ईश्वर दुबे
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Bhilai
मानसून की शुरुआत से ही इस साल देश के कई हिस्सों में मूसलाधार बारिश, बाढ़, बादल फटने, बिजली गिरने और भू-स्खलन से तबाही का सिलसिला अनवरत जारी है। पहाड़ों पर आसमानी आफत टूट रही है तो देश के कई इलाके बाढ़ के कहर से त्राहि-त्राहि कर रहे हैं। असम के बाद गुजरात तथा महाराष्ट्र भी अब बाढ़ के प्रकोप से त्रस्त हैं, जहां अब तक बाढ़ के शिकार होकर सैंकड़ों लोग मौत के आगोश में समा चुके हैं। देशभर के अनेक इलाकों में नदियां और जलाशय उफान पर हैं। हालांकि उत्तर भारत के कई इलाके मानसूनी बारिश के लिए अब तक तरस रहे हैं। कमोवेश हर साल मानसून के दौरान विभिन्न राज्यों में अब इसी प्रकार का नजारा देखा जाने लगा है। निःसंदेह यह सब पर्यावरण असंतुलन का ही दुष्परिणाम है, जिसके कारण मानूसन से होती तबाही की तीव्रता साल दर साल बढ़ रही है। मानसून का मिजाज इस कदर बदल रहा है कि जहां मानसून के दौरान महीने के अधिकांश दिन अब सूखे निकल जाते हैं, वहीं कुछेक दिनों में ही इतनी बारिश हो जाती है कि लोगों की मुसीबतें कई गुना बढ़ जाती हैं। दरअसल वर्षा के पैटर्न में अब ऐसा बदलाव नजर आने लगा है कि बहुत कम समय में ही बहुत ज्यादा पानी बरस रहा है, जो प्रायः भारी तबाही का कारण बनता है।
मानसून प्रकृति प्रदत्त ऐसा खुशनुमा मौसम है, भीषण गर्मी झेलने के बाद जिसकी बूंदों का हर किसी को बेसब्री से इंतजार रहता है। यह ऐसा मौसम है, जब प्रकृति हमें भरपूर पानी देती है किन्तु पानी की कमी से बूरी तरह जूझते रहने के बावजूद हम इस पानी को सहेजने के कोई कारगर इंतजाम नहीं करते और बारिश का पानी व्यर्थ बहकर समुद्रों में समा जाता है। ‘प्रदूषण मुक्त सांसें’ पुस्तक के मुताबिक एक समय था, जब हर कहीं बड़े-बड़े तालाब और गहरे-गहरे कुएं होते थे और पानी अपने आप धीरे-धीरे उनमें समा जाता था, जिससे भूजल स्तर भी बढ़ता था लेकिन अब विकास की अंधी दौड़ में तालाबों की जगह ऊंची-ऊंची इमारतों ने ले ली है, शहर कंक्रीट के जंगल बन गए हैं, अधिकांश जगहों पर कुंओं को मिट्टी डालकर भर दिया गया है। दरअसल हमारी फितरत कुछ ऐसी हो गई है कि हम मानसून का भरपूर आनंद तो लेना चाहते हैं किन्तु इस मौसम में किसी भी छोटी-बड़ी आपदा के उत्पन्न होने की प्रबल आशंकाओं के बावजूद उससे निपटने की तैयारियां ही नहीं करते। इसीलिए बदइंतजामी और साथ ही प्रकृति के बदले मिजाज के कारण अब प्रतिवर्ष प्रचण्ड गर्मी के बाद बारिश रूपी राहत को देशभर में आफत में बदलते देर नहीं लगती और तब मानसून को लेकर हमारा सारा उत्साह छू-मंतर हो जाता है।
हालांकि ‘रेन वाटर हार्वेस्टिंग’ का शोर तो सालभर बहुत सुनते हैं लेकिन ऐसी योजनाएं सिरे कम ही चढ़ती हैं। इन्हीं नाकारा व्यवस्थाओं के चलते चंद घंटों की मूसलाधार बारिश में ही दिल्ली, मुम्बई, हैदराबाद, बेंगलुरु जैसे बड़े-बड़े शहरों में भी सड़कें दरिया बन जाती हैं और जल-प्रलय जैसी स्थिति उत्पन्न हो जाती है। यह कोई इसी साल की बात नहीं है बल्कि हर साल यही नजारा सामने आता है लेकिन स्थानीय प्रशासन द्वारा ऐसे पुख्ता इंतजाम कभी नहीं किए जाते, जिससे बारिश के पानी का संचयन किया जा सके और ऐसी समस्याओं से निजात मिले।
दरअसल हमारी व्यवस्था का काला सच यही है कि न कहीं कोई जवाबदेह नजर आता है और न ही कहीं कोई जवाबदेही तय करने वाला तंत्र दिखता है। हर प्राकृतिक आपदा के समक्ष उससे बचाव की हमारी समस्त व्यवस्था ताश के पत्तों की भांति ढह जाती है। ऐसी आपदाओं से बचाव तो दूर की कौड़ी है, हम तो मानसून में सामान्य वर्षा होने पर भी बारिश के पानी की निकासी के मामले में साल दर साल फेल साबित हो रहे हैं। देशभर के लगभग तमाम राज्यों में प्रशासन के पास पर्याप्त बजट के बावजूद प्रतिवर्ष छोटे-बड़े नालों की सफाई का काम मानसून से पहले अधूरा रह जाता है, जिसके चलते ऐसे हालात उत्पन्न होते हैं। अनेक बार ऐसे तथ्य सामने आ चुके हैं, जिनसे पता चलता रहा है कि मानूसन की शुरुआत से पहले ही करोड़ों रुपये का घपला करते हुए केवल कागजों में ही नालों की सफाई का काम पूरा कर दिया जाता है। कई जगहों पर मानसून से पहले नालों की सफाई की भी जाती है तो उस दौरान सैंकड़ों मीट्रिक टन सिल्ट निकालकर उसे नाले के करीब ही छोड़ दिया जाता है, जो तेज बारिश के दौरान दोबारा बहकर नाले में चली जाती है और थोड़ी-सी बारिश में ही ये नाले उफनते लगते हैं।
बारिश के कारण बाढ़, भू-स्खलन जैसी आपदाओं को लेकर हम जी भरकर प्रकृति को तो कोसते हैं किन्तु यह समझने का प्रयास नहीं करते कि मानसून की जो बारिश हमारे लिए प्रकृति का वरदान होनी चाहिए, वही बारिश अब हर साल बड़ी आपदा के रूप में तबाही बनकर क्यों सामने आती है? अति वर्षा और बाढ़ की स्थिति के लिए जलवायु परिवर्तन के अलावा विकास की विभिन्न परियोजनाओं के लिए वनों की अंधाधुंध कटाई, नदियों में होता अवैध खनन इत्यादि भी प्रमुख रूप से जिम्मेदार हैं, जिससे मानसून प्रभावित होने के साथ-साथ भू-क्षरण और नदियों द्वारा कटाव की बढ़ती प्रवृत्ति के चलते तबाही के मामले बढ़ने लगे हैं।
-योगेश कुमार गोयल
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार, पर्यावरण मामलों के जानकार तथा बहुचर्चित पुस्तक ‘प्रदूषण मुक्त सांसें’ के लेखक हैं)