राजनीति

राजनीति (6273)

दिव्य कुम्भ, भव्य कुम्भ। प्रयागराज में मकर संक्रांति से शुरू हुआ कुम्भ मेला महाशिवरात्रि पर समाप्त हुआ। शिवरात्रि को आखिरी स्नान पर्व था और इसमें बड़ी संख्या में श्रद्धालुओं की भीड़ उमड़ पड़ी। पृथ्वी पर लगने वाला दुनिया का सबसे बड़ा मेला कुम्भ इस मायने में महत्वपूर्ण रहा कि इसकी भव्यता, गंगा की निर्मलता और साफ सफाई की पूरी दुनिया में चर्चा रही। कुम्भ मेले का उद्घाटन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 16 दिसंबर 2018 को गंगा पूजन कर किया था। उसी दिन 450 साल बाद ऐतिहासिक अक्षयवट और सरस्वती कूप खोलने की भी घोषणा की गयी थी।
इस कुम्भ मेले में देश के राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद भी पहुँचे तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी संगम में स्नान किया और गंगा आरती की। यही नहीं उत्तर प्रदेश सरकार के तो सभी मंत्री एक साथ कुम्भ नहाने पहुँचे और साथ ही प्रदेश के इतिहास में पहली बार कैबिनेट की बैठक राजधानी लखनऊ के बाहर प्रयागराज में हुई। कुम्भ मेले ने उत्तर प्रदेश को तो बहुत कुछ दिया ही इस मेले के लिए खासतौर पर प्रयागराज को एअरपोर्ट और एक नया रेलवे स्टेशन भी मिला।

 

कुम्भ मेला इस कदर रौशनी में नहाया रहा कि दुनिया आश्चर्यचकित रह गयी। हर स्नान पर्व पर एक साथ ढाई से तीन करोड़ लोगों का आना और बिना किसी समस्या के स्नान पर्व का निपटना, बेहतरीन सुविधाओं वाली टैंट नगरी, विभिन्न अखाड़ों के शाही स्नान, उनकी पेशवाई और अखाड़ों की चहल-पहल तथा आचार्य महामंडलेश्वरों की शानौ शौकत, पंडालों में गूंजते वैदिक मंत्र और घंटे घड़ियाल, सुंदर झाकियों को देखने के लिए लगी लाइनें, नागा बाबाओं को हैरत से देखती भीड़, पहली बार लगे किन्नर अखाड़े में आचार्य महामंडलेश्वर से आशीर्वाद लेने के लिए लगी भक्तों की भीड़, हठयोगियों के हठ को आश्चर्य से देखते लोग, ठंड के बावजूद खुले आसमान के नीचे डेरा जमाए सुबह का इंतजार करते श्रद्धालु, घाटों पर साफ-सफाई और लोगों की सुरक्षा के लिए तैनात सुरक्षाकर्मी, जल पुलिस की चौकस निगाहें, स्नान पर्वों पर स्नानार्थियों पर फूल बरसाते हेलीकॉप्टर, पुलिस और प्रशासन के लोगों का लखनवी अंदाज, हर पचास कदम पर कूड़ेदान की व्यवस्था, जगह-जगह बने शौचालय, अस्पताल, एटीएम, खोया पाया केंद्र आदि हर तरह की सुविधाओं वाला यह महाकुम्भ पर्व वर्षों तक याद रखा जायेगा।
 

 

इस कुम्भ में लोगों ने वह दृश्य भी देखा जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने संगम में आस्था की डुबकी लगाने के बाद अक्षयवट की पूजा की। बाद में बड़े हनुमानजी के दर्शन किए और फिर कुम्भ में स्वच्छाग्रहियों के पैर धोए। इन्हीं सफाईकर्मियों ने दिन-रात मेहनत कर कुम्भ में स्वच्छता की ऐसी मिसाल कायम की जो पहले कभी नहीं देखी गई। मोदी ने कुम्भ के दौरान स्वच्छाग्रहियों के पैर धोकर ना सिर्फ उनका आशीष ग्रहण किया बल्कि एक संदेश भी दिया। इस दौरान सफाई कर्मचारी कुर्सियों पर बैठे थे जबकि मोदी नीचे एक पटरे पर बैठे थे। इसके अलावा राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने भी संगम तट पर पूजा-पाठ किया और गंगा आरती कर विश्व कल्याण की कामना की। राष्ट्रपति ने साधु-संतों से भी मुलाकात की। राष्ट्रपति ने संगम नोज से ही महर्षि भारद्वाज की प्रतिमा का बटन दबाकर अनावरण किया। राष्ट्रपति कोविंद कुम्भ में आने वाले देश के दूसरे राष्ट्रपति हैं। इससे पहले प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद 1953 में कुंभ मेला आए थे।
 
कुम्भ मेले में यात्रियों की निःशुल्क सेवा के लिए लगाई गईं 500 से अधिक शटल बसों ने गत सप्ताह एक साथ परेड कर विश्व रिकॉर्ड बनाया। इससे पूर्व सबसे बड़े बेड़े का रिकॉर्ड अबु धाबी के नाम था जहां दिसंबर, 2010 में 390 बसों ने परेड कर रिकॉर्ड बनाया था। गिनीज वर्ल्ड रिकॉर्ड के अधिनिर्णायक ऋषि नाथ ने बताया कि परेड के लिए 510 बसें लगाई गई थीं जिसमें सात बसें मानक के अनुरूप नहीं चल सकीं। 503 बसें मानक के अनुरूप चलीं।
 
कुम्भ मेला यहाँ हुई धर्म संसदों को लेकर सुर्खियों में भी रहा। क्योंकि जनवरी-फरवरी माह के दौरान अयोध्या में राम मंदिर निर्माण के लिए साधु संतों ने जोरदार आंदोलन चलाया हुआ था। इसके अलावा कांग्रेस के वरिष्ठ नेता शशि थरूर की एक टिप्पणी- इस संगम में सभी नंगे हैं को लेकर भी भारी विवाद हुआ। लेकिन कुल मिलाकर देखा जाये तो पिछले कई आयोजनों से यह आयोजन बेहतरीन रहा। लगभग 45 किलोमीटर के दायरे में बसायी गयी कुम्भ नगरी में यदि दो माह में 25 करोड़ से ज्यादा लोग आयें और बिना किसी असुविधा के स्नान और पूजन करके जाएं तो यह अपने आप में बड़ी उपलब्धि है। इतनी बड़ी संख्या में एक साथ लोगों के आने से यहाँ के लोगों को बड़ी संख्या में रोजगार भी मिला और उत्तर प्रदेश की अर्थव्यवस्था को जोरदार फायदा हुआ। रेल, विमान, यात्री बसों की सुविधाएं बेहतरीन रहीं। यही कारण रहा कि इस बार वाराणसी में हुए प्रवासी भारतीय सम्मेलन के बाद जब बड़ी संख्या में प्रवासी भारतीयों ने कुम्भ में स्नान किया तो यहाँ की सुविधाओं की तारीफ करते नहीं थके। खुद प्रभासाक्षी की टीम ने कुम्भ मेले में लंबा समय बिताया और गंगा मैय्या की जय के उद्घोष के बीच हर व्यक्ति चाहे वह साधु हो या श्रद्धालु, मोदी और योगी की तारीफों के पुल बांधते हुए दिखे। वाकई एक दिव्य और भव्य तथा श्रेष्ठ आयोजन के लिए केंद्र की नरेंद्र मोदी और उत्तर प्रदेश की योगी आदित्यनाथ सरकार को बधाई।
 
- नीरज कुमार दुबे

लखनऊ. समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष और उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्मयंत्री अखिलेश यादव को मंगलवार को अमौसी एयरपोर्ट पर प्रयागराज जाने से रोक दिया गया। अखिलेश प्राइवेट प्लेन से एक छात्र नेता के शपथ ग्रहण समारोह में शामिल होने जा रहे थे। उनका कुंभ जाने का भी कार्यक्रम था। अखिलेश को रोके जाने के मुद्दे पर संसद, विधानसभा और विधानपरिषद में जोरदार हंगामा हुआ। इस बीच, सरकार ने कहा कि अखिलेश को रोकने का फैसला इलाहाबाद यूनिवर्सिटी के आग्रह पर लिया गया।

प्रशासन और सरकार ने बम फेंकने वालों की मदद की- अखिलेश
इस घटना के बाद अखिलेश ने प्रेस कॉन्फ्रेंस में कहा- हमने इलाहाबाद यूनिवर्सिटी का कार्यक्रम 27 दिसंबर को ही भेज दिया था ताकि कोई शिकायत हो तो उसकी जानकारी मिल जाए। भाजपा और उनके समर्थक इलाहाबाद यूनिवर्सिटी के चुनावों को अपना चुनाव समझ रहे थे। सरकार और सभी मंत्री इस चुनाव में शामिल हो रहे थे। मुख्यमंत्री जब भी यूनिवर्सिटी जाते थे, तब वह जरूर अपने लोगों को यह आदेश दे रहे होंगे कि इन चुनावों में किसी भी कीमत पर हार ना हो। अब जब शपथ ग्रहण समारोह होने जा रहा था, तब वहां तीन बम फेंके गए। जहां मंच था, वहां पर विस्फोट हुए। सरकार और प्रशासन ने उन लोगों के खिलाफ कोई एक्शन नहीं लिया, जिन्होंने ये काम किया। लोकतंत्र में यह पहली बार हुआ है कि सरकार और प्रशासन ऐसे लोगों की मदद कर रहे हैं, जो किसी कार्यक्रम में बम फेंक रहे हैं।

भारत की राजनीति का वो दुर्लभ दिन जब विपक्ष अपनी विपक्ष की भूमिका चाहते हुए भी नहीं नहीं निभा पाया और न चाहते हुए भी वह सरकार का समर्थन करने के लिए मजबूर हो गया, इसे क्या कहा जाए? कांग्रेस यह कह कर क्रेडिट लेने की असफल कोशिश कर रही है कि बिना उसके समर्थन के भाजपा इस बिल को पास नहीं करा सकती थी लेकिन सच्चाई यह है कि बाज़ी तो मोदी ही जीतकर ले गए हैं। “आरक्षण",  देश के राजनैतिक पटल पर वो शब्द, जो पहले एक सोच बना फिर उसकी सिफारिश की गई जिसे, एक संविधान संशोधन बिल के रूप में प्रस्तुत किया गया, और अन्ततः एक कानून बनाकर देश भर में लागू कर दिया गया।
  
आजाद भारत के राजनैतिक इतिहास में 1990 और 2019 ये दोनों ही साल बेहद अहम माने जाएंगे। क्योंकि जब 1990 में तत्कालीन प्रधानमंत्री वीपी सिंह ने देश भर में भारी विरोध के बावजूद मंडल आयोग की रिपोर्ट के आधार पर "जातिगत आरक्षण" को लागू किया था तो उनका यह कदम देश में एक नई राजनैतिक परंपरा की नींव बन कर उभरा था। समाज के बंटवारे पर आधारित जातिगत विभाजित वोट बैंक की राजनीति की नींव।
 
इस लिहाज से 8 जनवरी 2019 की तारीख़ उस ऐतिहासिक दिन के रूप में याद की जाएगी जिसने उस राजनीति की नींव ही हिला दी। क्योंकि मोदी सरकार ने ना केवल संविधान में संशोधन करके, आर्थिक आधार पर आरक्षण दिए जाने का मार्ग प्रशस्त कर दिया है बल्कि भारत की राजनीति की दिशा बदलने की एक नई नींव भी रख दी है। यह जातिगत वोटबैंक आधारित राजनीति पर केवल राजनैतिक ही नहीं कूटनीतिक विजय भी है। इसे मोदी की कूटनीतिक जीत ही कहा जाएगा कि जिस वोटबैंक की राजनीति सभी विपक्षी दल अब तक कर रहे थे, आज खुद उसी का शिकार हो गए। यह वोटबैंक का गणित ही था कि देश में आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों के लिए 10% आरक्षण लागू करने हेतु 124वाँ संविधान संशोधन विधेयक राजयसभा में भाजपा अल्पमत में होते हुए भी पारित करा ले जाती है। मोदी सरकार की हर नीति का विरोध करने वाला विपक्ष, मोदी को रोकने के लिए अपने अपने विरोधों को भुलाकर महागठबंधन तक बना कर एक होने वाला विपक्ष आज समझ ही नहीं पा रहा कि वो मोदी के इस दांव का सामना कैसे करे। अब खास बात यह है कि आरक्षण का लाभ किसी जाति या धर्म विशेष तक सीमित न होकर हिन्दू मुस्लिम सिख ईसाई पारसी और अन्य अनारक्षित समुदायों को मिलेगा। यह देश के समाज की दिशा और सोच बदलने वाला वाकई में एक महत्वपूर्ण कदम है।
 
यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि इस देश में हर विषय पर राजनीति होती है। शायद इसलिए कुछ लोगों का कहना है कि आर्थिक आधार पर आरक्षण देने का यह फैसला एक राजनैतिक फैसला है जिसे केवल आगामी लोकसभा चुनावों में राजनैतिक लाभ उठाने के उद्देश्य से लिया गया है। तो इन लोगों से एक प्रश्न कि देश के वर्तमान परिदृश्य में कौन-सा ऐसा राजनैतिक दल है जो राजनैतिक नफा नुकसान देखे बिना कोई कदम उठाना तो दूर की बात है, एक बयान भी देता है ? कम से कम वर्तमान सरकार का यह कदम विपक्षी दलों के उन गैर जिम्मेदाराना कदमों से तो बेहतर ही है जो देश को धर्म जाति सम्प्रदाय के नाम पर बांट कर समाज में वैमनस्य बढ़ाने का काम करते हैं और नफरत की राजनीति करते हैं। याद कीजिए 1990 का वो साल जब ना सिर्फ हमारे कितने जवान बच्चे आरक्षण की आग में झुलसे थे बल्कि आरक्षण के इस कदम ने हमारे समाज को भी दो भागों में बांट कर एक दूसरे के प्रति कटुता उत्पन्न कर दी थी। इसका स्पष्ट उदाहरण हमें तब देखने को मिला था जब अभी कुछ माह पहले ही सरकार ने एट्रोसिटी एक्ट में बदलाव किया था और देश के कई हिस्से हिंसा की आग में जल उठे थे।
 
कहा जा सकता है कि जातिगत भेदभाव की सामाजिक खाई कम होने के बजाए बढ़ती ही जा रही थी। लेकिन अब जाति या सम्प्रदाय सरीखे सभी भेदों को किनारे करते हुए केवल आर्थिक रूप से पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण ने सामाजिक न्याय की दिशा में एक नई पहल का आगाज़ किया है। समय के साथ चलने के लिए समय के साथ बदलना आवश्यक होता है। आज जब आरक्षण की बात हो रही हो तो यह जानना भी जरूरी है कि आखिर इसकी आवश्यकता क्यों पड़ी।
दरअसल जब देश में आरक्षण की व्यवस्था लागू की गई थी तो उसके मूल में समाज में पिछड़े वर्गों के साथ होने वाले अत्याचार और भेदभाव को देखते हुए उनके सामाजिक और शैक्षणिक पिछड़ेपन को दूर करने के लिए मंडल आयोग द्वारा कुछ सिफारिशें की गई थीं जिनमें से कुछ एक को संशोधन के साथ अपनाया गया था। लेकिन आज इस प्रकार का सामाजिक भेदभाव और शोषण भारतीय समाज में लगभग नहीं के बराबर है। और आज आरक्षण जैसी सुविधा के अतिरिक्त देश के इन शोषित दलित वंचित वर्गों के साथ किसी भी प्रकार के भेदभाव अथवा अन्याय को रोकने के लिए अनेक सशक्त एवं कठोर कानून मौजूदा न्याय व्यवस्था में लागू हैं जिनके बल पर सामाजिक पिछड़ेपन की लड़ाई हम लोग काफी हद तक जीत चुके हैं। अब लड़ाई है शैक्षणिक एवं आर्थिक पिछड़ेपन की। इसी बात को ध्यान में रखते हुए सरकार ने मौजूदा आरक्षण व्यवस्था से छेड़छाड़ नहीं करते हुए इसकी अलग व्यवस्था की है जो अब समाज में आरक्षण के भेदभाव को ही खत्म कर के एक सकारात्मक माहौल बनाने में निश्चित रूप से मददगार होगा। चूंकि अब समाज का हर वर्ग ही आरक्षित हो गया है तो आए दिन समाज के विभिन्न वर्गों द्वारा आरक्षण की मांग और राजनीति पर भी लगाम लगेगी।
 
और अब आखिरी बात जो लोग इसका विरोध यह कहकर कर रहे हैं कि सरकार के इस कदम का कोई मतलब नहीं है क्योंकि नौकरियाँ ही नहीं हैं उनसे एक सवाल। जब मराठा, जाट, पाटीदार, मुस्लिम, आदि आरक्षण की मांग यही लोग करते हैं तब इनका यह तर्क कहाँ चला जाता है ?
 
- डॉ. नीलम महेंद्र
समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी की प्रेस कांफ्रेस हो चुकी है। दोनों 38−38 सीटों पर चुनाव लड़ेगें। मायावती ने भाजपा और कांग्रेस को तौला तो एक ही तराजू पर लेकिन अमेठी में राहुल गांधी ओर और रायबरेली सोनिया गांधी के खिलाफ गठबंधन का कोई प्रत्याशी नहीं उतारे जाने की बात कहकर कई संकेत भी दे दिए। कांग्रेस से गठबंधन नहीं होने की बड़ी वजह मायावती ने यही बताई कि कांग्रेस का वोट उनके पक्ष में ट्रांसफर नहीं होता है, संकेत की भाषा को समझा जाये तो उन्हें लगता है कांग्रेस को गठबंधन में शामिल करने से उसका वोट भाजपा के खाते में चला जाता है। मायावती अखिलेश की संयुक्त प्रेस कांफ्रेस के साथ ही यह भी साफ हो गया कि राष्ट्रीय लोकदल को लेकर मायावती में कोई उत्साह नहीं है, जबकि अखिलेश भी कुछ बोलने से कतराते दिखे। गठबंधन को लेकर आज काफी कौतुहल तो दिखाई दिया, लेकिन यह नहीं भुलना चाहिए कि हर चुनाव का अलग मिजाज होता है। सपा−बसपा की जोड़ी भाजपा को टक्कर तो जरूर देगी, लेकिन चुनाव एक तरफा हो जायेगा, इसकी उम्मीद नहीं की जानी चाहिए। हॉ, यह बात भी साफ हो गई है कि उत्तर प्रदेश में बसपा सुप्रीमों मायावती निर्विवाद रूप से मोदी के खिलाफ सबसे बड़ी नेत्री बनकर उभरी हैं तो राहुल गांधी की हैसियत चौथे नंबर पर है।
 
बहरहाल, बसपा प्रमुख मायावती और समाजवादी पार्टी के नेता अखिलेश यादव ने एक साथ चुनाव लड़ने की घोषणा करके उत्तर प्रदेश की सियासत में 25 वर्षो के बाद एक बार फिर इतिहास दोहरा दिया । 1993 में जब बीजेपी राम नाम की आंधी में आगे बढ़ रही थी तब दलित चिंतक और बसपा नेता कांशीराम एवं समाजवादी पार्टी के तत्कालीन प्रमुख मुलायम सिंह यादव ने ठीक इसी प्रकार से उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव फतह के लिये हाथ मिलाकर भाजपा को चारो खाने चित कर दिया था। उस समय नारा भी लगा था,' मिले मुलायम और कांशीराम, हवा में उड़ गये जय श्री राम। 'खास बात यह है कि तब भी अयोध्या मंदिर−मस्जिद विवाद में सुलग रही थी और आज भी कमोवेश ऐसे ही हालात हैं। बस फर्क इतना भर है कि 1993 में कमंडल (अयोध्या विवाद) के सहारे आगे बढ़ रही बीजेपी को रोकने के लिए समाजवादी पार्टी के उस समय के अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव और बीएसपी सुप्रीमो कांशीराम ने हाथ मिलाया था तो 25 वर्षो बाद 2019 के लोकसभा चुनाव के लिये उत्तर प्रदेश में कांशीराम और मुलायम की जगह उनके उत्ताराधिकारी मायावती और अखिलेश यादव गठबंधन की रहा पर आगे बढ़ रहे हैं। दोनों नेताओं को लगता है कि साथ चलने से वर्ष 2014 के लोकसभा चुनावों और 2017 के विधानसभा चुनाव की जैसी दुर्गित को रोका जा सकता है।
 
सपा−बसपा इस बात का अहसास राज्य में तीन लोकसभा सीटों पर हुए उप−चुनाव जीत जीत कर करा भी चुके हैं। इस साल के मध्य से कुछ पूर्व होने वाले लोकसभा चुनाव में अगर वोटिंग पैटर्न उप−चुनावों जैसा ही रहा तो सपा−बसपा गठबंधन उत्तर प्रदेश में भाजपा को 35−40 सीटों  पर समेट सकता है। सपा−बसपा की राह इस लिये भी आसान लग रही है क्योंकि यहां कांग्रेस फैक्टर बेहद कमजोर है, इसी के चलते सपा−बसपा ने गठबंधन से कांग्रेस को दूर भी रखा।
 
गौरतलब हो वर्ष 2014 के लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश की 80 सीटों में से बीजेपी गठबंधन को 73 सीटों पर जीत हासिल हुई थी,जिसमें उसकी सहयोगी अपना दल की भी दो सीटें शामिल थीं। वहीं समाजवादी पार्टी 5 सीट और कांग्रेस महज 2 सीटों पर सिमट गई थी। बसपा का तो खाता भी नहीं खुल पाया था। करीब पांच वर्षो के बाद आज भी लोकसभा में बसपा का प्रतिनिधित्व नहीं है। राजनीति के जानकार सपा−बसपा गठबंधन की बढ़त की जो संभावना व्यक्त कर रहे हैं। उसमें वह वर्ष 2014 में अपना दल और बीजेपी तथा सपा−बसपा के वोट शेयर का तुलनात्मक अध्ययन को आधार बना रहे हैं। आगामी लोकसभा चुनाव के मद्देनजर हर सीट पर जीत का आकलन किया जाये तो पता चलता है कि अगर एसपी−बीएसपी साथ आए तो वह आधी यानी करीब 41 लोकसभा सीटों पर भाजपा को हरा सकते हैं। 
 
 
यह सिक्के का एक पहलू है। दूसरे पहलू पर नजर दौड़ाई जाए तो लोकसभा की तीन सीटों पर हुए उप−चुनाव के समय वोटिंग का प्रतिशत कम रहा था। माना यह गया कि भाजपा का कोर वोटर वोटिंग के लिये निकला ही नहीं था। मगर आम चुनाव के समय हालात दूसरे होंगे। फिर हमेशा चुनावी हालात एक जैसे नहीं होते हैं। मोदी सरकार सभी वर्ग के लोगों को लुभाने के लिए गरीब अगड़ों को दस प्रतिशत आरक्षण का एतिहासिक फैसला कर चुकी है। यूपी में आरक्षण कोटे में कोटा का खेल करके बीजेपी सपा−बसपा के दलित−पिछड़ा वोट बैंक में सेंधमारी की कोशिश कर रही है। व्यापारियों को जीएसटी में राहत, तीन तलाक पर एक बार फिर अध्यादेश लाना भी मोदी सरकार की सोची समझी रणनीति का ही हिस्सा है। आने वाले दिनों में  आयकर की सीमा बढ़ाकर मध्य वर्ग को खुश किया जा सकता है। किसानों के लिये भी कई महत्वपूर्ण घोषणा हो सकती हैं। मोदी ने अपर कास्ट को आरक्षण का जो मास्टर स्ट्रोक चला है, वह आम चुनाव में अपना असर दिखा सकता है। इसके अलावा भी यह ध्यान रखना होगा कि लोग किन−किल मुद्दों पर वोट करेंगे।यह सच है कि साल 2014 में दस वर्ष पुरानी कांग्रेस गठबंधन वाली यूपीए सरकार को लेकर मतदाताओं में जबर्दस्त रोष था और विकल्प के रूप में उनके सामने प्रधानमंत्री पद के लिये मोदी जैसा दावेदार मौजूद था।
 
2019 में मोदी सरकार का कामकाज मतदाताओं के सामने मुख्य मुद्दा होगा, लेकिन सवाल यह भी रहेगा कि मोदी नहीं तो कौन? फिलहाल तो विपक्ष के पास मोदी के समकक्ष तो दूर आस−पास भी कोई नेता नजर नहीं आता है। खासकर कांग्रेस के संभावित प्रधानमंत्री पद के दावेदार राहुल गांधी एक बड़ा ड्रा बैक नजर आ रहे हैं, जिसकी सोच का दायरा काफी छोटा और संक्रीण है।
 
यहां यह भी ध्यान देना होगा कि बीएसपी हो या फिर समाजवादी पार्टी गठबंधन के बाद सपा−बसपा के जिन नेताओं के चुनाव लड़ने की उम्मीदों पर पानी फिरेगा, वह चुप होकर नहीं बैठेंगें। यह बगावत कर सकते हैं। चुनाव नहीं भी लड़े तो पार्टी को नुकसान पहुंचाने से इन्हें गुरेज नहीं होगा। इसके अलावा यह भी देखा गया है कि हर पार्टी में ऐसे वोटरों की भी संख्या अच्छी−खासी होती है जो किसी और दल के उम्मीदवार के पक्ष में मतदान करने से कतराता है। बात यहीं तक सीमित नहीं है। इसके अलावा एक हकीकत यह भी है कि योगी के सत्ता में आने से पहले समाजवादी पार्टी और बसपा के बीच ही सत्ता का खेल चलता था। ऐसे में दोनों पार्टियों के तमाम नेता सत्ता बदलने पर एक−दूसरे के खिलाफ मोर्चा खोल देते थे, जिसमें अपने हित साधने के लिये आपस में मारकाट से लेकर जमीनों पर कब्जा, खनन−पटटों के लिये खूनी खेल तक खेला जाता था। ऐसे में सपा के कुछे नेता बसपा के पक्ष में अपने समर्थको से मतदान नहीं कराएं तो किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए। ऐसे ही हालात बसपा में भी हैं। इसी प्रकार से पश्चिमी उत्तर प्रदेश में रालोद मतदाता बसपा के पक्ष में वोट नहीं करना चाहते। यहां जाट और जाटव (दलित) हमेशा विरोधी खेमें में खड़े रहते हैं। सपा−बसपा के जिन नेताओं को टिकट नहीं मिलेगा, वह बागी रूख अख्तियार करने के अलावा भाजपा नेताओं से भी हाल मिला सकते हैं।
 
कुछ राजनीतिक विश्लेषक साल 1993 के विधानसभा चुनावों का हवाला देते हैं जब सपा−बसपा ने मिलकर चुनाव लड़ा था। इस चुनाव में भाजपा और सपा−बसपा ने लगभग बराबर सीटें हासिल की थीं। तब उत्तराखंड यूपी का हिस्सा था और बीजेपी ने वहां 19 सीटें जीती थीं और कांग्रेस भी यहां इतनी दयनीय स्थिति में नहीं थी। तब कुर्मी और राजभर जैसी ओबीसी जातियों का प्रतिनिधि करने वाले कई नेता जो तब बसपा में थे, अब भाजपा के साथ खड़े हैं। मोदी जैसा गणितिज्ञ चेहरा भी भाजपा के पास है, जो आने वाले दिनों में वोटरों को लुभाने के लिये कई सौगातों की बरसात कर सकते हैं। फिर भी 1993 के सहारे सपा−बसपा नेता हौसलाफजाई तो कर ही सकते हैं।
 
- अजय कुमार

लखनऊ. लोकसभा चुनाव में सपा-बसपा के गठबंधन के ऐलान के बाद रविवार को कांग्रेस ने भी साफ कर दिया कि पार्टी उत्तरप्रदेश की सभी 80 सीटों पर अकेले चुनाव लड़ेगी। कांग्रेस नेता गुलाम नबी आजाद ने कहा कि हमारी तैयारी पूरी है। हम सभी सीटों पर चुनाव लड़ेंगे। उन्होंने कहा कि भाजपा को राष्ट्रीय स्तर पर केवल अध्यक्ष राहुल गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस ही हरा सकती है।
इससे पहले शनिवार को सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव और बसपा सुप्रीमों ने प्रेस कॉन्फ्रेंस कर गठबंधन का ऐलान किया था। उप्र में दोनों पार्टियां 38-38 सीटों पर चुनाव लड़ेंगी। हालांकि, मायावती ने कहा था कि वे कांग्रेस से गठबंधन किए बिना भी उनके लिए अमेठी और रायबरेली सीट पर प्रत्याशी नहीं उतारेंगे। अमेठी से राहुल गांधी और रायबरेली से सोनिया गांधी सांसद हैं।
कांग्रेस ने टुकड़ों में बंटे देश को अखंड भारत बनाया- आजाद
आजाद ने कांग्रेस की उपलब्धियां गिनाते हुए कहा कि हमारी पार्टी ने ही टुकड़े-टुकड़े में बंटे भारत को अखंड भारत बनाया। उन्होंने कहा कि देश को आजादी दिलाने में कांग्रेस का महत्पवूर्ण योगदान रहा है। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी से लेकर नेहरू तक सभी ने अपना-अपना योगदान दिया, जिसकी वजह से देश अखंड बन पाया।
अखिलेश-माया को गठबंधन का हक: राहुल गांधी
राहुल ने दुबई में प्रेस कॉन्फ्रेंस के दौरान गठबंधन के सवाल को लेकर शनिवार को कहा था, ''सपा-बसपा को गठबंधन का हक है, लेकिन वहां पर कांग्रेस अपनी विचारधारा की लड़ाई पूरे दम से लड़ेगी। मायावती-अखिलेश ने जो फैसला लिया, मैं उसका आदर करता हूं। ये उनका फैसला है। कांग्रेस को उत्तर प्रदेश में खुद को खड़ा करना है। हम ये कैसे करेंगे, यह हमारे ऊपर है। हमारी लड़ाई भाजपा की विचारधारा से है और हम यूपी में पूरे दम से लड़ेंगे।''

लोकसभा ने एक बहुत ही विवादास्पद मुद्दे पर विधेयक पारित कर दिया। इस नागरिकता विधेयक का मूल उद्देश्य पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बांग्लादेश के गैर-मुस्लिम लोगों को भारतीय नागरिकता देना है। अर्थात् इन देशों का यदि कोई भी नागरिक हिंदू, ईसाई, सिख, बौद्ध, जैन, यहूदी हो और वह आकर भारत में बसना चाहे तो वैसी छूट मिलेगी। उनसे कानूनी दस्तावेज वगैरह नहीं मांगे जाएंगे। दूसरे शब्दों में भारत सरकार हर तरह से उनकी मदद करेगी। वैसे तो इस कानून का भारत में सभी को स्वागत करना चाहिए। उसके दो कारण हैं। पहला तो यह कि ये तीनों देश- अफगानिस्तान, पाकिस्तान और बांग्लादेश किसी जमाने में भारत ही थे। इन क्षेत्रों में मुसलमान और गैर-मुसलमान सदियों से साथ-साथ रहते रहे हैं लेकिन भारत-विभाजन और काबुल में तालिबान राज के बाद इन देशों में गैर-मुसलमानों का जीना आसान नहीं रहा।
 
पाकिस्तान और बांग्लादेश के हिंदू विशेष तौर से भारत आकर रहना चाहते हैं। यदि भारत उनके लिए अपनी बांहें पसारता है तो इसमें कुछ बुराई नहीं है। यह स्वाभाविक ही है लेकिन असम गण परिषद और प. बंगाल की तृणमूल कांग्रेस जैसी पार्टियों ने इस विधेयक के विरुद्ध संग्राम छेड़ दिया है। अगप ने तो असम में भाजपा से अपना गठबंधन ही तोड़ दिया है। इसका कारण यह नहीं है कि ये दोनों संगठन हिंदू विरोधी हैं या ये बांग्लादेशी हिंदुओं के दुश्मन हैं। ऐसा नहीं है। सच्चाई यह है कि इन दोनों प्रदेशों में इन राजनीतिक दलों को डर है कि इस कदम से उनका हिंदू वोट बैंक अब खिसककर भाजपा के पाले में जा बैठेगा।
 
उनका यह डर सही है लेकिन हम यह न भूलें कि ये ही संगठन मुस्लिम वोट बैंक पटाने के चक्कर में असम और प. बंगाल के नागरिकता रजिस्टर में बांग्ला मुसलमानों को धंसाने के लिए तत्पर रहे हैं। याने यह मामला हिंदू-मुसलमान का उतना नहीं है, जितना कुर्सी का है। पड़ोसी देशों के सभी नागरिक भी भारत मां की ही संतान हैं। अभी 72 साल पहले तक पाकिस्तान और बांग्लादेश भारत के ही अंग थे। पिछले चार-पांच सौ साल पहले तक नेपाल, भूटान, बर्मा, अफगानिस्तान, श्रीलंका आदि सभी पड़ौसी देश भारत ही कहलाते थे। इसीलिए पड़ौसी देशों के दुखी नागरिकों के बारे में भारत का रवैया हमेशा जिम्मेदाराना ही होना चाहिए। जब 1971 में लाखों बांग्ला मुसलमान भारत में आ गए तो भारत ने उनका स्वागत किया या नहीं ? बेहतर यही है कि पड़ौसी राष्ट्रों के संकटग्रस्त लोगों को, चाहे वे किसी भी मजहब, जाति या वर्ग के हों, हम उन्हें अपने बड़े परिवार का हिस्सा ही समझें।
 

 

-डॉ. वेदप्रताप वैदिक
नरेन्द्र मोदी सरकार ने आर्थिक निर्बलता के आधार पर दस प्रतिशत आरक्षण देने का जो फैसला किया है वह निश्चित रूप से साहसिक कदम है, एक बड़ी राजनीतिक पहल है। इस फैसले से आर्थिक असमानता के साथ ही जातीय वैमनस्य को दूर करने की दिशा में नयी फिजाएं उद्घाटित होंगी। निश्चित ही मोदी सरकार ने आर्थिक तौर पर कमजोर लोगों के लिए यह आरक्षण की व्यवस्था करके केवल एक सामाजिक जरूरत को पूरा करने का ही काम नहीं किया है, बल्कि आरक्षण की राजनीति को भी एक नया मोड़ दिया है। इस फैसले से आजादी के बाद से आरक्षण को लेकर हो रहे हिंसक एवं अराजक माहौल पर भी विराम लगेगा। देशभर की सवर्ण जातियां आर्थिक आधार पर आरक्षण की मांग करती आ रही हैं।
 
 
भारतीय संविधान में आरक्षण का आधार आर्थिक निर्बलता न होकर सामाजिक भेदभाव व शैक्षणिक पिछड़ापन है। आर्थिक रूप से कमजोर सवर्णों को नौकरियों में आरक्षण देने का फैसला एक सकारात्मक परिवेश का द्योतक है, इससे आरक्षण विषयक राजनीति करने वालों की कुचेष्टाओं पर लगाम लग सकेगी। आरक्षण की नीति सामाजिक उत्पीड़ित व आर्थिक दृष्टि से कमजोर लोगों की सहायता करने के तरीकों में एक है, ताकि वे लोग बाकी जनसंख्या के बराबर आ सकें। पर जाति के आधार पर आरक्षण का निर्णय सभी के गले कभी नहीं उतरा। संविधान एवं राजनीति की एक बड़ी विसंगति एवं विडम्बना को दूर करने में यह फैसला निर्णायक भूमिका का निर्वाह करेगा। इससे उन सवर्णों को बड़ा सहारा मिलेगा जो आर्थिक रूप से विपन्न होने के बावजूद आरक्षित वर्ग से जुड़ी सुविधा पाने से वंचित रहे हैं। इसके चलते वे स्वयं को असहाय-उपेक्षित तो महसूस कर ही रहे थे, उनमें आरक्षण व्यवस्था को लेकर गहरा असंतोष एवं आक्रोश भी व्याप्त था, जो समय-समय पर हिंसक रूप में व्यक्त भी होता रहा है। हम जात-पात का विरोध करते रहे हैं, जातिवाद समाप्त करने का नारा भी देते रहे हैं और आरक्षण भी दे रहे हैं। सही विकल्प वह होता है, जो बिना वर्ग संघर्ष को उकसाये, बिना असंतोष पैदा किए, सहयोग एवं सौहार्द की भावना पैदा करता है। संभवतः मोदी की पहल से यह सकारात्मक वातावरण बन सकेगा, जिसका स्वागत होना ही चाहिए।


 
 
जातिवाद सैंकड़ों वर्षों से है, पर इसे संवैधानिक अधिकार का रूप देना उचित नहीं माना गया है। हालांकि राजनैतिक दल अपने ''वोट स्वार्थ'' के कारण इसे नकारते नहीं, पर स्वीकार भी नहीं कर पा रहे हैं। और कुछ नारे, जो अर्थ नहीं रखते सभी पार्टियां लगाती रही हैं। इसका विरोध आज नेता नहीं, जनता कर रही है। वह नेतृत्व की नींद और जनता का जागरण है। यह कहा जा रहा है कि आर्थिक आधार पर आरक्षण का प्रावधान विधान में नहीं है। पर संविधान का जो प्रावधान राष्ट्रीय जीवन में विष घोल दे, जातिवाद के वर्ग संघर्ष की स्थिति पैदा कर दे, वह सर्व हितकारी कैसे हो सकता है? पं. नेहरू व बाबा साहेब अम्बेडकर ने भी सीमित वर्षों के लिए आरक्षण की वकालत की थी तथा इसे राष्ट्रीय जीवन का स्थायी पहलू न बनने का कहा था। डॉ. लोहिया का नाम लेने वाले शायद यह नहीं जानते कि उन्होंने भी कहा था कि अगर देश को ठाकुर, बनिया, ब्राह्मण, शेख, सैयद में बांटा गया तो सब चैपट हो जाएगा। जाति विशेष में पिछड़ा और शेष वर्ग में पिछड़ा भिन्न कैसे हो सकता है? गरीब की बस एक ही जाति होती है और वह है ''गरीब''।
 
गरीब सवर्णों को सरकारी नौकरियों में आरक्षण देने की मांग कोई नई नहीं है। यह हमेशा ही जहां-तहां उठती रही है, यहां तक कि दलितों की नेता मानी जाने वाली मायावती भी इसके पक्ष में खड़ी दिखाई दी हैं। लेकिन पहली बार इसे बड़े पैमाने पर लागू करने का फैसला संविधान संशोधन के वादे के साथ हुआ है। सुप्रीम कोर्ट में इसके सामने जो बाधाएं आएंगी, उसे सरकार भी अच्छी तरह समझती ही होगी। लेकिन उन चुनौतियों से पार पाकर इसे अमल में लाना हमारे राष्ट्र के लिये एक नई सुबह होगी।
 
जो वोट की राजनीति से जुड़े हुए हैं, वे आरक्षण की नीति में बंटे हुए हैं। लेकिन यह पहली बार है, जब किसी तबके की कमजोर आर्थिक स्थिति को आरक्षण से जोड़ा गया है। अभी तक देश में दलितों, आदिवासियों और पिछड़ी जातियों को जो आरक्षण मिलता रहा है, उसमें यह पैमाना नहीं था। आरक्षण के बारे में यह धारणा रही है कि यह आर्थिक पिछड़ापन दूर करने का औजार नहीं है। यह दलित, आदिवासी या पिछड़ी जातियों का सशक्तीकरण करके उन्हें सामाजिक रूप से प्रतिष्ठा दिलाने का मार्ग है। आरक्षण को सामाजिक नीति की तरह देखा जाता रहा है, साथ ही यह भी माना जाता रहा है कि आर्थिक पिछड़ापन दूर करने का काम आर्थिक नीतियों से होगा। अब जब आरक्षण में आर्थिक आधार जुड़ रहा है, तो जाहिर है कि आरक्षण को लेकर मूलभूत सोच भी कहीं न कहीं बदलेगी और यह बदलाव राष्ट्रीय चेतना को एक नया परिवेश देगा। क्योंकि जाति-पाति में विश्वास ने देश को जोड़ने का नहीं, तोड़ने का ही काम किया है। हमें जातिविहीन स्वस्थ समाज की रचना के लिए संकल्पित होने की जरूरत है। क्योंकि भारतीयता में एवं भारतीय संस्कृति में ''मनुष्य जन्म से नहीं कर्म से छोटा-बड़ा होता है।''
 
 
एक बड़ा प्रश्न यह भी है कि दस प्रतिशत आर्थिक आरक्षण के फैसले को अमली जामा पहनाया जा सकेगा या नहीं, लेकिन इतना अवश्य है कि मोदी सरकार के इस फैसले ने देश की राजनीतिक सोच एवं मानसिकता को एक झटके में बदलने का काम किया है। मोदी सरकार को ही नहीं, समूचे राष्ट्र को इसकी सख्त जरूरत थी। आर्थिक आधार पर आरक्षण के फैसले ने यकायक भारतीय राजनीति की सोच के तेवर और स्वर बदल दिए हैं। निश्चित ही सभी राजनीतिक दल इस विषयक फैसले को लेकर अपना स्वतंत्र नजरिया रखते हैं, और इस दिशा में आगे बढ़ना चाहते रहे हैं, इसलिये वे इस फैसले का विरोध करके राजनीतिक नुकसान नहीं करना चाहेंगे। वे शायद ही यह जोखिम उठायें, इसलिये इसके मार्ग की एक बड़ी बाधा राजनीतिक विरोध तो दिखाई नहीं दे रही है। आर्थिक आधार पर आरक्षण की संवैधानिक स्थितियां क्या बनेंगी, यह भविष्य के गर्भ में हैं, लेकिन इतना तय है कि न्यायिक स्थितियां भी इसकी अनदेखी नहीं कर पाएंगी, क्योंकि संविधान का मूल उद्देश्य लोगों की भलाई है और वह इस देश के लोगों के लिये बना है, न कि लोग उसके लिये बने हैं।
 
 
आरक्षण पर नये शब्दों को रचने वालों! इन शब्दजालों से स्वयं निकल कर देश में नये शब्द की रचना करो और उसी अनुरूप मानसिकता बनाओ। वह शब्द है....मंगल। सबका मंगल हो। राष्ट्रीय चरित्र का, गरीबों का, जीवन में नैतिकता व नीतियों में प्रामाणिकता का मंगलोदय हो। इसके लिये पहल मोदी ने की है तो उसका लाभ भी उनको ही मिलेगा। 
 
-ललित गर्ग
नया वर्ष हर व्यक्ति के लिए बीते हुए वर्ष की सफलताओं और उपलब्धियों के साथ-साथ कमियों और गलतियों का मूल्यांकन करने का समय है। यह हमें अपने आप को भावी वर्ष के लिए योजना बनाने, कार्य करने तथा आगामी वर्ष के लिए नये लक्ष्य तय करने का अवसर प्रदान करता है। नए साल की शुरुआत में हर व्यक्ति को भावी वर्ष के लिए नए लक्ष्य बनाने चाहिए और उन्हें पूरा करने की रणनीति बनानी चाहिए। जिससे कि अवसरों को सफलता में बदला जा सके। नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में केंद्र सरकार ने बीते वर्ष में अनेक उपलव्धियाँ हासिल की हैं, साथ-साथ अनेक सफलताएं भी पायी हैं। इन सफलताओं और उपलब्धियों में मोदी सरकार को अपनी गलतियों और कमियों पर पर्दा नहीं डालना चाहिए। बल्कि अपनी गलतियों और कमियों का मूल्यांकन करके भावी वर्ष के लिए रणनीति बनानी चाहिए। जिससे कि गलतियों और कमियों को सुधारकर अवसरों में बदला जा सके।
 
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बीते वर्ष में जिस प्रकार से अनेक चुनौतियों का सामना किया, उसी प्रकार भावी वर्ष में भी चुनौतियों का सामना करना पड़ेगा। कहा जाए तो साल 2019 में नरेंद्र मोदी को अनेक अग्नि परीक्षाओं से गुजरना पड़ेगा। 5 राज्यों (मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़, तेलंगाना और मिजोरम) में हार के बाद सबसे पहली अग्नि परीक्षा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए 2019 का लोकसभा चुनाव होगा। 2019 के लोकसभा चुनाव से पहले भाजपा नरेंद्र मोदी और अपने मुख्यमंत्रियों के नेतृत्व में मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में अपनी सत्ता गंवा चुकी है और तीनों ही राज्यों में मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस की सरकार बन चुकी है। मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ की बात की जाए तो यहाँ भाजपा की पिछले पंद्रह साल से शिवराज सिंह चैहान और डॉ. रमन सिंह के नेतृत्व में सरकारें थीं। मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में शिवराज सिंह चैहान और डॉ. रमन सिंह ने काफी विकास के काम किये इसके बावजूद भी दोनों राज्यों में भाजपा को सत्ता विरोधी लहर में हार का सामना करना पड़ा।
अगर राजस्थान की बात की जाए तो राजस्थान ने अपने इतिहास को दोहराते हुए इस बार कांग्रेस को मौका दिया है क्योंकि पिछले कई सालों से राजस्थान का इतिहास रहा है की यहाँ पांच साल भाजपा की सरकार रहती है तो उसके पांच साल बाद कांग्रेस की सरकार रहती है। ऐसा नहीं है कि राजस्थान में भाजपा ने मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे के नेतृत्व में वहाँ विकास के कार्य नहीं किये, पिछले 5 सालों में वसुंधरा सरकार ने वहाँ काफी विकास के कार्य किये लेकिन सत्ता विरोधी लहर ने राजस्थान में फिर अपने इतिहास को दोहराया है। तेलंगाना की बात की जाए तो वहाँ के॰ चंद्रशेखर राव (केसीआर) तेलंगाना राज्य बनाने के बाद लगातार दूसरी बार मुख्यमंत्री बने हैं वहाँ केसीआर की पार्टी तेलंगाना राष्ट्र समिति ने 119 सीटों में से 88 सीटें जीती हैं।
 
लोकसभा का सेमीफाइनल माने जा रहे इन 5 राज्यों (मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़, तेलंगाना और मिजोरम) के चुनाव में भाजपा पूरी तरह से असफल होती दिखी। बेशक कांग्रेस पार्टी ने राहुल गाँधी के नेतृत्व में मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ में अपनी सरकार बना ली हो लेकिन आज भी कांग्रेस भाजपा से राष्ट्रीय स्तर पर प्रतिस्पर्धा करने की स्थिति में नहीं है। इसका प्रमुख कारण नरेंद्र मोदी जैसे विराट व्यक्तित्व के सामने एक दमखम वाले नेता का नहीं होना है। अभी कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गाँधी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से प्रतिस्पर्धा करने की स्थिति में नहीं हैं और न ही उनके पास नरेंद्र मोदी जैसा लम्बा अनुभव है। यही बात नरेंद्र मोदी के लिए एक प्लस पॉइंट है। आज भी विभिन्न चैनलों और एजेंसियों के सर्वेक्षण में नरेंद्र मोदी ही प्रधानमंत्री के रूप में देश के सबसे लोकप्रिय नेता हैं। बेशक भाजपा पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव हारी हो लेकिन नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता में आज भी कोई कमी नहीं आयी है। अगर ऐसी ही लोकप्रियता नरेंद्र मोदी की नए वर्ष 2019 में देखने को मिलती है तो निश्चित रूप से 2019 के संसदीय चुनावों में भाजपा को नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में कोई जीतने से कोई भी पार्टी और नेता नहीं रोक सकता।
 
अब 2019 के आगामी लोकसभा चुनावों में भाजपा की सफलता और असफलता सीधे-सीधे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की साख को प्रभावित करेगी। 2019 के लोकसभा चुनाव में जीत का सेहरा भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सिर पर सजेगा और हार का ठीकरा भी मोदी के मत्थे मढ़ा जाएगा। क्योंकि 2019 का लोकसभा चुनाव भाजपा अपने लोकप्रिय प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में ही लड़ेगी। 5 राज्यों में भाजपा को करारी हार के बाद अपनी रणनीति बदलने पर मजबूर होना पड़ा है। पहले भाजपा नेताओं के बयान आते थे कि भाजपा अजेय है लेकिन पांच राज्यों (मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़, तेलंगाना और मिजोरम) में भाजपा को हराकर जनता ने भाजपा को सबक सिखाते हुए बता दिया कि अतिआत्मविश्वास, बड़बोलापन और जरूरत से ज्यादा घमंड कभी-कभी काफी भारी पड़ जाता है। अब भाजपा के नेता भी कहने लगे हैं कि हार-जीत राजनीति का अहम् हिस्सा है। लेकिन भाजपा भी अपनी गलतियों से जल्दी सीखने वाला पार्टी है। भाजपा अब 2019 के लोकसभा के चुनाव का रण जीतने के लिए नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में एक नयी रणनीति के साथ कमर कस चुकी है।
 
2019 के लोकसभा चुनाव में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सबसे ज्यादा साख उत्तर प्रदेश में लगी है। एक तो नरेंद्र मोदी उत्तर प्रदेश के वाराणसी से सांसद हैं, साथ-साथ 2014 के लोकसभा चुनावों में नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री बनाने में सबसे बड़ी भूमिका उत्तर प्रदेश की रही है। अगर उत्तर प्रदेश में भाजपा अच्छा प्रदर्शन करती है तो नरेंद्र मोदी की साख बढ़ेगी। अगर भाजपा का लचर प्रदर्शन रहता है, तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर चारों तरफ से दवाब बढ़ेगा। उत्तर प्रदेश में भाजपा को सपा, बसपा, कांग्रेस, रालोद जैसी धुरंधर पार्टियों से भिड़ना पड़ेगा। अगर उत्तर प्रदेश में सपा और बसपा का महागठबंधन होता है तो भाजपा के लिए उत्तर प्रदेश की 80 लोकसभा सीटों को जीतने के लिए काफी जद्दोजहद करनी पड़ेगी। क्योंकि गोरखपुर, फूलपुर और कैराना के लोकसभा उपचुनाव में विपक्ष ने एकजुटता का परिचय देते हुए भाजपा को करारी शिकस्त दी। खुद उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री और उपमुख्यमंत्री (योगी आदित्यनाथ और केशव प्रसाद मौर्या) महागठबंधन के सामने अपनी-अपनी लोकसभा सीटों को भी नहीं बचा पाए। गोरखपुर और फूलपुर लोकसभा के उपचुनावों में भाजपा की हार भाजपा के लिए बड़ा सबक थी और विपक्ष के लिए आगामी 2019 के लोकसभा चुनाव में महागठबंधन बनाने लिए सन्देश थी। अगर सपा और बसपा और अन्य विपक्षी दलों का उत्तर प्रदेश में गठबंधन होता है तो भाजपा को इस चक्रव्यूह को भेदना मुश्किल हो जाएगा। क्योंकि आम मध्यम वर्ग मोदी सरकार से नोटबंदी और जीएसटी की वजह से पहले से ही नाराज चल रहा है। कहा जाए तो सरकार द्वारा आर्थिक सुधारों के लिए नोटबंदी और जीएसटी लागू करना काफी अच्छे कदम थे लेकिन मोदी सरकार नोटबंदी और जीएसटी के फायदे आम लोगों तक बताने में पूर्ण रूप से नाकाम रही है। तभी तो देश का मध्यम वर्ग मोदी सरकार से नाराज है। अभी भी नरेंद्र मोदी के लिए जनता तक अपनी योजनाओं और उसके फायदे पहुंचाने के लिए वक्त है अगर नरेंद्र मोदी अपनी इन योजनाओं के फायदे आम लोगों तक पहुंचाने में कामयाब होते हैं तो नरेंद्र मोदी के लिए 2019 का लोकसभा चुनावों का रण आसान हो जाएगा। प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी कि सबसे बड़ी खूबी यही है कि वह अपने जोरदार भाषणों से लोगों को अपनी तरफ आकर्षित करते हैं, ऐसी कला हर नेता में नहीं होती है।
 
 
नरेंद्र मोदी ने देश का प्रधानमंत्री बनने के बाद सम्पूर्ण भारत देश का विश्व स्तर पर मान बढ़ाया है। नरेंद्र मोदी का मन्त्र है ‘‘न किसी को आंख दिखाएंगे, न आंख झुकाएंगे’’ इसी मन्त्र के साथ नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भारत का अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अहम स्थान है। आज पाकिस्तान जैसे देश जिसमें आतंकवाद का पोषण किया जाता है, को विश्व स्तर पर अलग-थलग करने में नरेंद्र मोदी की कूटनीति का ही अहम योगदान है। आज नरेंद्र मोदी की कूटनीति का ही कमाल है जिससे चीन जैसे बड़े देश को डोकलाम विवाद पर अपने पैर पीछे खींचने पड़े। एक समय डोकलाम विवाद को लेकर ऐसा लग रहा था कि भारत और चीन के बीच युद्ध होकर रहेगा। लेकिन चीन की तरफ से उकसाने वाले बयान आने के बाबजूद भी नरेंद्र मोदी ने संयम से इस गतिरोध का हल निकाला। जिसका नतीजा ये रहा कि चीन को डोकलाम से अपनी सेना वापस बुलानी पड़ी। नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में पूरे विश्व में भारत की जय-जयकार हो रही है। आज नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में विश्व स्तर पर भारत की धूम मची है। इसके अलावा जब से नरेंद्र मोदी भारत के प्रधानमंत्री बने है तब से देश प्रगति के रास्ते पर जा रहा है। नरेंद्र मोदी ने प्रधानमंत्री रहते हुए अब तक दर्जनों जनमानस से जुड़ी हुई योजनाओं को लागू कराया है, जिसका सीधा-सीधा लाभ आम जनता को हो रहा है। पहली बार नरेंद्र मोदी नीति सरकार द्वारा हमारी बहादुर सेना के नेतृत्व में पाकिस्तान में घुसकर लक्षित हमले किये गये और पाकिस्तान को सख्त सन्देश दिया गया कि हिन्दुस्तान अब पाकिस्तान पोषित आतंकवाद को बिल्कुल बर्दाश्त नहीं करेगा। कश्मीर में भी अब तक भारतीय सेना द्वारा दर्जनों बड़े आतंकवादियों को मार गिराया है। कश्मीर में अलगाववादियों पर भी टेरर फंडिंग मामले में राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआईए) ने शिकंजा कसा हुआ है। ये वे लोग हैं जो कश्मीर घाटी में विध्वंसक गतिविधियों के लिए पाकिस्तान से धन लेते रहे हैं। 
 
नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भारत सरकार ने देश में कई बड़े आर्थिक सुधार किये हैं जिनमें प्रमुख रूप से नोटबंदी और देश में जीएसटी का लागू होना है। एक समय ऐसा लग रहा था कि नोटबंदी का देश में बड़े पैमाने पर विरोध होगा लेकिन विपक्ष के विरोध के बाबजूद देश की आम जनता ने नरेंद्र मोदी के नोटबंदी के फैंसले को खुशी-खुशी स्वीकार किया। नोटबंदी की वजह से ही देश में नगदीरहित लेन-देन बढ़ा है। नोटबंदी के बाद ही देश के अधिकतर लोगों में कैशलेस लेनदेन के प्रति जागरूकता आयी है। सरकार कैशलेस लेनदेन के लिए भीम एप्प भी काफी समय पहले लांच कर चुकी है, जिसने नगदीरहित लेन-देन में एक अहम् भूमिका निभाई है। आज के समय में व्यक्ति को नकद रखने कि कोई जरूरत नहीं है, आज सिर्फ आदमी के मोबाइल में भीम एप्प होना चाहिए। इसके साथ ही प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी ने देश में 01 जुलाई 2017 से जीएसटी (वस्तु एवं सेवा कर) को लागू कराया।
 
भारतीय संविधान में वस्तु एवं सेवा कर व्यवस्था को लागू करने के लिए संशोधन किया गया है। वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) को देश में लागू करा पाना भी मोदी सरकार के लिए बहुत बड़ी चुनौती थी। लेकिन मोदी सरकार ने इस चुनौती का सामना करते हुये अंततः सफलता प्राप्त की। वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) भारत की सबसे महत्वपूर्ण अप्रत्यक्ष कर सुधार योजना है। जिसका उद्देश्य राज्यों के बीच वित्तीय बाधाओं को दूर करके एक समान बाजार को बांध कर रखना है। इसके माध्यम से सम्पूर्ण देश में वस्तुओं और सेवाओं पर एकसमान कर लगाया जा रहा है। इससे देश के सभी नागरिकों और व्यापारियों को सीधा-सीधा फायदा मिल रहा है और कालाबाजारी तथा चोरी पर रोक लगाने में मदद मिल रही है। जीएसटी परिषद् ने इसमें चार तरह के कर निर्धारित किये हैं ये 5, 12, 18 एवं 28 प्रतिशत हैं। हालांकि सरकार ने बहुत सी चीजों को जीएसटी से छूट दी है। वार्षिक 20 लाख से कम की बिक्री वाले व्यापारियों को जीएसटी व्यवस्था से छूट दी गई है। इस कर व्यवस्था से देश में करदाताओं की संख्या में कई गुना इजाफा हुआ है और इसका सीधा-सीधा फायदा देश को हो रहा है। लेकिन मोदी सरकार ने वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) को तो देश में लागू करा दिया लेकिन मोदी सरकार वस्तु एवं सेवा कर के फायदे लोगों तक पहुंचाने में नाकाम रही है। आज भी देश में बहुत सारे व्यापारी लोग (एक बहुत बड़ा वर्ग) अपने उद्योगों की मंदी के लिए जीएसटी को जिम्मेदार मानते है। सरकार इन्हीं व्यापारियों को अब तक वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) के फायदे बताने में नाकाम रही है। सरकार की यही नाकामी नरेंद्र मोदी के लिए आगामी 2019 के लोकसभा चुनावों में भारी पड़ सकती है। अगर सरकार अब भी अपने प्रचार तंत्र को मजबूत कर देश के प्रत्येक व्यापारी तक जीएसटी के खिलाफ भ्रम को दूर करने में कामयाब रहती है तो यह मोदी सरकार के लिए बहुत बड़ी कामयाबी होगी। इसके साथ ही सरकार जीएसटी रेट स्लैब को 5, 12, 18 एवं 28 प्रतिशत से बदलकर एक ही रेट स्लैब में करती है तो इसका फायदा देश की आम जनता को होगा।  
 
इसके साथ ही नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में प्रधानमंत्री उज्ज्वला योजना के तहत वर्तमान वित्तीय वर्ष (2018-19) तक देश भर में 5.5 करोड़ से ज्यादा गरीब परिवारों को एलपीजी कनेक्शन मिल चुका है। जो कि सरकार का बहुत बड़ा कदम है। सरकार द्वारा प्रधानमंत्री उज्ज्वला योजना का लागू करने का मुख्य उद्देश्य पूरे भारत में स्वच्छ ईंधन के उपयोग को बढ़ावा देना है और इससे इससे वायु प्रदूषण में भी कमी लाना सरकार का अहम् लक्ष्य है। इसके साथ ही इससे महिला सशक्तिकरण को बढ़ावा मिलेगा और महिलाओं के स्वास्थ्य की भी सुरक्षा की जा सकती है। पहले गरीब महिलाओं को चूल्हे पर लकड़ी या उपलों द्वारा भोजन बनाना पड़ता था जिससे वायु प्रदूषण के साथ-साथ महिलाओं के स्वास्थ्य पर विपरीत प्रभाव पड़ता था लेकिन आज देश के 5.5 करोड़ से ज्यादा गरीब परिवारों के पास एलपीजी गैस कनेक्शन उपलब्ध है। लेकिन सरकार ने 5.5 से ज्यादा गरीब परिवारों को प्रधानमंत्री उज्ज्वला योजना के अंतर्गत मुफ्त में गैस कनेक्शन तो वितरित कर दिए हैं लेकिन एलपीजी गैस ईंधन का महंगा होना भी गरीब लोगों को गैस कनेक्शन होने के बावजूद एलपीजी गैस की पहुँच से दूर करता है। एलपीजी गैस ईंधन की बढ़ती कीमतों को कम करने के बारे में भी सरकार को आज बड़े स्तर पर विचार करने की जरूरत है तभी गरीब महिलाओं इस प्रधानमंत्री उज्ज्वला योजना का असल रूप से पूर्णतः लाभ होगा।  
 
इसके साथ ही मोदी सरकार द्वारा प्रधानमंत्री जन-धन योजना के अंतर्गत 33.61 करोड़ से ज्यादा लोगों के जीरो बैलेंस पर खाते खुलवाए गए। सरकार ने संसद के इसी शीतसत्र (2018) में एक सवाल के जवाब में बताया है कि इन जन-धन योजना खातों में जमा राशि करीब 85,913 करोड़ रुपये है। मोदी सरकार की इस योजना से देश के हर गरीब व्यक्ति पर बैंक में अपना खाता है जिसमें वह अपनी बचत को सुरक्षित रख सकता है। प्रधानमंत्री जन-धन योजना भी देश में एक क्रांति की तरह है जिसका सीधा-सीधा फायदा आम गरीब को मिला। यह योजना मोदी सरकार की बड़ी उपलब्धियों में से एक है। मोदी सरकार कोयला, स्पेक्ट्रम और पर्यावरण के मामलों में पूर्ण पारदर्शिता लेकर आयी है। इसके अलावा केंद्र सरकार ने प्रधानमंत्री आवास योजना के जरिए 2022 तक भारत के प्रत्येक नागरिक को एक छत देने का संकल्प लिया है, इसमें हर साल के हिसाब से लक्ष्य तय किये गए हैं। इसके अलावा हार्ट स्टैंट कि कीमतों में 80 प्रतिशत की कटौती की है। मोदी सरकार ने नौकरियों में रिश्वतखोरी को रोकने की लिए ग्रेड 3 और 4 की नौकरियों में इंटरव्यू को पूर्णतः खत्म कर दिया है। स्वच्छ भारत के लिए भी प्रधानमंत्री ने खुद रूचि दिखाई है और स्वच्छ भारत अभियान को एक जन-आंदोलन बना दिया है। इसके लिये स्वच्छता ही सेवा नाम से बड़े पैमाने पर अभियान चलाया जा रहा है। जब मोदी सरकार ने स्वच्छ भारत अभियान की शुरुआत की थी तब देश का कोई भी राज्य खुले में शौच (ओडीएफ) की समस्या से मुक्त नहीं था लेकिन आज 97.47 प्रतिशत भारतीयों के घरों में शौचालय की सुविधा है। प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी ने लक्ष्य रखा है कि 02 अक्टूबर 2019 राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी जी की 150वीं जयंती तक देश को पूर्णतः खुले में शौच मुक्त (ओडीएफ) करना है, और सरकार अपने लक्ष्य को आज साकार करने की स्थिति में है। खुले में शौच मुक्त (ओडीएफ) भारत की जनता का अधिकार था जो की भारत की सरकार देश के नागरिकों को दे रही है। लेकिन देश खुले में शौच मुक्त (ओडीएफ) हो जाता है तो देश की साफ-सफाई और स्वच्छता (ओडीएफ प्लस) सरकार का अगला लक्ष्य होगा। देश साफ-सुथरा और स्वच्छ (ओडीएफ प्लस) तभी होगा जब ये मुहीम एक जन-आंदोलन बनेगी क्योंकि (ओडीएफ) भारत के लोगों का अधिकार है लेकिन (ओडीएफ प्लस) भारत के लोगों की जिम्मेदारी है। 
 
इसके अलावा प्रधानमंत्री मुद्रा योजना के अंतर्गत गरीबों के लिए ऋण की व्यवस्था सरकार ने की है। मोदी सरकार ने नारियों के सशक्तिकरण के लिए भी कई घोषणाएं की हैं, जिसमें उज्ज्वला योजना, बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ प्रमुख रूप से हैं। इसके अलावा भी सरकार ने महिलाओं के लिए मातृत्व अवकाश 12 हफ्तों से बढाकर 26 हफ्ते किया है। इसके साथ-साथ गर्भावस्था में महिलाओं के पोषण के लिए 6000 रूपये की व्यवस्था की है। युवाओं के लिए भी सरकार स्किल इंडिया योजना के माध्यम से अवसर दे रही है, इसके माध्यम से 1 करोड़ युवाओं को प्रशिक्षण मिलेगा। इसके अलावा भी सरकार स्टार्ट अप योजना के तहत भी युवाओं को मौके दे रही है। किसानों के लिए भी सरकार ने नीम-कोटेड यूरिया की व्यवस्था की है। नीम-कोटेड यूरिया इस्तेमाल के बाद जहां एक ओर यूरिया की कालाबाजारी कम हुई है, वहीं अब यूरिया के उपयोग पर गैर कृषि कार्यों में प्रतिबन्ध लगा है। इसके साथ की किसानों के लिए प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना भी लागू की गयी है, इसके माध्यम से किसानों की फसल को प्राकृतिक आपदा की स्थिति में हुयी हानि को किसानों के प्रीमियम का भुगतान देकर एक सीमा तक कम करायेगी। इसके अलावा भी मोदी सरकार द्वारा देश में अनेकों जनहित की योजनाएं चलाई जा रहीं है जिनका सीधा-सीधा फायदा आम आदमी को हो रहा है। 
 
स्वास्थ्य के क्षेत्र में भी मोदी सरकार काफी काम कर रही है इसके लिए आयुष्मान भारत योजना या मोदीकेयर, सरकार की महत्वपूर्ण योजना हैं, जिसे 01 अप्रैल, 2018 को पूरे भारत मे लागू किया गया है। इस योजना का उद्देश्य आर्थिक रूप से कमजोर लोगों और गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन करने वाले (बीपीएल धारक) को स्वास्थ्य बीमा मुहैया कराना है। इसके अन्तर्गत आने वाले प्रत्येक परिवार को समोदी सरकार द्वारा 5 लाख तक का कैशरहित स्वास्थ्य बीमा उपलब्ध कराया जा रहा है। अगर आयुष्मान भारत योजना देश में सही तरीके से क्रियान्वित होती है तो देश में स्वास्थ्य के क्षेत्र में यह बहुत बड़ी क्रांति होगी। जिसका सीधा-सीधा फायदा आम गरीब आदमी को मिलेगा। मोदी सरकार ने आयुष्मान भारत योजना के तहत देश के 10 करोड़ परिवारों को सीधा-सीधा फायदा मिलेगा। इस तरह से देश की लगभग 50 करोड़ आबादी इस योजना का लाभ उठा सकेगी।
 
- ब्रह्मानंद राजपूत
राजस्थान, मध्य प्रदेश और छतीसगढ़ में कांग्रेस की वापसी के साथ वर्ष 2018 की विदाई और लोकसभा के चुनावों की आहट के साथ 2019 का स्वागत किया जा रहा है। 2018 का साल एक तरह से कांग्रेस की सत्ता वापसी का साल कहा जाए तो अतिशयोक्ति नहीं कहा जा सकता। साल की पहली छमाही में जहां कर्नाटक विधानसभा चुनावों में सत्ता की सीढ़ी चढ़ने में कांग्रेस कामयाब रही वहीं साल के अंत में हुए पांच राज्यों के चुनावों में तीन प्रमुख राज्यों- राजस्थान, मध्य प्रदेश और छतीसगढ़ में भाजपा से सत्ता छीनने में कांग्रेस कामयाब रही। देखा जाए तो यह साल राहुल गांधी की परिपक्वता और राहुल के कद में बढ़ोतरी के रूप में देखा जा सकता है। दरअसल जीएसटी और आरक्षण का मुद्दा इस साल की बड़ी घटनाओं में से एक है और इसका सीधा सीधा असर भी चुनाव परिणामों से साफतौर से देखा जा सकता है। आरबीआई के गवर्नर का इस्तीफा कोढ़ में खाज का काम कर गया वहीं राफेल का मुद्दा भी राजनीतिक गलियारों व यहां तक की कोर्ट तक में छाया रहा। सीबीआई का झगड़ा सड़क पर आना भी इस साल की बड़ी घटनाओं में से एक रहा है। कारोबारी सुगमता के क्षेत्र में 30 पायदान की लंबी छलांग निश्चित रुप से वैश्विक स्तर पर गौरव की बात रही है। इसरो के लिए यह साल उपलब्धियों भरा रहा है वहीं तीन तलाक का मुद्दा साल की शुरुआत से लेकर साल के अंत तक छाया रहा है। निश्चित रूप से कश्मीर की स्थितियों में सुधार देखा जा रहा है वहीं आतंकवादी गतिविधियों पर भी अंकुश लगा है। सबसे मजे की बात यह है कि साल के अंत में हुए चुनावों में ईवीएम की विश्वसनीयता कोई खास मुद्दा बनकर नहीं उभरी बल्कि चुनाव आयोग और अधिक निखार के साथ सामने आया है।
 
 
30 दिसंबर की रात 12 बजे हैप्पी न्यू ईयर के घोष के साथ 2019 का आगाज हुआ। बेहद उथल−पुथल भरे वर्ष 2018 की कड़वी मीठी यादों को भुलाकर नए साल में नए संकल्प के साथ आगे बढ़ने का अवसर है। बीती ताही बिसार दे, आगे की सुध लेय के साथ नए साल का स्वागत करना है। परिवार, समाज, प्रदेश, देश और विश्व में सुख और शांति की कामना लेकर आगे बढ़ने की सोच बनानी होगी। असल में साल 2018 में जो कुछ उपलब्धियां या कटुताएं रहीं उसे भुलाते हुए अब नए संकल्प के साथ 2019 में प्रवेश करना है। राजनीतिक दृष्टि से देखें तो यह साल बीजेपी के सत्ता रथ के रुकने का रहा है। वहीं कांग्रेस के लिए राजस्थान, मध्य प्रदेश और छतीसगढ़ में सत्ता की वापसी का रहा है। यह निश्चित रूप से कांग्रेस की बडी जीत है क्योंकि इन पांच राज्यों के चुनावों को सत्ता का सेमीफाइनल माना जाता रहा है। राहुल गांधी की परिपक्वता और कांग्रेस अध्यक्ष की अगुवाई में विजयश्री इस साल की कांग्रेस के लिए बड़ी उपलब्धि मानी जा सकती है। हालांकि भाजपा मुक्त भारत की कल्पना अभी दूर दिखाई दे रही हैं क्योंकि विपक्षी दलों द्वारा एक साथ मिलकर चुनाव लड़ना अभी दूर की कौड़ी दिखाई दे रही है। राममंदिर का मसला अवश्य 2019 का प्रमुख मसला बनकर उभरने की संभावना है। इलाहाबाद का कुंभ अवश्य इस साल का बड़ा आयोजन होगा। तकनीक के क्षेत्र में देश ने नई ऊँचाइयां प्राप्त कीं यहां तक कि उपग्रहों का सफल प्रक्षेपण कर भारतीय तकनीक का लोहा मनवा दिया। विदेशों में भारत की साख बढ़ी है इससे कोई इंकार नहीं कर सकता।
 
रात के बाद सुबह की सूर्य किरणों की आस की तरह नए साल के साथ एक उज्ज्वल पक्ष भी आता है। हम नए साल के साथ सोचने को मजबूर होते हैं गए साल की कमियों को दूर करने की, कुछ नया करने की। समाज में नया और अच्छा करने की। समाज की बुराइयों को दूर करने की। समाज को विकास की राह पर आगे तक ले जाने की। जो कुछ खोया है, उसे पाने की। सकारात्मक सोच से ही आगे बढ़ पाता है समाज और देश। यह हमारी संस्कृति की विशेषता रही है कि आशा की जोत हमेशा से जगाए रखती है। आशा की जोत के कारण ही हम नए साल का स्वागत के साथ आगाज करते हैं। कुछ अच्छे की सोचते हैं। जो हो गया है उसे भुलाने का प्रयास करते हैं।
 
विराट सांस्कृतिक परंपरा के धनी हमारे देश के युवाओं ने सारी दुनिया में अपनी पहचान बनाई है। अमेरिका सहित दुनिया के बहुत से देश हमारे युवाओं के ज्ञान कौशल से घबराने लगे हैं। गाहे−बेगाहे वे हमारे देश के युवाओं के उनके देश में प्रवेश को सीमित करने का प्रयास करते हैं। हमारे युवाओं की मेहनत, श्रम शक्ति और ज्ञान−कौशल का लोहा मानते हैं। हमारे वैज्ञानिकों ने अपनी मेहनत से देश को आगे ले जाने में कोई कमी नहीं छोड़ी है। दूसरे देशों के सेटेलाइट हम प्रक्षेपित करने लगे हैं। अग्नि प्रक्षेपण में हम सफल रहे हैं। हमारे सेटेलाइट सफलता पूर्वक काम कर रहे हैं। टेक्नालॉजी में हम आत्म निर्भर होते जा रहे हैं। राजनीतिक परिपक्वता में हमारे लोकतंत्र के मुकाबले दुनिया का कोई दूसरा देश नहीं है। आखिर हमारी गौरवशाली विरासत को आगे ले जाने में हम कहां पीछे रहने वाले हैं।
 
नया साल 2019 भी जीएसटी में सुधार की दिशा में आगे बढ़ता ही होगा। चाहे इसका कारण राजनीतिक भले ही हों। दरअसल मई 2019 में होने वाले चुनाव 2019 की सबसे बड़ी घटना होगी। चुनावों के केन्द्र में एक तरफ प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और मोदी लहर का पैमाना होगा तो दूसरी और राहुल गांधी व कांग्रेस तो तीसरी और अन्य दलों के तीसरे मोर्चे के आकार लेने की स्थिति में आने वाले परिणाम खास होंगे। इतना साफ है कि देशवासियों को 2019 के लोकतंत्र के यज्ञ में आहुति देने का बड़ा अवसर मिलेगा, चुनाव आयोग के सामने भी निष्पक्ष व स्वतंत्रता और शांतिपूर्वक चुनाव संपन्न कराने को गुरुतर दायित्व होगा वहीं केन्द्र सरकार द्वारा लोकलुभावन घोषणाओं और नई सरकारों द्वारा कम समय में आमजन का विश्वास जीतने की गुरुतर चुनौती सामने होगी। देशवासियों के सामने इन चुनावों में बढ़-चढ़कर भाग लेते हुए नई सरकार चुनकर देश की राजनीति को अगले पांच सालों के लिए दशा और दिशा देने का अवसर होगा। माना यह जा रहा है कि नए साल में सरकार की आर्थिक नीति में बदलाव आएगा। आयकर को लेकर लोगों में आशाएं जगी हैं। सरकार से लोगों की आशाएं बढ़ी हैं। सकारात्मक सोच के साथ अब शुभकामनाओं और मंगलकामनाओं के बीच हमें देश को आगे ले जाने का संकल्प लेना होगा। आचार−विचार में शुद्धता और नैतिकता का सबक लेना होगा। हमें सकल्प लेना है देश को आगे ले जाने का, शिक्षा, औद्योगिक विकास, रोजगार, बिजली−पानी, सड़क जैसी आधारभूत सुविधाओं के विस्तार का, आधुनिकतम तकनीक को देश के विकास में हिस्सेदार बनाकर आगे बढ़ने के प्रयास करने होंगे ताकि देश विकास की राह पर तेजी से बढ़ सके। नया साल नई स्फूर्ति, नए उत्साह से आगे बढ़ने की राह प्रशस्त करे, यही हमारी मंगल कामना है।
 
अयोध्या में श्रीराम जन्मभूमि पर राम मंदिर कब बनेगा इसका जवाब भले राजनीतिक दलों खासकर भाजपा नेताओं के पास नहीं हो लेकिन अयोध्या वासियों को पूरा विश्वास है कि वर्ष 2019 में राम मंदिर के निर्माण का कार्य अवश्य शुरू होगा। ऐसा नहीं है कि यह विश्वास सिर्फ किसी खास समुदाय के लोगों को हो या किसी खास उम्र के लोगों को हो। अयोध्या चले जाइए और जिस-जिस से पूछते जाएंगे, जवाब यही आयेगा कि राम मंदिर का इंतजार अब पूरा होने वाला है और भव्य राम मंदिर बनने वाला है। चाहे संत हों या आम आदमी सब राजनीतिक चालों के साथ ही न्यायिक गतिविधियों पर बारीक नजर रखे हुए हैं और मान कर चल रहे हैं कि भाजपा नेताओं को जो संत समाज की ओर से चेतावनी दी गयी है उसका असर दिखने ही वाला है।
 
विश्वास का आधार क्या है?
 
राम मंदिर 2019 में ही बनना शुरू होगा, इस विश्वास का आधार यह है कि भाजपा को यह बात पूरी तरह समझ आ चुकी है कि राम मंदिर मुद्दे पर यदि लोकसभा चुनावों से पहले निर्णय नहीं लिया गया तो उसका वोट बैंक बुरी तरह छिटक सकता है। राम लला के दर्शन करने के लिए जब लाइन में लगे लोगों से बातचीत की गयी तो सभी का यह कहना था कि भाजपा को वोट करने हम जैसे भक्त लोग जाते हैं वो लोग नहीं जिनके तुष्टिकरण में पार्टी इन दिनों लगी हुई है। लोगों का साफ तौर पर कहना था कि भाजपा ने जो माँगा वो हमने दिया, 'केंद्र में पूर्ण बहुमत की सरकार मांगी, हमने दिया, राज्य में पूर्ण बहुमत की सरकार मांगी हमने दिया लेकिन अब बारी भाजपा की है। यदि भाजपा ऐसी अनुकूल परिस्थितियों में जबकि केंद्र और उत्तर प्रदेश में उसकी पूर्ण बहुमत वाली सरकार है और राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति जैसे संवैधानिक पदों पर भी उसके ही लोग विराजमान हैं में भी कुछ नहीं कर सकती तो ऐसी पार्टी को सत्ता से बाहर होना चाहिए।' यही नहीं लोगों का यह भी कहना है कि कांग्रेस जोकि सॉफ्ट हिन्दुत्व की राह पर चल रही है, वह भी राम मंदिर का विरोध करने की स्थिति में नहीं है इसलिए भाजपा को कदम आगे बढ़ाना ही चाहिए क्योंकि इतनी अनुकूल स्थितियां फिर बड़ी मुश्किल से होंगी।
 
संत समाज चेतावनी के साथ ताकत भी दे रहा है
संत समाज को भी लगता है कि अब वह समय आ गया है जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी राम मंदिर निर्माण की दिशा में कदम बढ़ाने वाले हैं। राजनीतिक तौर पर भले यह सरकार के लिए मुश्किल भरा कार्य हो लेकिन संतों से बात करें तो उन्हें इस बात का विश्वास है कि भाजपा इस मुद्दे पर काम कर रही है और जल्द ही तारीख की घोषणा होगी। संतों का एक वर्ग तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की शक्ति बढ़ाने के लिए विशेष पूजा-पाठ करने में भी लगा हुआ है। संत बातचीत में कहते हैं कि यदि 2019 में राम मंदिर निर्माण कार्य शुरू नहीं हुआ तो यह मुद्दा फिर पीछे चला जायेगा क्योंकि यदि भाजपा की चुनावों में हार हो गयी तो कांग्रेस या अन्य दल अपने कार्यकाल में राम मंदिर पर बात भी नहीं करेंगे। 31 जनवरी को कुम्भ मेले के दौरान धर्म संसद का भी आयोजन किया जा रहा है जिसमें संत समाज यह तय करेगा कि राम मंदिर मुद्दे पर आगे क्या कदम उठाये जाएं।
 
न्यायालय पर हैं सभी की नजरें
 
सभी की नजरें 04 जनवरी, 2019 को राम मंदिर मुद्दे पर उच्चतम न्यायालय में होने वाली सुनवाई पर लगी हुई हैं। अदालत सुनवाई के लिए सिर्फ पीठ का ही गठन करती है या नियमित आधार पर सुनवाई का आदेश भी देती है या फिर कोई और कदम उठाती है, इसको लेकर कयासों का दौर भी जारी है। वैसे अदालत से मामले का हल निकलेगा इसको लेकर लोगों के मन में संशय है। लोगों का कहना है कि बातचीत से भी मसले का हल निकलना मुश्किल है क्योंकि जब-जब बातचीत आगे बढ़ती है तब-तब कुछ लोग इसमें रोड़ा अटकाने सामने आ जाते हैं। इसलिए राम मंदिर के लिए कानून बनाना ही लोगों को आखिरी विकल्प लगता है। हालांकि संसद के शीतकालीन सत्र से लोगों को काफी उम्मीदें थीं लेकिन कुछ हासिल नहीं हुआ। भाजपा के कुछ सदस्यों की ओर से भी राम मंदिर के लिए निजी विधेयक लाने की बात कही गयी थी लेकिन ऐसा कुछ हुआ नहीं। विश्व हिन्दू परिषद के नेताओं ने सांसदों से मिल कर राम मंदिर निर्माण के लिए कानून बनाने की मांग की थी लेकिन इस पूरी कवायद से भी कुछ नहीं निकला। अब विश्व हिन्दू परिषद के नेता दावा कर रहे हैं कि इंतजार कीजिये मोदी और योगी के हाथों ही होगा राम मंदिर का निर्माण।
 
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भी हो चुका है सक्रिय
 
हालांकि संघ परिवार के विभिन्न घटक राम मंदिर मुद्दे पर सरकार को खुलेआम चेतावनी दे रहे हैं लेकिन अंदर ही अंदर यह भी चाहते हैं कि यह सरकार सत्ता में बनी रहे। इसके लिए प्रयास भी शुरू हो गये हैं। पिछले माह गुजरात के राजकोट में हिन्दू संतों और धर्माचार्यों की एक बड़ी बैठक हुई जिसमें संघ प्रमुख मोहन भागवत, भाजपा अध्यक्ष अमित शाह और पार्टी सांसद सुब्रह्मण्यम स्वामी भी मौजूद थे। इसमें तय कर लिया गया है कि इस मुद्दे पर अदालत के रुख के बाद कैसे आगे बढ़ना है। यदि अदालत में फिर मामला टलता है तो भाजपा के पास राम मंदिर के लिए खुलकर सामने आने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचेगा। चाहे योगी आदित्यनाथ हों या राजनाथ सिंह, हाल के दिनों में देखने को मिला है कि भाजपा के बड़े नेताओं की सभा में जनता हंगामा करने लगी है और 'पहले मंदिर फिर सरकार' का नारा बुलंद करने लगी है। संभव है प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को भी आने वाले दिनों में अपनी जनसभाओं में 'मोदी मोदी' के उद्घोष की जगह 'राम मंदिर' का नारा सुनने को मिले।
 
मंदिर के साथ मस्जिद संभव नहीं
 
राम मंदिर के साथ मस्जिद भी बनाने की बात जो लोग करते हैं वह यदि एक बार अयोध्या हो आयें तो ऐसी बातें करना बंद कर देंगे। यह सही है कि राम तो कण-कण में विराजमान हैं लेकिन सरयू के इस पार तो लगता है कि राम और हनुमान जी के सिवा कुछ है ही नहीं। श्रीरामजन्मभूमि पर यदि राम मंदिर के अलावा मस्जिद या कोई और धर्मस्थल बनाया गया तो यकीन मानिये हम राम मंदिर मुद्दा सुलझाएंगे नहीं बल्कि आने वाली पीढ़ियों के लिए एक बड़ी समस्या छोड़ जाएंगे। साम्प्रदायिक सद्भाव रहना ही चाहिए लेकिन यदि राम मंदिर के साथ मस्जिद बनायी गयी तो यह साम्प्रदायिक सद्भाव की मिसाल नहीं बल्कि साम्प्रदायिक सद्भाव के लिए समस्या बन जायेगी।
 

 

 
बहरहाल, अयोध्या में लोगों से बातचीत करके एक बात और साफ हो जाती है कि राजनीतिक दल भले कितनी चालें चलें लेकिन जनता बहुत समझदार है और राम मंदिर मुद्दे पर हर राजनीतिक दल के रुख, संसद और न्यायालय में इस मुद्दे पर होने वाली गतिविधियों के साथ ही संबंधित खबरों से पूरी तरह अवगत है। जनता को मूर्ख बनाना आसान नहीं है और भाजपा भी हाल के विधानसभा चुनावों में नोटा को मिले भारी मतों और सवर्णों की नाराजगी से पार्टी को हुए नुकसान को देखते हुए फूंक-फूंक कर कदम आगे बढ़ा रही है। पार्टी अब समझ रही है कि मात्र राम नाम जपने से कुछ नहीं होगा, राम से किये गये वादे पूरे करने का समय आ गया है।
 
-नीरज कुमार दुबे

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