प्लास्टिक के साथ ही कानफोड़ू शोर और बेकार बहते पानी को भी रोकने की जरूरत Featured

By -विजय कुमार October 19, 2019 424

एकबारी (सिंगल यूज) प्लास्टिक के साथ अन्य विषयों पर भी विचार जरूरी है। किसी भी सामाजिक परिवर्तन में सरकार उत्प्रेरक तो बन सकती है; पर मुख्य भूमिका जनता को ही निभानी होगी। अपनी निजी जिम्मेदारी तय किये बिना यह संभव नहीं है।

 

पर्यावरण संरक्षण आजकल एक चर्चित विषय है। 15 अगस्त के अपने संबोधन में प्रधानमंत्री मोदी ने एकबारी (सिंगल यूज) प्लास्टिक को बंद करने का आग्रह किया है। तबसे देश भर में एक अभियान चल पड़ा है। कहीं कपड़े के थैले बंट रहे हैं, तो कहीं प्लास्टिक की थैली में सामान देने वाले दुकानदार और ठेले वालों से जुर्माना लिया जा रहा है। ग्राहक भी जागरूक हुए हैं। मोदी ने जैसे सफाई को राष्ट्रीय अभियान बना दिया, वैसा ही वातावरण अब प्लास्टिक के विरुद्ध बन रहा है।

लेकिन पर्यावरण संरक्षण के लिए पहली जरूरत हमारी मानसिकता बदलने की है। आज से 30-40 साल पहले हम बाजार में थैला या बरतन लेकर जाते थे, फिर अब यह पिछड़ापन कैसे हो गया ? जहां तक कागजी लिफाफों की बात है, तो ये ध्यान रहे कि कागज पेड़ों से बनता है। जितना अधिक लिफाफे प्रयोग होंगे, उतने ही पेड़ भी कटेंगे। पर्यावरण प्रेमियों ने घटते पेड़ों के कारण लिफाफों का विरोध किया, तो उसके विकल्प में हल्की प्लास्टिक थैलियां आ गयीं। इनका प्रयोग इतना आसान था कि फल और सब्जी ही नहीं, दूध और गरम चाय तक लोग इसमें लाने लगे।
पर फिर इन थैलियों से नाले चोक होने लगे। पशु, पक्षी और जलीय जीव इन्हें खाकर मरने लगे। प्लास्टिक नष्ट नहीं होता, यह भी लोगों को पता लगा; पर सरकार जहां कूड़ाघर बनाने का प्रस्ताव करती है, वहां लोग विरोध करने लगते हैं। क्योंकि इससे दुर्गंध और बीमारी फैलती है। समस्या सरकारों के सामने भी है कि वह कूड़ा कहां फेंकें ? भरपूर प्रचार के बाद भी लोग गीला और सूखा कूड़ा एक ही थैली में भर देते हैं। उन्हें अलग करने और निबटाने में अधिक समय और धन लगता है। यह मानसिकता कब और कैसे बदलेगी ? 
कुछ दिन पूर्व ‘कौन बनेगा करोड़पति’ में सुलभ इंटरनेशनल के डॉ. बिंदेश्वर पाठक के साथ इंदौर के कमिश्नर श्री आशीष सिंह भी आये थे। उन्होंने बताया कि वहां के लोग गीला और सूखा कचरा अलग-अलग कर कूड़ा गाड़ी में डालते हैं। इससे शासन को कूड़ा निपटान में बड़ी सुविधा हुई और इंदौर पिछले तीन साल से भारत का सर्वाधिक साफ शहर घोषित हो रहा है। यह काम हम क्यों नहीं कर सकते ?
 
कई लोग बाजार से सामान प्लास्टिक और अब कपड़े की थैली में ही लेते हैं। घर के बाहर खड़े सब्जी वाले से भी वे थैली में ही सामान देने को कहते हैं। कई लोग कपड़े की थैली भी फेंक देते हैं। ऐसे तो ये थैलियां भी नालियों में फंसेंगी और पशु उन्हें खाकर मरेंगे। इसलिए प्लास्टिक थैली का विकल्प लिफाफा या बाजारी थैली नहीं, घरेलू थैला है। अब घर में सिलाई मशीन और पुराने कपड़ों से थैले बनाने का चलन नहीं रहा; पर कपड़े की हल्की थैलियां तो उपलब्ध ही हैं। जरूरत उन्हें ही बार-बार प्रयोग करने की है। हमें यह भी सोचना होगा कि घर का अधिकतम कूड़ा घर में ही कैसे निबटाएं ? कुछ कार वाले यात्रा के दौरान अपना घरेलू कूड़ा सुनसान जगह फेंक देते हैं। ये समस्या का समाधान नहीं है।
पर्यावरण संरक्षण के अभियान ठीक तो हैं; पर असली जरूरत हमारा मानस बदलने की है। बेकार बहता पानी; आर.ओ.फिल्टर; मंदिर, मस्जिद, रामलीला आदि का कानफोड़ शोर; शादियों में देर रात तक बजने वाले डी.जे; धार्मिक, सामाजिक या राजनीतिक आयोजनों के जुलूस; कर्कश हार्न; अनियोजित शहरीकरण.. आदि भी तो पर्यावरण को हानि पहुंचा रहे हैं। एकबारी (सिंगल यूज) प्लास्टिक के साथ इन पर भी विचार जरूरी है। किसी भी सामाजिक परिवर्तन में सरकार उत्प्रेरक तो बन सकती है; पर मुख्य भूमिका जनता को ही निभानी होगी। अपनी निजी जिम्मेदारी तय किये बिना यह संभव नहीं है। 
 
-विजय कुमार
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