पूर्ति करने में सक्षम नहीं हो पा रहे है। दूसरे, कोल्ड स्टोरेज को ग्रामीण इलाकों में भी स्थापित किए जाने की आज आवश्यकता है। नागरिकों को खाद्य पदार्थों के अपव्यय एवं नुकसान से अर्थव्यवस्था को होने वाले नुकसान की जानकारी देकर उनमें इस सम्बंध में पर्याप्त जागरूकता लाने की भी जरूरत है। कोल्ड स्टोरेज की स्थापना के साथ ही इन पदार्थों को एक स्थान से दूसरे स्थान तक लाने ले जाने के लिए अच्छे रेल एवं रोड मार्ग के साथ ही यातायात की पर्याप्त सुविधा उपलब्ध होना भी बहुत जरूरी है। ग्रामीण इलाकों में ही फूड प्रॉसेसिंग इकाईयों की स्थापना भी की जानी चाहिए ताकि खाद्य पदार्थों को एक स्थान से दूसरे स्थान तक लाने ले जाने की आवश्यकता ही नहीं पड़े अथवा कम आवश्यकता पड़े।
कभी कभी आवश्यकता से अधिक पैदावार होने से भी किसानों को कठिनाई का सामना करना पड़ता है। आवश्यकता से अधिक पैदावार हो जाने से इन पदार्थों की कीमतें बाजार में बहुत कम हो जाती हैं जैसे, आलू, टमाटर, प्याज आदि फसलों के बारे में अक्सर देखा गया है। जिसके चलते किसान को बहुत नुकसान होता है और वह इन फसलों को बर्बाद करने में ही अपनी भलाई समझता है। इस प्रकार की समस्याओं को हल करने के लिए केंद्रीय स्तर पर विचार किया जाना चाहिए एवं विभिन्न पदार्थों के उत्पादन की सीमा तय की जा सकती है ताकि देश में किस पदार्थ की जितनी आवश्यकता है उतना ही उत्पादन हो। और, इस प्रकार की फसलों की बर्बादी को रोका जा सके। कब, कैसे, कहां, कितनी मात्रा में किस फसल का उत्पादन देश में किया जाना चाहिए, इस पर गम्भीरता से आज विचार किये जाने की आवश्यकता है। ताकि, विभिन्न पदार्थों के अपव्यय एवं नुक्सान पर अंकुश लगाया जा सके।
खाद पदार्थों के नुकसान का प्रभाव वैश्विक स्तर पर बढ़ रहे उत्सर्जन (गैसों) के बढ़ने के रूप में भी देखा जा रहा है। यदि आवश्यकता के अनुरूप ही खाद्य पदार्थों का उत्पादन होने लगे और खाद्य पदार्थों के नुकसान एवं अपव्यय को पूर्णतः रोक लिया जाये तो देश को होने वाले आर्थिक नुकसान को कम करने के साथ ही वातावरण में उत्सर्जन (गैसों) की मात्रा भी कम की जा सकती है।
-प्रह्लाद सबनानी
सेवानिवृत्त उप महाप्रबंधक
भारतीय स्टेट बैंक
हिमाचल प्रदेश में 68 सदस्यीय विधानसभा के चुनावों की तारीखों को ऐलान के साथ ही चुनावी शंखनाद हो गया है। देखा जाये तो हिमाचल का चुनाव कोरोना काल के बाद पहला चुनाव भी है जिसमें किसी तरह का कोविड प्रोटोकॉल नहीं होगा। हम आपको याद दिला दें कि कोरोना काल में 2020 में बिहार, 2021 में असम, पश्चिम बंगाल, केरल, तमिलनाडु, पुडुचेरी और इस साल की शुरुआत में उत्तर प्रदेश, उत्तराखण्ड, पंजाब, मणिपुर और गोवा में चुनाव कराना आयोग के लिए कड़ी मशक्कत का काम रहा था।
जहां तक हिमाचल के राजनीतिक परिदृश्य की बात है तो हम आपको बता दें कि हिमाचल प्रदेश में वर्तमान में भारतीय जनता पार्टी की सरकार है। हिमाचल प्रदेश के हालिया वर्षों के राजनीतिक इतिहास पर नजर डालें तो यहां जनता एक बार भाजपा और एक बार कांग्रेस को सरकार बनाने का मौका देती रही है। लेकिन भाजपा ने सत्त में लौटने के लिए पूरी जान लगा रखी है। भाजपा का दावा है कि वह उत्तराखण्ड की तरह ही हिमाचल में भी नया चुनावी इतिहास लिखेगी। उल्लेखीनय है कि इस साल हुए उत्तराखण्ड विधानसभा चुनावों में भी भाजपा स्पष्ट बहुमत के साथ सत्ता में लौटी थी। जबकि उत्तराखण्ड की जनता भी इससे पहले एक बार भाजपा और एक बार कांग्रेस को सरकार बनाने का मौका देती रही है।
हिमाचल प्रदेश विधानसभा चुनाव इस मायने में अहम हैं कि आजाद भारत में हिमाचल का यह पहला चुनाव होगा जब कांग्रेस के दिग्गज नेता वीरभद्र सिंह की अनुपस्थिति में यह चुनाव होगा। हिमाचल में इससे पहले सभी चुनावों में वीरभद्र सिंह ने ही कांग्रेस का नेतृत्व किया। उनके निधन के बाद कांग्रेस की प्रदेश इकाई विभिन्न धड़ों में बंटी हुई है। हाल ही में कांग्रेस के प्रदेश कार्यकारी अध्यक्ष समेत कई और नेता भाजपा में शामिल हो चुके हैं। कांग्रेस ने यहां चुनाव प्रचार भी उस दिन शुरू किया जिस दिन चुनाव की तिथियों का ऐलान हुआ जबकि भाजपा यहां दो महीने पहले से रोड शो और जनसभाएं कर रही है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी लगातार यहां के दौरे कर रहे हैं। एक दिन पहले ही उन्होंने राज्य को वंदे भारत एक्स्रपेस ट्रेन देने के साथ ही विभिन्न विकास परियोजनाओं की सौगात दी और दो जिलों में जनसभाओं को भी संबोधित किया। प्रधानमंत्री हाल ही में कुल्लू दशहरा उत्सव में भी शामिल हुए थे। भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा भी लगातार हिमाचल प्रदेश का दौरा कर रहे हैं। कांग्रेस की तरह यहां भाजपा में कोई गुट नजर नहीं आ रहा है। बल्कि पूरी पार्टी एकजुट नजर आ रही है। यहां मुख्यमंत्री उम्मीदवार को लेकर भी कोई उठापटक नहीं दिखाई दे रही है। माना जा रहा है कि निवर्तमान मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर को ही भाजपा दोबारा मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार बना सकती है। केंद्रीय मंत्री अनुराग ठाकुर भी हिमाचल प्रदेश के विभिन्न इलाकों का दौरा कर रहे हैं।
हिमाचल में अब तक मुख्य मुकाबला भाजपा और कांग्रेस के बीच ही होता आया है लेकिन इस बार आम आदमी पार्टी भी मैदान में है। आम आदमी पार्टी अपनी मुफ्त रेवड़ी वाली संस्कृति से हिमाचल के लोगों को भी लुभाने की कोशिश कर रही है इसलिए देखना होगा हिमाचल की जनता इस पार्टी को कितना आशीर्वाद देती है। हिमाचल प्रदेश में विकास जहां मुख्य चुनावी मुद्दा है वहीं पुरानी पेंशन योजना की बहाली की मांग भी तेजी पकड़ रही है। केंद्र की मोदी सरकार ने हाल ही में हिमाचल में हाटी समुदाय को जनजाति का दर्जा दिया था। माना गया था कि सरकार के इस फैसले से सिरमौर जिले की 1.60 लाख से अधिक की आबादी लाभान्वित होगी क्योंकि चार विधानसभा क्षेत्रों- रेणुका, शिलाई, पच्छाद और पांवटा के बड़े भू-भाग पर रहने वाले लोगों को इसका लाभ मिलेगा। वैसे हिमाचल में अभी तक की राजनीतिक स्थिति यही दर्शा रही है कि यहां भाजपा और कांग्रेस के बीच सीधी लड़ाई है। कांग्रेस जिन आंतरिक संकटों से जूझ रही है यदि उसके बीच हिमाचल में वह कुछ कर पाई तो यकीनन उसके लिए उत्साह की बात होगी लेकिन यदि भाजपा अपनी सत्ता बरकरार रखने में सफल रही तो उसका विजय रथ और आगे बढ़ जायेगा।
-नीरज कुमार दुबे
राजस्थान कांग्रेस में चल रहे घटनाक्रम को लेकर कांग्रेस आलाकमान पूरी तरह से सतर्क नजर आ रहा है। कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी राजस्थान पर पूरी नजर रखे हुए हैं। जिस तरह से 25 सितंबर को दिल्ली से आए कांग्रेस के केंद्रीय पर्यवेक्षकों मल्लिकार्जुन खड़गे व अजय माकन के सामने कांग्रेस के विधायकों ने प्रदर्शन किया था। उससे पार्टी में चल रही अंदरूनी फूट उजागर हो गई थी। जयपुर की घटना से कांग्रेस आलाकमान सकते में आ गया था। उस घटना से कांग्रेस पार्टी पूरे देश में एकबारगी तो बैकफुट पर नजर आने लगी थी। इसीलिए कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने राजस्थान गए पार्टी पर्यवेक्षकों से पूरे घटनाक्रम की लिखित में रिपोर्ट ली थी ताकि जरूरत पड़ने पर उसी के मुताबिक कार्यवाही की जा सके।
पर्यवेक्षकों की रिपोर्ट पर ही गहलोत समर्थक तीन नेताओं- शांति धारीवाल, महेश जोशी और धर्मेंद्र राठौड़ को कांग्रेस अनुशासन समिति द्वारा कारण बताओ नोटिस जारी किया गया था। हालांकि अभी कांग्रेस अनुशासन समिति ने कारण बताओ नोटिस की कार्यवाही को ठंडे बस्ते में डाल रखा है। कांग्रेस अनुशासन समिति के सचिव तारीक अनवर द्वारा हाल ही में दिये गये बयान से तो लगता है कि कारण बताओ नोटिस पर शायद ही कोई कार्यवाही हो।
मगर कांग्रेस पर नजर रखने वाले राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि इसे तूफान आने से पहले की शान्ति भी समझा जा सकता है। राजस्थान के घटनाक्रम से कांग्रेस पार्टी का अनुशासन तार-तार हो गया था। कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी इस बात से पूरी तरह वाकिफ हैं कि यदि पार्टी में एक बार अनुशासन भंग हो गया तो वैसी घटनाएं दूसरी जगह भी होने लगेंगी। उनको रोकने के लिए कड़े अनुशासनात्मक कदम उठाए जाने जरूरी हैं ताकि अन्य कहीं ऐसी घटना की पुनरावृत्ति ना हो पाए। इसी बात को लेकर सोनिया गांधी अपने निकट सहयोगियों से भी परामर्श कर चुकी हैं।
राहुल गांधी द्वारा की जा रही भारत जोड़ो यात्रा में शामिल होने के लिए कर्नाटक पहुंचीं सोनिया गांधी राजस्थान के घटनाक्रम पर राहुल गांधी से भी विस्तार से चर्चा कर चुकी हैं। बताया जाता है कि उस दौरान उनके साथ राहुल गांधी के विश्वस्त पार्टी के संगठन महासचिव केसी वेणुगोपाल भी मौजूद थे। इस प्रकरण में वेणुगोपाल की राय भी काफी महत्वपूर्ण होगी। कांग्रेस में राष्ट्रीय अध्यक्ष के निर्वाचन की प्रक्रिया चल रही है। कांग्रेस अध्यक्ष के चुनाव के दौरान सोनिया गांधी किसी भी तरह का महत्वपूर्ण फैसला करने से बच रही हैं। हाल ही में सोनिया गांधी ने उत्तर प्रदेश कांग्रेस कमेटी का अध्यक्ष व क्षेत्रीय अध्यक्षों की नियुक्तियां की थीं जिस पर अध्यक्ष पद का चुनाव लड़ रहे शशि थरूर ने आपत्ति जताकर कांग्रेस के चुनाव अधिकारी मधुसूदन मिस्त्री को चुनावी प्रक्रिया संपन्न होने तक किसी भी प्रकार के नीतिगत फैसले लेने से रोकने की मांग की थी। उस कारण से सोनिया गांधी राजस्थान को लेकर आगे नहीं बढ़ रही हैं।
सोनिया गांधी का मानना है कि कांग्रेस के अगले अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे का बनना तय है। मल्लिकार्जुन खड़गे स्वयं राजस्थान में कांग्रेस के पर्यवेक्षक बन कर गए थे। इस कारण वह व्यक्तिगत रूप से पूरे घटनाक्रम से वाफिक हैं। ऐसे में राजस्थान पर जो भी फैसला हो वह मल्लिकार्जुन खड़गे के माध्यम से ही करवाया जाए। ताकि उनके ऊपर समानांतर रूप से काम करने का आरोप नहीं लग सके। राजस्थान में गहलोत समर्थक कई मंत्रियों ने राजस्थान के प्रभारी राष्ट्रीय महासचिव अजय माकन पर भी सचिन पायलट का पक्ष लेने का आरोप लगाया था। गहलोत समर्थक मंत्री चाहते हैं कि राजस्थान से अजय माकन को हटाकर उनके स्थान पर किसी अन्य वरिष्ठ नेता को राजस्थान का प्रभारी बनाया जाए जो निष्पक्षता से काम करें। लेकिन गहलोत समर्थकों को इस बात को भी नहीं भूलना चाहिए कि 25 सितंबर के घटनाक्रम के दौरान माकन के साथ मल्लिकार्जुन खड़गे भी दो दिन तक जयपुर में विधायकों से मिलने का इंतजार करते रह थे। मगर एक भी गहलोत समर्थक विधायक ने पर्यवेक्षकों से मिलकर अपनी राय व्यक्त नहीं की थी।
इस घटना से मल्लिकार्जुन खड़गे भी काफी क्षुब्ध नजर आए थे। दिल्ली आकर उन्होंने भी कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी को लिखित में इस घटना की विस्तृत जानकारी दी थी।
मल्लिकार्जुन खड़गे कांग्रेस के सबसे वरिष्ठ नेता हैं। पार्टी का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनने के बाद उनकी जिम्मेदारी और अधिक बढ़ जाएगी। उनके नेतृत्व में यदि कोई पार्टी का नेता अनुशासनहीनता करता है तो अनुशासन बनाए रखने की पूरी जिम्मेदारी भी उन्हीं की होगी। राजस्थान में जिस तरह से उनके सामने पार्टी का अनुशासन भंग किया गया वैसी स्थिति फिर कभी ना हो, इसकी व्यवस्था भी उनको ही करनी होगी। यदि अनुशासनहीनता करने वाले किसी भी नेता या पार्टी कार्यकर्ता को दंडित नहीं किया जाता है तो भविष्य में अनुशासन बनाए रखना मुश्किल हो सकता है।
मुख्यमंत्री अशोक गहलोत जिस तरह योजनाबद्ध तरीके से कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष बनने से दूर हो गए थे। वैसे ही वह अपने समर्थक विधायकों को गोलबंद कर आलाकमान से सशर्त मुख्यमंत्री पद छोड़ने की बात कह रहे हैं। गहलोत किसी भी सूरत में सचिन पायलट को मुख्यमंत्री नहीं बनने देना चाहते हैं। पायलट को मुख्यमंत्री बनने से रोकने के लिए गहलोत किसी भी स्तर तक जाकर जोखिम उठाने को तैयार हैं। गहलोत को पता है कि उनके पास 80 से अधिक विधायकों का समर्थन है। ऐसे में आलाकमान उनकी मर्जी के खिलाफ किसी दूसरे को मुख्यमंत्री बनाता है तो पार्टी में विद्रोह की स्थिति उत्पन्न हो सकती है।
कांग्रेस आलाकमान को भी पता है कि यदि गहलोत को मुख्यमंत्री पद से हटाने में जबरदस्ती या किसी तरह की जल्दबाजी की गई तो उसका खामियाजा पार्टी को उठाना पड़ सकता है।
आज राजस्थान में 13 निर्दलीय व पांच अन्य दलों के विधायकों का भी समर्थन गहलोत को मिला हुआ है। इस बार मुख्यमंत्री रहते गहलोत ने अपनी स्थिति इतनी मजबूत कर ली कि उनके समक्ष कांग्रेस में कोई दूसरा नेता खड़ा नहीं हो सकता है। यदि कोई खड़ा होता भी है तो उसकी स्थिति पायलट जैसी बना दी जाती है। गहलोत ने बड़ी ही चतुराई से पायलट को बागी बनाकर पार्टी से बर्खास्त करवा दिया था। अब उन पर गद्दार का ठप्पा लगा दिया है। जबकि गहलोत के इशारे पर उनके समर्थकों द्वारा पार्टी पर्यवेक्षकों से की गई उपेक्षा के प्रकरण को ठंडा करने के लिए गहलोत ने दिल्ली जाकर सोनिया गांधी से सार्वजनिक रूप से क्षमा मांग कर प्रकरण को ठंडे बस्ते में डलवा दिया।
कांग्रेस आलाकमान को राजस्थान में कोई भी कदम उठाने से पहले पूरी तैयारी करनी होगी तथा अपने स्टैंड पर मजबूती से डटे रहना होगा। तभी पार्टी आलाकमान का झंडा बुलंद हो पाएगा। वरना तो इस कार्यकाल में अशोक गहलोत अपने किसी विरोधी नेता को शायद ही सत्ता के नजदीक लगने दें। जयपुर में आयोजित इन्वेस्टर मीट में उद्योगपति गौतम अडानी को बुलाकर गहलोत ने आलाकमान को दिखा दिया है कि राहुल गांधी चाहे अंबानी, अडानी को कितना भी कोसें। उनको किसी से भी कोई परहेज नहीं है। समय आने पर गहलोत किसी की भी मदद लेने से नहीं चूकेंगे। इस समय सचिन पायलट जहां पूरी तरह चुप्पी साधे हुए हैं। वहीं मुख्यमंत्री गहलोत लगातार राजस्थान के विभिन्न स्थानों का दौरा कर लोगों से अगले बजट के लिए सुझाव मांग रहे हैं। गहलोत का कहना है कि प्रदेश का अगला बजट भी मैं ही पेश करूंगा। मुख्य्मंत्री पद को लेकर इसे अशोक गहलोत का अति आत्मविश्वास ही कहा जा सकता है।
-रमेश सर्राफ धमोरा
(लेखक राजस्थान सरकार से मान्यता प्राप्त स्वतंत्र पत्रकार हैं। इनके लेख देश के कई समाचार पत्रों में प्रकाशित होते रहते हैं।)
मुलायम सिंह जी और अटलजी से मेरा 55-60 साल पुराना संबंध रहा है। मेरे पिताजी श्री जगदीशप्रसाद वैदिक अटलजी से भी ज्यादा घनघोर जनसंघी थे। जनसंघ और संघ के सारे अधिकारी इंदौर में मेरे घर को अपना ठिकाना ही समझते थे। लेकिन 1962 में इंदौर के छात्र नेता के तौर पर मैंने डॉ. राममनोहर लोहिया को अपने इंदौर क्रिश्चियन कॉलेज में भाषण के लिए बुलवा लिया। उनके भाषण का प्रभाव मुझ पर इतना गहरा हुआ कि मैं उनके अंग्रेजी हटाओ आंदोलन से जुड़ गया। मैं किसी राजनीतिक दल का कभी सदस्य नहीं बना लेकिन हिंदी आंदोलन में 12 साल की उम्र में ही पहली बार गिरफ्तार हुआ। उधर उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह 15-16 की उम्र में गिरफ्तार हुए। जब हम मिले तो दोनों का संबंध अत्यंत घनिष्ठ हो गया।
अब से लगभग 20 साल पहले 28 फरवरी 2002 की बात है। दिल्ली का हैदराबाद हाउस, जहां प्रधानमंत्री की दावतें होती हैं। अफगानिस्तान के राष्ट्रपति हामिद करजई के सम्मान में दावत थी। करजई के पिता अहद साहब काबुल में मेरे मित्र बन गए थे। जैसे ही अतिथिगण भोज-कक्ष में घुसे, प्रधानमंत्री से आमना-सामना हुआ। मैंने पूछा ‘करजई’ को हमने क्या-क्या दिया? वे बोले ‘ये बात तो बाद में हो जाएगी, पहले यह बताइए कि लखनऊ में क्या किया जाए?’ उन दिनों यह असमंजस बना हुआ था कि उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री किसे बनाया जाए? मैंने कहा ‘मुलायम सिंह जी को।’ अटलजी ने कहा- ‘ठीक है, पहले प्रेम से भोजन कीजिए और फिर बताइए।’
भोजन के बाद सभी अतिथि विदा होने के लिए द्वार के पास नीचे जमा हो गये। प्रधानमंत्री अटलजी ने फिर पूछा ‘तो क्या सोचा आपने?’ मैंने कहा- "तर्क वही है, जो आपके लिए दिया गया था। सबसे बड़ी पार्टी के नेता को राष्ट्रपति ने बुला लिया, प्रधानमंत्री की शपथ के लिए। लखनऊ में मुलायम सिंह की समाजवादी पार्टी भी सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी है। मुख्यमंत्री भी उन्हें ही बनाया जाना चाहिए।'' इतने में पूर्व प्रधानमंत्री इंद्र गुजराल हम दोनों के एक दम निकट आ गए। अटल जी ने गुजराल साहब से पूछा- ‘आपकी क्या राय है?’ उन्होंने कहा- ‘वैदिकजी जो कह रहे हैं, वह बिल्कुल सही है।’ अटलजी ने तपाक से कहा- ‘सही हो सकता है लेकिन आप दोनों मुलायम सिंह का समर्थन इसलिए कर रहे हैं कि वे आप दोनों के दोस्त हैं।’ इस चुटकी पर सब हंस दिए।
यह वार्तालाप अगल-बगल खड़े कई मंत्री सुन रहे थे। उनमें से एक ने कहा- ‘भगवन! प्रधानमंत्री जी को यह आप क्या सलाह दे रहे हैं?’ मुख्यमंत्री मुलायम पहले दिन ही हमें अंदर कर देंगे। उन्होंने शंकराचार्य को पकड़ लिया, वह हमें क्यों बख्शेंगे?’ मैंने कहा,- ‘यह जरूरी नहीं। यह भी संभव है कि अटलजी लखनऊ में मुलायम सिंह के गठबंधन को चलने दें और मुलायम सिंह जी दिल्ली में अटलजी के गठबंधन को चलने दें।’ अगर उसी समय यह बात मान ली जाती तो संवैधानिक परंपरा की रक्षा तो होती ही, डेढ़ साल तक भाजपा को बहुजन समाज पार्टी के कचरे को अपने कंधे पर नहीं ढोना पड़ता।
-डॉ. वेदप्रताप वैदिक
भारत दुनिया भर में फॉर्मेसी का हब माना जाता है। भारत में बनने वाली दवाएं और टीके इत्यादि दुनियाभर में उच्च गुणवत्ता और कम कीमत वाले उत्पादों के रूप में पहचाने जाते हैं। अभी कोरोना काल में दुनिया ने देखा कि कैसे भारत में बने कोरोना रोधी टीकों ने अरबों लोगों की जान बचाई। ऐसी परिस्थिति में यदि विश्व स्वास्थ्य संगठन आरोप लगा दे कि भारत में बनी किसी दवा के विपरीत असर से 66 बच्चों की मौत हो गयी है तो पूरी दुनिया में हड़कंप मचना स्वाभाविक है। हम आपको बता दें कि भारत में एक निजी फार्मा कंपनी द्वारा निर्मित कफ सिरप पर गंभीर सवाल उठाते हुए विश्व स्वास्थ्य संगठन ने उन चार दवाओं के खिलाफ अलर्ट जारी किया है, जिनके कारण गाम्बिया में 66 बच्चों की मौत होने और गुर्दे को गंभीर नुकसान पहुंचने की आशंका जताई गयी है। डब्ल्यूएचओ के महानिदेशक के मुताबिक ये चार दवाएं भारत की कंपनी मेडन फार्मास्युटिकल्स लिमिटेड द्वारा बनाए गए सर्दी एवं खांसी के सिरप हैं। इन उत्पादों के नाम प्रोमेथाजिन ओरल सॉल्यूशन, कोफेक्समालिन बेबी कफ सिरप, मेकॉफ बेबी कफ सिरप और मैग्रिप एन कोल्ड सिरप बताये जा रहे हैं। हालांकि डब्ल्यूएचओ की ओर से बच्चों की मौत के सटीक कारण भारत को ना तो उपलब्ध कराये गये हैं और ना ही दवा और इसके लेबल का ब्योरा भारत के केंद्रीय औषध मानक नियंत्रण संगठन के साथ साझा किया गया है ताकि उत्पादन के स्रोत की पुष्टि हो सके।
इस तरह की भी रिपोर्टें हैं कि जिन 66 बच्चों की मौत हुई है उन सभी की उम्र 5 साल से कम थी और यह सभी बच्चे उक्त कफ सिरप लेने के तीन से पांच दिन के बाद बीमार हो जा रहे थे और उनके गुर्दे को गंभीर नुकसान पहुँच रहा था। लेकिन इससे जुड़ा कोई भी तथ्य डब्ल्यूएचओ ने भारत सरकार के साथ साझा नहीं किया है। डब्ल्यूएचओ की ओर से संपूर्ण जानकारी जब तक नहीं आ जाती तब तक इस मसले पर कुछ भी स्पष्टता के साथ कहना मुश्किल है लेकिन यह भी तथ्य है कि भारत ने इस मुद्दे को बड़ी गंभीरता से लिया है। केंद्रीय औषध मानक नियंत्रण संगठन ने सूचना मिलने के डेढ़ घंटे के अंदर ही डब्ल्यूएचओ को अपनी प्रतिक्रिया भेज दी थी साथ ही हरियाणा सरकार के समक्ष भी यह मुद्दा उठाया था क्योंकि उक्त कफ सिरप बनाने वाली कंपनी वहीं पर स्थित है। इसके अलावा भारत सरकार अपने स्तर पर भी इस मामले की जांच करा रही है ताकि सच सामने आ सके। यहां हम आपको यह भी बताना चाहेंगे कि जिन कफ सिरप पर सवाल उठे हैं वह भारत में बिक्री के लिए उपलब्ध नहीं हैं इन्हें सिर्फ गाम्बिया को ही निर्यात किया गया था।
जहां तक सवालों के घेरे में आई दवा कंपनी मेडेन फार्मास्युटिकल्स की बात है तो आपको बता दें कि यह अफ्रीका, दक्षिण अमेरिका और दक्षिण-पूर्व एशिया समेत रूस, पोलैंड और बेलारूस में भी मौजूदगी रखती है। यह कंपनी कई तरह के उत्पाद बनाती है जिसमें कैप्सूल, टैबलेट, इंजेक्शन दवा, सिरप और मलहम भी शामिल हैं। दवा कंपनी मेडेन फार्मास्युटिकल्स खुद को डब्ल्यूएचओ-जीएमपी और आईएसओ 9001-2015 प्रमाणित फार्मा कंपनी भी बताती है। इसलिए डब्ल्यूएचओ की ओर से जो बात कही जा रही है उस पर सभी को संदेह हो रहा है।
जहां तक सवालों के घेरे में आये कफ सिरप की बात है तो इस मामले में डब्ल्यूएचओ प्रमुख का कहना है कि ये उत्पाद अब तक केवल गाम्बिया में पाए गए हैं, लेकिन उन्हें अन्य देशों में भी संभवत: वितरित किया गया है इसलिए सभी को सतर्क किया जा रहा है। डब्ल्यूएचओ ने परामर्श दिया है कि सभी देश मरीजों को और नुकसान पहुंचने से बचाने के लिए इन उत्पादों की बिक्री पर रोक लगाएं। डब्ल्यूएचओ के मुताबिक चारों में से प्रत्येक दवा के नमूनों का प्रयोगशाला विश्लेषण पुष्टि करता है कि उनमें डायथाइलीन ग्लाईकॉल और एथिलीन ग्लाईकॉल अस्वीकार्य मात्रा में मौजूद हैं। डब्ल्यूएचओ ने उत्पादों से जुड़े जोखिमों को रेखांकित करते हुए कहा कि डायथाइलीन ग्लाईकॉल और एथिलीन ग्लाईकॉल मनुष्यों के लिए घातक साबित हो सकते हैं।
हम आपको बता दें कि विश्व स्वास्थ्य निकाय ने कहा है कि डायथाइलीन ग्लाईकॉल और एथिलीन ग्लाईकॉल से पेट दर्द, उल्टी, दस्त, मूत्र त्यागने में दिक्कत, सिरदर्द, मानसिक स्थिति में बदलाव और गुर्दे को गंभीर नुकसान हो सकता है, जिससे मरीज की मौत भी हो सकती है। डब्ल्यूएचओ ने कहा है कि इन उत्पादों को तब तक असुरक्षित माना जाना चाहिए, जब तक संबंधित राष्ट्रीय नियामक प्राधिकरणों द्वारा उनका विश्लेषण नहीं किया जाता।
उधर, इस मामले के सामने आते ही भारत में भी हड़कंप मच गया। भारत के औषधि नियामक निकाय (डीसीजीआई) ने जांच शुरू करने के साथ ही डब्ल्यूएचओ से इस बारे में और ब्योरा मांगा है। इसके अलावा हरियाणा के स्वास्थ्य विभाग ने कंपनी की ओर से उत्पादित चार तरह के कफ सिरप के नमूनों को कोलकाता स्थित केंद्रीय औषधि प्रयोगशाला में भेजा है। उम्मीद है कि वहां से जल्द ही विस्तृत रिपोर्ट आयेगी।
जहां तक डब्ल्यूएचओ के दावे की बात है तो इस मामले में खुद विश्व निकाय पर ही सवाल उठते हैं कि जब भी कोई दवा विदेशी बाजार में बेची जाती है तो वहां की सरकार के साथ ही डब्ल्यूएचओ भी उसकी जांच करता है। ऐसे में गाम्बिया में उक्त कफ सिरप की जांच के समय क्यों नहीं कुछ सामने आया? यहां यह भी सवाल उठता है कि क्या डब्ल्यूएचओ ने बिना जांच किये ही उक्त कफ सिरप को गाम्बिया में बेचने की अनुमति दे दी थी? इंडियन मेडिकल एसोसिएशन ने भी कहा है कि जब भी किसी दूसरे देश में दवाई भेजी जाती है तो उसकी पूरी तरह जांच की जाती है इसलिए यह मामला हैरानी भरा है। इंडियन मेडिकल एसोसिएशन ने कहा है कि डब्ल्यूएचओ को सारे सबूत देने चाहिए ताकि किसी अंतिम निष्कर्ष तक पहुँचा जा सके।
बहरहाल, इसमें कोई दो राय नहीं कि बच्चों की मौत होने से उनके परिवारों को गंभीर पीड़ा हुई है। लेकिन जब तक इस मामले के सारे तथ्य सामने नहीं आ जाते तब तक किसी एक दवा, किसी एक कंपनी या किसी एक देश पर उंगली उठाना सही नहीं है। फिलहाल तो डब्ल्यूएचओ ने जिस तरह उक्त दवाओं के उपयोग से बचने को कहा है तो वह काम किया ही जाना चाहिए। लेकिन यहां डब्ल्यूएचओ की निष्पक्षता पर भी सवाल उठते हैं। जब कोरोना आया और सारे सुबूत इस बात की ओर इशारा कर रहे थे कि इस वायरस का निर्माता चीन है तो डब्ल्यूएचओ ने सभी सबूतों को अनदेखा करते हुए चीन को क्लीन चिट दे दी थी।
-नीरज कुमार दुबे
राजस्थान कांग्रेस में चल रहे राजनीतिक घमासान में मुख्यमंत्री अशोक गहलोत कांग्रेस आलाकमान के निशाने पर आ गए हैं। उनके अपने चहेते नेताओं द्वारा करवाई गई फजीहत के चलते गहलोत को कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी से लिखित में माफी मांगनी पड़ी। इसके साथ ही सोनिया गांधी के आवास के बाहर आकर मीडिया के समक्ष भी उन्हें बार-बार माफी मांगने की बात दोहरानी पड़ी। ऐसी स्थिति का सामना मुख्यमंत्री अशोक गहलोत को अपने पचास साल के राजनीतिक कॅरियर में शायद ही कभी करना पड़ा हो।
कुछ समय पहले तक तो मुख्यमंत्री गहलोत कांग्रेस पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष बनने जा रहे थे। उनके राष्ट्रीय अध्यक्ष बनने पर कांग्रेस आलाकमान में सर्वसम्मति बन चुकी थी। वहीं एकाएक घटनाचक्र इतनी तेजी से घूमा कि कांग्रेस का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनना तो दूर अब तो उनकी मुख्यमंत्री की कुर्सी भी खतरे में पड़ी नजर आने लगी है। गहलोत समर्थकों ने राजस्थान में जो खेल किया उससे कांग्रेस आलाकमान ही नहीं अन्य सभी लोग भी हक्के बक्के रह गए। किसी को भी मुख्यमंत्री अशोक गहलोत से सत्ता के लिए ऐसा खेल करने की अपेक्षा नहीं थी।
मुख्यमंत्री गहलोत पिछले दो साल से लगातार कहते थे कि मेरा इस्तीफा हमेशा मेरी जेब में पड़ा रहता है। कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी जब भी कहेंगी तुरंत उनको सौंप दूंगा। मगर कांग्रेस अध्यक्ष के कहने से पहले ही गहलोत ने ऐसा राजनीतिक ड्रामा कर दिया कि कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी की भी एक बार तो बोलती ही बंद हो गई थी। जब गहलोत को कांग्रेस का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाया जा रहा था तो उन्होंने कहा था कि मुख्यमंत्री के पद का भी साथ ही निर्वहन कर लूंगा। मगर वरिष्ठ कांग्रेस नेता दिग्विजय सिंह ने गहलोत को उदयपुर में संपन्न हुए चिंतन शिविर में लिए गए 'एक व्यक्ति एक पद' के प्रस्ताव का स्मरण कराते हुए उन्हें मुख्यमंत्री का पद छोड़ने की बात याद दिला दी। मुख्यमंत्री पद छोड़ने की बात आने पर गहलोत राष्ट्रीय अध्यक्ष बनने में आनाकानी करने लगे। मगर कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी उन्हें अपना सबसे विश्वस्त मानकर अध्यक्ष बनाना चाहती थीं। ऐसे में गहलोत के समक्ष अध्यक्ष बनने के लिए स्वीकृति देने के अलावा और कोई रास्ता नहीं था। अनमने मन से ही सही अंततः उन्होंने अध्यक्ष बनने के लिए हां कर दी थी।
कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी का मानना था कि कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष का नामांकन फार्म भरने से पहले गहलोत मुख्यमंत्री पद छोड़ कर 'एक व्यक्ति एक पद' के नियम की पालना कर पार्टी जन के समक्ष एक नायाब उदाहरण प्रस्तुत करें। इस बाबत सोनिया गांधी की गहलोत से बात भी हो गई थी। गहलोत की सहमति से ही उन्होंने कांग्रेस के वरिष्ठतम नेता मल्लिकार्जुन खड़गे व राजस्थान के प्रभारी महासचिव अजय माकन को पर्यवेक्षक बनाकर जयपुर भेजा था। ताकि वो सभी विधायकों से व्यक्तिगत रायशुमारी कर कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी पर फैसला छोड़ने का एक लाइन का प्रस्ताव पास करवायें।
इस बाबत मुख्यमंत्री आवास पर कांग्रेस विधायक दल की बैठक का भी आयोजन किया गया था। जिस दिन कांग्रेस पर्यवेक्षकों को जयपुर आना था, उसी दिन सुबह मुख्यमंत्री अशोक गहलोत अपने साथ प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष गोविंद सिंह डोटासरा को लेकर जैसल़मेर स्थित तनोट माता के मंदिर में दर्शन करने के लिए रवाना हो गए और वहां से शाम को वापस लौटे। दोपहर को जब दिल्ली से कांग्रेस के दोनों पर्यवेक्षक खड़गे व माकन जयपुर हवाई अड्डे पर उतरे तो उनके स्वागत के लिए कांग्रेस का कोई भी बड़ा नेता उपस्थित नहीं था। यहां तक कि प्रदेश अध्यक्ष डोटासरा की अनुपस्थिति में प्रदेश कांग्रेस का कोई वरिष्ठ पदाधिकारी, जिला कांग्रेस अध्यक्ष, राजस्थान सरकार का कोई भी मंत्री, विधायक, जयपुर का मेयर, जिला प्रमुख, प्रधान, पार्षद तक हवाई अड्डे पर उपस्थित नहीं था।
उसी दिन शाम सात बजे मुख्यमंत्री आवास पर कांग्रेस विधायक दल के 108 सदस्य व पार्टी को बाहर से समर्थन दे रहे तेरह निर्दलीय विधायकों को विधायक दल की मीटिंग में आमंत्रित किया गया था। मगर उसी दौरान एक खेला हो गया। संसदीय कार्य मंत्री शांति धारीवाल, जलदाय मंत्री व मुख्य सचेतक महेश जोशी व राजस्थान पर्यटन विकास निगम के अध्यक्ष धर्मेंद्र राठौड़ ने मिलकर एक चाल चली व सभी विधायकों को फोन कर मुख्यमंत्री आवास के बजाय शांति धारीवाल के आवास पर बुला लिया। संसदीय कार्य मंत्री धारीवाल, मुख्य सचेतक महेश जोशी द्वारा फोन करने के कारण 25 मंत्रियों सहित 70-80 विधायक धारीवाल के आवास पर पहुंच गए। जहां धारीवाल, जोशी व राठौड़ ने सभी विधायकों को मुख्यमंत्री आवास पर बुलाई गई विधायक दल की बैठक का बहिष्कार करने को तैयार कर लिया।
अशोक गहलोत को मुख्यमंत्री पद से हटाने के विरोध में धारीवाल के आवास पर उपस्थित सभी विधायकों के विधायक पद से इस्तीफों पर हस्ताक्षर करवा कर विधानसभा अध्यक्ष सीपी जोशी के आवास पर जाकर इस्तीफे उनको सौंप दिए गए। मुख्यमंत्री आवास पर दोनों पर्यवेक्षक, मुख्यमंत्री गहलोत, प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष डोटासरा, पूर्व उप मुख्यमंत्री सचिन पायलट सहित करीब तीन दर्जन विधायको के साथ अन्य विधायकों के मीटिंग में आने का इंतजार करते रहे मगर कोई भी विधायक वहां नहीं आया। देर रात्रि को पर्यवेक्षक भी होटल लौट गए। देर रात्रि में मंत्री शान्ति धारीवाल, महेश जोशी और प्रताप सिंह खाचरियावास विधायकों के प्रतिनिधि बनकर पर्यवेक्षकों से मिले व कहा कि हम सचिन पायलट व उनके गुट के विधायकों के अलावा किसी को भी मुख्यमंत्री बनाना स्वीकार कर सकते हैं।
इस पर पर्यवेक्षकों ने उनसे कहा कि हम सभी विधायकों से वन टू वन मिलकर उनकी राय जान लेते हैं। फिर प्रस्ताव पास कराकर कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी को दे देंगे। मगर धारीवाल, जोशी व खाचरियावास ने विधायकों से व्यक्तिगत ना मिलकर ग्रुप में मिलने के लिए दबाव डाला। जिस पर पर्यवेक्षकों ने असहमति व्यक्त कर दी और बिना विधायकों से मिले ही दिल्ली चले गए। दिल्ली जाकर उन्होंने कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी को पूरे घटनाक्रम की विस्तृत लिखित रिपोर्ट दे दी।
जब पर्यवेक्षकों की रिपोर्ट सोनिया गांधी को मिली तो उन्होंने जयपुर में हुये घटनाक्रम पर बहुत नाराजगी व्यक्त की। मीडिया में लगातार खबरें आने से पूरे देश में कांग्रेस की किरकिरी हो रही थी। स्थिति बिगड़ती देख मुख्यमंत्री अशोक गहलोत भी घबरा गए और उन्होंने दिल्ली में अपने समर्थक कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं से संपर्क कर मदद मांगी। घटना के दो दिन बाद उन्होंने कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी से मिलकर अपनी सफाई दी। इसी दौरान कांग्रेस अनुशासन समिति द्वारा शान्ति धारीवाल, महेश जोशी, धर्मेंद्र राठौड़ को कारण बताओ नोटिस जारी कर जवाब मांगा गया है।
इसी दौरान राजस्थान में कांग्रेस के नेताओं द्वारा एक दूसरे पर हल्के स्तर की भाषा में बयानबाजी की जाने लगी थी। जिसको रोकने के लिए कांग्रेस के संगठन महासचिव केसी वेणुगोपाल को सोनिया गांधी के निर्देश पर बयानबाजी करने वालों के खिलाफ अनुशासनात्मक कार्यवाही करने का एक आदेश निकालना पड़ा। जिसके बाद कांग्रेस नेताओं द्वारा मीडिया में की जा रही आपसी बयानबाजी पर रोक लग पायी।
चर्चा है कि अब एक बार फिर नए सिरे से केंद्रीय पर्यवेक्षक जयपुर आकर सभी विधायकों से वन टू वन बातचीत करेंगे। फिर एक लाइन का प्रस्ताव पास करवा कर कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी पर फैसला छोड़ा जायेगा। उसके बाद सोनिया गांधी इस बात का फैसला करेगी कि राजस्थान में गहलोत ही मुख्यमंत्री बने रहेंगे या उनके स्थान पर किसी अन्य को मुख्यमंत्री बनाया जाएगा। तब तक राजस्थान में राजनीतिक सस्पेंस बरकरार रहेगा।
-रमेश सर्राफ धमोरा
(लेखक राजस्थान सरकार से मान्यता प्राप्त स्वतंत्र पत्रकार हैं। इनके लेख देश के कई समाचार पत्रों में प्रकाशित होते रहते हैं।)