राजनीति

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लोकसभा चुनाव में प्रचंड बहुमत हासिल करने वाली भाजपा ने यह तो सिद्ध कर ही दिया कि पार्टी में नंबर वन की भूमिका और नरेंद्र मोदी की सरकार में नंबर दो की भूमिका आखिर किसकी है क्योंकि भारत में राजनीतिक दृष्टिकोण के लिहाज से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सबसे करीबी और शक्तिशाली व्यक्तित्व के धनी तो सिर्फ एक ही व्यक्ति हैं। वो हैं अमित शाह। कभी नरेंद्र मोदी की सरकार में दूसरा सबसे शक्तिशाली पद राजनाथ सिंह का हुआ करता था लेकिन अब यह पद अमित शाह के पास है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बहुमत के साथ एक बार फिर चुने गए और उन्होंने गृह विभाग का जिम्मा अपने सबसे करीबी अमित शाह को सौंपा तो रक्षा विभाग का जिम्मा उन्होंने राजनाथ सिंह को दिया। जिनकी अध्यक्षता में पहली बार भारतीय जनता पार्टी ने आम चुनावों में बहुमत हासिल की थी। 
 
सरकार में नंबर दो की भूमिका में रहने वाले अमित शाह फिलहाल भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष भी बने रहेंगे। ऐसा फैसला पार्टी ने किया और वो भी इसलिए ताकी आने वाले विधानसभा चुनावों में भाजपा एक बार फिर से अपना शानदार प्रदर्शन दोहरा सकें। भाजपा के पूरे इतिहास में अभी तक अमित शाह जैसा शक्तिशाली व्यक्ति नहीं रहा। जिसने न केवल जीत की रणनीति बनाई बल्कि कब किस विपक्षी पार्टी को कैसे मात देने है उसका पूरा खाका भी तैयार किया। शायद यही वजह है कि पार्टी ने झारखंड, हरियाणा और महाराष्ट्र में होने वाले विधानसभा चुनावों तक शाह को अध्यक्ष पद पर बने रहने की बात कहीं। हालांकि इसे हम सब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की दूरगामी सोच का नतीजा भी समक्ष सकते हैं। क्योंकि मोदी और शाह की जोड़ी ने गुजरात से शुरुआत कर आज पूरे देश में भाजपा के नाम का परचम लहराया है।
 
इतना ही नहीं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने नई सरकार के कामकाज की शुरुआत करते हुए 8 समितियां गठित कीं और इन सभी समितियों में अमित शाह हैं। जबकि प्रधानमंत्री खुद 6 समितियों में हैं। शाह को सौंपी गई 2 समितियां ऐसी हैं जो गृह मंत्रालय के अंतर्गत तक नहीं आती हैं। उनमें से एक नौकरियों से संबंधित तो दूसरी आर्थिक ग्रोथ को बढ़ाने संबंधित समिति है। मुंबई में जन्में शाह 30वें गृहमंत्री हैं। गृहमंत्री के तौर पर अपना कामकाज संभालने के तुरंत बाद से ही अमित शाह ने मंत्रालय के अंतर्गत आने वाले सभी 19 विभागों का जायजा लिया और उनका कामकाज समझने का प्रयास भी किया। इतना ही नहीं ईद के दिन भी शाह ने मंत्रालय में कामकाज निपटाया। मीडिया रिपोर्ट्स में इस बात का दावा किया जा रहा है कि शाह पिछले गृहमंत्रियों की तुलना में दफ्तर में ज्यादा वक्त गुजारते हैं। इतना ही नहीं यहां तक कहा जा रहा है कि राजनाथ सिंह लंच के बाद घर चले जाते थे और घर से ही मंत्रालय का सारा काम देखते थे। जबकि शाह सुबह 9:45 में नॉर्थ ब्लॉक जाते हैं और रात 8 बजे तक वहीं से कामकाज देखते हैं। 

 

गृहमंत्रालय में इन दिनों राज्यपाल, मुख्यमंत्रियो और मंत्रियों का आना जाना लगा हुआ है। अब तक केंद्र सरकार में महत्वपूर्ण कामकाज की दिशा में प्रधानमंत्री कार्यालय के बाद वित्त मंत्रालय ही आता था लेकिन शाह की एनर्जी और लगातार चल रही बैठकों पर ध्यान दें तो अरुण जेटली के सरकार में न होने के बाद से गृह मंत्रालय ने सुर्खियां बटोरी हुई है। हालांकि पार्टी प्रमुख होने के नाते अमित शाह का मंत्रियों और नेताओं से मिलना तो स्वभाविक था। पिछली मोदी सरकार में गृहमंत्रालय के काम कर चुके एक ब्यूरोक्रेट बताते हैं कि यह पहली बार है गृह मंत्रालय के तहत अंतर-मंत्रालयी बैठक हो रही है। जबकि मोदी सरकार के पहले कार्यकाल में यह बमुश्किल आयोजित होती थीं। गौरतलब है कि सालों पहले सरदार वल्लभ भाई पटेल को देश के सबसे निर्णायक गृह मंत्रियों के रूप में देखा जाता था और ऐसा ही उदाहरण लालकृष्ण आडवाणी ने भी पेश करने का प्रयास किया था लेकिन अब अमित शाह यह जिम्मा निभा रहे हैं।
 
शाह के समझ आने वाली चुनौतियां 
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा एक बार फिर से अमित शाह पर भरोसा जताए जाने के बाद अब उन्हें खुद को सिद्ध करना पड़ेगा। क्योंकि अमित शाह ने खुद चुनावी रैलियों के समय कश्मीर से धारा 35ए और धारा 370 को समाप्त करने एवं राम जन्मभूमि बनाने की बात कही थी। इतना ही नहीं उन्होंने कहा था कि हमारी सरकार बनने के बाद हम एनआरसी को नए सिरे से लागू करेंगे। शाह के इन वादों के बाद देखते ही देखते चुनावों में जय श्री राम का नारा भी गूंजने लगा, जो आज ममता बनर्जी के लिए परेशानी का सबब बना हुआ है। बीते दिनों सामने आए वीडियो के मुताबिक ममता बनर्जी जय श्री राम का नारा सुनकर इतना आक्रोशित हो गईं कि उन्होंने नारे लगाने वालों को जेल में डालने तक की धमकी दे डाली और यह कहा कि यह गुजरात नहीं बल्कि बंगाल हैं।
 
खैर अमित शाह ने अगर खुद के द्वारा किए गए वादों को पूरा कर दिया तो वह अपने-आप ही सर्वस्वीकृत नेता बन जाएंगे। इसलिए जरूरी है कि वह अब वादों को पूरा करने की दिशा में काम करें। हालांकि उन्होंने कश्मीर में दिलचस्पी दिखाते हुए राज्यपाल सत्यपाल मलिक से कश्मीर के हालातों पर बातचीत की और प्रभावी कदम उठाने का वादा भी किया। इतना ही नहीं वह अमरनाथ यात्रा से पहले कश्मीर का दौरा भी करने वाले हैं।
 
- अनुराग गुप्ता
अनंतनाग में बुर्का पहने मोटरसाइकिल सवार दो आतंकियों ने बीच बाजार CRPF के दल पर हमला कर 5 जानें लेकर इसे जरूर स्पष्ट कर दिया है कि उन पर फिलहाल ऑपरेशन ऑल आउट का कोई असर नहीं है और वे अभी भी जहां चाहें वहां मार करने की क्षमता रखते हैं। पुलवामा में हुए आत्मघाती हमले के बाद हुए सबसे बड़े आतंकी हमले ने खासकर उन अधिकारियों के पांव तले जमीं खिसकाई है जो लगातार दावा कर रहे थे कि दक्षिण कश्मीर को आतंकियों से मुक्त करवा लिया गया है। उनका दावा इस इलाके में मारे जाने वाले आतंकियों की संख्या पर निर्भर था।
 
 
इस साल अभी तक कश्मीर में मारे गए कुल 112 आतंकियों में से आधे के करीब दक्षिण कश्मीर में ही मारे गए हैं। दरअसल दक्षिण कश्मीर को आतंकवादियों का गढ़ माना जाता है। एक अधिकारी के बकौल, अमरनाथ यात्रा को क्षति पहुंचाने की खातिर आतंकी इस इलाके में एकत्र हो रहे थे। पिछले साल भी ऑपरेशन ऑल आउट का जोर दक्षिण कश्मीर में ही था। बावजूद इसके दक्षिण कश्मीर से आतंकवादियों की संख्या कम होने का नाम नहीं ले रही। गंभीर स्थिति यह है कि इनमें अच्छी खासी संख्या में विदेशी नागरिक हैं। हालिया हमले में भी विदेशी आतंकी ही शामिल रहे थे।
 
हिज्बुल मुजाहिदीन के पोस्टर ब्वॉय बुरहान वानी की मौत के बाद से ही दक्षिण कश्मीर खासकर अनंतनाग में सुरक्षा बलों ने दबाव बनाया हुआ है। कोई दिन ऐसा नहीं गुजरता जिस दिन आतंकियों को मौत के घाट नहीं उतारा जाता पर चिंता का विषय दक्षिण कश्मीर में फैले आतंकवाद का यह है कि जितने आतंकी मरते हैं उससे आधी संख्या में नए पैदा जाते हैं और 90 प्रतिशत दक्षिण कश्मीर के दो जिलों पुलवामा और अनंतनाग के रहने वाले ही होते हैं।
 
अब सेना ने अमरनाथ यात्रा से पहले आतंकियों के खिलाफ अभियान तेज करते हुए सारा जोर लगाने का फैसला किया है। इसमें सेना व अन्य सुरक्षा बलों के अतिरिक्त वायुसेना की भी मदद लेने का निर्णय हुआ है जिसके तहत जंगलों में छुपे हुए आतंकियों को लड़ाकू हेलिकाप्टरों से मारा गिराया जाएगा।
 
ऐसे में अनंतनाग में हुए फिदायीन हमले के बाद खुफिया अधिकारियों के इस रहस्योद्घाटन के पश्चात कि अमरनाथ यात्रा इस बार आतंकी हमलों से दो-चार हो सकती है, यह यात्रा सभी के लिए अग्नि परीक्षा साबित होने जा रही है। उनके मुताबिक, कई आतंकी इसके लिए कश्मीर के भीतर घुस चुके हैं और वे यात्रा मार्गों के आसपास के इलाकों में डेरा जमाए हुए हैं। अधिकारियों का यहां तक कहना है कि आतंकी आईएस टाइप वोल्फ हमले भी कर सकते हैं।
 
दरअसल 2017 में आतंकियों ने अमरनाथ यात्रा पर हमला बोल कर 9 श्रद्धालुओं की जान ले ली थी और अब हुआ फिदायीन हमला भी ठीक वैसा ही था। ऐसे में अधिकारी कहते हैं कि हमले को देख लगता था कि यह अमरनाथ यात्रा पर हमले की प्रेक्टिस हो सकती है। दरअसल सीमा पार रची जा रही साजिशों से सुरक्षा एजेंसियों को पुख्ता संकेत मिल रहे हैं कि ऐसा हमला करने की फिर कोशिशें हो सकती हैं। ऐसे में जम्मू में भी सेना, बीएसएफ, पुलिस, सीआरपीएफ के शिविरों के आसपास भी सुरक्षा कड़ी कर दी गयी है। इसके साथ ही अपने अपने स्तर पर बैठकें कर वरिष्ठ अधिकारियों ने सुरक्षा के हर पहलू पर गौर कर यहां ऐसे हमले नाकाम बनाने की रणनीति पर गौर किया।
जम्मू शहर में पहले भी आतंकी फिदायीन हमलों को अंजाम दे चुके हैं लेकिन अधिकतर हमले आतंकी सैन्य शिविरों में घुसकर ही अंजाम दिये गये हैं। ऐसे हालात में जम्मू में भी सुरक्षा बल चौकस हो गए हैं। सेना और सुरक्षा बलों की पूरी कोशिश है कि खुफिया एजेंसियों के साथ बेहतर समन्वय से आतंकवादियों के मसूंबे नाकाम कर दिये जाएं। यात्री निवास को अगले सप्ताह तक सीआरपीएफ अपने घेरे में ले लेगी। राज्य पुलिस भी सुरक्षा में सहयोग देगी। श्रद्धालुओं की चेकिंग, सामान की जांच का जिम्मा पुलिस पर होगा। श्रद्धालुओं को यात्रा से एक दिन पहले ही यात्री निवास में प्रवेश करने की इजाजत होगी, ताकि अधिक भीड़ न हो।
 
अमरनाथ यात्रा के शुरू होने में अब 17 दिनों का समय बचा है। सुरक्षाबल कोई खतरा मोल नहीं लेना चाहते इसलिए एक माह पूर्व सभी तैयारियां आरंभ तो की गई थीं पर वे अभी तक अधबीच में ही हैं। एक रहस्योदघाटन के मुताबिक, यात्रा मार्ग के आसपास के कई क्षेत्रों की साफ सफाई, उन्हें बारूदी सुरंगों तथा आतंकियों से मुक्त करवाने का अभियान अभी भी अधबीच में है। स्थिति यह है कि खुफिया अधिकारियों के रहस्योद्घाटन के बाद यात्रियों की सुरक्षा कैसे होगी, कोई नहीं जानता है और सब भोलेनाथ पर छोड़ दिया गया है।
 
-सुरेश एस डुग्गर

इससे पहले कभी नहीं हुआ कि प्रधानमंत्री के प्रधान सचिव या अतिरिक्त प्रधान सचिव को कैबिनेट मंत्री का दर्जा दिया गया हो। खास बात यह है कि इन दोनों अधिकारियों का कार्यकाल प्रधानमंत्री के कार्यकाल के साथ पूरा होगा।

नरेंद्र मोदी ने दोबारा प्रधानमंत्री बनने के बाद भले अपने मंत्रिमंडल में कुछ चौंकाने वाले परिवर्तन किये हों लेकिन प्रधानमंत्री कार्यालय के अधिकारियों पर उनका पुराना विश्वास बना हुआ है। यही कारण है कि नृपेंद्र मिश्रा को प्रधानमंत्री का प्रधान सचिव और पी.के. मिश्रा को अतिरिक्त प्रधान सचिव पद पर पुनः बहाल किया गया है साथ ही दोनों को कैबिनेट मंत्री का दर्जा प्रदान किया गया है। इससे पहले कभी नहीं हुआ कि प्रधानमंत्री के प्रधान सचिव या अतिरिक्त प्रधान सचिव को कैबिनेट मंत्री का दर्जा दिया गया हो। खास बात यह है कि इन दोनों अधिकारियों का कार्यकाल प्रधानमंत्री के कार्यकाल के साथ पूरा होगा।

दरअसल कैबिनेट मंत्री का दर्जा देकर प्रधानमंत्री ने दर्शाया है कि वह अपने इन दोनों अधिकारियों की ईमानदारी और कर्तव्य निष्ठा से कितने प्रसन्न हैं। यही नहीं प्रधानमंत्री ने हाल ही में राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार पद पर अजित डोभाल को दोबारा नियुक्त करते हुए उन्हें भी कैबिनेट मंत्री का दर्जा प्रदान किया था। इसके अलावा पिछली सरकार में प्रधानमंत्री कार्यालय में राज्यमंत्री रहे डॉ. जितेन्द्र सिंह को दोबारा यह पद सौंपा गया है। नरेंद्र मोदी को 2019 के लोकसभा चुनावों में जो बड़ा जनादेश मिला है उसकी सफलता का श्रेय प्रधानमंत्री कार्यालय के अधिकारियों, कर्मचारियों को भी जाता है जिन्होंने दिन-रात मेहनत करके सरकारी योजनाओं के क्रियान्वयन पर नजर रखी, पारदर्शिता बरतने के लिए हर संभव प्रयास किये और प्रधानमंत्री की स्वप्निल योजनाओं को मूर्त रूप प्रदान करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। नरेंद्र मोदी ने अपने अधिकारियों पर जो भरोसा जताया है वह दर्शाता है कि वह अपने पुर्न निर्वाचन में प्रधानमंत्री कार्यालय के अधिकारियों द्वारा किये गये कार्य का भी योगदान मानते हैं और अपने विश्वस्त अधिकारियों के सहयोग से अपनी दूसरी पारी में कुछ बड़ा करना चाहते हैं।

 
नृपेंद्र मिश्रा ट्राई के चेयरमैन रह चुके हैं और 2014 में भाजपा सरकार बनने पर जो पहली नियुक्ति हुई थी वह उन्हीं की हुई थी। प्रधानमंत्री के प्रधान सचिव के रूप में नृपेंद्र मिश्रा के पास सदैव हर समस्या का हल मिल जाता है। साथ ही वह विभिन्न मंत्रालयों के साथ प्रधानमंत्री कार्यालय का समन्वय बनाये रखने में माहिर हैं। प्रधानमंत्री के अतिरिक्त प्रधान सचिव के रूप में पी.के. मिश्रा का कार्य भी उल्लेखनीय रहा है। नियुक्तियों, चयन, अफसरशाही के कार्यकलाप पर नजर रखने, सुधारों को आगे बढ़ाने के मामले में वह प्रधानमंत्री के विश्वस्त सहयोगी हैं। साथ ही आपदा के समय राहत कार्यों को लेकर कैबिनेट सचिवालय के साथ उनका जबरदस्त समन्वय रहता है।
प्रधानमंत्री ने अपनी नई सरकार में जिस तरह अधिकारियों पर विश्वास जताते हुए अजीत डोभाल, नृपेंद्र मिश्रा, पी.के मिश्रा को पुनः पद पर बहाल करते हुए उन्हें कैबिनेट रैंक दिया और पूर्व विदेश सचिव एस. जयशंकर को कैबिनेट मंत्री बनाकर विदेश जैसा महत्वपूर्ण मंत्रालय सौंपा, उससे साफ जाहिर हो जाता है कि प्रधानमंत्री उत्कृष्ट कार्य करने वालों को पद और सम्मान दोनों देते हैं। अफसरशाही में इससे एक सकारात्मक संदेश गया है।
 
-नीरज कुमार दुबे

वायनाड से चुनाव जीतने के बाद राहुल शुक्रवार को तीन दिन के दौरे पर केरल पहुंचे
राहुल गांधी ने शनिवार को वायनाड में रोड शो किया, 15 स्थानों पर स्वागत समारोह
राहुल ने कहा- वायनाड के सभी धर्म और जाति के नागरिकों के लिए मेरे दरवाजे खुले
तिरुवनंतपुरम. कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने केरल दौरे के दूसरे दिन शनिवार को अपने संसदीय क्षेत्र वायनाड में रोड शो किया। वे मतदाताओं का आभार जताने के लिए तीन दिवसीय दौरे पर केरल गए हैं। रोड शो के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर निशाना साधा। राहुल ने कहा कि मोदी जहर का इस्तेमाल करते हैं और हम राष्ट्रीय स्तर पर इसके खिलाफ लड़ रहे हैं। वे नफरत, गुस्से और लोगों को बांटने की राजनीति करते हैं। चुनाव जीतने के लिए झूठ बोलते हैं।
राहुल ने कहा, ''मैं कांग्रेस से हूं और जाति-धर्म और विचारधारा से इतर वायनाड के हर व्यक्ति के लिए मेरे दरवाजे हमेशा खुले हुए हैं। इस बात से फर्क नहीं पड़ता कि आप किस पार्टी से हैं। आपने मुझे समर्थन दिया, यह अद्वितीय है। मौजूदा केंद्र सरकार और मोदी देश में नफरत फैला रहे हैं। कांग्रेस जानती है कि इससे निपटने का एकमात्र रास्ता प्यार है। हम देश में कमजोरों को मोदी की नीतियों से बचाने के लिए प्रतिबद्ध हैं। मैं आपका प्रतिनिधित्व करने और बेहतर वायनाड बनाने के लिए तैयार हूं।''
'वायनाड की आवाज बुलंद करना मेरा कर्तव्य'
कांग्रेस अध्यक्ष ने शुक्रवार को मल्लापुरम में रोड शो के बाद जनसभा को संबोधित किया था। उन्होंने कहा कि मैं केरल का सांसद हूं। यह मेरी जिम्मेदारी है कि न सिर्फ वायनाड बल्कि पूरे केरल के नागरिकों से जुड़े मुद्दों को आवाज दूं। वायनाड के लोगों की आवाज सुनना और उनकी आवाज बनना मेरा कर्तव्य है। आप सभी के प्रेम और स्नेह का धन्यवाद, जो आपने मेरे लिए दिखाया।
राहुल ने केरल और उप्र से लड़ा था चुनाव
राहुल ने केरल और उत्तरप्रदेश की दो सीटों पर चुनाव लड़ा था। अमेठी में उन्हें स्मृति ईरानी से हार मिली, जबकि वायनाड में राहुल 4 लाख 31 हजार से ज्यादा वोट से जीते थे। वायनाड से जीतने के बाद राहुल का केरल का यह पहला दौरा है। वे रविवार तक केरल में अलग-अलग कार्यक्रमों में शामिल होंगे।
किसानों की खुदकुशी पर मुख्यमंत्री को पत्र लिखा था
जीत के बाद राहुल ने 24 मई को वायनाड की जनता का आभार जताया था। इसके बाद 31 मई को उन्होंने मुख्यमंत्री पिनरई विजयन को पत्र लिखकर वायनाड में कर्ज की वजह से खुदकुशी करने वाले किसानों की जानकारी मांगी थी। उन्होंने सरकार से आग्रह किया था किसानों के परिवार की आर्थिक मदद का दायरा बढ़ाया जाए।

कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी कह रहे हैं कि उनकी पार्टी के 52 सांसद इंच इंच की लड़ाई लड़ेंगे लेकिन कांग्रेस कार्यकर्ता पार्टी की चुनावी संभावनाओं को फीट-फीट गड्ढा खोद कर दफन करने में लगे हुए हैं।

लोकसभा चुनावों के परिणाम आये हुए लगभग दो सप्ताह हो चले हैं लेकिन विपक्ष में मची आपसी खींचतान कम होने का नाम नहीं ले रही है। 2019 के जनादेश ने पहले कांग्रेस के अरमानों पर बुरी तरह पानी फेर दिया तो अब कांग्रेस के अपने लोग पार्टी को खत्म करने में लगे हुए हैं। विभिन्न राज्यों से जिस तरह पार्टी में उठापटक की खबरें आ रही हैं वह निश्चित रूप से कांग्रेस आलाकमान के लिए बेचैन कर देने वाली हैं। मुश्किल समय में पार्टी को जिस तरह अपने ही लोग झटका दे रहे हैं उसने देश की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी का भविष्य खतरे में डाल दिया है। कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी कह रहे हैं कि उनकी पार्टी के 52 सांसद इंच इंच की लड़ाई लड़ेंगे लेकिन कांग्रेस कार्यकर्ता पार्टी की चुनावी संभावनाओं को फीट-फीट गड्ढा खोद कर दफन करने में लगे हुए हैं।

 
राज्य दर राज्य देखते जाइये, कांग्रेस में मची खलबली सामने आती चली जायेगी। तेलंगाना में पार्टी के 18 विधायकों में से दो-तिहाई यानि 12 विधायकों ने राज्य में सत्तारुढ़ टीआरएस में अपने समूह के विलय का स्पीकर से अनुरोध किया जोकि स्वीकार कर लिया गया है। कांग्रेस ने इसे दिन दहाड़े लोकतंत्र की हत्या करार देते हुए कहा है कि यह देश के लिए स्वस्थ परिपाटी नहीं है और यह जनादेश की हत्या है जिसके लिए तेलंगाना की जनता कभी माफ नहीं करेगी। खबर है कि तेलंगाना में कांग्रेस के एक और विधायक टीआरएस में जा सकते हैं। वहीं दूसरी ओर पंजाब में भले कांग्रेस की स्पष्ट बहुमत वाली सरकार हो लेकिन वहां नेतृत्व को लगातार चुनौती मिल रही है। राज्य सरकार में कैबिनेट मंत्री नवजोत सिंह सिद्धू और मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह के बीच चल रही खींचातानी और सार्वजनिक रूप से हो रही बयानबाजी ने पार्टी के लिए मुश्किलें बढ़ा दी हैं। इसके अलावा महाराष्ट्र, हरियाणा, राजस्थान और मध्य प्रदेश में भी कांग्रेस के भीतर असंतोष के स्वर उभरे हैं, यही नहीं गुजरात कांग्रेस में भी बेचैनी दिखायी दे रही है।
 
 
पंजाब की बात करें तो नवजोत सिंह सिद्धू कैबिनेट की बैठक से दूर रहते हुए कह रहे हैं कि ‘‘उन्हें हल्के में नहीं लिया जा सकता।’’ दरअसल सिद्धू हालिया लोकसभा चुनाव में पंजाब के शहरी इलाकों में कांग्रेस के ‘‘खराब प्रदर्शन’’ को लेकर मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह की नाराजगी का सामना कर रहे हैं। यही कारण रहा कि मुख्यमंत्री ने उनका विभाग बदल दिया। हरियाणा को देखें तो वहां विधानसभा चुनाव में अब कुछ ही महीने का समय बचा है, ऐसे में कांग्रेस के अंदर जिस तरह की उठापटक है वह पार्टी के भविष्य के लिए नुकसानदेह साबित होगी। पूर्व मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा के प्रति निष्ठा रखने वाले कुछ विधायकों ने लोकसभा चुनाव में प्रदेश में पार्टी के खराब प्रदर्शन को लेकर प्रदेश अध्यक्ष अशोक तंवर को निशाने पर लिया है, जिस पर तंवर ने गुस्से में कहा, ‘‘अगर आप मुझे खत्म करना चाहते हैं तो मुझे गोली मार दीजिए।’’ दरअसल पार्टी के हरियाणा प्रभारी गुलाम नबी आजाद ने नयी दिल्ली में एक बैठक बुलाई थी। उस बैठक में मौजूद पार्टी के एक नेता ने दावा किया कि पूर्व मुख्यमंत्री भूपेन्द्र सिंह हुड्डा के करीबी विधायकों ने अशोक तंवर को निशाना बनाया।
 
यही नहीं कांग्रेस की राजस्थान इकाई में भी असंतोष के स्वर सुनने को मिल रहे हैं, जहां लोकसभा आम चुनाव में पार्टी को मिली करारी शिकस्त के बाद मुख्यमंत्री अशोक गहलोत और उप मुख्यमंत्री सचिन पायलट के बीच कथित तौर पर आरोप-प्रत्यारोप शुरू हो गया है। इस बयानबाजी पर पार्टी आलाकमान ने नाराजगी जताई है और मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के खिलाफ बोलने वाले विधायक को कारण बताओ नोटिस जारी किया है। राजस्थान कांग्रेस के प्रभारी महासचिव अविनाश पांडे ने पार्टी के लोगों को अनावश्यक बयानबाजी से बचने की सख्त हिदायत दी है।
 
 
आपसी मनमुटाव की खबरें मध्य प्रदेश से भी आ रही हैं, जहां सत्तारुढ़ कांग्रेस अपने विधायकों को एकजुट रखने और सत्ता में बने रहने के लिए मशक्कत करती नजर आ रही है। राज्य में कांग्रेस नीत सरकार को बसपा और निर्दलीय विधायकों का समर्थन प्राप्त है। उधर, गुजरात कांग्रेस में भी बेचैनी बढ़ रही है। दरअसल, राज्य में ये कयास लगाए जा रहे हैं कि पार्टी के कुछ विधायक जल्द ही भाजपा का दामन थाम सकते हैं। वरिष्ठ कांग्रेस नेता राधाकृष्ण विखे पाटिल के विधायक पद से इस्तीफे के बाद से महाराष्ट्र कांग्रेस के अंदर भी अनबन की खबरें आ रही हैं। ऐसी अटकलें हैं कि वह भाजपा में शामिल हो सकते हैं। इसके अलावा हाल ही में कर्नाटक में सत्तारुढ़ कांग्रेस-जद (एस) गठबंधन सरकार के कुछ विधायकों के भाजपा से हाथ मिलाने की खबरें आने के बाद सरकार की स्थिरता के लिए गठबंधन को परेशानी का सामना करना पड़ा। 
 
मतभेद और आरोप-प्रत्यारोप ने सिर्फ कांग्रेस के भीतर घमासान मचाया हो, ऐसा नहीं है। लोकसभा चुनाव में भाजपा की प्रचंड जीत के सदमे से अन्य विपक्षी पार्टियां भी अभी तक उबर नहीं पायी हैं। इसके चलते विपक्षी गठबंधन में जहां टूट के संकेत मिल रहे हैं वहीं अधिकतर पार्टियों में आपसी मतभेद और इस्तीफों का दौर देखने को मिल रहा है। अधिकतर गैर-राजग दलों के अंदर गहमागहमी बढ़ती जा रही है क्योंकि नेता एवं कार्यकर्ता अशांत और तनावग्रस्त नजर आ रहे हैं। उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी और राष्ट्रीय लोकदल का ‘महागठबंधन’ भारत के सबसे बड़े राज्य में भाजपा के प्रभुत्व का पहला शिकार बना। बसपा प्रमुख मायावती ने गठबंधन तोड़ते हुए हार के लिये ‘‘निष्प्रभावी’’ सपा पर आरोप लगाया। समाजवादी पार्टी के प्रमुख अखिलेश यादव ने वस्तुत: स्वीकार किया कि ‘‘प्रयोग’’ असफल रहा। 
 
कर्नाटक में जनता दल (एस) भी इस तपिश को महसूस कर रहा है क्योंकि कांग्रेस और जनता दल (एस) के दावों के बावजूद प्रदेश प्रमुख ए.एच. विश्वनाथ सत्तारुढ़ गठबंधन में संकट का हवाला देकर पार्टी छोड़ दी है। वहां गठबंधन में फूट उभर रही है और कई नेता कर्नाटक में भाजपा के पाले में जाने को तैयार हैं। ये घटनाक्रम दर्शाता है कि एक साल पुरानी एच.डी. कुमारस्वामी के नेतृत्व वाली सरकार की मुसीबतें कम होने का नाम नहीं ले रहीं जबकि सत्तारुढ़ दल कैबिनेट विस्तार और मंत्रियों के विभागों में फेरबदल करके सरकार को बचाने की कोशिशों में लगा हुआ है।

पश्चिम बंगाल में भी लोकसभा चुनाव के नतीजे उत्प्रेरक का काम कर रहे हैं क्योंकि तृणमूल कांग्रेस के दो विधायकों सहित पार्टी के कई नेता भाजपा के साथ हाथ मिलाने वाले हैं। पूर्वी राज्य में 18 सीटें जीतकर आक्रामक भाजपा दावा कर रही है कि ममता बनर्जी की पार्टी के कई नेता भाजपा में शामिल होने को तैयार हैं। हाल ही में तृणमूल कांग्रेस के 50 से ज्यादा पार्षद भी भाजपा में शामिल हो गये थे। भाजपा का दावा है कि तृणमूल कांग्रेस के कई विधायक उसके संपर्क में हैं और ममता बनर्जी सरकार अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पायेगी।
 
बहरहाल, मोदी सुनामी से विपक्षी दलों के जो तंबू उखड़े हैं उन्हें विपक्ष कितनी जल्दी समेट पाता है यह देखने वाली बात होगी। चूँकि इस वर्ष चार महत्वपूर्ण राज्यों- महाराष्ट्र, हरियाणा, जम्मू-कश्मीर और झारखंड में विधानसभा चुनाव होने हैं ऐसे में विपक्ष का जल्दी ही संभलना होगा।
 
-नीरज कुमार दुबे

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने गुरुवार को कैबिनेट मामलों की 8 समितियों के गठन की घोषणा की थी। इन आठों समितियों में गृह मंत्री अमित शाह को शामिल किया गया था लेकिन रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह को केवल दो समिति में ही शामिल किया गया था।

नरेंद्र मोदी और अमित शाह की जोड़ी के प्रभावशाली होने के बाद यह पहला मौका है जब सरकार को अपने फैसले को बदलना पड़ा हो। यह पहला मौका है जब मोदी-शाह की जोड़ी साफ-साफ झुकती नजर आ रही हो और यह कमाल किया है बीजेपी के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष, मोदी सरकार के पहले कार्यकाल में गृह मंत्री की जिम्मेदारी संभाल चुके और वर्तमान सरकार में रक्षा मंत्रालय की जिम्मेदारी संभालने वाले राजनाथ सिंह ने। वैसे आपको बता दें कि राजनाथ सिंह के अध्यक्षीय कार्यकाल में ही नरेंद्र मोदी को बीजेपी की तरफ से 2014 के लोकसभा चुनाव से पहले प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किया गया था। राजनाथ सिंह ने अकेले दम पर लालकृष्ण आडवाणी और सुषमा स्वराज जैसे दिग्गज नेताओं के कड़े विरोध के बावजूद दिल्ली की राजनीति में मोदी का मार्ग प्रशस्त किया था। शायद इसलिए राजनाथ सिंह यह मान कर चल रहे थे कि मोदी के बाद सरकार में हमेशा वो नंबर 2 की भूमिका में रहेंगे लेकिन इस बार ऐसा हो नहीं पा रहा है।
 

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने गुरुवार को कैबिनेट मामलों की 8 समितियों के गठन की घोषणा की थी। इन आठों समितियों में गृह मंत्री अमित शाह को शामिल किया गया था लेकिन रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह को केवल दो समिति में ही शामिल किया गया था। राजनाथ सिंह को राजनीतिक और संसदीय मामलों जैसी अहम समितियों में भी शामिल नहीं किया गया था। अपने स्वभाव के अनुसार राजनाथ सिंह ने इस पर कोई कड़ी प्रतिक्रिया तो नहीं दी लेकिन दिल्ली से लेकर नागपुर तक इतनी तेजी से हलचल हुई कि रात होते-होते हालात बदलते नजर आए। गुरुवार की रात को ही कैबिनेट समितियों की एक अपडेट लिस्ट आती है और फिर पता लगता है कि राजनाथ सिंह को 2 से बढ़ाकर 6 समितियों में शामिल कर दिया गया है। नई लिस्ट में राजनाथ सिंह को मंत्रिमंडल के संसदीय मामलों की समिति का अध्यक्ष बनाया गया है साथ ही उन्हें राजनीतिक मामलों की लगभग सभी महत्वपूर्ण समितियों में शामिल किया गया है जिसके अध्यक्ष प्रधानमंत्री मोदी हैं। मोदी-शाह की जोड़ी को इस तरह से पीछे हटना पड़ेगा, यह कोई भी सोच नहीं सकता था। 
 
नरेंद्र मोदी सरकार-2 में राजनाथ सिंह की भूमिका को लेकर घटनाक्रम इतनी तेजी से बदल रहा है कि यह समझना मुश्किल हो गया है कि अगले पल किसकी जीत होगी। कभी राजनाथ सिंह की जोड़ी भारी पड़ती नजर आती है तो कभी मोदी-शाह की जोड़ी। जरा पूरे घटनाक्रम पर गौर कीजिए-
 
राष्ट्रपति भवन के प्रांगण में 30 मई को शपथ ग्रहण समारोह के समय जब अमित शाह उस तरह बढ़े जहां शपथ लेने वाले मंत्रियों को बैठना था, तो सबके दिमाग में एक ही सवाल कौंधा था कि अब राजनाथ सिंह का क्या होगा ? वो राजनाथ सिंह जो 2014 से 2019 तक अरुण जेटली जैसे दिग्गज मंत्री की मौजूदगी के बावजूद सरकार में नंबर 2 की भूमिका में रहे। गृह मंत्रालय जैसे महत्वपूर्ण मंत्रालयों का दायित्व संभालने के साथ-साथ सरकार की कैबिनेट मंत्रियों की समितियों की अध्यक्षता करते रहे या महत्वपूर्ण सदस्य के तौर पर निर्णायक भूमिका में रहे। लेकिन जैसे ही अमित शाह तीसरे नंबर की कुर्सी पर जाकर बैठे लोगों को यह लगा कि किस्मत के धनी राजनाथ सिंह एक बार फिर बच गए। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बाद दूसरे नंबर पर राजनाथ सिंह के शपथ लेने से यह लगा कि वो अमित शाह की सरकार में मौजूदगी के बावजूद नरेंद्र मोदी के बाद नंबर दो की भूमिका में रहेंगे। ऐसा सोचने वालों को अगले दिन फिर धक्का लगा जब मंत्रालय बंटवारे की लिस्ट सामने आई। प्रधानमंत्री मोदी ने अपने सबसे करीबी और विश्वस्त अमित शाह को गृह मंत्रालय की जिम्मेदारी सौंप कर और राजनाथ सिंह को गृह मंत्री की बजाय रक्षा मंत्री बना कर एक बार फिर से लोगों को संशय में डाल दिया। मंत्रिमंडल समितियों के गठन के विवाद से भी यह साफ हो गया कि मोदी सरकार में सब कुछ ठीक-ठाक नहीं चल रहा है।
 
किस्मत के धनी रहे हैं संघ के चहेते राजनाथ सिंह

 
राजनाथ सिंह शायद भारतीय राजनीति के इकलौते ऐसे नेता रहे हैं जिन्हें किस्मत का धनी माना जाता है। हर बार विकल्पहीनता की हालत में राजनाथ सिंह को मौका मिला है। बड़ा पद हर बार किसी दूसरे के पास जाते-जाते अचानक राजनाथ सिंह की झोली में गिर गया और इसलिए उन्हें किस्मत का धनी कहा जाता है। सही समय पर सही जगह पर मौजूद रहना राजनाथ सिंह की सबसे बड़ी खासियत मानी जाती है। उत्तर प्रदेश में जब कल्याण सिंह ने अटल बिहारी वाजपेयी के खिलाफ मोर्चा खोला तो वाजपेयी की नजर जाकर टिक गई राजनाथ सिंह पर। राजनाथ सिंह मौके को लपक कर तुरंत कल्याण सिंह के सामने खड़े हो गए और यूपी की लड़ाई कल्याण सिंह बनाम अटल बिहारी वाजपेयी की बजाय कल्याण सिंह बनाम राजनाथ सिंह की बन गई। आगे चलकर ईनाम में राजनाथ सिंह को उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री का पद मिला और बाद में उन्हें केन्द्रीय मंत्री भी बनाया गया। अब राजनाथ सिंह केवल उत्तर प्रदेश के नेता भर नहीं रह गए थे बल्कि राष्ट्रीय नेता बन गए थे। जब संघ ने लालकृष्ण आडवाणी को बीजेपी के अध्यक्ष पद से हटाने का फैसला किया तो अटल की तरह उनकी नजरें भी राजनाथ सिंह पर जाकर टिक गईं। राजनाथ सिंह एक बार फिर खतरा उठा कर मोहरा बनने को तैयार हो गए। उस समय से लेकर आज तक राजनाथ सिंह संघ के चहेते नेताओं में गिने जाते हैं। इसकी बानगी उस समय भी देखने को मिली जब तमाम तैयारियों के बावजूद नितिन गडकरी का दोबारा अध्यक्ष बनना मुश्किल हो गया तो बीजेपी के कई दिग्गज नेताओं की सिफारिश के बावजूद संघ ने वैंकेया नायडू की बजाय राजनाथ सिंह को बीजेपी का अध्यक्ष बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। ऐसा लग रहा है कि मोदी-शाह के इस युग में भी संघ ने एक बार फिर से कैबिनेट समितियों में राजनाथ सिंह को शामिल करवाने के लिए महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
राजनाथ सिंह की छवि
 
राजनाथ सिंह एक ऐसे चतुर नेता हैं जो कभी भी लड़ाई को बहुत लंबा नहीं खींचते हैं। कल्याण सिंह, बाबू लाल मरांडी, उमा भारती और येदियुरप्पा जैसे नेताओं के हश्र को देखते हुए राजनाथ सिंह इतना तो समझ ही गए हैं कि लड़ाई को किस हद तक लड़ना है और कहां जाकर शांत बैठ जाना है। विरोधी दलों के नेताओं के साथ भी उनके संबंध उतने ही मधुर हैं जितने पार्टी के नेताओं के साथ। मोदी-शाह के युग में भी तमाम विरोधी दलों के नेताओं के साथ राजनाथ सिंह के संबंध उतने ही मधुर बने हुए हैं जितने पहले थे। कहने वाले तो यहां तक कहते हैं कि कई विरोधी दलों के नेताओं के खिलाफ चल रहे मामले में तेजी नहीं दिखाने की वजह से ही इस बार उनका मंत्रालय बदला गया है। विश्वास की कमी की वजह से ही उन्हें पहले मंत्रिमंडल की समितियों में भी शामिल नहीं किया गया था। मोदी-शाह के युग में यह पहला ऐसा फैसला है कि जिसे कुछ घंटों के अंदर ही बदलना पड़ा हो। संघ के हस्तक्षेप की वजह से फिलहाल तो राजनाथ सिंह जीतते दिखाई दे रहे हैं लेकिन बड़ा सवाल तो यही है कि आगे क्या ?
 
- संतोष पाठक
लोकसभा चुनाव के नतीजों ने जहां पूरे देश को चौंका दिया वहीं अमित शाह के केंद्रीय गृह मंत्री बनने के बाद भाजपा में राष्ट्रीय अध्यक्ष चुनने के लिए कवायद शुरू हो गई है। इस दौड़ में जहाँ भाजपा संसदीय बोर्ड के सदस्य जेपी नड्डा का नाम चल रहा है तो वहीं पश्चिम बंगाल फतह करने वाले भाजपा के राष्ट्रीय महासचिव कैलाश विजयवर्गीय भी प्रमुख रूप से पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष पद की दौड़ में शामिल दिख रहे हैं। मध्य प्रदेश की आर्थिक राजधानी कही जाने वाले इंदौर के भाई के रूप के पहचान रखने वाले कैलाश विजयवर्गीय अमित शाह और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की किचिन कैबिनेट के सदस्य माने जाते हैं। 
 
 
हालांकि अंतिम फैसला अमित शाह और नरेन्द्र मोदी को ही करना है बावजूद इसके कैलाश और उनके खास कार्यकर्ताओं को इस बात की उम्मीद जरूर है कि उन्हें पश्चिम बंगाल में मिली सफलता का तोहफा अध्यक्ष पद के रूप में अवश्य ही मिलेगा।


कैलाश विजयवर्गीय वर्तमान में भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव के रूप में कार्यरत हैं। इंदौर में भारतीय जनता पार्टी से अपना राजनितिक कैरियर प्रारंभ कर वे इंदौर नगर के महापौर बने। बिना कोई चुनाव हारे वे लगातार छ: बार विधानसभा के सदस्य चुने गये और वर्तमान में महू विधानसभा क्षेत्र से विधायक हैं। भाजपा में राष्ट्रीय महासचिव बनने से पहले वे बारह वर्ष तक मध्य प्रदेश सरकार में कैबिनेट मंत्री रहे। यही नहीं मध्य प्रदेश में उन्हें शिवराज सिंह चौहान का राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी माना जाता रहा है।
 
वर्ष 2014 में हरियाणा विधानसभा चुनाव के लिए विजयवर्गीय बीजेपी के चुनाव प्रभारी नियुक्त हुए थे, उसके बाद ही विधानसभा चुनाव में वहां बीजेपी स्पष्ट बहुमत में आई। इस जीत से तय लग रहा था कि निकट भविष्य में केन्द्रीय स्तर पर उन्हें महत्वपूर्ण भूमिका मिल सकती है। जून 2015 में यह सच हो गया जब बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह ने उन्हें पार्टी का राष्ट्रीय महासचिव नियुक्त किया। हरियाणा में उनके चमकीले प्रदर्शन के बाद जैसी उम्मीद की जा रही थी, पश्चिम बंगाल में वे पार्टी के नए प्रभारी बनाये गए और 18 सीटें जीतने में सफल रहे। जुझारू नेता के तौर पर उन्होंने ममता बनर्जी की सरकार से लोहा लेते हुए भाजपा को पश्चिम बंगाल में लोकसभा की 2 से 18 सीटों तक पहुँचाया।

मौजूदा अध्यक्ष अमित शाह लोकसभा चुनाव जीतकर मोदी सरकार में केन्द्रीय गृह मंत्री बनाए गए हैं और उनकी जगह अब नये अध्यक्ष की तलाश की जा रही है। अध्यक्ष की दौड़ में कैलाश विजयवर्गीय के अलावा पूर्व केन्द्रीय मंत्री एवं संसदीय बोर्ड के सचिव जेपी नड्डा और पार्टी महासचिव भूपेन्द्र यादव भी शामिल हैं। वहीं जिस तरह से कैलाश विजयवर्गीय ने लोकसभा चुनाव में पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी के किले को ध्वस्त किया है उससे उनका कद अवश्य ही बीजेपी में बढ़ा है। जिसके चलते उन्हें व उनके खास सिपहसालारों को भी उम्मीद बंधी हुई है कि कैलाश को अध्यक्ष पद से नवाज कर पश्चिम बंगाल में मिली सफलता का तोहफा दिया जायेगा।


-दिनेश शुक्ल

कांग्रेस की दुर्दशा का कारण उसका लचर नेतृत्व है। इंदिरा गांधी के समय से ही पार्टी को इस परिवार ने बंधक बना रखा है। इससे हटकर जो कांग्रेस में आगे बढ़े, उनका अपमान हुआ। सीताराम केसरी को धक्के देकर कुर्सी से हटाया गया था।

भारत में लोकतंत्र का महापर्व सम्पन्न हो चुका है। भा.ज.पा. को पहले से भी अधिक सीटें मिलीं। जैसे गेहूं के साथ खरपतवार को भी पानी लग जाता है, वैसे ही रा.ज.ग. के उसके साथियों को भी फायदा हुआ; पर आठ सीटें बढ़ने के बावजूद कांग्रेस की लुटिया डूब गयी। अब वह अपने भविष्य के लिए चिंतित है। राहुल बाबा की मुख्य भूमिका वाला नाटक ‘त्यागपत्र’ मंचित हो रहा है। उन्होंने कहा है कि कांग्रेस अपना नया अध्यक्ष ढूंढ़ ले, जो सोनिया परिवार से न हो। इशारा सीधे-सीधे प्रियंका वाड्रा की ओर है। उन्हें लाये तो इस आशा से थे कि उ.प्र. में कुछ सीट बढ़ेंगी; पर छब्बे बनने के चक्कर में चौबेजी दुब्बे ही रह गये। अपनी खानदानी सीट पर ही अध्यक्षजी हार गये। किसी ने ठीक ही कहा है - 
 
 
न खुदा ही मिला न बिसाल ए सनम
न इधर के रहे न उधर के रहे।।
सच तो ये है कि यदि भा.ज.पा. पांच साल पहले स्मृति ईरानी की ही तरह किसी दमदार व्यक्तित्व को रायबरेली में लगा देती, तो सोनिया गांधी को भी लेने के देने पड़ जाते; पर उनकी किस्मत कुछ ठीक थी। लेकिन बेटाजी की मानसिकता अब भी खुदाई सर्वेसर्वा वाली है। यदि वे अध्यक्ष रहना नहीं चाहते, तो पार्टीजन किसे चुनें, इससे उन्हें क्या मतलब है; पर उन्हें पता है कि यह सब नाटक है, जो कुछ दिन में शांत हो जाएगा। 
 

कांग्रेस का भविष्य शीशे की तरह साफ है। उत्तर भारत में उसका सफाया हो चुका है। पंजाब की सीटें वस्तुतः अमरिन्द्र सिंह की सीटें हैं। अगर कल वे पार्टी छोड़ दें, या अपना निजी दल बना लें, तो वहां कांग्रेस को कोई पानी देने वाला भी नहीं बचेगा। और इस बात की संभावना भरपूर है। क्योंकि राहुल के दरबार में चमचों को ही पूछा जाता है, जबकि कैप्टेन अमरिन्द्र सिंह जमीनी नेता हैं। फौजी होने के कारण वे काम में विश्वास रखते हैं, चमचाबाजी में नहीं।
 
म.प्र., राजस्थान और छत्तीसगढ़ में पिछले विधानसभा चुनाव कांग्रेस ने जीते थे। राहुल को लगता था कि इनसे 50 सीटें मिल जाएंगी; पर मिली केवल तीन। कमलनाथ ने एक ही तीर से दिग्विजय सिंह और ज्योतिरादित्य सिंधियाकर्नाटक में सरकार होने के बावजूद कांग्रेस का प्रदर्शन लचर रहा। अब वहां की सरकार भी खतरे में है। कांग्रेस की इज्जत केवल केरल में बची, जहां मुस्लिम लीग का उसे समर्थन था। राहुल भी सुरक्षित सीट की तलाश में वायनाड इसीलिए गये थे। शेष दक्षिण में तेलंगाना में तीन और तमिलनाडु में द्रमुक के समर्थन से उसे आठ सीट मिली हैं। अर्थात् पंजाब, केरल और तमिलनाडु के अलावा सभी जगह कांग्रेस को औरों की मदद से ही संतोष करना पड़ा है। 
 
कांग्रेस की दुर्दशा का कारण उसका लचर नेतृत्व है। इंदिरा गांधी के समय से ही पार्टी को इस परिवार ने बंधक बना रखा है। इससे हटकर जो कांग्रेस में आगे बढ़े, उनका अपमान हुआ। सीताराम केसरी को धक्के देकर कुर्सी से हटाया गया था। नरसिंहराव के शव को कांग्रेस दफ्तर में नहीं आने दिया गया था। मनमोहन सिंह कैबिनेट के निर्णय को प्रेस वार्ता में राहुल ने फाड़ दिया था। ऐसे में अपमानित होने से अच्छा चुप रहना ही है। इसीलिए सब राहुल को ही अध्यक्ष बने रहने के लिए मना रहे हैं।
 
सच तो ये है कि सोनिया परिवार कांग्रेस से कब्जा नहीं छोड़ सकता। चूंकि कांग्रेस के पास अथाह सम्पत्ति है। यदि कोई और अध्यक्ष बना और उसने सोनिया परिवार को इससे बेदखल कर दिया; तो क्या होगा ? सोनिया परिवार के हर सदस्य पर जेल का खतरा मंडरा रहा है। यदि राहुल अध्यक्ष बने रहेंगे, तो उनके जेल जाने पर पूरी पार्टी हंगामा करेगी; और यदि वे अध्यक्ष न रहे, तो कोई क्यों चिल्लाएगा ? इसलिए चाहे जो हो; पर राहुल ही पार्टी के अध्यक्ष बने रहेंगे; और यदि कोई कुछ दिन के लिए खड़ाऊं अध्यक्ष बन भी गया, तो पैसे की पावर सोनिया परिवार के हाथ में ही रहेगी।
 
इसलिए फिलहाल तो कांग्रेस और राहुल दोनों का भविष्य अंधकारमय है। यद्यपि लोकतंत्र में सबल विपक्ष का होना जरूरी है; पर कांग्रेस जिस तरह लगातार सिकुड़ रही है, वह चिंताजनक है। अतः जो जमीनी और देशप्रेमी कांग्रेसी हैं, उन्हें मिलकर सोनिया परिवार के विरुद्ध विद्रोह करना चाहिए। सोनिया परिवार भारत में रहे या विदेश में; संसद में रहे या जेल में। उसे अपने हाल पर छोड़ दें। चूंकि व्यक्ति से बड़ा दल और दल से बड़ा देश है। 
 
पर क्या वे ऐसी हिम्मत करेंगे ? कांग्रेस का भविष्य इसी से तय होगा। 
 
-विजय कुमार

2019 के लोकसभा चुनावों के नतीजे कांग्रेस के लिए बहुत बुरी खबर लेकर आए। और जैसा कि अपेक्षित था, देश की सबसे पुरानी पार्टी में भूचाल आ गया। एक बार फिर हार की समीक्षा के लिए कमेटी का गठन हो चुका है। पार्टी में इस्तीफों की बाढ़ आ गई है। खबर है कि खुद कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी इस्तीफा देने पर अड़े हैं। लेकिन कांग्रेस के वरिष्ठ नेता से लेकर आम कार्यकर्ता तक राहुल गांधी और उनके नेतृत्व में अपना विश्वास जता रहे हैं। यह अच्छी बात है कि ऐसे कठिन दौर में भी किसी संगठन का अपने नेतृत्व पर भरोसा कायम रहे। लेकिन ऐसा कम ही देखने को मिलता है कि लगातार मिलने वाली असफलताओं के बावजूद उस संगठन के बड़े नेता से लेकर आम कार्यकर्ता तक अपने नेता के साथ मजबूती से खड़े हों। सभी लोग राहुल को यह समझाने में लगे हैं कि उन्होंने चुनावों में बहुत मेहनत की और चुनावों में पार्टी की हार क्यों हुई उसकी समीक्षा की जाएगी वे मन छोटा ना करें पार्टी हर हाल में उनके साथ है।

 
इससे पहले भी 2014 के लोकसभा चुनाव हों या फिर उसके बाद होने वाले विभिन्न राज्यों के विधानसभा चुनाव, भाजपा लगातार अपने कांग्रेस मुक्त भारत के सपने को चरितार्थ करने में लगी थी और राज्य दर राज्य सत्ता कांग्रेस के हाथों से धीरे-धीरे फिसलती जा रही थी। महाराष्ट्र, हरियाणा, आंध्र प्रदेश, हिमाचल प्रदेश, असम जैसे राज्य जहाँ कहीं वो सत्ता में थी, वहां नकार दी गई तो गोआ, उत्तर प्रदेश, बिहार, गुजरात जैसे राज्य जहाँ सत्ता में नहीं थी वहां भी नकार दी गई। और जिन तीन राज्यों- मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान में अभी मात्र चार महीने पहले सत्ता में आई थी वहां भी वो इन चुनावों में जनता का भरोसा नहीं जीत पाई। इन परिस्थितियों में राहुल का इस्तीफा देने की पेशकश करने और कांग्रेस का उनमें एक बार फिर विश्वास जताना ना सिर्फ अत्यंत निराशाजनक है बल्कि कांग्रेस पार्टी के भविष्य के लिए भी घातक है। दरअसल आपसी गुटबाजी के चलते गाँधी परिवार के ही किसी सदस्य के हाथों पार्टी की कमान सौंपना कांग्रेस की आज भी मजबूरी है। लेकिन यह भी सच है कि सोनिया गांधी और काफी हद तक कांग्रेस के बड़े नेताओं की आपसी गुटबाजी का कांग्रेस की इस मजबूरी को बनाने में काफी अहम योगदान रहा है। इन सभी के तात्कालिक स्वार्थों की राजनीति देश की सबसे बड़ी और सबसे पुरानी पार्टी की यह दशा कर देगी इतनी दूरकालिक दृष्टि इनमें से किसी ने नहीं रखी। इसलिए आज एक ऐसे शख्स के हाथों में पार्टी की कमान देना जिसके पास गाँधी परिवार का सदस्य होने के अलावा और कोई योग्यता ना हो, पार्टी की मजबूरी बन गई है। और खास बात यह रही कि राहुल गांधी ने भी अब तक के अपने कार्यकाल को एक मजबूरी की भाँति इस तरह निभाया कि इस पूरे कालखंड विशेष तौर पर चुनावों के समय के उनके आचरण और उसके बाद चुनाव परिणामों ने उनकी योग्यता पर ही प्रश्नचिन्ह लगा दिए।
लेकिन अब राहुल नाराज़ बताए जा रहे हैं। पार्टी के कुछ नेताओं को छोड़कर वो किसी से नहीं मिल रहे हैं क्योंकि पार्टी के कुछ नेताओं के पुत्र मोह को पार्टी की हार की वजह मान रहे हैं। उनका कहना है कि इन नेताओं ने अपने स्वार्थ को पार्टी हित से ऊपर रखा। वैसे इस विषय में उनका अपनी मां सोनिया गांधी के बारे में क्या विचार हैं यह जानना रोचक होगा। खैर, हम बात कर रहे थे कांग्रेस की हार की। तो अगर सचमुच कांग्रेस अपनी वर्तमान स्थिति से दुखी है और इन परिस्थितियों से उबारना चाहती है तो सबसे पहले उसे अपनी सोच और अपनी अप्रोच दोनों बदलनी होगी। आदमी जो चीज़ हासिल करना चाहता है उसे उस पर फोकस करना चाहिए। सबसे बड़ी गलती जो कांग्रेस बार-बार करती आ रही है कि वो जीतना चाह रहे हैं लेकिन अपने प्रतिद्वंद्वी की जीत के कारणों के बजाए अपनी हार की समीक्षा करते हैं। क्यों ? कांग्रेस तो यह समीक्षा 1991 से लगभग लगातार ही करती आ रही है। राजीव गांधी की हत्या के बाद भी कांग्रेस को पूर्ण बहुमत नहीं मिल पाया था। चाहे 1991 की नरसिम्हा राव की सरकार हो या 2004 और 2009 की यूपीए की सरकार हो, कांग्रेस अपने दम पर पूर्ण बहुमत 1984 के बाद कभी भी हासिल नहीं कर पाई। इस बीच वो कई बार हारी। 2014 तो कांग्रेस के इतिहास की सबसे बुरी हार थी और 2019 सबके सामने है। जाहिर है पार्टी ने हर बार हार के कारणों की समीक्षा की होगी। सोचने वाली बात है कि इतनी समीक्षाओं के बाद भी पार्टी का प्रदर्शन क्यों नहीं सुधर रहा ?
 
अगर सच में कांग्रेस अपनी स्थिति सुधारना चाहती है तो...
 
1. सर्वप्रथम उसे स्वयं को चाटुकारों से मुक्त करना होगा। 
2. यह बात सही है कि राहुल पर वंशवाद के आरोप लगते हैं और सुनने में आ रहा है कि अब वो गांधी परिवार से बाहर का कोई अध्यक्ष बनाना चाहते हैं लेकिन यह भी सच है कि इस काम के लिए यह उपयुक्त समय नहीं है। 
3. राहुल के लिए यह समय है खुद को सिद्ध करने का, ना कि परिस्थियों से भागने का। जिस पार्टी का अध्यक्ष उन्हें परिवारवाद के कारण बनाया गया उसके लिए अब वो अधिकारबोध नहीं कर्तव्यबोध से एक नई शुरुआत करें। जमीनी संगठनात्मक ठोस बदलाव करके उसमें से भ्रष्टाचार में लिप्त अहंकार में डूबे और वीआईपी पञ्च सितारा संस्कृति में डूबे पुराने चेहरों से कांग्रेस को मुक्त करें और भविष्य के लिए ऐसे नए चेहरे तैयार करें जो भविष्य में पार्टी की बागडोर संभलने में सक्षम हों और यह सुनिश्चित करें कि आने वाले समय में कांग्रेस परिवारवाद की दीमक से मुक्त हो सके।
4. जीतना चाहते हैं तो जीत के कारणों की समीक्षा करें हार की नहीं।
5. अपनी जीत की समीक्षा करें कि जब कांग्रेस जीतती थी तो क्यों जीतती थी क्योंकि कांग्रेस को अपनी आज की हार के कारण अपनी पिछली विजय के कारणों में ही मिलेंगे। दरअसल 1952 में जब आज़ाद भारत का पहला लोकसभा चुनाव हुआ था तब से लेकर 1971 तक के चुनावों में कांग्रेस लगभग जीती हुई बाज़ी ही खेलती थी। देखा जाए तो ये चुनाव कांग्रेस के लिए लगभग एकतरफा चुनाव होते थे। क्योंकि देश की आजादी के लिए एकता जरूरी थी इसलिए अपनी अलग अलग विचारधाराओं के बावजूद देश की आज़ादी के लिए लड़ने वाले लगभग सभी संघठनों ने राष्ट्र हित को ध्यान में रखते हुए कांग्रेस में विलय करके अपनी पहचान तक से समझौता कर लिया था। इसलिए 1947 में जब कांग्रेस के नेतृत्व में देश आजाद हुआ और महात्मा गांधी की इच्छानुसार जवाहरलाल नेहरु देश के पहले प्रधानमंत्री बने तो देश में यह संदेश गया कि कांग्रेस ने ही देश को आज़ाद कराया है। और जनमानस के इसी मनोविज्ञान का फायदा कांग्रेस को 1971 तक मिला।
1952 के पहले लोकसभा चुनावों से लेकर 1971 तक कांग्रेस के सामने विपक्ष भी अनेक छोटे छोटे दलों में बंटा लगभग ना के ही बराबर था। लेकिन समय के साथ विपक्ष मजबूत होता जा रहा था और शास्त्री जी के बाद वापस गांधी नेहरु परिवार की शरण में जाने से कांग्रेस कमजोर। 1975 में कांग्रेस द्वारा देश पर थोपा गया आपातकाल कांग्रेस की सत्ता पर कमजोर होती जा रही उसकी पकड़ का सबूत था। और 1977 में बुरी तरह हारने वाली कांग्रेस जब 1980 में फिर एक बार जीती तो उसमें कांग्रेस की योग्यता से ज्यादा विपक्षी दलों का योगदान था। और 1985 में कांग्रेस की जीत में इंदिरा गांधी की हत्या का। लेकिन 1985 में राजीव गांधी के नेतृत्व में 400 से अधिक सीटें जीतने वाली कांग्रेस उसके बाद फिर कभी पूर्ण बहुमत हासिल नहीं कर पाई यहां तक कि राजीव गांधी की हत्या के बाद भी नहीं। यानी जब तक खेल एकतरफा था कांग्रेस जीतती रही लेकिन जब जब सामने विपक्ष मजबूत और एक होकर आया वो हारी है।
 
इसलिए आज अगर राहुल कांग्रेस को मजबूत करना चाहते हैं तो सबसे पहले उन्हें खुद को मजबूत करना होगा क्योंकि वो इस बात को समझ लें कि भले ही वो मुहं में चांदी का चम्मच लेकर पैदा हुए हों लेकिन उनके सामने चुनौतियाँ नेहरू से अधिक हैं। क्योंकि तब कांग्रेस के प्रतिद्वंद्वी ना तो सक्षम थे और ना ही उनमें एकता थी लेकिन आज राहुल का जिनसे सामना है वो एक भी हैं और सक्षम भी यह वो दो बार साबित कर चुके हैं वो भी पहले से अधिक ताकत के साथ।
 

 

 अगर वो कांग्रेस को वाकई में मजबूत करना चाहते हैं तो उनके नाम में जो गाँधी लगा है उसे चरितार्थ करना होगा। गांधीजी ने अफ्रीका से लौटने पर देश के स्वतंत्रता आंदोलन को शुरू करने से पहले पूरे भारत का भ्रमण किया था वो भी ट्रेन के तृतीय श्रेणी के डब्बे में ताकि वे असली भारत को जान पाएं। राहुल को भी अगर लोगों के दिल में जगह बनानी है तो उन्हें भारत को समझना होगा यहां के जनमानस का मन पढ़ना होगा। राजनीति में विदेश से हासिल डिग्री विपक्ष का मुँह तो बन्द कर सकती है लेकिन वोट नहीं दिलवा सकती। एसी कमरों में रोज़ प्रेस कॉन्फ्रेंस करके विपक्ष पर आरोप तो लगाए जा सकते हैं लेकिन उन आरोपों पर देश की विश्वसनीयता नहीं जीती जा सकती। जिस पार्टी की आज़ादी के बाद पहली सरकार पर ही भ्रष्टाचार के आरोप लग गए हों और 2014 तक आते आते अनगिनत आरोपों से घिर चुकी हो, लोगों के मन में ऐसी पार्टी के लिए एक बार फिर जगह बनाना राहुल के लिए आसान नहीं होगा। खास तौर पर तब जब मात्र चार महीने पुरानी मध्य प्रदेश की कमलनाथ सरकार पर भ्रष्टाचार के आरोप सिद्ध हो रहे हों। लेकिन अगर वो सच में कांग्रेस को इस हार से उबारना चाहते है तो उन्हें भ्रष्टाचार पर अपना कड़ा रुख देश को दिखाना होगा। लेकिन जब एक प्रदेश की कांग्रेस सरकार के भ्रष्टाचार के तार आलाकमान के ही दफ्तर से जुड़ रहे हों तो ?
 
और सबसे महत्वपूर्ण बात पार्टी की विचारधारा को नए सिरे से स्पष्ट करना होगा। आज जो राहुल अपने कुछ नेताओं पर पार्टी हित से पहले स्व हित को रखने का आरोप लगा रहे हैं वो राहुल भूल रहे हैं कि राष्ट्र हित से पहले पार्टी हित और पार्टी हित से पहले स्वयं का हित कांग्रेस की शुरू से ही परंपरा रही है। इसीलिए उसने सेक्युलरिज्म की आड़ में तुष्टीकरण, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की आड़ में देशविरोधी गतिविधियों का समर्थन, मानवाधिकारों की आड़ में अलगाववादियों का समर्थन जैसे कदमों से वोटबैंक की राजनीति करने से भी परहेज नहीं किया। लेकिन अब अगर राहुल कांग्रेस को सच में उबारना चाहते हैं तो उन्हें शुरुआत से शुरू करना होगा। कांग्रेस की विचारधारा से लेकर परंपरा को बदलना होगा क्योंकि जितना आवश्यक कांग्रेस का खुद को इस हार से उभारना है उतना ही आवश्यक इस देश के लोकतंत्र के लिए एक मजबूत विपक्ष का होना है।
 
-डॉ. नीलम महेंद्र

येदियुरप्पा ने कहा- 2007 में जेडीएस के साथ शासन चलाने का अनुभव काफी खराब रहा था
‘लोकसभा चुनाव में 26 सीट हारने के बाद जेडीएस-कांग्रेस गठबंधन जनता का भरोसा खो चुका’
बेंगलुरु. लोकसभा चुनाव के बाद कर्नाटक में जेडीएस-कांग्रेस गठबंधन टूटने के कयास लगाए जा रहे थे। इस बीच कर्नाटक भाजपा प्रमुख और पूर्व मुख्यमंत्री ने कहा है कि हम (भाजपा) राज्य में जेडीएस के साथ मिलकर सरकार बनाने नहीं जा रहे। हम चाहते हैं कि फिर से चुनाव हों।
येदियुरप्पा ने साफ किया कि जेडीएस की मदद से सरकार बनाना असंभव है। एचडी कुमारस्वामी की अगुआई में 20-20 डील के तहत शासन चलाने का अनुभव काफी खराब रहा था। मैं दोबारा ऐसी गलती नहीं करना चाहता। 2007 में भाजपा और जेडीएस में 20-20 महीने सत्ता चलाने के लिए समझौता हुआ था। तब 20 महीने सरकार चलाने के बाद कुमारस्वामी ने पद से हटने से मना कर दिया था। इसके बाद भाजपा सरकार से समर्थन वापस ले लिया था।
‘हमारे पास कोई दूसरा विकल्प नहीं’
येदियुरप्पा ने कहा-  हम नए विधानसभा चुनाव के लिए तैयार हैं। पार्टी के पास कोई दूसरा विकल्प नहीं है। लोकसभा चुनाव में 26 सीट हारने के बाद जेडीएस-कांग्रेस गठबंधन जनता का भरोसा खो चुका है। अगर इसके बाद भी गठबंधन सरकार चलती रहती है तो यह लोगों के मत के खिलाफ होगा।
येदियुरप्पा ने यह भी आरोप लगाया कि गठबंधन के दोनों धड़े (कांग्रेस और जेडीएस) जनता की समस्याएं सुलझाने की बजाय सत्ता में बने रहने की कवायद में ही जुटे हुए हैं। एक जून को होनी वाली बैठक में आगे की रणनीति तय की जाएगी।
‘सुमनलता का स्वागत’
यह पूछे जाने पर कि क्या भाजपा सुमनलता अंबरीश का स्वागत करेगी, इस पर येदियुरप्पा ने कहा- अगर वे पार्टी में शामिल होना चाहें तो उनका स्वागत है। लोकसभा चुनाव में निर्दलीय उम्मीदवार सुमनलता ने मांड्या सीट से जेडीएस उम्मीदवार और कुमारस्वामी के बेटे निखिल को हराया था। जेडीएस प्रमुख और पूर्व प्रधानमंत्री एचडी देवेगौड़ा भी तुमकुर सीट से हार गए थे।

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