ईश्वर दुबे
संपादक - न्यूज़ क्रिएशन
+91 98278-13148
newscreation2017@gmail.com
Shop No f188 first floor akash ganga press complex
Bhilai
News Creation : नारियों पर घट रही अमानवीय घटनाएं, आज कि समस्या नही। ये तो तभी से जन्मी है, जब से मानव सभ्यता दुनिया में आई। बेशक हमारे पूर्वज, जो जंगलों में निर्वस्त्र घूमा करते थे, उन्हें सलीक़े से जीवन जीना बाद में आया पर नारी जाति पर पौरूष आधिपत्य जमाना, नारी जाति की विशेषताओं को समझते ही आ गया था।Read
महिलाओं के साथ जब किसी भी तरह की कोई अमानवीय घटना घट जाती है तो कुछ लोग समाज की उस बुराई की समाप्ती व समाधानों की कोशिश करने के बजाय, पीड़ित महिला की आज़ादी और चरित्र पर ही सवाल खड़ा कर देते हैं। लड़कियां देर रात घर से बाहर निकलती ही क्यों हैं? लड़कियों को अपने पहनावे पर ध्यान देना चाहिए। छेड़छाड़ की घटना में वो किसी से उलझती ही क्यों हैं? क्यों....क्यों....क्यों....?
दरअसल ये इंसानी फितरत है कि जब हमारी अपनी ज़िम्मेदारियों की लापरवाहियों से कोई अप्रिय घटना घट जाती है और आप इस दुर्घटना की ज़िम्मेदारी लेने से बचना चाहते है तो दुर्घटना से प्रभावित व्यक्ति पर इतने ‘‘क्यों‘‘ डाल दो की ऐसा लगे की हम तो समाज का संचालन सही ढं़ग से कर रहे थे पर इसने ऐसा करके ग़लत कर दिया और इसी ग़लती का परिणाम है ये अप्रिय घटना....और ऐसी ही सोच के लोग ऐसा वातावरण तैयार कर देते हैं। कि दोषी और ऐसी घटनाओं को रोक पाने की ज़िम्मेदारी लेने वाले लोग निरपराध और पीड़ित ही दोषी नज़र आने लगता है पर ध्यान देने योग्य बात ये है कि हमारे संविधान में तो किसी लड़की के घर से बाहर निकलने और वापस घर में लौटने का समय तय नही किया गया। लड़कियां जाॅब से लौटती हैं, कोई हाॅस्पिटल में भर्ती हो तो वहां से लौटती हैं। शादी-पार्टी किसी की मौत मइय्यत से लौटने में कभी-कभार देर सवेर हो ही जाती है। अगर कोई लड़की देर रात घर लौट रही है तो असमाजिक तत्वों को उसके साथ ज़बरदस्ती करने का अधिकार मिल गया, क्या ये बेतुके सवाल करने वाले यही कहना चाह रहे हैं? इन्हें इतनी सी बात समझ में नही आती कि ज़बरदस्ती करने वाला समय नही मौका देखता है।
हम ये भी मानते हैं कि हमारी वेशभूषा, मर्यादा के दायरे में होनी चाहिए लेकिन ऐसी दुर्घटनाएं, सिर्फ शहरों में रहने वाली युवतियों के साथ ही नही बल्कि छोटे-छोटे गांवों में रह रही बच्चियों के साथ भी घट रही हैं। क्या हम ये मानने को तैयार हैं कि जानबूझकर या अंजाने में हमने एक विरोधाभासी समाज का निर्माण कर दिया है और उसी में दिग्भ्रमित मानसिकताओ और मान्यताओ से निर्मित प्रदूषित वातावरण में हम सांस ले रहे हैं। जो एक तरफ तो अपनी बच्चियों को सिखाता है कि, ख़ूब लड़ी मर्दानी वो तो झांसी वाली रानी थी। जिसने अन्याय और अत्याचार के ख़िलाफ़ अपनी जान तक क़ुर्बान कर दी और वहीं अगर कोई लड़की किसी की बदतमीजी का शिकार होकर, बिना किसी विरोध के चुपचाप चली जाए, तो वो शरीफ और इज़्जतदार और वहीं कोई अपने साथ हुए इस अन्याय के ख़िलाफ आवाज़ उठा दे तो, वो झगड़ालु या फिर जिसे अपनी इज़्जत की चिंता नही ऐसी लड़कियों में गिन दी जाती है। संबंधित घटनाओं के दोषियों को सख़्त से सख़्त सज़ा की मांग करें तो इस सभ्य समाज के कुछ विरोधाभासियों को ये मांगे अमानवीय लगने लगती है। तो क्या ऐसी घटनाओं को अंजाम देने वाले अमानुषों का कृत्य संविधान के दायरे में आता है?
आपके पास कोई जवाब नही होगा हम जानते हैं और जवाब नही होने की स्थिति में आप अपनी ग़लतियों का ढ़ीकरा किसी और पर पटक देंगे। इस बात से भी इंकार नही किया जा सकता कि आप अपने आपको बचाने के लिए संविधान में संशोधन भी कर दें। इस संविधान में तो अपनी सुविधा के अनुसार संशोधन कर ही लेते हैं आप पर उस संविधान में क्या कभी संशोधन होगा जहां पता नही आबों हवा में संड़ांध की तरह ये जुमले किसने छोड़े, कि बेटी तो पराया धन है। बेटी की शादी कर दूं तो गंगा नहा लंु या हज का सवाब मिल जाएगा। पति-परमेश्वर है। बेटी तेरी डोली मायके से उठ रही है पर तेरी अर्थी ससुराल से ही उठनी चाहिए। एक बड़े मजे की बात ये भी है कि मायके वाले बोलते हैं कि बेटी पराई अमानत है और ससुराल वाले बोलते हैं, कि ये तो पराए घर से आई है। हमने कर ली दुनिया मुट्ठी में पर बेटी का अपना घर कौन सा है ये हम आज तक तय नही कर पाए। बेटी क्यों पराया धन है। बेटी की शादी करके गंगा नहा लिया हज कर लिया जैसे बेटी बेटी न हुई, सिर पर रखा बोझ हो गई, जल्दी से पटको और चैन की सांस लो। स्थितियों, परिस्थितियों, रूढ़ीवादिताओं, धर्मांधताओं, अंधविश्वासों, पितृसत्तात्माओं से घिरे समाज को ये समझने की आवश्यकता है कि हमें अपनी बच्चियों के पैरों में बेड़ियां डालने के बजाए, अपने सुरक्षा तंत्र को मजबूत करना होगा। जब किसी व्यक्ति विशेष के लिए करोड़ों रूपए ख़र्च हो सकते हैं तो आम आदमी के लिए क्यों नही?
हमें अगर कोई सामाजिक बुराई दिखाई देती है तो आगे आकर उसका हल निकाले, बेतुकी टिप्पणियों के ज़रिये आपकी सामाजिक ज़िम्मेदारी पूरी नही होती। दरअसल हम सब के बीच में संवाद हीनता की एक बहुत बड़ी खाई है, जिसे पाटना अब सिर्फ हमारे देश के लिए ही नही बल्कि पूरे विश्व के बहुत ज़रूरी हो गया है। टुकड़ों में बंटकर ऐसी समस्याओं का हल नही निकाला जा सकता, ऐसी समस्याओ से निपटने के लिए हमें एकमत और एकजुट होना ही पड़ेगा। सिर्फ बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ के गगन भेदी नारे लगाने से कुछ नही होगा। इससे सिर्फ सरकारी औचारिकताएं पूरी हो सकती है यदि सच में समाज में महिलाओं की परिस्थितियों में हम सुधार लाना चाहते हैं। तो समाज को उन कुंठाओं से मुक्त करना होगा जो औरत को औरत नही बल्कि डर, मजबूरी, चिंता और पराया धन बना देती हैं और इसकी शुरूआत सबसे पहले ख़ुद से होनी चाहिए।
लेखक
गुलाम हैदर मंसूरी
(रंगमंच कलाकार एवं छत्तीसगढ़ी फिल्म निर्देशक, लेखक)
यहाँ क्लिक कर, हमारे फेसबुक पेज को लाइक करें
नीचे दिए स्टार्स पर हमारी खबर को रेटिंग दें, और कमेंट बॉक्स में कमेंट करना न भूलें.
खबरों के साथ बनें रहे और ये भी पढ़े :