ईश्वर दुबे
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Bhilai
उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ और रामपुर लोकसभा सीट पर हाल में हुए उपचुनाव के जो परिणाम आये हैं, वह भी इसी बात के संकेत हैं। ये चुनाव चौंकाने वाले जरूर हैं, लेकिन सूबाई सियासत का ऊंट अब किस करवट बैठने की जुगत बिठा रहा है, इस बात की पुष्टि भी कर रहे हैं। शासन-प्रशासन की सख्त और पारदर्शी नीतियां अब उन लोगों को भी रास आने लगी हैं, जो लोग अब तक जाति, धर्म और क्षेत्र की सियासी खूंटे से बंधे समझे जाते थे, जिससे उत्तर प्रदेश पिछड़ा राज्य तक समझा गया।
उत्तर प्रदेश के ताजा उपचुनाव परिणाम जहां भाजपा के हौसले बुलंद कर रहे हैं, वहीं सपा को अपनी राजनीतिक रणनीति पर फिर से सोच-विचार करने को मजबूर कर रहे हैं। वहीं बसपा को यह इशारा कर रहे हैं कि सपा को निपटाए बिना लखनऊ की गद्दी हासिल करना उसके लिए अब टेढ़ी खीर बन चुका है। वहीं, कांग्रेस समेत अन्य छुटभैये दलों को यह चुनाव परिणाम स्पष्ट नसीहत दे रहे हैं कि यूपी के मुसलमानों, दलितों, पिछड़ों का समर्थन हासिल करने के लिए उसे सपा या बसपा की शरण में ही जाना होगा।
स्वभाव से शिष्ट पर विचार से दबंग मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने यूपी उपचुनाव के परिणाम पर प्रतिक्रिया देते हुए ठीक ही कहा है कि उपचुनाव में बीजेपी को मिली जीत से 2024 के लिए सकारात्मक संदेश जाएगा और राज्य की सभी 80 की 80 सीटें वो जीतेंगे। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की इस बात से इसलिए भी असहमत नहीं हुआ जा सकता है कि सपा नेता मुलायम सिंह यादव की खानदानी सीट आजमगढ़ लोकसभा क्षेत्र और सपा नेता आजम खान के वर्चस्व वाली सीट रामपुर लोकसभा क्षेत्र, यानी कि दोनों सीटें उन्होंने समाजवादी पार्टी से छीन ली हैं।
यह वही समाजवादी पार्टी है जिसने फरवरी 2022 में हुए विधानसभा चुनाव में अपना अच्छा प्रदर्शन करते हुए अपनी सीटों में आशातीत इजाफा ही नहीं किया, बल्कि बसपा के प्रदर्शन को सियासी रूप से बौना साबित करके खुद को बीजेपी के असली प्रतिद्वंद्वी के रूप में राज्य में स्थापित करने की कामयाब पहल की, ताकि अल्पसंख्यक मुस्लिम वोट उससे नहीं छिटके।
हालांकि आजमगढ़ और रामपुर लोकसभा उपचुनाव के परिणाम इस बात की चुगली कर रहे हैं कि जहां आजमगढ़ में समाजवादी पार्टी के उम्मीदवार की हार की असली वजह बहुजन समाज पार्टी यानी बसपा के प्रत्याशी द्वारा अच्छा खासा वोट समेटा जाना है, वहीं रामपुर में बीएसपी उम्मीदवार नहीं होने से उसके वोटर बीजेपी के पक्ष में एकजुट हो गए। जिससे दोनों जगहों पर बीजेपी उम्मीदवारों की जीत आसान हो गई।
आशय स्पष्ट है कि बिखरे विपक्ष का फायदा केंद्र व राज्य में सत्तारुढ़ पार्टी बीजेपी को मिल रहा है, जो आगे भी जारी रहेगा। इससे यूपी बीजेपी के हौसले बुलंद हैं। सियासत का सार्वभौमिक नियम है कि अपने लोगों को जोड़ते रहिये और विरोधियों को तोड़ते रहिये। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ अपने इस मिशन में अब तक इसलिए सफल हुए हैं, क्योंकि एक ओर उन्होंने जहाँ लोगों को पारदर्शी प्रशासन देने की कोशिश की है, वहीं दूसरी ओर सत्ता के समक्ष नंगा नृत्य करने वाली जमात को मौके पर ही तोड़ने का सफल प्रयास किया, जो लोगों को रास आ रहा है।
एक सनातन संत होने के कारण उन्होंने वसुधैव कुटुम्बकम की नीतियों पर चलते हुए हिन्दू धर्म की प्रतिष्ठा को फिर से पुनर्स्थापित करने की अथक कोशिश की और साम, दाम, दंड, भेद की नीतियों को अपनाते हुए निष्कंटक राज कर रहे हैं, जिसको अपार जनसमर्थन भी मिल रहा है।
उत्तर प्रदेश के लोकसभा उपचुनाव परिणाम ने अब यह स्पष्ट कर दिया है कि राज्य में भाजपा के बाद सपा और बसपा का ही जनाधार है, जिन्होंने कांग्रेस को राजनैतिक हाशिये पर धकेल कर अपनी अपनी स्थिति मजबूत कर ली है। इसलिए सूबे में जब तक सपा और बसपा में राजनीतिक एकता नहीं स्थापित होगी, तब तक बीजेपी का भविष्य उज्ज्वल है। वहीं, बीजेपी ने भी दलित व पिछड़े नेताओं को आगे करके सपा-बसपा की लंका लगाना शुरू कर दिया है। उपचुनाव के दोनों विजयी प्रत्याशी भी पिछड़ा वर्ग से ही आते हैं।
देखा जाए तो बीजेपी का पार्टी विद डिफरेंस होना, भय-भूख-भ्रष्टाचार से सीधे पंगा लेना, राष्ट्रवाद और हिंदुत्व को निरन्तर मजबूत करते जाना, सामूहिक हित और जनहितैषी नेताओं को बढ़ावा देना और प्रशासनिक गलियारों में दक्ष एवं सुशील अधिकारियों को बढ़ावा देना आदि कुछ ऐसी सटीक सियासी पहल हैं जो बिखरे या एकजुट विपक्ष को भी मात देने की क्षमता रखती है।
बीजेपी की नीतियों के प्रति समाज के सभी वर्गों में संतोष का भाव है, क्योंकि विपरीत वैश्विक और राष्ट्रीय परिस्थितियों में भी मोदी-योगी सरकार अपना बेस्ट देने के प्रति तत्पर है। यही कारण है कि योगी के हौसले बुलंद हैं और पीएम मोदी भी इस बात के प्रति आश्वस्त हैं कि जिस सशक्त व समृद्ध भारत का सपना उन्होंने देखा है, वह उनके बाद भी जारी रहेगा। क्योंकि 'मोदी हैं तो मुमकिन है' के सियासी नारे की जगह अब 'योगी हैं तो यकीन कीजिए' वाला जनविश्वास चुनाव दर चुनाव जनमानस में गहराता जा रहा है।
यह उपचुनाव परिणाम बसपा के लिए भी खास मायने रखते हैं। आजमगढ़ लोकसभा सीट पर बसपा के मुस्लिम प्रत्याशी ने जितने वोट बटोरे हैं, वह सपा के लिए हार और बीजेपी के लिए अप्रत्याशित जीत के सबब बन गए। ऐसे में सपा नेता अखिलेश यादव की समझदारी इसी बात में है कि अब वह मुंहबोली बुआ यानी बसपा सुप्रीमो सुश्री मायावती की शरण में जाएं और उनके साथ मिलकर बीजेपी को चुनावी शिकस्त दें।
यदि अखिलेश यादव बसपा के साथ दोस्ताना रिश्ते रखने में विफल होते हैं तो मुसलमानों को चाहिए कि वो एक बार पूरे राज्य में बसपा को अपना समर्थन उसी प्रकार दें, जैसा कि उन्होंने फरवरी 2022 के यूपी विधानसभा चुनाव में सपा को दिया था। क्योंकि यदि वह बसपा को मजबूत नहीं करेंगे, तो वे बीजेपी को उत्तर प्रदेश से बेदखल नहीं कर पाएंगे। चूंकि पिछड़ों का एक बड़ा तबका बीजेपी के साथ है, इसलिए सपा का पिछड़ा जनाधार खिसक चुका है। इसलिए मुस्लिम गोलबंदी के बावजूद अखिलेश यादव गत विधानसभा चुनाव में यूपी की सत्ता हासिल करते करते रह गए।
वहीं, मुस्लिम यदि बसपा के साथ जाते हैं और दलित वोट उसके साथ जुड़ जाते हैं तो बीजेपी के लिए यह स्थिति सुकूनदायक नहीं होगी। यूपी का राजनीतिक इतिहास इस बात का गवाह है कि बसपा-बीजेपी की दोस्ती कभी परदे के पीछे से तो कभी मंच पर सामने से भी कामयाब रही है। इसलिए बसपा को चाहिए कि वह बीजेपी से सम्मानजनक बातचीत करे, वहीं भाजपा को चाहिए कि वह बसपा के सियासी हितों के प्रति सॉफ्ट कॉर्नर रखे, ताकि उसका जनाधार वक्त आने पर बीजेपी से चिपकने में असहज महसूस नहीं करे। ऐसा करके ही वह राष्ट्रवाद और हिंदुत्व को और मजबूती प्रदान कर सकती है, अन्यथा नहीं।
हालांकि बीजेपी की जो रणनीति है, उससे कांग्रेस की तरह सपा और बसपा भी अपने समर्थक वर्ग में ही अलोकप्रिय हो जाएंगी और उसके समर्थक 'सबका साथ, सबका विकास, सबका विश्वास' जैसे लोकलुभावन नारे पर लहालोट होकर बीजेपी के हिंदुत्व और राष्ट्रवाद की भावना से जुड़ते चले जायेंगे।
-कमलेश पांडेय
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व स्तम्भकार हैं)