ईश्वर दुबे
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Bhilai
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत ने एक ऐसा बयान दे दिया है, जिसे सुनकर देश के कांग्रेसी, वामपंथी और मुस्लिम संगठन दांतों तले उंगली दबा लेंगे। ये सभी लोग आरोप लगा रहे थे कि काशी और मथुरा में भी मंदिर और मस्जिद का झंगड़ा संघ के इशारों पर खड़ा किया जा रहा है लेकिन नागपुर के एक संघ-समारोह के समापन भाषण में उन्होंने दो-टूक शब्दों में यह स्पष्ट कर दिया कि मस्जिदों को तोड़कर उनकी जगह मंदिर बनाने के पक्ष में संघ बिल्कुल नहीं है।
यह ठीक है कि विदेशी आक्रमणकारियों ने अपना वर्चस्व जमाने के लिए सैंकड़ों-हजारों मंदिरों को भ्रष्ट किया। उनकी जगह उन्होंने मस्जिदें खड़ी कर दीं। लेकिन यह इतिहास का विषय हो गया है। उस इतिहास को अब दोहराना क्यों? यदि इतिहास को दोहराएंगे तो रोज़ एक नया मामला खड़ा हो जाएगा। ‘‘ज्ञानवापी के मामले में हमारी श्रद्धा परंपरा से चलती आई है। ...वह ठीक है लेकिन हर मस्जिद में शिवलिंग क्यों देखना?’’
मोहन भागवत के तर्कों को अगर मुहावरों की भाषा में कहना है तो उनका तर्क यह है कि गड़े मुर्दे अब क्यों उखाड़ना? मंदिर हो या मस्जिद, दोनों ही पूजा-स्थलों पर भगवान का नाम लिया जाता है। हिंदू लोग किसी भी पूजा-पद्धति के विरोधी नहीं हैं। यह ठीक है कि मुसलमानों की पूजा-पद्धति स्वदेशी नहीं है। उनकी पूजा-पद्धति चाहे विदेशी है लेकिन मुसलमान तो स्वदेशी हैं। मोहनजी ने वही बात दोहराई जो अटलजी कहा करते थे। अटलजी का एक प्रसिद्ध बयान था कि मुसलमानों की रगों में वही खून बहता है, जो हिंदुओं की रगों में बह रहा है। मोहन भागवत ने तो यहां तक कह दिया है कि भारत के हिंदुओं और मुसलमानों का डीएनए भी एक ही है।
हिंदू धर्म और अन्य पश्चिमी मजहबों में यही फर्क है कि हिंदू जीवन शैली सभी पूजा-पद्धतियों को बर्दाश्त करती है। मध्यकाल से यह वाक्य बहुत प्रचलित था कि ‘अंदर से शाक्त हूं, बाहर शैव हूं और सभा मध्य मैं वैष्णव हूं।’’ भारतीयों घरों में आपको ऐसे अनगिनत घर मिल जाएंगे, जिनके कुछ सदस्य आर्यसमाजी, कुछ सनातनी, कुछ जैनी, कुछ राधास्वामी, कुछ रामसनेही और कुछ कृष्णभक्त होंगे। वे सब अपने-अपने पंथ को श्रद्धापूर्वक मानते हैं लेकिन उनके बीच कोई झगड़ा नहीं होता। मेरे ऐसे दर्जनों मित्र—परिवार हैं जिनमें पति—पत्नी अलग—अलग मजहबों और धर्मों को मानने वाले हैं। मोहनजी के कहने का सार यही है, जो गांधीजी कहते थे, सर्वधर्म समभाव ही भारत का धर्म है। भारत धर्म है।
इसी भारत धर्म को हमारे मुसलमान, ईसाई, यहूदी और बहाई लोग भी तहे-दिल से मानने लगें तो कोई सांप्रदायिक विवाद भारत में कभी हो ही नहीं सकता। यह ठीक है कि कई अभारतीय धर्मों के भारत में फैलने के मुख्य आधार भय, लालच और वासना रहे हैं लेकिन यह भी सत्य है कि इन विदेशी धर्मों ने उनके अपने देशों को कई अंधकूपों से निकालकर प्रकाशमान भी किया है। उनके अपने देशों में उनकी भूमिका काफी क्रांतिकारी रही है। यदि उस क्रांतिकारी भूमिका और भारत की परंपरागत धर्मदृष्टि में उचित समन्वय हो सके तो वह सर्वश्रेष्ठ मानव धर्म बन सकता है। वही सच्चा भारत धर्म कहलाएगा।
-डॉ. वेदप्रताप वैदिक