बुधवार-सूर्यषष्ठी महोत्सव-
हिंदुस्थान के बिहार प्रांत का सर्वाधिक प्रचलित एवं पावन पर्व है सूर्यषष्ठी। प्रमुख रूप से यह पर्व भगवान सूर्य के व्रत का है। इस व्रत में सर्वतोभावेन भगवान सूर्य की पूजा की जाती है। पुराणों तथा धर्मशास्त्रों में विभिन्न रूपों में ईश्वर की उपासना के लिए पृथक दिन एवं तिथियों का निर्धारण किया गया है। अब तो बिहार के अतिरिक्त अन्य क्षेत्रों में भी इसका व्यापक प्रसार हो रहा है। इस व्रत को सभी लोग अत्यंत भक्ति-भाव, श्रद्धा एवं उल्लास से मनाते हैं। सूर्य को अर्घ्य देने के बाद व्रत रखनेवाले लोगों के पैर छूने तथा उनके गीले वस्त्र धोनेवालों में प्रतिस्पर्धा की भावना देखी जाती है। इस व्रत का प्रसाद मांग कर खाने का विधान है। सूर्यषष्ठी व्रत के प्रसाद में ऋतु-फल के अतिरिक्त आटे और गुड़ से शुद्ध घी में बने ठेकुआ का होना अनिवार्य है। ठेकुआ पर लकड़ी के सांचे से सूर्य भगवान के रथ का चक्र अंकित करना आवश्यक माना जाता है। षष्ठी के दिन समीप के किसी पवित्र नदी या जलाशय के तट पर मध्यान्ह से ही भीड़ एकत्र होने लगती है। सभी महिलाएं नवीन वस्त्र एवं आभूषण आदि से सुसज्जित होकर फल मिष्ठान तथा पकवानों से भरे हुए नए बांस से निर्मित दौरी अर्थात डलिया लेकर षष्ठीमाता तथा भगवान सूर्य के लोकगीत गाती हुर्इं अपने-अपने घरों से निकलती हैं। डलिया ढोने का भी महत्व है। यह कार्य पति, पुत्र या घर का कोई पुरुष सदस्य करता है। घर से घाट तक लोकगीतों का क्रम चलता ही रहता है और यह तब तक चलता है जब तक भगवान भास्कर पूजा स्वीकार कर अस्ताचल को न चले जाएं। पुन: ब्रह्ममुहूर्त में ही नूतन अर्घ्य सामग्री के साथ सभी व्रती जल में खड़े होकर हाथ जोड़े हुए भगवान भास्कर की उदय होने की प्रतीक्षा करते हैं। जैसे ही क्षितिज पर अरुणिमा दिखाई देती है वैसे ही मंत्रों के साथ भगवान सविता को अर्घ्य समर्पित किए जाते हैं। यह व्रत विसर्जन, ब्राह्मण-दक्षिणा एवं पारणा के पश्चात पूर्ण होता है।
सूर्यषष्ठी व्रत के अवसर पर सायंकालीन प्रथम अर्घ्य से पूर्व मिट्टी की प्रतिमा बनाकर षष्ठीदेवी का आह्वान एवं पूजन करते हैं। पुन: प्रात: अर्घ्य के पूर्व षष्ठीदेवी का पूजन कर विसर्जन कर देते हैं। मान्यता है कि पंचमी को सायंकाल से ही घर में भगवती षष्ठी का आगमन हो जाता है। इस प्रकार भगवान सूर्य के इस पावन व्रत में शक्ति और ब्रह्म दोनों की उपासना का फल एक साथ प्राप्त होता है। इसीलिए लोक में यह सूर्यषष्ठी के नाम से विख्यात है।
शुक्रवार-अक्षय नवमी-
कार्तिक मास शुक्ल पक्ष की नवमी तिथि अक्षय नवमी कहलाती है। इस दिन स्नान, पूजन, तर्पण एवं अन्य के दान से अक्षय फल प्राप्त होता है। इसमें पूर्वव्यापिनी तिथि ली जाती है यदि वह दो दिन हो या न हो तो अष्टमी विधा नवमी ग्रहण करनी चाहिए। दशमीविधा नवमी त्याज्य है। आज के दिन प्रात: काल स्नान आदि के अनंतर दाहिने हाथ में जल, अक्षत, पुष्प आदि लेकर व्रत का संकल्प करें। इसके बाद षोडशोपचार संकल्प कर आंवले के वृक्ष के नीचे पूर्वाभिमुख बैठकर आह्वान आदि षोडशोपचार पूजन करके आंवले के वृक्ष की जड़ में दूध की धारा गिराते हुए पितरों को तर्पण करें। इसके बाद आंवले के वृक्ष के नीचे वृक्ष के तने में सूत्रवेस्टन करें। इसके बाद कर्पूर या घृतपूर्ण दीप से आंवले के वृक्ष की आरती करें। इसके अनंतर आंवले के वृक्ष के नीचे ब्राह्मण भोजन भी कराना चाहिए तथा अंत में स्वयं भी आंवले के वृक्ष के सन्निकट बैठकर भोजन करना चाहिए। एक पका हुआ कुष्मांड लेकर उसके अंदर रत्न, स्वर्ण, रजत या रुपया आदि रखकर संकल्प करें। विद्वान तथा सदाचारी ब्राह्मण को तिलक करके दक्षिणा सहित कुष्मांड दे दें। पितरों के शीत निवारण के लिए यथाशक्ति कंबल आदि ऊनी वस्त्र भी पात्र ब्राह्मण को देना चाहिए। यह अक्षयनवमी धात्रीनवमी तथा कुष्मांडनवमी भी कहलाती है। घर में आंवले का वृक्ष न हो तो किसी बगीचे आदि में आंवले के वृक्ष के समीप जाकर पूजा दानादि भी करने की भी परंपरा है अथवा गमले में आंवले का पौधा रोपित कर घर में यह कार्य संपन्न कर लेना चाहिए। शास्त्रसम्मत है कि ऐसा करने से श्रीहरि की कृपा वर्षपर्यंत बनी रहती है।
