दशहरा की धूम के बीच सरकारी अफसर से मैंने पूछा था कि कुल्लू के दशहरे में अंर्तराष्ट्रीय क्या है। उन्होंने मुझे अंग्रेज़ी में समझाया था कि हर साल हम दूसरे देशों के सांस्कृतिक दलों को बुलाते हैं जो यहां अपने लोकनृत्य प्रस्तुत करते हैं। लगा, यह शायद इसलिए कि इस आयोजन में ज्यादा विदेशी पर्यटक आएं। हमारी अपनी लोक संस्कृति व धरती में कम आकर्षण नहीं है। यहां तो सैंकड़ों बरस से दूसरे देशों से व्यापारी आते रहे व सांस्कृतिक कला सम्बंध भी उगते रहे। बात तो कहने, समझने की व सही प्रस्तुति की है। लगभग तीन सौ साठ बरस से मनाए जा रहे इस एतिहासिक, पारम्परिक उत्सव में अभी आन बान व शान सलामत है। दशहरे की परम्पराएं आज भी जीवंत हैं। हिमालय के बेटे हिमाचल की पहाड़ियों की गोद में बसे हर गांव का अपना देवता है। आज भी जब जब लोकउत्सव होते हैं तब तब आम जनता का अपने ईष्ट से मिलना होता है। कुल्लू की नयनाभिराम घाटी में आयोजित होने वाले कई लोकोत्सवों का सरताज है कुल्लू दशहरा। संसार व पूरे देश में दशहरा सम्पन्न हो जाने के बाद आरम्भ होता है यह लोकदेव समागम।