राजनीति

राजनीति (6705)

सुप्रीम कोर्ट राफेल केस पर पुनर्विचार के लिए राजी हुआ था, इस पर राहुल ने कहा था- कोर्ट ने मान लिया कि चौकीदार चोर है
इस बयान पर भाजपा नेता मीनाक्षी लेखी ने राहुल के खिलाफ अवमानना याचिका दायर की थी
राहुल ने इससे पहले दो हलफनामे दाखिल किए, दोनों बार सिर्फ खेद जताया था
साफ तौर पर माफी नहीं मांगने पर शीर्ष अदालत ने कांग्रेस अध्यक्ष को फटकार लगाई थी
नई दिल्ली. कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने चौकीदार चोर है बयान को लेकर बुधवार को सुप्रीम कोर्ट से बिना शर्त माफी मांग ली। राहुल ने अवमानना के मामले में पहले दायर किए गए दो हलफनामों में सिर्फ खेद जताया था। इस पर कोर्ट ने उन्हें फटकार लगाई थी। इसके बाद कांग्रेस अध्यक्ष के वकील अभिषेक मनु सिंघवी ने शीर्ष अदालत से मौखिक रूप से माफी मांगी थी। इसके साथ ही नया हलफनामा दाखिल करने की मोहलत मांगी थी।
पिछले महीने सुप्रीम कोर्ट राफेल डील के लीक दस्तावेजों को सबूत मानकर मामले की दोबारा सुनवाई के लिए राजी हो गया था। इस पर राहुल ने कहा था कि कोर्ट ने मान लिया कि ‘चौकीदार ही चोर है।’ इसके बाद भाजपा नेता मीनाक्षी लेखी ने कांग्रेस अध्यक्ष के खिलाफ अवमानना का केस दायर कर दिया था। इस पर कोर्ट ने राहुल को बिना नोटिस जारी किए ही जवाब मांगा था। राहुल ने 22 अप्रैल को माना था कि कोर्ट ने ऐसा कुछ नहीं कहा और गर्म चुनावी माहौल में जोश में उनके मुंह से यह बात निकल गई। उन्होंने अपनी टिप्पणी पर खेद जताया था।
लेखी के वकील ने कहा था- राहुल के खेद जताने को माफी मांगना नहीं कह सकते
23 अप्रैल को मामले की सुनवाई के दौरान कोर्ट ने लेखी के वकील मुकुल रोहतगी से पूछा कि राहुल ने जवाब में क्या लिखा? इस पर रोहतगी ने कहा कि राहुल ने माना है कि उन्होंने कोर्ट का आदेश देखे बगैर पत्रकारों को गलत बयान दिया था। रोहतगी ने यह भी कहा कि जिस तरह खेद जताया गया है उसे माफी मांगना नहीं कहा जा सकता।
तब कोर्ट ने जारी कर दिया नोटिस
रोहतगी के दावे पर सिंघवी ने कहा कि कोर्ट ने उनके मुवक्किल से सिर्फ स्पष्टीकरण मांगा था जो उन्होंने दिया। कोर्ट ने उन्हें नोटिस नहीं जारी किया था। इस पर चीफ जस्टिस रंजन गोगाेई ने कहा कि आप कह रहे हैं कि नोटिस जारी नहीं हुआ, तो अब नोटिस दे रहे हैं।

सत्रहवीं लोकसभा के इस महासंग्राम में हिंसा की घटनाओं पर नियंत्रण बनाये रखने के लिये चुनाव आयोग के प्रयासों की प्रशंसा होनी चाहिए। अमूमन हर बार चुनाव आयोग मतदान के समय साधारण लोगों को डराने-धमकाने, लोभ देने के साथ-साथ हिंसा करने से रोकने के लिए पुख्ता इंतजाम करता है। लेकिन इसके बावजूद देश के बाकी राज्यों की अपेक्षा पश्चिम बंगाल में जिस तरह की खबरें आई उससे साफ है कि अभी तक वहां पूरी तरह स्वतंत्र और निष्पक्ष मतदान सुनिश्चित करा पाना चुनाव आयोग के सामने एक बड़ी चुनौती बना हुआ है। इस चुनौती पर खरे उतर कर ही हम देश में स्वस्थ एवं सशक्त लोकतंत्र की स्थापना कर पाएंगे।

भाजपा को जिताए


पश्चिम बंगाल में लोकतांत्रिक मूल्यों का जिस तरह से मखौल उड़ाया जाता है, वह एक गंभीर चिन्ता का विषय है। वहां चुनावी हिंसा का एक लंबा अतीत रहा है और आमतौर पर वहां हिंसा से मुक्त चुनाव कराना एक बड़ी चुनौती रही है। मगर हाल के वर्षों में चुनाव आयोग की सख्ती की वजह से उम्मीद की गई थी कि वहां हिंसा की घटनाओं में कमी आएगी। लेकिन तमाम प्रयासों के बावजूद वहां हिंसा, अराजकता, अशांति, डराना-धमकाना, वोटों की खरीद-फरोख्त, दादागिरी की जिस तरह की त्रासद एवं भयावह घटनाएं घटित हो रही है, उसने लोकतांत्रिक मूल्यों के मानक बदल दिये हैं न्याय, कानून और व्यवस्था के उद्देश्य अब नई व्याख्या देने लगे हैं। वहां चरित्र हासिए पर आ गया, सत्तालोलुपता केन्द्र में आ खड़ी हुई। वहां कुर्सी पाने की दौड़ में जिम्मेदारियां नहीं बांटी जा रही, बल्कि चरित्र को ही बांटने की कुचेष्टाएं हो रही हैं और जिस राज्य का चरित्र बिकाऊ हो जाता है उसकी आत्मा को फिर कैसे जिन्दा रखा जाए, चिन्तनीय प्रश्न उठ खड़ा हुआ है। आज कौन पश्चिम बंगाल में अपने दायित्व के प्रति जिम्मेदार है? कौन नीतियों के प्रति ईमानदार है? कौन लोकतांत्रिक मूल्यों को अक्षुण्ण रखते हुए निष्पक्ष एवं पारदर्शी चुनाव कराने के लिये प्रतिबद्ध है?
 
पश्चिम बंगाल में इस बार चुनावों में व्यापक अराजकता एवं हिंसा की संभावनाएं पहले से ही बनी थी, मतदान रोकने या मतदाताओं को डराने-धमकाने के मकसद से हिंसक घटनाएं होने की व्यापक संभावनाओं को देखते हुए  सुरक्षा इंतजामों में बढ़ोतरी भी की गई। इसके बावजूद राज्यों के मुर्शिदाबाद में डोमकाल और रानीनगर के अलावा मालदा में भी हिंसा की खबरें सामने आईं। विडंबना यह है कि इसके पहले भी दोनों चरणों में पश्चिम बंगाल में मतदान की प्रक्रिया को बाधित करने के लिए हिंसक घटनाओं का सहारा लिया गया। तीसरे चरण में मुर्शिदाबाद के बालीग्राम में कांग्रेस और तृणमूल कांग्रेस के कार्यकर्ताओं के बीच हिंसक झड़प हो गई, जिसमें वोट देने के के लिए लाइन में खड़े एक युवक की जान चली गई। सख्त सुरक्षा इंतजामों के बावजद इस घटना के बाद आलम यह था कि वहां अफरातफरी का माहौल पैदा हो गया और कड़ी मशक्कत के बाद ही सुरक्षा बलों को हालात पर काबू पाने में कामयाबी मिल सकी। प्रश्न है कि इस तरह की हिंसा घटनाओं से लोकतंत्र के इस महाकुंभ में कब तक काले पृष्ठों को जोड़ा जाता रहेगा? सवाल यह भी है कि कुछ बूथों पर आतंक और हिंसक माहौल बनाकर मतदाताओं को वोट देने से कब तक वंचित किया जाता रहेगा? एक गंभीर सवाल यह भी है कि लोकतंत्र के इस यज्ञ में शामिल होने वाले निर्दोष मतदाता कब तक अपनी जान गंवाते रहेंगे? कब तक मनमाने तरीके मतदान कराया जाता रहेगा? अगर यह स्थिति बनी रही तो ऐसी दशा में हुए चुनावों के नतीजे कितने विश्वसनीय माने जाएंगे। यह ध्यान रखने की जरूरत है कि पश्चिम बंगाल या देश के किसी भी हिस्से में हिंसा के माहौल में हुआ मतदान लोकतंत्र की कसौटी पर सवालों के घेरे में रहेगा। इस तरह के माहौल से बननी वाली सरकारों को कैसे लोकतांत्रिक सरकार कहा जा सकता है? लोकतांत्रिक मूल्यों से बेपरवाह होकर जिस तरह की राजनीति हो रही है, उससे कैसे आदर्श भारत का निर्माण होगा? 
 
सवाल है कि चुनाव में शामिल पार्टियां अपने कार्यकर्ताओं को यह बात क्यों नहीं समझा पाती कि हिंसा की छोटी वारदात भी न केवल लोकतंत्र कमजोर करती है बल्कि यह चुनाव प्रक्रिया पर एक कलंक है। बात हिंसा की ही नहीं बल्कि मतदाता को अपने पक्ष में वोटिंग कराने के लिए अलग-अलग तरीके से प्रभावित करने से लेकर लालच और यहां तक कि धमकी देने तक की भी हैं। विडंबना यह है कि राज्य में लगभग सभी मुख्य पार्टियों को जहां इस तरह के हिंसक हालात नहीं पैदा होने देने की कोशिश करनी चाहिए, वहां कई बार उनके समर्थक खुद भी हिंसा में शामिल हो जाते हैं। अगर चुनाव में भाग लेने वाली पार्टियों को अपने समर्थकों की ओर से की जाने वाली ऐसी अराजकता से कोई परेशानी नहीं है तो क्या वे इस मामले में हिंसा कर सकने और अराजक स्थितियां पैदा करने में समर्थ समूहों को भी स्वीकार्यता नहीं दे रहे हैं? अगर यह प्रवृत्ति तुरंत सख्ती से नहीं रोकी गई तो क्या एक भयावह और जटिल हालात नहीं पैदा करेगी, जहां लोगों के वोट देने के अधिकार का हनन होगा और आखिरकार अराजक तत्वों को संसद में पहुंचने में मदद मिलेगी? पश्चिम बंगाल में सर्वत्र चुनाव शांति, अहिंसक एवं निष्पक्ष तरीके से सम्पन्न कराने के प्रश्न पर एक घना अंधेरा छाया हुआ है, निराशा और दायित्वहीनता की चरम पराकाष्ठा ने वहां चुनाव प्रक्रिया को जटिल दौर में लाकर खड़ा कर दिया है। वहां चुनाव गुमराह एवं रामभरोसे ही है। चुनाव के इस महत्वपूर्ण अनुष्ठान को लापरवाही से नहीं संचालित किया जा सकता। हम यह न भूलें कि देश के नेतृत्व को निर्मित करने की प्रक्रिया जिस दिन अपने सिद्धांतों और आदर्शों की पटरी से उतर गयी तो पूरी लोकतंत्र की प्रतिष्ठा ही दांव पर लग जायेगी, उसकी बरबादी का सवाल उठ खड़ा होगा। पश्चिम बंगाल में लोकतंत्र कितनी ही कंटीली झांड़ियों के बीच फंसा हुआ है। वहां की अराजक एवं अलोकतांत्रिक घटनाएं प्रतिदिन यही आभास कराती है कि अगर इन कांटों के बीच कोई पगडण्डी नहीं निकली तो लोकतंत्र का चलना दूभर हो जायेगा। वहां की हिंसक घटनाओं की बहुलता को देखते हुए यही कहा जा सकता है कि राजनैतिक लोगों से महात्मा बनने की उम्मीद तो नहीं की जा सकती, पर वे पशुता पर उतर आएं, यह ठीक नहीं है।


पश्चिम बंगाल के भाग्य को निर्मित करने के लिये सबसे बड़ी जरूरत एक ऐसे नेतृत्व को चुनने की है जो और कुछ हो न हो- अहिंसक हो, लोकतांत्रिक मूल्यों को मान देने वाला हो और राष्ट्रीयता को मजबूत करने वाला हो। दुःख इस बात का है कि वहां का तथाकथित नेतृत्व लोकतांत्रिक मूल्यों की कसौटी पर खरा नहीं है, दोयम है और छद्म है, आग्रही और स्वार्थी है, हठ एवं तानाशाही है। इन चुनावों में ऐसे नेतृत्व को गहरी चुनौती मिलनी ही चाहिए, जो उसके लिये एक सबक बने। सर्वमान्य है कि वही नेतृत्व सफल है जिसका चरित्र पारदर्शी हो। सबको साथ लेकर चलने की ताकत हो, सापेक्ष चिंतन हो, समन्वय की नीति हो और निर्णायक क्षमता हो। प्रतिकूलताओं के बीच भी ईमानदारी से पैर जमाकर चलने का साहस हो। वहां योग्य नेतृत्व की प्यासी परिस्थितियां तो हैं, लेकिन बदकिस्मती से अपेक्षित नेतृत्व नहीं हैं। ऐसे में सोचना होगा कि क्या नेतृत्व की इस अप्रत्याशित रिक्तता को भरा जा सकता है? क्या पश्चिम बंगाल के सामने आज जो भयावह एवं विकट संकट और दुविधा है उससे छुटकारा मिल सकता है?


 
ललित गर्ग

अमेठी में प्रियंका गांधी वाड्रा के सामने बच्चों ने लगाए मोदी विरोधी नारे
स्मृति ईरानी ने ट्वीट किया- जिनकी शोहरत वंशवाद के चलते है उनसे प्रधानमंत्री को अत्यंत भद्दे शब्द सुनने पड़ते हैं
अमेठी. केंद्रीय मंत्री स्मृति ईरानी ने एक वीडियो ट्वीट किया है जिसमें कुछ बच्चे प्रियंका गांधी वाड्रा के सामने मोदी विरोधी नारे लगाते हुए दिख रहे हैं। दरअसल, एक बच्चा नारे लगवा रहा है। पहली बार 'चौकीदार चोर है' का नारा लगवाया। इस पर प्रियंका मुस्कुराती रहीं। दूसरी बार बच्चों से मोदी के लिए अपशब्द बुलवाया। इस पर प्रियंका ने बच्चों से कहा- ये वाला नारा अच्छा नहीं लगा। आपको अच्छे बच्चे बनना है। इसके बाद बच्चों ने राहुल गांधी जिंदाबाद के नारे लगाए।
स्मृति ने प्रियंका पर साधा निशाना
स्मृति ईरानी ने प्रियंका पर पलटवार करते हुए ट्वीट किया, "यह अत्यंत अशिष्ट है। आप सोच सकते हैं कि जिनकी शोहरत केवल वंशवाद के चलते है उनसे प्रधानमंत्री को अत्यंत भद्दे शब्द सुनने पड़ते हैं। इस बात पर लुटियंस में गुस्सा दिखाई दिया क्या?"
प्रियंका ने संभाल रखा है अमेठी का मोर्चा
कांग्रेस ने प्रियंका गांधी को पूर्वांचल की जिम्मेदारी दी है। इस वजह से वह आए दिन कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी के प्रचार-प्रसार के लिए अमेठी का दौरा कर रही हैं। उधर, स्मृति अमेठी से राहुल गांधी के खिलाफ चुनाव लड़ रही हैं। वह 2014 में इस सीट से राहुल से लोकसभा का चुनाव हार चुकी हैं।
रविवार को प्रियंका ने कहा कि पांच साल में स्मृति केवल 16 बार अमेठी आईं। इस पर स्मृति ने कहा कि खुश हूं कि वे अमेठी दौरे के दिनों का हिसाब रख रही हैं। उन्हें (प्रियंका) लोगों को यह भी बताना चाहिए कि 15 साल से अमेठी का सांसद (राहुल गांधी) कहां है?
'चौकीदार चोर है' पर राहुल की तरफ से सिंघवी ने मांगी माफी
सियासी गलियारों में 'चौकीदार चोर है' नारे को लेकर इन दिनों खासा बवाल मचा हुआ है। कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने चौकीदार चोर है वाले अपने बयान को लेकर सुप्रीम कोर्ट में सोमवार को नया हलफनामा दायर किया। उन्होंने इसमें भी खेद ही जताया है, माफी नहीं मांगी। मंगलवार को राहुल के वकील अभिषेक मनु सिंघवी ने अपने मुवक्किल के बयान के लिए माफी मांगी। राहुल ने हलफनामे में कहा कि राजनीतिक लड़ाई में उनका कोर्ट को घसीटने का कोई इरादा नहीं है। उन्होंने भाजपा नेता मीनाक्षी लेखी पर अवमानना याचिका के जरिए राजनीति करने का आरोप लगाया था।

मोदी ने अपने भाषण में विपक्ष पर निशाना साधा, कहा- सब सीट बांटे बैठे हैं मगर साथ नहीं दिखते
मोदी का दावा- कुंभ में पहले चोरी की शिकायत आती थी, इस बार ऐसा कुछ नहीं हुआ
कौशाम्बी. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बुधवार को उत्तरप्रदेश के कौशाम्बी में चुनावी रैली को संबोधित किया। उन्होंने कहा कि जब पूर्व प्रधानमंत्री पंडित नेहरू कुंभ में आए थे, तब भगदड़ मच गई थी। हजारों लोग मारे गए थे। तब सरकार की लाज बचाने के लिए, पंडित नेहरू पर कोई दाग न लग जाए, इसके लिए खबरें दबा दी गईं। मगर इस बार कुंभ में करोड़ों लोग आए, लेकिन कोई भगदड़ नहीं हुई, कोई नहीं मरा। व्यवस्थाएं कैसे बदलती हैं, यह उसका उदाहरण है।
मोदी ने पूछा- विपक्ष के नेता साथ दिखे क्या
मोदी ने अपने भाषण में विपक्ष पर निशाना साधा। उन्होंने कहा कि महाराष्ट्र का चुनाव पूरा हो गया, शरद पवार और राहुल एक साथ दिखे क्या? बिहार में चुनाव हो रहे हैं, कांग्रेस और राजद साथ दिखे क्या? इनका यही हाल है। सब एक साथ सीट बांटे बैठे हैं, लेकिन साथ में दिखते नहीं हैं। सरकार चुनने के लिए पहली बार 21वीं सदी में जिसका जन्म हुआ है, वो हमारे नौजवान युवक और युवतियां हैं। वो एक मोबाइल फोन में दुनिया समेटे बैठे हैं।
मोदी ने कहा- इस बार कुंभ हुआ, शान से माथा ऊंचा हो गया
मोदी ने कहा कि मुझे पिछली बार कुंभ में अनेक बार आने का मौका मिला। जब सरकार बदलती और नीयत बदलती है तब कैसा परिणाम आता है, यह प्रयागराज ने इस बार दिखा दिया है। पहले कुंभ होता था तो खबरें आती रहती थीं कि अखाड़ों के बीच जमीन को लेकर विवाद है। किसी को इतनी जमीन दी, किसी को यह किया। पहले कुंभ मेले में भ्रष्टाचार की बातें सामने आती थीं। इस बार मेला हुआ, शान से माथा ऊंचा हो गया। एक आरोप नहीं लगा। पहले मेला होता था तो यह चोरी हो गया, वो चोरी हो गया, शिकायत आती थीं। इस बार चोरी, मारधाड़ की कोई शिकायत नहीं आई।
मोदी ने बताया कि इस बार कुंभ का मेला दुनियाभर के अखबारों में छपा है। पहले सिर्फ नागा साधुओं के बारे में छपता था। इस बार कुंभ में सफाई के बारे में छपा। पहले कहा जाता था उत्तर प्रदेश में व्यवस्था की बातें हो ही नहीं सकतीं। इस बार यूपी ने दिखा दिया कि आप लोग बहादुर हैं और व्यवस्था को मानने वाले हैं।
मोदी का आरोप- पहले प्रधानमंत्री के कार्यकाल में पाप हुआ था
मोदी ने कहा कि पंडित नेहरू जब प्रधानमंत्री थे, तब वे एक बार कुंभ के मेले में आए थे। मैं जो बात आज बता रहा हूं, उसे पांच-छह दशक में दबा दिया गया, छिपा दिया गया। असंवेदनशीलता की सीमापार की गई। जब नेहरू जी आए तो मेला इतना बड़ा नहीं होता था। दूसरी पार्टियों का तो निशान भी नहीं था। केंद्र और राज्य में कांग्रेस की सरकार थी। तब उत्तर प्रदेश में भगदड़ मच गई थी। हजारों लोग कुचल के मारे गए थे। लेकिन सरकार की लाज बचाने के लिए, पंडित नेहरू पर कोई दाग न लग जाए, इसके लिए खबरें दबा दी गईं। कुछ अखबारों में कोने में खबर छिपा दी गई। इसमें पीड़ितों को भी कुछ नहीं दिया गया। ऐसा पाप देश के पहले प्रधानमंत्री के काल में हुआ। इस बार करोड़ों लोग आए, प्रधानमंत्री खुद भी आए लेकिन कोई भगदड़ नहीं हुई, कोई नहीं मरा।

अयोध्या. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बुधवार को पांच साल बाद अयोध्या पहुंचे। उन्होंने अयोध्या मुख्यालय से 25 किमी दूर मया बाजार में जनसभा को संबोधित किया। बतौर प्रधानमंत्री मोदी की अयोध्या में पहली रैली थी। यहां उन्होंने मंदिर मुद्दे पर कोई बात नहीं की, लेकिन सभा के आखिर में जय श्रीराम के नारे लगवाए।
'सपा-बसपा की सच्चाई जानना जरूरी'
मोदी ने कहा कि यह मर्यादा पुरुषोत्तम राम की धरती है, स्वाभिमान की धरती है। यही स्वाभिमान पिछले पांच साल की सरकार में दिखा है। मजबूत भारत के निर्माण के बीच सपा हो, बसपा हो या कांग्रेस। इनकी सच्चाई जानना जरूरी है।
"बहनजी ने बाबा साहब के नाम का उपयोग किया, लेकिन उनके आदर्शों के विपरीत हर काम किया। समाजवादी पार्टी ने डगर डगर पर लोहिया जी का नाम लिया, लेकिन अपने आचरण से न सिर्फ यूपी की कानून व्यवस्था को तहस-नहस कर दिया बल्कि लोहिया के आदर्शों को भी मिट्टी में मिला दिया।"
"आज मैं इन लोगों से कुछ सवाल करना चाहता हूं। क्या समाजवाद की बातें, लोहिया जी की बातें करने वालों को श्रमिकों की, गरीबों की चिंता नहीं करनी चाहिए थी। क्या बाबा साहब की बातें करने वालों को श्रमिकों की चिंता नहीं करनी चाहिए थी?"
"पिछले 60-70 सालों से हर चुनाव में गरीबी हटाओ का नारा उछालने वाली कांग्रेस को श्रमिकों की चिंता करनी चाहिए थी कि नहीं? हमारे देश के 40 करोड़ से ज्यादा श्रमिकों की इन पार्टियों ने कभी परवाह नहीं की। गरीबों को वोटबैंक में बांटकर इन लोगों ने सिर्फ अपना और अपने परिवार का फायदा कराया।"
"कोई गरीब अपने बच्चे को गरीब नहीं देखना चाहता। गरीब आगे बढ़ना चाहता है, मजदूर आगे बढ़ना चाहता है। उसे आवश्यकता होती है एक संबल की। पहली बार देश में किसी सरकार ने गरीबों के बारे में सोचा है। श्रमिकों के बारे में सोचा है। हमने उनकी परवाह की है। उनका जीवन आसान बनाने के लिए काम किया है।"
"योग हमारी संस्कृति का हिस्सा सदियों से है, लेकिन पूरी दुनिया 21 जून को योग दिवस मनाए, यह काम हमारी सरकार ने किया।"
"कुंभ पिछले कई सालों से होता रहा है, लेकिन जो भव्यता प्रयागराज में दिखी वो अभूतपूर्व है। अयोध्या में दीप तो हजारों सालों से जलते आए हैं, लेकिन अब जो दीपावली मनाई जाती है, वो दुनियाभर में चर्चा का विषय बनती है, देश का गौरव बढ़ता है।"
"जब कोरिया की फर्स्ट लेडी अयोध्या में हुए कार्यक्रम में मुख्य अतिथि बनकर आती हैं, तो इसकी चर्चा हर तरफ होती है। जब आसियान समिट के दौरान, वहां से आए कलाकार अपने-अपने देशों में प्रचलित रामायण के अंश प्रस्तुत करते हैं, तो सबकी नजर जाती है।"
"अपनी इस अनमोल धरोहर को पहचानने के लिए संवेदनशीलता की जरूरत होती है। हमने इसे आस्था से ही नहीं बल्कि आर्थिक रूप से जोड़ा है।"
"देश में अभी स्वदेश दर्शन नाम से एक बहुत व्यापक कार्यक्रम चल रहा है। इसके अंतर्गत देश में रामायण सर्किट, कृष्ण सर्किट, बौद्ध सर्किट सहित 15 सर्किट पर काम चल रहा है। रामायण सर्किट के तहत अयोध्या से लेकर रामेश्वरम तक, जहां-जहां भी प्रभु राम के निशान हैं, उन सभी स्थानों को विकसित किया जा रहा है।"
मोदी ने नहीं किए रामलला के दर्शन
मोदी का यह चुनावी दौरा है, इसलिए वे रामलला के दर्शन करने नहीं गए। लेकिन, भाजपा संकेत देना चाहती है कि मोदी और पार्टी के लिए अयोध्या मुद्दा अहम है। अयोध्या में दौरा उस समय रखा गया है, जब अवध और पूर्वांचल में वोटिंग करीब है। 6 मई को फैजाबाद सीट (अयोध्या) और 12 मई को अंबेडकरनगर में मतदान होगा।
गठबंधन से मिल रही सीधी टक्कर
फैजाबाद सीट के अलावा धौरहरा, सीतापुर, मोहनलालगंज, लखनऊ, रायबरेली, अमेठी, बांदा, फतेहपुर, कौशांबी, बाराबंकी, बहराइच, कैसरगंज और गोंडा लोकसभा सीटों पर मतदान होना है। इन सीटों पर भाजपा को बसपा-सपा गठबंधन सीधे टक्कर दे रहा है। माना जा रहा है कि लोकसभा चुनाव के पांचवें चरण की वोटिंग से पहले प्रधानमंत्री के इस दौरे से भाजपा को आसपास की सीटों पर फायदा मिल सकता है।
इटारसी और जयपुर में भी सभा
मोदी यूपी दौरे के बाद भोपाल होते हुए इटारसी जाएंगे। इसके बाद वे जयपुर के मानसराेवर में चुनावी सभा काे संबाेधित करेंगे। पिछले लाेकसभा चुनाव में भाजपा ने जयपुर शहर सीट 5.85 लाख वाेटाें के रिकॉर्ड अंतर से जीती थी। मोदी ने राजस्थान में लोकसभा चुनाव के पहले चरण में 4 चुनावी सभाएं की थीं। पहले चरण में 29 अप्रैल काे 13 सीटाें पर मतदान हाे चुका है।

सत्रहवीं लोकसभा के लिये जारी चुनाव अभियान में चुनाव आचार संहिता के उल्लंघन की बढ़ती घटनाएं एक आदर्श लोकतंत्र को धुंधलाने की कुचेष्टा है। निर्वाचन आयोग की सख्ती के बाद भी बड़बोले नेताओं की बेतुकी, अपमानजनक, अमर्यादित बयानबाजी थमती न दिखना चिंताजनक है। हैरानी यह है कि नेता वैसे ही आपत्तिजनक बयान देने में लगे हुए हैं जैसे बयानों के लिए उन्हें निर्वाचन आयोग द्वारा दंडित करते हुए इस तरह का विवादित चुनाव प्रचार करने से रोका जा चुका है। फिर भी आम चुनाव के प्रचार में इनदिनों विवादित बयानों की बाढ़ आयी है, सभी राजनीतिक दल एक-दूसरे पर कीचड़ उछाल रहे हैं, गाली-गलौच, अपशब्दों एवं अमर्यादित भाषा का उपयोग कर रहे हैं, जो लोकतंत्र के इस महापर्व में लोकतांत्रिक मूल्यों पर कुठाराघात है।
सवाल उठता है कि चुनाव प्रचार के दौरान नित-नयी उभरती विसंगतियां और विरोधाभासों पर कैसे नियंत्रण स्थापित किया जाये? क्योंकि निर्वाचन आयोग की सख्ती के बावजूद आदर्श आचार संहिता के उल्लंघन के बढ़ते मामले, मतदाताओं को बांटे जाने वाले पैसे की बरामदगी का कोई ओर-छोर न दिखना और विरोधियों अथवा खास जाति, समुदाय, वर्ग को लेकर दिए जाने वाले बेजा बयानों का बेरोक-टोक सिलसिला यही बताता है कि हमारी चुनाव प्रक्रिया ही नहीं, राजनीति भी बुरी तरह दूषित हो चुकी है। इस आम चुनाव की सारी प्रचार प्रक्रियाओं में, राजनेताओं के व्यवहार में, उनके कथनों में, उनके वोट हासिल करने के उपक्रमों में विरोधाभास ही विरोधाभास है। चुनाव आचार संहिता की शब्दधाराओं को ही नहीं, उसकी भावना को भी महत्व देना होगा, बोलने की आजादी का दुरुपयोग रोकना ही होगा। 
 
चुनाव आयोग के निर्देशों के प्रति कोताही बरतने के यूं तो हर रोज नया उदाहरण सामने आता है, लेकिन ताजा उदाहरण पंजाब सरकार के मंत्री नवजोत सिंह सिद्धू का है। उन्होंने बिहार में एक जनसभा में मुसलमानों को चेताते हुए करीब-करीब वैसा ही बयान दे डाला जैसा बसपा प्रमुख मायावती ने दिया था और जिसके चलते उन्हें दो दिन के लिए चुनाव प्रचार से रोका गया। क्या यह संभव है कि सिद्धू इससे अनजान हों कि निर्वाचन आयोग ने कैसे बयानों के लिए किन-किन नेताओं को चुनाव प्रचार से रोका है? साफ है कि उन्होंने निर्वाचन आयोग की परवाह नहीं की। मुश्किल यह है कि ऐसे नेताओं की कमी नहीं जो आदर्श आचार संहिता की अनदेखी करने में लगे हुए हैं। इस मामले में किसी एक राजनीतिक दल को दोष नहीं दिया जा सकता। चुनाव महज सत्ता में पहुंचने की तिकड़म बन जाने के मद्देनजर चुनाव प्रक्रिया में आमूल-चूल-परिवर्तन की आवश्यकता है। तथ्य यह भी है कि यह जरूरी नहीं कि निर्वाचन आयोग हर तरह के आपत्तिजनक बयानों और अनुचित तौर-तरीकों का संज्ञान ले पा रहा हो। यह ठीक है कि तमिलनाडु के वेल्लोर लोकसभा क्षेत्र में मतदाताओं को पैसे बांटने के सिलसिले का उसने समय रहते संज्ञान लेकर वहां चुनाव रद्द कर दिया, लेकिन यह कहना कठिन है कि वह हर उस क्षेत्र में निगाह रख पा रहा होगा जहां मतदाताओं को पैसे बांटकर प्रभावित किया जा रहा होगा। इसी क्रम में इसकी भी अनदेखी नहीं की जा सकती कि पश्चिम बंगाल में बांग्लादेश के कलाकार चुनाव प्रचार करने में लगे हुए थे, लेकिन निर्वाचन आयोग को खबर तब हुई जब इसकी शिकायत की गई। विचित्र और हास्यास्पद यह है कि बांग्लादेशी कलाकार तृणमूल कांग्रेस के जिन नेताओं के लिए वोट मांग रहे थे उनकी दलील यह है कि उन्हें तो इस बारे में कुछ पता ही नहीं। यह दलील और कुछ नहीं निर्वाचन आयोग को धोखा देने की कोशिश ही है, उसकी अवमानना करने का प्रयत्न है। 
आम भारतीय लोगों में लोकतंत्र एवं लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रति संतुष्टि एवं निष्ठा का स्तर दुनिया के तमाम विकसित देशों से ज्यादा है। मगर लोकतांत्रिक प्रक्रिया से चुनाव प्रक्रिया को संचालित करने में राजनेताओं की निष्ठा का गिरता स्तर घोर चिन्तनीय है। सत्ता तक पहुंचने के लिए जिस प्रकार के गलत साधनों का उपयोग होरहा है इससे सबके मन में अकल्पनीय सम्भावनाओं की सिहरन उठती है। राष्ट्र और राष्ट्रीयता के अस्तित्व पर ही प्रश्नचिन्ह लगने लगा है। लोकतंत्र में टकराव होता है। विचार फर्क भी होता है। मन-मुटाव भी होता है पर मर्यादापूर्वक। अब इस आधार को ताक पर रख दिया गया है। राजनीति में दुश्मन स्थाई नहीं होते। अवसरवादिता दुश्मन को दोस्त और दोस्त को दुश्मन बना देती है। यह भी बडे़ रूप में देखने को मिला। नेताओं ने जो 5-10 या 15-20 वर्ष पहले कहा, अखबार की उस कटिंग को आज के उनके कथन से मिलाइये, तो विरोधाभास ऊपर तैरता दिखाई देता है। फर्क के कारण पूछने पर कहते हैं कि ”अब संदर्भ बदल गए हैं।“ सत्ता के लालच में सत्य को झुठलाना सबसे बड़ा विरोधाभास है। 
 
एक अध्ययन के मुताबिक, लोकतांत्रिक व्यवस्था से 79 फीसदी भारतीय संतुष्ट हैं। ब्रिटेन में यह 52 प्रतिशत, अमेरिका में 46 प्रतिशत और स्पेन में 25 प्रतिशत है। वहीं, लोकतांत्रिक पद्धति से निर्वाचित सरकारें चलाने वाले राजनेताओं के प्रति विश्वास के मामले में भारत, रवांडा से नीचे 33वें पायदान पर पहुंच गया है। यह व्यवस्था की खामी हैं या नेताओं का दोष, ऐसा सवाल है, जिस पर व्यापक मंथन जरूरी है। क्योंकि एक बात साफ है कि आजादी के बाद लोकतंत्र में जिस तरह से राजनेताओं की गरिमा बननी चाहिए थी, वह नहीं बन सकी। इसके अनेक कारण हो सकते हैं, लेकिन मुख्य वजह राजनेताओं का आम जन के प्रति समर्पित होने की बजाय सत्ता के प्रति समर्पित होना है। व्यवस्था के संचालन की मौलिक जिम्मेदारी राजनेताओं की ही है। इसलिए इसमें खामियों के लिए प्रथम दृष्टया राजनेता ही दोषी हैं। व्यवस्था की खामी तब मानी जाती, जबकि राजनेताओं के समर्पित होने के बाद भी बेहतर परिणाम नहीं मिलते।
 
लोगों में लोकतंत्र के प्रति विश्वास बढ़ता जा रहा है लेकिन नेताओं के प्रति अविश्वास बढ़ना एक विडम्बनापूर्ण स्थिति है। बेशक, लोकतंत्र भारतीय जीवन पद्धति का मूल तत्व है। अगर व्यवस्था चलाने वाले नेताओं की बात करें, तो पिछले कुछ दशकों में नेताओं की विश्वसनीयता तेजी से गिरी है। इसकी वजह, नेताओं द्वारा जिस गति से चुनाव प्रक्रिया को दूषित किया गया, उस गति से चुनाव प्रक्रिया में सुधार नहीं हो पाना है। चुनाव में धनबल और बाहुबल से हुई शुरुआत अब धर्म-जाति के प्रपंच से आगे जाकर तकनीक यानी सोशल मीडिया आदि माध्यमों का दुरुपयोग कर मतदाताओं को भ्रमित एवं गुमराह करने तक जा पहुंची है। इन बुराइयों को रोकने के लिए किये गये उपाय नाकाफी साबित होने के कारण विधायिका में अवांछित सदस्यों की संख्या बढ़ी है। नतीजतन, विधायिका से चुनाव सुधार के उपयुक्त कानून बनाने की उम्मीद भी धूमिल हो रही है। निर्वाचन प्रणाली में धनबल और बाहुबल का बढ़ता प्रभाव एवं प्रयोग जनता को प्रभावी प्रतिनिधित्व चुनने में बाधक बनता है। इसका तात्कालिक प्रभाव जवाबदेही में कमी के रूप में दिखता है। परिणामस्वरूप विधायिका में लोगों के प्रतिनिधित्व की गुणवत्ता जिस तरह से निखर कर आनी चाहिए, वह नहीं आ पाती है।
 
क्या यह माना जाये कि देश को एक आदर्श और निर्विवाद चुनाव प्रक्रिया की जरूरत है? जिसकी 70 साल बाद भी अपनी सरकारों के निर्वाचन की उपयुक्त व्यवस्था की तलाश जारी है। चुनाव प्रक्रिया में आयी खामियों के मद्देनजर विशेषज्ञों ने लोकतांत्रिक प्रक्रिया को सुदृढ़ करने के लिए गहन मंथन कर समय-समय पर महत्वपूर्ण सुझाव दिये हैं। लेकिन, आम राय कायम नहीं हो पाने के कारण इन्हें अमल में नहीं लाया जा सका है। इस नाकामी के लिए विधायिका के सदस्यों में गुणवत्ता की कमी ही जिम्मेदार है। इस कमी को दूर करना अब नितांत जरूरी है, क्योंकि अगर लोगों का लोकतंत्र से विश्वास उठ गया, तो फिर कुछ नहीं बचेगा।
 
निःसंदेह इतने बड़े देश में जहां राजनीतिक दलों की भारी भीड़ है वहां चुनाव प्रचार के दौरान आरोप-प्रत्यारोप का जोर पकड़ लेना स्वाभाविक है, लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि नेतागण गाली-गलौज करने अथवा मतदाताओं को धमकाने को अपना अधिकार समझने लगें। विडंबना यह है कि वे केवल यही नहीं कर रहे, बल्कि झूठ और फरेब का भी सहारा ले रहे हैं। यह स्थिति यही बताती है कि भारत दुनिया का बड़ा लोकतंत्र भले हो, लेकिन उसे बेहतर लोकतंत्र का लक्ष्य हासिल करने के लिए अभी एक लंबा सफर तय करना है। समय के साथ स्थितियां सुधरने की अपेक्षा अधिक त्रासद बनती जा रही है। इस विडम्बना एवं त्रासदी से उबरना तभी संभव है जब राजनीतिक दल येन-केन-प्रकारेण चुनाव जीतने की अपनी प्रवृत्ति का परित्याग करते हुए दिखेंगे। फिलहाल वे ऐसा करते नहीं दिख रहे हैं। इसलिये चुनाव आयोग को ही सख्त होना होगा, उसने कुछ प्रत्याशियों और पार्टियों के पंख कतरने की कोशिश की है, लेकिन यह कोशिश शेषन की भांति राजनेताओं को भयभीत करने वाली तेजधार बनानी होगी। जैसे ”भय के बिना प्रीत नहीं होती“, वैसे ही भय के बिना चुनाव सुधार भी नहीं होता। इस चुनाव में सबसे बड़ा हल्ला यह है की कहीं भी चुनाव सुधार का हल्ला नहीं है। चुनाव अभियान में जो मतदाताओं के मुंह से सुना जारहा है, उनके भावों को शब्द दें तो जन-संदेश यह होगा-स्थिरता किसके लिए? नेताओं के लिए या नीतियों के लिए। लोकतंत्र में भय कानून का होना चाहिए, व्यक्ति का नहीं। तभी लोकतंत्र मजबूत होगा।
 
- ललित गर्ग
 
आधुनिक गोवा के शिल्पकार और राजनीति में 'मिस्टर क्लीन' की छवि रखने वाले मनोहर पर्रिकर का निधन मात्र एक राजनेता का निधन नहीं है। यह निधन है अपनी माटी के साथ गहरा लगाव रखने वाले एक काबिल बेटे का, यह निधन है अंतिम सांस तक राज्य और राष्ट्र की सेवा का संकल्प सिद्ध करके दिखाने वाले कर्मयोगी का। जरा खोज कर देखिये देश में कितने ऐसे नेता हैं जो बड़े पद पर रहते हुए भी आम आदमी जैसा दिखता हो, जो बड़े पद पर रहते हुए भी आम आदमी की तरह बस, स्कूटर, बाइक, ट्रेन की सामान्य बोगी या इकॉनामी क्लास से हवाई यात्रा करता हो।
 
गोवा के लाड़ले थे पर्रिकर
 
किसी भी राजनीतिज्ञ के निधन पर हालांकि सभी दलों की ओर से दुःख भरी प्रतिक्रियाएं व्यक्त की जाती हैं लेकिन उन प्रतिक्रियाओं की शब्दावली पर जरा गौर कीजियेगा वह सारी एक जैसी या सामान्य-सी होती हैं। लेकिन मनोहर पर्रिकर जैसे माटीपुत्र के निधन पर आने वाली प्रतिक्रियाओं पर गौर कीजिये- राज्य में पर्रिकर की अस्वस्थता का हवाला देते हुए कांग्रेस भले अपनी सरकार बनाने की कोशिशें करती रही लेकिन कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने पर्रिकर के निधन पर शोक जताते हुए उन्हें ‘‘गोवा का चहेता बताया’’ है। राहुल गांधी ने कहा है, ''दलगत राजनीति से इतर सभी उनका मान-सम्मान करते थे और वह गोवा के सबसे लोकप्रिय बेटों में से एक थे।'' ऐसे ही अनेक दलों के नेताओं ने सिर्फ रस्मी प्रतिक्रियाएं देने की बजाय पर्रिकर की तारीफों के पुल बांधे हैं। वाकई बिरले ही ऐसे नेता होते हैं जो दलगत राजनीति से ऊपर उठकर इस तरह का मान-सम्मान हासिल कर पाते हैं।
राज्य छोटा पर नेता बड़ा
 
गोवा भले छोटा-सा राज्य हो लेकिन यहाँ से एक ऐसा जननेता निकला जो राष्ट्रीय स्तर का कद रखता था। असाधारण व्यक्तित्व वाले परन्तु साधारण से दिखने वाले इस राजनीतिज्ञ का मन अंतिम समय तक सिर्फ गोवा के विकास में ही लगा रहा। भारतीय राजनीति शायद ही इस बात की कभी गवाह रही हो कि कोई मुख्यमंत्री नाक में नली लगाकर विकास कार्यों का जायजा ले रहा हो, राज्य विधानसभा में बजट प्रस्तुत कर रहा हो या फिर जीवन के अंतिम दिनों में भी राज्य के अधिकारियों से लगातार विचार-विमर्श करता रहा हो। मनोहर पर्रिकर सिर्फ भाजपा के शीर्ष नेता नहीं थे वह तो सभी वर्गों के नेता थे। मनोहर पर्रिकर भाजपा के एकमात्र ऐसे नेता थे जिन्होंने क्रिश्चियन समुदाय से बड़ी संख्या में विधानसभा चुनावों में उम्मीदवार उतारे थे। जरा गोवा चर्च का बयान देखिये- गोवा और दमन के प्रधान पादरी फिलिप नेरी फेर्राओ ने शोक संदेश में कहा, ‘‘इस राज्य में चर्च के पदाधिकारियों के लिए उनके (पर्रिकर) मन में जो सम्मान था, हम उसके लिए उनके आभारी हैं।’’ उन्होंने कहा, ‘‘वह (पर्रिकर) राज्य के कल्याण के लिए दूरगामी निर्णय करते समय कई बार चर्च की राय लेते थे।’’ फेर्राओ ने कहा कि गोवा के कैथोलिक शिक्षण संस्थानों में पर्रिकर का योगदान सराहनीय था।
 
आरएसएस का प्रतिबद्ध स्वयंसेवक
 
मनोहर पर्रिकर आरएसएस के प्रतिबद्ध स्वयंसेवक थे और राजनीति में उन्होंने पूर्ण रूप से शुचिता का पालन किया। यह सही है कि उन्होंने कई बार जोड़तोड़ की सरकार का नेतृत्व किया लेकिन इसके लिए उन्हें अन्य लोगों की तरह भ्रष्टाचार का सहारा लेना नहीं पड़ा बल्कि गोवा में स्थिति यह थी कि छोटे दलों के या निर्दलीय विधायकों की शर्त यह होती थी कि यदि भाजपा मनोहर पर्रिकर को मुख्यमंत्री बनाये तो वह उसे समर्थन देने के लिए तैयार हैं। यह उनकी ईमानदारी, कर्तव्यपरायणता की अनोखी मिसालों और संगठन के प्रति पूर्ण प्रतिबद्धता का ही कमाल था कि नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद पर्रिकर का नाम भाजपा अध्यक्ष पद के लिए भी चला था। लेकिन वह दिल्ली आने को राजी नहीं थे और गोवा के ही लोगों की सेवा करते रहना चाहते थे। उन्हें 2014 में दिल्ली में केंद्रीय मंत्री बनाने का प्रस्ताव दिया गया लेकिन उन्होंने मना कर दिया था। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी लेकिन रक्षा मंत्रालय में मनोहर पर्रिकर को ही लाना चाहते थे क्योंकि रक्षा मंत्रालय की होने वाली बड़ी खरीदों को पारदर्शी बनाने के लिए उनके जैसे ईमानदार व्यक्ति की ही जरूरत थी। आखिर पर्रिकर मान गये और रक्षा मंत्री बनकर दिल्ली आ गये।
 
रक्षा मंत्री के रूप में भी छाप छोड़ी
 
बतौर रक्षा मंत्री उन्होंने सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन किया और वह भारत के पहले ऐसे रक्षा मंत्री बने जिनके कार्यकाल में पीओके में सर्जिकल स्ट्राइक करके आतंकवादियों को कड़ा सबक सिखाया गया। यही नहीं उन्होंने रक्षा खरीद प्रक्रियाओं को सरल और पारदर्शी बनाने के लिए कई कार्य किये। लेकिन पर्रिकर का दिल्ली की राजनीति में मन नहीं लगता था और वह अपने राज्य में वापसी चाहते थे। वह हालात तब बन गये जब गोवा विधानसभा चुनावों में किसी भी दल को बहुमत नहीं मिला और भाजपा को समर्थन देने वालों ने मांग कर दी कि पर्रिकर को मुख्यमंत्री बनाने पर ही वह साथ आएंगे।
 
भारत-अमेरिका के रक्षा संबंधों को नयी ऊँचाई पर ले जाने में भी मनोहर पर्रिकर का बड़ा योगदान रहा। वर्ष 2016 में जब बतौर रक्षा मंत्री मनोहर पर्रिकर ने अमेरिका की यात्रा की थी तो पेंटागन में उनका भव्य स्वागत हुआ था और तत्कालीन अमेरिकी रक्षा मंत्री एश्टन कार्टर के एक बयान से साफ हो गया था कि पर्रिकर के साथ उनके कैसे संबंध हैं। तब एश्टन कार्टर ने कहा था कि एक साल से थोड़े अधिक समय में ही उन्होंने अपने अन्य विदेशी समकक्षों की तुलना में पर्रिकर के साथ ज्‍यादा वक्‍त बिताया है। अगस्त 2016 में मनोहर पर्रिकर के साथ एक संयुक्त संवाददाता सम्मेलन में उन्होंने कहा था कि अमेरिका का रक्षा मंत्री बनने के बाद से पर्रिकर के साथ यह उनकी छठी मुलाकात है। कार्टर ने कहा था कि मैंने दुनिया में कहीं भी अपने समकक्ष किसी अन्य रक्षा मंत्री की तुलना में पर्रिकर के साथ अधिक समय बिताया है। पर्रिकर को पेंटागन के उन क्षेत्रों का दौरा भी कराया गया था जहां अमेरिकी रक्षा अधिकारी किसी विदेशी नेता को नहीं ले जाते।
 
संकल्प से सिद्धि तक
 
भाजपा नेतृत्व की भी तारीफ करनी होगी कि उसने मनोहर पर्रिकर के उस संकल्प का साथ दिया जिसमें वह अंतिम सांस तक गोवा की सेवा करना चाहते थे। वरना तो अकसर देखने में आता है कि किसी का स्वास्थ्य बिगड़ते ही कैसे उसकी जगह लेने के लिए लोगों की लाइन लग जाती है। पर्रिकर पूरे एक साल तक कैंसर जैसी जानलेवा बीमारी से जूझते रहे लेकिन उन्होंने कभी अपनी बीमारी को अपने संकल्प पर हावी नहीं होने दिया।
 
अनोखा संयोग
 
मनोहर पर्रिकर चार बार गोवा के मुख्यमंत्री जरूर रहे लेकिन संयोग देखिये कि वह एक बार भी अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पाये। दो बार उनकी सरकार अल्पमत में आने के कारण चली गयी तो तीसरी बार वह अपना कार्यकाल इसलिए पूरा नहीं कर पाये क्योंकि उन्हें राज्य से बुलाकर केंद्र में मंत्री बना दिया गया और चौथे कार्यकाल में उनका निधन हो गया।
 
राजनीतिक कॅरियर
 
गोवा लंबे समय तक कांग्रेस का गढ़ रहा लेकिन मनोहर पर्रिकर की छवि और उनके कामों ने इस गढ़ को ध्वस्त कर दिया था। एक मध्यमवर्गीय परिवार में 13 दिसंबर 1955 को जन्मे पर्रिकर ने संघ के प्रचारक के रूप में अपना राजनीतिक कॅरियर आरंभ किया था। उन्होंने आईआईटी-बंबई से इंजीनियरिंग में स्नातक करने के बाद भी संघ के लिए काम जारी रखा। पर्रिकर ने बहुत छोटी उम्र से आरएसएस से रिश्ता जोड़ लिया था। वह स्कूल के अंतिम दिनों में आरएसएस के ‘मुख्य शिक्षक’ बन गए थे। पर्रिकर ने संघ के साथ अपने जुड़ाव को लेकर कभी भी किसी तरह की परेशानी महसूस नहीं की। उनका संघ द्वारा आयोजित ‘‘संचालन’’ में लिया गया एक फोटोग्राफ इसकी पुष्टि करता है, जिसमें वह संघ के गणवेश और हाथ में लाठी लिए नजर आते हैं। आईआईटी से पढ़ाई पूरी करने के बाद वह 26 साल की उम्र में मापुसा में संघचालक बन गए। उन्होंने रक्षा मंत्री के तौर पर अपने कार्यकाल में पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर में भारतीय सेना के सर्जिकल हमले का श्रेय भी संघ की शिक्षा को दिया था।
बहरहाल, मनोहर पर्रिकर के चले जाने से जो राजनीतिक शून्यता पैदा हुई है उसे पूरा कर पाना भाजपा ही नहीं किसी भी दल के लिए बड़ी चुनौती है क्योंकि पूरी ईमानदारी से राज्य के विकास की बात सोचने वाला नेता इतनी आसानी से नहीं मिलता। अब देखना होगा कि गोवा में जो जोड़तोड़ वाली सरकार मनोहर पर्रिकर जैसे बड़े कद वाले नेता के नेतृत्व में आसानी से चल रही थी उसका आगे का भविष्य क्या होता है। गोवा अगर दोबारा से आयाराम गयाराम की राजनीति में फंसा और राज्य राजनीतिक अस्थिरता के दौर में लौटा तो इससे विकास पर बड़ा विपरीत असर पड़ेगा।
 
-नीरज कुमार दुबे
विश्व के सभी देशों में उसके नागरिकों के मन में अपने देश के प्रति असीम प्यार की भावना समाहित रहती है। यही भावना उस देश की मतबूती का आधार भी होता है। जिस देश में यह भाव समाप्त हो जाता है, उसके बारे में कहा जा सकता है कि वह देश या तो मृत प्राय: है या समाप्त होने की ओर कदम बढ़ा चुका है। हम यह भी जानते हैं कि जो देश वर्तमान के मोहजाल में अपने स्वर्णिम अतीत को विस्मृत कर देता है, उसका अपना खुद का कोई अस्तित्व नहीं रहता। इसलिए प्रत्येक देश के नागरिक को कम से कम अपने देश के बारे में मन से जुड़ाव रखना चाहिए। इजराइल के बारे में कहा जाता है कि वहां का प्रत्येक नागरिक अपने लिए तो जीता ही है, लेकिन सबसे पहले अपने देश के लिए जीता है। इजराइल में हर व्यक्ति के लिए सबसे ज्यादा जरूरी है कि देश के हिसाब से अपने आपको तैयार करे। इजराइल का हर व्यक्ति एक सैनिक है, उसे सैनिक का पूरा प्रशिक्षण लेना भी अनिवार्य है। यह उदाहरण एक जिम्मेदार नागरिक होने का बोध कराता है। इसी प्रकार विश्व के सभी देशों में राजनीतिक नजरिया केवल देश हित की बात को ही प्राथमिकता देता हुआ दिखाई देता है। वहां देश के काम को प्राथमिकता के तौर पर लिया जाता है। अपने स्वयं के काम को बाद में स्थान दिया जाता है।
 
भारत विश्व का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश माना जाता है। यहां के राजनेता मात्र जनता के प्रतिनिधि होते हैं। ऐसे में जनता को भी यह समझना चाहिए कि हम ही भारत की असली सरकार हैं। असली सरकार होने के मायने निकाले जाएं तो यह प्रमाणित होता है कि राजनेताओं से अधिक यहां जनता की जिम्मेदारियां कुछ ज्यादा ही हैं। लोकतंत्र का वास्तविक अर्थ यही है कि जनता को अपने अधिकारों के प्रति सजग रहना चाहिए। अगर जनता सजग और सक्रिय नहीं रही तो राजनेता देश का क्या कर सकते हैं, यह हम सभी के सामने है।
भारत को स्वतंत्रता मिलने के बाद जिस परिवर्तन की प्रतीक्षा की जा रही थी, उसके बारे में उस समय के नेताओं ने भी गंभीरता पूर्वक चिन्तन किया, लेकिन देश में कुछ राजनेता ऐसे भी हुए जो केवल दिखावे के लिए भारतीय थे, परंतु उनकी मानसिकता पूरी तरह से अंग्रेजों की नीतियों का ही समर्थन करती हुई दिखाई देती थीं। अंग्रेजों का एक ही सिद्धांत रहा कि भारतीय समाज में फूट डालो और राज करो। वर्तमान में भारतीय राजनीति का भी कमोवेश यही चरित्र दिखाई देता है। आज भारतीय समाज में आपस में जो विरोधाभास दिखाई देता है, उसके पीछे केवल अंग्रेजों की नीतियां ही जिम्मेदार हैं। इस सबके लिए हम भी कहीं न कहीं दोषी हैं। हमने अपने अंदर की भारतीयता को समाप्त कर दिया। स्व-केन्द्रित जीवन जीने की चाहत में हमने देश हित का त्याग कर दिया।
 
वर्तमान में भारतीय समाज में केवल पैसे को प्रधानता देने का व्यवहार दिखाई देता है। हमें यह बात समझना चाहिए कि केवल पैसा ही सब कुछ नहीं होता, जबकि आज केवल पैसा ही सब कुछ माना जा रहा है। इस सबके पीछे कहीं न कहीं हमारी शिक्षा पद्धति का भी दोष है। जहां केवल किताबी ज्ञान तो मिल जाता है, लेकिन भारतीयता क्या है, इसका बोध नहीं कराया जाता। इसके लिए एक बड़ा ही शानदार उदाहरण है, जो मेरे साथ हुआ। मैं एक बार जिज्ञासा लिए कुछ परिवारों में गया। उस परिवार के बालकों से प्राय: एक ही सवाल पूछा कि आप बड़े होकर क्या बनना चाहोगे। इसके जवाब में अधिकतर बच्चों ने मिलते जुलते उत्तर दिए। किसी ने कहा कि मैं चिकित्सक बनूंगा तो किसी ने इंजीनियर बनने की इच्छा बताई। इसके बाद मैंने पूछा कि यह बनकर क्या करोगे तो उन्होंने कहा कि मैं खूब पैसे कमाऊंगा। लेकिन एक परिवार ऐसा भी था, जहां बच्चे के उत्तर को सुनकर मेरा मन प्रफुल्लित हो गया। उस बच्चे ने कहा कि मैं पहले देश भक्त बनूंगा और बाद में कोई और। मैं कमाई भी करूंगा तो देश के लिए और इसके लिए लोगों को भी प्रेरणा दूंगा कि आप भी देश के लिए कुछ काम करें। एक छोटे से बालक का यह चिन्तन वास्तव में जिम्मेदारी का अहसास कराता है। लेकिन क्या हम केवल एक बालक की सोच के आधार पर ही मजबूत देश का ताना बाना बुन सकते हैं। कदाचित नहीं। हम सभी को यह सोचना चाहिए कि हम जो भी काम कर रहे हैं, उससे मेरे अपने देश का कितना भला हो रहा है।
हमारा देश लोकतांत्रिक है। इस नाते इस देश के लोक को ही देश बनाने की जिम्मेदारी का निर्वाह करना होगा। देश में होने वाले चुनावों में हमारी भूमिका क्या होनी चाहिए, इसका गंभीरता से चिन्तन भी करना चाहिए। हम जैसा देश बनाना चाहते हैं, वैसे ही उम्मीदवारों को प्रतिनिधि के तौर पर चुनना हमारा नैतिक कर्तव्य है। देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था को मजबूत करने के लिए ऐसा करना जरूरी है। मतदान करना हमारा नैतिक कर्तव्य है आप सभी अपना मतदान करें और सही सरकार चुनें ताकि देश भ्रष्टाचार रहित हो।
 
भारत देश का एक इतिहास है कि आम लोगों में से ही कुछ लोग ही अपना मतदान करते हैं। पढ़े लिखे नागरिक संपन्न लोग मतदान करना ही नहीं चाहते हैं। इनके मतदान नहीं करने से ही देश में भ्रष्टाचार का जन्म होता है। अनपढ़ नागरिक अपना काम देहाड़ी छोड़ कर आते हैं और मतदान करते हैं। हाँ यह जरूर है कि इनको नहीं पता की सही उम्मीदवार को वोट दिया है या गलत, इन्हें बस इतना पता होता है कि हम ने वोट दिया है। हमको मतदान करते समय इस बात का ध्यान रखना बहुत आवश्यक है कि हम अपने लिए सरकार बनाने जा रहे हैं। इसलिए स्वच्छ छवि वाले और देश हित में काम करने वाली सरकार को बनाना भी हम सबका नैतिक कर्तव्य है।
 
देश में राजनीति के प्रति लोगों की उदासीनता को देखते हुए देश में मतदाताओं को जागरूक करने के लिए राष्ट्रीय मतदाता दिवस मनाये जाने का संकल्प लिया गया है। पर क्या मात्र इस कदम से देश में मतदाताओं में कोई जागरूकता आने वाली है ? शायद नहीं क्योंकि हम भारत के लोग कभी भी किसी बात को संजीदगी से तब तक नहीं लेते हैं जब तक पानी सर से ऊपर नहीं हो जाता है। आज के समय में हर व्यक्ति सरकारों को कोसते हुए मिल जायेगा, पर जब सरकार चुनने का समय आता है तो हम घरों में कैद होकर रह जाते हैं। आज अगर कहीं पर कोई अनियमितता है तो वह केवल इसलिए है कि हम उसके प्रति उदासीन हैं। अगर हम अपने मतदान का प्रयोग करना सीख जाएँ तो समाज से खऱाब लोगों का चुन कर आना काफी हद तक कम हो सकता है। वास्तव में आज देश के मतदाताओं के लिए मतदान अनिवार्य किया जाना चाहिए। बिना किसी ठोस कारण के कोई मतदान नहीं करें तो उसे दंड देना चाहिए और संभव हो तो उसका मताधिकार भी छीन लेना चाहिए।
 
-सुरेश हिन्दुस्थानी
सन 1947 के बाद हमारा देश पहली बार वास्तविक अर्थों में आपातजनक हालातों के दौर से गुजर रहा है। हालांकि सन् 1975 में तत्कालीन कांग्रेसी केन्द्र-सरकार की प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी ने आपात शासन लागू कर देश के लोकतंत्र को बंधक बना लिया था, तथापि जिन हालातों के आधार पर उन्होंने आपात की घोषणा की थी वो वास्तव में आपातजनक थे नहीं। उन्होंने तो निजी स्वार्थ के वशीभूत हो कर प्रधानमंत्री-पद पर बलात ही बने रहने के लिए आपात शासन लागू करने के सांवैधानिक अधिकार का नाजायज इस्तेमाल किया था। मालूम हो कि इन्दिरा गांधी ने भारतीय संविधान के जिस अनुच्छेद 352 में किए गए प्रावधान के सहारे देश पर आपात-शासन थोप दिया था, उसमें साफ-साफ यह उल्लेख है कि “यदि राष्ट्रपति आश्वस्त हों कि देश में ऐसी गम्भीर स्थिति उत्पन्न हो गई है, जिससे आन्तरिक उपद्रव या गृह-युद्ध अथवा बाहरी आक्रमण के रूप में भारत की सुरक्षा खतरे में पड़ सकती है, तब वे इसकी उद्घोषणा कर के आपात शासन की अधिसूचना जारी कर सकते हैं।'' किन्तु, सन् 1975 में देश के भीतर ऐसी स्थिति तनिक भी नहीं थी, बल्कि अलबत्ता इलाहाबाद उच्च न्यायालय के एक फैसले से सिर्फ इन्दिरा गांधी की कुर्सी के समक्ष खतरा अवश्य उत्त्पन्न हो गया था।
उल्लेखनीय है कि सन् 1975 जून में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने इन्दिरा गांधी के संसदीय-चुनाव को कदाचार-युक्त प्रमाणित करते हुए संसद की उनकी सदस्यता को अवैध घोषित कर उन्हें जनप्रतिनिधित्व अधिनियम की धारा 123 (7) के तहत आगामी छह वर्षों तक कोई भी निर्वाचित पद ग्रहण करने के अयोग्य करार दे दिया था। जाहिर है, ऐसे में प्रधानमंत्री के पद पर इन्दिरा का बने रहना मुश्किल हो गया था। पहले से ही भ्रष्टाचार के कई मामलों में विपक्षी दलों के विरोध और अपनी ही कांग्रेस के भीतर प्रतिद्वंद्वी नेताओं का असहयोग झेल रही इन्दिरा के खिलाफ देश भर में आक्रोश-असंतोष फूट पड़ा था। उनसे इस्तीफा मांगा जाने लगा था तब तत्कालीन कांग्रेस-अध्यक्ष दयाकान्त बरुवा ने वंशवाद की चापलुसी के सारे रिकार्ड तोड़ते हुए जिस नेहरु-पुत्री की खिदमत में ‘इन्दिरा इज इण्डिया व इण्डिया इज इन्दिरा’ का नारा उछाल रखा था, उस इन्दिरा की कांग्रेस व कांग्रेस की इन्दिरा ने इस्तीफा देने के बजाय उनके विरुद्ध फैसला देने वाले न्यायालय सहित समस्त लोकतान्त्रिक संस्थाओं का ही गला घोंट देने के लिए 25 जून 1975 की आधी रात को आपात-शासन की घोषणा कर अगले कुछ ही दिनों के अन्दर तमाम विरोधियों-विपक्षियों को कारागार में डालवा कर प्रेस-मीडिया को भी प्रतिबन्धित कर किस-किस तरह से अपनी अवैध सत्ता का आतंक बरपाया वो पूरी दुनिया जानती है। उस आपात शासन का अनुचित औचित्य सिद्ध करने वाली आपात-स्थिति सिर्फ इतनी ही और सिर्फ यही थी। सिवाय इसके, न आतंकी वारदातों की व्याप्ति थी, न देश की सम्प्रभुता को कोई चुनौती; न तख्ता-पलट का कोई गुप्त षड्यंत्रकरी सरंजाम था, न प्रायोजित झूठी खबरों-अफवाहों का भड़काऊ अभियान; न विदेशी शक्तियों से देशी गद्दारों के गठजोड़ का आलम था और न ही केन्द्रीय संस्थाओं के विरुद्ध प्रान्तीय सरकारों का बगावती उल्लंघन। सेना पर अविश्वास-आरोप की छिरोरी और प्रधानमंत्री पर सरेआम कीचड़ उछालने की सीनाजोरी तो थी ही नहीं।
किन्तु आज ? अपना देश जब पाकिस्तानी हिंसक आतंकी दहशतगर्दी से जूझ रहा है और उससे निजात दिलाने के वास्ते हमारी सेना के जवान जब सैन्य अभियान चला रहे हैं, तब केन्द्र-सरकार के फैसलों पर अनाप-शनाप बे-सिर-पैर के सवाल उठाते हुए पूरा प्रतिपक्ष न केवल सेना को कठघरे में खड़ा करने को उतावला है, बल्कि स्वयं भी पाकिस्तान की तरफदारी में उतर आया है। ऐसा प्रतीत होता है जैसे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को आगामी चुनाव के राजनीतिक समर में हराने के लिए भाजपा-विरोधी विपक्षी दलों के गिरोह ने सामरिक राजनीति का भारत-विरोधी मोर्चा खोल शत्रु-देश-पाकिस्तान के हुक्मरानों व आतंकियों से हाथ मिला रखा है। पाकिस्तान-प्रायोजित आतंकियों के पुलवामा हमला के कुछ ही दिनों बाद कतिपय विपक्षी नेताओं द्वारा यह कहना कि नरेन्द्र मोदी ने ही चुनाव जीतने के लिए उसे अंजाम दिलाया और अब अनेक माध्यमों से पूर्व की घटनाओं के तार जोड़ कर यह खुलासा होना कि कांग्रेस ने मोदी को हराने के लिए नवजोत सिंह सिद्धू व मणिशंकर अय्यर के मार्फत पाकिस्तानी हुक्मरानों से सांठ-गांठ कर के इसे अंजाम दिलाया; ये दोनों ही कांग्रेसी कथ्य व कृत्य महज आरोप-प्रत्यारोप के सामान्य उदाहरण मात्र नहीं हैं, अपितु एक निर्वाचित सरकार को अपदस्थ करने वाले असामान्य अपराध हैं, जिसे राज-द्रोह भी कहा जा सकता है और राष्ट्र-द्रोह भी।
 
पुलवामा हमले के प्रतिशोध-स्वरूप पाक-प्रायोजित आतंकवाद को मिटाने के लिए भारतीय सेना द्वारा किये गए हवाई हमले के बाद विपक्षियों की ओर से उक्त सैन्य-कार्रवाई पर सवाल खड़ा करने और भारत-सरकार के प्रधानमंत्री को श्रेयहीन करने का वह ‘द्रोह-राग’ लगातार तेज होता जा रहा है। सत्ताधारी भाजपा-मोदी के विरुद्ध कांग्रेस के संरक्षण-समर्थन में देश भर के 21 विरोधी-विपक्षी दलों के नेताओं द्वारा भारतीय सेना व भारत सरकार के विरुद्ध आम जनता को बरगलाने-भड़काने और दुनिया भर में भारत की कूटनीतिक छवि को खराब करने की जो कोशिशें की जा रही हैं, वह कोई सामान्य राजनीतिक संवाद अथवा लोकतांत्रिक वाद-विवाद नहीं हैं, बल्कि ये तो आपात-स्थिति के हालात हैं। क्योंकि, विपक्षी दलों के नेताओं की ऐसी कारगुजारियों के हवाले से शत्रु-पाकिस्तान दुनिया भर में भारत का पक्ष कमजोर करने और स्वयं को निर्दोष प्रमाणित करने के दुष्प्रचार में जुट गया है, तो जाहिर है ये हालात अंततः भारत राष्ट्र की सुरक्षा व अखण्डता को कमजोर करने में भी सहायक सिद्ध हो सकते हैं।
मालूम हो कि आपात के ये हालात पुलवामा हमले के बाद ही उत्त्पन्न नहीं हुए हैं, बल्कि पहले से ही नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद कांग्रेसियों, कम्युनिष्टों और उनके चट्टे-बट्टे सपा-बसपा-राजद-तृमूकां-तेदेपा-आआपा आदि दलों के भ्रष्ट-बिकाऊ नेताओं का मोदी-विरोध मोदी जी की सदाशयता-सहिष्णुता के कारण बढ़ते-बढ़ते कानून-व्यवस्थाओं व सांवैधानिक व्यवस्थाओं के भी विरोध का रूप लेता हुआ अब इस तरह से भारत-विरोध में तब्दील हो चुका है। जे०एन०यु० में आतंकियों के समर्थन व भारत-विखण्डन का नारा लगाने वालों के विरुद्ध न्यायालय में सुपुर्द आरोप-पत्र के बावजूद दिल्ली के मुख्यमंत्री केजरीवाल द्वारा देशद्रोह का मुकदमा चलाने की अनुमति नहीं देना एवं मोदी-भाजपा-विरोधी महागठबन्धन के नेताओं का उन देशद्रोहियों के पक्ष में खड़ा होते रहना तथा सारदा-घोटाला मामले में बंगाल-पुलिस कमिश्नर से पूछताछ करने कोलकाता गए सीबीआई अधिकारी को वहां की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी द्वारा गिरफ्तार करा लेना और राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़े राफेल विमान-खरीद मामले में बेवजह टांग अड़ाते हुए कांग्रेस-अध्यक्ष द्वारा प्रधानमंत्री मोदी को बिना किसी आधार के ही ‘चोर’ कहते रहना एवं कश्मीरी अलगाववादियों-आतंकियों के समर्थन में बयानबाजी करना या प्रधानमंत्री मोदी की हत्या का षड्यंत्र रचने वालों का राजनीतिक बचाव करना अथवा प्रचण्ड बहुमत-प्राप्त प्रधानमंत्री-मोदी के विरुद्ध देश भर में काल्पनिक डर व असहिष्णुता का वातावरण बनाने हेतु कतिपय पत्रकारों-साहित्यकारों-कलाकारों द्वारा साजिशपूर्वक सरकारी पुरस्कार-सम्मान वापस करना-करवाना और ऐसी तमाम अवांछनीयताओं को अंजाम देने वालों के तथाकथित महागठबन्धन द्वारा अब एकबारगी पाकिस्तान की ही तरफदारी करने लगना वास्तव में आपात-शासन लागू करने के पर्याप्त कारण बनाने वाले हालात प्रतीत होते हैं।
 


बावजूद इसके, पर्याप्त कारण के बिना ही महज स्वयं की राजनीतिक सुरक्षा-महत्वाकांक्षा के लिए इन्दिरा-कांग्रेस द्वारा देश के निरापद हालातों में भी जनता पर आपात-शासन थोप दिए जाने का दंश झेल चुके होने के बाद भी नरेन्द्र मोदी ऐसे आपद हालातों से देश को उबारने का वह संविधान-प्रदत उपचार-अधिकार (अनुच्छेद-352) आजमाने की बजाय चुपचाप आम-चुनाव की तैयारी में ‘बूथ मजबूत’ करते-कराते हुए देखे जा रहे हैं, तो यह लोकतंत्र के प्रति उनकी निष्ठा व लोकतांत्रिक आदर्शवादिता के प्रति उनकी आस्था की पराकाष्ठा है। और, साथ ही इन्दिरा-कांग्रेस के उस अनुचित आपात-शासन से देश को उबार कर लोकतंत्र को नवजीवन प्रदान करने में सर्वाधिक मुखर भूमिका निभाने वाले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्कारों से संस्कारित उनकी राजनीतिक शिक्षा-दीक्षा की परीक्षा भी है और उसका परिणाम भी। अन्यथा, कभी देश बचाने तो कभी संविधान की रक्षा करने के नाम पर कोतवाल को ही डांटते रहने वाले ये तमाम चोर बिना किसी दलील-अपील-वकील के ही कारागारों में सड़ रहे होते और दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र ऐसे खर-पतवारों के प्रदूषण से मुक्त हो चुका होता।
   
-मनोज ज्वाला

पाकिस्तान स्थित आतंकवादी संगठनों और उसके आकाओं पर कार्रवाई के लिए बढ़ते जा रहे भारत के दबाव का असर दिखने लगा है और गत सप्ताह कई मायनों में महत्वपूर्ण रहा। संयुक्त राष्ट्र ने 2008 के मुंबई आतंकी हमलों के मास्टरमाइंड और जमात-उद-दावा के प्रमुख हाफिज सईद की वह अपील खारिज कर दी जिसमें उसने प्रतिबंधित आतंकवादियों की सूची से अपना नाम हटाने की गुहार लगाई थी। खास बात यह है कि यह फैसला ऐसे समय में आया है जब संयुक्त राष्ट्र की 1267 प्रतिबंध समिति को जैश-ए-मोहम्मद के प्रमुख मसूद अजहर पर पाबंदी लगाने का एक नया अनुरोध प्राप्त हुआ है। हाफिज सईद जोकि आतंकवादी संगठन लश्कर-ए-तैयबा का भी सह-संस्थापक है, की अपील संयुक्त राष्ट्र ने तब खारिज की जब भारत ने उसकी गतिविधियों के बारे में विस्तृत साक्ष्य मुहैया कराए। साक्ष्यों में ‘‘अत्यंत गोपनीय सूचनाएं’’ भी शामिल थीं। 

क्यों लगी थी पाबंदी ?
 
संयुक्त राष्ट्र द्वारा प्रतिबंधित जमात-उद-दावा के मुखिया सईद पर 10 दिसंबर 2008 को पाबंदी लगाई थी। मुंबई हमलों के बाद संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद ने उसे प्रतिबंधित किया था। मुंबई हमलों में 166 लोग मारे गए थे। सईद ने 2017 में लाहौर स्थित कानूनी फर्म ‘मिर्जा एंड मिर्जा’ के जरिए संयुक्त राष्ट्र में एक अपील दाखिल कर पाबंदी खत्म करने की गुहार लगाई थी। अपील दाखिल करते वक्त वह पाकिस्तान में नजरबंद था।
 

 

प्रतिबंध के मायने क्या ?
 
1267 समिति द्वारा प्रतिबंध लगाए जाने पर इसके तीन प्रमुख परिणाम होते हैं। इसके तहत संपत्ति के इस्तेमाल पर रोक लगा दी जाती है, यात्रा प्रतिबंध लागू कर दिया जाता है और हथियारों की खरीद पर पाबंदी लगा दी जाती है। संयुक्त राष्ट्र के सभी सदस्यों के लिए इन पर अमल करना बाध्यकारी होता है। समिति इन प्रतिबंध उपायों पर अमल की निगरानी करती है। वह प्रतिबंध सूची में किसी का नाम डालने या किसी का नाम हटाने पर भी विचार करती है। भारत के साथ-साथ अमेरिका, ब्रिटेन और फ्रांस जैसे उन देशों ने भी सईद के अनुरोध का विरोध किया जिन्होंने मूल रूप से उसे प्रतिबंध सूची में डाला था। चौंकाने वाली बात यह रही कि पाकिस्तान ने सईद की अपील का कोई विरोध नहीं किया।
 

 

 
पाकिस्तान का नया पैंतरा
 
भारत सरकार के प्रयासों के बाद पाकिस्तान पर आतंक के आकाओं पर सख्त कार्रवाई का जो अंतरराष्ट्रीय दबाव पड़ रहा है यह उसी का असर भी कहा जा सकता है कि पाकिस्तान में अधिकारियों ने हाफिज सईद की अगुवाई वाले आतंकवादी संगठन जमात-उद-दावा का लाहौर स्थित मुख्यालय और इसकी कथित परमार्थ शाखा फलह-ए-इंसानियत फाउंडेशन के मुख्यालय को भी इस सप्ताह सील कर दिया है तथा 120 से अधिक संदिग्ध आतंकवादियों को गिरफ्तार कर लिया है। पाकिस्तान पंजाब के गृह विभाग ने गुरुवार को जारी बयान में कहा, 'सरकार प्रांत में प्रतिबंधित संगठनों की मस्जिदों, मदरसों और अन्य संस्थाओं का नियंत्रण अपने हाथों में ले रही है। बयान के मुताबिक, ‘‘हमने प्रतिबंधित संगठनों के खिलाफ कार्रवाई तेज कर दी है।’’ लेकिन पाकिस्तान सरकार की इस कार्रवाई पर शक भी होता है क्योंकि जब प्रशासन एवं पुलिस के अधिकारी इमारत का नियंत्रण अपने हाथों में लेने के लिए वहां पहुंचे तो सईद और उनके समर्थकों ने कोई विरोध नहीं किया। अपने समर्थकों के साथ सईद जौहर टाउन स्थित अपने आवास के लिए रवाना हो गया।
 
खुतबा पढ़ने से रोका
 
पाकिस्तानी पंजाब प्रांत की सरकार ने हाफिज सईद पर सख्ती का एक और उदाहरण प्रस्तुत किया है। दरअसल इस शुक्रवार को राज्य सरकार ने लाहौर में जमात उद दावा मुख्यालय में हाफिज सईद को खुतबा पढ़ने से रोक दिया जहां सरकार की तरफ से नियुक्त मौलाना ने नमाज पढ़वाई और साप्ताहिक खुतबा पढ़ा। करीब दो दशक पहले जेयूडी के मुख्यालय जामिया मस्जिद अल कदासिया की स्थापना के बाद पहली बार ऐसा हुआ है कि सरकार की तरफ से नियुक्त मौलाना ने जुम्मे के दिन खुतबा पढ़ा हो। मस्जिद कदासिया जब पंजाब सरकार के नियंत्रण में था तब भी सईद को शुक्रवार को खुतबा पढ़ने से नहीं रोका गया था।
जेयूडी परिसर के आसपास शुक्रवार की सुबह से ही भारी संख्या में पुलिस बल तैनात था। सरकार की कार्रवाई से पहले काफी संख्या में लोग सईद का खुतबा सुनने के लिए हर शुक्रवार को मस्जिद में इकट्ठा होते थे जिनमें अधिकतर जेयूडी के कार्यकर्ता और इससे सहानुभूति रखने वाले होते थे।
 
पोल खोल
 
अब पाकिस्तान सरकार यह सब कार्रवाई करने का जो ढोंग कर रही है उसकी पोल खोलते हैं। दरअसल पाकिस्तान की प्रतिबंधित आतंकवादी समूहों के खिलाफ की गई हालिया कार्रवाई महज एक "दिखावा" है ताकि वह अपनी धरती से हुए बड़े आतंकवादी हमलों को लेकर पश्चिमी देशों को संतुष्ट कर सके। आतंकवाद के खिलाफ युद्ध की खबरें देने वाली अमेरिका स्थित एक समाचार वेबसाइट ने यह जानकारी दी है। पाकिस्तान ने मंगलवार को कहा था कि उसने अपने यहां सक्रिय आतंकवादी संगठनों पर लगाम लगाने को लेकर वैश्विक समुदाय की ओर से बढ़ते दबाव के बीच जैश-ए-मोहम्मद प्रमुख मसूद अजहर के बेटे और भाई समेत प्रतिबंधित संगठन के 44 सदस्यों को ‘‘एहतियात के तौर पर हिरासत’’ में लिया है। इस्लामाबाद ने यह भी कहा था कि वह प्रतिबंधित आतंकवादी समूह लश्कर-ए-तैयबा के मुखौटा संगठन जमात-उद-दावा से जुड़े सभी संस्थानों को बंद कर रहा है। यह कार्रवाई जम्मू-कश्मीर के पुलवामा जिले में 14 फरवरी को पाकिस्तान स्थित आतंकवादी समूह जैश-ए-मोहम्मद के आत्मघाती हमले के बाद भारत के साथ बढ़े तनाव के बीच लिया है। पुलवामा हमले में सीआरपीएफ के 40 जवान शहीद हुए थे। भारत ने हाल ही में पुलवामा हमले को लेकर जैश-ए-मोहम्मद के खिलाफ कार्रवाई करने के लिये पाकिस्तान को एक डॉजियर सौंपा था।
 
'लॉंग वॉर जरनल' ने टिप्पणी की, "यदि अतीत को ध्यान में रखा जाए तो यह कोशिशें पाकिस्तान की धरती से हुए बड़े आतंकवादी हमलों को लेकर पश्चिमी देशों को संतुष्ट करने के लिये महज एक दिखावा है।" वेबसाइट ने कहा, विडंबना यह है कि पाकिस्तानी जनरलों और सरकारी अधिकारियों ने नियमित रूप से कहा कि आतंकवादी समूहों को पाकिस्तानी धरती पर संचालन की अनुमति नहीं है। फिर भी जमात-उद-दावा रावलपिंडी में स्वतंत्र रूप से अपना काम करता है, उस शहर में जहां पाकिस्तान का सैन्य मुख्यालय मौजूद है।" टिप्पणी में कहा गया है कि हाफिज सईद को बीते दो दशक के दौरान कम से कम चार बार "एहतियातन हिरासत" में रखा गया, सिर्फ रिहा करने के लिये। और पाकिस्तान सरकार का नाया कारनामा भी देखिये- पाकिस्तान ने हाफिज सईद से पूछताछ करना चाह रही संयुक्त राष्ट्र की एक टीम का वीजा अनुरोध ठुकरा दिया है। संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की प्रतिबंध सूची से अपना नाम हटवाने के लिए सईद की ओर से दायर अर्जी के सिलसिले में यह टीम पाकिस्तान में जमात-उद-दावा प्रमुख से पूछताछ करना चाह रही थी।
 
-नीरज कुमार दुबे
 

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