ईश्वर दुबे
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Bhilai
News Creation : हर फिल्मकार का फिल्म बनाने का अपना नज़रिया होता है. जो उसकी अपनी प्रेरणाओं और अनुभवों पर आधारित होता है. कौन किस उद्देश्य से फिल्म बना रहा है ये उसकी अपनी स्वतंत्रता है.Read
हां ये ज़रूर है कि एक फिल्मकार की ये भी ज़िम्मेदारी होती है कि वह पैसे के लिए कुछ भी ना परोसे पर जिसे सपरिवार लोग देख सकते हैं. उस पर किसी भी तरह की टिप्पणी सही नही है. जब से छत्तीसगढ़ी फिल्में बनना शुरू हुई हैं उसके कुछ दिनों बाद से ही कुछ लोगों द्वारा साहित्यिक या कलात्मक फिल्मों के निर्माण को लेकर ज़ोर दिया जा रहा है. अगले कुछ दिनों में ये भी तय हो जाएगा की आगे बायोपिक या कलात्मक फिल्मों का छत्तीसगढ़ में क्या स्कोप है.
छत्तीसगढ़ की पहली बायो-पिक "मंदराजी"
यहां का निर्देशक बहुत मुश्किल से एक निर्माता ढूंढता है और हर निर्माता चाहता है कि उसका पैसा रिटर्न आए. हिंदी या अन्य इंडस्ट्री की बात करें तो उन सभी जगहों पर इतना स्कोप है कि वहां कलात्मक फिल्में तीन दिन भी चल गईं तो सम्मान जनक कमाई कर ले जाती है अगर इसी तरह का दौर यहां भी आया तो बेशक यहां भी कलात्मकता फिल्में बनेंगी. कोमल नाहटा को इंटरव्यू देते समय हिंदी फिल्मों के एक युवा निर्देशक ने कहा था कि अगर हम निर्माता को पैसे नही लौटाएंगे तो काम कैसे कर पाएंगे. हिंदी फिल्मों के दो और ऐसे कलात्मक फिल्म बनाने वाले निर्देशक हुए हैं जिन्होने वक्त के साथ अपने कार्य में बदलाव लाया और उनमें से एक ने तो अपनी फिल्म में आईटम साँग भी रखा और चॉकलेटी हीरो तथा जीरो फिगर हिरोइन और स्टारों का मेला भी लगाया. मैं ये नही कह रहा की इन्होने कुछ ग़लत किया. मैं बस इस ओर ध्यानाकर्षण करवाना चाह रहा हूँ कि ये सभी हिंदुस्तान की सबसे बड़ी फिल्म इंडस्ट्री के फिल्मकार हैं सभी के ख़ुद के कामयाब प्रोडक्शन हाऊसेस हैं. बड़े-बड़े सम्मानों से नवाजे़ जा चुके हैं. बावजूद इसके जब इन्हें फिल्मों की व्यवसायिकता के आधार पर फिल्म निर्माण करना पड़ रहा है तो हम तो शुरू ही हुए हैं अभी और यहाँ के फिल्मकारों के पास व्यवसायिक लाभ के इतने साधन भी नही. मैं हिंदी फिल्म इंडस्ट्री के फिल्मकारों की श्रेष्ठता पर कोई सवाल नही खड़ा कर रहा बस इस बात को समझना होगा की फिल्म एक व्यवसायिक धारणा है. जिसके लिए अगर फिल्मकारों को किसी की जेब से पैसे निकलवाने है तो अपनी अभिव्यिक्त इस ढंग से परोसनी पड़ती है जिससे दर्शकों को फिल्म देखने में आनंद मिले पर व्यवसायिक अनिवार्यताओं के तहत् मेरा समर्थन किसी भी तरह की फूहड़ता, अंग प्रदर्शन, डबल मीनिंग डायलॉग्स, महिलाओं को नीचा दिखाना....आदि ऐसी किसी भी धारणा से नही है और मैं स्वयं भी इन गतिविधियों के फिल्मी, सामाजिक या किसी भी स्तर के समावेश के ख़िलाफ हूं.
पर इस बात पर हमें ध्यान देना होगा कि 100-100 बरस पूरी कर चुकी इंडस्ट्री से 19 साल की इंडस्ट्री से तुलना करना. कहां तक जायज़ है. बिना फिल्मकार की परेशानियों को जाने टीका टिप्पणी करना बहुत आसान होता है. बहरहाल सबको बोलने की आज़ादी है पर आज़ादी की भी अपनी कुछ पाबंदियां होती हैं. समीक्षा करना और किसी को नीचा दिखाना दोनो में अंतर होता है. यहां की इंडस्ट्री का व्यवसायिक स्तर बांकी जगह के जैसा सामान्य होने तो दो फिर ज़रूर वो फिल्में भी देखने को मिलेंगी जिसके लिए लोगो के अंदर चरमोत्कर्ष कौतुहलता है.
लेखक :
गुलाम हैदर मंसूरी
(फिल्म निर्देशक और लेखक)
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