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मध्यप्रदेश विधानसभा चुनाव 2018 में टिकट बंटवारे को लेकर भाजपा के अंदर मचा संग्राम खत्म होने का नाम नहीं ले रहा है। भाजपा के वरिष्ठ नेता और पूर्व सीएम बाबूलाल गौर हर हाल में चुनाव लड़ने पर अड़े नजर आ रहे हैं। भाजपा ने अभी तक उनकी दावेदारी का एलान नहीं किया है, लेकिन आज उन्होंने नामांकन फॉर्म खरीद लिया। 

 बाबूलाल गौर और उनकी बहू कृष्णा गौर ने आज भोपाल में नामांकन फॉर्म खरीदा। बाबूलाल गौर गोविंदपुरा सीट से कृष्णा को टिकट दिलाना चाहते हैं। पिछले दिनों भाजपा ने 176 उम्मीदवारों के नामों का एलान किया था लेकिन उसमें गोविंदपुरा सीट का नाम नहीं था। इस सीट को होल्ड पर रखा गया है। 


दरअसर, भाजपा के लिए पूर्व मुख्यमंत्री बाबूलाल गौर ने बड़ी मुसीबत खड़ी कर दी है। वह अपनी बढ़ती उम्र के बावजूद चुनाव लड़ना चाहते हैं। वह अपनी बहू कृष्णा गौर को गोविंदपुरा सीट पर लड़ाना चाहते हैं। गोविंदपुरा विधानसभा सीट भाजपा का गढ़ मानी जाती है। यहां से 88 साल के बाबूलाल गौर दशकों तक चुने जाते रहे हैं। 

इस सीट पर कई दावेदार हैं। हालांकि भाजपा ने अभी इसके लिए किसी का नाम फाइनल नहीं किया है। गौर ने अपना पहला चुनाव निर्दलीय के तौर पर लड़ा था और वह इसी सीट से 10 बार विधायक बन चुके हैं। कुछ दिन पहले ही उन्होंने कहा था, अगर हमें टिकट नहीं मिला तो मैं और कृष्णा जी अलग-अलग सीट से निर्दलीय चुनाव लड़ेंगे। 

 
उत्तर प्रदेश की राजनीति में कभी धूमकेतु की तरह चमकने वाले समाजवादी नेता मुलायम सिंह यादव को लेकर अंदरखाने में तमाम तरह की बातें चल रही हैं। कभी उनके स्वास्थ्य को लेकर सवाल खड़ा किया जाता है तो कभी उनकी याद्दाश्त पर प्रश्न चिह्न लगाया जाता है। यह स्थिति वर्ष 2017 में विधानसभा चुनाव से कुछ माह पूर्व उस समय से विषम हो गईं थीं जब अखिलेश यादव ने नेता जी को जर्बदस्ती समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष पद से हटाकर स्वयं पार्टी की कमान संभाल ली थी। मुलायम यह बात हजम नहीं कर पाये, लेकिन पुत्र मोह के कारण उनकी नाराजगी कभी खुलकर सामने नहीं आई। यह नाराजगी उस समय भी ज्यादा मुखर नहीं हो सकी, जब अखिलेश ने समाजवादी पार्टी की रीढ़ समझे जाने वाले चाचा शिवपाल यादव को बाहर का रास्ता दिखाया था। इस बात को भी नहीं भुलाया जा सकता है कि 2017 के विधान सभा चुनाव के समय अखिलेश ने अपने छोटे भाई की बहू अर्पणा यादव को बहुत मुश्किल से काफी दबाव के बाद विधान सभा चुनाव लड़ने का टिकट दिया था।
 
इससे आगे बढ़कर देखा जाये तो अखिलेश ने अपर्णा को काफी दबाव के बाद टिकट जरूर दिया था, लेकिन उन्हें एक ऐसे विधान सभा क्षेत्र (कैंट विधान सभा क्षेत्र, लखनऊ) से चुनाव लड़ने का मौका दिया गया, जहां उनके सामने भाजपा की दिग्गज नेत्री डॉ. रीता बहुगुणा जोशी चुनाव लड़ रही थीं जो तब कैंट से विधायक भी थीं, जबकि मुलायम अपनी छोटी बहू अपर्णा को समाजवादी परिवार का गढ़ समझे जाने वाले मैनपुरी, एटा, इटावा या आसपास के जिलों की किसी सीट से चुनाव लड़ाना चाहते थे। इसके बावजूद अर्पणा ने चुनावी जंग में कोई कोरकसर नहीं छोड़ी थी, लेकिन अर्पणा के चुनाव प्रचार के लिये अखिलेश समय ही नहीं निकाल पाये, जिसका खामियाजा अपर्णा को हार के रूप में भुगतना पड़ा था। पारिवारिक कलह के चलते समाजवादी पार्टी को भी बुरी तरह से हार का मुंह देखना पड़ा था। कांग्रेस का साथ भी उसकी डूबती नैया को बचा नहीं पाया था। मुलायम पहले ही कांग्रेस के साथ समाजवादी पार्टी के गठबंधन को नकार चुके थे।
 
खैर, सबसे बड़ी बात यही थी कि बहुत कुछ लुटाने के बाद भी अखिलेश के तेवर नहीं बदले। न उन्होंने मुलायम की बातों को गंभीरता से लिया न चाचा शिवपाल के प्रति उनका रवैया नरम हुआ। यह सिलसिला तब तक चलता रहा जब तक कि शिवपाल ने अपनी अलग पार्टी नहीं बना ली। शिवपाल के अलग दल बनाते ही मुलायम सिंह समाजवादी पार्टी के मंच पर नजर आने लगे। अखिलेश सोची−समझी रणनीति के तहत मुलायम के प्रति नरम हुए थे, उन्हें पता था कि अगर उन्होंने पिता मुलायम के प्रति अपना रवैया नहीं बदला तो वह पाला बदलकर शिवपाल के साथ जा सकते हैं। उधर, मुलायम की छोटी बहू अर्पणा यादव भी चाचा शिवपाल के साथ खड़ी दिखाई पड़ने लगी थीं। 
 
समाजवादी परिवार में चल रही उठा−पटक से मुलायम दुखी थे, लेकिन उनकी कोई सुनने को तैयार ही नहीं था। अखिलेश साफ शब्दों में तो शिवपाल गोलमोल भाषा में मुलायम की बात काट रहे थे। चाचा−भतीजे दोनों अपनी राजनीतिक जमीन मजबूत करने में लगे थे। वहीं मुलायम न तो पुत्र अखिलेश को छोड़ पा रहे थे और न ही भाई शिवपाल से दूरी बना पा रहे थे। मुलायम पारिवारिक मजबूरियों के बीच धृतराष्ट्र जैसे हो गये थे, जिसमें कोई एक खेमा चुनना उनके लिए आसान नहीं था। वह अखिलेश के साथ रहते हुए भी शिवपाल के साथ नजर आते उनकी पार्टी के मंच तक पर पहुंचने में मुलायम ने गुरेज नहीं किया। इसकी बानगी हाल ही में तब दिखी जब पहले तो समाजवादी पार्टी आफिस में बेटे अखिलेश के साथ सपा कार्यकर्ताओं को समाजवादी विचारधारा को आगे बढ़ाने की सीख देते दिखे तो कुछ दिनों के बाद मुलायम भाई शिवपाल के साथ मंच साझा करते दिखे। शिवपाल को जब नया सरकारी बंगला मिला तो वहां भी मुलायम खड़े नजर आये। सियासी तौर पर बंटा नजर आ रहा मुलायम सिंह का कुनबा प्रतीक यादव व अपर्णा यादव के गृह प्रवेश पर एक साथ नजर आया। गृह प्रवेश में मुलायम सिंह यादव के साथ ही अखिलेश यादव, डिंपल यादव और शिवपाल सिंह यादव खासतौर पर शामिल हुए। यह अलग बात है कि अखिलेश और शिवपाल अलग−अलग समय पर कार्यक्रम में रहे। उनका आमना−सामना नहीं हुआ।
 
यह सच है कि मुलायम ने अपने सियासी जीवन में परिवार के लोगों की सियासत तो खूब चमकाई थी, उनके बल पर परिवार के कई सदस्य सांसद और विधायक, जिला पंचायत अध्यक्ष व तमाम निगमों के अध्यक्ष आदि बने परंतु मुलायम ने सियासत और परिवार का कभी घालमेल नहीं किया। अपनों के साथ रहना उनकी सहज प्रवृत्ति रही है। यहां तक कि उन्होंने पार्टी छोड़ने वाले बेनी प्रसाद वर्मा, आजम खां और अमर सिंह तक को वापस लेने में संकोच नहीं किया था। कभी जो दर्शन सिंह यादव उनके जानलेवा दुश्मन हुआ करते थे, वह भी बाद में मुलायम के साथ खड़े नजर आने लगे थे। अपने इसी स्वभाव के चलते कुनबे की कलह में भी वह दोनों पक्षों के लिए स्वीकार्य बने रहे हुए हैं। यह बात उन लोगों के मुंह पर तमाचा है जो यह मानकर चलते हैं कि मुलायम सिंह अब सियासत के अखाड़े के पहलवान नहीं रह गये हैं। दरअसल, मुलायम आज भी सियासी दुनिया के 'पहलवान' ही हैं। हां, परिवार के झगड़े ने जरूर उन्हें तोड़ कर रख दिया है।
 
बहरहाल, कुछ ऐसी बातें भी हैं जो यही साबित करती हैं मुलायम के लिए अखिलेश से बढ़कर कोई नहीं है। याद कीजिए 2012 से पहले का वह दौर, जब शिवपाल को ही मुलायम का उत्तराधिकारी माना जा रहा था, लेकिन सियासी दुनिया में 'चरखा दांव' लगाने में मशहूर नेताजी ने 2012 के विधान सभा चुनाव से ठीक पहले शिवपाल को अनदेखा करके अखिलेश की ताजपोशी कर दी थी। कुनबे में कलह के बीज तभी से पड़े थे। 2017 में जब पारिवारिक लड़ाई परवान पर चढ़ी तो मुलायम शिवपाल के साथ नजर तो आये लेकिन, कोई निर्णायक फैसला लेने से बचते रहे। यहां तक कि शिवपाल ने उनके साथ मिलकर सेक्युलर मोर्चा के गठन का फैसला लिया था तो भी मुलायम ने अपने कदम पीछे खींच लिए थे। फिर भी भाई के लिए उनका मोह लगातार बना रहा। उन्होंने कई बार सार्वजनिक मंचों से दोहराया कि शिवपाल ने मेरे और पार्टी के लिए बहुत कुछ किया है, जबकि अखिलेश का राजनीतिक भविष्य उनकी जिम्मेदारी है। अब जो हालात बन रहे हैं उससे तो यही लगता है कि 2017 के विधान सभा चुनावों की तरह अगले वर्ष होने वाले आम चुनावों में भी चाचा शिवपाल के बिना अखिलेश की राह आसन नहीं होगी। अब तो अलग पार्टी बनाकर शिवपाल पूरी तरह से आजाद भी हो गये हैं।
रायपुर। केंद्रीय मंत्री स्मृति ईरानी ने कहा है कि आने वाले वर्षों में देश ब्रिटिश अर्थव्यवस्था से भी बड़ी ताकतवर अर्थव्यवस्था बनने जा रहा है। ईरानी ने आज यहां संवाददाता सम्मेलन में कहा कि आर्थिक विकास और आर्थिक क्रांति का सबसे बड़ा पैमाना कोई हो तो आज वैश्विक स्तर पर यह माना जाता है कि हिंदुस्तान आर्थिक रूप से और सशक्त हुआ है। आज यह भी माना जाता है कि आने वाले समय में हम लोग ब्रिटिश अर्थव्यवस्था से भी बड़ी अर्थव्यवस्था बनने जा रहे हैं। यह तभी संभव हुआ है जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में जन कल्याणकारी योजनाओं के माध्यम से हम आर्थिक सशक्तीकरण और राष्ट्र नवनिर्माण की ओर बढ़ पाए हैं।
 
मंत्री ने कहा कि यह मान्यता केवल भारतीय जनता पार्टी के कार्यकर्ताओं की नहीं है, बल्कि वैश्विक स्तर पर वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम जैसे संस्थानों ने भी माना है कि केंद्र सरकार के माध्यम से जो योजनाएं लाई जा रही हैं, उनके चलते आर्थिक रूप से हिंदुस्तान सशक्त हो रहा है। ईरानी ने कहा कि वर्ष 2014 में जिन आर्थिक परिस्थितियों में कांग्रेस नीत यूपीए ने देश को छोड़ा था, उस दौरान कर्ज था। कई घोटाले थे। आज उससे उबरकर एक नए भारत की कल्पना के साथ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जनता के आशीर्वाद से आगे बढ़ रहे हैं।
 
उत्तर प्रदेश कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष राज बब्बर के नक्सलियों को लेकर दिए गए बयान से संबंधित सवाल के जवाब में ईरानी ने कहा कि अगर राज बब्बर जी को लगता है कि वह जो बेगुनाहों का खून बहाते हैं, जो हमारे सुरक्षाबलों को मौत के घाट उतारने का दुस्साहस करते हैं, उनमें उन्हें क्रांति दिखती है तब मुझे लगता है कांग्रेस के लिए यह शर्म की बात है। मैं चिंतित हूं कि कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं ने सार्वजनिक रूप से इसका खंडन नहीं किया है। उनकी चुप्पी में ऐसे बयानों को सह मिलती है। कम से कम अपनी राजनीतिक मतभेद छोड़कर संविधान और कानून के संरक्षण के लिए राष्ट्रहित में कांग्रेस पार्टी को अपने नेता के इस बयान का खंडन करना चाहिए था।
 
गौरतलब है कि राज बब्बर ने शनिवार को रायपुर में एक संवाददाता सम्मेलन के दौरान कहा था कि गोलियां और बंदूकें नक्सलवाद का हल नहीं कर सकती हैं। धमकाकर, डराकर इस समस्या का हल नहीं निकाला जा सकता है। ऐसे लोगों को नहीं रोका जा सकता है जिन्होंने क्रांति की शुरूआत कर दी है। हालांकि बब्बर ने इस मुद्दे पर अपनी सफाई भी दी थी। 
 
छत्तीसगढ़ में हो रहे विधानसभा चुनाव में दो चरणों में मतदान होगा। पहले चरण में नक्सल प्रभवित बस्तर क्षेत्र के सात जिलों और राजनांदगांव जिले की 18 सीटों लिए इस महीने की 12 तारीख को तथा शेष 72 सीटों के लिए 20 तारीख को मतदान होगा।
लिलॉंगवे। उप-राष्ट्रपति एम. वेंकैया नायडू ने सोमवार को मालावी के राष्ट्रपति आर्थर पीटर मुथरिका से विभिन्न मुद्दों पर बातचीत की। इस मौके पर भारत और मालावी ने प्रत्यर्पण, परमाणु ऊर्जा में सहयोग और राजनयिकों एवं अधिकारियों के लिए वीजा में छूट संबंधी तीन समझौतों पर दस्तखत किए। इसके अलावा, भारत ने मालावी में 18 जल परियोजनाओं के लिए 21 करोड़ डॉलर से अधिक (215.16 मिलियन) का कर्ज देने की घोषणा की। विदेश मंत्रालय में सचिव टी एस तिरुमूर्ति ने बताया कि दोनों नेताओं की वार्ता के दौरान भारत ने मालावी के रक्षा बलों के लिए विशेषीकृत प्रशिक्षण कार्यक्रमों की पेशकश की।
 
उन्होंने कहा कि ग्लोबल सेंटर फॉर न्यूक्लियर एनर्जी पार्टनरशिप और मालावी के प्राकृतिक संसाधन, ऊर्जा एवं खनन मंत्रालय के बीच शांतिपूर्ण उद्देश्य के लिए परमाणु ऊर्जा में सहयोग संबंधी एक समझौते पर दस्तखत हुए। दोनों पक्षों ने प्रत्यर्पण संधि के लिए भी एक समझौते पर दस्तखत किए। इसके अलावा, राजनयिकों एवं आधिकारिक पासपोर्ट धारकों के लिए वीजा छूट संबंधी भी एक समझौता हुआ। इस बीच, नायडू ने यहां ‘जयपुर फुट’ के एक शिविर का उद्घाटन किया और कई लाभार्थियों को भारत में बने ‘प्रोस्थेटिक लिंब’ (कृत्रिम पैर) बांटे। ‘इंडिया फॉर ह्यूमैनिटी’ कार्यक्रम के तहत इस शिविर का आयोजन किया गया। यह कार्यक्रम महात्मा गांधी की ओर से की गई मानवता की सेवा का सम्मान करता है।

लखनऊ। उत्तर प्रदेश सरकार ने गोमती नगर विस्तार स्थित इकाना अन्तरराष्ट्रीय क्रिकेट स्टेडियम का नामकरण ‘‘भारत रत्न अटल बिहारी वाजपेयी अन्तरराष्ट्रीय इकाना क्रिकेट स्टेडियम’’ कर दिया है। आज मंगलवार को मुख्यमंत्री योगी आदित्य नाथ ने इस स्टेडियम का लोकार्पण किया। 

स्टेडियम का नाम बदलने की जानकारी प्रमुख सचिव आवास एवं शहरी नियोजन नितिन रमेश गोकर्ण ने सोमवार की शाम एक बयान में दी थी। उन्होंने बताया था कि लखनऊ विकास प्राधिकरण, इकाना स्पोर्ट्स सिटी प्रा लि एवं जी सी कन्स्ट्रक्शन एवं डेवलपमेन्ट इण्डस्ट्रीज प्रा लि के मध्य हुये करार में दी गयी व्यवस्था के परिप्रेक्ष्य में यह निर्णय लिया गया है। आज शाम इस स्टेडियम में पहली बार भारत और वेस्टइंडीज के बीच टी-20 मुकाबला होगा। इस स्टेडियम में पहली बार कोई अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट मैच हो रहा है। 

 

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छत्तीसगढ़ चुनाव के दूसरे चरण के लिए 1101 उम्मीदवार मैदान में, धुआंधार प्रचार जारी
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रायपुर। छत्तीसगढ़ में हो रहे विधानसभा चुनाव के दूसरे चरण के लिए 1101 उम्मीदवार चुनाव मैदान में हैं। इनके भाग्य का फैसला इस महीने की 20 तारीख को यहां के मतदाता करेंगे। राज्य में चुनाव को देखते हुए सभी राजनीतिक दल धुआंधार प्रचार कर रहे हैं। राज्य के मुख्य निर्वाचन पदाधिकारी कार्यालय के अधिकारियों ने आज यहां बताया कि छत्तीसगढ़ में दूसरे चरण के निर्वाचन वाले 72 विधानसभा क्षेत्रों में नामांकन पत्रों की समीक्षा के बाद कुल 1,249 उम्मीदवारों के नामांकन पत्र विधिमान्य पाए गए। दूसरे चरण के निर्वाचन के लिए 26 अक्टूबर को अधिसूचना जारी होने के बाद से दो नवम्बर तक चली नामांकन दाखिले की प्रक्रिया के दौरान अभ्यर्थियों द्वारा कुल 2,655 नामांकन पत्र दाखिल किए गए थे। 

सोमवार पांच नवम्बर को नामांकन वापस लेने की अंतिम के बाद कुल 1,101 उम्मीदवार चुनाव मैदान में हैं। दूसरे चरण के निर्वाचन के लिए 19 जिलों की 72 विधानसभा क्षेत्रों में 20 नवम्बर को मतदान और 11 दिसम्बर को मतगणना होगी। राज्य में हो रहे विधानसभा चुनाव में दो चरणों में मतदान होगा। दोनों चरणों में कुल 1,291 उम्मीदवार चुनाव मैदान में हैं। पहले चरण के तहत, नक्सल प्रभावित बस्तर क्षेत्र के सात जिलों और राजनांदगांव जिले की 18 सीटों के​ लिए 12 नवंबर को मतदान होगा। पहले चरण में मुख्यमंत्री रमन सिंह, उनके मंत्रिमंडल के दो सदस्यों और पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की भतीजी करूणा शुक्ला के भाग्य का फैसला होगा।
 
वहीं दूसरे चरण में राज्य के नौ मंत्री रायपुर दक्षिण से बृजमोहन अग्रवाल, रायपुर पश्चिम से राजेश मूणत, बिलासपुर से अमर अग्रवाल, बैकुंठपुर से भैयालाल राजवाड़े, प्रतापपुर से रामसेवक पैकरा, मुंगेली से पुन्नूलाल मोहिले, भिलाई नगर से प्रेम प्रकाश पांडेय, नवागढ़ से दयालदास बघेल और कुरूद से अजय चंद्राकर चुनाव मैदान में हैं। वहीं भाजपा प्रदेश अध्यक्ष धर्मलाल कौशिक बिल्हा विधानसभा क्षेत्र से चुनाव लड़ रहे हैं।

दूसरे चरण में ही पाटन से प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष भूपेश बघेल, अंबिकापुर से विपक्ष के नेता टीएस सिंहदेव, दुर्ग ग्रामीण से कांग्रेस सांसद ताम्रध्वज साहू और सक्ती से पूर्व केंद्रीय मंत्री चरणदास महंत भी अपनी किस्मत आजमा रहे हैं। वहीं जनता कांग्रेस छत्तीगसढ़ (जे) से पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी मारवाही सीट से, उनकी पत्नी रेणु जोगी कोटा सीट से चुनाव लड़ रहे हैं। जोगी की बहू ऋचा जोगी बहुजन समाज पार्टी के टिकट पर अकलतरा सीट से चुनाव मैदान में है।
 
राज्य के मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस से अलग होकर नई पार्टी का गठन करने वाले पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी छत्तीसगढ़ में बहुजन समाज पार्टी और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के साथ मिलकर चुनाव लड़ रहे हैं। राज्य में दूसरे चरण के मतदान के लिए रायपुर दक्षिण सीट में सबसे अधिक 46 उम्मीदवार और बिंद्रानवागढ़ में सबसे कम छह उम्मीदवार मैदान में हैं। छत्तीसगढ़ की 90 सदस्यीय विधानसभा के लिए इस महीने दो चरणों में मतदान होगा। पहले चरण के लिए नक्सल प्रभावित बस्तर ​क्षेत्र के सात जिले और राजनांदगांव जिले की 18 सीटों के लिए 12 तारीख को मतदान होगा। वहीं दूसरे चरण में 72 सीटों के लिए 20 तारीख को मत डाले जाएंगे।

राज्य में 90 में से 10 सीटें अनुसूचित जाति के लिए तथा 29 सीटें अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित हैं। राज्य में कुल 1,85,59,936 मतदाता हैं। इनमें से पुरूष मतदाताओं की संख्या 92,95,301 और महिला मतदाताओं की संख्या 92,49,459 है। वहीं 1059 तृतीय लिं​ग के मतदाता हैं। छत्तीसगढ़ में 19 विधानसभा क्षेत्र ऐसे हैं जहां 16 उम्मीदवार से ज्यादा प्रत्याशी मैदान में हैं। इन सीटों पर दो से अधिक ईवीएम लगाये जाएंगे। तीन विधानसभा क्षेत्रों में उम्मीदवारों की संख्या 32 से अधिक होने के कारण तीन बैलेट यूनिट लगाई जाएंगी।
 
छत्तीसगढ़ में हो रहे विधानसभा चुनाव में जीत ​हासिल करने के लिए राज्य के सभी राजनीतिक दल धुआंधार प्रचार कर रहे हैं। राज्य में पिछले 15 वर्षों से सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी के महामंत्री संतोष पांडेय ने कहा है कि उनकी पार्टी राज्य में चौथी बार सरकार बनाएगी। इस बार पार्टी ने 65 सीटों पर जीत का लक्ष्य रखा है। पांडेय ने बताया कि पार्टी के कार्यकर्ता घर घर जाकर मतदाताओं को केंद्र और राज्य सरकार की उपलब्धि को बता रहे हैं। वहीं ​विपक्षी दल कांग्रेस के मीडिया विभाग के अध्यक्ष शैलेष नितिन त्रिवेदी ने कहा कि कांग्रेस ने इस चुनाव में ​वरिष्ठों के साथ साथ युवाओं को मौका दिया है। उनकी पार्टी रमन सिंह सरकार की असफलता के बारे में मतदाताओं को बता रही है। इस बार जनता बदलाव चाहती है और उम्मीद है कि इस चुनाव में कांग्रेस की जीत होगी और वह सरकार बनाएगी।

श्रीनगर। जम्मू-कश्मीर के शोपियां जिले में सुरक्षा बलों के साथ मुठभेड़ में हिज्बुल मुजाहिदीन के दो आतंकी ढेर हो गए। उनमें से एक आतंकी, पहले सेना में था जो बाद में आतंकी संगठन में शामिल हो गया था। पुलिस के प्रवक्ता ने बताया कि दक्षिण कश्मीर के जैनापोरा के सफानगरी इलाके में आतंकियों की मौजूदगी की सूचना मिलने पर सुरक्षा बलों ने मंगलवार को तड़के घेराबंदी की और तलाशी अभियान चलाया था।

उन्होंने बताया कि जब तलाशी अभियान चल रहा था तब छिपे हुए आतंकियों ने बल पर गोलीबारी की। जवानों ने जवाबी गोलीबारी की जिसके बाद मुठभेड़ शुरू हो गई और दो आतंकी मारे गए। मारे गए आतंकियों की पहचान मोहम्मद इदरिस सुल्तान उर्फ छोटा अबरार और आमिर हुसैन राथर उर्फ अबु सोबान के रूप में की गई। सुल्तान सफानगरी शोपियां का रहने वाला था जबकि सोबान अवनीरा शोपियां का रहने वाला था।

भारतीय जनता पार्टी ने आगामी विधान सभा और लोकसभा चुनावों में राफेल, रोजगार और महंगाई जैसे मुद्दों की काट निकालने के लिए ही राम मंदिर का मुद्दा उछाला है। आगामी विधान सभा और लोकसभा चुनावों को लेकर जो रणनीति तैयार की गयी है, राममंदिर का मुद्दा उसी का हिस्सा है। सुप्रीम कोर्ट में मामला होने और केंद्र में सत्तारुढ़ होने के कारण भाजपा इस पर सीधी प्रतिक्रिया देने से बच रही है। राम मंदिर मुद्दे की गेंद संघ परिवार के पाले में डाली गई है। सोची−समझी रणनीति के तहत संघ परिवार को इसमें आगे लाया गया है। यही वजह है कि संघ के प्रचारक सहित अन्य आनुषांगिक संगठन इस मुद्दे पर आगामी मोर्चा संभाले हुए हैं, वहीं भाजपा के मंत्री और पदाधिकारी इस मुद्दे पर तोतारटंत जवाब, जनभावना से जुड़ा हुआ मुद्दा है, जैसी दलील देकर इसमें सीधे दखल देने से बचने का प्रयास कर रहे हैं। भाजपा को यह अच्छी तरह पता है कि अयोध्या विवाद सुप्रीम कोर्ट में चल रहा है। इसमें सीधे दखलंदाजी नहीं की जा सकती। इसमें अवमानना का खतरा है। इस मुद्दे पर अध्यादेश भी आसानी से नहीं लाया जा सकता। अध्यादेश के लिए सहयोगी गठबंधन दलों की सहमति जरूरी है। सहयोगी दल पहले ही कह चुके हैं कि सुप्रीम कोर्ट का फैसला मान्य होगा।
 
गठबंधन दलों को साथ लेकर चलना आगामी चुनावों की मजबूरी है। वैसे भी पार्टी अध्यादेश लाकर सुप्रीम कोर्ट से कोई रार नहीं करना चाहती। सबरीमाला के मुद्दे पर दबे−छिपे तरीके से विरोध को लेकर पार्टी पहले से ही सुप्रीम कोर्ट की नजर में है। राफेल और सीबीआई सहित कई बड़े और सरकार को प्रभावित करने वाले मामले सुप्रीम कोर्ट में विचाराधीन हैं। हालांकि केंद्र सरकार आरक्षण के मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट के निर्णय को बदलने का दांव खेल गई। यह मुद्दा सीधे भाजपा के खिलाफ जा रहा था। पार्टी के ही सांसद और विधायक सुप्रीम कोर्ट के निर्णय का विरोध कर रहे थे।
 
इससे अनुसूचित जाति−जनजाति के वोट बैंक खिसकने का खतरा मंडरा रहा था। विपक्ष भी इस मुद्दे पर चकरघिन्नी बन गया था। देश में हुए विरोध आंदोलन के मद्देनजर विपक्ष ने भी कानून लाकर सुप्रीम कोर्ट का निर्णय बदलने की मांग उठाई। राम मंदिर का मुद्दा उठाने के मामले में हालात ऐसे नहीं हैं। इसमें पार्टी को फायदा नहीं होगा तो नुकसान भी नहीं होगा। दरअसल भाजपा को इस मुद्दे से हवा सबरीमाला मंदिर मुद्दे पर लोगों को उकसाने के बाद मिली है। सबरीमाला मंदिर के मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले के विरोध में स्थानीय लोगों ने तीखी प्रतिक्रिया जाहिर की। यह मामला अभी तक केरल की मार्क्सवादी सरकार के गले की हड्डी बना हुआ है। केरल की पी विजयन सरकार ना तो लोगों का विरोध झेल पा रही है और ना ही सुप्रीम कोर्ट का फैसला लागू करा पा रही है।
 
सुप्रीम कोर्ट के निर्णय की वजह से भाजपा ने इसमें भी सीधे जुड़ने से बचने की गली तलाश ली। स्थानीय नेता और कार्यकर्ताओं को आगे कर दिया, जबकि राष्ट्रीय स्तर के नेता और केंद्र सरकार के मंत्री जो दलील राम मंदिर के मामले में दे रहे हैं, वही सबरीमाला में भी दी है। इसे राम मंदिर की तरह जन भावना का निर्णय करार दिया है ताकि दोनों ही मामलों में सुप्रीम कोर्ट की अवमानना की तलवार से बचा जा सके। सबरीमाला प्रकरण में महिलाओं के प्रवेश पर प्रतिबंध को समर्थन देकर भाजपा ने इस पर लिटमस टेस्ट भी कर लिया। भाजपा को राजनीतिक रूप से इससे फायदा हुआ। केरल सरकार विवादों में घिर गई। 
सबरीमाला मामले में भाजपा केरल में काफी हद तक ध्रुवीकरण करने में कामयाब रही है। इससे मिली सफलता से ही पार्टी राम मंदिर को फिर से उठा रही है, फर्क सिर्फ इतना है कि सत्ता में होने के कारण संघ परिवार को इसमें आगे किया गया है। संघ के संगठनों ने मंदिर बनाने के लिए आंदोलन चलाने के लिए आगामी छह महीने का समय निर्धारित किया है। इसी अवधि में विधान सभा और लोकसभा चुनाव होने हैं। पहले चूंकि विधानसभा चुनाव होने हैं, इससे पता भी चल जाएगा कि राम मंदिर का मुद्दा उठाना पार्टी के लिए कितना फायदेमंद रहा। यदि परिणाम अपेक्षित रहे तो इसे लोकसभा तक खींचा जाएगा।
 
केंद्र की भाजपा सरकार इन दिनों राफेल और विकास के दूसरे मुद्दों पर विपक्ष के निशाने पर है। राफेल के मामले में कांग्रेस लगातार नए−नए आरोप लगा रही है। इसके अलावा डीजल−पेट्रोल, महंगाई और रोजगार जैसे मुद्दों पर विपक्ष ने सरकार और पार्टी की घेराबंदी कर रखी है। इन मुद्दों पर विपक्ष और देश के लोगों की अपेक्षाएं पूरा करना आसान नहीं है। इसके अलावा विधान सभा चुनावों में एंटीइनक्मबेंसी भी मौजूद रहेगी। राजस्थान और छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में भाजपा की वापसी आसान नहीं मानी जा रही। विधान सभा के चुनाव परिणाम भी काफी हद तक इन राज्यों में लोकसभा के परिणामों को प्रभावित करेंगे।
 
इस राह को आसान बनाने के लिए पार्टी विकास और राम मंदिर के मुद्दे का कॉकटेल तैयार कर रही है। केंद्र और भाजपा शासित राज्यों की सरकारों के किए विकास का सोशल मीडिया सहित हरसंभव तरीके से प्रचार किया जा रहा है। इसके बावजूद पार्टी चुनावों में बहुमत हासिल करने को लेकर आश्वस्त नहीं है। पार्टी और सरकार को इस बात पर पूरा भरोसा नहीं है कि सिर्फ विकास के मुद्दे पर फिर से सत्ता पाई जा सकती है। कारण भी स्पष्ट है विकास के विभिन्न मोर्चों पर सरकार को इतनी कामयाबी हासिल नहीं हो सकी। इससे बने हुए अंतर को भरने के लिए उठाए गए राममंदिर जैसे भावनात्मक और धार्मिक मुद्दे का विपक्ष के लिए विरोध करना आसान नहीं है। विपक्ष की मजबूरी यह है कि देश में व्यापक जनभावना का मुद्दा होने के कारण यही नहीं कहा जा सकता कि मंदिर नहीं बनना चाहिए। विपक्ष अनुसूचित जाति−जनजाति प्रकरण की तरह राम मंदिर पर अध्यादेश लाने या कानून बनाने की दलील भी नहीं दे सकता। इससे विपक्ष का अल्पसंख्यक वोट बैंक खिसक सकता है। विपक्ष भाजपा की चुनावी चाल बताते हुए सवाल खड़े कर रहा है। जबकि संघ परिवार का सारा जोर इसी बात पर है कि इस मुद्दे पर कैसे कांग्रेस और दूसरे विपक्षी दलों को उलझाए रखा जाए। हालांकि भाजपा ने इस मुद्दे पर देश में अपनी राजनीतिक इमारत बुलंद की है, किन्तु पार्टी सिर्फ इसी के बलबूते सत्ता में वापसी को लेकर आशान्वित नहीं है। यह निश्चित है कि भाजपा के लिए यदि राममंदिर मुद्दा चुनावी तौर पर फायदेमंद साबित हुआ, पार्टी तभी इसे आगे जारी रखेगी, अन्यथा जैसे केंद्र सरकार के साढ़े चार साल के दौरान यह हाशिये पर पड़ा रहा, वैसे ही पड़ा रहेगा।
 

इंदौर। भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) ने सूचना के अधिकार (आरटीआई) के तहत बताया है कि नोटबंदी के बाद वापस आये कुल 15,310.73 अरब रुपये मूल्य के विमुद्रित बैंक नोटों को नष्ट करने की प्रक्रिया इस वर्ष मार्च के आखिर में खत्म हो चुकी है। हालांकि, केंद्रीय बैंक ने आरटीआई कानून के एक प्रावधान का हवाला देते हुए यह जाहिर करने में असमर्थता जतायी है कि 500 और 1,000 रुपये के इन बंद हो चुके नोटों को नष्ट करने में सरकारी खजाने से कितनी रकम खर्च हुई। 

मध्यप्रदेश के नीमच निवासी आरटीआई कार्यकर्ता चंद्रशेखर गौड़ ने मंगलवार को बताया कि उन्हें आरबीआई के मुद्रा प्रबंध विभाग के 29 अक्टूबर को भेजे पत्र से विमुद्रित बैंक नोटों को नष्ट किये जाने के बारे में जानकारी मिली। गौड़ की आरटीआई अर्जी पर आरबीआई के एक आला अधिकारी ने जवाब दिया, "मुद्रा सत्यापन एवं प्रसंस्करण प्रणाली (सीवीपीएस) की मशीनों के जरिये 500 एवं 1,000 रुपये के विनिर्दिष्ट बैंक नोटों (एसबीएन) को नष्ट किया गया। यह प्रक्रिया मार्च अंत तक खत्म हुई।" 
 
यहां एसबीएन से तात्पर्य 500 एवं 1,000 रुपये के बंद नोटों से है। आरटीआई के तहत यह भी बताया गया कि आठ नवंबर 2016 को जब नोटबंदी की घोषणा की गयी, तब आरबीआई के सत्यापन और मिलान के मुताबिक 500 और 1,000 रुपये के कुल 15,417.93 अरब रुपये मूल्य के नोट चलन में थे। विमुद्रीकरण के बाद इनमें से 15,310.73 अरब रुपये मूल्य के नोट बैंकिंग प्रणाली में लौट आये। 
आरटीआई के जवाब से स्पष्ट है कि नोटबंदी के बाद केवल 107.20 अरब रुपये मूल्य के विमुद्रित नोट बैंकों के पास वापस नहीं आ सके। 

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