राजनीति

राजनीति (6273)

डॉ दर्शन पाल
कृषि विशेषज्ञ एवं एक्टिविस्ट
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इसमें कोई संदेह नहीं कि किसानों की कर्जमाफी में सरकारें अपना फायदा जरूर देखती हैं और चुनावी जीत-हार के नजरिये से ही ऐसा करती भी हैं. लेकिन, यह जरूरी है कि किसानों के कर्जे माफ किये जाएं और साथ ही ऐसी नीतियां बनायी जाएं, ताकि किसान कर्ज के दलदल में फंसे ही नहीं. 
 
बीते करीब ढाई दशक से ज्यादा समय से देश में किसानों की कर्जमाफी की राजनीति हमारी सरकारें कर रही हैं, लेकिन आज तक किसी सरकार ने एेसी नीति नहीं बनायी, जिससे किसान पर कर्ज का बोझ आने ही न पाये और वह आत्महत्या न करे. सरकारें चार-साढ़े चार साल तक किसानों के मुद्दों-मांगों पर ओछी राजनीति करती रहती हैं और जब चुनाव आते हैं, तो पार्टियां कर्जमाफी का वादा कर देती हैं. निश्चित रूप से यह राजनीति ठीक नहीं है और इससे कभी भी किसानों की आय बढ़नेवाली नहीं है. 
 
इस वक्त देश का किसान कर्ज के आइसीयू में पड़ा हुआ एक ऐसा मरीज है, जिसे बाहर निकालना बहुत जरूरी है और यह काम कर्जमाफी से ही संभव है. अब रहा सवाल कर्जमाफी से सरकारों के राजस्व घाटे का, तो मैं समझता हूं कि नागरिकों की रक्षा की जिम्मेदारी सरकार को लेनी ही चाहिए. 
 
किसान पर कर्जे क्यों हैं, इसके कई अलग-अलग कारण हैं. लेकिन, यह बात पक्की है कि कर्ज देनेवाली संस्थाएं एक तो किसानों के साथ कठोर होती हैं, दूसरे यह कि किसान को लागत की कीमत भी नहीं मिल पाती, क्योंकि कभी बाढ़ तो कभी सुखाड़ या फिर कीड़े-मकोड़े लगने के साथ कभी-कभी प्राकृतिक आपदाओं के आने से उसकी फसल बर्बाद हो जाती है. ऐसे में वह और भी कर्जदार हो जाता है.
 
कभी बारिश ज्यादा हाे गयी, या कभी बहुत कम हुई, तो भी किसान की फसल पर असर पड़ता है. कुल मिलाकर इस एतबार से देखें, तो एक बार कर्ज माफ कर देनेभर से ही किसान की समस्या का अंत नहीं हो जाता है. इसके लिए एक समुचित और व्यावहारिक नीति बनाने की जरूरत है, ताकि फसल बर्बादी की हालत में किसान की बर्बादी न होने पाये. 
 
मेरा मानना है कि किसानों को कर्ज देने की व्यवस्था में सिर्फ सरकारी संस्थाएं अग्रणी हों और उन्हें बेतहाशा सूद पर कर्ज देनेवाले साहूकारों से मुक्ति दिलायी जाये. पंजाब में 95 प्रतिशत किसान आत्महत्याएं स्थानीय स्तर पर साहूकारों द्वारा दिये कर्जे के कारण हुई हैं. इसे बंद करने की सख्त जरूरी है और यह तभी होगा, जब सरकारी व्यवस्था में कर्ज मिलना आसान हो. 
 
यह भी कि सरकारी व्यवस्था में कर्ज पर ब्याज चार प्रतिशत से अधिक तो कतई न हो और किसी भी कीमत पर न हो. साथ ही बैंक से लोन मिलने में भी आसान व्यवस्था बनायी जाये. अगर साहूकारों के चंगुल से किसानों को नहीं बचाया गया, तो बड़ी से बड़ी कर्जमाफी का भी कोई फायदा नहीं होगा, क्योंकि सरकारें तो माफ कर देंगी, मगर किसान साहूकार के कर्ज के हाथों मारा जाता रहेगा. 
 
इस समय जो बैंक से कर्ज मिल रहे हैं किसानों को, उस पर करीब सात प्रतिशत ब्याज है, जिसमें तीन प्रतिशत की सब्सिडी केंद्र सरकार देती है. ऐसे में बचा चार प्रतिशत, जो किसानों को आत्महत्या के लिए मजबूर नहीं कर रहा है, जितना कि साहूकारों का कर्ज करता है. यहां एक और बात समझनी होगी कि जो किसान छोटे-मझोले हैं, उनके लिए ब्याज दर 4 प्रतिशत से भी कम हो. 
 
उदारीकरण के बाद जब बाजार उन्मुक्त हुआ, तो हर चीज बाजार तय करने लगा. इसका नुकसान यह हुआ कि तब से किसानों (गरीबों भी कह सकते हैं) के स्वास्थ्य पर खर्च कर पाना महंगा होता गया है. एक तरफ जहां बीमारियों का इलाज महंगा होता गया, वहीं शिक्षा के बाजारीकरण से उनके बच्चे उच्च शिक्षा से भी वंचित होते चले गये. और बाकी चीजों की महंगाई का हाल तो हम सबको पता है कि यह रुकने का नाम नहीं ले रही है. 
 
ऐसे में किसानों पर दोगुनी-चौगुनी मार पड़ने लगी. इसलिए कर्ज में डूबे हुए किसान अपने फसलों की बर्बादी या लागत भी न मिल पाने के चलते या तो किसानी छोड़ने लगे या फिर आत्महत्याएं करने लगे. आज खेती में इस्तेमाल होनेवाली हर चीज तो महंगी हो गयी है. चाहे डीजल हो या बीज, रासायनिक खाद हो या पानी, सब कुछ तो उसकी पहुंच से बाहर है, तभी तो वह कर्ज लेता है. बैंक से कर्ज लेने में इतने लफड़े हैं कि वह मजबूरी में साहूकार से कर्ज ले लेता है. 
 
एक तरफ वह अपनी फसल की मार से परेशान होता है, तो दूसरी तरफ उसके बच्चे को न तो अच्छा स्वास्थ्य मिलता है, न अच्छी शिक्षा. नौकरी करनेवाले या मध्यवर्ग के लोग जब पैसा रहते हुए भी इन चीजों के महंगे होने से हमेशा परेशान रहते हैं, ऐसे में किसान के लिए यह जीवन नर्क की तरह है, जहां उसके पास पाने को कुछ नहीं है, खोने के लिए सब कुछ है, ऊपर से कर्ज अलग से है. 
 
हमारा तो इतना ही मानना है कि अगर सरकारें कर्जमाफी की राजनीति कर रही हैं, तो करें. लेकिन, जब तक फसलों में इस्तेमाल होनेवाली चीजों की कीमतें कम नहीं होंगी, और उत्पादन के बाद फसलों का समर्थन मूल्य उसकी पूरी लागत कीमत के साथ 50 प्रतिशत ज्यादा जोड़कर नहीं मिलेगा, तब तक किसान कर्ज लेते रहेंगे और आत्महत्या करते रहेंगे. 
 
कहने का अर्थ यह है कि किसान को कर्ज से माफी नहीं, बल्कि मुक्ति की जरूरत है. इसके लिए सरकारें योजनाएं और नीतियां बनाएं और ईमानदारी से बनाएं, तो मैं समझता हूं कि यह संभव है कि किसान कर्जमुक्त हो जायेंगे. 
 
लोग कह रहे हैं कि पूंजीपतियों के दिवालिया होने पर उनके लोन को सरकार राइट ऑफ कर देती है, लेकिन किसानों के थोड़े से कर्जे माफ करने में उसकी हिम्मत डोल जाती है. यह बात सही है. लेकिन हमें यह भी समझना चाहिए कि दोनों अलग-अलग प्रकार के कर्जे हैं और दोनों की प्रक्रिया और ब्याज अलग-अलग हैं. इन दोनों की तुलना नहीं करनी चाहिए. 
 
लेकिन, यह बात तो जरूरी कही जानी चाहिए कि एक तरफ पूंजीपति हजारों करोड़ रुपये लेकर विदेश भाग जा रहे हैं, और दूसरी तरफ महज कुछ हजार के कर्ज के चलते किसान आत्महत्या कर ले रहे हैं, तो क्या सरकार इतनी असंवेदनशील है कि उसे यह फर्क नजर नहीं आता? 
देश के नागरिकों को आत्महत्या से बचाना सरकार की जिम्मेदारी है, क्योंकि वे इस देश के नागरिक ही नहीं, बल्कि अन्नदाता भी हैं. इसलिए सरकार को अपनी जिम्मेदारी तो निभानी ही चाहिए. 

 

उत्तर प्रदेश में गठबंधन को लेकर सर्वाधिक सक्रिय समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव ही नजर आ रहे हैं, उनके बयानों से लगता है कि वे किसी भी हालत में गठबंधन करने को तैयार हैं, जबकि संगठन की दृष्टि से भारतीय जनता पार्टी के बाद सर्वाधिक मजबूत समाजवादी पार्टी ही है। संघर्ष करने वाले मजबूत जमीनी युवा कार्यकर्ताओं वाली समाजवादी पार्टी से गठबंधन करने को कांग्रेस और बसपा के साथ अन्य छोटे दलों को अधिक रूचि दिखानी चाहिए थी पर, हो उल्टा रहा है, ऐसे में अखिलेश यादव का एक गलत निर्णय समाजवादी पार्टी को हाशिये पर पहुंचा सकता है।
 
 
मुलायम सिंह यादव की सूझ-बूझ वाली राजनैतिक चालों ने उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की कमर तोड़ दी थी। बहुजन समाज पार्टी का उदय होने के बाद कांग्रेस उत्तर प्रदेश में संघर्ष करने लायक भी नहीं बची। दलित और मुस्लिम कांग्रेस के ही वोटर रहे हैं, इन दोनों को सपा-बसपा ने अपना स्थाई वोटर बना लिया, इसलिए कांग्रेस उत्तर प्रदेश से बाहर हो गई। मायावती को यह अच्छी तरह पता है कि उन्हें सबसे बड़ा खतरा कांग्रेस से ही है, इसलिए उनकी ओर से गठबंधन को लेकर उतावलापन कभी नहीं दिखता। मुलायम सिंह यादव की जगह अब अखिलेश यादव आ चुके हैं। अखिलेश यादव अपने पिता मुलायम सिंह यादव की तुलना में कांग्रेस को कुछ अधिक ही महत्व देते नजर आ रहे हैं। व्यक्ति को इतिहास से भी सबक लेना चाहिए, क्योंकि हर व्यक्ति अनुभव से सबक लेगा तो, जीवन अनुभव लेने में ही गुजर जायेगा, इसलिए अखिलेश यादव को व्यक्तिगत अनुभव करने की जगह पुरानी राजनैतिक घटनाओं का अध्ययन करना चाहिए और फिर उसके अनुसार गठबंधन पर विचार करना चाहिए।
 
गठबंधन की अवस्था में सर्वाधिक लाभ कांग्रेस को और सर्वाधिक नुकसान समाजवादी पार्टी को ही होना है। नुकसान तक बात सीमित नहीं रहनी है। समाजवादी पार्टी कांग्रेस की जगह हाशिये पर भी जा सकती है, क्योंकि कार्यकर्ता और समर्थक एक बार दूर चले जाते हैं तो वे पलट कर नहीं आते और गठबंधन हुआ तो, समाजवादी पार्टी के कार्यकर्ता और समर्थक दूर जाने स्वाभाविक हैं, साथ ही अखिलेश यादव गठबंधन कर के शिवपाल सिंह यादव की प्रगतिशील समाजवादी पार्टी लोहिया को भी भरपूर ऑक्सीजन उपलब्ध करा देंगे, उनका कार्यकर्ता प्रगतिशील समाजवादी पार्टी लोहिया से जुड़ गया तो, निश्चित ही वह समाजवादी पार्टी की जगह ले लेगी।
 
मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ के परिणामों से कांग्रेस का मनोबल बढ़ा हुआ है, फिर भी मान लीजिये कि गठबंधन होने की दशा में समाजवादी पार्टी को 30-35 सीटें मिलेंगी तो, शेष क्षेत्रों में समाजवादी पार्टी के कार्यकर्ता कांग्रेस, बसपा और रालोद सहित गठबंधन के अन्य दलों के प्रत्याशियों को चुनाव लड़ायेंगे, उनके लिए संघर्ष करेंगे, उनके नारे लगायेंगे, ऐसा करने से अन्य दलों के प्रति कार्यकर्ताओं के अंदर जो ईर्ष्या का स्वाभाविक भाव होता है, वह समाप्त हो जायेगा, उन दलों के नेताओं और पदाधिकारियों के साथ रहने से व्यक्तिगत संबंध भी प्रगाढ़ होंगे, जिससे चुनाव में जो परिणाम आयें पर, बहुत सारे पदाधिकारी और कार्यकर्ता वहीं रह जायेंगे। 40-45 क्षेत्रों में साईकिल चुनाव-चिह्न दिखाई ही नहीं देगा, जिसका विपरीत असर आम जनता पर भी पड़ेगा, जिसका दुष्परिणाम विधान सभा चुनाव में देखने को मिलेगा, क्योंकि चुनाव-चिह्न न होने के कारण मुस्लिम वोटर कांग्रेस के पाले में हमेशा के लिए जा सकते हैं।
 
समाजवादी पार्टी के लिए लोकसभा चुनाव से ज्यादा जरूरी है विधान सभा चुनाव, पर लोकसभा चुनाव के कारण अखिलेश यादव विधान सभा चुनाव में युद्ध करने लायक नहीं बचेंगे। अगर, उन्हें यह लगता है कि लोकसभा चुनाव में त्याग कर के वे कांग्रेस का दिल जीत लेंगे तो, यह उनकी अपरिपक्वता ही कही जायेगी, क्योंकि विधान सभा चुनाव में कांग्रेस के पास खोने को कुछ नहीं होगा, सो उस समय वह और ज्यादा दबाव में रखना चाहेगी, उस दिन का इंतजार करने से अखिलेश यादव को बचना चाहिए।
 
इसके अलावा जहाँ समाजवादी पार्टी के प्रत्याशी होंगे, वहां खतरा नहीं रहेगा पर जहाँ गठबंधन के प्रत्याशी होंगे, वहां साईकिल चुनाव-चिह्न न पाकर समाजवादी विचारधारा के लोग प्रगतिशील समाजवादी पार्टी लोहिया के साथ जा सकते हैं, ऐसे में गठबंधन भी निरर्थक हो जायेगा और समाजवादी पार्टी के पैरों के नीचे से जमीन भी खिसक जायेगी, इसलिए समाजवादी पार्टी को अपने दम पर चुनाव लड़ना चाहिए। हाँ, समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी को एक-दूसरे से कोई खतरा नहीं है, इन दोनों के पदाधिकारियों और कार्यकर्ताओं को दोनों ही नहीं तोड़ सकते, इन दोनों को आपस में गठबंधन कर लेना चाहिए, दो दलों के बीच में गठबंधन होने से दोनों के पास सीटें भी भरपूर रहेंगी लेकिन प्रगतिशील समाजवादी पार्टी लोहिया इस अवस्था में भी नुकसान पहुंचायेगी, सो अपना अस्तित्व बचाये रखने के लिए सर्वाधिक अच्छी अवस्था यही है कि समाजवादी पार्टी अकेले चुनाव लड़े। भारतीय जनता पार्टी किसी भी अवस्था में पिछला प्रदर्शन नहीं दोहरा पायेगी, उसकी सीटें घटना स्वाभाविक है। समाजवादी पार्टी अकेले लड़ कर 25 सीटें तक ले गई तो, गठबंधन के सहारे मिलीं 25 सीटों से ज्यादा कीमती कही जायेंगी। बात फिलहाल सीटों की नहीं है, बात है अस्तित्व को बचाने की। समाजवादी पार्टी को भारतीय जनता पार्टी से कोई खतरा नहीं है, उसे खतरा कांग्रेस से ही है। नदी सागर में जायेगी तो, उसका विलीन होना स्वाभाविक ही है, इस बात को अखिलेश यादव समझते ही होंगे पर भाजपा को नुकसान पहुँचाने के लिए बलि देना चाहते हों तो, उनका गठबंधन करना सही रहेगा।
  
-बीपी गौतम
पांच राज्यों में हुए चुनावों के नतीजों के कारण भाजपा का मनोबल पातालगामी हो रहा है और कांग्रेस का गगनचुंबी ! लेकिन थोड़ी गहराई में उतरें तो आपको पता चलेगा कि ये दोनों मनस्थितियां अतिवादी हैं। सच्चाई कहीं बीच में है। मध्य प्रदेश और राजस्थान में भाजपा और कांग्रेस, दोनों को जनता ने अधर में लटका दिया। दोनों में से किसी को भी बहुमत नहीं मिला। कांग्रेस को सीटें थोड़ी ज्यादा मिलीं लेकिन वोटों का हाल क्या रहा। मध्य प्रदेश में तो भाजपा को कांग्रेस से भी ज्यादा वोट मिले। उसके उम्मीदवारों को यदि कुछ सौ वोट और मिल जाते तो सरकार भाजपा की ही बनती। इस चुनाव में मुख्यमंत्री शिवराज चौहान की कुर्सी तो चली गई लेकिन इज्जत बच गई। बल्कि बढ़ गई।
 
राजस्थान की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे के लिए भी कहा जा सकता है कि ‘खूब लड़ी मर्दानी’। इसी प्रकार राजस्थान में कांग्रेस को भाजपा से जो ज्यादा वोट मिले, वे भी एक प्रतिशत से कम ही थे। दूसरे शब्दों में कहें तो इन दोनों बड़े प्रदेशों में ये दोनों पार्टियां लगभग बराबरी पर ही छूटीं। छत्तीसगढ़ की बात अलग है। वहां भाजपा के वोट भी काफी कम हुए है और सीटों का तो भट्ठा ही बैठ गया। लेकिन जरा सोचें कि यदि भाजपा अपना प्रधानमंत्री बदल ले या अगले पांच-छह महिने में दो-तीन चमत्कारी काम कर दे तो कांग्रेस क्या करेगी ? 
कोई जरुरी नहीं है कि लोग कांग्रेस को उतने ही वोट दें, जितने कि उन्होंने अभी दिए हैं। और फिर अखिल भारतीय स्तर पर आज भी भाजपा कांग्रेस से काफी आगे है। मिजोरम और तेलंगाना में कांग्रेस का हाल क्या हुआ है ? ये बात दूसरी है कि राहुल गांधी की छवि सुधरी है। अब राहुल को ‘पप्पू’ कहना जरा मुश्किल होगा, हालांकि गप्पूजी ने खुद को उलटाने का पूरा प्रबंध कर रखा है। इस प्रबंध का पहला झटका अभी तीनों हिंदी प्रदेशों ने दिया है। पप्पूजी को अपने आप श्रेय मिल रहा है। पप्पूजी ने गप्पूजी को पहले संसद में झप्पी मारी थी, अब सड़क पर मार दी है। साढ़े चार साल गप्प मारते-मारते गप्पूजी ने निकाल दिए। अब वे पांच-छह माह में कौन-सा बरगद उखाड़ लेंगे, समझ में नहीं आता। इश्के-बुतां में जिंदगी गुजर गई मोमिन। अब आखरी वक्त क्या खाक मुसलमां होंगे ?
 
यह असंभव नहीं कि इन तीनों हिंदी प्रदेशों के कांग्रेसी मुख्यमंत्री अगले चार-छह महिने में कुछ ऐसे विलक्षण काम कर दिखाएं जो 2019 के चुनावों में छा जाएं। यदि ऐसा हो जाए तो यह भारतीय लोकतंत्र के लिए शुभ होगा। 2019 में केंद्र में जो भी सरकार बनेगी, उसके लिए पहले से एक नक्शा तैयार रहेगा। वरना, भारत की जनता को फिर अगले पांच-साल रोते-गाते गुजारने होंगे।

 

 
- डॉ. वेदप्रताप वैदिक
पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव नतीजों के दिन शुरू होने वाले संसद के शीतकालीन सत्र के हंगामेदार होने के आसार हैं। एग्जिट पोल से नतीजों की जो तस्वीर उभर कर सामने आई है उससे तो यह तय हो गया है कि सड़क से लेकर संसद तक हंगामा, शोर-शराबा और धूम-धड़ाका होना तय है। यदि भाजपा जीती तो कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी के लिए चुनाव के दौरान उठाए गए मुद्दों पर भाजपा को घेरना मुश्किल हो जाएगा। लेकिन, यदि कांग्रेस कामयाब रही तो विपक्षी पार्टी ऐसे मुद्दे उठा सकती है जो राजनीतिक तापमान बढ़ा सकते हैं। सत्र के पहले ही दिन पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव के नतीजे आ जाएंगे और इसका असर संसद की कार्यवाही और सरकार-विपक्ष की रणनीति पर पड़ेगा। मोदी सरकार के आखिरी संसद सत्र में विपक्ष राफेल सौदा, सीबीआई बनाम सीबीआई, आरबीआई और सरकार में टकराव, किसान और महंगाई जैसे मुद्दों पर सरकार को घेरना चाहता है।
 
इन सबके बीच भाजपा के धुर विरोधी दल महागठबंधन बनाने के प्रयास में जुटे हैं। संसद के शीतकालीन सत्र से पूर्व विपक्ष की एकजुटता को लेकर प्रयास तेज हो गए हैं। आगामी 10 दिसंबर को प्रस्तावित बैठक में विपक्ष के सभी बड़े नेताओं की मौजूदगी सुनिश्चित करने के प्रयास हो रहे हैं। बैठक के लिए कांग्रेस, सपा, बसपा, टीडीपी, एनसीपी, टीएमसी, पीडीपी, एनसी, राजद, जदएस, डीएमके, भाकपा, माकपा, आम आदमी पार्टी समेत अन्य कई विपक्षी दलों ने अपनी स्वीकृति दे दी है। दरअसल, इस सत्र में सरकार और भाजपा की रणनीति राम मंदिर निर्माण मुद्दे पर विपक्ष को घेरने की है। इसके तहत पार्टी सांसद राकेश सिन्हा समेत कुछ अन्य भाजपा सांसद राम मंदिर निर्माण के लिए कानून बनाने संबंधी निजी बिल राज्यसभा में पेश करेंगे। दूसरी ओर कांग्रेस सरकार पर पलटवार के लिए पहले दिन से ही किसानों की बदहाली को मुद्दा बनाना चाहती है। वाम दल भी इससे सहमत हैं। जबकि टीडीपी, राजद और टीएमसी कथित तौर पर केंद्र द्वारा सीबीआई के दुरुपयोग के मुद्दे पर हमलावर होना चाहते हैं। 
 
पांच राज्यों के चुनाव नतीजे आने से पहले होने जा रही यह बैठक लोकसभा चुनाव के लिए महागठबंधन की नींव रखने की कवायद भी है। हालांकि बसपा प्रमुख मायावती और दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के इस बैठक में शामिल होने को लेकर अभी असमंजस बना हुआ है। पिछले दिनों दिल्ली में किसान आंदोलन के दौरान विपक्ष के कई नेताओं ने एक मंच पर आकर अपनी एकजुटता का प्रदर्शन किया था। आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू की पहल पर हो रही इस बैठक में विपक्ष के महागठबंधन बनाने की पहल तेज की जाएगी। हालांकि इस महागठबंधन का स्वरूप बहुत कुछ पांच राज्यों के चुनाव नतीजों से भी तय होगा।
 
पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों को लोकसभा चुनाव का सेमीफाइनल माना जा रहा है। अभी एनडीए अथवा यूपीए के खेमे में खड़े दल पाला भी बदल सकते हैं। यदि कांग्रेस के पक्ष में परिणाम आते हैं तो तय है कि राहुल गांधी इस महागठबंधन के निर्विरोध नेता हो जाएंगे। लेकिन उलट आने पर कांग्रेस को विपक्षी दलों के सामने झुकना पड़ सकता है। इसी तरह भाजपा के पक्ष में आने पर मोदी की रायसीना हिल्स लौटने की संभावना बढ़ जाएगी, लेकिन विपरीत आने पर भाजपा में उनकी कार्यशैली से नाराज नेता अपनी आवाज बुलंद करने लगेंगे। इसलिए सभी को 11 दिसंबर को नतीजे आने का इंतजार है। कभी एनडीए के संयोजक रह चुके चंद्रबाबू नायडू इस मुहिम में लगे हैं। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री भी नायडू का साथ दे रही हैं। नायडू चाहते हैं कि विपक्षी दलों के प्रमुख नेता इस बैठक में मौजूद रहें।
 
मोदी सरकार के पिछले साढ़े चार साल में कांग्रेस भाजपा को घेरने में असफल ही दिख रही थी। ले-देकर कांग्रेस राफेल विमान डील पर मोदी सरकार को सड़क से लेकर संसद तक घेरती दिख रही थी। राहुल गांधी से लेकर तमाम कांग्रेस के नेता राफेल विमान डील में घोटाले की बात कहकर मोदी सरकार पर कीचड़ उछाल रहे हैं। राहुल गांधी तो सीधे प्रधानमंत्री मोदी को कटघरे में खड़ा कर रहे हैं। पांच राज्यों के चुनाव प्रचार के दौरान भी कांग्रेस के लगभग हर मंच व सभा में राफेल की गूंज सुनाई दी। यह माना जा रहा था कि कांग्रेस संसद के शीतकालीन सत्र में राफेल का मुद्दा पूरे जोश-खरोश के साथ उठाएगी। लेकिन इन सबके बीच राफेल विमान खरीद में भ्रष्टाचार के कांग्रेसी आरोपों की काट के लिये मोदी सरकार ने यूपीए सरकार के शासन काल में अगस्ता-वेस्टलैंड हेलिकॉप्टर सौदे में बिचौलिए का धंधा करने वाले ब्रिटिश नागरिक क्रिश्चियन मिशेल को दबोचकर कांग्रेस का मुंह बंद कराने की तैयारी कर ली है। 3000 करोड़ के इस सौदे में लगभग 300 करोड़ रु. की रिश्वत बांटने वाले इस दलाल को दुबई से पकड़ कर अब दिल्ली ले आया गया है। जांच ब्यूरो के अधिकारी इससे अब सारी सच्चाई उगलवाएंगे। फौज के लिए खरीदे गए हेलिकॉप्टरों के सौदे में किस नेता और किस अफसर को कितने रुपये खिलाए गए हैं, ये तथ्य अब इस मिशेल से उगलवाए जाएंगे।
 
मिशेल के पकड़े जाने से पूर्व अगस्ता-वेस्टलैड कंपनी के जो अधिकारी पकड़े गए थे, उनकी डायरियों से कुछ नाम उजागर हुए हैं। उन नामों को सोनिया गांधी के परिवार से जोड़ा गया था। हमारी सेना के एक आला अधिकारी पर भी रिश्वतखोरी के आरोप हैं। मिशेल के जांच एजेंसियों के हत्थे चढ़ने से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के हाथ में यह जबर्दस्त हथियार आ गया है जिससे वह गांधी परिवार व कांग्रेस पर दबाव बना सकते हैं। सोनिया गांधी परिवार के विरुद्ध पहले ही ‘नेशनल हेरल्ड’ के मामले में आयकर विभाग जांच कर रहा है। अब मोदी ने सोनिया परिवार की तरफ अपनी चुनाव-सभा में नाम लेकर भी इशारा किया है। हो सकता है कि मिशेल जो भी सच उगले, वह कांग्रेस के गले की फांस बन जाए। यदि वह बोफोर्स की तरह सोनिया परिवार को अदालत में अपराधी सिद्ध न कर पाए तो भी चुनाव के अगले छह सात माह में भाजपा के लिए वह रामबाण सिद्ध हो सकता है। प्रधानमंत्री मोदी इतने तीर चलाएंगे कि कांग्रेस का महागठबंधन चूर-चूर हो सकता है। कांग्रेस के साथ गठबंधन बनाने में हर पार्टी सकुचाएगी। मिशेल की गिरफ्तारी के बाद इस बात की ज्यादा संभावना है कि राफेल मुद्दे पर कांग्रेस की आवाज धीमी पड़ जाएगी और संसद में राफेल का ज्यादा शोर-शराबा सुनाई नहीं देगा। 
 
 
जानकारों की मानें तो अगर पांच राज्यों के चुनाव नतीजे भाजपा के पक्ष में नहीं आये तो मोदी सरकार पर राम मंदिर के लिये कानून बनाने का दबाव पार्टी के भीतर और बाहर दोनों ओर से पड़ेगा। सुप्रीम कोर्ट के रवैये के बाद से राम मंदिर पर कानून लाने की मांग ने तेजी पकड़ी है। बीते 25 नवंबर को अयोध्या में धर्मसभा के बाद से अयोध्या मुद्दा लगातार सुर्खियों में है। सूत्रों की मानें तो अंदर ही अंदर भाजपा राम मंदिर के लिये बिल लाने की तैयारियों पर भी काम कर रही है। भाजपा के कई सांसद व नेता दबी जुबान से यह कहते हैं कि प्रधानमंत्री मोदी ने तय कर लिया है कि शीतकालीन सत्र में राम मंदिर निर्माण के लिए कानून पारित करा लिया जाये। मोदी सरकार ने 16 नवंबर को ही अपने सभी सांसदों को ‘व्हिप‘ जारी करते हुए संसद सत्र के दौरान दिल्ली से बाहर नहीं जाने के निर्देश दिये हैं। असल में राम मंदिर पर कानून लाकर मोदी सरकार जहां अपने वोट बैंक को एकजुट करने की चाल चलेगी वहीं संसद में जब राम मंदिर के कानून को लेकर चर्चा होगी, तब कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी की असलियत का भी पता चल जायेगा कि वह कितने बड़े जनेऊधारी और शिवभक्त हैं। 
 
 लोकसभा चुनावों से पहले संभवतः यह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली इस सरकार का आखिरी पूर्णकालिक सत्र होगा। लिहाजा, इस सत्र में सत्तारुढ़ भाजपा और विपक्षी दल कांग्रेस का बहुत कुछ दांव पर लगा हुआ है। खासकर जब सत्र के पहले दिन ही विधानसभा चुनावों की मतगणना का असर संसद की कार्यवाही पर पड़ेगा। मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़, तेलंगाना और मिजोरम विधानसभा चुनाव के नतीजे 11 दिसंबर को ही आएंगे। इस वक्त मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ में भाजपा का शासन है जबकि तेलंगाना में टीआरएस और मिजोरम में कांग्रेस गठबंधन की सरकार है। एग्जिट पोल के नतीजे बदलाव व कांटे की टक्कर की तस्वीर पेश कर रहे हैं। मोदी सरकार के लिए शीतकालीन सत्र का शांतिपूर्ण ढंग से चलना इसलिए भी जरूरी है क्योंकि उसके बाद यह सरकार सिर्फ संक्षिप्त बजट सत्र ही बुला पाएगी, जिसमें मई 2019 तक का बजट पारित करना होगा। सरकार इस दौरान लंबित कुछ जरूरी विधेयक भी पारित कराना चाहेगी, जबकि विपक्ष सरकार को घेरना चाहेगा। राम मंदिर, राफेल, अगस्ता-वेस्टलैंड हेलिकॉप्टर जैसे तमाम मुद्दे दिसंबर में दिल्ली की सर्दी के बीच संसद का गर्माने का काम करेंगे।
 
-आशीष वशिष्ठ
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं)
भारतीय समाज में सामाजिक समता, सामाजिक न्याय, सामाजिक अभिसरण जैसे समाज परिवर्तन के मुददों को उठाने वाले भारतीय संविधान के निर्माता व सामाजिक समरसता के प्रेरक भारतरत्न डॉ. भीमराव अम्बेडकर का जन्म 14 अप्रैल 1891 को महू मध्यप्रदेश में हुआ था। इनके पिता रामजी सकपाल व माता भीमाबाई धर्मप्रेमी दंपत्ति थे। अम्बेडकर का जन्म महार जाति में हुआ था। जो उस समय अस्पृश्य मानी जाती थी। इस कारण उन्हें कदम−कदम पर असमानता और अपमान सहना पड़ता था। सामाजिक समता, सामाजिक न्याय, सामाजिक अभिसरण जैसे समाज परिवर्तन के मुद्दों को प्रधानता दिलाने वाले विचारवान नेता थे डॉ. अम्बेडकर। जिस समय उनका जन्म हुआ तथा उनकी शिक्षा दीक्षा का प्रारम्भ हुआ उस समय समाज में इतनी भयंकर असमानता थी कि जिस विद्यालय में वे पढ़ने जाते थे वहां पर अस्पृश्य बच्चों को एकदम अलग बैठाया जाता था तथा उन पर विद्यालयों के अध्यापक भी कतई ध्यान नहीं देते थे। न ही उन्हें कोई सहायता दी जाती थी। उनको कक्षा के अंदर बैठने तक की अनुमति नहीं होती थी साथ ही प्यास लगने पर कोई ऊंची जाति का व्यक्ति ऊंचाई से उनके हाथों पर पानी डालता था क्योंकि उस समय मान्यता थी कि ऐसा करने से पानी और पात्र दोनों अपवित्र हो जाते थे। एक बार वे बैलगाड़ी में बैठ गये तो उन्हें धक्का देकर उतार दिया गया। वह संस्कृत पढ़ना चाहते थे लेकिन कोई पढ़ाने को तैयार नहीं हुआ। एक बार वर्षा में वे एक घर की दीवार लांघकर बौछार से स्वयं को बचाने लगे तो मकान मालिक ने उन्हें कीचड़ में धकेल दिया था। इतनी महान कठिनाइयों को झेलने के बाद डॉ. अम्बेडकर ने अपनी शिक्षा पूरी की। गरीबी के कारण उनकी अधिकांश पढ़ाई मिट्टी के तेल की ढिबरी में हुई। 1907 में मैट्रिक की परीक्षा पास करके बंबई विवि में प्रवेश लिया जिसके बाद उनके समाज में प्रसन्नता की लहर दौड़ गयी। 1923 में वे लंदन से बैरिस्टर की उपाधि लेकर भारत वापस आये और वकालत शुरू की। वे पहले ऐसे अस्पृश्य व्यक्ति बन गये जिन्होंने भारत ही नहीं अपितु विदेशों में भी उच्च शिक्षा ग्रहण करने में सफलता प्राप्त की। उस समय वे भारत के सबसे अधिक पढ़े लिखे तथा विद्वान नेता थे। डॉ. अम्बडेकर संस्कृत भाषा के प्रबल समर्थक थे। 
 
 
इसी साल वे बंबई विधानसभा के लिए भी निर्वाचित हुए पर छुआछूत की बीमारी ने उनका पीछा नहीं छोड़ा। 1924 में भीमराव ने निर्धन और निर्बलों के उत्थान हेतु बहिष्कृत हितकारिणी सभा बनायी और संघर्ष का रास्ता अपनाया। 1936 में स्वतंत्र लेबर पार्टी की स्थापना की और 1937 में उनकी पार्टी ने केंद्रीय विधानसभा के चुनावों में 15 सीटें प्राप्त कीं। इसी वर्ष उन्होनें अपनी पुस्तक 'जाति का विनाश' भी प्रकाशित की जो न्यूयार्क में लिखे एक शोध पर आधारित थी। इस पुस्तक में उन्होंने हिंदू धार्मिक नेताओं और जाति व्यवस्था की जोरदार आलोचना की। उन्होंने अस्पृश्य समुदाय के लोगों को गांधी द्वारा रचित शब्द 'हरिजन' की पुरजोर निंदा की। यह उन्हीं का प्रयास है कि आज यह शब्द पूरी तरह से प्रतिबंधित हो चुका है। उन्होंने अनेक पुस्तकें लिखीं तथा मूकनायक नामक एक पत्र भी निकाला। 1930 में नासिक के कालाराम मंदिर में प्रवेश को लेकर उन्होंने सत्याग्रह और संघर्ष किया। उन्होंने पूछा कि यदि भगवान सबके हैं तो उनके मंदिर में कुछ ही लोगों को प्रवेश क्यों दिया जाता है। अछूत वर्गों के अधिकारों के लिये उन्होंने कई बार कांग्रेस तथा ब्रिटिश शासन से संघर्ष किया। 
 
1941 से 1945 के बीच उन्होंने अत्यधिक संख्या में विवादास्पद पुस्तकें लिखीं और पर्चे प्रकाशित किये। जिसमें "थॉट ऑफ पाकिस्तान" भी शामिल है। डॉ. अम्बेडकर ही थे जिन्होंने मुस्लिम लीग द्वारा की जा रही अलग पाकिस्तान की मांग की कड़ी आलोचना व विरोध किया। उन्होंने मुस्लिम महिला समाज में व्याप्त दमनकारी पर्दा प्रथा की भी निंदा की। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद वे रक्षा सलाहकार समिति और वाइसराय की कार्यकारी परिषद के लिए श्रममंत्री के रूप में भी कार्यरत रहे। भीमराव को विधिमंत्री भी बनाया गया। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद उन्होंने संविधान निर्माण में महती भूमिका अदा की। 2 अगस्त 1947 को अम्बेडकर को स्वतंत्र भारत के नये संविधान की रचना के लिये बनी संविधान मसौदा समिति के अध्यक्ष पद पर नियुक्त किया गया। संविधान निर्माण के कार्य को कड़ी मेहनत व लगन के साथ पूरा किया और सहयोगियों से सम्मान प्राप्त किया। उन्हीं के प्रयासों के चलते समाज के पिछड़े व कमजोर तबकों के लिये आरक्षण व्यवस्था लागू की गयी लेकिन कुछ शर्तों के साथ। लेकिन आज के तथाकथित राजनैतिक दल इसका लाभ उठाकर अपनी राजनीति को गलत तरीके से चमकाने में लगे हैं। संविधान में छुआछूत को दण्डनीय अपराध घोषित होने के बाद भी उसकी बुराई समाज में बहुत गहराई तक जमी हुई थी। जिससे दुखी होकर उन्होंने हिंदू धर्म छोड़ने और बौद्धधर्म को ग्रहण करने का निर्णय लिया। 
 
यह जानकारी होते ही अनेक मुस्लिम और ईसाई नेता तरह−तरह के प्रलोभनों के साथ उनके पास पहुंचने लगे। लेकिन उन्हें लगा कि इन लोगों के पास जाने का मतलब देशद्रोह है। अतः विजयदशमी (14 अक्टूबर 1956) को नागपुर में अपनी पत्नी तथा हजारों अनुयायियों के साथ भारत में जन्मे बौद्धमत को स्वीकार कर लिया। वह भारत तथा हिंदू समाज पर उनका एक महान उपकार है। एक प्रकार से डॉ. अम्बेडकर एक महान भारतीय विधिवेत्ता बहुजन राजनैतिक नेता बौद्ध पुनरूत्थानवादी होने के साथ−साथ भारतीय संविधान के प्रमुख वास्तुकार भी थे। उन्हें बाबा साहेब के लोकप्रिय नाम से भी जाना जाता है। बाबाजी का पूरा जीवन हिंदू धर्म की चतुवर्ण प्रणाली और भारतीय समाज में सर्वव्याप्त जाति व्यवस्था के विरूद्ध संधर्ष में बीता। बाबासाहेब को उनके महान कार्यों के लिए भारत रत्न से भी सम्मानित किया गया। समाज में सामाजिक समरसता के लिए पूरा जीवन लगाने वाले बाबासाहेब का छह दिसम्बर 1956 को देहावसान हो गया। डॉ. अम्बेडकर को अनेकानेक विभूतियों से नवाजा गया। डॉ. अम्बेडकर आधुनिक भारत के निर्माता कहे गये। उन्हें संविधान का निर्माता, शोषित, मजदूर, महिलाओं का मसीहा बताया गया। एक प्रकार से वे महान मानवाधिकारी क्रांतिकारी नेता भी थे। पिछड़ों व वंचित समाज के सबसे प्रतिभाशाली मानव थे। डॉ. अम्बडेकर भारत सशक्तीकरण के प्रतीक बने। आजाद भारत में वे भारत के प्रथम कानून मंत्री तो बने लेकिन उनकी तत्कालीन प्रधानमंत्री नेहरू जी से कभी पटरी नहीं बैठ पायी। उनमें सभी प्रकार के गुण विद्यमान हो गये जो किसी बिरले में ही होते हैं। वह विश्व स्तर के विधिवेत्ता, अर्थशास्त्री, राजनीतिज्ञ, समाजशास्त्री, मानवविज्ञानी, संविधानविद, लेखक, दार्शिनक, इतिहासकार, आंदोलनकारी थे। अमेरिका में कोलम्बिया विवि के 100 टाप विद्वानों में उनका नाम था। 
 
 
वर्तमान समय में भारत की पूरी राजनीति बाबा साहेब के इर्दगिर्द ही थम रही है। देश व प्रदेश के सभी राजनैतिक संगठन बाबा साहेब को भुनाने के लिए जुट गये हैं। आज दलित और पिछड़े समाज के लोगों को समर्थ बनाने के लिए प्रेरित करने में भी डॉ. अंबेडकर की ही महान भूमिका थी।
 
-मृत्युंजय दीक्षित
अगस्ता-वेस्टलैंड हेलिकॉप्टरों के सौदे में बिचौलिए का धंधा करने वाले क्रिश्चियन मिशेल को आखिरकार हमारी सरकार ने धर दबोचा है। वह बधाई की पात्र है। 3000 करोड़ के इस सौदे में लगभग 300 करोड़ रु. की रिश्वत बांटने वाले इस दलाल को दुबई से पकड़ कर अब दिल्ली ले आया गया है। जांच ब्यूरो के अधिकारी इससे अब सारी सच्चाई उगलवाएंगे। फौज के लिए खरीदे गए हेलिकॉप्टरों के सौदे में किस नेता और किस अफसर को कितने रु. खिलाए गए हैं, ये तथ्य अब इस ब्रिटिश नागरिक मिशेल से उगलवाए जाएंगे।
 इसके पहले उक्त कंपनी के जो अफसर पकड़े गए थे, उनकी डायरियों से कुछ नाम उजागर हुए हैं। उन नामों को सोनिया गांधी के परिवार से जोड़ा गया था। हमारी फौज के एक बड़े अफसर पर भी रिश्वतखोरी के आरोप हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के हाथ में यह जबर्दस्त हथियार आ गया है। सोनिया गांधी परिवार के विरुद्ध पहले ही ‘नेशनल हेरल्ड’ के मामले में आयकर विभाग जांच कर रहा है। अब मोदी ने सोनिया परिवार की तरफ अपनी चुनाव-सभा में नाम लेकर भी इशारा किया है। हो सकता है कि मिशेल जो भी सच उगले, वह कांग्रेस के गले की फांस बन जाए। यदि वह बोफोर्स की तरह सोनिया परिवार को अदालत में अपराधी सिद्ध न कर पाए तो भी चुनाव के अगले छह सात माह में भाजपा के लिए वह रामबाण सिद्ध हो सकता है। हमारे प्रचारमंत्री इतने तीर चलाएंगे कि कांग्रेस का महागठबंधन चूर-चूर हो सकता है। कांग्रेस के साथ गठबंधन बनाने में हर पार्टी सकुचाएगी।
 
 भाजपा यह दावा भी कर सकती है कि जब उसने मिशेल-जैसे ब्रिटिश नागरिक को अपने पंजे में फसा लिया तो विजय माल्या, नीरव मोदी और चोकसे वगैरह तो अपने ही खेत की मूली हैं। उसका भ्रष्टाचार-विरोधी चेहरा देश के मतदाताओं को उसके प्रति उत्साह से भर सकता है। उसने देश की आर्थिक और सामाजिक स्थिति सुधारने के लिए बहुत-सी पहल की हैं। उसमें से कइयों ने तो शीर्षासन कर दिए और कइयों के सुपरिणाम पर्याप्त ठोस और सगुण नहीं हैं। ऐसे में इस तरह की निषेधात्मक नौटंकियां ही अपनी डगमगाती नाव का सहारा बन सकती हैं। इनमें अयोध्या में राममंदिर का निर्माण भी एक जबर्दस्त पैंतरा है। अगस्ता-वेस्टलैंड का मामला राफेल-सौदे को भी मंच के नीचे ढकेल देगा। लेकिन यह न भूलें कि दिल्ली में यदि दूसरी कोई सरकार आ गई तो उसके हाथ में राफेल का ब्रह्मास्त्र होगा। भ्रष्टाचार तो लोकतांत्रिक सरकारों की प्राणवायु है। उसके बिना वे जिंदा रह ही नहीं सकतीं।
देश के नामी पत्रकार, बुद्धिजीवी होने के नाते श्रीमान वेदप्रताप वैदिकजी के प्रति मेरे मन में काफी सम्मान की भावना होने के बावजूद दिनांक-30 अक्टूबर 2018 को 'लोकमत समाचार' में 'राम मंदिर का अध्यादेश कैसा हो?' शीर्षक उनका लेख पढ़कर मुझे उनकी बुद्धि पर खासा तरस आया। आपने अयोध्या में राम मंदिर के निर्माण के संदर्भ में अपने विचार व्यक्त करते हुए लिखा- 'मैं कहता हूँ कि वहां दुनिया के लगभग सभी प्रमुख धर्मों के तीर्थ क्यों न बनें? यह विश्व सभ्यता को भारत की अभूतपूर्व देन होगी। अयोध्या विश्व पर्यटन का आध्यात्मिक केंद्र बन जायेगी।'
 
मेरी यह समझ में नहीं आता कि जिस हिंदुस्तान में विश्व में सबसे ज्यादा मंदिर, मस्जिद, गिरजाघर व अन्य धर्मस्थल तथा पंडे, मौलवी, पादरी, धर्मगुरु हैं, वह दुनिया का सबसे दरिद्र देश क्यों है ? अगर मंदिर, मस्जिद, गिरजा, गुरुद्वारों व अन्य जितने भी धर्मस्थल हैं, उनमें पूजा-पाठ, नमाज, बलि, कुर्बानी, प्रार्थना, यज्ञ करने से ही मनुष्य का कल्याण होता तो फिर आज हिंदुस्तान विश्व का सबसे बड़ा, सुखी, समृद्धिशाली व ताकतवर देश होता, न कि दरिद्रतम देश। फिर भी भारतवर्ष के लोग मंदिर, मस्जिद, गिरजाघर के नाम पर इतने उन्माद क्यों हैं? राम मंदिर बनने या बाबरी मस्जिद बनने से ही हिंदुस्तान का कायाकल्प होता तो इनके निर्माण में किसी को कोई आपत्ति नहीं होती, लेकिन जो हिंदुस्तान करोड़ों मंदिरों, मस्जिदों, गिर्जाघरों, गुरुद्वारों के होते हुए भी सैकड़ों वर्षों तक विदेशी शासकों का गुलाम रहा है, जिसकी आधी से ज्यादा आबादी आज भी भूखे पेट सोने को अभिशप्त है, उस हिंदुस्तान में राम मंदिर या बाबरी मस्जिद को लेकर इतना उन्माद, इतना हाहाकार क्यों? क्या वे इस बात की गारंटी ले सकते हैं कि अयोध्या में राम मंदिर या बाबरी मस्जिद बनने से हिंदुस्तान की दरिद्रता दूर हो जायेगी, हिंदुस्तान का कायाकल्प हो जायेगा? अगर नहीं तो फिर राम मंदिर-बाबरी मस्जिद के निर्माण को लेकर इतना हो-हल्ला क्यों? आम आदमी की बात और है, आप सरीखे विद्वान, बुद्धिमान लोग अगर बेसिर-पैर की बातें लिखकर समाज को गुमराह करते हैं तो फिर पत्रकारिता की वृत्ति के प्रति कोफ्त पैदा होने लगती है।
 
मनुष्य के दो सबसे बड़े शत्रु हैं- पहला लोभ और दूसरा भय। सृष्टि के प्रारंभ से ही मुट्ठी भर चालाक, धुरंधर, शैतान, लालची स्वभाव के लोग मनुष्य की इन दो कमजोर नब्जों के जरिये मानव जाति का शोषण करते आ रहे हैं। मनुष्य जाति के शोषण का सबसे भयंकरतम माध्यम है धर्म। सृष्टि ने हमें हिंदु, मुसलमान, सिख, ईसाई, जैन, बौद्ध के रूप में नहीं बल्कि मनुष्य के रूप में जन्म दिया है। लेकिन मानवता के दुश्मनों ने हिंदु, मुसलमान, सिख, ईसाई, जैन, बौद्ध आदि हजारों धर्मों की सृष्टि कर मानव जाति के टुकड़े-टुकड़े कर दिये हैं और आज समूची मानव जाति धर्म रूपी हैवानियत के शिकंजे में लहुलुहान हो रही है।
धरती हमारी माता है और हम उसकी संतान हैं। मनुष्य धरती की छाती से उत्पन्न जल, अन्न तथा उसके वायुमंडल से ऑक्सीजन ग्रहण कर जीवन धारण करता है, लेकिन अपने क्षुद्र स्वार्थों की खातिर उसी धरती माता को विध्वस्त करने पर तुला हुआ है। हर मां की यह कामना होती है कि उसकी संतान सुख, शांति, समृद्धि से रहे तथा उसके जीवन में कभी कोई आपत्ति-विपत्ति न आये। हमारी धरती माता का भी सिस्टम इस प्रकार बना है कि अगर मनुष्य सृष्टि (वास्तु) के नियमों के अनुसार गृह निर्माण करे और सृष्टि द्वारा प्रदत्त मन की शक्ति का उपयोग करे तो उसे न सिर्फ जीवन भर सुख, शांति, समृद्धि हासिल होती है बल्कि उसे किसी प्रकार की अनहोनी का शिकार भी नहीं होना पड़ता।
 
अफसोस इस बात का है कि चंद क्षुद्र स्वार्थी लोग मानव जाति को इस सत्य से विमुख कर स्वरचित धर्मों और गुरुओं की सेवा-साधना करने से उन्नति होने की झूठी दिलासा और उनकी अवहेलना करने पर नरक, दोखज में जाने का भय दिखाकर न सिर्फ उसका शोषण करते आये हैं, बल्कि उन्होंने समूची मानव जाति को पंगु बनाकर रख दिया है। दुनिया का हर धर्म यही कहता है कि तुम्हारे हाथ में कुछ नहीं, सभी कुछ ऊपरवाला अल्ला, गॉड, भगवान करता है, जबकि हकीकत यह है कि दुनिया में भगवान, अल्ला, गॉड नाम की कोई चीज नहीं है। कबीर ने कहा था- 'पाथर पूजै हरि मिले तो मैं पूजूँ पहाड़।' असली भगवान, गॉड, अल्ला प्रकृति प्रदत्त शक्ति के रूप में खुद मनुष्य के मन में हैं, लेकिन दुनिया के सभी धर्मगुरु प्रकृति प्रदत्त शक्ति को झुठला कर अस्तित्वहीन भगवान, अल्ला, गॉड पर विश्वास करने की सलाह देकर समूची मानव जाति को दिग्भ्रमित करते आये हैं। यह बात किसी से छुपी नहीं है कि दुनिया में धर्म के नाम पर ही सबसे ज्यादा अपराध, हिंसा, आतंकवाद व विद्वेष फैलाने सरीखी अमानवीय घटनाएं संघटित होती आई हैं। 
 
दुनिया में जितने मंदिर, मस्जिद, गिरजा, गुरुद्वारे व अन्य धर्मस्थल हैं, उनकी संपदा को बेचकर अगर उन्हें मानव कल्याण के कार्य पर खर्च कर दिया जाये तो मैं समझता हूँ कि दुनिया में एक भी दरिद्र, भूखा नहीं रहेगा और दुनिया में अपराध भी न्यूनतम हो जायेंगे। मानव जाति को धर्म तथा धर्मगुरुओं के शिकंजे से आजाद करना वक्त की सबसे बड़ी जरूरत है, न कि राम मंदिर या बाबरी मस्जिद का निर्माण। 
सृष्टि ने मनुष्य के मन में इतनी शक्ति प्रदान की है कि दुनिया का कोई भी काम उसके लिए असंभव नहीं। वास्तु के नियमानुसार गृह निर्माण करने तथा मन की शक्ति का उपयोग करने से उसे जीवन में अकल्पनीय सुकून, शांति तथा प्रगति की प्राप्ति होती है। जबकि मनुष्य द्वारा सृजित भगवान, अल्ला, गॉड और मंदिर, मस्जिद, गिरजाघरों का मनुष्य के जीवन में कोई प्रभाव नहीं होता। सृष्टि की सत्ता की अनदेखी कर युग-युग से धर्म और क्षुद्रस्वार्थी धर्मगुरुओं की अंध भक्ति करने की वजह से आज हिंदुस्तान की जनता दरिद्रता का जीवन बसर करने को अभिशप्त है। अस्तित्वहीन अल्ला, भगवान, गॉड की प्रार्थना, पूजा, इबादत में अपना जीवन होम करने वालों को शून्यता के अलावा और भला क्या हासिल होने वाला है ? इसलिए आज मुट्ठी भर लोगों के पास संसार की अधिकांश संपदा एकत्रित हो गई है, जबकि अधिकांश लोगों को दरिद्रता का जीवन बसर करना पड़ रहा है।
 
देश के पूर्वोत्तर के लोग भी सदियों से प्रकृति के नियमों के विपरीत गृह निर्माण करते आये हैं, जिसकी वजह से यह क्षेत्र युगों से युद्ध, आतंकवाद व नकारात्मक सोच से त्राहिमाम करता रहा है। पूर्वोत्तर क्षेत्र को हिंसा, उग्रवाद, पिछड़ेपन व अंधविश्वास से मुक्त कर इलाके की जनता का जीवन स्तर सुधारने के लिए हम विगत 23 सालों से लोगों को घर-घर जाकर प्रकृति (वास्तु) के नियमानुसार गृह निर्माण व मन शक्ति के प्रयोग की सलाह देने की मुहिम में जुटे हुए हैं और अब तक 16,000 परिवारों को नि:शुल्क वास्तु सलाह दे चुके हैं। हमने कई स्कूल, कॉलेजों, मंदिरों का भी वास्तु दोष दूर करवाया है, जिसके बाद इनकी काफी उन्नति हुई है। अगर हिंदुस्तान के लोग धर्म के नाम पर जारी ढोंग से खुद को मुक्त कर मन की शक्ति का प्रयोग और सृष्टि (वास्तु) के नियमानुसार गृह निर्माण करने लगें तो फिर वो दिन दूर नहीं होगा, जब हिंदुस्तान विश्व का सबसे सुखी, समृद्ध व शांतिपूर्ण देश बन जायेगा। आप सरीखे बुद्धिजीवी ऐतिहासिक तथ्यों का अध्ययन व आंकलन कर धर्म की अवास्तविकता से देश की जनता को अवगत करायें, तभी आपकी पत्रकारिता की सार्थकता होगी।
 
-राजकुमार झांझरी
हिंदुत्व की हांडी में राम मंदिर का मुद्दे एक बार फिर से पकने लगा है। देश में फिलवक्त पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव चल रहे हैं। इनमें से तीन राज्यों में भाजपा की सरकार है। वहीं 2019 के आम चुनाव भी दरवाजे पर खड़े हैं। मौसम चुनाव का हो और भारतीय जनता पार्टी और भगवा ब्रिगेड को राम मंदिर की याद न आये ऐसा हो ही नहीं सकता। पिछले दो दशकों में जब भगवान राम ने ही चुनाव के कीचड़ में धंसे भाजपा के रथ को बाहर निकालने का काम किया। अगर ये कहा जाए कि आज भाजपा को जो स्वरूप और आन-बान-शान है वो राम मंदिर आंदोलन की बदौलत है तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। 
 
बाबरी मस्जिद-राम जन्मभूमि का ये विवाद 490 साल पुराना है। हर बार चुनाव में भाजपा भगवान राम को याद करती है। राम मंदिर का मुद्दा उछालती है। राम मंदिर बनवाने के संकल्प को दोहराती है। चुनाव खत्म होते ही राम मंदिर को ठंडे बस्ते में डाल दिया जाता है। लेकिन इस बार भाजपा और मोदी सरकार सबसे बड़े भंवर में फंसी है। ऐसे में भाजपा अपने सबसे मजबूत और आजमाये राम मंदिर मुद्दे पर लौटती दिख रही है। अयोध्या विवाद सुप्रीम कोर्ट में लंबित है। राम मंदिर पर बिल या अध्यादेश आएगा या फिर कोर्ट के फैसले का इंतजार किया जाएगा, यह तो समय ही बताएगा, परंतु इस मामले पर असमंजस की स्थिति बनना स्वाभाविक है, क्योंकि मसला राजनीतिक नफा-नुकसान से भी संबंधित हो सकता है। फिलवक्त राम मंदिर के मुद्दे को जिस तरह भाजपा और भगवा ब्रिगेड गरमा रही है, उससे ऐसा आभास हो रहा है कि 1992 की भांति इस बार भी कुछ होने वाला है।
 
 
बीते 29 अक्टूबर को अयोध्या विवाद में सुप्रीम कोर्ट द्वारा सुनवाई की तारीख आगे सरकाने के बाद से संत महात्माओं, हिंदू समाज और हिंदूवादी संगठनों में भारी नाराजगी का माहौल है। इस नाराजगी के माहौल को अपने पक्ष में करने के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) और विश्व हिन्दू परिषद मेढ़बंदी करने में जुटे हैं। शिवसेना अध्यक्ष उद्धव ठाकरे हाल ही में अयोध्या आये और नया नारा दिया, ‘हर हिंदू की यही पुकार, पहले मंदिर-फिर सरकार।’ यानी अगले साल लोकसभा चुनाव में सरकार बाद में बने लेकिन पहले राम मंदिर बन जाना चाहिए। विश्व हिंदू परिषद के पूर्व प्रमुख प्रवीण तोगड़िया भी पिछले दिनों अयोध्या में अपना शक्ति प्रदर्शन कर चुके हैं। शिवसेना, तोगड़िया के राम मंदिर मुद्दे में कूदने से भाजपा व भगवा ब्रिगेड थोड़े दबाव में है। ऐसे में बीजेपी और भगवा ब्रिगेड धर्म सभा को भव्य से भव्यतम बनाने में जुटे हैं। मोदी सरकार पर शिवसेना सरीखे सहयोगी दलों और संघ का भारी दबाव है। भाजपा के अधिकतर सांसद भी मुखर होकर बोल रहे हैं। साक्षी महाराज का साफ मानना है कि यदि सुप्रीम कोर्ट के फैसले का इंतजार करते रहे, तो एक हजार साल भी लग सकते हैं और फिर भी राम मंदिर नहीं बनेगा। लिहाजा भाजपा सांसदों और नेताओं की लगातार मांग है कि सरकार या तो अध्यादेश लाए अथवा संसद के जरिए कानून बनाए। लब्बो लुआब यह है कि राम मंदिर को लेकर हिंदुत्व की कड़ाही में लंबे समय बाद उबाल आया है। जैसे-जैसे लोकसभा चुनाव का समय निकट आएगा ये हवा तेज से और तेज होती जाएगी। 
 
पिछले दिनों अयोध्या में रामलला के दर्शन के बाद आरएसएस के सर कार्यवाह भैयाजी जोशी का बयान कि ‘तिरपाल में रामलला का आखिरी दर्शन हैं', से काफी कुछ समझा जा सकता है। धर्म सभा में राम भक्त अपनी शक्ति का प्रदर्शन करेंगे। आरएसएस, वीएचपी और भारतीय जनता पार्टी मिलकर राम भक्तों के शक्ति परीक्षण कार्यक्रम में एक लाख से ज्यादा राम भक्तों को बड़ा भक्त माल की बगिया में बुला रहे हैं। इतिहास के पन्ने पलटे तो अयोध्या का विशेष ब्रांड के हिंदुत्व से परिचय 1989 के रामजन्मभूमि मुक्तियज्ञ, 1990 की कारसेवा और 1992 के ढांचाध्वंस कांड से हुआ। जब मंदिर निर्माण के लिए प्रतिबद्ध दूर-दराज के रामभक्तों ने अयोध्या की ओर रुख किया और उन्होंने  मंदिर के लिए हुंकार भरी। 1990 की कहानी तो रक्तरंजित हो उठी। शासकीय प्रतिबंध और चप्पे-चप्पे पर तैनात सुरक्षा बलों की परवाह न कर विवादित परिसर की ओर बढ़े डेढ़ दर्जन कारसेवकों ने प्राणों की आहुति दी। इससे पूर्व अयोध्या कफ्र्यू, सुरक्षाबलों की निगरानी, कारसेवकों की धमक और नेताओं की आमद-रफ्त की अभ्यस्त हो चली थी। 1992 का घटनाक्रम तो जगजाहिर है। इसके बाद से रामनगरी हिंदुत्व के केंद्र के तौर पर प्रवाहमान है
 
पर उस दौर का उभार फिर लौटकर नहीं आ सका। 1992 का वह रोष और आक्रोश, तनाव और उत्तेजना आज के माहौल में भी महसूस किया जा सकता है। उन कारसेवकों में साधु-संत, राजनीतिक कार्यकर्ता और आम आदमी भी थे। आज उप्र में मुलायम सिंह नहीं, योगी आदित्यनाथ की सत्ता है और देश में ‘मोदी सरकार’ है!
 
उत्तर प्रदेश ही नहीं बल्कि देश भर में भारतीय जनता पार्टी को राजनीतिक पहचान दिलाने में अयोध्या और राम मंदिर की कितनी भूमिका रही है, यह किसी से छिपा नहीं है। यही नहीं, 1991 में उत्तर प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी की जब पहली बार कल्याण सिंह के नेतृत्व में सरकार बनी थी तो पूरा मंत्रिमंडल शपथ लेने के तत्काल बाद अयोध्या में रामलला के दर्शन के लिए आया था। सन् 2017 में उत्तर प्रदेश में जब से योगी आदित्यनाथ के नेतृत्व में सरकार बनी है तब से अयोध्या के विकास के लिए न सिर्फ तमाम घोषणाएं की गईं बल्कि दीपावली के मौके पर भव्य कार्यक्रम और दीपोत्सव का आयोजन भी किया गया है। फिलवक्त राम मंदिर मुद्दे की कमान भाजपा की ओर से यूपी के सीएम योगी आदित्यनाथ के हाथों में है। फैजाबाद जिले का नामकरण अयोध्या करने के बाद से ही राजनीति और भगवा टोली की सरगर्मियां पूरे उफान पर हैं। 2010 में हाइकोर्ट ने फैसला सुनाया था कि जमीन को तीन हिस्सों में बांट दिया जाए और उसमें से दो-तिहाई हिस्से मामले से जुड़े हिंदू पक्षों को सौंप दिए जाएं और एक तिहाई सुन्नी वक्फ बोर्ड को दे दिया जाए। तीनों ही पक्षों ने इस फैसले के खिलाफ अपील की है। सुप्रीम कोर्ट ने सुझाव दिया कि सभी पक्ष आपस में बातचीत करके विवाद सुलझाएं। मगर इसकी तो शुरुआत तक नहीं हुई। 
 
यह विवाद 1988 से ही राजनीतिक रूप धारण कर चुका है, जब भाजपा ने हिमाचल के पालमपुर में राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में अयोध्या में भव्य राम मंदिर निर्माण का प्रस्ताव पारित किया था। नतीजतन 1989 के लोकसभा चुनावों में भाजपा ने 2 से 85 सीटों तक उछाल लगाई थी। 1996 में 161 सीटों के साथ भाजपा लोकसभा में पहली बार सबसे बड़ी पार्टी के तौर पर उभरी थी, लेकिन जनादेश अधूरा होने के कारण वाजपेयी सरकार 13 दिनों तक ही टिकी रह सकी। बहरहाल वाजपेयी सरकार 1998 से 2004 तक रही, क्योंकि भाजपा की सीटें 182 थीं और एनडीए के रूप में एक सशक्त, व्यापक गठबंधन उभरकर सामने आया था, लेकिन राम मंदिर बनाने की शुरुआत तक नहीं हो सकी, क्योंकि गठबंधन के कई दल सहमत नहीं थे।
 
आज स्थितियां भिन्न हैं। मोदी सरकार के पास गठबंधन समेत पर्याप्त बहुमत है। राज्यसभा में भी भाजपा-एनडीए सबसे बड़ा पक्ष हैं। कुछ और दलों के धुव्रीकरण से बहुमत के आसार भी बन सकते हैं, जिस तरह राज्यसभा के उपसभापति चुनाव में हुआ था। आरएसएस के सरसंघचालक का भी स्पष्ट समर्थन है। गठबंधन के घटक दल भी भाजपा के समर्थन में हैं। यदि भाजपा को हिंदुओं की इतनी ही चिंता है, तो अब इस दौर में राम मंदिर बन जाना चाहिए। अलबत्ता इस मुद्दे को छोड़ देना चाहिए, क्योंकि दूसरे कई मुद्दे भी अहम हैं, जिनकी अनदेखी होती रही है। 
 
 
मुस्लिम नेताओं ओवैसी और जफरयाब गिलानी ने राम मंदिर पर अगर अध्यादेश आता है तो उसे अदालत में चुनौती देने की धमकी भी दी है। उनकी दलील है कि देश संविधान से चलता है, न कि हेकड़ी की सत्ता से। सरकार मंदिर और मस्जिद में भेद करेगी, तो संविधान के अनुच्छेद 14 का उल्लंघन होगा, जिसमें समानता के अधिकार की व्याख्या है। बहरहाल मोदी सरकार और भाजपा के लिए यह सांप-छुछूंदर वाली स्थिति है। यदि मई, 2019 से पहले इस मुद्दे का निपटारा नहीं होता है, तो प्रधानमंत्री मोदी की दोबारा सत्ता में आने की कोशिशों को धक्का लग सकता है। विशेषज्ञों का मानना है कि करीब 2-3 फीसदी वोट भाजपा से छिटक कर दूर जा सकते हैं। इसी से जीत-हार का अंतर बढ़ सकता है, लिहाजा अब आखिरी दारोमदार प्रधानमंत्री मोदी पर ही है। देखते हैं कि उनका कदम क्या होता है? फिलवक्त सरयू के तट पर 1992 जैसा माहौल बनाने की तैयारियां आसमान छू रही हैं। इन सबके बीच यह बात तय है कि भाजपा और भगवा ब्रिगेड राम नाम लहर के करंट, पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव नतीजों और सियासी नफे-नुकसान के अंकगणित के हिसाब से फैसला लेंगे।
 
-आशीष वशिष्ठ
लद्दाख को यूनियन टेरीटरी यानी केंद्र शासित प्रदेश का दर्जा देने की मांग को लेकर आंदोलन ने फिर तेजी पकड़ ली है। केंद्र में भाजपा सरकार के गठन के साथ ही आंदोलन इसलिए थम गया था क्योंकि भाजपा ने यूटी देने का वादा किया था। लेकिन अब जबकि भाजपा द्वारा अपना वादा पूरा नहीं किया गया है, लद्दाख की जनता फिर से सड़कों पर उतर आई है। लद्दाख बुद्धिस्ट एसोसिएशन ने बुधवार को राज्यपाल सत्यपाल मलिक से भेंट कर लद्दाख को यूनियन टेरीटरी यानी केंद्र शासित प्रदेश का दर्जा देने की मांग भी उठाई थी। लद्दाख बुद्धिस्ट एसोसिएशन के प्रतिनिधमंडल में प्रधान सीवांग थिनलैस और उप प्रधान पीटी कुजांग शामिल थे।
 
प्रतिनिधमंडल ने राजभवन में हुई बैठक में राज्यपाल को ज्ञापन सौंपा और लोगों की मुश्किलों के बारे में विस्तार से जानकारी दी। उठाए गए मुद्दों में लद्दाख को केंद्र शासित प्रदेश बनाना, भोटी भाषा को संविधान की आठवीं सूची में शामिल करना मुख्य था। इनके साथ पुलिस रेंज, विवि स्थापित करने सहित लद्दाख के लोगों के व्यापारिक हितों के लिए नीति बनाने की मांग भी की। लद्दाख के लोगों ने यूटी अर्थात् केंद्र शासित प्रदेश का दर्जा पाने की खातिर बिगुल बजा दिया है। उन्होंने 28 सालों के बाद एक बार फिर आंदोलन का आगाज किया है। यही कारण था कि आने वाले दिनों में वे अपने आंदोलन को और तेज करने की चेतावनी दे रहे थे। लद्दाखी बीते दो दशकों से केंद्र शासित राज्य का दर्जा दिए जाने की मांग कर रहे हैं, लेकिन कश्मीर केंद्रित नीतियों के चलते उनकी यह मांग पूरी नहीं हो रही है। हमारा यह आंदोलन केंद्र शासित राज्य का दर्जा मिलने तक जारी रहेगा।
 
28 सालों के उपरांत पुनः इस बर्फीले रेगिस्तान में असंतोष भड़कने लगा है। असंतोष किस सीमा को पार कर चुका है, इसी से स्पष्ट है कि लद्दाखी नेता हथियार उठाने की धमकी दे रहे हैं। हालांकि असंतोष को भड़काने तथा राख के ढेर में दबी चिंगारी को हवा देने का कार्य नेशनल कांफ्रेंस सरकार की स्वायत्तता रपट ने किया था जिसके विरोधी सिर्फ लद्दाख में ही नहीं बल्कि जम्मू संभाग में भी हैं और इसमें तेलांगना का गठन भी उनमें हिम्मत फूंक चुका है।
 
वर्ष 1989 में एलबीए ने लद्दाख को केंद्र शासित प्रदेश का दर्जा दिए जाने की मांग को लेकर करीब साढ़े 3 माह तक हिंसक आंदोलन किया था। अंत में 6 सालों की प्रतीक्षा के उपरांत लेह की जनता को आंशिक खुशी उस समय मिली जब लेह स्वायत्त पहाड़ी परिषद के गठन की घोषणा की गई थी। लेकिन 29 अक्तूबर 1989 को केंद्र सरकार ने लद्दाख को केंद्र शासित प्रदेश बनाए जाने की जो घोषणा की थी वह लागू न होने से लद्दाख की जनता खिन्न थी। हालांकि उसने अगस्त 1995 में मिलने वाले स्वायत्त पहाड़ी परिषद के दर्जे को स्वीकार तो कर लिया परंतु उसने आज भी केंद्र शासित प्रदेश का दर्जा पाने की मांग को कभी त्यागा नहीं।
 
 
राज्य की तत्कालीन नेकां सरकार की 1953 से पूर्व की स्थिति की बहाली की मांग ने इस बर्फीले रेगिस्तान में पुनः जख्मों को हरा कर दिया था इसके प्रति कोई दो राय नहीं है। हालांकि मुफ्ती सरकार ने स्वायत्त परिषद के अधिकारों में वृद्धि कर असंतोष को ठंडा करने का प्रयास किया था लेकिन वे कामयाब नहीं हो पाए थे। नतीजतन लद्दाख की जनता फिर से आंदोलन की राह पर चल निकली है। जो यह कहने लगी है कि उनके साथ किए गए वायदों को पूरा किया जाए और लद्दाख को उसका हक, केंद्र शासित प्रदेश का दर्जा, तत्काल दिया जाए।
 
स्थिति यह है कि लद्दाख बौद्ध संघ के नेता उस चिंगारी को पुनः हवा दे रहे हैं जो पिछले 28 सालों से राख के ढेर में छुपी हुई थी। इस चिंगारी को हवा देकर लावे के भयंकर रूप में फूटने की चेतावनी देने वाले नेता प्रत्यक्ष रूप से भी यह मानने को तैयार नहीं हैं कि आंदोलन शांतिपूर्ण होगा। उनके शब्दों में: ‘शांतिपूर्ण रास्ते पर चल कर कोई कुछ नहीं पा सकता है। हम केंद्र शासित प्रदेश का दर्जा चाह रहे हैं जिसके साफ मायने हैं कि हमें कश्मीर के उपनिवेशवाद से मुक्ति चाहिए।’
 
- सुरेश डुग्गर
राजस्थान में मतदान का समय जैसे-जैसे नजदीक आता जा रहा है, चुनावी समीकरण ज्वारभाटे की तरह बदल रहे हैं। प्रारंभिक परिदृश्यों में कांग्रेस भाजपा पर भारी साबित होती दिख रही थी, लेकिन प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी एवं भाजपा अध्यक्ष अमित शाह की ताजा चुनावी सभाएं भाजपा की हारी बाजी को जीत में बदलती दिख रही है। कांग्रेस के भीतर चल रही गुटबाजी से भी यह जमीन तैयार हो रही है, एक तरह से जीत की ओर बढ़ती कांग्रेस को नुकसान होने की पूरी-पूरी आशंका है। हालांकि राजनीतिक विश्लेषक एवं चुनाव पूर्व के अनुमान अभी भी कांग्रेस के ही पक्ष में हैं और माना जा रहा है कि इस बार सत्ता परिवर्तन होगा और स्पष्ट बहुमत के साथ कांग्रेस की सरकार बनेगी। सट्टा बाजार से जुड़े सूत्रों के मुताबिक कांग्रेस 125 सीटों के साथ सरकार बना रही है वहीं भाजपा 50 से 55 सीटों पर सिमट जाएगी, ऐसा अनुमान लगाया जा रहा है।
 
जिन पांच राज्यों में विधानसभा के चुनाव हैं उनमें राजस्थान ही एकमात्र ऐसा राज्य है जहां भाजपा की सत्ता में वापसी सर्वाधिक मुश्किल मानी जा रही है। राजस्थान में पिछले तीन दशक से अदल-बदलकर सत्ता परिवर्तन की परंपरा रही है। पिछली बार भाजपा सत्तारूढ़ हुई थी। इस परंपरागत रुझान के मुताबिक इस बार मौका कांग्रेस को है। इसी वर्ष हुए उपचुनावों में मिली पराजय से भाजपा को करारा झटका भी लगा है और कांग्रेस आशान्वित हुई। अलवर और अजमेर लोकसभा तथा मांडलगढ़ विधानसभा सीट पर मिली जीत से कांग्रेस की उम्मीदें बढ़ी हैं। इस बार भाजपा फिर एक बार वसुंधरा राजे सिंधिया पर अपना दांव लगा रही है, जबकि कांग्रेस ने किसी को भी अपना मुख्यमंत्री प्रत्याशी नहीं बनाया है। सत्ता विरोधी लहर से चिंतित मुख्यमंत्री राजे पिछले छह माह से संघर्षरत हैं। उन्होंने 4 अगस्त को मेवाड़ से ‘राजस्थान गौरव यात्रा’ के जरिए अपना चुनावी अभियान शुरू किया। यात्रा की शुरुआत में भाजपा अध्यक्ष अमित शाह मौजूद थे। 58 दिनों की इस यात्रा में वह राज्य के लोगों से मिलती रही हैं और आगामी चुनाव के लिए जनादेश मांगती रही हैं। यह यात्रा राज्य की 200 में से 165 विधानसभा क्षेत्रों से होकर गुजरी।
 
 
भाजपा ने 180 सीटों पर विजय का लक्ष्य रखते हुए अपने चुनाव अभियान को ‘मिशन 180’ नाम दिया है। इस मिशन के तहत भाजपा ने ए ग्रेड की 65 विधानसभा सीटों को चिन्हित किया है। ये वे सीटें हैं, जिन पर भाजपा लगातार दो या इससे अधिक बार जीत रही है। अब भाजपा यह रणनीति बना रही है कि कम से कम 65 सीटों से गिनती प्रारंभ हो और फिर मिशन 180 तक पहुंचा जाए। राजनैतिक दलों के लिहाज से राजस्थान हमेशा दो विकल्पों से घिरा रहा है, कांग्रेस और भाजपा। भाजपा ने 2013 के विधानसभा चुनाव में जबरदस्त कामयाबी हासिल की थी। कुल 200 में से 163 सीटें जीतकर तीन चौथाई बहुमत के साथ भाजपा सत्तारूढ़ हुई थी, जबकि कांग्रेस 21 और बसपा 3 सीटों पर ही सिमट गईं थीं। इस चुनाव में भाजपा को 45.50 फीसदी, कांग्रेस को 33.31 और बीएसपी को 3.48 फीसदी वोट मिले थे। बाद में 2014 के लोकसभा चुनाव में राज्य की सभी 25 सीटों पर भाजपा का परचम लहराया था।
 
उधर भाजपा से सत्ता छीनने की हरसंभव कोशिशों में कांग्रेस जुटी है। सत्ता वापसी के लिए कोशिश कर रही कांग्रेस किसी एक नाम पर अभी सहमत नहीं हो पाई है। इसीलिए पार्टी ने साफ कर दिया है कि राहुल गांधी के नेतृत्व में ही चुनाव लड़ा जाएगा, ना अशोक गहलोत चेहरा होंगे और ना ही सचिन पायलट। कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने जयपुर में 13 किमी का रोड शो कर कांग्रेस के चुनावी अभियान की औपचारिक शुरुआत की थी। एक तरफ कांग्रेस वसुंधरा सरकार को घेरने में लगी है, वहीं दूसरी ओर कांग्रेस बूथ स्तर पर अपने संगठन को मजबूत करने में लगी है। बूथ स्तर पर कांग्रेस ने अपनी मजबूती को सुनिश्चित करने के लिए प्रदेश में ‘मेरा बूथ, मेरा गौरव’ नाम से एक अभियान भी चलाया है। चुनाव की रणनीति के अन्तर्गत कांग्रेस जातीय समीकरणों का हवाला देते हुए हवा अपने पक्ष में होने का दावा कर रही है। कांग्रेस ने ब्राह्मण, राजपूत और दलितों की नाराजगी को हवा देकर राजनीतिक समीकरण बनाये हैं।
 
 
विडम्बनापूर्ण स्थिति तो यह है कि दोनों ही राजनीतिक दल चुनावी मुद्दे के तौर पर कोई ठोस प्रस्तुति नहीं दे पाये हैं। एक तरह से ये चुनाव मुद्दे विहीन चुनाव ही हैं। हालांकि दोनों ही प्रमुख राजनीतिक दल विकास को अपना मुख्य मुद्दा बता रहे हैं, लेकिन जमीनी तौर पर आरक्षण, किसान और गाय ही प्रमुख मुद्दे बनते नजर आए हैं। गूजर और जाटों के आरक्षण आंदोलन में झुलस चुके राजस्थान में अत्याचार अधिनियम के मुद्दे पर राजपूत और ब्राह्मण भी लामबंद होने की कोशिश में हैं। भाजपा के बागी नेता घनश्याम तिवाड़ी ने तो इस मुद्दे पर तीसरा मोर्चा बनाने का ऐलान किया है। भाजपा को इस बार गाय वोटों की कामधेनु नजर आ रही है। वह गौ-तस्करी को लगातार मुद्दा बनाती रही है तो कांग्रेस गौ तस्करी के शक में पीट पीटकर लोगों को मारने की घटनाओं को लेकर सरकार को घेरती रही है। उधर फसल के सही दाम नहीं मिलने और कर्ज के कारण किसानों की आत्महत्याओं के मामलों को लेकर भी विपक्षी दल भाजपा सरकार को घेरने में जुटे हैं।
 
कांग्रेस ने वसुंधरा सरकार की कार्यप्रणाली के प्रति उपजे असंतोष को भी चुनावी मुद्दा बनाया है। वसुंधरा सरकार के कई मंत्री सार्वजनिक तौर पर मुख्यमंत्री की तानाशाही प्रवृत्ति के प्रति असंतोष जाहिर कर चुके हैं। पार्टी के वरिष्ठ नेता रहे पूर्व मंत्री घनश्याम तिवाड़ी ने पार्टी से बगावत का ऐलान किया। दोनों ही दलों में बागी स्वर बुलन्द हैं। जिससे इन चुनावों में दोनों को ही भारी नुकसान होने की संभावनाएं हैं। कांग्रेस भी पूर्व मुख्यमंत्री अशोक गहलोत, प्रदेश अध्यक्ष सचिन पायलट और पूर्व केंद्रीय मंत्री सीपी जोशी के गुटों में बंटी है। जिन लोगों को टिकट नहीं मिला, वे बागी होकर निर्दलीय चुनाव लड़ रहे हैं, जिससे दोनों ही दलों की जीत प्रभावित होगी।
 
राजस्थान में चुनावी प्रचार चरम पर है। इसमें जमीनी मुद्दों के बजाय व्यक्तिगत छींटाकशी, जाति, धर्म, सम्प्रदाय और क्षेत्रवाद हावी है। इसमें कोई भी दल दूसरे से पीछे नहीं रहना चाहता। एक−दूसरे की जाति को लेकर निजी हमले किए जा रहे हैं। राजनीतिक दलों के नेता सत्ता हथियाने के लिए कैसे समाज में जहर घोल कर देश को कमजोर करने का काम करते हैं, इसे राजस्थान में चले रहे विधानसभा चुनावों में देखा−समझा जा सकता है। परवान पर पहुंच चुके चुनाव प्रचार में कांग्रेस और भाजपा ने मानो नैतिकता, देश की एकता−अखण्डता और सौहार्द को गिरवी रख दिया है। चुनावों में दोनों ही प्रमुख दलों के नेता एक−दूसरे के खिलाफ विषवमन करने में पूरी ताकत से जुटे हैं। विकास और तरक्की के वायदे हवा हो गए हैं। राज्य में करोड़ों मतदाताओं की आशा−अपेक्षा अब धूल−धूसरित हो रही है। प्रदेश में आम मतदाताओं की दुख−तकलीफों से लगता है कि किसी दल का वास्ता ही नहीं रह गया। वास्तविक मुद्दों की बजाए मतदाताओं को बांटने की पूरी कोशिश की जा रही है।
 
यह अलग बात है कि मतदाताओं ने बेतुकी और विकास को भटकाने वाली बातें करने वाले नेताओं को पहले भी कई बार आईना दिखाया है। इसका भाजपा और कांग्रेस ने अपने राजनीतिक इतिहास से सबक नहीं लिया। गौरतलब है कि नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में केंद्र में सरकार बनाने से पहले देश को सिर्फ बेहतर विकास और भविष्य का ख्वाब दिखाया गया था। कांग्रेस के काले कारनामों से परेशान हो चुके देश के मतदाताओं ने मोदी पर पूरा भरोसा जताते हुए देश की कमान सौंप दी थी। अब देखना है कि राजस्थान में मोदी का जादू कैसे कांग्रेस की जीती पारी को हार में बदलने में सक्षम होता है ? देखना यह भी है कि मतदाता के दिलों पर उनका कैसा असर कायम है ?
  
लेकिन यह तय है कि चुनाव का समय मतदाता को ही लोकतन्त्र का मालिक घोषित करता है। हमने आजादी के बाद से हर चुनाव में मतदाताओं की वह बुद्धिमानी देखी है जो राजनीतिज्ञों को मूर्ख साबित करती रही है। इसकी असली वजह यह होती है कि मतदाता हर चुनाव में उस राजनैतिक एजेंडे को ही गले लगाते हैं जो उनके दिल के करीब होता है। मगर राजनीतिज्ञों को मतदान के दिन तक यह गलतफहमी रहती है कि वे उनकी गढ़ी हुई राजनैतिक शब्दावली के धोखे में आ जायेंगे। अतः जो लोग सोच रहे हैं कि राजस्थान के चुनाव में असंगत बातों को उछाल कर बाजी जीती जा सकती हैं या मतदाता को ठगा या गुमराह किया जा सकता है, उन्हें अंत में निराश ही होना पड़ेगा। अब हार-जीत का निष्कर्ष जनता से जुड़े वास्तविक मुद्दे पर टिका है, क्योंकि एक दिन की बादशाह जनता ही होती है जो किसी भी दल या नेता को ‘फर्श’ से उठा कर ‘अर्श’ पर पहुंचा देती है या ‘अर्श’ से ‘फर्श’ पर पटक देती है।
 
-ललित गर्ग

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