ईश्वर दुबे
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Bhilai
कोई पार्टी मां-बेटा पार्टी है तो कोई बाप-बेटा पार्टी है। कोई चाचा-भतीजा पार्टी है तो कोई बुआ-भतीजा पार्टी है। बिहार में तो पति-पत्नी पार्टी भी रही है। अब जैसे कांग्रेस भाई-बहन पार्टी बनती जा रही है, वैसे ही पाकिस्तान में भाई-भाई पार्टी, पति-पत्नी पार्टी और बाप-बेटा पार्टी है। ये सब पार्टियां अब पार्टियां रहने की बजाय प्राइवेट लिमिटेड कंपनियां बनती जा रही हैं। न तो इनमें आंतरिक लोकतंत्र होता है, न इनमें आमदनी और खर्च का कोई हिसाब होता है और न ही इनकी कोई विचारधारा होती है। इनका एकमात्र लक्ष्य होता है— सत्ता-प्राप्ति!
यदि सेवा से सत्ता मिले और सत्ता से सेवा की जाए तो उसका कोई मुकाबला नहीं लेकिन अब तो सारा खेल सत्ता और पत्ता में सिमट कर रह गया है। सत्ता हथियाओ ताकि नोटों के पत्ते बरसने लगें। सत्ता से पत्ता और पत्ता से सत्ता— यही हमारे लोकतंत्र की पहचान बन गई है। राजनीति में भ्रष्टाचार ही शिष्टाचार बन गया है। हमारी राजनीति में आदर्श और विचारधारा अब अंतिम सांसें गिन रही हैं। भारतीय राजनीति के शुद्धिकरण के लिए यह जरूरी है कि सभी पार्टियों में परिवारवाद पर रोक लगाने की कुछ संवैधानिक तजवीज की जाए।
महाराष्ट्र की राजनीति का दूसरा सबक यह है कि परिवारवाद उसके नेता को अहंकारी बना देता है। वह अपने पद को अपने बाप की जागीर समझने लगता है। एक बार उस पर बैठ गया तो जिंदगी भर के लिए जम गया। पार्टी में नेता जो तानाशाही चलाता है, उसे वह सरकार में भी चलाना चाहता है। कभी-कभी ऐसे लोग सरकारों को बहुत प्रभावशाली और नाटकीय ढंग से चलाते हुए दिखाई पड़ते हैं लेकिन जब पाप का घड़ा फूटने को होता है तो उस वक्त आपातकाल थोपना पड़ता है। यदि भारत को हमें लोकतांत्रिक राष्ट्र बनाए रखना है और उसे आपातकालों से बचाना है तो पार्टियों के आंतरिक लोकतंत्र की रक्षा के लिए कुछ संवैधानिक प्रावधान करने होंगे।
-डॉ. वेदप्रताप वैदिक
महाराष्ट्र की राजनीति भारत के लिए कुछ महासबक दे रही है। सबसे पहला सबक तो यही है कि परिवारवाद की राजनीति पर जो पार्टी टिकी हुई है, वह खुद के लिए और भारतीय लोकतंत्र के लिए भी खतरा है। खुद के लिए वह खतरा है, यह उद्धव ठाकरे की शिवसेना ने सिद्ध कर दिया है। अब जो शिवसेना उद्धव ठाकरे के पास बची हुई है, वह कब तक बची रहेगी या बचेगी या नहीं बचेगी, कुछ पता नहीं। उसके दो टुकड़े पहले ही हो चुके थे जैसे लालू और मुलायम सिंह की पार्टियों के हुए हैं। ये पार्टियां परिवार के अलग-अलग खंभों पर टिकी होती हैं।