ईश्वर दुबे
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Bhilai
News Creation (कटाक्ष) : रजत जैसे ही घर पहुंचे घर के सन्नाटे और नूपुर के क्लांत चेहरे ने उनकी आशंकाओं को सही ठहराया घर कुछ कुछ अस्त व्यस्त सा था नूपुर की तरह
उन्होंने बैग रखते हुए सीधे प्रश्न दागा-"कहाँ हैं साहबजादे?”Read
“अभी-अभी निकला है कहीं”
“आज किस बात पर?”
नूपुर ने पानी का गिलास थमाते कहा "पता नही यार क्या करूँ कुछ समझ नहीं आता कब उसका मूड किस बात पर बिगड़ जाए पता ही नही चलता ऐसे बिहेव करता है जैसे हम उसके दुश्मन हैं"
और वह रोने लगी दिन भर के थके रजत का इस तरह नूपुर ने कभी स्वागत नहीं किया पर आजकल जबसे श्रीयश हाईस्कूल गया है उसकी वजह से घर मे अजीब सा तनाव होने लगा है। कई बार खुद पर शक होने लगता है वे अपने बच्चों को गलत परवरिश दे रहे है।
यह किसी एक घर की नही लगभग हर शहर गांव के हर वर्ग के घरों की आम समस्या है। जिसपर कुछ खास काम नही किया जा रहा है। यही हाल रहा तो आने वाली पीढ़ी बहुत ही अजीब तरह की मनोदशा के साथ जीवन चलाएगी
जिस तरह रासायनिक खाद और जहरीले कीटनाशकों के प्रयोग से गुणवत्ताहीन अनाज, फल, सब्जियां लाभ की जगह हानि पहुंचा रही हैं ठीक उसी तरह निजी स्वार्थ और विवेकहीन मनोदशा से किये गए सद्कार्य भी देश की संस्कृति को कमजोर करते हैं।
आजादी के बाद देश की व्यवस्थाओं में बहुत परिवर्तन आए कई तरह की योजनाओं के जरिए देश विकास के प्रयास भी होते रहे किन्तु यह भी सच है कि हर योजना जमीनी स्तर पर आते आते अपना स्वरूप खो देती हैं। सरकारें लोगों को प्रायः वो सुविधाएं देती हैं जो वो उचित समझती हैं जबकि होना ये चाहिए कि हितग्राहियों की जरूरत के अनुसार उन्हें सुविधाएँ मिलें तो वो बेहतर लाभान्वित होंगे।
हमारी शिक्षा पद्धति में भी बहुत से बदलाव की जरूरत है सब जानते हैं हम ऐसी बहुत सी गैर जरूरी शिक्षा बच्चों पर थोपते हैं जिनका पूरे जीवन उन्हें कोई लाभ नहीं मिलने वाला है। सिवाय नम्बरों के ऐसे में जब एक पढ़ा-लिखा युवा अच्छी डिग्रियां लेकर धनोपार्जन के लिए निकलता है। तब उसे पता चलता है कि वह दिन रात जिस डिग्री के लिए पढ़ता रहा वह उसे कड़ी मशक्कत के बाद भी चन्द नौकरियों से ज्यादा कुछ नहीं दे सकती और यह उन चंद होशियार बच्चों के साथ है औसत या कम नम्बरों वालों की हालत बहुत खराब होती है सितम तो उस वक्त चरम पर होता है जब वे आरक्षण के दायरे से बाहर हों अब दूसरा रास्ता निकलता है व्यवसाय करने का यहां भी सिर्फ और सिर्फ मिला किताबी ज्ञान कुछ खास कारगर नहीं होता ऐसी दशा में प्रायः बच्चों को उनके पुश्तैनी व्यवसाय को अपनाना होता है जो सुरक्षित होता है क्योंकि बच्चा अपने घर के ही लोगों से प्रशिक्षण लेता है यही काम यदि शुरू से ही उसकी शिक्षा के साथ ही जोड़ दी जाती तो अप्रशिक्षित शिक्षजीत बेरोजगारों की कुंठाओं का देश को दंश न झेलना पड़ता और नहीं कमरतोड़ मेहनत कर युवा पुत्र को वृद्ध माता पिता के सामने असहाय सा न होना पड़ता।
लेख - "नीता झा"
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