ईश्वर दुबे
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कर्नाटक हाईकोर्ट के भ्रष्टाचार निरोधक ब्यूरो को खत्म करने के आदेश के बाद देशभर में भ्रष्टाचार के खिलाफ राज्यों में कार्यरत ऐसे ब्यूरो पर सवालिया निशान लग गया है। हाईकोर्ट ने इस ब्यूरो को नाकारा और भ्रष्टाचार का संरक्षण देने वाला मानते हुए भंग करने के आदेश दिए हैं। संभव है कि कर्नाटक सरकार इस फैसले को सुप्रीम कोर्ट तक चुनौती दे। यह भी संभव है कि अदालत इस फैसले पर रोक लगा दे या बदल दे। किन्तु इतना जरूर है कि इस फैसले ने राज्यों में भ्रष्टाचार की रोकथाम के लिए गठित ऐसे ब्यूरो के औचित्य पर सवालिया निशान लगा दिए हैं। ऐसा नहीं है कि सिर्फ कर्नाटक में ही भ्रष्टाचार निरोधक ब्यूरो के औचित्य पर सवाल उठाया गया है, बल्कि देश के ज्यादातर राज्यों के ब्यूरो का यही हाल है। राज्यों में कार्यरत भ्रष्टाचार निरोधक ब्यूरो राजनीतिक विरोधियों को ठिकाने लगाने के अड्डे बन गए हैं। राज्यस्तरीय भ्रष्टाचार निरोधक ब्यूरो का गठन राज्य सरकारें करती हैं। इनमें खासतौर पर क्षेत्रीय सत्तारुढ़ दल ब्यूरो में ऐसे पुलिस अफसरों को तैनात करते हैं, जोकि उनकी उंगलियों पर नाच सकें। ब्यूरो का गठन भले ही भ्रष्टाचार मिटाने के लिए किया गया हो, किन्तु हकीकत में इनका टारगेट सरकार के इशारे पर तय होता है। खासतौर पर क्षेत्रीय सरकारें अपने विरोधियों को सबक सिखाने के लिए इसका इस्तेमाल करती रही हैं। कर्नाटक का फैसला इसी बात का प्रमाण है।
वैसे भी ब्यूरो की पकड़ में कभी भ्रष्टाचार के मगरमच्छ नहीं आते। इनकी पकड़ सिर्फ छोटी मछलियों तक रहती है, ताकि सरकार को लगे कि वाकई ब्यूरो भ्रष्टाचार के खात्मे की दिशा में अग्रसर है। इसके विपरीत भ्रष्ट बड़े अधिकारी और नेताओं के काले कारनामों की तरफ ब्यूरो आंख फेरे रहता है। ब्यूरो के अफसरों को इनकी काली कमाई नजर नहीं आती। राज्यों में खासतौर से क्षेत्रीय दलों पर किसी का अंकुश नहीं और पार्टी के प्रति जवाबदेयी तय नहीं होती, जबकि राष्ट्रीय पार्टियों में फिर भी कुछ जिम्मेदारी रहती है। ऐसे में सत्तारुढ़ क्षेत्रीय पार्टियां मनमानी पर उतर आती हैं। ब्यूरो के अफसर राज्य सरकार के सामने नतमस्तक हुए रहते हैं।
दशकों से चली आ रही राज्यों के भ्रष्टाचार ब्यूरो की कार्यशैली से आम लोगों को यह भरोसा पूरी तरह उठ चुका है कि यह सरकारी विभाग भ्रष्टाचार को खत्म करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है। इसके विपरीत ब्यूरो सत्ताधारियों और वरिष्ठ अफसरों की अवैध कमाई का खुलासा करने के बजाए कार्रवाई के लिए सरकार का मुंह ताकता रहता है। ब्यूरो में पुलिसकर्मियों और अफसरों की तैनाती की जाती है। अलबत्ता तो ब्यूरो में पुलिसकर्मी जाने के इच्छुक नहीं रहते, कारण साफ है, वर्दी नहीं होने से वहां रौब-दाब और ऊपरी कमाई गायब रहती है। ऐसे में ब्यूरो के कार्मिक बेमन से अपनी ड्यूटी को अंजाम देते हैं, उनकी कोशिश यही होती है कि किसी न किसी तरह जुगाड़ बिठा कर वापस पुलिस विभाग में चले जाएं। इतना ही नहीं राज्यों की सरकारों ने ब्यूरो के कामकाज में बाधा डालने में कोई कोर-कसर बाकी नहीं रखी है। सरकार की मंजूरी के बगैर आईएएस, आईपीएस और अन्य अधिकारियों के खिलाफ ब्यूरो को अदालत में आरोप पत्र दाखिल करने की अनुमति नहीं है। इसके लिए राज्य सरकार की मंजूरी लेना आवश्यक है। ज्यादातर राज्य सरकार ब्यूरो की स्वीकृति मांगने वाली फाइल पर कुंडली मार कर बैठ जाती हैं। ऐसे में जो ब्यूरो अफसरों का भ्रष्टाचार के खिलाफ जो थोड़ा बहुत साहस बचा रहता है, वो भी खत्म हो जाता है।
राज्यों के भ्रष्टाचार ब्यूरो के कामकाज की असलियत का पता प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) और केंद्रीय जांच ब्यूरो की कार्रवाई से चलता है। उदाहरण के तौर पर पश्चिमी बंगाल का कोयला घोटाला, चिटफंड सारदा घोटाला, सीमा पार पशुओं की तस्करी और हाल ही में चल रहा शिक्षक भर्ती घोटाला है। इन घोटालों में ईडी और सीबीआइ ने मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के कई मंत्रियों, विधायकों, सांसदों को गिरफ्तार किया गया है। ये घोटाले सालों तक चलते रहे किन्तु राज्य के भ्रष्टाचार निरोधक ब्यूरो ने आंख उठा तक नहीं देखी। कमोबेश यही हाल दूसरे राज्यों की क्षेत्रीय दलों की सरकारों का भी रहा है। ब्यूरो घोटाले करने वाले नेताओं और अफसरों पर कार्रवाई करने की हिम्मत नहीं जुटा सके। उनकी हालत पानी में रह कर मगर से बैर कौन ले, वाली ही बनी रही। ईडी और सीबीआई की कार्रवाई के बाद भ्रष्टाचार का पर्दाफाश हो सका। ऐसा नहीं है कि ईडी और सीबीआई पर भेदभाव के आरोप नहीं लगे हों। इन दोनों केंद्रीय एजेंसियों पर भी कई बार भ्रष्टाचारियों को बचाने और केंद्र सरकार के इशारे पर कार्रवाई करने के आरोप लग चुके हैं। इसके बावजूद दोनों एजेंसियों ने कई राज्यों में कार्रवाई करके क्षेत्रीय दलों की सरकारों की भ्रष्टाचार के खिलाफ असलियत को जरूर उजागर किया है।
-योगेन्द्र योगी