ईश्वर दुबे
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Bhilai
श्रीलंका के राष्ट्रपति गोटबाया राजपक्ष देश छोड़कर भाग खड़े हुए हैं। इधर श्रीलंका में प्रधानमंत्री रानिल विक्रमसिंघे कार्यवाहक राष्ट्रपति बन गए हैं। राष्ट्रपति भवन में जनता ने कब्जा कर रखा है और रनिल के घर को भी जला दिया गया है। रानिल विक्रमसिंघे को श्रीलंका में कौन कार्यवाहक राष्ट्रपति के तौर पर स्वीकार करेगा? अब तो श्रीलंकाई संसद ही राष्ट्रपति का चुनाव करेगी लेकिन बड़ा सवाल यह है कि इस संसद की कीमत ही क्या रह गई है?
राजपक्ष की पार्टी की बहुमत वाली संसद को अब श्रीलंका की जनता कैसे बर्दाश्त करेगी? विरोध पक्ष के नेता सजित प्रेमदास ने दावा किया है कि वे अगले राष्ट्रपति की जिम्मेदारी लेने को तैयार हैं लेकिन 225 सदस्यों की संसद में राजपक्ष की सत्तारुढ़ पार्टी की 145 सीटें हैं और प्रेमदास की पार्टी की सिर्फ 54 सीटें हैं। यदि प्रेमदास को सभी विरोधी दल अपना समर्थन दे दें तब भी वे बहुमत से राष्ट्रपति नहीं बन सकते। सजित काफी मुंहफट नेता हैं। उनके पिता रणसिंह प्रेमदास भी श्रीलंका के प्रधानमंत्री रहे हैं। उनके साथ यात्रा करने और कटु संवाद करने का अवसर मुझे कोलंबो और अनुराधपुरा में मिला है। वे भयंकर भारत-विरोधी थे। इस समय सबको पता है कि भारत की मदद के बिना श्रीलंका का उद्धार असंभव है। यदि सजित प्रेमदास संयत रहेंगे और सत्तारुढ़ दल के 42 बागी सांसद उनका साथ देने को तैयार हो जाएं तो वे राष्ट्रपति का पद संभाल सकते हैं लेकिन राष्ट्रपति बदलने पर श्रीलंका के हालत बदल जाएंगे, यह सोचना निराधार है।
सबसे बड़ा आश्चर्य यह है कि इन बुरे दिनों में श्रीलंका की प्रचुर सहायता के लिए चीन आगे क्यों नहीं आ रहा है? राजपक्ष परिवार तो पूरी तरह चीन की गोद में ही बैठ गया था। चीन के चलते ही श्रीलंका विदेशी कर्ज में डूबा है। चीन की वजह से अमेरिका ने चुप्पी साध रखी है। लेकिन भारत सरकार का रवैया बहुत ही रचनात्मक है। वह कोलंबो को ढेरों अनाज और डॉलर भिजवा रहा है। भारत जो कर रहा है, वह तो ठीक ही है लेकिन यह भी जरूरी है कि वह राजनीतिक तौर पर जरा सक्रियता दिखाए। जैसे उसने सिंहल-तमिल द्वंद्व खत्म कराने में सक्रियता दिखाई थी, वैसे ही इस समय वह कोलंबो में सर्वसमावेशी सरकार बनवाने की कोशिश करे तो वह सचमुच उत्तम पड़ोसी की भूमिका निभाएगा। ज़रा याद करें कि इंदिराजी ने 1971 में प्रधानमंत्री श्रीमावो बंदारनायक के निवेदन पर रातोंरात उनको तख्ता-पलट से बचाने के लिए केरल से अपनी फ़ौजें कोलंबो भेज दी थीं और राजीव गांधी ने 1987 में भारतीय शांति सेना को कोलंबो भेजा था।
-डॉ. वेदप्रताप वैदिक