राजनीति

राजनीति (6252)

हिंदुत्व की हांडी में राम मंदिर का मुद्दे एक बार फिर से पकने लगा है। देश में फिलवक्त पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव चल रहे हैं। इनमें से तीन राज्यों में भाजपा की सरकार है। वहीं 2019 के आम चुनाव भी दरवाजे पर खड़े हैं। मौसम चुनाव का हो और भारतीय जनता पार्टी और भगवा ब्रिगेड को राम मंदिर की याद न आये ऐसा हो ही नहीं सकता। पिछले दो दशकों में जब भगवान राम ने ही चुनाव के कीचड़ में धंसे भाजपा के रथ को बाहर निकालने का काम किया। अगर ये कहा जाए कि आज भाजपा को जो स्वरूप और आन-बान-शान है वो राम मंदिर आंदोलन की बदौलत है तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। 
 
बाबरी मस्जिद-राम जन्मभूमि का ये विवाद 490 साल पुराना है। हर बार चुनाव में भाजपा भगवान राम को याद करती है। राम मंदिर का मुद्दा उछालती है। राम मंदिर बनवाने के संकल्प को दोहराती है। चुनाव खत्म होते ही राम मंदिर को ठंडे बस्ते में डाल दिया जाता है। लेकिन इस बार भाजपा और मोदी सरकार सबसे बड़े भंवर में फंसी है। ऐसे में भाजपा अपने सबसे मजबूत और आजमाये राम मंदिर मुद्दे पर लौटती दिख रही है। अयोध्या विवाद सुप्रीम कोर्ट में लंबित है। राम मंदिर पर बिल या अध्यादेश आएगा या फिर कोर्ट के फैसले का इंतजार किया जाएगा, यह तो समय ही बताएगा, परंतु इस मामले पर असमंजस की स्थिति बनना स्वाभाविक है, क्योंकि मसला राजनीतिक नफा-नुकसान से भी संबंधित हो सकता है। फिलवक्त राम मंदिर के मुद्दे को जिस तरह भाजपा और भगवा ब्रिगेड गरमा रही है, उससे ऐसा आभास हो रहा है कि 1992 की भांति इस बार भी कुछ होने वाला है।
 
 
बीते 29 अक्टूबर को अयोध्या विवाद में सुप्रीम कोर्ट द्वारा सुनवाई की तारीख आगे सरकाने के बाद से संत महात्माओं, हिंदू समाज और हिंदूवादी संगठनों में भारी नाराजगी का माहौल है। इस नाराजगी के माहौल को अपने पक्ष में करने के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) और विश्व हिन्दू परिषद मेढ़बंदी करने में जुटे हैं। शिवसेना अध्यक्ष उद्धव ठाकरे हाल ही में अयोध्या आये और नया नारा दिया, ‘हर हिंदू की यही पुकार, पहले मंदिर-फिर सरकार।’ यानी अगले साल लोकसभा चुनाव में सरकार बाद में बने लेकिन पहले राम मंदिर बन जाना चाहिए। विश्व हिंदू परिषद के पूर्व प्रमुख प्रवीण तोगड़िया भी पिछले दिनों अयोध्या में अपना शक्ति प्रदर्शन कर चुके हैं। शिवसेना, तोगड़िया के राम मंदिर मुद्दे में कूदने से भाजपा व भगवा ब्रिगेड थोड़े दबाव में है। ऐसे में बीजेपी और भगवा ब्रिगेड धर्म सभा को भव्य से भव्यतम बनाने में जुटे हैं। मोदी सरकार पर शिवसेना सरीखे सहयोगी दलों और संघ का भारी दबाव है। भाजपा के अधिकतर सांसद भी मुखर होकर बोल रहे हैं। साक्षी महाराज का साफ मानना है कि यदि सुप्रीम कोर्ट के फैसले का इंतजार करते रहे, तो एक हजार साल भी लग सकते हैं और फिर भी राम मंदिर नहीं बनेगा। लिहाजा भाजपा सांसदों और नेताओं की लगातार मांग है कि सरकार या तो अध्यादेश लाए अथवा संसद के जरिए कानून बनाए। लब्बो लुआब यह है कि राम मंदिर को लेकर हिंदुत्व की कड़ाही में लंबे समय बाद उबाल आया है। जैसे-जैसे लोकसभा चुनाव का समय निकट आएगा ये हवा तेज से और तेज होती जाएगी। 
 
पिछले दिनों अयोध्या में रामलला के दर्शन के बाद आरएसएस के सर कार्यवाह भैयाजी जोशी का बयान कि ‘तिरपाल में रामलला का आखिरी दर्शन हैं', से काफी कुछ समझा जा सकता है। धर्म सभा में राम भक्त अपनी शक्ति का प्रदर्शन करेंगे। आरएसएस, वीएचपी और भारतीय जनता पार्टी मिलकर राम भक्तों के शक्ति परीक्षण कार्यक्रम में एक लाख से ज्यादा राम भक्तों को बड़ा भक्त माल की बगिया में बुला रहे हैं। इतिहास के पन्ने पलटे तो अयोध्या का विशेष ब्रांड के हिंदुत्व से परिचय 1989 के रामजन्मभूमि मुक्तियज्ञ, 1990 की कारसेवा और 1992 के ढांचाध्वंस कांड से हुआ। जब मंदिर निर्माण के लिए प्रतिबद्ध दूर-दराज के रामभक्तों ने अयोध्या की ओर रुख किया और उन्होंने  मंदिर के लिए हुंकार भरी। 1990 की कहानी तो रक्तरंजित हो उठी। शासकीय प्रतिबंध और चप्पे-चप्पे पर तैनात सुरक्षा बलों की परवाह न कर विवादित परिसर की ओर बढ़े डेढ़ दर्जन कारसेवकों ने प्राणों की आहुति दी। इससे पूर्व अयोध्या कफ्र्यू, सुरक्षाबलों की निगरानी, कारसेवकों की धमक और नेताओं की आमद-रफ्त की अभ्यस्त हो चली थी। 1992 का घटनाक्रम तो जगजाहिर है। इसके बाद से रामनगरी हिंदुत्व के केंद्र के तौर पर प्रवाहमान है
 
पर उस दौर का उभार फिर लौटकर नहीं आ सका। 1992 का वह रोष और आक्रोश, तनाव और उत्तेजना आज के माहौल में भी महसूस किया जा सकता है। उन कारसेवकों में साधु-संत, राजनीतिक कार्यकर्ता और आम आदमी भी थे। आज उप्र में मुलायम सिंह नहीं, योगी आदित्यनाथ की सत्ता है और देश में ‘मोदी सरकार’ है!
 
उत्तर प्रदेश ही नहीं बल्कि देश भर में भारतीय जनता पार्टी को राजनीतिक पहचान दिलाने में अयोध्या और राम मंदिर की कितनी भूमिका रही है, यह किसी से छिपा नहीं है। यही नहीं, 1991 में उत्तर प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी की जब पहली बार कल्याण सिंह के नेतृत्व में सरकार बनी थी तो पूरा मंत्रिमंडल शपथ लेने के तत्काल बाद अयोध्या में रामलला के दर्शन के लिए आया था। सन् 2017 में उत्तर प्रदेश में जब से योगी आदित्यनाथ के नेतृत्व में सरकार बनी है तब से अयोध्या के विकास के लिए न सिर्फ तमाम घोषणाएं की गईं बल्कि दीपावली के मौके पर भव्य कार्यक्रम और दीपोत्सव का आयोजन भी किया गया है। फिलवक्त राम मंदिर मुद्दे की कमान भाजपा की ओर से यूपी के सीएम योगी आदित्यनाथ के हाथों में है। फैजाबाद जिले का नामकरण अयोध्या करने के बाद से ही राजनीति और भगवा टोली की सरगर्मियां पूरे उफान पर हैं। 2010 में हाइकोर्ट ने फैसला सुनाया था कि जमीन को तीन हिस्सों में बांट दिया जाए और उसमें से दो-तिहाई हिस्से मामले से जुड़े हिंदू पक्षों को सौंप दिए जाएं और एक तिहाई सुन्नी वक्फ बोर्ड को दे दिया जाए। तीनों ही पक्षों ने इस फैसले के खिलाफ अपील की है। सुप्रीम कोर्ट ने सुझाव दिया कि सभी पक्ष आपस में बातचीत करके विवाद सुलझाएं। मगर इसकी तो शुरुआत तक नहीं हुई। 
 
यह विवाद 1988 से ही राजनीतिक रूप धारण कर चुका है, जब भाजपा ने हिमाचल के पालमपुर में राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में अयोध्या में भव्य राम मंदिर निर्माण का प्रस्ताव पारित किया था। नतीजतन 1989 के लोकसभा चुनावों में भाजपा ने 2 से 85 सीटों तक उछाल लगाई थी। 1996 में 161 सीटों के साथ भाजपा लोकसभा में पहली बार सबसे बड़ी पार्टी के तौर पर उभरी थी, लेकिन जनादेश अधूरा होने के कारण वाजपेयी सरकार 13 दिनों तक ही टिकी रह सकी। बहरहाल वाजपेयी सरकार 1998 से 2004 तक रही, क्योंकि भाजपा की सीटें 182 थीं और एनडीए के रूप में एक सशक्त, व्यापक गठबंधन उभरकर सामने आया था, लेकिन राम मंदिर बनाने की शुरुआत तक नहीं हो सकी, क्योंकि गठबंधन के कई दल सहमत नहीं थे।
 
आज स्थितियां भिन्न हैं। मोदी सरकार के पास गठबंधन समेत पर्याप्त बहुमत है। राज्यसभा में भी भाजपा-एनडीए सबसे बड़ा पक्ष हैं। कुछ और दलों के धुव्रीकरण से बहुमत के आसार भी बन सकते हैं, जिस तरह राज्यसभा के उपसभापति चुनाव में हुआ था। आरएसएस के सरसंघचालक का भी स्पष्ट समर्थन है। गठबंधन के घटक दल भी भाजपा के समर्थन में हैं। यदि भाजपा को हिंदुओं की इतनी ही चिंता है, तो अब इस दौर में राम मंदिर बन जाना चाहिए। अलबत्ता इस मुद्दे को छोड़ देना चाहिए, क्योंकि दूसरे कई मुद्दे भी अहम हैं, जिनकी अनदेखी होती रही है। 
 
 
मुस्लिम नेताओं ओवैसी और जफरयाब गिलानी ने राम मंदिर पर अगर अध्यादेश आता है तो उसे अदालत में चुनौती देने की धमकी भी दी है। उनकी दलील है कि देश संविधान से चलता है, न कि हेकड़ी की सत्ता से। सरकार मंदिर और मस्जिद में भेद करेगी, तो संविधान के अनुच्छेद 14 का उल्लंघन होगा, जिसमें समानता के अधिकार की व्याख्या है। बहरहाल मोदी सरकार और भाजपा के लिए यह सांप-छुछूंदर वाली स्थिति है। यदि मई, 2019 से पहले इस मुद्दे का निपटारा नहीं होता है, तो प्रधानमंत्री मोदी की दोबारा सत्ता में आने की कोशिशों को धक्का लग सकता है। विशेषज्ञों का मानना है कि करीब 2-3 फीसदी वोट भाजपा से छिटक कर दूर जा सकते हैं। इसी से जीत-हार का अंतर बढ़ सकता है, लिहाजा अब आखिरी दारोमदार प्रधानमंत्री मोदी पर ही है। देखते हैं कि उनका कदम क्या होता है? फिलवक्त सरयू के तट पर 1992 जैसा माहौल बनाने की तैयारियां आसमान छू रही हैं। इन सबके बीच यह बात तय है कि भाजपा और भगवा ब्रिगेड राम नाम लहर के करंट, पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव नतीजों और सियासी नफे-नुकसान के अंकगणित के हिसाब से फैसला लेंगे।
 
-आशीष वशिष्ठ
लद्दाख को यूनियन टेरीटरी यानी केंद्र शासित प्रदेश का दर्जा देने की मांग को लेकर आंदोलन ने फिर तेजी पकड़ ली है। केंद्र में भाजपा सरकार के गठन के साथ ही आंदोलन इसलिए थम गया था क्योंकि भाजपा ने यूटी देने का वादा किया था। लेकिन अब जबकि भाजपा द्वारा अपना वादा पूरा नहीं किया गया है, लद्दाख की जनता फिर से सड़कों पर उतर आई है। लद्दाख बुद्धिस्ट एसोसिएशन ने बुधवार को राज्यपाल सत्यपाल मलिक से भेंट कर लद्दाख को यूनियन टेरीटरी यानी केंद्र शासित प्रदेश का दर्जा देने की मांग भी उठाई थी। लद्दाख बुद्धिस्ट एसोसिएशन के प्रतिनिधमंडल में प्रधान सीवांग थिनलैस और उप प्रधान पीटी कुजांग शामिल थे।
 
प्रतिनिधमंडल ने राजभवन में हुई बैठक में राज्यपाल को ज्ञापन सौंपा और लोगों की मुश्किलों के बारे में विस्तार से जानकारी दी। उठाए गए मुद्दों में लद्दाख को केंद्र शासित प्रदेश बनाना, भोटी भाषा को संविधान की आठवीं सूची में शामिल करना मुख्य था। इनके साथ पुलिस रेंज, विवि स्थापित करने सहित लद्दाख के लोगों के व्यापारिक हितों के लिए नीति बनाने की मांग भी की। लद्दाख के लोगों ने यूटी अर्थात् केंद्र शासित प्रदेश का दर्जा पाने की खातिर बिगुल बजा दिया है। उन्होंने 28 सालों के बाद एक बार फिर आंदोलन का आगाज किया है। यही कारण था कि आने वाले दिनों में वे अपने आंदोलन को और तेज करने की चेतावनी दे रहे थे। लद्दाखी बीते दो दशकों से केंद्र शासित राज्य का दर्जा दिए जाने की मांग कर रहे हैं, लेकिन कश्मीर केंद्रित नीतियों के चलते उनकी यह मांग पूरी नहीं हो रही है। हमारा यह आंदोलन केंद्र शासित राज्य का दर्जा मिलने तक जारी रहेगा।
 
28 सालों के उपरांत पुनः इस बर्फीले रेगिस्तान में असंतोष भड़कने लगा है। असंतोष किस सीमा को पार कर चुका है, इसी से स्पष्ट है कि लद्दाखी नेता हथियार उठाने की धमकी दे रहे हैं। हालांकि असंतोष को भड़काने तथा राख के ढेर में दबी चिंगारी को हवा देने का कार्य नेशनल कांफ्रेंस सरकार की स्वायत्तता रपट ने किया था जिसके विरोधी सिर्फ लद्दाख में ही नहीं बल्कि जम्मू संभाग में भी हैं और इसमें तेलांगना का गठन भी उनमें हिम्मत फूंक चुका है।
 
वर्ष 1989 में एलबीए ने लद्दाख को केंद्र शासित प्रदेश का दर्जा दिए जाने की मांग को लेकर करीब साढ़े 3 माह तक हिंसक आंदोलन किया था। अंत में 6 सालों की प्रतीक्षा के उपरांत लेह की जनता को आंशिक खुशी उस समय मिली जब लेह स्वायत्त पहाड़ी परिषद के गठन की घोषणा की गई थी। लेकिन 29 अक्तूबर 1989 को केंद्र सरकार ने लद्दाख को केंद्र शासित प्रदेश बनाए जाने की जो घोषणा की थी वह लागू न होने से लद्दाख की जनता खिन्न थी। हालांकि उसने अगस्त 1995 में मिलने वाले स्वायत्त पहाड़ी परिषद के दर्जे को स्वीकार तो कर लिया परंतु उसने आज भी केंद्र शासित प्रदेश का दर्जा पाने की मांग को कभी त्यागा नहीं।
 
 
राज्य की तत्कालीन नेकां सरकार की 1953 से पूर्व की स्थिति की बहाली की मांग ने इस बर्फीले रेगिस्तान में पुनः जख्मों को हरा कर दिया था इसके प्रति कोई दो राय नहीं है। हालांकि मुफ्ती सरकार ने स्वायत्त परिषद के अधिकारों में वृद्धि कर असंतोष को ठंडा करने का प्रयास किया था लेकिन वे कामयाब नहीं हो पाए थे। नतीजतन लद्दाख की जनता फिर से आंदोलन की राह पर चल निकली है। जो यह कहने लगी है कि उनके साथ किए गए वायदों को पूरा किया जाए और लद्दाख को उसका हक, केंद्र शासित प्रदेश का दर्जा, तत्काल दिया जाए।
 
स्थिति यह है कि लद्दाख बौद्ध संघ के नेता उस चिंगारी को पुनः हवा दे रहे हैं जो पिछले 28 सालों से राख के ढेर में छुपी हुई थी। इस चिंगारी को हवा देकर लावे के भयंकर रूप में फूटने की चेतावनी देने वाले नेता प्रत्यक्ष रूप से भी यह मानने को तैयार नहीं हैं कि आंदोलन शांतिपूर्ण होगा। उनके शब्दों में: ‘शांतिपूर्ण रास्ते पर चल कर कोई कुछ नहीं पा सकता है। हम केंद्र शासित प्रदेश का दर्जा चाह रहे हैं जिसके साफ मायने हैं कि हमें कश्मीर के उपनिवेशवाद से मुक्ति चाहिए।’
 
- सुरेश डुग्गर
राजस्थान में मतदान का समय जैसे-जैसे नजदीक आता जा रहा है, चुनावी समीकरण ज्वारभाटे की तरह बदल रहे हैं। प्रारंभिक परिदृश्यों में कांग्रेस भाजपा पर भारी साबित होती दिख रही थी, लेकिन प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी एवं भाजपा अध्यक्ष अमित शाह की ताजा चुनावी सभाएं भाजपा की हारी बाजी को जीत में बदलती दिख रही है। कांग्रेस के भीतर चल रही गुटबाजी से भी यह जमीन तैयार हो रही है, एक तरह से जीत की ओर बढ़ती कांग्रेस को नुकसान होने की पूरी-पूरी आशंका है। हालांकि राजनीतिक विश्लेषक एवं चुनाव पूर्व के अनुमान अभी भी कांग्रेस के ही पक्ष में हैं और माना जा रहा है कि इस बार सत्ता परिवर्तन होगा और स्पष्ट बहुमत के साथ कांग्रेस की सरकार बनेगी। सट्टा बाजार से जुड़े सूत्रों के मुताबिक कांग्रेस 125 सीटों के साथ सरकार बना रही है वहीं भाजपा 50 से 55 सीटों पर सिमट जाएगी, ऐसा अनुमान लगाया जा रहा है।
 
जिन पांच राज्यों में विधानसभा के चुनाव हैं उनमें राजस्थान ही एकमात्र ऐसा राज्य है जहां भाजपा की सत्ता में वापसी सर्वाधिक मुश्किल मानी जा रही है। राजस्थान में पिछले तीन दशक से अदल-बदलकर सत्ता परिवर्तन की परंपरा रही है। पिछली बार भाजपा सत्तारूढ़ हुई थी। इस परंपरागत रुझान के मुताबिक इस बार मौका कांग्रेस को है। इसी वर्ष हुए उपचुनावों में मिली पराजय से भाजपा को करारा झटका भी लगा है और कांग्रेस आशान्वित हुई। अलवर और अजमेर लोकसभा तथा मांडलगढ़ विधानसभा सीट पर मिली जीत से कांग्रेस की उम्मीदें बढ़ी हैं। इस बार भाजपा फिर एक बार वसुंधरा राजे सिंधिया पर अपना दांव लगा रही है, जबकि कांग्रेस ने किसी को भी अपना मुख्यमंत्री प्रत्याशी नहीं बनाया है। सत्ता विरोधी लहर से चिंतित मुख्यमंत्री राजे पिछले छह माह से संघर्षरत हैं। उन्होंने 4 अगस्त को मेवाड़ से ‘राजस्थान गौरव यात्रा’ के जरिए अपना चुनावी अभियान शुरू किया। यात्रा की शुरुआत में भाजपा अध्यक्ष अमित शाह मौजूद थे। 58 दिनों की इस यात्रा में वह राज्य के लोगों से मिलती रही हैं और आगामी चुनाव के लिए जनादेश मांगती रही हैं। यह यात्रा राज्य की 200 में से 165 विधानसभा क्षेत्रों से होकर गुजरी।
 
 
भाजपा ने 180 सीटों पर विजय का लक्ष्य रखते हुए अपने चुनाव अभियान को ‘मिशन 180’ नाम दिया है। इस मिशन के तहत भाजपा ने ए ग्रेड की 65 विधानसभा सीटों को चिन्हित किया है। ये वे सीटें हैं, जिन पर भाजपा लगातार दो या इससे अधिक बार जीत रही है। अब भाजपा यह रणनीति बना रही है कि कम से कम 65 सीटों से गिनती प्रारंभ हो और फिर मिशन 180 तक पहुंचा जाए। राजनैतिक दलों के लिहाज से राजस्थान हमेशा दो विकल्पों से घिरा रहा है, कांग्रेस और भाजपा। भाजपा ने 2013 के विधानसभा चुनाव में जबरदस्त कामयाबी हासिल की थी। कुल 200 में से 163 सीटें जीतकर तीन चौथाई बहुमत के साथ भाजपा सत्तारूढ़ हुई थी, जबकि कांग्रेस 21 और बसपा 3 सीटों पर ही सिमट गईं थीं। इस चुनाव में भाजपा को 45.50 फीसदी, कांग्रेस को 33.31 और बीएसपी को 3.48 फीसदी वोट मिले थे। बाद में 2014 के लोकसभा चुनाव में राज्य की सभी 25 सीटों पर भाजपा का परचम लहराया था।
 
उधर भाजपा से सत्ता छीनने की हरसंभव कोशिशों में कांग्रेस जुटी है। सत्ता वापसी के लिए कोशिश कर रही कांग्रेस किसी एक नाम पर अभी सहमत नहीं हो पाई है। इसीलिए पार्टी ने साफ कर दिया है कि राहुल गांधी के नेतृत्व में ही चुनाव लड़ा जाएगा, ना अशोक गहलोत चेहरा होंगे और ना ही सचिन पायलट। कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने जयपुर में 13 किमी का रोड शो कर कांग्रेस के चुनावी अभियान की औपचारिक शुरुआत की थी। एक तरफ कांग्रेस वसुंधरा सरकार को घेरने में लगी है, वहीं दूसरी ओर कांग्रेस बूथ स्तर पर अपने संगठन को मजबूत करने में लगी है। बूथ स्तर पर कांग्रेस ने अपनी मजबूती को सुनिश्चित करने के लिए प्रदेश में ‘मेरा बूथ, मेरा गौरव’ नाम से एक अभियान भी चलाया है। चुनाव की रणनीति के अन्तर्गत कांग्रेस जातीय समीकरणों का हवाला देते हुए हवा अपने पक्ष में होने का दावा कर रही है। कांग्रेस ने ब्राह्मण, राजपूत और दलितों की नाराजगी को हवा देकर राजनीतिक समीकरण बनाये हैं।
 
 
विडम्बनापूर्ण स्थिति तो यह है कि दोनों ही राजनीतिक दल चुनावी मुद्दे के तौर पर कोई ठोस प्रस्तुति नहीं दे पाये हैं। एक तरह से ये चुनाव मुद्दे विहीन चुनाव ही हैं। हालांकि दोनों ही प्रमुख राजनीतिक दल विकास को अपना मुख्य मुद्दा बता रहे हैं, लेकिन जमीनी तौर पर आरक्षण, किसान और गाय ही प्रमुख मुद्दे बनते नजर आए हैं। गूजर और जाटों के आरक्षण आंदोलन में झुलस चुके राजस्थान में अत्याचार अधिनियम के मुद्दे पर राजपूत और ब्राह्मण भी लामबंद होने की कोशिश में हैं। भाजपा के बागी नेता घनश्याम तिवाड़ी ने तो इस मुद्दे पर तीसरा मोर्चा बनाने का ऐलान किया है। भाजपा को इस बार गाय वोटों की कामधेनु नजर आ रही है। वह गौ-तस्करी को लगातार मुद्दा बनाती रही है तो कांग्रेस गौ तस्करी के शक में पीट पीटकर लोगों को मारने की घटनाओं को लेकर सरकार को घेरती रही है। उधर फसल के सही दाम नहीं मिलने और कर्ज के कारण किसानों की आत्महत्याओं के मामलों को लेकर भी विपक्षी दल भाजपा सरकार को घेरने में जुटे हैं।
 
कांग्रेस ने वसुंधरा सरकार की कार्यप्रणाली के प्रति उपजे असंतोष को भी चुनावी मुद्दा बनाया है। वसुंधरा सरकार के कई मंत्री सार्वजनिक तौर पर मुख्यमंत्री की तानाशाही प्रवृत्ति के प्रति असंतोष जाहिर कर चुके हैं। पार्टी के वरिष्ठ नेता रहे पूर्व मंत्री घनश्याम तिवाड़ी ने पार्टी से बगावत का ऐलान किया। दोनों ही दलों में बागी स्वर बुलन्द हैं। जिससे इन चुनावों में दोनों को ही भारी नुकसान होने की संभावनाएं हैं। कांग्रेस भी पूर्व मुख्यमंत्री अशोक गहलोत, प्रदेश अध्यक्ष सचिन पायलट और पूर्व केंद्रीय मंत्री सीपी जोशी के गुटों में बंटी है। जिन लोगों को टिकट नहीं मिला, वे बागी होकर निर्दलीय चुनाव लड़ रहे हैं, जिससे दोनों ही दलों की जीत प्रभावित होगी।
 
राजस्थान में चुनावी प्रचार चरम पर है। इसमें जमीनी मुद्दों के बजाय व्यक्तिगत छींटाकशी, जाति, धर्म, सम्प्रदाय और क्षेत्रवाद हावी है। इसमें कोई भी दल दूसरे से पीछे नहीं रहना चाहता। एक−दूसरे की जाति को लेकर निजी हमले किए जा रहे हैं। राजनीतिक दलों के नेता सत्ता हथियाने के लिए कैसे समाज में जहर घोल कर देश को कमजोर करने का काम करते हैं, इसे राजस्थान में चले रहे विधानसभा चुनावों में देखा−समझा जा सकता है। परवान पर पहुंच चुके चुनाव प्रचार में कांग्रेस और भाजपा ने मानो नैतिकता, देश की एकता−अखण्डता और सौहार्द को गिरवी रख दिया है। चुनावों में दोनों ही प्रमुख दलों के नेता एक−दूसरे के खिलाफ विषवमन करने में पूरी ताकत से जुटे हैं। विकास और तरक्की के वायदे हवा हो गए हैं। राज्य में करोड़ों मतदाताओं की आशा−अपेक्षा अब धूल−धूसरित हो रही है। प्रदेश में आम मतदाताओं की दुख−तकलीफों से लगता है कि किसी दल का वास्ता ही नहीं रह गया। वास्तविक मुद्दों की बजाए मतदाताओं को बांटने की पूरी कोशिश की जा रही है।
 
यह अलग बात है कि मतदाताओं ने बेतुकी और विकास को भटकाने वाली बातें करने वाले नेताओं को पहले भी कई बार आईना दिखाया है। इसका भाजपा और कांग्रेस ने अपने राजनीतिक इतिहास से सबक नहीं लिया। गौरतलब है कि नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में केंद्र में सरकार बनाने से पहले देश को सिर्फ बेहतर विकास और भविष्य का ख्वाब दिखाया गया था। कांग्रेस के काले कारनामों से परेशान हो चुके देश के मतदाताओं ने मोदी पर पूरा भरोसा जताते हुए देश की कमान सौंप दी थी। अब देखना है कि राजस्थान में मोदी का जादू कैसे कांग्रेस की जीती पारी को हार में बदलने में सक्षम होता है ? देखना यह भी है कि मतदाता के दिलों पर उनका कैसा असर कायम है ?
  
लेकिन यह तय है कि चुनाव का समय मतदाता को ही लोकतन्त्र का मालिक घोषित करता है। हमने आजादी के बाद से हर चुनाव में मतदाताओं की वह बुद्धिमानी देखी है जो राजनीतिज्ञों को मूर्ख साबित करती रही है। इसकी असली वजह यह होती है कि मतदाता हर चुनाव में उस राजनैतिक एजेंडे को ही गले लगाते हैं जो उनके दिल के करीब होता है। मगर राजनीतिज्ञों को मतदान के दिन तक यह गलतफहमी रहती है कि वे उनकी गढ़ी हुई राजनैतिक शब्दावली के धोखे में आ जायेंगे। अतः जो लोग सोच रहे हैं कि राजस्थान के चुनाव में असंगत बातों को उछाल कर बाजी जीती जा सकती हैं या मतदाता को ठगा या गुमराह किया जा सकता है, उन्हें अंत में निराश ही होना पड़ेगा। अब हार-जीत का निष्कर्ष जनता से जुड़े वास्तविक मुद्दे पर टिका है, क्योंकि एक दिन की बादशाह जनता ही होती है जो किसी भी दल या नेता को ‘फर्श’ से उठा कर ‘अर्श’ पर पहुंचा देती है या ‘अर्श’ से ‘फर्श’ पर पटक देती है।
 
-ललित गर्ग
अंग्रेजी में एक कहावत है "नो योरसेल्फ एंड बी योरसेल्फ" यानी खुद को जानो और फिर वैसा ही आचरण करो। शायद इसी वाक्य से प्रेरित होकर, लगता है कि कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी भी खुद को जानने की एक अनंत यात्रा पर निकले हैं। वे अपनी स्वयं की ही खोज में निकले हैं। चूंकि यह कोई छोटा विषय तो है नहीं, इसलिए हर महत्वपूर्ण कार्य की ही तरह इस कार्य को भी वो केवल विशेष मुहूर्तों में ही करते हैं। जी हाँ "मुहूर्त", अर्थात् किसी कार्य की सिद्धि या फिर उसमें सफलता प्राप्त करने का सर्वोत्तम समय। अगर कार्य का उद्देश्य आध्यत्मिक फल की प्राप्ती होता है तो यह मुहूर्त सनातन धर्म के पंडित से निकलवाया जाता है। लेकिन अगर कार्य का उद्देश्य राजनैतिक फल की प्राप्ति होता है तो इसका मुहूर्त राजनैतिक पंडित निकलते हैं। जिस प्रकार हिन्दू धर्म के पंडित पंचांग से तिथियाँ देखकर सर्वश्रेष्ठ तारीख बताते हैं, उसी प्रकार राजनीति के विशेषज्ञ चुनावी कैलेंडर देखकर कार्यसिद्धि के लिए सर्वश्रेष्ठ तारीख बताते हैं। इसलिए राहुल गांधी की खुद की ही खोज की इस प्रकार की यात्राएं ज्यादातर चुनावों के दिनों में ही शुरू होती हैं और उत्तर मिले या ना मिले चुनावों के साथ ही खत्म भी हो जाती हैं। आगे की खोज के लिए उन्हें अगले चुनावों की तारीख का इंतजार करना पड़ता है।
 
दरअसल 2014 से पहले उनका जीवन बहुत आराम से बीत रहा था। कहीं कोई दिक्कत नहीं थी। उन्हें अपनी पहचान की कोई दिक्कत नहीं थी, वो खुद को "सेक्युलर" कहते थे और अपनी "सेक्युलर छवि" से पूरी तरह से संतुष्ट थे। उन्हें मीडिया में अपनी मंदिर में माथा टेकते फ़ोटो या फिर जनेऊ दिखाने की आवश्यकता भी नहीं पड़ती थी।
 
लेकिन 2014 के बाद समय ने करवट ली। जो सेक्युलर छवि कल तक सत्ता की चाबी का पासवर्ड थी आज उसी सत्ता के लिए सबसे बड़ा वायरस बन गई। जब आनन फानन में खोज की गई, तो पता चला कि इस वायरस को मारने वाला एंटीवायरस केवल एक ही है जिसका नाम है "हिंदुत्व" लेकिन उसकी एक ही कॉपी थी जो पहले से ही किसी और ने अपने नाम कर ली है। अब तुरत फुरत में उस एंटीवायरस का डुप्लीकेट तैयार किया गया, "सॉफ्ट हिंदुत्व"। लेकिन चूंकि यह ओरिजनल न होकर डुप्लिकेट था, इसकी एक समस्या थी। यह केवल साइट पर ही एक्टिवेट होता था। जी हाँ ठीक समझे। इसे प्रभावकारी बनाने के लिए बार बार हिंदुत्व के भाव जगाने वाले मूल स्थान यानी मंदिरों में जाना पड़ता है।
 
अब शुरू होती है राहुल की वो यात्रा जिसमें वो अपनी एक नई पहचान ढूंढने निकले हैं। जी हाँ यह एक पहचान को गढ़ने से ज्यादा ढूंढना है। क्योंकि कोई भी व्यक्तित्व गढ़ा तब जाता है जब हमारे मन में उसकी स्पष्ट छवि हो। लेकिन राहुल तो अपनी इस यात्रा में रोज रोज नई चीजें सीख कर नए नए रहस्योद्घाटन ही नहीं कर रहे बल्कि अपनी ही नई परम्परायें भी बना रहे हैं।
 
 
अभी कुछ ही दिन पहले जब वे एक मंदिर में गए थे और वहाँ के पुजारी ने उनसे उनका गोत्र पूछा था तो वे बता नहीं पाए थे लेकिन अब हाल ही में राजस्थान के पुष्कर मंदिर में जब उनसे उनका गोत्र पूछा गया, तो उन्होंने बताया कि वे दत्तात्रेय कौल ब्राह्मण हैं। इससे पहले वे खुद को एक जनेऊधारी ब्राह्मण भी बता चुके हैं लेकिन जब गुजरात के सोमनाथ मंदिर में जाते हैं तो अपना नाम गैर हिंदुओं के रजिस्टर में लिखकर आते हैं। खैर, अभी यहां हम केवल उनके गोत्र के विषय पर आते हैं।
 
 
दरअसल जब कांग्रेस पार्टी की तरफ से इस प्रकार के मूर्खतापूर्ण कार्य किये जाते हैं और वो भी छाती ठोक के, तो बेहद अफसोस के साथ कहना पड़ता है कि वे इस देश की जनता को मूर्ख समझ कर उस का अपमान करते हैं। ऐसा लगता है कि ऐसी बातें करके वे देश की जनता को ललकार कर कह रहे हों कि तुम केवल मूर्ख ही नहीं अंधे भी हो क्योंकि तुम वो ही देख पाते हो जो दिखाया जाता है। क्योंकि, तुम यह भी नहीं देख पा रहे कि जो कांग्रेस पार्टी कल तक सोनिया गांधी के नाम की माला जपती थी आज सत्ता के लालच में उन्हीं का अपमान करने से भी नहीं चूक रही। आइए देखते हैं कैसे,
 
1, गोत्र का चलन केवल भारत में है और वो भी केवल हिंदुओं में
2, गोत्र एक प्रकार की पहचान होती है जो आपके कुल परम्परा, वंश को बताती है
3, वंश परंपरा केवल भारत ही नहीं विश्व के अधिकांश देशों में पिता के नाम से चलती है
4, खुद राहुल गांधी की मां सोनिया गांधी का असली नाम एंटोनियो "मायनो" है, और उनके पिता का नाम स्टेफेनो "मायनो" 
5, राहुल के पिता राजीव की बात करें तो उनके पिता का नाम फिरोज़ जहांगीर गांधी था। कहा जाता है कि वो एक पारसी थे, लेकिन उनकी कब्र प्रयागराज में है इस प्रकार उन्होंने केवल गांधी जी का नाम अपनाया था धर्म नहीं।
6, अब कांग्रेस का कहना है कि राहुल के पिता राजीव गांधी ने अपने पिता का केवल नाम अपनाया था धर्म नहीं, धर्म उन्होंने अपनी माँ इंदिरा का अपनाया था जो उन्हें अपने पिता जवाहरलाल नेहरु से मिला था जो खुद को एक कश्मीरी पंडित कहते थे। यह अलग विषय है कि नेहरु यह भी कहते थे कि शिक्षा से मैं एक अंग्रेज हूँ, विचारों से मैं इनटरनेशनलिस्ट हूँ, संस्कारों से एक मुस्लिम हूँ और एक्सीडेंटली एक हिन्दू हूँ।
7, तो अब प्रश्न यह उठता है कि जब राजीव ने अपने पिता का नाम अपनाया था तो अधूरा क्यों अपनाया राजीव गाँधी, राजीव फिरोज़ जहांगीर गांधी नहीं, क्यों?
8, राजीव ने अपने पिता का अधूरा ही सही गाँधी नाम तो अपना लिया लेकिन उन्होंने अपने पिता का धर्म क्यों नहीं अपनाया? अपनी माँ का धर्म क्यों अपनाया?
9, अब अगर वह गांधी नाम को अपना रहे हैं तो गोत्र से गांधी हट कर नेहरू जी का कश्मीरी ब्राह्मण और दत्तात्रेय कैसे आ गया?
10, वैसे तो गोत्र पिता से आता है माँ से नहीं फिर भी चलो इस परिवार को विशेष परिस्थितियों में माता की ही तरफ से गोत्र बताने दिया जाये, तो भी यह गोत्र तो केवल राजीव गांधी का है राहुल का नहीं क्योंकि राजीव की माँ इंदिरा हैं जो कि नेहरू की बेटी हैं जो कि कश्मीरी पंडित हैं जबकि राहुल की माँ सोनिया हैं।
11, राहुल अगर माता की तरफ का गोत्र लेंगे तो उनका कोई भी गोत्र कैसे हो सकता है क्योंकि उनकी माँ सोनिया हैं जो एक ईसाई हैं?
12, अब राहुल जब अपने दत्तात्रेय गोत्र का नाम लेते हैं और उसे ये कांग्रेस माँ की तरफ का कहती है जब कि वो उनकी दादी है, तो क्या ये एक माँ का अपमान नहीं है जिसका अस्तित्व ही ये अपने राजनैतिक स्वार्थ के लिए नकार रहे हैं?
13, लेकिन इन सब से परे एक महत्वपूर्ण प्रश्न भी है जिसका उत्तर यह देश इस गाँधी परिवार से आज जानना चाहेगा।
आज जो परिवार खुद के एक कश्मीरी पंडित होने की दुहाई दे रहा है उन्होंने 1990 में घाटी के कश्मीरी पंडितों को अकेला क्यों छोड़ दिया था? अगर उस समय इस परिवार ने अपने कर्म से यह जता दिया होता कि वो वाकई में एक जनेऊधारी हिन्दू ब्राह्मण हैं तो आज उस परिवार को अपने जन्म से हिन्दू होने के प्रमाण नहीं देने पड़ते क्योंकि भारत वो देश है जिसमें जन्म से ज्यादा महत्व कर्म को दिया जाता है।
 

 

 
इसलिए अब वक्त आ गया है कि राहुल इस बात की गंभीरता को समझें कि जितनी कांग्रेस को सत्ता की जरूरत है उससे अधिक इस देश के लोकतंत्र को एक समझदार और दमदार विपक्ष की जरूरत है। इस देश के लोगों को इंतज़ार है एक ऐसे विपक्ष का जो उन्हें देश के भविष्य को संवारने की अपनी स्पष्ट नीतियाँ दिखाए अपना जनेऊ नहीं। यह देश बेताब है ऐसे विपक्ष को सर आँखों पर बैठाने के लिए जो लोगों के दिलों में अपने काम से उतरने में यकीन रखता हो अपने गोत्र या परदादा या फिर अपनी दादी के नाम के सहारे नहीं।
 
-डॉ. नीलम महेंद्र
कांग्रेस पार्टी जिस प्रकार से नाम और खानदान का मुद्दा उछालने में लगी है, उससे ये बहस फिर छिड़ी है कि क्या भारत में राजवंशीय लोकतंत्र होना चाहिए। पिछले दिनों प्रधानमंत्री की बुजुर्ग मां की उम्र को राजनीतिक बहस का हिस्सा बना दिया गया। उनके पिता को लेकर टिप्पणी की गई और यह साबित करने की कोशिश की गई कि प्रधानमंत्री बनने के लिए पिता की पहचान जरूरी है। ऐसी दलीलें भी आईं कि अगर आप किसी नामी परिवार की विरासत से आते हैं, तो राजनीतिक लिहाज से यह आपकी बड़ी योग्यता है। जाहिर है ऐसे में साधारण परिवारों से आने वाले लाखों प्रतिभाशाली राजनीतिक कार्यकर्ता कांग्रेस के नेतृत्व परीक्षण में फेल हो जाएंगे। कांग्रेस के लिए योग्यता, प्रतिभा, प्रेरणा और नेतृत्व करने की क्षमता कुछ नहीं है, उसके लिए खानदान का नाम और बड़ा सरनेम ही एक राजनीतिक ब्रांड है।
 
 
(1) गांधी जी के पिता का नाम क्या है?
(2) सरदार पटेल के पिता का नाम क्या है?
(3) सरदार पटेल की पत्नी का नाम क्या है?
 
मेरे किसी भी जानकार मित्र के पास इन सवालों का कोई निश्चित उत्तर नहीं था। यह कांग्रेस की राजनीति और देश पर उसके प्रभाव की त्रासदी है। गांधी जी ने भारत के सबसे असाधारण स्वतंत्रता आंदोलन का नेतृत्व किया। उन्होंने राजनीतिक जागरूकता, सत्याग्रह और अहिंसा के माध्यम से एक ऐसा वातावरण बनाया, जिससे अंग्रेजों को भारत पर शासन बनाए रखना असंभव लगने लगा। सरदार पटेल का योगदान किसी से कम नहीं था। स्वतंत्रता आंदोलन की अग्रिम पंक्ति के नेता होने के अलावा, उन्होंने भारत के उप प्रधानमंत्री और गृह मंत्री के रूप में अंग्रेजों के साथ सत्ता हस्तांतरण की बातचीत की। उन्होंने 550 से अधिक रियासतों से बातचीत कर भारत को एक करने का काम किया। उन्होंने कुछ ही महीनों के अंतराल में भारत को मौजूदा स्वरूप प्रदान किया। संयोग से, गांधीजी के पिता करमचंद उत्तमचंद गांधी थे, सरदार पटेल के पिता झावरभाई पटेल थे और उनकी पत्नी का नाम दिवाली बा था। हालांकि इतिहासकारों द्वारा व्यापक शोध के बाद भी आज तक उनकी पत्नी की कोई तस्वीर या उनका अन्य कोई विवरण उपलब्ध नहीं हो पाया है।
 
 एक परिवार का आधिकारिक महिमामंडन
 
इसकी वजह को समझना आसान है। दशकों तक कांग्रेस के शासन में कॉलोनी, इलाके, शहर, ब्रिज, एयरपोर्ट, रेलवे स्टेशन, स्कूल, कॉलेज, यूनिवर्सिटी, स्टेडियम, इन सबके नाम एक ही परिवार के नाम पर रखे जाते रहे। इसके पीछे की नीयत थी- ‘गांधियों’ को देश की रॉयल्टी के रूप में स्थापित करना। उन्हें ‘सरकारी स्तर पर’ भारत के संभ्रांत परिवार के रूप में महिमामंडित किया गया। बाकी किसी का कोई मतलब नहीं था। याद किया जा सकता है कि मुंबई में सरदार पटेल के निधन के बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री नेहरू ने कैबिनेट के अपने सहयोगियों से अंतिम संस्कार में भाग लेने के लिए मुंबई नहीं जाने का अनुरोध किया था। वे सीधे नहीं रोक सकते थे, इसलिए ये कहते हुए अनुरोध किया था कि सरदार पटेल के अंतिम संस्कार के दिन अपने कामकाज करते रहना ही उन्हें सबसे अच्छी श्रद्धांजलि होगी। लेकिन उनकी इस सलाह को सबने नकार दिया था। विजय चौक पर सरदार पटेल की प्रतिमा के निर्माण के प्रस्ताव को रिजेक्ट कर दिया गया था। तब संसद मार्ग के एक ट्रैफिक चौराहे पर उनका स्टैच्यू लगाकर देश को मनाया गया था।
 
बारदोली सत्याग्रह में सक्रिय भागीदारी को लेकर ज्यादातर लोग सरदार पटेल को किसान नेता मानते हैं। लेकिन सरदार पटेल अहमदाबाद के सबसे सफल पेशेवर वकीलों में से एक थे। पंडितजी की चर्चा एक बड़े वकील के रूप में की जाती है, लेकिन अपने पूरे कॅरियर में उन्होंने एक भी केस में जिरह नहीं की थी। वह सांकेतिक रूप से बस एक बार कोर्ट गए थे, जहां वो भूलाभाई देसाई के सहयोगी रहे सीनियर वकीलों के पीछे बैठे थे। लाल किले के अंदर विद्रोह से जुड़े एक मुकदमे की सुनवाई में भोलाभाई तब आजाद हिंद फौज के तीन सेनानियों की ओर से अपनी दलीलें दे रहे थे।
 
दूसरों की कीमत पर महिमामंडन के खतरे
 
देश के लिए बड़ा योगदान देने वाले नेताओं की तुलना में किसी एक खानदान का आधिकारिक रूप से महिमामंडन करना, उस पार्टी के साथ-साथ देश के लिए भी घातक है। पटेल और सुभाष चंद्र बोस जैसे महान नेताओं के योगदान को कम करके आंका गया। एक खानदान के लोगों को सबसे महान बताने का काम किया गया। उन्होंने भ्रम का एक ऐसा वातावरण बनाया, जिसमें देश आ गया। पार्टी ने इस खानदान के नेताओं को ही अपनी विचारधारा बना लिया। जब पंडितजी ने अपनी बेटी को अपना उत्तराधिकारी बनाया, तभी उन्होंने भारत में वंशवादी राजनीति की बुनियाद रख दी थी। जब यही बेटी 1975 में तानाशाह में बदल गई तो पार्टी की विचारधारा भी भारत को ‘’अनुशासित लोकतंत्र’’ में बदलने वाली हो गई। जब 1984 में सिखों का नरसंहार हुआ, तो उनके खिलाफ साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण को बिल्कुल सटीक राजनीतिक रणनीति मान लिया गया। भाजपा विरोध आजकल कांग्रेस को ऐसी स्थिति में ले आया है कि वो अपने राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों से भी गठजोड़ कर सकती है और माओवादियों, अलगाववादियों और गड़बड़ी फैलाने वालों से सहानुभूति रख सकती है।
 
हमने कई क्षेत्रों में देखा है कि वंशवादी नीतियों की कीमत देश को चुकानी पड़ी है। श्रीनगर के दो और नई दिल्ली के एक परिवार यानि कुल तीन परिवारों ने मिलकर 71 साल से जम्मू-कश्मीर की नियति से खेला है। इसके परिणाम स्पष्ट हैं। कांग्रेस के अंदर वंशवादी नेतृत्व के तरीके को देखते हुए कुछ और दूसरे दलों ने भी यही तरीका अपना लिया है। ऐसे संगठनों में ना तो कोई आंतरिक लोकतंत्र है और ना ही इनका कोई आदर्शवादी सिद्धांत है। अपने घोर राजनीतिक विरोधियों की तरफ झुकने या उनसे तालमेल की पूरी छूट है। आंध्र प्रदेश में एनटी रामाराव ने कांग्रेस का विकल्प बनकर वहां की राजनीतिक शून्यता को भरा था। लेकिन धीरे-धीरे पार्टी का नियंत्रण मौजूदा मुख्यमंत्री के हाथों में चला गया, जो हर आम चुनाव में पाला बदलते रहते हैं। उनकी पार्टी में दूसरी पंक्ति का कोई नेतृत्व है ही नहीं और जो विकल्प दिया है वो सिर्फ “विरोधियों का गठजोड़” ही है।
  
वैसे वंशवाद को लेकर सवालों में रहने वाली पार्टियों को भी इसकी कीमत चुकानी पड़ती है। केवल उसी नेता का राजनीतिक भविष्य होता है, जो वंशवादी पार्टियों के नेताओं को पसंद हो। परिवार के विरुद्ध जाते ही आपको पार्टी से बाहर फेंक दिया जाता है या हाशिए पर डाल दिया जाता है। यहां टैलेंट की कोई जगह नहीं होती है और मेरिट की भी कोई पूछ नहीं। संगठनात्मक ढांचे की तो कोई जरूरत ही नहीं होती है। सिर्फ परिवार का करिश्मा ही पार्टी का वोट बैंक होता है। परिवार के इर्द गिर्द की भीड़ ही कैडर बन जाती है।
 
वंशवादी पार्टियों की कमजोरी
 
इस मॉडल की एक खास कमजोरी है। पार्टी की ताकत वंश की वर्तमान पीढ़ी की क्षमता से जुड़ी होती है। अगर वर्तमान पीढ़ी गैर प्रेरणादायक या नेतृत्व करने में अक्षम होती है तो पार्टी को अपनी सारी ऊर्जा एक अयोग्य व्यक्ति पर खर्च करनी होती है। इसका परिणाम 44 लोक सभा सीट भी हो सकता है, कभी इससे थोड़ा कम, कभी थोड़ा ज्यादा। नेता की बचकानी प्रतिक्रिया और अज्ञानता नई विचारधारा बन जाती है। लेकिन यह उम्मीद की किरण है कि भारत बदल रहा है। इसके पास एक बहुत बड़ा मध्यम वर्ग है और एक बड़ा महत्वाकांक्षी तबका मध्यम वर्ग में शामिल होने का आकांक्षी है। यह महत्वाकांक्षी भारत पार्टियों और नेताओं को कड़ी कसौटी पर परखता है। किसी को भी थोप देना उन्हें स्वीकार्य नहीं। वे कठिन और धारदार सवाल पूछते हैं और उनका पैमाना बहुत सख्त है। वे ईमानदार नेताओं की तलाश में रहते हैं, वे उन्हें प्रेरित कर सकने वाले, दृढ़ व देश का नेतृत्व कर सकने वाले समर्थ लोगों की खोज में रहते हैं। उनके लिए उपनाम का कोई महत्त्व नहीं, योग्यता और क्षमता का महत्त्व होता है।
 
2019 की चुनौती
 
भारतीय लोकतंत्र की मजबूती तभी और सामने आएगी जब कुछ परिवारों का करिश्मा पूरी तरह से ध्वस्त कर दिया जाए और पार्टियों द्वारा एक लोकतांत्रिक प्रक्रिया के माध्यम से योग्य और क्षमतावान नेताओं को आगे बढ़ाया जाए। 2014 में ऐसा साबित भी हुआ है, जब ज्यादातर वंशवादी पार्टियां बुरी तरह से चुनाव हार गईं। 2019 का भारत 1971 के भारत से अलग है। अगर कांग्रेस पार्टी यह चाहती है कि 2019 की लड़ाई कम चर्चित माता-पिता के बेटे मोदी और अपनी क्षमता व योग्यता की बजाए अपने माता-पिता की वजह से चर्चा में रहने वाले के बीच हो, तो बीजेपी खुशी-खुशी यह चुनौती स्वीकार करेगी। इसे 2019 के लिए एजेंडा बनने दें।
 
-अरुण जेटली
(लेखक केंद्रीय वित्त मंत्री हैं।)
चुनाव से संबंधित एक अच्छा समाचार सुनने को मिला है। महाराष्ट्र चुनाव आयोग आदेश दिया है कि सभी निकाय चुनाव में यदि नोटा को सबसे अधिक मत मिलते हैं, तो चुनाव स्थगित करके दोबारा चुनाव कराया जाएगा। राज्य चुनाव आयुक्त जेएस सहरिया ने कहा कि वे नोटा की सहायता से चुनाव प्रक्रिया को बेहतर करने की उम्मीद कर रहे हैं और ऐसा मतदाताओं की बढ़ी हुई भागीदारी से होगा। नोटा राजनीतिक दलों को योग्य प्रत्याशियों को उतारने के लिए मजबूर करेगा। हमने निश्चय किया कि इसे बदला जाए और नोटा को अधिक प्रभावी बनाया जाए। चुनाव अधिकारियों ने कहा है कि संशोधित नोटा नियम अगले वर्ष के लोकसभा और राज्य विधानसभा चुनावों के लिए भी प्रभावी हो सकते हैं, बशर्ते भारतीय चुनाव आयोग इस प्रकार का संशोधन करे। अभी तक की स्थिति के अनुसार नोटा नियम स्थानीय निकाय चुनावों के लिए लागू हैं, क्योंकि हमने धारा-243 के अंतर्गत अपने अधिकारों का उपयोग करते हुए परिवर्तन कर दिए हैं। चुनाव आयोग धारा-324 के अंतर्गत ऐसे परिवर्तन कर सकता है।
 
वैसे ये अपने आप में ऐतिहासिक निर्णय है। निकाय चुनाव में मतदाता कम होते हैं और वे प्रत्याशियों के गुण-दोषों को भी भली-भांति जानते हैं। ऐसे में नोटा के मत अधिक होने पर चुनाव स्थगित करके दोबारा चुनाव कराया जाएगा। ऐसी परिस्थिति में राजनीतिक दलों का प्रयास रहेगा कि वे योग्य प्रत्याशियों को चुनाव मैदान में उतारें। देश में पिछले कई वर्षों से नोटा लागू है, परंतु लोकसभा और विधानसभा चुनावों में नोटा को अधिक मत मिलने पर चुनाव रद्द करने संबंधी कोई निर्णय नहीं लिया गया है। पिछले बहुत समय से यह मांग उठती रही है कि नोटा को अधिक मत मिलने पर चुनाव को स्थगित करके दोबारा चुनाव कराए जाएं।
 
नोटा का अर्थ है नन ऑफ द एबव अर्थात इनमें से कोई नहीं। जो मतदाता प्रत्याशी के भ्रष्ट, अपराधी होने या ऐसे ही किसी अन्य कारण से उन्हें मत न देना चाहें तो वे नोटा का बटन दबा सकते हैं। इलेक्ट्रोनिक वोटिंग मशीन में यह बटन गुलाबी रंग का होता है, जो स्पष्ट दिखाई देता है। उल्लेखनीय है कि देश में वर्ष 2015 में नोटा लागू हुआ था। वर्ष 2009 में चुनाव आयोग ने सर्वोच्च न्यायालय में एक याचिका दाखिल कर कहा था कि वह इलेक्ट्रोनिक वोटिंग मशीन में नोटा का विकल्प उपलब्ध कराना चाहता है, ताकि जो मतदाता किसी भी प्रत्याशी को मत न देना चाहें, वे इसे दबा सकें। इसके पश्चात नागरिक अधिकार संगठन पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज ने भी सर्वोच्च न्यायालय में नोटा के समर्थन में एक जनहित याचिका दायर कर नोटा को लागू करने की मांग की। इस पर वर्ष 2013 में न्यायालय ने मतदाताओं को नोटा का विकल्प उपलब्ध कराने का निर्णय किया। तत्पश्चात निर्वाचन आयोग ने दिसंबर 2013 के विधानसभा चुनावों में इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन में नोटा बटन का विकल्प उपलब्ध कराने के निर्देश दिए थे। साथ ही चुनाव आयोग ने स्पष्ट किया था कि नोटा के मतों की गणना की जाएगी, परंतु इन्हें रद्द मतों की श्रेणी में रखा जाएगा। इसका अर्थ यह हुआ कि नोटा से चुनाव परिणाम पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा। वर्ष 2013 में देश में पहली बार चुनाव में नोटा का प्रयोग किया गया। उल्लेखनीय है कि विश्व के अनेक देशों में चुनावों में नोटा का प्रयोग किया जाता है। इनमें बांग्लादेश, यूनान, यूक्रेन, स्पेन, स्वीडन, चिली, फ्रांस, बेल्जियम, कोलंबिया, ब्राजील, फिनलैंड आदि देश सम्मिलित हैं। 
 
वास्तव में नोटा मतदाताओं को प्रत्याशियों के प्रति अपनी प्रतिक्रिया देने का विकल्प उपलब्ध कराता है। नोटा के मतों की भी गणना की जाती है। नोटा से पता चलता है कि कितने मतदाता किसी भी प्रत्याशी से प्रसन्न नहीं हैं। वे चुनाव में खड़े किसी भी प्रत्याशी को इस योग्य नहीं समझते कि वे उसे अपना प्रतिनिधि चुन सकें। नोटा के विकल्प से पूर्व मतदाता को लगता था कि कोई भी प्रत्याशी योग्य नहीं है, तो वह मतदान का बहिष्कार कर देता था और मत डालने नहीं जाता था। इसी स्थिति में वह मतदान के अपने मौलिक अधिकार से स्वयं को वंचित कर लेता था। इसके कारण उसका मत भी निरर्थक हो जाता था। परंतु नोटा ने मतदाताओं को प्रत्याशियों के प्रति अपना मत प्रकट करने का अवसर दिया है।
 
देश में नोटा के प्रति लोगों में अधिक जागरूकता नहीं है। आज भी अधिकतर मतदाता नोटा के विषय में नहीं जानते। नोटा लागू होने के पश्चात देश में लोकसभा, विधानसभाओं और स्थानीय निकायों के कई चुनाव हो चुके हैं, परंतु नोटा के अंतर्गत किए गए मतदान की दर मात्र 2 से 3 प्रतिशत ही रही है। विशेष बात ये है कि इनमें अधिकांश वो क्षेत्र हैं, जो नक्सलवाद से प्रभावित हैं या फिर आरक्षित हैं।
 
पांच राज्यों में चुनावी माहौल है। सभी दल अपनी जमीन मजबूत करने में लगे हैं। वर्ष 2019 लोकसभा के ठीक पहले ये विधानसभा चुनाव हो रहे हैं। इसका सीधा प्रभाव लोकसभा चुनाव पर पड़ेगा, इसलिए नोटा से राजनीतिक दल घबराये हुए हैं। भारतीय लोकतंत्र की खूबसूरती है कि आमजन अपने मतदान का प्रयोग कर अपनी भूमिका से लोकतंत्र की रक्षा करते हैं।
 
-डॉ. सौरभ मालवीय

अलवर. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने रविवार को अलवर के विजय नगर मैदान से राज्य में चुनाव प्रचार अभियान की शुरुआत की। मोदी ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट का कोई जज जब अयोध्या जैसे गंभीर मुद्दे पर न्याय दिलाने की दिशा में आगे बढ़ता है तो कांग्रेस जजों के खिलाफ महाभियोग लाकर उन्हें डराती-धमकाती है।
मोदी ने कहा कि जब अयोध्या मामले पर सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई चल रही थी। कांग्रेस के नेता और राज्यसभा के सदस्य ने कहा कि 2019 तक केस मत चलाओ क्योंकि 2019 में चुनाव हैं। देश के न्यायतंत्र को इस प्रकार राजनीति में घसीटना उचित है क्या? यह भी कहा कि कांग्रेस के पास चुनाव में मुद्दा नहीं है। उनके नेता कभी मेरी मां को गाली देते हैं, कभी मेरी जाति को लेकर सवाल पूछते हैं। पूरा देश यह जान गया है कि ये सब नामदार (राहुल गांधी) के कहने पर हो रहा है।
'नफरत का भाव कांग्रेस की रगों में'
मोदी ने यह भी कहा, "कांग्रेस जातिवाद का जहर फैलाने से बाज नहीं आ रही। दलितों और पिछड़ों के प्रति नफरत का भाव कांग्रेस की रगों में भरा पड़ा है। अलवर की धरती गौरव और अहंकार को चूर करने वाली है। यहां के लोग नामदारों के अहंकार को चकनाचूर कर देंगे। कांग्रेस में हिम्मत हो तो वसुंधरा जी ने जो काम किया है, उसे चुनौती दें। लेकिन उनकी सरकार के कार्यकाल का हिसाब इतना बुरा है कि उसे याद करने की भी हिम्मत नहीं है।
'जो लोग बम दागते थे, हमने उन्हें कटोरा थमा दिया'
"कांग्रेस की जातिवादी मानसिकता का ही परिणाम है कि जहां-जहां कांग्रेस को सरकार चलाने का मौका मिला वहां दलितों के नरसंहार हुए। कांग्रेस ने देश को तोड़ने का काम किया।"
"जो लोग कल तक भारत पर बम दागने की धमकी देते थे, आज हमारी रणनीति ने उनके हाथ में कटोरा थमा दिया।"
"कांग्रेस पार्टी इतनी नीचे गिरती जा रही है कि उन्होंने राजनीति के संस्कार छोड़ दिए। वे शिष्टाचार भूल गए हैं।"
"बाबा साहब को भारत रत्न मिलना चाहिए था। लेकिन इन्होंने एक ही परिवार के चार रत्नों को भारत रत्न दे दिए। बाबा साहब की याद तक नही आई।"
"कांग्रेस के लोग सुप्रीम कोर्ट में जाकर बोल रहें है कि राम मंदिर केस की सुनवाई 2019 से पहले नहीं होनी चाहिए। क्योंकि देश में कई चुनाव हैं।"
"राजस्थान में कांग्रेस के नेता भारत माता की जय बोलने की बजाय सोनिया गांधी की जय बोलने के लिए कह रहे हैं। कांग्रेस के लिए भारत माता से बड़ी भी कोई और माता है।"
"कबीर के गुरु रामानंद ने कहा था- जो हरि को भजे, वो हरि का कोई। हमने भी यही संस्कार पाए है। गरीब, वंचित, अनपढ़, पढ़ा लिखा यानी हर व्यक्ति हरि का रूप है। इसलिए मैं यही कहूंगा कि जो गरीब को भजे, वो गरीब का होई। जो जनता, युवा, भारत को भजे, वो इनका होई।''
राहुल ने जोशी के बयान पर किया था ट़्वीट
बुधवार को डॉ. सीपी जोशी ने नाथद्वारा के सेमा गांव में चुनावी सभा की थी। इस दौरान उन्होंने कहा था, "ऋतंभरा और मोदी की जाति क्या है, ये हिंदू धर्म के बारे में कैसे बात करते हैं? इस देश में अगर धर्म के बारे में कोई जानता है तो पंडित जानता है। अजीब देश हो गया है। उमा भारती लोधी समाज की हैं और वो हिंदू धर्म की बात कर रही हैं।" हालांकि, बाद में जोशी की इस जातिगत टिप्पणी पर राहुल गांधी ने ऐतराज जताया। राहुल ने ट्वीट किया, "सीपी जोशी जी का बयान कांग्रेस के आदर्शों के विपरीत है।"
5 साल पहले मुख्यमंत्री के रूप में अलवर आए थे मोदी
गुजरात के मुख्यमंत्री रहते हुए नरेन्द्र मोदी 2013 के विधानसभा चुनाव में 5 साल पहले 19 नवंबर को अलवर आए थे। उस समय मोदी प्रधानमंत्री पद के भाजपा के घोषित प्रत्याशी थे। उन्होंने इसी विजय नगर मैदान पर जनसभा में कहा था कि अब वह प्रधानमंत्री बनने के बाद अलवर आएंगे।

अयोध्या. रविवार को यहां होने वाली धर्म सभा से पहले विश्व हिंदू परिषद ने कहा है कि यह हमारी अाखिरी बैठक होगी। इसके बाद और सभाएं या प्रदर्शन नहीं होंगे। न ही किसी को समझाया जाएगा। सीधे मंदिर निर्माण होगा। विहिप के संगठन सचिव भोलेंद्र ने कहा, ‘‘हमने पहले 1950 से 1985 तक 35 साल अदालती फैसले का इंतजार किया। इसके बाद 1985 से 2010 तक का समय हाईकोर्ट को फैसला देने में लग गया। इसके बाद सुप्रीम कोर्ट ने त्वरित सुनवाई की अर्जी दो मिनट में ठुकरा दी। दुर्भाग्य है कि 33 साल से रामलला टेंट में हैं। अब और इंतजार नहीं होगा।’’ इस बीच, शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे शनिवार सुबह मुंबई से अयोध्या के लिए रवाना हो गए। उनकी पार्टी के कार्यकर्ता भी 2 स्पेशल ट्रेनों से अयोध्या पहुंच रहे हैं। उद्धव शनिवार को लक्ष्मण किले में संतों से मुलाकात करेंगे। शाम को सरयू आरती में शामिल होंगे। रविवार सुबह रामलला के दर्शन का कार्यक्रम है।
राम मंदिर के लिए धर्म सभा को पहली बार संघ का खुला समर्थन
रविवार को अयोध्या में धर्म सभा बुलाई गई है। विश्व हिंदू परिषद और कई हिंदू संगठन इसका हिस्सा हैं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने पहली बार इसे ना केवल खुला समर्थन दिया है, बल्कि प्रबंधन का जिम्मा भी संभाला है। राम मंदिर को लेकर 1992 के बाद एक बार फिर अयोध्या में हिंदू संगठनों का जमावड़ा हुआ है। सियासत गर्म है, लेकिन अयोध्या शांत नजर आती है। राम मंदिर विवाद से जुड़े लोग कहते हैं- हमें डर नहीं है। 1992 जैसा कुछ दिखाई नहीं देता।
24-25 नवंबर के लिए क्या हैं हिंदू संगठनों की तैयारियां?
शिवसेना: उद्धव 2 बजे लक्ष्मण किला में संत आशीर्वाद सम्मेलन में शामिल होंगे। यहां राम जन्मभूमि न्यास अध्यक्ष महंत नृत्य गोपाल दास, भाजपा सांसद लल्लू सिंह, भाजपा विधायक वेद प्रकाश गुप्ता को भी बुलाया गया है। 2 विशेष ट्रेनें शिवसैनिकों को लेकर पहुंचेंगी। इनमें करीब 4 हजार शिवसैनिकों के आने की उम्मीद है। उद्धव की रैली को प्रशासन ने अनुमति नहीं दी है।
रविवार को धर्म सभा की तैयारियां पूरी हो गई हैं। भक्तमाल बगिया में होने कार्यक्रम का प्रबंधन इस बार संघ देख रहा है, विहिप सहयोग कर रही है। 100 बीघे के इस आयोजन स्थल पर देशभर से करीब 2 लाख लोगों के आने का अनुमान है। इनमें साधु, संत, विहिप-भाजपा-संघ के कार्यकर्ता होंगे। हालांकि, सभा के मंच पर साधु-संत बैठेंगे, कोई राजनेता नहीं।
प्रशासन ने क्या इंतजाम किए?
अयोध्या और आस-पास के जिलों की पुलिस बुलाई गई है। 70 हजार जवानों की तैनाती की गई है।
पीएसी की 48 कंपनियां, आरएएफ की 5 कंपनियां भी अयोध्या में रहेंगी। एटीएस कमांडो भी तैनात किए गए हैं।
पूरी अयोध्या पर ड्रोन कैमरों से नजर रखी जाएगी। खुफिया विभाग के अफसर और उनकी टीमें पहले से ही एक्शन में आ चुकी हैं।
शिवसेना, विहिप, संघ और हिंदू संगठनों का जमावड़ा क्यों?
वरिष्ठ पत्रकार रतन मणि लाल और संजय भटनागर कहते हैं- शिवसेना के लिए राम मंदिर मुद्दा टेस्ट है। वह महाराष्ट्र से बाहर भी निकलना चाहती है। मंदिर मुद्दे पर शिवसेना ने बढ़त हासिल कर ली तो 2019 के चुनावों में भाजपा के सामने शर्तें रखने की स्थिति में होगी। बाल ठाकरे के निधन के बाद अब तक भाजपा ने शिवसेना के मुद्दे उठाए भी और बढ़त भी हासिल की।
दोनों ने कहा- जहां तक बात धर्म सभा की है, तो ये भाजपा के लिए परीक्षा की तरह है। भाजपा यह देखना चाह रही है कि मंदिर मुद्दे में कितना दम है। 2019 चुनाव में ये कितना असर डालेगा और 5 राज्यों में हो रहे विधानसभा चुनाव के नतीजे भी यह बता देंगे कि मंदिर मुद्दा और धर्म सभा का क्या असर रहा।
शिवसेना ने कहा- विहिप से टकराव नहीं
शिवसेना सांसद संजय राउत ने उद्धव के दौरे से एक दिन पहले कहा- शिवसैनिक अयोध्या आ रहे हैं, लेकिन भक्तों के तौर पर। उद्धव भी आ रहे हैं। हमारा विहिप और संघ से कोई टकराव नहीं है। बस, हमें धर्म सभा की जानकारी पहले से नहीं थी। हमारे मकसद में अंतर नहीं है, बस कार्यक्रम की तारीखें अलग हैं। विहिप के राष्ट्रीय अध्यक्ष चंपत राय ने कहा- हम संजय राउत के बयान से सहमत हैं। शिवसेना से टकराव जैसी कोई चीज नहीं है।
अयोध्यावासियों का क्या कहना है?
तुलसी वाटिका के सामने भगवानों के पोस्टरों की दुकान लगाने वाले शाह आलम ने कहा- हमारी तो कमाई ही राम से है। हमें रामभक्तों से कोई डर नहीं। उन्हीं के साथी जुबेर का कहना है कि यहां के लोगों से कोई डर नहीं। बाहरी लोगों से डर लगता है, जो राम के दर्शन नहीं.. राजनीति करने आते हैं।
बाबरी मस्जिद के पक्षकार हाजी महबूब ने कहा कि 1992 में हम अयोध्या में थे। अभी उस तरह का माहौल नहीं है। डर जैसी कोई बात नहीं है। अयोध्या में मुस्लिम उतने ही सुरक्षित हैं, जितना कि हिंदू। राम जन्मभूमि-बाबरी विवाद में मुस्लिम पक्षकार इकबाल अंसारी ने अपनी सुरक्षा बढ़ाए जाने पर कहा- दूसरे मुस्लिमों को भी सुरक्षा दी जानी चाहिए। राम मंदिर पर सियासत गरमाने के बीच शुक्रवार को कार्तिक पूर्णिमा के मौके पर करीब 6 लाख श्रद्धालुओं ने अयोध्या में स्नान किया। अयोध्या की मस्जिदों में नमाज भी पढ़ी गई। अयोध्या वैसी ही थी, जैसी आम दिनों में रहती है। स्नान के बाद लोगों ने हनुमानगढ़ी में दर्शन किए और फिर राम लला के दर्शनों को गए। भीड़ की वजह से जगह-जगह बैरिकेडिंग की गई है, लेकिन लोगों से पूछने पर उन्होंने कहा- डर जैसी कोई बात नहीं है।

अभी ज्यादा दिन नहीं हुए थे जब सेना प्रमुख जनरल विपिन रावत ने एक कार्यक्रम के दौरान पंजाब में खालिस्तान लहर के दोबारा उभरने के संकेत दिए थे। उनका यह बयान बेवजह नहीं था क्योंकि अगर हम पंजाब में अभी कुछ ही महीनों में घटित होने वाली घटनाओं पर नजर डालेंगे तो समझ में आने लगेगा कि पंजाब में सब कुछ ठीक नहीं है। बरसों पहले जिस आग को बुझा दिया गया था उसकी राख में फिर से शायद किसी चिंगारी को हवा देने की कोशिशें शुरू हो गईं हैं।
 
जी हाँ पंजाब की खुशहाली और भारत की अखंडता आज एक बार फिर कुछ लोगों की आँखों में खटकने लगी है। 1931 में पहली बार अंग्रेजों ने सिक्खों को अपनी हिंदुओं से अलग पहचान बनाने के लिए उकसाया था। 1940 में पहली बार वीर सिंह भट्टी ने "खालिस्तान" शब्द को गढ़ा था। इस सबके बावजूद 1947 में भी ये लोग अपने अलगाववादी इरादों में कामयाब नहीं हो पाए थे। लेकिन 80 के दशक में पंजाब अलगाववाद की आग में ऐसा झुलसा कि देश लहूलुहान हो गया। आज एक बार फिर उसी आतंक के पुनः जीवित होने की आहट सुनाई दे रही है।
 
क्योंकि हाल ही में कश्मीर के कुख्यात आतंकी जाकिर मूसा समेत जैश ए महोम्मद के 6-7 आतंकवादियों के पंजाब में दाखिल होकर छुपे होने की खुफिया जानकारी मिली थी। इसके कुछ ही दिन बाद 2016 के पठानकोठ हमले की तर्ज पर चार संदिग्ध एक बार फिर पठानकोठ के पास माधोपुर से एक इनोवा कार लूट लेते हैं। इसके अलावा पंजाब पुलिस के हाथ भीड़ भाड़ वाले स्थानों पर हमले और कुछ खास नेताओं की टारगेट किलिंग की तैयारी कर रहे खालिस्तान गदर फ़ोर्स के आतंकी शबनम दीप सिंह लगता है जो कि पाकिस्तान खुफिया अधिकारी जावेद वज़ीर खान के संपर्क में भी था।
 
इतना ही नहीं पंजाब पुलिस की काउंटर इनटेलीजेंस विंग भी आईएसआई के एक एजेंट इंद्रजीत सिंह को मोहाली से गिरफ्तार करती है। अभी ज्यादा दिन नहीं हुए थे जब पंजाब और जम्मू-कश्मीर पुलिस की संयुक्त कार्यवाही में जालंधर के एक कॉलेज के हॉस्टल से तीन "कश्मीरी छात्रों" को ए के 47 और विस्फोटक सामग्री के साथ गिरफ्तार किया जाता है। इनमें से एक यूसुफ रफ़ीक़ भट्ट, ज़ाकिर मूसा का भतीजा है। जी हाँ  वही मूसा जो कि भारतीय सुरक्षा बलों का "मोस्ट वांटेड" है और भारतीय सेना ने उस पर 12 लाख का ईनाम घोषित किया है। और आपको जानकर आश्चर्य होगा कि इस घटना के बाद पंजाब के अन्य कई कॉलेजों से कश्मीरी छात्र भूमिगत हो जाते हैं।
 
और अब अमृतसर में निरंकारी सत्संग पर आतंकवादी हमला होता है जिसमें तीन लोगों की मौत जाती है और 20 घायल। अगर आपको लगता है कि ये कड़ियाँ आपस में नहीं मिल रहीं तो कुछ और जानकारियाँ भी हैं। इसी साल 12 अगस्त को लंदन में एक खालिस्तान समर्थक रैली का आयोजन होता है। और सबसे महत्वपूर्ण बात कि, इन घटनाओं के समानांतर सिख फ़ॉर जस्टिस नाम का एक अलगाववादी संगठन रेफरेंडम 2020 यानी खालिस्तान के समर्थन में जनमत संग्रह कराने की मांग जोर शोर से उठाने लगता है। कहने की आवश्यकता नहीं कि इसे आईएसआई का समर्थन प्राप्त है, जो इसे 6 जून 2020 को लान्च करने की योजना बना रहा है। जानकर आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि यह तारीख कोई संयोग नहीं, ऑपरेशन ब्लू स्टार की 30वीं बरसी है। इस बात के पुख्ता सबूत हैं कि कनाडा, अमेरिका और अन्य यूरोपीय देशों में रहने वाले सिखों को एकजुट करके पाकिस्तान अपने नापाक मंसूबों को अंजाम देने की कोशिशों में लगा है।
 
इसी साल के आरंभ में जब कनाडा के प्रधानमंत्री ट्रुडो भारत आए थे तो पंजाब के मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह ने उन्हें कनाडा में खालिस्तान आंदोलन फैलाने वाले लोगों के नाम की सूची सौंपी थी। दरअसल घाटी में आतंकी संगठनों पर सेना के बढ़ते दबाव के कारण वे अब पंजाब में अपने पैर जमाने की कोशिश कर रहे हैं। पंजाब के कॉलेजों से कश्मीरी युवकों का आधुनिक हथियारों के साथ पकड़ा जाना इस बात का सबूत हैं।
और अब आतंकवादी घटना को अंजाम देने के लिए निरंकारी भवन जैसे स्थान को चुनना इत्तेफाक नहीं एक सोची समझी रणनीति का हिस्सा है। इस बहाने ये लोग सिख समुदाय और निरंकारी मिशन के बीच मतभेद का फायदा उठाकर पंजाब को एक बार फिर आतंकवाद की आग में झुलसने की कोशिश कर रहे हैं।
 
असल में घाटी से पलायन करने के लिए मजबूर आतंकी अब पंजाब में पनाह तलाश रहे हैं। घाटी में उनकी दयनीय स्थिति का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि जो कल तक "कश्मीर की आज़ादी" की दुहाई देकर आतंक फैलाने के लिए, सैनिकों का अपहरण और हत्या करते थे आज कश्मीर के ही बच्चों का अपहरण और हत्याएं कर रहे हैं (मुखबिरी के शक में)। यह स्थिति भारतीय सेना के समक्ष उनके द्वारा अपनी हार को स्वीकार करने और उससे उपजी निराशा को व्यक्त करने जैसा है।
 
कश्मीर का युवा अब बंदूक छोड़ कर अपने हाथों में लैपटॉप लेकर इन्हें अपना जवाब दे चुका है अब बारी पंजाब के लोगों की है। सरकार और सुरक्षा एजेंसियाँ अपना काम कर रही हैं लेकिन जवाब पंजाब के लोगों को देना है। और ये जवाब लड़कर नहीं, शांत रह कर देना है। अपने खेतों को हरा भरा रख कर देना है। उनकी हर साजिश को अपनी समझदारी से नाकाम कर देना है। जो पंजाब आतंक की गलियों को, खून से सने खेतों को, हथियारों के जखीरों को, बारूद की चिंगारियों को, घर घर जलती लाशों को, टूटती चूड़ियों की आवाजों को, उजड़ती मांगों को, अनाथ होते बच्चों के आंसूओं को बहुत पीछे छोड़ आया है, निस्संदेह आज उसे भूला नहीं है।
 
आज पंजाब भले ही खुशहाल है लेकिन जो सिसकियाँ खिलखिलाहट में बदल चुकी हैं उन्हें वो भूला नहीं है और भूलना भी नहीं चाहिए। तभी शायद वो उसकी आहट को बहुत दूर से ही पहचान चुका है। इसलिए आतंकवाद को जवाब देश का आवाम देगा, पंजाब का बच्चा बच्चा देगा।
 
डॉ. नीलम महेंद्र
भारत की पहली और अब तक की एकमात्र महिला प्रधानमंत्री दिवंगत इंदिरा गांधी अपने दृढ़ इरादों और सटीक फैसलों के लिए जानी जाती थीं। बांग्लादेश के निर्माण में उनकी भूमिका और देश को परमाणु शक्ति संपन्न बनाने का उनका फैसला कुछ ऐसे कदम थे जिनसे भारत के एक ताकत के रूप में उभरने का मार्ग प्रशस्त हुआ। 19 नवम्बर 1917 में जन्मीं इंदिरा प्रियदर्शिनी ने अपने पिता पंडित जवाहर लाल नेहरू के साथ मिलकर आजादी की लड़ाई में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। इसके लिए उन्होंने हमउम्र बच्चों को लेकर वानर सेना गठित की थी। यह वानर सेना जगह−जगह अंग्रेजों के खिलाफ प्रदर्शन करती और झंडे तथा बैनरों के साथ जंग ए आजादी के मतवालों का उत्साह बढ़ाती थी। सन 1941 में जब वह आक्सफोर्ड से शिक्षा ग्रहण कर भारत लौटीं तो आजादी के आंदोलन में सक्रिय रूप से शामिल हो गईं।
 
सितंबर 1943 में अंग्रेज पुलिस ने उन्हें बिना किसी आरोप के गिरफ्तार कर लिया। 243 दिन तक जेल में रखने के बाद 13 मई 1943 को उन्हें रिहा कर दिया गया। इंदिरा 1959 और 1960 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की अध्यक्ष बनीं। 1964 में उन्हें राज्यसभा का सदस्य चुना गया। तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री के मंत्रिमंडल में उन्हें सूचना और प्रसारण मंत्री बनाया गया। ताशकंद समझौते के बाद लाल बहादुर शास्त्री का निधन हो गया। इसके बाद प्रधानमंत्री पद की लड़ाई में इंदिरा गांधी के सामने मोरारजी देसाई आ गए। कांग्रेस संसदीय दल में हुए शक्ति परीक्षण में उन्होंने 169 के मुकाबले 355 मतों से मोरारजी देसाई को हरा दिया और इस तरह 1966 में वह देश की पांचवीं तथा पहली महिला प्रधानमंत्री बनीं। जिस समय इंदिरा ने प्रधानमंत्री पद संभाला उस समय कांग्रेस गुटबाजी की शिकार थी और मोरारजी उन्हें गूंगी गुडि़या कहकर पुकारते थे लेकिन जल्द ही इस गूंगी गुडि़या ने सबको चौंका दिया। 1967 के चुनावों में कांग्रेस को 60 सीटों का नुकसान हुआ और 545 सीटों वाली लोकसभा में उसे 297 सीटें मिलीं। इस कारण उन्हें मोरारजी को उप प्रधानमंत्री तथा वित्त मंत्री बनाना पड़ा लेकिन 1969 में देसाई के साथ अधिक मतभेदों के चलते कांग्रेस बिखर गई। इंदिरा को समाजवादी दलों का समर्थन लेना पड़ा और अगले दो साल तक उनके समर्थन से ही सरकार चलाई।
 
पाकिस्तान के साथ 1971 में हुए संग्राम में उन्होंने बांग्लादेश नाम से एक नए देश के गठन में सक्रिय भूमिका निभाई जिससे वह पूरी दुनिया में दृढ़ इरादों वाली महिला के रूप में जानी जाने लगीं और अटल बिहारी वाजपेयी ने उन्हें दुर्गा की संज्ञा दी। अपने साहसिक फैसलों के लिए मशहूर इंदिरा गांधी ने 1974 में पोखरण में परमाणु विस्फोट कर जहां चीन की सैन्य शक्ति को चुनौती दी वहीं अमेरिका जैसे देशों की नाराजगी की कोई परवाह नहीं की। इन निर्णयों के चलते जहां उन्हें देश और दुनिया में बुलंद इरादों वाली महिला के रूप में तारीफ मिली वहीं 1975 में आपातकाल लगा देने के कारण इंदिरा को विश्व बिरादरी की आलोचना का भी सामना करना पड़ा। आपातकाल लगाने की वजह से 1977 के चुनाव में उन्हें हार का मुंह देखना पड़ा और वह तीन साल तक विपक्ष में रहीं। 1980 में वह फिर से प्रधानमंत्री बनीं।
 
खालिस्तानी आतंकवादियों के खिलाफ उन्होंने आपरेशन ब्लू स्टार जैसा कठोर कदम उठाया लेकिन 1984 में उनके ही अंगरक्षकों ने उनकी हत्या कर दी। वरिष्ठ पत्रकार कुलदीप नैयर का कहना है कि इंदिरा गांधी भारत में बड़े पैमाने पर आतंकवाद भड़कने का अंदाज नहीं लगा पाईं। सिख उग्रवाद 1984 में स्वर्ण मंदिर में आपरेशन ब्लू स्टार के चलते भड़का। उन्होंने कहा कि इंदिरा ने जाने अनजाने एक ऐसे समय प्रक्रिया शुरू कर दी जब उनकी पार्टी ने भिंडरावाला जैसे शख्स को अकालियों से लड़ाने के लिए खड़ा किया था।

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