राजनीति

राजनीति (6705)

भारत की पहली और अब तक की एकमात्र महिला प्रधानमंत्री दिवंगत इंदिरा गांधी अपने दृढ़ इरादों और सटीक फैसलों के लिए जानी जाती थीं। बांग्लादेश के निर्माण में उनकी भूमिका और देश को परमाणु शक्ति संपन्न बनाने का उनका फैसला कुछ ऐसे कदम थे जिनसे भारत के एक ताकत के रूप में उभरने का मार्ग प्रशस्त हुआ। 19 नवम्बर 1917 में जन्मीं इंदिरा प्रियदर्शिनी ने अपने पिता पंडित जवाहर लाल नेहरू के साथ मिलकर आजादी की लड़ाई में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। इसके लिए उन्होंने हमउम्र बच्चों को लेकर वानर सेना गठित की थी। यह वानर सेना जगह−जगह अंग्रेजों के खिलाफ प्रदर्शन करती और झंडे तथा बैनरों के साथ जंग ए आजादी के मतवालों का उत्साह बढ़ाती थी। सन 1941 में जब वह आक्सफोर्ड से शिक्षा ग्रहण कर भारत लौटीं तो आजादी के आंदोलन में सक्रिय रूप से शामिल हो गईं।
 
सितंबर 1943 में अंग्रेज पुलिस ने उन्हें बिना किसी आरोप के गिरफ्तार कर लिया। 243 दिन तक जेल में रखने के बाद 13 मई 1943 को उन्हें रिहा कर दिया गया। इंदिरा 1959 और 1960 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की अध्यक्ष बनीं। 1964 में उन्हें राज्यसभा का सदस्य चुना गया। तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री के मंत्रिमंडल में उन्हें सूचना और प्रसारण मंत्री बनाया गया। ताशकंद समझौते के बाद लाल बहादुर शास्त्री का निधन हो गया। इसके बाद प्रधानमंत्री पद की लड़ाई में इंदिरा गांधी के सामने मोरारजी देसाई आ गए। कांग्रेस संसदीय दल में हुए शक्ति परीक्षण में उन्होंने 169 के मुकाबले 355 मतों से मोरारजी देसाई को हरा दिया और इस तरह 1966 में वह देश की पांचवीं तथा पहली महिला प्रधानमंत्री बनीं। जिस समय इंदिरा ने प्रधानमंत्री पद संभाला उस समय कांग्रेस गुटबाजी की शिकार थी और मोरारजी उन्हें गूंगी गुडि़या कहकर पुकारते थे लेकिन जल्द ही इस गूंगी गुडि़या ने सबको चौंका दिया। 1967 के चुनावों में कांग्रेस को 60 सीटों का नुकसान हुआ और 545 सीटों वाली लोकसभा में उसे 297 सीटें मिलीं। इस कारण उन्हें मोरारजी को उप प्रधानमंत्री तथा वित्त मंत्री बनाना पड़ा लेकिन 1969 में देसाई के साथ अधिक मतभेदों के चलते कांग्रेस बिखर गई। इंदिरा को समाजवादी दलों का समर्थन लेना पड़ा और अगले दो साल तक उनके समर्थन से ही सरकार चलाई।
 
पाकिस्तान के साथ 1971 में हुए संग्राम में उन्होंने बांग्लादेश नाम से एक नए देश के गठन में सक्रिय भूमिका निभाई जिससे वह पूरी दुनिया में दृढ़ इरादों वाली महिला के रूप में जानी जाने लगीं और अटल बिहारी वाजपेयी ने उन्हें दुर्गा की संज्ञा दी। अपने साहसिक फैसलों के लिए मशहूर इंदिरा गांधी ने 1974 में पोखरण में परमाणु विस्फोट कर जहां चीन की सैन्य शक्ति को चुनौती दी वहीं अमेरिका जैसे देशों की नाराजगी की कोई परवाह नहीं की। इन निर्णयों के चलते जहां उन्हें देश और दुनिया में बुलंद इरादों वाली महिला के रूप में तारीफ मिली वहीं 1975 में आपातकाल लगा देने के कारण इंदिरा को विश्व बिरादरी की आलोचना का भी सामना करना पड़ा। आपातकाल लगाने की वजह से 1977 के चुनाव में उन्हें हार का मुंह देखना पड़ा और वह तीन साल तक विपक्ष में रहीं। 1980 में वह फिर से प्रधानमंत्री बनीं।
 
खालिस्तानी आतंकवादियों के खिलाफ उन्होंने आपरेशन ब्लू स्टार जैसा कठोर कदम उठाया लेकिन 1984 में उनके ही अंगरक्षकों ने उनकी हत्या कर दी। वरिष्ठ पत्रकार कुलदीप नैयर का कहना है कि इंदिरा गांधी भारत में बड़े पैमाने पर आतंकवाद भड़कने का अंदाज नहीं लगा पाईं। सिख उग्रवाद 1984 में स्वर्ण मंदिर में आपरेशन ब्लू स्टार के चलते भड़का। उन्होंने कहा कि इंदिरा ने जाने अनजाने एक ऐसे समय प्रक्रिया शुरू कर दी जब उनकी पार्टी ने भिंडरावाला जैसे शख्स को अकालियों से लड़ाने के लिए खड़ा किया था।
भारत के शहरों का पुनर्नामकरण वर्ष 1947 में, अंग्रेजों के भारत छोड़ कर जाने के बाद आरंभ हुआ था, जो आज तक जारी है। कई पुनर्नामकरणों में राजनैतिक विवाद भी हुए हैं। सभी प्रस्ताव लागू भी नहीं हुए हैं।  स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद पुनर्नामांकित हुए, मुख्य शहरों में हैं− तिरुवनंतपुरम (पूर्व त्रिवेंद्रम), मुंबई (पूर्व बंबई, या बॉम्बे), चेन्नई (पूर्व मद्रास), कोलकाता (पूर्व कलकत्ता), पुणे (पूर्व पूना) एवं बेंगलुरु (पूर्व बंगलौर)। आजकल उत्तर प्रदेश में शहरों का नाम बदले जाने का मामला सुर्खियां बटोर रहा है। विपक्ष आरोप लगा रहा है कि शहरों का नाम बदलकर योगी सरकार हिन्दुओं के वोट हासिल करना चाहती है जबकि बीजेपी वालों को लगता है कि नाम बदल कर सिर्फ शहरों को उनकी पुरानी पहचान दिलाई जा रही है।
 
उत्तर प्रदेश के मुगलसराय स्टेशन का नाम बदल कर पंडित दीन दयाल उपाध्याय स्टेशन किए जाने के बाद हाल ही में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने इलाहाबाद और फैजाबाद जिलों का नाम क्या बदलकर क्रमशः प्रयागराज और अयोध्या क्या किया, प्रदेश में जिलों के नाम बदले जाने की ही सियासत गरमा गई है। प्रदेश के कोने−कोने से कई जिलों के नाम बदलने की मांग उठने लगी है तो दूसरी तरफ शहरों का नाम बदले जाने का विरोध करने वाले भी मोर्चा संभाले हुए हैं। कोई आगरा का नामकरण अग्रवाल नगर या अग्रसेन के नाम पर करना चाहता है तो कोई मुजफ्फरनगर को लक्ष्मी नगर के रूप में नई पहचान देना चाहता है।
 
गौरतलब है कि उत्तर प्रदेश में डेढ़ दर्जन से अधिक ऐसे जिले हैं जिनके नाम हमेशा विवाद का कारण बने रहते हैं। यह वह जिले हैं या तो जिनका नाम मुगल शासनकाल में बदला गया था अथवा मुगलकाल में यह जिले विकसित हुए थे। आगरा, अलीगढ़, इलाहाबाद, लखनऊ, आजमगढ़, फैजाबाद, फर्रूखाबाद, फतेहपुर, फिरोजाबाद, बुलंदशहर, गाजियाबाद, गाजीपुर, मेरठ, मिर्जापुर, मुरादाबाद, मुगलसराय, मुजफ्फरनगर, सहारनपुर, शाहजहाँपुर, सुल्तानपुर जैसे जिले इसी श्रेणी में आते हैं। उक्त के अलावा कुछ जिलों के नाम अप्रभंश के चलते भी बदल गये हैं।
 
जिन जिलों के नामों को लेकर विवाद छिड़ा हुआ है उसमें आगरा प्रमुख जिला है। आगरा एक ऐतिहासिक नगर है, जिसके प्रमाण यह अपने चारों ओर समेटे हुए है। वैसे तो आगरा का इतिहास मुख्य रूप से मुगल काल से जाना जाता है लेकिन इसका सम्बन्ध महर्षि अन्गिरा से है जो 1000 वर्ष ईसा पूर्व हुए थे। इतिहास में पहला जिक्र आगरा का महाभारत के समय से माना जाता है, जब इसे अग्रबाण या अग्रवन के नाम से संबोधित किया जाता था। कहते हैं कि पहले यह नगर आयॅग्रह के नाम से भी जाना जाता था। तौलमी पहला ज्ञात व्यक्ति था जिसने इसे आगरा नाम से संबोधित किया।
 
मुजफ्फरनगर का नाम बदलने की सुगबुगाहट है। ये मांग भारतीय जनता पार्टी के मेरठ की सरधना सीट से विधायक संगीत सोम ने उठाई है। उन्होंने इलाहाबाद और फैजाबाद जिलों का नाम बदले जाने पर ट्वीट करते हुए कहा कि अभी तो बहुत से शहरों के नाम बदले जाने हैं। मुजफ्फरनगर का नाम बदला जाना है, मुजफ्फरनगर का नाम लक्ष्मीनगर रखने की लोगों की पहले से ही मांग है। संगीत सोम यहीं नहीं रूके उन्होंने एक और ट्वीट में कहा− मुगलों ने यहां की संस्कृति को मिटाने का काम किया है। खासतौर पर हिंदुत्व को मिटाने का काम किया है, हम लोग उसी संस्कृति को बचाने का काम कर रहे हैं। बीजेपी उससे आगे बढ़ेगी।
 
लखनऊ का नाम बदले जाने की भी चर्चा कम नहीं है। अतीत में लखनऊ प्राचीन कोसल राज्य का हिस्सा हुआ करता था। यह भगवान राम की विरासत थी जिसे उन्होंने अपने भाई लक्ष्मण को समर्पित कर दिया था। अतः इसे लक्ष्मणावती, लक्ष्मणपुर या लखनपुर के नाम से जाना गया, जो बाद में बदल कर लखनऊ हो गया। इलाहाबाद जिसका हाल में नाम बदल कर प्रयाग किया गया है अतीत में प्रयाग के नाम से जाना जाता था। प्राचीन काल में शहर को प्रयाग (बहु−यज्ञ स्थल) के नाम से जाना जाता था। ऐसा इसलिये क्योंकि सृष्टि कार्य पूर्ण होने पर सृष्टिकर्ता ब्रह्मा ने प्रथम यज्ञ यहीं किया था, व उसके बाद यहां अनगिनत यज्ञ हुए।
 
प्रयागराज शहर का इलाहाबाद नाम अकबर द्वारा 1583 में रखा गया था। हिन्दी नाम इलाहाबाद का अर्थ अरबी शब्द इलाह (अकबर द्वारा चलाये गए नये धर्म दीन−ए−इलाही के सन्दर्भ से, अल्लाह के लिये) एवं फारसी से आबाद (अर्थात बसाया हुआ) यानि ईश्वर द्वारा बसाया गया, या ईश्वर का शहर। बीते माह उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने इसका नाम इलाहाबाद से बदल कर प्रयागराज कर दिया था। अयोध्या भारतवर्ष के उत्तरी राज्य उत्तर प्रदेश का एक नगर है। करोड़ों हिन्दुओं की आस्था के प्रतीक भगवान राम का यहीं जन्म हुआ था। पहले इसे साकेत नगर के नाम से जाना जाता था। प्रमु राम के अलावा समाजवादी चिंतक और नेता राममनोहर लोहिया, कुंवर नारायण, राम प्रकाश द्विवेदी आदि की यह जन्मभूमि रहा है, लेकिन मुगलकाल में इसका भी नाम फैजाबाद कर दिया गया था।
 
भगवान कृष्ण की नगरी मथुरा मधुदानव द्वारा बसाई गयी थी और उसी के नाम पर इसका नाम मधुपुरी पड़ा। इसको मधुनगरी और मधुरा भी बोला जाता था। शत्रुघ्न ने जब राक्षस का वध कर दिया, यह क्षेत्र धीरे−धीरे मथुरा बन गया। विष्णु पुराण में 'मथुरा' का उल्लेख है, जिससे पता चलता है कि तब तक शहर का नाम बदल चुका था। शूरसेन के शासनकाल में इसको शूरसेन नगरी कहा जाता था।
 
भगवान् विश्वनाथ की नगरी का नाम 1956 से पहले बनारस था, लेकिन बाद में उसका नाम बदल कर वाराणसी रखा गया। वाराणसी दो नदियों के नाम से जुड़ कर बना हुआ है− वरुण और असी। बनारस इन्हीं नदियों के मुहाने पर बसा हुआ है। ऋगवेद में इस शहर का नाम काशी भी लिखा गया है। वजह जो भी हो, पर लोगों को यह नया नाम अपनाने में काफी समय लग गया। पचास से अधिक वर्ष हो जाने पर भी आपको 'बनारस' या 'काशी' सुनने को मिल जाए, तो चौंकिएगा नहीं। मुगलसराय स्टेशन का नाम बदले जाने के बाद मुगलसराय जिले का भी नाम दीनदयालनगर किए जाने की चर्चा तेज है।
 
सहारनपुर के देवबंद का नाम बदलने की मांग कई बार हो चुकी है। देवबंद के बीजेपी विधायक ने तो बाकायदा यूपी सरकार से नाम बदलने के सिफारिश भी की है और कुछ दिन पहले कई जगह नाम बदलने के बैनर तक टंगवा दिए थे। इसी प्रकार अन्य जिलों के नाम से छेड़छाड़ की बात कि जाये तो इस लिस्ट में कानपुर सहित कई जिले शामिल हैं। कानपुर का असली नाम कान्हापुर और कॉनपोर तो शामली का असली नाम श्यामली और आजमगढ़ का असली नाम आर्य गढ़ एवं बागपत का असली नाम बाग प्रस्थ तथा देवरिया का असली नाम देवपुरी वहीं अलीगढ़ का असली नाम हरीगढ़ हुआ करता था।
 
-अजय कुमार
मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव के लिए घोषित नामांकन की अंतिम तिथियों में जिस प्रकार वरिष्ठ नेताओं ने अपने दल बदले हैं उससे उनकी पार्टी निष्ठा पर सीधे-सीधे प्रश्नचिह्न लगते हैं। विधायक पद की प्रत्याशी में सैंतीस वर्ष तक एक ही दल में रहते हुए विधायक-सांसद मंत्री रहे एक वृद्ध नेता अपनी पुरानी पार्टी छोड़कर विधायक टिकट के लिए अपनी धुरविरोधी रही दूसरी नई पार्टी में चले गए। जिसे कल तक गलत प्रचारित करते थे आज उसी का दामन थाम बैठे हैं। इसी प्रकार एक अन्य नेता अपनी पुरानी पार्टी से बगावत कर अपने पुत्र को एक अन्य पार्टी से टिकट दिला कर उसके समर्थन में चुनाव प्रचार करने का डंका पीट रहे हैं। यह केवल इन दो वरिष्ठ नेताओं के दल बदलने, बगावत करने की बात नहीं है। वास्तव में यह हमारे लोकतंत्र को चलाने वाली उस सत्ता लोलुप मानसिकता की बड़ी साक्षी है जो स्वार्थ सिद्धि के लिए, सत्ता सुख भोगने के लिए किसी भी सीमा तक गिरने को तैयार है। ‘प्यार और युद्ध में सब जायज है’ का नारा उछालती हुई नेतृत्व की यह मूल्यविहीन छवि अपने सिवाय किसी का भला नहीं कर सकती। जो अपने दल का नहीं हुआ वह देश और समाज का क्या होगा ? ऐसा नैतिक मूल्यविहीन नेतृत्व जनता पर क्या प्रभाव डालेगा ? यह विचारणीय है।
 
आम चुनावों में टिकट के लिए अपनी पार्टी छोड़कर दूसरी पार्टी में जाना कोई नई बात नहीं है। हमारे लोकतंत्र में यह खेल वर्षों से चला आ रहा है और ऐसे चुनावी दांव-पेंच का नुकसान देश लगातार भुगत रहा है। 1980 में जनता पार्टी की सरकार का गिरना और देश पर मध्यावधि चुनाव का व्यय भार थोपा जाना इसी कूट-राजनीति का दुष्परिणाम था। विधायकों-सांसदों की खरीद-फरोख्त का यह सिलसिला बहुमत का आंकड़ा जुटाने के लिए मंत्री आदि महत्वपूर्ण पदों का प्रलोभन, काले धन का उपयोग, बाहुबल और हिंसा का प्रयोग, वोट पाने के लिए साड़ियाँ, शराब, नकद राशि आदि का अवैध वितरण हमारी लोकतांत्रिक प्रक्रिया के ऐसे बदनुमा दाग हैं जो चुनाव के उपरांत चयनित सरकार में जनहित के कार्यों की राह में रोड़े अटकाते हैं और व्यवस्था में भ्रष्टाचार को बढ़ावा देते हैं।
 लोकतंत्र में प्रत्येक राजनीतिक दल लोकहित के लिए अपने कुछ सिद्धांत तय करता है। अपनी नीतियां घोषित करता है और इन्हीं सिद्धांतों-नीतियों से प्रेरित और प्रभावित होकर समाज का नेतृत्व करने के लिए लोग राजनीतिक दलों के सदस्य बनते हैं। उसके माध्यम से सत्ता तक पहुंचने का रास्ता बनाते हैं। इसमें कुछ भी अनुचित नहीं है। लोगों की मान्यताएं और विचार भिन्न होते हैं। यही भिन्नता दलगत विविधता का आधार बनती है। दल विशेष के लोग अपने दल की नीतियों के प्रति निष्ठावान रहते हैं और उसी की जीत हार के साथ सत्ता में पक्ष-विपक्ष की भूमिका निभाते हैं। इस प्रकार दलगत निष्ठा लोकतंत्र की प्रक्रिया में आवश्यक तत्व है किन्तु सत्ता सुख भोगने की इच्छा से निष्ठा का क्रय-विक्रय लोकतंत्र के लिए शुभ नहीं कहा जा सकता।
 मानव जीवन परिवर्तनशील है। मनुष्य अपने अनुभवों, परिस्थितियों आदि में परिवर्तन के कारण अपनी विचारधारा में परिवर्तन करने और अपना दल बदलने के लिए भी स्वतंत्र है। वह किसी विशेष विचारधारा अथवा विशिष्ट दल का बंधुआ नहीं कहा जा सकता किन्तु उसका यह परिवर्तन तभी स्वीकार योग्य हो सकता है जब वह कार्य, सिद्धांत, नीति अथवा लोक मंगलकारी विचार के आलोक में औचित्यपूर्ण हो। केवल अपने संबंधित दल द्वारा टिकट न दिए जाने पर अपने निजी लाभ-लोभ के लिए दल-परिवर्तन कदापि उचित नहीं कहा जा सकता। यह दुर्भाग्यपूर्ण कृत्य महान लोकतांत्रिक परंपराओं की अवमानना है, उपेक्षा है, उसका मजाक है। विचारणीय है कि टिकट कटने की स्थिति में पार्टी छोड़कर जाने की धमकी देना, पार्टी को कमजोर बनाने का प्रयत्न करना ब्लैकमेलिंग की श्रेणी के अपराध हैं। तथापि चुनावी टिकट वितरण के समय हमारे रहनुमा, हमारे समाज के कर्णधार एवं तथाकथित जिम्मेदार समझे जाने वाले लोग इस प्रकार के कार्य करते हैं। यह दुर्भाग्यपूर्ण है।
 
लोकतांत्रिक-व्यवस्था में नेतृत्व जनता की सेवा का कार्य है। यह निस्वार्थ भाव से समाज की आवश्यकताओं के अनुरूप उसे दिशा देने का कार्य है और यह कार्य विपक्ष में रहकर भी भलीभांति किया जा सकता है। सदन में सत्तापक्ष और मजबूत विपक्ष- दोनों का होना आवश्यक है किंतु हमारे देश में सब के सब सत्ता हथियाने की होड़ में ही लगे रहते हैं। सबको सत्ता-पक्ष वाली कुर्सी ही चाहिए। विपक्ष में बैठने को कोई तैयार नहीं दिखता। आखिर क्यों ? इस पर विचार होना चाहिए।
 
यह कड़वा सच है कि हमारे देश में लोकतांत्रिक व्यवस्था की आड़ लेकर सामन्ती मानसिकता ने गहरी जड़ें जमाई हैं। गरीब जनता के धन पर वैभव-विलास की जिंदगी जीना, विदेश यात्राएं करना, बिना काम किए ही वेतन भत्ते पा जाना, पेंशन लेना और अपने परिवार तथा अपनी पसंद के लोगों को लाभान्वित करना हमारे लोकतंत्र के बहुत से तथाकथित सेवकों का स्वभाव रहा है और इन्हीं दुरभिलाषाओं की पूर्ति के लिए सत्ता तक पहुंचना उनकी मजबूरी है। इसी के लिए वे तरह-तरह के हथकंडे अपनाते हैं, दल बदलते हैं। मजे की बात तो यह भी है कि विरोधी पार्टी से आने वालों को नई पार्टी भी हाथों-हाथ लेती है। अपने कार्यकर्ताओं को छोड़कर नये आने वालों को टिकट दे देती है। इन दोषों के कारण आज हमारा लोकतंत्र दलगत राजनीति की ऐसी दलदल बन चुका है जिसमें नैतिक मूल्य, इमानदारी, सेवा भावना और लोकहित हाशिए पर दिखाई देते हैं जबकि भ्रष्टाचार, परस्पर कीचड़ उछालना, अपनों को लाभान्वित करने का अन्याय पूर्ण पक्षपात और समाज को असंख्य खाँचों में बांटकर वोट हथियाने का कुचक्र केंद्र में है। दल के प्रति समर्पित भाव से कार्य करने वाले कार्यकर्ता उपेक्षित हैं और अकस्मात टिकट के लिए पार्टी में आने वाले पैराशूटर नव आगंतुक पार्टी का टिकट पा रहे हैं। जब राजनीतिक दलों और हमारे नेताओं में अनुशासन नहीं है तो जनसाधारण से किस अनुशासन की उम्मीद की जा सकती है। अनेक बार सत्ता का स्वाद चख लेने वाले, कब्र में पैर लटकाए नेता भी जब सत्ता में पद पाने की प्रत्याशा में सारी मर्यादाएं तोड़ रहे हैं तब जनता से किसी नैतिकता की अपेक्षा करना दिवास्वप्न ही है।
 लोकतंत्र की शुचिता और गुणात्मकता बनाए रखने के लिए अब यह आवश्यक हो गया है कि राजनीतिक दलों में टिकट वितरण के लिए भी कुछ नियम, नीतिनिर्देशक-सिद्धांत वैधानिक स्तर पर निर्धारित किए जाएं और कड़ाई से उनका पालन सुनिश्चित हो। अन्यथा सत्ता के लिए निष्ठा बेचने का यह खेल लोकतंत्र के लिए हानिकारक सिद्ध होगा।
 
-सुयश मिश्रा

नई दिल्ली. तेलंगाना में मतदान की तारीख नजदीक आने के साथ साथ एक दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप का दौर तेज होता जा रहा है। तमाम राजनीतिक दल एक दूसरे पर तीखे हमले बोल रहे हैं। एआईएमआईएम अध्यक्ष असदुद्दीन ओवैसी ने आज भारतीय जनता पार्टी पर गाय के नाम पर राजनीति करने का आरोप लगाते हुए जमकर हमला बोला। ओवैसी ने कहा, भाजपा ने तेलंगाना चुनाव को लेकर अपने घोषणापत्र में कहा है कि वह लोगों में 1 लाख गायें बांटेगी। क्या वे एक गाय मुझे भी देंगे? मैं वादा करता हूं कि मैं उसे पूरे सम्मान के साथ रखूंगा। लेकिन सवाल है कि क्या वो मुझे गाय देंगे? ये कोई हंसने वाली बात नहीं है, इस बारे में जरा सोचिए। के चंद्रशेखर राव के नेतृत्व वाली सरकार की सिफारिश के बाद छह सितंबर को 119 सदस्यीय विधानसभा भंग कर दी गई थी, जिस कारण चुनाव समय से पूर्व कराए जा रहे हैं। यहां कांग्रेस-टीडीपी और कुछ अन्य छोटे दल मिलकर चुनाव लड़ रहे हैं। कार्यवाहक मुख्यमंत्री और टीआरएस प्रमुख के चंद्रशेखर राव के मेडक जिले में गजवेल विधानसभा सीट से 14 नवंबर को नामांकन पत्र दाखिल करने की उम्मीद है। टीआरएस ने पहले ही 107 विधानसभा सीटों के लिये अपने प्रत्याशी घोषित कर दिए हैं। इनमें से 105 उम्मीदवारों की घोषणा विधानसभा भंग किए जाने के कुछ ही समय बाद कर दी गई थी और पार्टी ने अपना चुनाव प्रचार शुरू कर दिया था।

नई दिल्ली.  भारत और मोरक्को ने एक समझौते पर दस्तखत किए हैं। इस समझौते के तहत दोनों देश आपराधिक मामलों में एक दूसरे की सहायता करने और जरूरत पड़ने पर कानूनी मदद प्रदान करेंगे। गृह मंत्रालय ने इस बात की जानकारी दी।  भारत की ओर से केंद्रीय गृह राज्य मंत्री किरण रिजिजू और मोरक्को की ओर से न्याय मंत्री मोहम्मद औजर ने आपराधिक मामलों में आपसी कानूनी सहयोग पर समझौता किया।
गृह मंत्रालय के बयान में कहा गया कि समझौते से मोरक्को के साथ द्विपक्षीय सहयोग मजबूत होगा। अपराधों की रोकथाम, जांच और मुकदमे के लिए कानूनी ढांचा तैयार करने में मदद मिलने के साथ ही आतंकवादी कृत्यों को वित्तीय मदद का पता लगाने, रोकने और इसे जब्त करने में सहायता भी मिलेगी। बयान में कहा गया है कि दोनों मंत्रियों ने संगठित अपराध और आतंकवाद से पैदा होने वाली चुनातियों का संयुक्त तौर पर मुकाबला करने के प्रति संकल्प जताया ।

लखनऊ. उत्तर प्रदेश की योगी आदित्यनाथ सरकार राम की नगरी अयोध्या और कृष्ण की नगरी मथुरा को तीर्थ स्थान घोषित कर वहां मांस-मदिरा की बिक्री तथा सेवन पर पूर्ण प्रतिबंध लगाने पर गंभीरता से विचार कर रही है ।  उप्र सरकार के प्रवक्ता और प्रदेश के ऊर्जा मंत्री श्रीकांत शर्मा ने सोमवार को 'भाषा' से विशेष बातचीत में कहा 'साधु संतों और करोड़ों भक्तों की मांग थी कि राम और कृष्ण की नगरी में मांस-मदिरा की बिक्री और सेवन पर प्रतिबंध लगाया जाये । उनकी मांग का सम्मान करते हुये प्रदेश सरकार अयोध्या की चौदह कोसी परिक्रमा के आसपास के इलाके और मथुरा में भगवान कृष्ण के जन्म स्थान के आसपास के इलाके को तीर्थ स्थान घोषित करने की योजना पर काम कर रही है। जब ये दोनों स्थान तीर्थ स्थान घोषित हो जायेंगे तो यहां स्वत: ही मांस-मदिरा की बिक्री पर प्रतिबंध लग जायेगा । बिना तीर्थ स्थान घोषित किये इन दोनों स्थानों पर मांस-मदिरा पर प्रतिबंध लगाना संभव नही है ।' 
 उन्होंने कहा 'अयोध्या और मथुरा में मांस-मदिरा पर प्रतिबंध की मांग को सरकार ने गंभीरता से लिया है और इन दोनों जगहों को तीर्थ स्थान घोषित करने की योजना पर काम किया जा रहा है।’’ ऊर्जा मंत्री ने कहा कि अयोध्या में चौदह कोसी परिक्रमा का इलाका, मथुरा में भगवान कृष्ण के जन्म स्थान के आसपास के इलाके को तीर्थ स्थान घोषित कर यहां पर मांस-मदिरा पर प्रतिबंध लगाये जाने की योजना है । 

शर्मा के मुताबिक, मथुरा में वृंदावन, बरसाना, नंदगांव, गिरिराज जी :गोर्वधन: की सप्त कोषी परिक्रमा का इलाका पहले से ही तीर्थस्थान घोषित है और वहां मांस-मदिरा की बिक्री पर पूर्णत: प्रतिबंध है ।
गौरतलब है कि छह नवंबर को उत्तर प्रदेश के फैजाबाद जिले का नाम बदलकर अयोध्या कर दिया गया है। संतों ने मांग की थी कि अयोध्या में मांस-मदिरा की बिक्री भगवान राम का अपमान है और इस पर प्रतिबंध लगाया जाना चाहिए। 
उत्तर प्रदेश की राजनीति में कभी धूमकेतु की तरह चमकने वाले समाजवादी नेता मुलायम सिंह यादव को लेकर अंदरखाने में तमाम तरह की बातें चल रही हैं। कभी उनके स्वास्थ्य को लेकर सवाल खड़ा किया जाता है तो कभी उनकी याद्दाश्त पर प्रश्न चिह्न लगाया जाता है। यह स्थिति वर्ष 2017 में विधानसभा चुनाव से कुछ माह पूर्व उस समय से विषम हो गईं थीं जब अखिलेश यादव ने नेता जी को जर्बदस्ती समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष पद से हटाकर स्वयं पार्टी की कमान संभाल ली थी। मुलायम यह बात हजम नहीं कर पाये, लेकिन पुत्र मोह के कारण उनकी नाराजगी कभी खुलकर सामने नहीं आई। यह नाराजगी उस समय भी ज्यादा मुखर नहीं हो सकी, जब अखिलेश ने समाजवादी पार्टी की रीढ़ समझे जाने वाले चाचा शिवपाल यादव को बाहर का रास्ता दिखाया था। इस बात को भी नहीं भुलाया जा सकता है कि 2017 के विधान सभा चुनाव के समय अखिलेश ने अपने छोटे भाई की बहू अर्पणा यादव को बहुत मुश्किल से काफी दबाव के बाद विधान सभा चुनाव लड़ने का टिकट दिया था।
 
इससे आगे बढ़कर देखा जाये तो अखिलेश ने अपर्णा को काफी दबाव के बाद टिकट जरूर दिया था, लेकिन उन्हें एक ऐसे विधान सभा क्षेत्र (कैंट विधान सभा क्षेत्र, लखनऊ) से चुनाव लड़ने का मौका दिया गया, जहां उनके सामने भाजपा की दिग्गज नेत्री डॉ. रीता बहुगुणा जोशी चुनाव लड़ रही थीं जो तब कैंट से विधायक भी थीं, जबकि मुलायम अपनी छोटी बहू अपर्णा को समाजवादी परिवार का गढ़ समझे जाने वाले मैनपुरी, एटा, इटावा या आसपास के जिलों की किसी सीट से चुनाव लड़ाना चाहते थे। इसके बावजूद अर्पणा ने चुनावी जंग में कोई कोरकसर नहीं छोड़ी थी, लेकिन अर्पणा के चुनाव प्रचार के लिये अखिलेश समय ही नहीं निकाल पाये, जिसका खामियाजा अपर्णा को हार के रूप में भुगतना पड़ा था। पारिवारिक कलह के चलते समाजवादी पार्टी को भी बुरी तरह से हार का मुंह देखना पड़ा था। कांग्रेस का साथ भी उसकी डूबती नैया को बचा नहीं पाया था। मुलायम पहले ही कांग्रेस के साथ समाजवादी पार्टी के गठबंधन को नकार चुके थे।
 
खैर, सबसे बड़ी बात यही थी कि बहुत कुछ लुटाने के बाद भी अखिलेश के तेवर नहीं बदले। न उन्होंने मुलायम की बातों को गंभीरता से लिया न चाचा शिवपाल के प्रति उनका रवैया नरम हुआ। यह सिलसिला तब तक चलता रहा जब तक कि शिवपाल ने अपनी अलग पार्टी नहीं बना ली। शिवपाल के अलग दल बनाते ही मुलायम सिंह समाजवादी पार्टी के मंच पर नजर आने लगे। अखिलेश सोची−समझी रणनीति के तहत मुलायम के प्रति नरम हुए थे, उन्हें पता था कि अगर उन्होंने पिता मुलायम के प्रति अपना रवैया नहीं बदला तो वह पाला बदलकर शिवपाल के साथ जा सकते हैं। उधर, मुलायम की छोटी बहू अर्पणा यादव भी चाचा शिवपाल के साथ खड़ी दिखाई पड़ने लगी थीं। 
 
समाजवादी परिवार में चल रही उठा−पटक से मुलायम दुखी थे, लेकिन उनकी कोई सुनने को तैयार ही नहीं था। अखिलेश साफ शब्दों में तो शिवपाल गोलमोल भाषा में मुलायम की बात काट रहे थे। चाचा−भतीजे दोनों अपनी राजनीतिक जमीन मजबूत करने में लगे थे। वहीं मुलायम न तो पुत्र अखिलेश को छोड़ पा रहे थे और न ही भाई शिवपाल से दूरी बना पा रहे थे। मुलायम पारिवारिक मजबूरियों के बीच धृतराष्ट्र जैसे हो गये थे, जिसमें कोई एक खेमा चुनना उनके लिए आसान नहीं था। वह अखिलेश के साथ रहते हुए भी शिवपाल के साथ नजर आते उनकी पार्टी के मंच तक पर पहुंचने में मुलायम ने गुरेज नहीं किया। इसकी बानगी हाल ही में तब दिखी जब पहले तो समाजवादी पार्टी आफिस में बेटे अखिलेश के साथ सपा कार्यकर्ताओं को समाजवादी विचारधारा को आगे बढ़ाने की सीख देते दिखे तो कुछ दिनों के बाद मुलायम भाई शिवपाल के साथ मंच साझा करते दिखे। शिवपाल को जब नया सरकारी बंगला मिला तो वहां भी मुलायम खड़े नजर आये। सियासी तौर पर बंटा नजर आ रहा मुलायम सिंह का कुनबा प्रतीक यादव व अपर्णा यादव के गृह प्रवेश पर एक साथ नजर आया। गृह प्रवेश में मुलायम सिंह यादव के साथ ही अखिलेश यादव, डिंपल यादव और शिवपाल सिंह यादव खासतौर पर शामिल हुए। यह अलग बात है कि अखिलेश और शिवपाल अलग−अलग समय पर कार्यक्रम में रहे। उनका आमना−सामना नहीं हुआ।
 
यह सच है कि मुलायम ने अपने सियासी जीवन में परिवार के लोगों की सियासत तो खूब चमकाई थी, उनके बल पर परिवार के कई सदस्य सांसद और विधायक, जिला पंचायत अध्यक्ष व तमाम निगमों के अध्यक्ष आदि बने परंतु मुलायम ने सियासत और परिवार का कभी घालमेल नहीं किया। अपनों के साथ रहना उनकी सहज प्रवृत्ति रही है। यहां तक कि उन्होंने पार्टी छोड़ने वाले बेनी प्रसाद वर्मा, आजम खां और अमर सिंह तक को वापस लेने में संकोच नहीं किया था। कभी जो दर्शन सिंह यादव उनके जानलेवा दुश्मन हुआ करते थे, वह भी बाद में मुलायम के साथ खड़े नजर आने लगे थे। अपने इसी स्वभाव के चलते कुनबे की कलह में भी वह दोनों पक्षों के लिए स्वीकार्य बने रहे हुए हैं। यह बात उन लोगों के मुंह पर तमाचा है जो यह मानकर चलते हैं कि मुलायम सिंह अब सियासत के अखाड़े के पहलवान नहीं रह गये हैं। दरअसल, मुलायम आज भी सियासी दुनिया के 'पहलवान' ही हैं। हां, परिवार के झगड़े ने जरूर उन्हें तोड़ कर रख दिया है।
 
बहरहाल, कुछ ऐसी बातें भी हैं जो यही साबित करती हैं मुलायम के लिए अखिलेश से बढ़कर कोई नहीं है। याद कीजिए 2012 से पहले का वह दौर, जब शिवपाल को ही मुलायम का उत्तराधिकारी माना जा रहा था, लेकिन सियासी दुनिया में 'चरखा दांव' लगाने में मशहूर नेताजी ने 2012 के विधान सभा चुनाव से ठीक पहले शिवपाल को अनदेखा करके अखिलेश की ताजपोशी कर दी थी। कुनबे में कलह के बीज तभी से पड़े थे। 2017 में जब पारिवारिक लड़ाई परवान पर चढ़ी तो मुलायम शिवपाल के साथ नजर तो आये लेकिन, कोई निर्णायक फैसला लेने से बचते रहे। यहां तक कि शिवपाल ने उनके साथ मिलकर सेक्युलर मोर्चा के गठन का फैसला लिया था तो भी मुलायम ने अपने कदम पीछे खींच लिए थे। फिर भी भाई के लिए उनका मोह लगातार बना रहा। उन्होंने कई बार सार्वजनिक मंचों से दोहराया कि शिवपाल ने मेरे और पार्टी के लिए बहुत कुछ किया है, जबकि अखिलेश का राजनीतिक भविष्य उनकी जिम्मेदारी है। अब जो हालात बन रहे हैं उससे तो यही लगता है कि 2017 के विधान सभा चुनावों की तरह अगले वर्ष होने वाले आम चुनावों में भी चाचा शिवपाल के बिना अखिलेश की राह आसन नहीं होगी। अब तो अलग पार्टी बनाकर शिवपाल पूरी तरह से आजाद भी हो गये हैं।
आजकल मुंबई समेत देश के बड़े महानगरों में जहां देखो वहां मी टू अभियान की चर्चा है। मी टू अभियान ने किसी को नहीं छोड़ा... मोदी सरकार के एक मंत्री की जहां कुर्सी चली गई वहीं बॉलीवुड में बरसों से शराफत का चोला पहने कई चेहरे बेनकाब हो गए। महिलाओं के साथ यौन शोषण के खिलाफ चल रहे इस अभियान में नामी-गिरामी पत्रकार भी लपेटे में आ गए। ‘मी टू’ ने देश में ऐसी लहर पैदा कर दी है कि बॉलीवुड से लेकर अलग-अलग क्षेत्रों में काम करने वाली महिलाएं सामने आकर यौन शोषण से जुड़े अपने अनुभव लोगों से साझा कर रही है। हर रोज कोई न कोई महिला सोशल मीडिया पर अपनी आपबीती सुना रही है। किसी का मामला 10 साल पुराना है तो कोई अपने साथ 5 साल पहले हुए वाकये को लोगों के साथ साझा कर रही है। हर रोज अखबार पलटते ही कोई न कोई बड़ा नाम सामने आ जाता है। किसी बड़ी कंपनी में नौकरी या फिर फिल्मों में काम दिलाने के नाम पर महिलाओं का यौन शोषण होता है ये बात किसी से छिपी नहीं है। लेकिन अबतक किसी का चेहरा इसलिए बेनकाब नहीं होता था क्योंकि महिलाएं अपने साथ हुए वाकये को चुपचाप सहन कर जाती थी। लेकिन आज जमाना सोशल मीडिया का है... अब महिलाएं चुप नहीं बैठनेवाली। अमेरिका और पश्चिम के दूसरे देशों में मी टू मुहिम की कामयाबी ने अपने यहां भी उन महिलाओं के अंदर जोश भर दिया है जो कभी न कभी यौन शोषण का शिकार हो चुकी हैं। ये बात अलग है कि अब भी ज्यादतर मामले बॉलीवुड से ही आ रहे हैं। मशहूर फिल्मकार सुभाष घई, साजिद खान से लेकर कई लोगों का चेहरा पूरी तरह बेनकाब हो गया है। फिल्मों में रोल दिलाने के बहाने महिलाओं को परेशान करनेवाले लोग पूरी तरह डरे हुए हैं। 
 
बॉलीवुड में कुछ लोगों को छोड़कर हर कोई मी टू अभियान का समर्थन कर रहा है...कल तक जो हीरोइन किसी बड़े चेहरे का नाम लेने से डरती थी...आज इस मुहिम के चलते अपने साथ हुई बर्ताव को दुनिया के सामने ला रही है। वैसे अबतक जितने बड़े नामों का चेहरा उजागर हुआ है वो खुद को पाक-साफ बताने में लगे हैं। कोई अपनी छवि खराब करने का आरोप लगा रहा है...तो कोई इसे बदले की भावना से की गई कार्रवाई बता रहा है। किसी की दलील है कि अगर किसी महिला के साथ 10 साल पहले किसी तरह की घटना हुई तो वो अबतक चुप क्यों बैठी रही। कुछ लोगों का मानना है कि  ये सब पब्लिसिटी हासिल करने के लिए किया जा रहा है। लेकिन मैं इस बात से इत्तिफाक नहीं रखता। 
 
अभिनेता नसीरुद्दीन शाह की माने तो महिलाओं का सामने आना अच्छी बात है लेकिन उनके लगाए आरोपों की गंभीरता से जांच भी होनी चाहिए क्योंकि हो सकता है कि मामले का कोई दूसरा पहलू भी हो। लेकिन अगर आप समझ रहे होंगे कि मी टू अभियान को महिलाओं का 100 फीसदी समर्थन हासिल है तो आप गलत हैं। मैंने इसे लेकर जब एक-दो महिलाओं से बात की और उनकी राय जानने की कोशिश की तो उनका कहना था...अगर किसी महिला के साथ यौन शोषण हुआ तो वो 10 या 15 साल तक चुप क्यों बैठी रही ? 
 
सवाल चुप बैठने का नहीं है...सवाल महिलाओं की अस्मिता से जुड़ा है...देर से ही सही मी टू मुहिम ने उन महिलाओं को बोलने की ताकत दी है जो अभी तक घुट-घुट कर जी रहीं थी...आज महिलाएं इस स्थिति में पहुंच गई हैं कि वो लोगों के सामने अपनी बात बेबाकी से रख रही हैं।
 
आज पीड़ित महिला सामने आकर दुनिया को बता रही है कि दफ्तर में अपने केबिन में बुलाकर बॉस ने उसे कहां-कहां छुआ...कभी पगार बढ़ाने के नाम पर शोषण हुआ...तो कभी प्रमोशन के नाम पर... फर्क सिर्फ इतना था कि पहले किसी बॉस का चेहरा बेनकाब नहीं होता था। आज हर बड़े दफ्तर में वो अधिकारी डरा हुआ है जिसने कभी किसी महिला सहकर्मी के साथ इस तरह का बर्ताव किया है।  दफ्तरों में महिलाओं के उत्पीड़न रोकने के लिए विशाखा गाइडलाइंस तो लागू हो गया लेकिन उस पर अमल कभी नहीं हुआ। सच्चाई यही है कि जो काम विशाखा गाइडलाइंस नहीं कर सका अब वो मी टू अभियान कर रहा है। 
 
मेरे कई मित्रों ने बताया कि अब वो दफ्तरों में महिलाओं से हाथ मिलाने से भी परहेज करने लगे हैं...उन्हें लगता है कि क्या पता कभी कोई महिला बुरा मान जाए और उसे बाद में परेशान होना पड़े। मी टू अभियान से लोग कितने डरे हुए हैं इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि बिग बॉस के पूर्व कंटेस्टेंट कमाल राशिद खान ने दुबई और मुंबई में अपने दफ्तर से सभी महिला कर्मचारियों की छुट्टी कर दी है। केआरके की माने तो ऐसा उन्होंने अपनी पत्नी के कहने पर किया है। 
 
मी टू का असर देखिए...अभिनेता दिलीप ताहिल ने अभी हाल ही में एक फिल्म की शूटिंग के दौरान रेप सीन करने से मना कर दिया। जब डायरेक्टर ने बताया कि सीन फिल्म के लिए जरूरी है तो अभिनेता ने कहा पहले हीरोइन से लिखित में लो कि उसे रेप सीन करने से पहले और बाद में कोई दिक्कत नहीं है। अब इसे मी टू का डर नहीं तो और क्या कहेंगे? मुझे लगता है कि हमें मी टू अभियान का समर्थन करना चाहिए....मेरा मानना है कि अगर आप गलत नहीं हैं तो आपको डरने की कोई जरूरत नहीं है।

 

 
अब इतना तय हो गया है कि लोकसभा चुनाव के पहले अयोध्या के विवादित स्थल पर राममंदिर का निर्माण शुरू नहीं हो सकता। अब जनवरी महीने में इस विवाद से जुड़े मुकदमे की सुनवाई की रूपरेखा तय की जाएगी। इस मुकदमे में एक से ज्यादा पक्ष हैं और अनेक किस्म की सत्य और काल्पनिक उलझनें हैं, जिनके कारण इस पर सुनवाई तुरंत समाप्त नहीं होगी। सुप्रीम कोर्ट द्वारा इस मसले पर अविलंब सुनवाई शुरू करने की अपील अस्वीकार करने के बाद मंदिर समर्थकों की नींद हराम हो रही हैं और उनमें हताशा का भाव बढ़ता जा रहा है। और जब हताशा बढ़ती है, तो उसका शिकार विवेक हो जाता है, जिसके कारण विवेकहीन बातें शुरू हो जाती हैं।
 
वैसी ही एक विवेकहीन बात यह है कि कानून बनाकर या अध्यादेश लाकर केन्द्र सरकार या राज्य सरकार उस विवादित भूमि का अधिग्रहण कर सकती है और उस अधिगृहित जमीन को राम मंदिर बनाने के लिए हिन्दू संगठनों को सौंपा जा सकता है। इस तरह की मांग जोर पकड़ रही है। भारतीय जनता पार्टी के अनेक नेता इस तरह की मांग कर रहे हैं। विश्व हिन्दू परिषद ने तो औपचारिक रूप से इस तरह की मांग कर दी है कि राममंदिर के निर्माण को शुरू करने के लिए सरकार अब सुप्रीम कोर्ट के फैसले का इंतजार नहीं करे, बल्कि कानून बनाकर उस भूखंड को मंदिर निर्माण के लिए तैयार संगठन को सुपुर्द कर दे।
 
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत भी सरकार से कानून बनाने की मांग कर चुके हैं। सच तो यह है कि मंदिर निर्माण के लिए तैयार बैठे लोगों को लग रहा था कि सुप्रीम कोर्ट का फैसला कुछ भी हो मंदिर बनकर रहेगा। इसके पीछे उनकी सोच यह थी कि मंदिर के पक्षधर मुकदमा हार जाने के बावजूद कानून की सहायता से वह भूखंड पा लेंगे। केन्द्र ही नहीं, बल्कि उत्तर प्रदेश में भी भाजपा की सरकार है और सरकार के पास यह अधिकार होता है कि उचित मुआवजा देकर वह कोई भी भूखंड अधिकृत कर ले। अब वहां मस्जिद तो है नहीं, इसलिए उसे अधिगृहित करने में सरकार को कोई दिक्कत नहीं होगी।
 
लेकिन इस तरह के विचार रखने वाले यह भूल जाते हैं कि विवादित भूखंड पहले से ही तकनीकी रूप से केन्द्र सरकार द्वारा अधिगृहित संपत्ति है। यह अधिग्रहण नरसिंह राव सरकार ने 1993 में बाबरी मस्जिद के विध्वंस के बाद किया था। विवादित 2 दशमलव 7 एकड़ जमीन के साथ-साथ आसपास के 66 दशमलव 7 एकड़ जमीन नरसिंह राव सरकार ने एक अध्यादेश के द्वारा अधिगृहित कर ली थी। बाद में अध्यादेश का स्थान एक अधिनियम ने ले लिया। उस अधिनियम के तहत विवादित भूमि पर दाखिल सारी याचिकाओं को भी खारिज कर दिया गया था।
 
लेकिन भूमि अधिग्रहण के उस निर्णय को अदालत में चुनौती दी गई। सुप्रीम कोर्ट को सरकार ने बताया कि अधिग्रहण यह भूमि किसी को देने के लिए नहीं किया गया है, बल्कि केन्द्र सरकार अपनी कस्टडी में उसे रखना चाहती है, ताकि उसके कारण सांप्रदायिक तनाव को नियंत्रण में रखा जा सके। केन्द्र की उस दलील को स्वीकार करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने अधिग्रहण से संबंधित उस कानून को निरस्त नहीं किया। उसका सिर्फ एक हिस्सा, जिसमें सभी याचिकाओं को समाप्त माना गया था, उसे कोर्ट ने निरस्त कर दिया और आदेश जारी किया कि केन्द्र उस भूमि की कस्टडी अपने पास रखे और याचिकाओं का निस्तारण होने के बाद जिसकी जीत होती है, भूमि उसे सौंप दे। 
 
यानी कानून बनने और उस पर कोर्ट के दिए गए फैसले के अनुसार वह विवादित भूखंड अभी भी अधिगृहित भूखंड है, जो केन्द्र सरकार की कस्टडी में है। उसे केन्द्र को तब तक अपनी कस्टडी में रखना है, जब तक अदालत उस पर अपना अंतिम फैसला नहीं सुना दे। उसके पहले केन्द्र को यथास्थिति बनाए रखनी है। वह किसी को वह भूखंड नहीं दे सकता और जहां तक अधिग्रहण करने के लिए अध्यादेश और अधिनियम बनाने का सवाल है, तो जो जमीन एक बार अधिगृहित हो चुकी है, उसका अधिग्रहण वही सरकार दुबारा कैसे कर सकती है?
 
लिहाजा केन्द्र सरकार के पास सुप्रीम कोर्ट के फैसले का इंतजार करने के अलावा कोई दूसरा विकल्प नहीं है। मंदिर बनाने के लिए उतावले हो रहे लोग मोदी सरकार पर दबाव बनाते हुए कह रहे हैं कि जब तीन तलाक और एससी/एसटी एक्ट पर सरकार अध्यादेश और विधेयक ला सकती है, तो फिर राममंदिर के निर्माण के लिए वैसा क्यो नहीं कर सकती। लेकिन वे यह भूल रहे हैं कि तीन तलाक का मामला सुप्रीम कोर्ट में लंबित नहीं है, बल्कि सुप्रीम कोर्ट के आदेश के तहत ही उस पर अध्यादेश लाया गया है और एससी/एसटी एक्ट में पुनर्विचार याचिका तो केन्द्र ने ही कर रखी थी और सुप्रीम कोर्ट ने उस पर कोई वैधानिक कार्रवाई आगे करने के लिए रोक नहीं लगा रखी है। 
 
विवादित भूखंड को लेकर सुप्रीम कोर्ट का केन्द्र सरकार को आदेश है कि वह वहां यथास्थिति बनाए रखे और वह अपने आपको उस जमीन को कस्टोडियन समझे न कि मालिक। अब जब सरकार उस जमीन की मालिक ही नहीं है, तो फिर वह उसे किसी को कैसे दे सकती है और वह भी तब, जब उस जमीन के एक से ज्यादा दावेदार मौजूद हैं और उनके दावों की जांच सुप्रीम कोर्ट कर रहा है।
 
यही नहीं भारतीय राज्य एक धर्मनिरपेक्ष राज्य है। धर्मनिरपेक्षता भारतीय संविधान का बेसिक स्ट्रक्चर है, इसके साथ सरकार क्या संसद भी छेड़छाड़ नहीं कर सकती। सुप्रीम कोर्ट ने अपने अनेक फैसले में स्पष्ट किया है कि सेक्युलर होने के कारण सरकार अपने आपको किसी धर्म विशेष से जोड़कर फैसला नहीं ले सकती। भारतीय धर्मनिरपेक्षता को कोर्ट ने पारिभाषित करते हुए कहा है कि यह सर्वधर्म समभाव पर आधारित है और सरकार को निर्णय लेते समय सर्वधर्म समभाव की भावना से ही काम करना होगा। इस भावना से विचलित होकर किया गया कोई फैसला या कानून सुप्रीम कोर्ट द्वारा खारिज कर दिया जाएगा। जाहिर है, सुब्रह्मण्यम स्वामी जैसे भाजपा सांसदों की कानून बनाकर मंदिर निर्माण का सपना, एक ऐसा दिवास्वप्न है, जो पूरा होता दिखाई नहीं पड़ता। इसका निर्माण तभी होगा, जब सुप्रीम कोर्ट का फैसला इसके पक्ष में हो या विपक्ष में फैसला आने के बाद भूखंड का मालिक अपनी मर्जी से उसे मंदिर निर्माण के लिए दे दे।
 
-उपेन्द्र प्रसाद
पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को राजनीति विरासत में मिली थी और ऐसे में सियासी उतार-चढ़ाव को वे बखूबी समझती थीं। यही वजह रही कि उनके सामने न सिर्फ देश, बल्कि विदेश के नेता भी उन्नीस नजर आने लगते थे।

इंदिरा गांधी एक अजीम शख्यियत थीं। उनके भीतर गजब की राजनीतिक दूरदर्शिता थी। लालबहादुर शास्त्री के बाद प्रधानमंत्री बनीं इंदिरा को शुरू में 'गूंगी गुड़‍िया' की उपाधि दी गई थी, लेकिन 1966 से 1977 और 1980 से 1984 के दौरान प्रधानमंत्री रहीं इंदिरा ने अपने साहसी फैसलों के कारण साबित कर दिया कि वे एक बुलंद शख्यिसत की मालिक हैं।

इंदिरा गांधी ने परिणामों की परवाह किए बिना कई बार ऐसे साहसी फैसले लिए, जिनका पूरे देश को लाभ मिला और उनके कुछ ऐसे भी निर्णय रहे जिनका उन्हें राजनीतिक खामियाजा भुगतना पड़ा लेकिन उनके प्रशंसक और विरोधी, सभी यह मानते हैं कि वे कभी फैसले लेने में पीछे नहीं रहती थीं। जनता की नब्ज समझने की उनमें विलक्षण क्षमता थी।

प्रथम प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू की पुत्री इंदिरा का जन्म इलाहाबाद में 19 नवंबर 1917 को हुआ। स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान उन्होंने अपनी वानर सेना बनाई और सेनानियों के साथ काम किया। जब वे लंदन के ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में पढ़ रही थीं तो वहां आजादी समर्थक ‘इंडिया लीग’ की सदस्य बनीं।

भारत लौटने पर उनका विवाह फिरोज गांधी से हुआ। वर्ष 1959 में ही उन्हें कांग्रेस का राष्ट्रीय अध्यक्ष चुन लिया गया। नेहरू के निधन के बाद जब लालबहादुर शास्त्री प्रधानमंत्री बने तो इंदिरा ने उनके अनुरोध पर चुनाव लड़ा और सूचना तथा प्रसारण मंत्री बनीं।

उनके समकालीन नेताओं के अनुसार बैंकों का राष्ट्रीयकरण, पूर्व रजवाड़ों के प्रिवीपर्स समाप्त करना, कांग्रेस सिंडिकेट से विरोध मोल लेना, बांग्लादेश के गठन में मदद देना और अमेरिकी राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन को राजनयिक दांव-पेंच में मात देने जैसे तमाम कदम इंदिरा गांधी के व्यक्तित्व में मौजूद निडरता के परिचायक थे।

साथ ही आपातकाल की घोषणा, लोकनायक जयप्रकाश नारायण तथा प्रमुख विपक्षी नेताओं को जेल में डालना, ऑपरेशन ब्लू स्टार जैसे कुछ निर्णयों के कारण उन्हें काफी आलोचनाओं का सामना करना पड़ा। उड़ीसा में एक जनसभा में गांधी पर भीड़ ने पथराव किया। एक पत्थर उनकी नाक पर लगा और खून बहने लगा।

इस घटना के बावजूद इंदिरा गांधी का हौसला कम नहीं हुआ। वे वापस दिल्ली आईं। नाक का उपचार करवाया और तीन चार दिन बाद वे अपनी चोटिल नाक के साथ फिर चुनाव प्रचार के लिए उड़ीसा पहुंच गईं। उनके इस हौसलों के कारण कांग्रेस को उड़ीसा के चुनाव में काफी लाभ मिला।

एक और वाकया 1973 का है। इंदिराजी कांग्रेस कार्यकर्ताओं के एक सम्मेलन में भाग लेने इलाहाबाद आईं थीं। उनकी सभा के दौरान विपक्षी नेताओं ने जबर्दस्त विरोध प्रदर्शन किया और उन्हें काले झंडे दिखाए गए। लेकिन उस जबर्दस्त विरोध प्रदर्शन से इंदिराजी के चेहरे पर कोई शिकन नहीं आई।

अपने संबोधन में विरोधियों को शांत करते हुए उन्होंने सबसे पहले कहा कि ‘मैं जानती हूं कि आप यहां इसलिए हैं क्योंकि जनता को कुछ तकलीफें हैं, लेकिन हमारी सरकार इस दिशा में काम कर रही है। इंदिराजी खामियाजे की परवाह किए बगैर फैसले करती थीं।

आपातकाल लगाने का काफी विरोध हुआ और उन्हें नुकसान उठाना पड़ा लेकिन चुनाव में वे फिर चुनकर आईं। ऐसा चमत्कार सिर्फ वे ही कर सकती थीं। इंदिरा की राजनीतिक छवि को आपातकाल की वजह से गहरा धक्का लगा। इसी का नतीजा रहा कि 1977 में देश की जनता ने उन्हें नकार दिया, हालांकि कुछ वर्षों बाद ही फिर से सत्ता में उनकी वापसी हुई।

उनके लिए 1980 का दशक खालिस्तानी आतंकवाद के रूप में बड़ी चुनौती लेकर आया। ऑपरेशन ब्लू स्टार के बाद वे सिख अलगाववादियों के निशाने पर थीं। 31 अक्टूबर 1984 को उनके दो सिख अंगरक्षकों ने ही उनकी हत्या कर दी। गरीबी मुक्त भारत इंदिरा का एक सपना था। जो आज भी साकार नहीं हो पाया है।

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