newscreation

newscreation

अमृतसर। दशहरा के एक समारोह के दौरान एक ट्रेन की चपेट में आने के कारण 61 लोगों की मौत वाले दुर्घटनास्थल के पास शनिवार को सैकड़ों लोगों ने धरना दिया। प्रदर्शनकारियों ने राज्य सरकार के खिलाफ नारेबाजी की और ट्रेन के चालक के खिलाफ कार्रवाई करने की मांग की। एक प्रदर्शनकारी ने आरोप लगाया कि ट्रेन तेज गति से निकली और भारी संख्या में लोगों की मौजूदगी के बावजूद चालक ने ट्रेन की रफ्तार कम नहीं की।

अधिकारियों ने बताया कि अमृतसर में जोड़ा फाटक के निकट शुक्रवार शाम को रावण दहन देखने के लिए रेल की पटरियों पर खड़े लोग एक ट्रेन की चपेट में आ गए जिसमें कम से कम 61 लोगों की मौत हो गई और 72 अन्य घायल हो गए। दुर्घटनास्थल पर सुबह से हजारों लोग जुटे हुये हैं। पुलिस ने भीड़ प्रबंधन करने के लिए व्यापक व्यवस्था की है।

नयी दिल्ली। पंजाब के अमृतसर में हुये रेल हादसे के आलोक में रेलवे ने शनिवार को वहां से गुजरने वाली 37 रेलगाडि़यों को निरस्त कर दिया है जबकि 16 अन्य का मार्ग परिवर्तित कर दिया है। इसके साथ ही जालंधर अमृतसर रेलमार्ग पर आवाजाही रोक दी गई है। उत्तर रेलवे के प्रवक्ता दीपक कुमार ने बताया कि 10 मेल/एक्सप्रेस और 27 पैसेंजर रेलगाडि़यों को निरस्त कर दिया गया है। इसके अलावा 16 अन्य गाडियों को दूसरे मार्ग से उनके गंतव्य तक पहुंचाने की व्यवस्था की गई है जबकि 18 ट्रेनों को बीच में ही रोक कर उनकी यात्रा समाप्त कर दी गयी।

कराची। पाकिस्तान में सॉफ्टवेयर कंपनी में काम करने वाली एक महिला कर्मचारी से कहा गया कि या तो वह कार्यस्थल पर हिजाब न पहने या इस्तीफा दे दे। मुस्लिम बहुल देश में इस तरह का यह पहला मामला है। इस घटना के बाद से सोशल मीडिया पर बहस छिड़ गई, जिसके चलते क्रिएटिव केओस कंपनी के मुख्य कार्यकारी अधिकारी जवाद कादिर को इस्तीफा देना पड़ा। महिला को उसके लाइन मैनेजर ने बताया कि वह अपनी नौकरी तभी सुरक्षित रख सकती हैं जब वह वह अपना हिजाब पहनना छोड़ेंगी।

उत्तर प्रदेश में शहरों के नाम बदलने की सियासत एक बार फिर परवान चढ़ी हुई है, जिसको लेकर योगी सरकार उन लोगों के निशाने पर है जो हमेशा से इस तरह के बदलावों की मुखालफत करते रहे हैं, इसके पीछे मुखलाफत करने वालों का यह तर्क रहता है कि एक शहर का नाम भर बदलने से सरकारी खजाने को सैकड़ों करोड़ रूपये की चपत लग जाती है। नाम बदले जाने से शहरों को पुनः अपनी पहचान बनानी पड़ती है। कई बार किसी प्रतिष्ठान का नाम बदले जाने से उस संस्थान की देश में ही नहीं विदेश तक में अपनी पुरानी साख ही चौपट हो जाती है। उदाहरण के लिये लखनऊ के विश्व प्रसिद्ध किंग जार्ज मेडिकल कालेज (केजीएमसी) (जो अब विश्वविद्यालय बन गया है) का नाम जब मायावती सरकार ने बदलकर छत्रपति साहू जी महाराज मेडिकल विश्वविद्यालय कर दिया गया तो इसको इसका काफी नुकसान उठाना पड़ा, इसकी पुरानी प्रतिष्ठा तो गई ही, इसके अलावा केजीएमसी को जो आर्थिक मदद मिलती थी, वह भी नाम बदलने से प्रभावित होने लगी।

 
जब मुलायम सिंह ने सत्ता संभाली तो मायावती के आदेश को रद्द कर दिया। मायावती फिर मुख्यमंत्री बनीं तो उन्होंने दोबार केजीएमसी का नाम बदला दिया। इसके बाद 2012 में अखिलेश यादव जब मुख्यमंत्री बने तो उन्होंने इसका नाम फिर किंग जार्ज मेडिकल विश्वविद्यालय कर दिया।
 
खैर, सियासतदारों का इससे क्या लेना−देना है, लेकिन ताज्जुब तब होता है जब कांग्रेस, समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी जैसे दल भी ऐसे बदलावों का विरोध करने लगते हैं जो स्वयं सत्ता में रहते हुए नाम बदलने की खूब सियासत किया करते थे। वैसे पहली बार किसी शहर का नाम नहीं बदला गया है। शहरों और संस्थाओं के नाम बदलने की परम्परा काफी पुरानी है। अंग्रेजी हुकूमत और खासकर मुगलकाल में जनविरोध को दरकिनार कर जिस तरह से जर्बदस्ती शहरों के नाम बदलकर हिन्दुओं की धार्मिक भावनाएं आहत की गईं थी, उसकी कसक आज भी कहीं न कहीं लोगों के दिलो−दिमाग पर छाई हुई है। इसको लेकर लोगों के बीच दुश्मनी का भाव भी देखा जा सकता है। अयोध्या में भगवान राम की जन्मस्थली पर बाबरी मस्जिद का बनना और काशी में बाबा विश्वनाथ मंदिर के परिसर को बलात कब्जा कर उस पर ज्ञानवापी मस्जिद का निर्माण होना इस बात की गवाही देता है। ऐसा ही खिलवाड़ मथुरा में भगवान श्रीकृष्ण की जन्मस्थली के साथ किया गया था। समय−समय पर तमाम समाचार पत्रों और कई पुस्तकों में लोगों की आहत भावनाओं का वर्णन भी मिल जाता है।

 
अपने देश में राज्यों, शहरों, सड़कों, संस्थानों के नाम बदलने की परंपरा काफी पुरानी है। करीब दो वर्ष पूर्व हरियाणा के शहर गुड़गांव का नाम बदलकर गुरुग्राम कर दिया गया। योगी सरकार मुगलसराय रेलवे स्टेशन का नाम बदलकर पंडित दीनदयाल उपाध्याय जंक्शन पहले ही कर चुकी है। इलाहाबाद के बाद फैजाबाद का नाम भी बदलकर अयोध्या या साकेत नगर किये जाने की मांग उठने लगी है। नाम बदलाव का सरकारी तर्क यही रहता है कि ऐसे शहरों को उनके प्राचीन नाम वापस दिलाये जा रहे हैं। नाम बदलने का एजेंडा यूपी में नया नहीं है और इलाहाबाद का नाम प्रयागराज किए जाने के बाद कुछ और जिलों के नाम बदले जा सकते हैं। उत्तर प्रदेश में पिछले दो दशक में जिलों के नाम खूब बदले गये। खास बात यह कि बसपा सरकार में रखे गये जिलों के नाम समाजवादी पार्टी ने सत्ता में आते ही बदल दिए। इसको लेकर सपा−बसपा में खूब तीखी तकरार भी हुई थी, बताते चलें वर्ष 1992 में भाजपा गठबंधन की कल्याण सरकार ने इलाहाबाद का नाम प्रयागराज, अलीगढ़ का नाम हरिगढ़ व फैजाबाद का नाम साकेत करने की कोशिश की थी। माना जा रहा है कि फैजाबाद, कानपुर, लखनऊ, आजमगढ़ व अलीगढ़ के नाम भी आने वाले समय में बदले जा सकते हैं।
 
उत्तर प्रदेश की राजधानी और भगवान लक्ष्मण की नगरी जिसे आज लखनऊ के नाम से जाना जाता है, का भी नाम बदलने की भी मांग जोर पकड़ रही है। लखनऊ प्राचीन कौसल राज्य का हिस्सा था। यह भगवान राम की विरासत थी, जिसे उन्होंने अपने भाई लक्ष्मण को समर्पित कर दिया था। इसे लक्ष्मणावती, लक्ष्मणपुर या लखनपुर के नाम से जाना गया, जो बाद में बदल कर लखनऊ हो गया।

 
उत्तर प्रदेश भी पुराना नाम नहीं है। सन 1902 तक उत्तर प्रदेश को नॉर्थ वेस्ट प्रोविन्स के नाम से जाना जाता था। बाद में इसे नाम बदल कर यूनाइटिड प्रोविन्स ऑफ आगरा एण्ड अवध कर दिया गया। साधारण बोलचाल की भाषा में इसे यूनाइटेड प्रोविन्स या यूपी कहा गया। सन् 1820 में प्रदेश की राजधानी को इलाहाबाद से बदल कर लखनऊ कर दिया गया। प्रदेश का उच्च न्यायालय इलाहाबाद ही बना रहा और लखनऊ में उच्च न्यायालय की एक खंडपीठ स्थापित की गयी। स्वतन्त्रता के बाद 12 जनवरी सन् 1950 में इस क्षेत्र का नाम बदल कर उत्तर प्रदेश रख दिया गया और लखनऊ इसकी राजधानी बना। इस तरह यह अपने पूर्व लघुनाम यूपी से जुड़ा रहा।
 
इलाहाबाद का नाम बदले जाने पर भारतीय जनता पार्टी के प्रदेश प्रवक्ता जुगल किशोर ने कहा कि संगम नगरी का नाम प्रयागराज करने से देश का हर नागरिक खुश है। करोड़ों जनता की आस्था का सम्मान करते हुए योगी सरकार ने यह फैसला किया। उन्होंने कहा कि रामचरित मानस में भी संगम नगरी का नाम प्रयागराज उल्लेख किया गया है। मुगल शासकों द्वारा प्रयागराज का नाम बदलकर इलाहाबाद करना भारत की परम्परा और आस्था के साथ खिलवाड़ करना था।

 
बहरहाल, बात पिछली सरकारों की कि जाये तो उन्होंने जिले ही नहीं विश्वविद्यालय, पार्क तक के नाम बदले थे। लखनऊ के जनेश्वर मिश्र पार्क का नाम पहले अम्बेडकर उद्यान था। अखिलेश सरकार ने अम्बेडकर उद्यान का न केवल विस्तार किया बल्कि नाम भी बदल दिया। मायावती ने अपने अलग−अलग कार्यकाल में नए जिले बना कर उनका नाम दलित व पिछड़े वर्ग से जुड़े संतों−महापुरुषों के नाम पर रखे। मायावती ने मुख्यमंत्री रहते एटा से काट कर बनाए गए कासगंज जिले का नाम कांशीराम नगर कर दिया था। अमेठी को जिला बना कर उसे छत्रपति शाहू जी नगर किया गया। अमरोहा का नाम ज्योतिबा फुले नगर रखा गया। इसी तरह हाथरस का नाम महामाया नगर तो कई बार बदला। बसपा राज में ही कानपुर देहात का नाम रमाबाई नगर, संभल का नाम भीमनगर, शामली का नाम प्रबुद्धनगर व हापुड़ का नाम पंचशील नगर रखा गया। 2012 में अखिलेश यादव मुख्यमंत्री बने तो उन्होंने मायावती द्वारा बनाये गये जिले के साथ तो कोई छेड़छाड़ नहीं की लेकिन इन जिलों के पुराने नाम जरूर बहाल कर दिए। इस पर मायावती ने सख्त एतराज जताते हुए इसे दलित महापुरुषों का अपमान बताया था।
 
संस्थान और शहर तो दूर कई राज्यों तक के नाम बदलने की सियासत परवान चढ़ चुकी है। उनमें से कुछ का उल्लेख करना समीचीन होगा। इसी के चलते असम अब (आसाम), ओडिशा (उड़ीसा), पश्चिम बंग (वैस्ट बंगाल), पुदुच्चेरी (पांडुचेरी) हो गया। इसी प्रकार शहरों में कन्याकुमारी (केप कोमारिन), कोजीकोड (कालीकट), कोलकाता (कैलकटा/कलकत्ता), गुवाहाटी (गौहाटी), चेन्नै (मद्रास), तिरुअनंतपुरम (त्रिवेन्द्रम), पणजी (पंजिम), पुणे (पूना), बंगलूरु (बैंगलोर), मुम्बई (बॉम्बे), विशाखापत्तनम (वालटेयर), विजयपुर (बीजापुर) हो गया।
 
कांग्रेस के उत्तर प्रदेश अध्यक्ष राज बब्बर भी इलाहाबाद का नाम बदले जाने को लेकर योगी पर निशाना साध रहे हैं लेकिन कड़वी सच्चाई यह भी है कि स्वतंत्र भारत के इतिहास में कांग्रेस सरकारों की नीति भी कुछ अलग नहीं रही थी। कांग्रेस ने हर नयी संस्था, मार्ग, पुल, आदि का नाम यथासंभव प्रथम प्रधानमंत्री नेहरू एवं उनके वंशजों के नाम पर ही रखा, सरकारी योजनाओं के साथ भी यही किया गया। कभी दिल्ली के कनॉट सर्किल एवं कनॉट प्लेस को इंदिरा गांधी तथा राजीव गांधी के नाम पर नया नाम दिया गया था।
 
दरअसल, नाम बदलने का विचार राजनेताओं से शुरु होता है और जनभावनाओं के उभार के रूप में आगे बढ़ता है। अंग्रेजी विरासत के तौर पर जो नाम देश में प्रचलित हैं उनको देशज नामों से संबोधित किया जाए यह बात कहने−सुनने में अच्छी लगती है। परंतु इस कार्य में विसंगति भी बहुत हैं। जिस देश में कदम−कदम पर अंग्रेजियत पैर पसारे मिलती हो, जहां प्रायः सभी दस्तावेजी कार्य अंग्रेजी में किए जाते हों, जिस देश का संविधान अंग्रेजी में हो, उच्चतम न्यायालय का कार्य अंग्रेजी में होता हो, जहां अंग्रेजी स्कूलों की बाढ़ आ रही हो, देशज भाषाओं के विद्यालय बंद होने के कगार पर हों, वहां अंग्रेजी नामों को बदलने का औचित्य ही क्या है।  
     
यह देश है ही विचित्र। यदि नाम ही बदलना है तो सबसे पहले देश का नाम बदला जाना चाहिए। इस देश का नाम "भारत" होना चाहिए "इंडिया" नहीं। इंडिया नाम अंग्रेजों का दिया हुआ है न कि इस देश का मौलिक या प्राचीन नाम है। विष्णु पुराण तथा अन्य प्राचीन ग्रंथों में इस भूभाग को भारतवर्ष या भारत कहा गया है। तब हम इसे भारत क्यों नहीं कहते ? सब जगह इंडिया ही क्यों सुनने को मिलता है ? यहां तक कि हिन्दूवादी नेता और पीएम मोदी भी "स्किल इंडिया", "डिजिटल इंडिया", "मेक इन इंडिया", आदि−आदि की बात करते हैं जबकि उसमें इंडिया की जगह भारत दिखना चाहिए।
 
-अजय कुमार

 

दशहरे के मौके पर अमृतसर के पास हुए हादसे को लेकर रेलवे का कहना है कि पुतला दहन देखने के लिए लोगों का वहां पटरियों पर एकत्र होना ‘‘स्पष्ट रूप से अतिक्रमण का मामला’’ था और इस कार्यक्रम के लिये रेलवे द्वारा कोई मंजूरी नहीं दी गई थी। अमृतसर प्रशासन पर इस हादसे की जिम्मेदारी डालते हुए आधिकारिक सूत्रों ने कहा कि स्थानीय अधिकारियों को दशहरा कार्यक्रम की जानकारी थी और इसमें एक वरिष्ठ मंत्री की पत्नी ने भी शिरकत की।

 
रेलवे अधिकारियों ने कहा, ‘‘हमें इस बारे में जानकारी नहीं दी गई थी और हमारी तरफ से कार्यक्रम के लिये कोई मंजूरी नहीं दी गई थी। यह अतिक्रमण का स्पष्ट मामला है और स्थानीय प्रशासन को जिम्मेदारी लेनी चाहिए।’’ इतनी भीड़ होने के बावजूद रेल चालक द्वारा गाड़ी नहीं रोके जाने को लेकर सवाल उठने पर अधिकारी ने कहा, ‘‘वहां काफी धुआं था जिसकी वजह से चालक कुछ भी देखने में असमर्थ था और गाड़ी घुमाव पर भी थी।’’ 
उ.प्र. सरकार ने संगम नगरी के युगों-युगों से प्रचलित पुराने नाम ‘प्रयागराज’ को बहाल कर दिया है। आजादी के बाद से सभी देशभक्त यह मांग कर रहे थे। लोगों को लगता था कि नेहरू का संबंध यहां से खास है। पर वे ठहरे परम सेक्यूलर। उन्होंने इस पर कान नहीं दिया। 

 
इसके बाद उ.प्र. में भा.ज.पा सरकारों के समय इस मांग ने जोर पकड़ा। पर कभी प्रदेश में गठबंधन सरकार होती थी, तो कभी केन्द्र में। अब दोनों जगह भा.ज.पा. की पूर्ण बहुमत की सरकार है। अतः योगी ने निर्णय ले लिया। पर इससे सेक्यूलरों के पेट में दर्द होने लगा है। उन्हें लगता है कि यदि अभी वे चुप रहे, तो न जाने प्रदेश और देश में कितने नाम बदल दिये जाएं ? अतः इस पर कोई सर्वसम्मत नीति बननी चाहिए। 
 
असल में नाम परिवर्तन के पीछे राजनीतिक और सामाजिक कारण हैं। जब विदेशी व विधर्मी हमलावर आये, तो उन्होंने कई स्थानों के नाम बदल दिये। इसका पहला उद्देश्य तो हिन्दुओं का अपमान था। अतः प्रयाग और अयोध्या को इलाहबाद और फैजाबाद किया गया। कोशिश तो उन्होंने हरिद्वार, मथुरा, काशी और दिल्ली को बदलने की भी की; पर वह चाल विफल हो गयी। 

 
दूसरा उद्देश्य खुद को या अपने किसी पूर्वज को महिमामंडित करना था। जिस नाम के साथ ‘बाद’ लगा हो, उसकी यही कहानी है। अकबराबाद, औरंगाबाद, हैदराबाद, सिकंदराबाद, गाजियाबाद, तुगलकाबाद, रोशनाबाद, अहमदाबाद..जैसे हजारों नाम हैं। जैसे फैजाबाद अर्थात् फैज द्वारा आबाद; पर सच ये है कि ये स्थान उन्होंने आबाद नहीं बरबाद किये हैं। इसलिए ‘फैजाबाद’ को ‘फैज बरबाद’ कहना चाहिए। 
 
कुछ अति बुद्धिवादी कहते हैं कि मुस्लिम शासकों ने सैंकड़ों साल राज किया है। अतः उन्होंने नये गांव और नगर बसाये ही होंगे। उनके नाम पर प्रचलित महल, मकबरे और मस्जिदों के लिए भी यही कहा जाता है; पर वे यह नहीं बताते कि यदि सब स्मारक उन्होंने बनाये हैं, तो हिन्दू शासक क्या जंगल में रहते थे ? यदि नहीं, तो उनके महल और मंदिर कहां हैं ?

 
सच ये है कि इस्लामी हमलावर सदा हिन्दू राजाओं से या फिर आपस में ही लड़ते-मरते रहे। उन्हें नये निर्माण की फुरसत ही नहीं थी ? उनके साथ लड़ाकू लोग आये थे, वास्तुकार और कारीगर नहीं। अतः उन्होंने तलवार के बल पर पुराने नगर और गांवों के नाम बदल दिये। महल और मंदिरों में थोड़ा फेरबदल कर, उन पर आयतें आदि खुदवा कर उन्हें इस्लामी भवन बना दिया। प्रसिद्ध इतिहासकार पी.एन. ओक ने इस पर विस्तार से लिखा है।
 
जब अंग्रेज आये, तो कई शब्द वे ठीक से बोल नहीं पाते थे। अतः शासक होने के कारण उनके उच्चारण के अनुरूप मैड्रास, कैलकटा, बंबई, डेली.. आदि नाम चल पड़े। अब इन्हें चेन्नई, कोलकाता, मुंबई और दिल्ली कहते हैं। कानपुर (Cawnpore), लखनऊ (Lucknow), बनारस (Benares) आदि की वर्तनी (स्पैलिंग) भी अंग्रेजों ने बिगाड़ दी। कांग्रेस राज में नामों की धारा एक परिवार की बपौती बन गयी। अतः हर ओर गांधी, नेहरू, इंदिरा, संजय, राजीव और सोनिया नगरों की बहार आ गयी। 

 
यहां यह पूछा जा सकता है कि आजादी के बाद अंग्रेजों द्वारा बदले नाम ठीक करने में ही शासन ने रुचि क्यों ली ? असल में भारत में ईसाई वोटों की संख्या बहुत कम है। उनसे सत्ता के फेरबदल पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता; पर मुस्लिम वोटों के साथ ऐसा नहीं है। इसलिए राजनीतिक दल मुस्लिम शासकों द्वारा बदले गये नामों को नहीं छेड़ते। 
 
उ.प्र. में मायावती ने ऊधमसिंह नगर, ज्योतिबाफुले नगर, गौतमबुद्ध नगर आदि कई नये जिले बनाये; पर लोग इन्हें यू.एस. नगर, जे.पी. नगर और जी.बी. नगर ही कहते हैं। हाथरस बनाम महामाया नगर और लखनऊ के किंग जार्ज बनाम छत्रपति शाहू जी महाराज मेडिकल कॉलिज के बीच तो कई बार कुश्ती हुई। अब भा.ज.पा. सरकार ने उ.प्र. में मुगलसराय रेलवे स्टेशन का नाम ‘पंडित दीनदयाल उपाध्याय जंक्शन’ किया है। क्योंकि 11 फरवरी, 1968 को दीनदयाल जी का शव वहां पर ही मिला था। पर खतरा ये है कि यह समय के प्रवाह में कहीं डी.डी. जंक्शन न हो जाए।
 
कई नामों के पीछे इतिहास और भाषायी गौरव जुड़ा होता हैं; पर जुबान का भी एक स्वभाव है। वह कठिन की बजाय सरल शब्द अपनाती है। इसलिए भोजपाल, जाबालिपुरम् और गुरुग्राम क्रमशः भोपाल, जबलपुर और गुड़गांव हो गये। मंगलौर (मंगलुरू), बंगलौर (बंगलुरू), मैसूर (मैसुरू), बेलगांव (बेलगावि), त्रिवेन्द्रम (तिरुवनंतपुरम्), तंजौर (तंजावूर), कालीकट (कोझीकोड), गोहाटी (गुवाहाटी), इंदौर (इंदूर), कोचीन (कोच्चि), पूना (पुणे), बड़ोदा (बड़ोदरा), पणजी (पंजिम), उड़ीसा (ओडिसा), पांडिचेरी (पुड्डुचेरी) आदि की भी यही कहानी है। अब शासन भले ही इन्हें बदल दे; पर लोग पुराने और सरल नाम ही सहजता से बोलते हैं। 
 
अतः विदेशी हमलावरों द्वारा बिगाड़े नाम हटाकर ऐतिहासिक नाम फिर प्रचलित करने चाहिए। इससे अपने इतिहास का पुनर्स्मरण भी होगा; पर सहज बोलचाल के कारण प्रचलित हो गये नाम बदलने की जिद ठीक नहीं है। 
 
-विजय कुमार

 

रायपुर. राजधानी रायपुर से प्रकाशित होने वाले साप्ताहिक समाचार पत्र में विगत ३० जुलाई को गरियाबंद जिले में स्थित उदंती सीतानदी टाईगर रिजर्व के सम्बन्ध में च्च् उदंती सीतानदी टाईगर रिजर्व में १५ सालो से नहीं है कोई बाघ, उड़ीसा के बाघों को अपना बाघ होने का ढिंढोरा पिट कर वन विभाग ने उड़ा डाले १३ करोड़ च्च् शीर्षक से समाचार का प्रकाशन किया गया था  जिस पर उदंती सीतानदी टाईगर रिजर्व के उप निदेशक विवेकानंद रेड्डी ने सर्वोच्य छत्तीसगढ़ समाचार पत्र के सम्पादक व जिला संवाददाता को नोटिस भेजा है तथा उनके खिलाफ पुलिस में भी शिकायत दर्ज कराया गया है  प्रकाशित समाचार में लिखा गया था की उदंती-सीतानदी टाइगर रिजर्व का गठन २००९ में हुआ है परन्तु  इससे पहले उसका नाम उदंती अभ्यारण्य हुआ करता था  उदंती अभ्यारण्य वन भैसों के लिए बनाया गया था जहा वन भैसों का संरक्षण संवर्धन किया जाता है यहाँ १५ से २० साल पहले ही टाईगर का नामोनिशान मिट चुका है अर्थात १५ से २० साल से यहाँ कोइ भी टाईगर नहीं है  परन्तु टाईगर नहीं होने के बाद भी उदंती अभ्यारण्य को बता नहीं क्यों जबदस्ती टाईगर रिजर्व घोषित कर के उदंती-सीतानदी टाइगर रिजर्व नाम करण कर दिया गया है  जबकि वास्तविकता यह है की उदंती-सीतानदी टाइगर रिजर्व में पिछले १५ सालो से कोइ टाईगर है ही नहीं  और गत वर्ष कुल्हाड़ीघाट के जंगलो में कैमरों में जो बाघ की तस्वीरे आई थी वो उदंती-सीतानदी टाइगर रिजर्व के बाघ नहीं थे वे बाघ उड़ीसा के सोनाबेडा अभ्यारण्य के बाघ थे जो भोजन और प्रजनन की तलास में उदंती-सीतानदी टाइगर रिजर्व में एकाध चक्कार लगा लेते थे जैसे की उड़ीसा के हाथी अभी इस क्षेत्र में आ जा रहे है बिलकुल वैसा ही उड़ीसा के बाघ भी कभी कभार इधर आ जाते है  और इसी दौरान उड़ीसा के बाघ की तस्वीर उदंती-सीतानदी टाइगर रिजर्व में लगाए गए कैमरों में आ गयी  समाचार में लिखा है की उदंती-सीतानदी टाइगर रिजर्व के डिप्टी डायरेक्टर विवेकानंद रेड्डी ने भी कहा है की बाघों का कोइ निश्चित स्थान नहीं है कभी तो वे उदंती-सीतानदी टाइगर रिजर्व में रहते है तो कभी उड़ीसा के जंगलो में चले जाते है 7 स्पष्ट हो रहा है की वन विभाग के द्वारा बहुत कुछ छिपाया जा रहा है  परन्तु इस साल की गणना ने उनकी पोल खोल दिया है 7 इस साल के गणना में उदंती-सीतानदी टाइगर रिजर्व में लगाए गए २०० कैमरों में से एक में भी यहां बाघ की मौजूदगी के सबूत नहीं मिले हैं  जबकि बाघ के नाम पर विभाग अब तक १४ करोड़ रुपया खर्च कर चुकी है और यह राशि कहा खर्च किया गया कोइ रिकार्ड ही नहीं है
समाचार में आगे लिखा है की  यहां पिछले साल देखे गए बाघ के जोड़े का शिकार किया जा चुका है है  पुलिस ने बाघ की खाल बेचने की फिराक में घूम रहे दो लोगों को १४ फरवरी को गिरफ्तार कर उन्हें जेल भेज दिया था  आरोपियों ने सोनाबेड़ा जंगल में बाघ का शिकार करने की बात कुबूल की थी 7 २०० में से एक भी कैमरा ट्रेप में बाघ की मौजूदगी का एक भी सबूत वन विभाग के हाथ नहीं लगा है  उदंती और सीतानदी वाइल्डलाइफ सेंचुरी को मिलाकर टाइगर रिजर्व बनाए जाने से पहले सीतानदी वाइल्डलाइफ सेंचुरी में २००५ तक करीब पांच बाघ हुआ करते थे  लेकिन आज हालत ये है कि यहां के जंगल से बाघों का सफाया हो चुका है  इसलिए अब उदंती-सीतानदी टाइगर रिजर्व को समाप्त कर देना चाहिये 7 बाघों की गणना के काम से जुड़े एनटीसीए के लोगों का कहना है कि उदंती- सीतानदी टाइगर रिजर्व में इस वर्ष एक भी बाघ कैमरे में ट्रैप नहीं हुआ है और न ही अन्य माध्यमों से इसकी मौजूदगी के पुख्ता सबूत मिले हैं। उन्होंने बताया कि पिछले वर्ष तक देखे गए बाघ के जोड़े का शिकार हो चुका है और आरोपियों को गरियाबंद पुलिस जेल भेज चुकी है। राष्ट्रीय बाघ प्राधिकरण (एनटीसीए) के दिशा-निर्देश पर देशभर में बाघों की गणना इस साल की है परन्तु उदंती-सीतानदी टाइगर रिजर्व में कोइ भी बाघ के मोजुदगी के प्रमाण नहीं मिले है जबकि उदंती और सीतानदी अभयारण्य को मिलाकर टाइगर रिजर्व बनाए जाने से पहले सीतानदी अभयारण्य में २००५ तक ४ से ५ बाघ मौजूद होने का दावा अधिकारी करते रहे है  । इसकी पुष्टि वन विभाग की वन्य प्राणी गणना में भी करता रहा  है। बाद में एक-एक कर सारे बाघों का शिकार हो गया। इसके बाद २-३ साल पहले ही ओडिशा के सीमावर्ती जंगल से बाघ के एक जोड़े ने यहां आना जाना करने की बात अधिकारियों ने कही थी  पर यह जोड़ा भी शिकारियों की भेंट चढ़ गया। कुल्हाड़ीघाट रेंज में पिछली गणना में जो बाघ के चिन्ह मिले थे वो उडीसा के बाघों के थे मिले थे जिनका शिकार हो गया है । गरियाबंद पुलिस ने शेर की खाल बेचने की फिराक में घूम रहे ग्राम कुकरार निवासी मेघनाथ नेताम और जरंडी निवासी कंवल सिंह नेताम को बीते १४ फरवरी को गिरफ्तार कर जेल भेज दिया। आरोपियों ने पुलिस पूछताछ में खाल के लिए उड़ीसा के सोनाबेड़ा जंगल में शेर का शिकार करने की बात कुबूल की थी। उपरोक्त समाचार के प्रकाशन के बाद उदंती सीतानदी टाईगर रिजर्व के उप निदेशक विवेकानंद रेड्डी ने सर्वोच्य छत्तीसगढ़ समाचार पत्र के सम्पादक व जिला संवाददाता को नोटिस भेजा है तथा उनके खिलाफ पुलिस में भी शिकायत दर्ज कराया गया है जिसकी जांच एस डी ओ पी मैनपुर के कार्यालय में की जा रही है.

लखनऊ। विश्व हिंदू परिषद (वीएचपी) ने उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद का नाम बदलकर प्रयागराज किए जाने पर खुशी जाहिर करते हुये फैजाबाद का नाम बदलने की मांग की है। विहिप की ओर से कहा गया है कि लोगों की भावनाओं को ध्यान में रखते हुये फैजाबाद जिले का नाम बदलकर 'श्री अयोध्या' किया जाए। विहिप प्रवक्ता शरद शर्मा ने शुक्रवार को कहा कि ‘‘योगी सरकार ने इलाहाबाद का नाम प्रयागराज करके संतों की मांग का सम्मान किया है। यह कदम स्वागत योग्य है, जैसे सरकार ने इलाहाबाद का नाम प्रयागराज किया है, उसी तरह फैजाबाद का नाम भी बदलकर 'श्री अयोध्या' कर देना चाहिए।' उन्होंने कहा कि 'आज देश में अनेक सड़कें, भवन, जनपद, गुलामी का बोध कराते आ रहे हैं। देश को अंग्रेज दासता से मुक्ति जरूर प्राप्त हुई है परन्तु उनके प्रतीक आज भी हर हिन्दुस्तानी के स्वाभिमान को ठेस पहुंचाते हैं। वर्तमान सरकारें भावनाओं को समझें और भविष्य की पीढ़ी को इन गुलामी के प्रतीकों से मुक्ति दिलायें।' शर्मा ने कहा कि योगी सरकार दीपावली पर दीपोत्सव महोत्सव के दौरान साधु संतों के समक्ष नाम बदलने की घोषणा कर सकते हैं। गौरतलब है कि इस सप्ताह मंगलवार को उत्तर प्रदेश कैबिनेट ने ऐतिहासिक शहर इलाहाबाद का नाम प्रयागराज करने का प्रस्ताव किया था जिसको कैबिनेट से पास कर दिया था।

 

दशहरा की धूम के बीच सरकारी अफसर से मैंने पूछा था कि कुल्लू के दशहरे में अंर्तराष्ट्रीय क्या है। उन्होंने मुझे अंग्रेज़ी में समझाया था कि हर साल हम दूसरे देशों के सांस्कृतिक दलों को बुलाते हैं जो यहां अपने लोकनृत्य प्रस्तुत करते हैं। लगा, यह शायद इसलिए कि इस आयोजन में ज्यादा विदेशी पर्यटक आएं। हमारी अपनी लोक संस्कृति व धरती में कम आकर्षण नहीं है। यहां तो सैंकड़ों बरस से दूसरे देशों से व्यापारी आते रहे व सांस्कृतिक कला सम्बंध भी उगते रहे। बात तो कहने, समझने की व सही प्रस्तुति की है। लगभग तीन सौ साठ बरस से मनाए जा रहे इस एतिहासिक, पारम्परिक उत्सव में अभी आन बान व शान सलामत है। दशहरे की परम्पराएं आज भी जीवंत हैं। हिमालय के बेटे हिमाचल की पहाड़ियों की गोद में बसे हर गांव का अपना देवता है। आज भी जब जब लोकउत्सव होते हैं तब तब आम जनता का अपने ईष्ट से मिलना होता है। कुल्लू की नयनाभिराम घाटी में आयोजित होने वाले कई लोकोत्सवों का सरताज है कुल्लू दशहरा। संसार व पूरे देश में दशहरा सम्पन्न हो जाने के बाद आरम्भ होता है यह लोकदेव समागम।

 

Ads

R.O.NO. 13481/72 Advertisement Carousel

MP info RSS Feed

फेसबुक