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अयोध्या और सबरीमाला के जरिये चुनावी नैया पार लगाना चाहती है भाजपा Featured

By November 06, 2018 535
भारतीय जनता पार्टी ने आगामी विधान सभा और लोकसभा चुनावों में राफेल, रोजगार और महंगाई जैसे मुद्दों की काट निकालने के लिए ही राम मंदिर का मुद्दा उछाला है। आगामी विधान सभा और लोकसभा चुनावों को लेकर जो रणनीति तैयार की गयी है, राममंदिर का मुद्दा उसी का हिस्सा है। सुप्रीम कोर्ट में मामला होने और केंद्र में सत्तारुढ़ होने के कारण भाजपा इस पर सीधी प्रतिक्रिया देने से बच रही है। राम मंदिर मुद्दे की गेंद संघ परिवार के पाले में डाली गई है। सोची−समझी रणनीति के तहत संघ परिवार को इसमें आगे लाया गया है। यही वजह है कि संघ के प्रचारक सहित अन्य आनुषांगिक संगठन इस मुद्दे पर आगामी मोर्चा संभाले हुए हैं, वहीं भाजपा के मंत्री और पदाधिकारी इस मुद्दे पर तोतारटंत जवाब, जनभावना से जुड़ा हुआ मुद्दा है, जैसी दलील देकर इसमें सीधे दखल देने से बचने का प्रयास कर रहे हैं। भाजपा को यह अच्छी तरह पता है कि अयोध्या विवाद सुप्रीम कोर्ट में चल रहा है। इसमें सीधे दखलंदाजी नहीं की जा सकती। इसमें अवमानना का खतरा है। इस मुद्दे पर अध्यादेश भी आसानी से नहीं लाया जा सकता। अध्यादेश के लिए सहयोगी गठबंधन दलों की सहमति जरूरी है। सहयोगी दल पहले ही कह चुके हैं कि सुप्रीम कोर्ट का फैसला मान्य होगा।
 
गठबंधन दलों को साथ लेकर चलना आगामी चुनावों की मजबूरी है। वैसे भी पार्टी अध्यादेश लाकर सुप्रीम कोर्ट से कोई रार नहीं करना चाहती। सबरीमाला के मुद्दे पर दबे−छिपे तरीके से विरोध को लेकर पार्टी पहले से ही सुप्रीम कोर्ट की नजर में है। राफेल और सीबीआई सहित कई बड़े और सरकार को प्रभावित करने वाले मामले सुप्रीम कोर्ट में विचाराधीन हैं। हालांकि केंद्र सरकार आरक्षण के मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट के निर्णय को बदलने का दांव खेल गई। यह मुद्दा सीधे भाजपा के खिलाफ जा रहा था। पार्टी के ही सांसद और विधायक सुप्रीम कोर्ट के निर्णय का विरोध कर रहे थे।
 
इससे अनुसूचित जाति−जनजाति के वोट बैंक खिसकने का खतरा मंडरा रहा था। विपक्ष भी इस मुद्दे पर चकरघिन्नी बन गया था। देश में हुए विरोध आंदोलन के मद्देनजर विपक्ष ने भी कानून लाकर सुप्रीम कोर्ट का निर्णय बदलने की मांग उठाई। राम मंदिर का मुद्दा उठाने के मामले में हालात ऐसे नहीं हैं। इसमें पार्टी को फायदा नहीं होगा तो नुकसान भी नहीं होगा। दरअसल भाजपा को इस मुद्दे से हवा सबरीमाला मंदिर मुद्दे पर लोगों को उकसाने के बाद मिली है। सबरीमाला मंदिर के मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले के विरोध में स्थानीय लोगों ने तीखी प्रतिक्रिया जाहिर की। यह मामला अभी तक केरल की मार्क्सवादी सरकार के गले की हड्डी बना हुआ है। केरल की पी विजयन सरकार ना तो लोगों का विरोध झेल पा रही है और ना ही सुप्रीम कोर्ट का फैसला लागू करा पा रही है।
 
सुप्रीम कोर्ट के निर्णय की वजह से भाजपा ने इसमें भी सीधे जुड़ने से बचने की गली तलाश ली। स्थानीय नेता और कार्यकर्ताओं को आगे कर दिया, जबकि राष्ट्रीय स्तर के नेता और केंद्र सरकार के मंत्री जो दलील राम मंदिर के मामले में दे रहे हैं, वही सबरीमाला में भी दी है। इसे राम मंदिर की तरह जन भावना का निर्णय करार दिया है ताकि दोनों ही मामलों में सुप्रीम कोर्ट की अवमानना की तलवार से बचा जा सके। सबरीमाला प्रकरण में महिलाओं के प्रवेश पर प्रतिबंध को समर्थन देकर भाजपा ने इस पर लिटमस टेस्ट भी कर लिया। भाजपा को राजनीतिक रूप से इससे फायदा हुआ। केरल सरकार विवादों में घिर गई। 
सबरीमाला मामले में भाजपा केरल में काफी हद तक ध्रुवीकरण करने में कामयाब रही है। इससे मिली सफलता से ही पार्टी राम मंदिर को फिर से उठा रही है, फर्क सिर्फ इतना है कि सत्ता में होने के कारण संघ परिवार को इसमें आगे किया गया है। संघ के संगठनों ने मंदिर बनाने के लिए आंदोलन चलाने के लिए आगामी छह महीने का समय निर्धारित किया है। इसी अवधि में विधान सभा और लोकसभा चुनाव होने हैं। पहले चूंकि विधानसभा चुनाव होने हैं, इससे पता भी चल जाएगा कि राम मंदिर का मुद्दा उठाना पार्टी के लिए कितना फायदेमंद रहा। यदि परिणाम अपेक्षित रहे तो इसे लोकसभा तक खींचा जाएगा।
 
केंद्र की भाजपा सरकार इन दिनों राफेल और विकास के दूसरे मुद्दों पर विपक्ष के निशाने पर है। राफेल के मामले में कांग्रेस लगातार नए−नए आरोप लगा रही है। इसके अलावा डीजल−पेट्रोल, महंगाई और रोजगार जैसे मुद्दों पर विपक्ष ने सरकार और पार्टी की घेराबंदी कर रखी है। इन मुद्दों पर विपक्ष और देश के लोगों की अपेक्षाएं पूरा करना आसान नहीं है। इसके अलावा विधान सभा चुनावों में एंटीइनक्मबेंसी भी मौजूद रहेगी। राजस्थान और छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में भाजपा की वापसी आसान नहीं मानी जा रही। विधान सभा के चुनाव परिणाम भी काफी हद तक इन राज्यों में लोकसभा के परिणामों को प्रभावित करेंगे।
 
इस राह को आसान बनाने के लिए पार्टी विकास और राम मंदिर के मुद्दे का कॉकटेल तैयार कर रही है। केंद्र और भाजपा शासित राज्यों की सरकारों के किए विकास का सोशल मीडिया सहित हरसंभव तरीके से प्रचार किया जा रहा है। इसके बावजूद पार्टी चुनावों में बहुमत हासिल करने को लेकर आश्वस्त नहीं है। पार्टी और सरकार को इस बात पर पूरा भरोसा नहीं है कि सिर्फ विकास के मुद्दे पर फिर से सत्ता पाई जा सकती है। कारण भी स्पष्ट है विकास के विभिन्न मोर्चों पर सरकार को इतनी कामयाबी हासिल नहीं हो सकी। इससे बने हुए अंतर को भरने के लिए उठाए गए राममंदिर जैसे भावनात्मक और धार्मिक मुद्दे का विपक्ष के लिए विरोध करना आसान नहीं है। विपक्ष की मजबूरी यह है कि देश में व्यापक जनभावना का मुद्दा होने के कारण यही नहीं कहा जा सकता कि मंदिर नहीं बनना चाहिए। विपक्ष अनुसूचित जाति−जनजाति प्रकरण की तरह राम मंदिर पर अध्यादेश लाने या कानून बनाने की दलील भी नहीं दे सकता। इससे विपक्ष का अल्पसंख्यक वोट बैंक खिसक सकता है। विपक्ष भाजपा की चुनावी चाल बताते हुए सवाल खड़े कर रहा है। जबकि संघ परिवार का सारा जोर इसी बात पर है कि इस मुद्दे पर कैसे कांग्रेस और दूसरे विपक्षी दलों को उलझाए रखा जाए। हालांकि भाजपा ने इस मुद्दे पर देश में अपनी राजनीतिक इमारत बुलंद की है, किन्तु पार्टी सिर्फ इसी के बलबूते सत्ता में वापसी को लेकर आशान्वित नहीं है। यह निश्चित है कि भाजपा के लिए यदि राममंदिर मुद्दा चुनावी तौर पर फायदेमंद साबित हुआ, पार्टी तभी इसे आगे जारी रखेगी, अन्यथा जैसे केंद्र सरकार के साढ़े चार साल के दौरान यह हाशिये पर पड़ा रहा, वैसे ही पड़ा रहेगा।
 
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