हादसों में लोगों की जानें जाती रहती हैं और सरकारें जाँच करती रहती हैं Featured

अमृतसर में रावण फूंकने से हुई आतिशबाजी से बचने के लिए ट्रेन की चपेट में आने से पचास से अधिक लोगों की अकाल मौत हो गई। इससे पहले कोलकत्ता में पुल ढहने से दर्जन भर लोगों की मौत हो गई। इसी तरह हर साल सड़क हादसों में हजारों लोगों की जान चली जाती है। बाढ़ जैसी प्राकृतिक आपदाओं में सैंकड़ों लोगों मरते हैं। संक्रामक रोगों से मरने वालों की संख्या भी हर साल हजारों में होती हैं। मंदिरों−मेलों और भीड़भाड़ वाले इलाकों में भगदड़ से मौतें होते ही रहती हैं।
 
सवाल यह है कि इन मौतों के लिए जिम्मेदार कौन हैं ? क्या इतने लोगों को हर साल काल−कलवित होने से रोका जा सकता है। दरअसल इस तरह के हादसों के लिए सीधे स्थानीय प्रशासन और राज्य तथा केंद्र सरकार जिम्मेदार हैं। प्राकृतिक आपदाओं और लापरवाही से होने वाले इस तरह के हादसों की पुनरावृत्ति को सजगता−जागरूकता से रोका जा सकता है। इसके बावजूद सरकारी मशीनरी के नकारेपन से बड़े हादसे होते रहते हैं। सरकारी मशीनरी में जंग लगी हुई है। सरकारों के लिए ऐसी मौतें महज आंकड़ा भर रह गई हैं। यदि संख्या अधिक होती है तो एक−दो छोटे अफसरों पर कार्रवाई करके सरकारें जिम्मेदारी पूरी कर लेती हैं।
 
सरकारें इस बात का पुख्ता इंतजाम कभी नहीं करती कि ऐसे हादसों की पुनरावृत्ति नहीं हो। यदि पुरानी घटना−दुर्घटनाओं से सबक लिया जाता तो अमृतसर जैसा हादसा नहीं होता। इससे जाहिर है कि सरकारें और प्रशासन सिर्फ घड़ियाली आंसू बहाने में माहिर हैं। ऐसे हादसों को रोकने के लिए कभी कोई कार्य योजना नहीं बनाई जाती। यदि बनती भी है तो वो धरातल पर नहीं उतरती। कुछ ही दिनों बाद उसे भुला दिया जाता है। जिस तरह से देश में अप्राकृतिक मौतें हो रही हैं, उसके मद्देनजर इस देश को मौत का देश कहने में कोई अतिरंजना नहीं रह गई है।
 
इनमें मरने वाले आम लोग ही होते हैं। हादसा होने पर राजनीतिक दल ऐसी मौतों के लिए एक−दूसरे को आईना दिखाने में पीछे नहीं रहते। विपक्षी दल सत्तारूढ़ दल को इसके लिए जिम्मेदार ठहराते हैं। सत्तारूढ़ दल के पास तोतारटंत जवाब है होता है कि जब विपक्षी पार्टी जब सत्ता में थी, तब भी ऐसे हादसे होते रहे हैं। राजनीतिक दलों में संवेदना तो दूर सत्ता की जिम्मेदारी का बोध तक नहीं रह गया है। दुर्घटनाओं की तह तक जाने में किसी की रूचि नहीं होती। आरोप−प्रत्यारोपों के दौर में एक−दूसरे को दोषी ठहरा कर अपनी जिम्मेदारी से भागने की कवायद की जाती है।
 
दुर्घटना में मरने वालों की संख्या अधिक हो तो जिम्मेदारी के नाम पर जांच दल बिठा दिए जाते हैं। ऐसे अलग−अलग प्रकृति के हादसों के बाद केंद्र और राज्य स्तर पर अब तक दर्जनों जांच कमेटियां बना दी गई। इनके सुझावों को लागू करने का काम किसी भी सरकार ने ईमानदारी से नहीं किया। यदि कहीं किया गया भी गया तो महज औपचारिकता निभाने के लिए फाइलों तक सीमित रहा। सड़क और रेल दुर्घटनाओं पर बनी दर्जन भर कमेटियां इसका उदाहरण हैं। जब भी बड़े हादसे हुए कमेटियां बना दी गईं। इसके बाद इनकी रिपोर्टें धूल फांकती रहती हैं।
 
हालात यह हो गए हैं कि हर बार हादसा और हर बार नई जांच कमेटी। सरकारी प्रवृत्तियों के मद्देनजर लगता है कि देश में दुर्घटनाओं में लोगों की मौत अब कोई मुद्दा नहीं रही है। ऐसी मौतों से राजनीतिक दलों का वोट बैंक प्रभावित नहीं होता। इन्हें महज एक दुर्घटना मान कर कुछ ही दिनों में भुला दिया जाता। इसमें भी हालात करेला और नीम चढ़ा जैसे हैं। मृतकों के परिवारों को सरकारी नीति या तात्कालिक रूप से घोषित मुआवजा इत्यादि भी आसानी से नहीं मिलता। ज्यादातर मामलों में मुआवजा राशि ही ऊंट के मुंह में जीरे के समान होती है। अल्पराशि से परिवार का भरण-पोषण आसान नहीं होता। इससे किसी नेता और अफसर का सरोकार नहीं रहता।
 
मुआवजे के ऐसे सैंकड़ों मामले हर साल अदालतों में आते हैं। सालों तक ऐसे मामले चलते हैं। जिनमें भेदभाव या अड़चन डालने के आरोप लगाए जाते हैं। इससे बड़ा दुर्भाग्य क्या होगा कि ऐसे हादसों को रोकने के लिए दूरगामी और पुख्ता इंतजाम करने के बजाए राजनीतिक दलों के नेता बेफिजूल के मुद्दों पर बहस करके समय जाया करते रहते हैं। कुप्रबंधन और शासकीय अराजकता से होने वाली दुर्घटनाओं को कभी धार्मिक और कभी सामाजिक कारणों से सरकारें अनदेखी करती हैं।
 
दूसरे शब्दों में कहें तो सरकारें ही परोक्ष रूप से ऐसे हादसों की बुनियाद में शामिल हैं। भारी भीड़ और लापरवाही भरे इंतजाम से हादसे होने की संभावना बनी रहती है। इसे टालने के पुख्ता पुलिस−प्रशासनिक दूरदर्शी उपायों की दरकार होती है। इसके बजाए महज खानापूर्ति करके सुरक्षा इंतजामों की पूर्ति की जाती है। लापरवाही और गैरजिम्मेदारी की ऐसी प्रवृत्ति के कारण कुछ दिनों बाद ही देश के दूसरे भू−भाग में ऐसे हादसों की खबरें मिलती हैं। केंद्र हो या राज्य की सरकारें, इस बात की गारंटी नहीं देती कि समान प्रकृति के हादसे अब नहीं होंगे।
 
राज्यों की सरकारें दूसरे राज्यों में होने वाले हादसों से सबक नहीं सीखती। इसके परिणामस्वरूप कुछ अर्से बाद ही समान तरह के हादसे एक राज्य के बाद दूसरे राज्यों में होते हैं। जिस राज्य में हादसा होता है, वहां की सरकार जरूर कुछ फौरी उपाय करती हैं, जबकि दूसरे राज्यों की सरकारें ऐसे हादसों का इंतजार ही करती नजर आती हैं। अमृतसर का ट्रेन हादसा हो या देश के दूसरे हिस्सों में होने वाले ऐसे ही दूसरे हादसे, जब तक सरकारें जिम्मेदारी से भागती रहेंगी, तब तक होते रहेंगे।
 
-योगेन्द्र योगी
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