संपादकीय

संपादकीय (272)

अयोध्या विवाद सुलझने का नाम ही नहीं ले रहा है, जो लोग यह उम्मीद लगाए थे कि 29 अक्टूबर को जब सुप्रीम कोर्ट इस मुददे पर सुनवाई शुरू करेगा तब वह सवा सौ करोड़ लोगों की जनभावनाओं को अनदेखा नहीं कर पायेगी। इसकी वजह भी थी। अयोध्या विवाद दशकों से कोर्ट की चौखट पर इंसाफ के लिये दस्तक दे रहा है, लेकिन तीन जजों की खंडपीठ ने तीन मिनट में मुकदमे की तारीख दे दी। अगर सुप्रीम कोर्ट के रवैये पर उंगली उठ रही है तो उसे अदालत की अवमानना बता कर खारिज नहीं किया जा सकता है। कोई भी संस्था या सरकार ही नहीं किसी का धर्म भी देशहित से ऊपर नहीं हो सकता है। क्या लोगों के बीच खाई बढ़ाने वाले मसलों पर समय रहते निर्णय नहीं लिया जायेगा ? इंसाफ के नाम पर अदालतों से तारीख पर तारीख मिलेगी तो इसे सिस्टम में व्याप्त खामियों का जामा पहना कर खारिज नहीं किया जा सकता है। अगर आतंकवादियों के मानवाधिकार की रक्षा के लिये देर रात्रि को कोर्ट बैठ सकती है तो फिर देश की सवा सौ करोड़ की जनता के 'मानवाधिकारों' की रक्षा के लिये ऐसा क्यों नहीं किया जा सकता है। एक बार को यह मान भी लिया जाए कि निचली अदालतों ने फैसला सुनाने में लम्बा समय लिया तो सुप्रीम कोर्ट भी तो इससे अछूता नहीं रह गया है। यहां भी सात वर्षों से मामला लटका हुआ है। अयोध्या विवाद को सुलझाने के लिये सुप्रीम कोर्ट की पूर्व की बेंच जिस तरह से तत्परता दिखा रही थी, ऐसा वर्तमान बेंच में होता नहीं दिख रहा है तो फिर लोगों के मन−मस्तिष्क में सवाल तो उठेंगे ही।
 
सुप्रीम कोर्ट की नई बेंच से जब यह उम्मीद जताई जा रही थी कि वह अयोध्या विवाद की सुनवाई दिन−प्रतिदिन करने के बारे में फैसला देगा, तब उसने विवाद को जनवरी 2019 की तारीख देकर लम्बे समय तक के लिये तक टाल दिया गया। ऐसा इसलिये कहा जा रहा है क्योंकि मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता वाली तीन जजों वाली बेंच का कहना था कि जनवरी में सुप्रीम कोर्ट की नई पीठ ही यह तय करेगी कि इस मामले की सुनवाई जनवरी, फरवरी, मार्च या अप्रैल में कब होगी ?
 
अयोध्या विवाद पर इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसले पर रोक लगाए हुए सात साल बीत चुके हैं। फिर भी मामला का जहां का तहां ही है ? दुख की बात यह भी है कि अयोध्या विवाद में एक पक्षकार तो चाहता है कि जल्द से जल्द विवाद सुलझ जाये, लेकिन दूसरा पक्ष इसमें रोड़ा लगाने और तारीख आगे बढ़ाने में ज्यादा रूचि नहीं लेता है।
 
सुप्रीम कोर्ट के विद्वान न्यायाधीश जब यह कहते हैं कि उनकी और भी प्राथमिकताएं हैं तो इसका मतलब तो यही निकलता है कि अन्य अदालतों की तरह सुप्रीम कोर्ट भी मुकदमों के बोझ से दबा हुआ है। मगर सच्चाई यह भी है कि इतना दबाव होने के बाद भी सुप्रीम कोर्ट समय−समय पर कई मामलों की मैरिट से हटकर सुनवाई करती रही है। नाराजगी सिर्फ तारीख मिलने की नहीं है। बेंच का व्यवहार भी ऐसा था मानो उसे मामले की गंभीरता का अहसास नहीं हो या फिर वह ऐसा दर्शा रही होगी। सुप्रीम अदालत की तीन जजों की पीठ केवल यह बताने के लिए बैठी की मामले की सुनवाई नई पीठ करेगी तो उनकी मंशा चाहे जितनी भी साफ हो, उस पर उंगली भी उठेगी और सियासत भी होगी।
 
इसकी वजह भी है। अयोध्या मामले की सुनवाई टलने से उन लोगों की मंशा पूरी हो गई जो कहा करते थे कि इस विवाद की सुनवाई लोकसभा चुनाव के बाद की जाए। वहीं वह लोग दुखी हैं जो समय रहते इंसाफ चाहते थे। समय पर इंसाफ नहीं होना भी किसी अपराध से कम नहीं है। खासकर तब जब कोई मसला करोड़ों लोगों की आस्था से जुड़ा हो। यह सच है कि अदालत आस्था पर नहीं चलती है, अगर पूरे मसले को जमीनी विवाद मानकर कोर्ट सुनवाई कर रही है तो फिर तो यह काम और भी आसान हो जाता है।
प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी ने सरदार पटेल की विश्व में सबसे ऊंची प्रतिमा का अनावरण कर एक अद्भुत कीर्तिमान स्थापित किया। राष्ट्र के लिए विभिन्न लोगों ने जो कार्य किए, अपना जीवन अर्पित किया उसे चाहे किसी भी सत्ता द्वारा दबाने और ढकने का प्रयास किए जायें लेकिन वक्त की हवा सच्चाई के दर्पण पर पड़ी सत्ता की मिट्टी उड़ा ही देती है और तब सच्चाई सामने आती है। सरदार पटेल की विश्व में सबसे ऊंची मूर्ति वस्तुत: भारत के स्वाभिमान और गौरव की ऊँचाई का अमर अभिमान बनी है।

लेकिन मैं समझता हूं ऐसा प्रत्येक व्यक्ति जिसने जीवन में लोभ, लालच और स्वार्थ से परे हटकर देश और समाज के लिए छोटा-बड़ा जैसा भी काम किया हो वह हमारे मध्य सरदार ही हैं। जिन लोगों ने समाज को बिखरने से बचाया, राष्ट्र की अस्मिता और विरासत को विदेशी आक्रमणों से बचाने के लिये जीवन अर्पित कर दिया, ऐसे हजारों लोग हुये जो राजनीति में तो नहीं रहे लेकिन राजनीति में रहने वाले लोगों से कहीं ज्यादा बड़े दीर्घकालिक महत्व के कार्य कर गये। वे किसी सरदार से कम नहीं। उदाहरण के लिए एकनाथ रानाडे। उन्होंने विवेकानन्द केंद्र स्थापित किया, कन्याकुमारी में श्रीपाद् शिला पर स्वामी विवेकानन्द का भव्य स्मारक स्थापित किया और उनके जीवन की एकात्मता का यह असाधारण पहलू था कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के अंत्यत वरिष्ठ प्रचारक होते हुये भी उनके इस महान कार्य में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और द्रमुक नेता श्री करुणानिधि ने भी भरपूर सहयोग दिया। यह है राष्ट्रीय एकात्मता का भाव जो सरदार पटेल के जीवन से भी प्रकट होता है क्योंकि ना केवल उन्होंने सैकड़ों रियासतों को इकट्ठा कर भारत की एकता मजबूत की बल्कि कांग्रेस कार्य समिति में प्रस्ताव भी रखा कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यकर्त्ताओं को कांग्रेस का सदस्य बनने की अनुमति दी जानी चाहिए। श्री लाल बहादुर शास्त्री का जीवन भी ऐसा ही था जब उन्होंने 1965 के युद्ध के समय यातायात व्यवस्था हेतु संघ के स्वयंसेवकों की मदद ली थी ताकि यातायात पुलिस युद्धकालीन सेवाओं हेतु तैनात की जा सके।
 
हमारे मध्य ऐसे अनेक 'सरदार' मिलते हैं जो हमारे जीवन को सुरक्षित और भविष्य को आनन्दमय बनाने के लिये अपने जीवन का सर्वश्रेष्ठ अर्पित करते हैं लेकिन हम शायद कभी उनके नाम भी नहीं जान पाते। आज मुझे ऐसे ही एक वायुयोद्धा एयरमार्शल हेमन्त नारायण भागवत् से मिलने का सौभाग्य मिला जो 60 वर्ष की आयु पूरे होने पर आज ही अवकाश ग्रहण कर रहे थे। उन्होंने 38 वर्ष वायुसेना के माध्यम से देश की सेवा की और जब 60 वर्ष के पूरे हो गये तो अभी कुछ दिन पहले शायद 24 अक्टूबर को उन्होंने अपने जीवन की दो हजारवीं 'फ्री फाल' यानी बीसियों किलोमीटर की ऊँचाई से पत्थर की तरह नीचे छलांग मारी और जमीन के निकट आने पर ही पैराशूट खोला ताकि दुश्मन को पैराशूट देखकर वायुवीरों के नीचे आने का आभास न हो। यह बहुत खतरनाक और सामान्य व्यक्ति के लिए प्राण कंपा देने वाला युद्ध कार्य होता है। इसके प्रशिक्षण के लिये ही एयरमार्शल हेमन्त नारायण भागवत् जाने जाते थे। कारण यह है कि प्राय: 20 हजार फीट की ऊँचाई पर उड़ रहे विमान या हेलीकॉप्टर से वायुसैनिक पैराशूट बिना खोले पृथ्वी की ओर छलांग लगाते हैं तो उस ऊँचाई से जमीन तक तापमान में -30 डिग्री (ऋण 30) से लेकर जमीन के वातावरण के निकट की गर्मी के तापमान तक के अंतर को वायुवीर को कुछ ही क्षणों में झेलना पड़ता है। इतना ही नहीं यदि विमान से पृथ्वी तक की सीधी दूरी 20 किलोमीटर है तो छलांग मारने के बाद हवा के बहाव और दिशा के अनुसार छलांग मारने वाले वायुवीर को अक्सर 40 या 50 किलोमीटर की हवा में तैरते हुये दूरी तय करनी पड़ जाती है। तब जमीन निकट देखने पर ही वे पैराशूट खोलते हैं।

एयरमार्शल भागवत् अवकाशग्रहण करने वाले दिन प्रसन्न थे क्योंकि उन्होंने वायुयोद्धा के नाते एक संतोषजनक और गौरवशाली जीवन जिया। वे महाराष्ट्र में रत्नागिरी के अत्यंत सुंदर पश्चिमी सागर तटीय क्षेत्र के निवासी हैं। संपूर्ण परिवार में वे पहले वायुसैनिक कहे जायेंगे लेकिन उनके जीवन में एक और अति गौरवशाली कथा है- उनके पूर्वज 18वीं शताब्दी के अंत में उन महान बाजीराव पेशवा की फौज में पुजारी थे। जिस फौज ने 1758 में सिंधु के तट पर अटक के किले के पास दुर्रानी की फौजों को हरा कर किले पर भगवा झंडा लहराया था और विजय प्राप्त की थी। तभी से मुहावरा चल पड़ा था कि अटक से कटक तक भगवा लहराता है। और रोचक बात यह है कि शायद विमान की यात्रा वाले भी वे अपने परिवार में पहले नहीं हैं। 100 साल पहले जब देश में विमान सेवा प्रारम्भ हुई तो उनके पिता के दादा-दादी जुहू के पास बने छोटे विमान तल पर गये और उस समय विमान यात्रा की छोटी उड़ान के लिए लगने वाले किराये यानी प्रति यात्री 5 रुपये देकर यात्रा की। एयरमार्शल भागवत् का जीवन उन हजारों सैनिकों के जीवन को और जानने की उत्कंठा और प्रेरणा देता है जो देश सेवा का एक सपना लेकर फौज में आते हैं और उसके कठोर अनुशासन के कारण अपने 38-40 साल के सेवाकाल में न अपने नाते रिश्तेदारों से मिलने का समय पाते हैं, न निकटवर्ती मित्रों -रिश्तेदारों की शादियों या सुख-दुख में शामिल हो पाते हैं। उनका अपना जीवन भी लगातार तबादलों और नये स्थानों पर नियुक्तियों के बीच गुजरता रहता है। ये हमारे महापुरुष हैं जो चाहे वायुसेना में हों या नौसेना में अथवा थल सेना में, इनमें से हर सैनिक मुझे सरदार का ही दर्शन कराता है।
 
अगर हम अपनी जिंदगी के इर्द-गिर्द देखें तो सच्चाई, ईमानदारी तथा अपनी मेहनत से साधरण जीवन जीते हुये भी भारत-भारती का सांस्कृतिक एकता सूत्र बचाने वाले ऐसे हजारों सरदार हमें मिलते हैं जिनकी वजह से देश जिन्दा है, देश की एकता जिन्दा है और देश का भविष्य सुरक्षित है। जिस दिन बड़े सरदार की मूर्ति का अनावरण हुआ उस दिन इन सामान्य लेकिन चमकते हुये सितारों की तरह हमारी जिंदगी रोशन करने वाले सरदारों को प्रणाम कर मुझे अत्यंत आनन्द हो रहा है।
आखिर हम कब तक उन विधर्मी आक्रांताओं को ढोते रहेंगे जिन्होंने न केवल हमारी अकूत धन दौलत को जमकर लूटा खसोटा वरन् हमारी महान संस्कृति को नष्ट करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी। खून की नदियां बहाने वाले इन आक्रांताओं द्वारा हमारे धार्मिक स्थलों को नेस्तनाबूद करने दृष्टि से तोड़ा व ढहाया गया। हमारे ज्ञान के मंदिरों को बुरी तरह जलाया व तहस-नहस किया गया। लाखों सनातन धर्मियों का ऐन-केन-प्रकारेण धर्म परिवर्तन कराया गया। नामालूम कितनी भारतीय नारियों को सतीत्व की रक्षा के लिये अपने को अग्नि के हवाले करना पड़ा। 
 
ऐसे जिन विधर्मी आक्रांताओं ने क्रूरता, निर्ममता की सारी हदें पार कर दी थी उनमें ही एक तुर्क लुटेरा सम्प्रति कुतुबुद्दीन ऐवक का सेनापति बख्तियार बिन खिलजी भी था। भारतीय इतिहास में बख्तियार की कू्ररता, निर्ममता अन्य खूंखार विधर्मी आक्रांताओ की तुलना में इसलिये कहीं अधिक जघन्य, अक्षम्य मानी जाती है कि उसने न केवल सैकड़ों मूर्धन्य शिक्षकों व हजारों विद्यार्थियों को मौत के घाट उतार दिया था वरन् उसने दुनिया के महानतम शिक्षा केन्द्र नालंदा विश्व विद्यालय को तहस-नहस कर उसके ज्ञान के केन्द्र तीन पुस्तकालयों को जलाकर खत्म कर दिया था। 
भारतीय राजधानी पटना से करीब 120 किलोमीटर व राजगीर से करीब 12 किलोमीटर की दूरी पर उसके एक उपनगर के रूप में स्थिति नालंदा विश्व विद्यालय की स्थापना 450-470 ई० के बीच गुप्त शासक के कुमार गुप्त प्रथम ने की थी। इसमें देश ही नहीं दुनिया के अनेक देशों से विद्यार्थी विभिन्न विषयों में अध्ययन हेतु आया करते थे। जिस समय 1999 ई० में बख्तियार बिन खिलजी ने कोई 200 घुड़सवार आतताई लुटेरों के साथ नालंदा विश्व विद्यालय पर हमला बोला था उस समय वहां कोई 20 हजार छात्र शिक्षा ग्रहण कर रहे थे और कोई 200 महान शिक्षक उन्हे शिक्षा देने में लगे थे। देखते ही देखते उसके खूंखार साथी लूटेरों ने निहत्थे शिक्षकों एवं विद्यार्थियों को गाजर-मूली की तरह काट डाला और तीनों पुस्तकालयों को आग के हवाले कर दिया। इन पुस्तकालयों में उस समय कितनी पुस्तके रही होगी इसकी परिकल्पना सिर्फ  इससे की जा सकती है कि उपरोक्त पुस्तकालय 6 महीने तक घूरे की तरह सुलगते रहे थे। 
 
दुनिया का कोई और देश होता तो हमारे ज्ञान की थाती को राख कर देने वाले आतताई बख्तियार का नाम लेना तो दूर उस पर थूकता तक नहीं। पर आजादी के 70 सालों बाद भी उसके नाम पर स्थापित 'बख्तियारपुर' रेलवे जक्शन उसकी क्रूरता की न केवल चीख-चीख कर गवाही देता है वरन् वो हमारे शासकों के राष्ट्र प्रेम व राष्ट्र के प्रति समर्पण पर भी प्रश्न चिन्ह खड़े करता है। 
 
जो बिहार की धरती कभी शक्ति, ज्ञान का केन्द्र हुआ करती थी। जिस धरती ने यदि कुमार गुप्त, चन्द्र गुप्त, अशोक जैसे सम्राट, चाणक्य जैसे महान विद्वान दिये तो उसी धरती ने महात्मा बुद्ध जैसे बौद्ध धर्म के प्रवर्तक भी दिये। 
 
देश की आजादी के बाद इसी धरती ने देश को जहां डॉ० राजेन्द्र प्रसाद जैसा राष्ट्रपति दिया तो इसी धरती ने देश में समग्र क्रांति के दूत के रूप में बाबू जय प्रकाश नारायण को भी। रामधारी सिंह दिनकर, देवकी नन्दन खत्री तथा नागार्जुन जैसे साहित्य शिरोमणि बिहार की धरती की देन रहे है। 
 
अंतत: अपने एक सहायक के हाथो मौत के घाट उतारे गये आतताई बख्तियार ने जीते जी सोचा भी न होगा कि जिस बिहार धरती को उसने खून से लाल कर दिया था उसी बिहार की धरती एक दिन उसे गाजी बाबा मान पूजा अर्चना करेंगी व हिन्दू महिलायें उसकी भटकती, अशांत रूह से अपने बाल बच्चों के कल्याण की मन्नते मांगेंगी।
 
आजादी के बाद बिहार में न जाने कितनी सरकारें आई गई। कितने मुख्यमंत्री बने बिगड़े पर किसी ने भी क्रूरता की सभी सीमायें लांघने वाले आतताई बख्तियार के नाम पर बने 'बख्तियारपुर' रेलवे जक्शन का नाम बदलने की जहमत नहीं उठाई। 
 
विगत कई वर्षो से बिहार की सत्ता का केन्द्र बिन्दु बने मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की न केवल कर्मभूमि 'बख्तियारपुर' बनी हुई है वरन् इनका यही जन्म स्थान भी है। भारतीय इतिहास को कलंकित करने वाले इस क्रूरतम लुटेरे व हत्यारे बख्तियार के बारे में उन्हे जानकारी न हो यह सोचा भी नहीं जा सकता। पर यदि उन्होने भी बख्तियार के नाम पर बने बख्तियारपुर रेलवे जक्शन का नाम बदलने का प्रयास तक नहीं किया तो नि:संदेह यही माना जायेगा कि उन्हे राष्ट्र के खासकर बिहार के मान-सम्मान की कोई चिंता नहीं है। 
 
अब भी समय है नीतीश जी बिना क्षण गंवाये आतताई बख्तियार के नाम पर उसकी कू्ररता की याद दिलाने वाले बख्तियारपुर रेलवे जक्शन का तत्काल नाम बदलने की घोषणा कर दें वरन् ऐसा मौका शायद ही कभी उनके हाथ आयेगा। यह सुकृत्य करने में उन्हे इसलिये और भी आसानी होगी कि उनकी सत्ता में वो भाजपा भागीदार है जो राष्ट्रवाद के नाम पर उन्हे समर्थन व सहयोग देने में पीछे न हटेगी। 
 
- शिवशरण त्रिपाठी
अगले वर्ष होने वाले लोकसभा चुनाव की आहट के बीच एक बार फिर अयोध्या में भगवान श्रीराम के भव्य मंदिर निर्माण का शोर सुनाई पड़ने लगा है। अबकी बार की खासियत यह है कि बीजेपी की मोदी−योगी सरकारें तो नहीं, लेकिन उनकी विचारधारा वाले साधू−संत और हिन्दूवादी संगठन मंदिर निर्माण की तारीख भी बता रहे हैं। संतों की उच्चाधिकार प्राप्त समिति की सरकार से कानून बनाकर मंदिर निर्माण का मार्ग प्रशस्त करने की मांग के बाद राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ प्रमुख मोहन भागवत जब कहें, 'बेवजह समाज के धैर्य की परीक्षा लेना किसी के हित में नहीं है। राम मंदिर निर्माण के लिये कानून लाए सरकार।' तो, समझा जा सकता है कि अयोध्या में मंदिर निर्माण को लेकर कहीं न कहीं खिचड़ी पक जरूर रही है। साधू−संत तो बाकायदा यहां तक कह रहे हैं कि 06 दिसंबर 2018 से अयोध्या में मंदिर निर्माण शुरू हो जायेगा। खास बात यह है कि कई मुस्लिम संगठन भी अब मंदिर निर्माण के पक्ष में बोलने लगे हैं। खुद को बाबर का वंशज बताने वाले भी कह रहे हैं कि अगर मंदिर निर्माण हुआ तो वह सोने की ईंट देंगे।
 
दरअसल, उत्तर प्रदेश में बीजेपी की सरकार के गठन के बाद से ही मोदी सरकार के ऊपर मंदिर निर्माण का मार्ग प्रशस्त करने का चौतरफा दबाव बन रहा है। बीजेपी के भीतर से भी समय−समय पर मंदिर निर्माण की आवाज उठती रहती है। मंदिर से लेकर तमाम सियासी सरगर्मियों के बीच राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ 24 अक्टूबर को लखनऊ में एक बैठक भी करने जा रहा है, जो इस दिशा में 'मील का पत्थर' साबित हो सकती है। तय कार्यक्रम के अनुसार भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह, यूपी के सीएम योगी आदित्यनाथ और दोनों उप मुख्यमंत्री, योगी सरकार के तमाम मंत्रियों, बीजेपी प्रदेश अध्यक्ष डॉ. महेंद्र नाथ पांडेय और प्रदेश महामंत्री संगठन सुनील बंसल भी इसमें हिस्सा लेंगे। हाल ही में नागपुर में संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत के राम मंदिर पर ताजा बयान के बाद इस बैठक का महत्व और बढ़ गया है। मोहन भागवत के अलावा संघ के सह सरकार्यवाह डॉ. कृष्णगोपाल सहित कई अन्य प्रमुख लोग इस बैठक में शामिल होंगे। बैठक में योगी सरकार के कामकाज, मंत्रिमंडल विस्तार और संगठन में कई चेहरों के भविष्य पर भी मुहर लगेगी। इसके अलावा लोकसभा चुनाव का रोडमैप बनाने के साथ कई अन्य मुद्दों पर भी बातचीत होगी।
 
बहरहाल, लाख टके का सवाल यही है कि क्या आम चुनाव से पूर्व मंदिर निर्माण हो पायेगा ? या यह एक बार फिर चुनावी शिगूफा साबित होगा। भारतीय जनता पार्टी पर हमेशा से राम मंदिर के नाम पर सियासत का आरोप लगता रहा है। खासकर, जब से केन्द्र में मोदी और यूपी में योगी का राज आया है तब से यह हमला और भी तेज हो गया है। बीजेपी जब भी किसी मंच पर मंदिर निर्माण की वकालत करती तो विपक्ष बीजेपी पर तंज कसने लगता है, 'मंदिर वहीं बनायेंगे, पर तारीख नहीं बतायेंगे।' मामला सुप्रीम कोर्ट में होने के कारण विपक्ष के हमले से बीजेपी तिलमिला कर रह जाती है। यह सिलसिला कई वर्षों से अनवरत जारी था। मंदिर निर्माण ऐसा मुददा था, जिसकी मुखालफत करके मुलायम और लालू यादव जैसे नेता सत्ता की सीढ़ियां चढ़ने में कामयाब रहे तो कांग्रेस सहित तमाम दलों ने बीजेपी की राम मंदिर निर्माण की सियासत के खिलाफ लामबंदी करके मुस्लिम वोटों की खूब लामबंदी की। बीजेपी को साम्प्रदायिक पार्टी करार दे दिया गया। मुसलामनों को डराया गया कि अगर बीजेपी सत्ता में आ जायेगी तो उनके लिये देश में रहना मुश्किल हो जायेगा। मुस्लिम तुष्टिकरण के चलते ही पूर्ववर्ती यूपीए सरकार के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने यहां तक कह दिया कि प्राकतिक सम्पदा पर पहला हक मुसलमानों का है। मुस्लिम तुष्टिकरण का यह सिलसिला कई दशकों तक चलता रहा। ऊंच−नीच के नाम पर हिन्दुओं को आपस में लड़ाया गया। यह सिलसिला 2014 में तब कमजोर पड़ा जब मोदी ने विरोधियों की तुष्टिकरण की सियासत के खिलाफ हिन्दुत्व को धार देकर शानदार जीत हासिल की और कांग्रेस को बुरी तरह से हार का सामना करना पड़ा। शर्मनाक हार के लिये के बाद कांग्रेस ने हार के कारणों का पता लगाने के लिये एंटोनी कमेटी का गठन किया, जिसने अपनी रिपोर्ट में कहा कि कांग्रेस को हिन्दू विरोधी छवि के कारण नुकसान उठाना पड़ा, लेकिन कांग्रेस के शीर्ष नेताओं को एंटोनी कमेटी की बात समझ में नहीं आई।
 
उधर, उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी, बिहार में लालू यादव का राष्ट्रीय जनता दल और पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी जैसे नेताओं का मुस्लिम वोटों की सियासत से मोहभंग नहीं हो पाया था, लेकिन उनकी गलतफहमी दूर होने में ज्यादा समय नहीं लगा, क्योंकि बीजेपी हिन्दुत्व के सहारे एक के बाद एक राज्य में सत्तारूढ़ होती जा रही थी।
  
वैसे, हकीकत यह भी है कि राम मंदिर विवाद को लेकर सुप्रीम कोर्ट से इतनी जल्दी फैसला आने की उम्मीद किसी को नहीं है। अगर मोदी सरकार कानून बनाकर मंदिर निर्माण का मार्ग प्रशस्त कर दे तो बीजेपी को अगले वर्ष होने वाले आम चुनाव के साथ−साथ इसी वर्ष के अंत में पांच राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनाव में भी इसका फायदा मिल सकता है। योगी सरकार मंदिर निर्माण के लिये प्रस्ताव केन्द्र को भेज सकती है, जिसको आधार बनाकर मोदी सरकार इसे लोकसभा में आसानी से पारित करा लेगी, तो राज्यसभा में भी शायद ही कोई खास अड़चन आए। राजनैतिक नुकसान के डर से कांग्रेस शायद मंदिर निर्माण के लिये सुप्रीम कोर्ट का फैसला मान्य होगा, जैसा राग नहीं अलाप सकेगी। इसके अलावा विपक्ष के कुछ हिन्दू सांसद भी मंदिर निर्माण के पक्ष में आ सकते हैं। यह बात इस लिये पुख्ता तौर पर कही जा सकती है क्योंकि अब गैर बीजेपी दल ऐसे किसी मुद्दे को हवा नहीं देते हैं जिससे हिन्दू समाज नाराज हो जाये। इसीलिये तो जब इलाहाबाद का नाम बदलकर प्रयागराज किया गया तो कहीं भी विरोध के स्वर नहीं फूटे। इससे पहले मदरसों की मनमानी पर योगी सरकार ने डंडा चलाया। मदरसों में राष्ट्रीय गान को गाना अनिवार्य किया। बूचड़खानों पर सख्ती की, लेकिन किसी भी दल ने इन फैसलों के खिलाफ योगी सरकार को घेरने की कोशिश नहीं की। क्योंकि मुस्लिम तुष्टिकरण की सियासत करने वालों को डर सता रहा था कि कहीं हिन्दू वोटर नाराज न हो जायें।
 
लब्बोलुआब यह है कि मोदी सरकार के खिलाफ विपक्ष जिस तरह से लामबंदी कर रहा है। सरकार के हर फैसले पर उंगली उठाई जा रही है। जनआक्रोश को भड़काया जा रहा है। मॉब लिंचिंग की घटनाओं को हवा−पानी देकर मोदी सरकार को पूरी तरफ असफल करार दिया जा रहा है। भगोड़े उद्योगपतियों- विजय माल्या, नीरव मोदी, मेहुल चौकसी की आड़ लेकर केन्द्र सरकार पर कीचड़ उछाला जा रहा है। लड़ाकू विमान राफेल की डील में 'खेल' की बात प्रचारित की जा रही है। उसके चलते मोदी की राह आसान नहीं लगती है। ऐसे में हिन्दुत्व का उभार बीजेपी की नैया पार लगाने के लिये महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है।
 
इस बीच खबर यह भी आ रही है कि उत्तर प्रदेश में भाजपा का विजय रथ रोकने के लिए सपा−बसपा के गठबंधन में कांग्रेस व रालोद के शामिल होने पर भी सहमति बन गई है। महागठबंधन सभी सीटों पर भाजपा के खिलाफ साझा प्रत्याशी उतारने की तैयारी में है। जानकारों की मानें तो सीटों पर अंतिम फैसला होना अभी बाकी है। बसपा लगभग 40 सीटों पर दावा कर रही है। ऐसे में सपा को अपने खाते से सीटें कांग्रेस व रालोद को बांटनी पड़ सकती हैं। सपा अगर 30 सीटों पर उम्मीदवार उतारती है तो उसे 10 सीटें कांग्रेस व रालोद को देनी पड़ सकती हैं। देखने वाली बात यह होगी कि कांग्रेस व रालोद बसपा−सपा की शर्तों पर गठबंधन में शामिल होने को तैयार होते हैं या कोई अलग राह चुनते हैं। सवाल यह भी है कि शिवपाल यादव का सेक्युलर मोर्चा, डॉ. अयूब की पीस पार्टी, कौमी एकता दल जैसे छोटे दलों जिनकी कुछ विशेष इलाके में अच्छी खासी पैठ है, वह किस करवट बैठेंगे।
ज्योतिष और द्वारका शारदा पीठ के शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती की हैसियत सनातन (हिंदू) धर्म में धर्म सम्राट की है। हालांकि, देश के अलावा दुनिया में भी उनके शिष्यों की संख्या लाखों में है, लेकिन उन्हें वैसी तरजीह नहीं मिलती, जिसके वे हकदार हैं। उनकी साफगोई की वजह से उन्हें विवादों में घसीटने की भी कोशिश की जाती है। हालांकि, कभी कभी स्वरूपानंद स्वयं विवादित बयान देते हैं। ऐसे लोगों की तादाद भी कम नहीं है, जो उन्हें कांग्रेसी शंकराचार्य कहते हैं। साईं बाबा को लेकर वे जो बयान देते हैं, वह भी विवाद की वजह बनते हैं। इन सभी विषयों पर मध्य प्रदेश के पत्रकार राजेन्द्र चतुर्वेदी ने शंकराचार्य स्वामी स्वरूपापंद सरस्वती ने विस्तार से बात की। प्रस्तुत हैं, उसी चर्चा के संपादित अंश.. ..।
 
-स्वामीजी, गंगा की रक्षा के लिए लंबे समय तक अनशन पर बैठे प्रो. जीडी अग्रवाल उर्फ स्वामी ज्ञानस्वरूप सानंद अब हमारे बीच नहीं रहे। उनके निधन के लिए आप किसे जिम्मेदार मानते हैं?
 
-प्रोफेसर जीडी अग्रवाल के पास गंगा को बचाने के लिए एक पूरी कार्ययोजना थी। वह आईआईटी कानपुर में प्रोफेसर थे और उच्चकोटि के पर्यावरणविद, इसलिए उनकी योजना पर गौर किया जाना चाहिए था। उनसे बात की जानी चाहिए थी, लेकिन उनसे किसी सत्ताधारी ने बात नहीं की। प्रोफेसर अग्रवाल की मौत के लिए जिम्मेदार भी वही हैं, जिन्होंने उनसे बात नहीं की।
 
-अग्रवाल सम्मेलन नाम की संस्था का आरोप है कि प्रोफेसर की हत्या कराई गई है? 
 
-प्रोफेसर जीडी अग्रवाल को अनशन स्थल से जबरन उठाकर ऋषिकेश के ही एम्स में भर्ती कराया गया। यह काम ऋषिकेश के जिला प्रशासन ने किया था। जिन लोगों ने उन्हें अनशन स्थल से उठाया, उनकी जिम्मेदारी थी कि वे प्रोफेसर अग्रवाल की रक्षा करते, लेकिन जब वे अपनी जिम्मेदारी नहीं निभा पाए, तो उन पर आरोप लगेगा ही।
 
-मतलब, आप मानते हैं कि आरोप सही है?
 
-प्रोफेसर अग्रवाल से बात करने के लिए केंद्र या उत्तराखंड सरकार का कोई प्रतिनिधि भले ही नहीं गया, लेकिन ये दोनों सरकारें उनके अनशन के कारण परेशान थीं। अग्रवाल 111 दिन तक अनशन पर बैठे रहे। सरकारों को उम्मीद रही होगी कि वे अपना अनशन समाप्त कर देंगे, लेकिन जब नहीं किया, तो उन्हें अनशन स्थल से उठवाकर हो सकता है कि कोई शरारत कर दी गई हो। मैं किसी भी आशंका को खारिज नहीं कर सकता।
 
-गंगा की सफाई के लिए केंद्र सरकार नमामि गंगे योजना चला रही है, आप उसके काम से संतुष्ट हैं?
 
-वाराणसी जाकर देखो, तो पता चलेगा कि गंगा पहले से भी ज्यादा प्रदूषित हो गई है। फ्रांस के राष्ट्रपति भारत आए, तो हमारे प्रधानमंत्री जी ने वाराणसी में नाव में गंगा में उनके साथ सैर की। लेकिन जो गंदा पानी गंगा में गिरता है, उसके स्रोतों को सजावट करने के बहाने ढंक दिया गया, ताकि फ्रांसीसी राष्ट्रपति को गंगा की सफाई का भ्रम हो जाए। जैसा चकमा उन्हें दिया गया, वैसा ही पूरे देश को दिया जा रहा है। नमामि गंगे योजना गंगा सफाई का भ्रम फैलाने का जरिया बन गई है।
 
-लगता है कि आप मोदी सरकार से बहुत नाराज हैं? मध्य प्रदेश की शिवराज सरकार से भी आप नाराज होंगे?
 
-नहीं, मैं किसी से नाराज नहीं हूं। लेकिन मैंने यहां गोटेगांव में करोड़ों रुपये खर्च करके अस्पताल बनवाया था। उसे न तो मुझे शुरू करने दिया जा रहा है, न प्रदेश सरकार ही शुरू कर रही है। अगर यह अस्पताल प्रारंभ हो जाता, तो इस इलाके के लाखों लोगों को फायदा होता। लेकिन अच्छी-खासी इमारत नष्ट होने के कगार पर पहुंच गई है। न सरकार खुद कुछ कर रही है, न मुझे करने दे रही है।
 
-मध्य प्रदेश में चुनाव की सरगर्मियां प्रारंभ हो गई हैं। आप किस पार्टी की जीत देखना चाहते हैं?
 
-मुझे किसी की हार जीत से कोई मतलब नहीं है। मैं यह चाहता हूं कि जनता वर्तमान सरकार का पुराना घोषणा पत्र देखें। देखें कि उसमें किए गए वादे क्या पूरे हुए हैं? अगर उसमें किए गए वादे पूरे नहीं हुए, तो इस बार जो घोषणा पत्र आएगा, उसके वादे कैसे पूरे होंगे? बस यही कहना चाहूंगा कि जनता सोच-समझकर मतदान करे।
 
-स्वामी जी, शिवराज सिंह चौहान की सरकार ने अब तक कैसा काम किया?
 
-उसमें कुछ भी उल्लेखनीय नहीं है। 
 
-प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सबसे बड़ी उपलब्धि क्या है?
 
-केवल झूठ बोलना। झूठ बोलने के अलावा उन्होंने अब तक तो कुछ भी नहीं किया। हां, देश को नुकसान पहुंचाने वाले काम बहुत से किए हैं। नोटबंदी ने उन लोगों को सड़क पर खड़ा कर दिया, जिन लोगों के पास रोजगार थे। जीएसटी ने छोटे व्यापारियों को नुकसान पहुंचाया। सीमा पर जवान सुरक्षित नहीं हैं, खेतों में किसान सुरक्षित नहीं हैं। माल्या और नीरव मोदी जैसे लोगों ने बैंकों को बर्बाद कर दिया है। बेरोजगारी बढ़ रही है। 
 
-इसीलिए तो कुछ लोग आपको कांग्रेसी शंकराचार्य कहते हैं?
 
-भाई, मैं स्वतंत्रता संग्राम सेनानी रहा हूं। उस समय तो कांग्रेस के अलावा और कोई था ही नहीं। अंग्रेजों के खिलाफ मैंने जो भी किया, वह कांग्रेस का झंडा लेकर ही किया। यदि इसके लिए मुझे कांग्रेसी कहा जाता है, तो मुझे इस पर गर्व है। बाकी तो मैं शंकराचार्य हूं और शंकराचार्य किसी पार्टी का नहीं होता। वह पूरे सनातन समाज का होता है, पूरी मानव जाति का होता है।
 
-स्वतंत्रता संग्राम जब चल रहा था, उस समय आरएसएस तो था?
 
-था, लेकिन देश की आजादी में उसका कोई योगदान नहीं है। 
 
-आरएसएस वाले तो कहते हैं कि उनका आजादी के आंदोलन में योगदान था, लेकिन वामपंथी इतिहासकारों ने उसकी चर्चा नहीं की?
 
-वे लोग गलत कहते हैं। आजादी की लड़ाई कई-कई तरीके से लड़ी गई। कोई जेल गया, कोई फांसी पर चढ़ गया। किसी ने अंग्रेजों के खिलाफ किताबें लिखीं, किसी ने लेख लिखे। आरएसएस के कितने लोग जेल गए? कितने लोग फांसी पर चढ़े? अगर उसके किसी विचारक ने अंग्रेजों के खिलाफ कहीं एक शब्द भी लिखा हो, तो उसे देश के सामने रखा जाए। लेकिन ये लोग कुछ नहीं बता पाएंगे, जब कुछ किया ही नहीं, तो बताएंगे क्या?
 
-आप हिंदू धर्म के सबसे बड़े संत हैं और आरएसएस हिंदुओं का सबसे बड़ा संगठन। आप दोनों की पटरी क्यों नहीं बैठती?
 
-आरएसएस को हिंदू धर्म की समझ ही नहीं है। मैंने कहा कि साईं कोई भगवान नहीं है, वह प्रेत है, हिंदुओं को उसकी पूजा नहीं करनी चाहिए। इस पर आरएसएस के भैयाजी जोशी ने कहा कि आरएसएस के कई स्वयंसेवक साईं की पूजा करते हैं। अरे भाई, स्वयंसेवक अगर किसी की पूजा करने लगेंगे, तो क्या वह भगवान हो जाएगा? आपने शाखाओं में अपने स्वयंसेवकों को क्यों नहीं बताया कि साईं प्रेत है, उसकी पूजा मत करना, भगवान की पूजा करना। ये लोग साईं की पूजा करते हैं और बात राम मंदिर की करते हैं। मोहन भागवत का कहना है कि हिंदुओं में विवाह एक अनुबंध होता है। भागवत यह भी नहीं जानते कि हिंदू धर्म में विवाह सात जन्मों का बंधन होता है और बात हिंदुत्व की करते हैं। ये हिंदुत्व के बारे में कुछ नहीं जानते।
 
-आप किसी पर भी आरोप लगा देते हैं, जबकि आप पर भी आरोप है कि आपका यह आश्रम पहाड़ी पर कब्जा करके बनाया गया है?
 
-मैं किसी पर गलत आरोप नहीं लगा सकता। अगर मैंने किसी के बारे में कुछ कहा है, तो आओ, तथ्य से, तर्क से और शास्त्रों के प्रमाण से उसे गलत साबित करो। मैं तो हमेशा संवाद के लिए तैयार रहता हूं। रही बात पहाड़ी पर कब्जा करने की, तो यह पहाड़ी मैंने लीज पर ली है। अगर मैं गलत होता, तो ये लोग जेल में डाल देते। ये लोग पहाड़ी पर कब्जा करने का आरोप इसलिए लगाते हैं, ताकि मेरी छवि खराब हो। ये नहीं जानते कि मैं शंकराचार्य हूं, मेरी कोई छवि नहीं है। मैं अपना धर्म ठीक से निभा रहा हूं। मैं आप लोगों से प्राप्त भिक्षा का भोजन ग्रहण करता हूं।
 
- राजेन्द्र चतुर्वेदी
उत्तर प्रदेश में शहरों के नाम बदलने की सियासत एक बार फिर परवान चढ़ी हुई है, जिसको लेकर योगी सरकार उन लोगों के निशाने पर है जो हमेशा से इस तरह के बदलावों की मुखालफत करते रहे हैं, इसके पीछे मुखलाफत करने वालों का यह तर्क रहता है कि एक शहर का नाम भर बदलने से सरकारी खजाने को सैकड़ों करोड़ रूपये की चपत लग जाती है। नाम बदले जाने से शहरों को पुनः अपनी पहचान बनानी पड़ती है। कई बार किसी प्रतिष्ठान का नाम बदले जाने से उस संस्थान की देश में ही नहीं विदेश तक में अपनी पुरानी साख ही चौपट हो जाती है। उदाहरण के लिये लखनऊ के विश्व प्रसिद्ध किंग जार्ज मेडिकल कालेज (केजीएमसी) (जो अब विश्वविद्यालय बन गया है) का नाम जब मायावती सरकार ने बदलकर छत्रपति साहू जी महाराज मेडिकल विश्वविद्यालय कर दिया गया तो इसको इसका काफी नुकसान उठाना पड़ा, इसकी पुरानी प्रतिष्ठा तो गई ही, इसके अलावा केजीएमसी को जो आर्थिक मदद मिलती थी, वह भी नाम बदलने से प्रभावित होने लगी।

 
जब मुलायम सिंह ने सत्ता संभाली तो मायावती के आदेश को रद्द कर दिया। मायावती फिर मुख्यमंत्री बनीं तो उन्होंने दोबार केजीएमसी का नाम बदला दिया। इसके बाद 2012 में अखिलेश यादव जब मुख्यमंत्री बने तो उन्होंने इसका नाम फिर किंग जार्ज मेडिकल विश्वविद्यालय कर दिया।
 
खैर, सियासतदारों का इससे क्या लेना−देना है, लेकिन ताज्जुब तब होता है जब कांग्रेस, समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी जैसे दल भी ऐसे बदलावों का विरोध करने लगते हैं जो स्वयं सत्ता में रहते हुए नाम बदलने की खूब सियासत किया करते थे। वैसे पहली बार किसी शहर का नाम नहीं बदला गया है। शहरों और संस्थाओं के नाम बदलने की परम्परा काफी पुरानी है। अंग्रेजी हुकूमत और खासकर मुगलकाल में जनविरोध को दरकिनार कर जिस तरह से जर्बदस्ती शहरों के नाम बदलकर हिन्दुओं की धार्मिक भावनाएं आहत की गईं थी, उसकी कसक आज भी कहीं न कहीं लोगों के दिलो−दिमाग पर छाई हुई है। इसको लेकर लोगों के बीच दुश्मनी का भाव भी देखा जा सकता है। अयोध्या में भगवान राम की जन्मस्थली पर बाबरी मस्जिद का बनना और काशी में बाबा विश्वनाथ मंदिर के परिसर को बलात कब्जा कर उस पर ज्ञानवापी मस्जिद का निर्माण होना इस बात की गवाही देता है। ऐसा ही खिलवाड़ मथुरा में भगवान श्रीकृष्ण की जन्मस्थली के साथ किया गया था। समय−समय पर तमाम समाचार पत्रों और कई पुस्तकों में लोगों की आहत भावनाओं का वर्णन भी मिल जाता है।

 
अपने देश में राज्यों, शहरों, सड़कों, संस्थानों के नाम बदलने की परंपरा काफी पुरानी है। करीब दो वर्ष पूर्व हरियाणा के शहर गुड़गांव का नाम बदलकर गुरुग्राम कर दिया गया। योगी सरकार मुगलसराय रेलवे स्टेशन का नाम बदलकर पंडित दीनदयाल उपाध्याय जंक्शन पहले ही कर चुकी है। इलाहाबाद के बाद फैजाबाद का नाम भी बदलकर अयोध्या या साकेत नगर किये जाने की मांग उठने लगी है। नाम बदलाव का सरकारी तर्क यही रहता है कि ऐसे शहरों को उनके प्राचीन नाम वापस दिलाये जा रहे हैं। नाम बदलने का एजेंडा यूपी में नया नहीं है और इलाहाबाद का नाम प्रयागराज किए जाने के बाद कुछ और जिलों के नाम बदले जा सकते हैं। उत्तर प्रदेश में पिछले दो दशक में जिलों के नाम खूब बदले गये। खास बात यह कि बसपा सरकार में रखे गये जिलों के नाम समाजवादी पार्टी ने सत्ता में आते ही बदल दिए। इसको लेकर सपा−बसपा में खूब तीखी तकरार भी हुई थी, बताते चलें वर्ष 1992 में भाजपा गठबंधन की कल्याण सरकार ने इलाहाबाद का नाम प्रयागराज, अलीगढ़ का नाम हरिगढ़ व फैजाबाद का नाम साकेत करने की कोशिश की थी। माना जा रहा है कि फैजाबाद, कानपुर, लखनऊ, आजमगढ़ व अलीगढ़ के नाम भी आने वाले समय में बदले जा सकते हैं।
 
उत्तर प्रदेश की राजधानी और भगवान लक्ष्मण की नगरी जिसे आज लखनऊ के नाम से जाना जाता है, का भी नाम बदलने की भी मांग जोर पकड़ रही है। लखनऊ प्राचीन कौसल राज्य का हिस्सा था। यह भगवान राम की विरासत थी, जिसे उन्होंने अपने भाई लक्ष्मण को समर्पित कर दिया था। इसे लक्ष्मणावती, लक्ष्मणपुर या लखनपुर के नाम से जाना गया, जो बाद में बदल कर लखनऊ हो गया।

 
उत्तर प्रदेश भी पुराना नाम नहीं है। सन 1902 तक उत्तर प्रदेश को नॉर्थ वेस्ट प्रोविन्स के नाम से जाना जाता था। बाद में इसे नाम बदल कर यूनाइटिड प्रोविन्स ऑफ आगरा एण्ड अवध कर दिया गया। साधारण बोलचाल की भाषा में इसे यूनाइटेड प्रोविन्स या यूपी कहा गया। सन् 1820 में प्रदेश की राजधानी को इलाहाबाद से बदल कर लखनऊ कर दिया गया। प्रदेश का उच्च न्यायालय इलाहाबाद ही बना रहा और लखनऊ में उच्च न्यायालय की एक खंडपीठ स्थापित की गयी। स्वतन्त्रता के बाद 12 जनवरी सन् 1950 में इस क्षेत्र का नाम बदल कर उत्तर प्रदेश रख दिया गया और लखनऊ इसकी राजधानी बना। इस तरह यह अपने पूर्व लघुनाम यूपी से जुड़ा रहा।
 
इलाहाबाद का नाम बदले जाने पर भारतीय जनता पार्टी के प्रदेश प्रवक्ता जुगल किशोर ने कहा कि संगम नगरी का नाम प्रयागराज करने से देश का हर नागरिक खुश है। करोड़ों जनता की आस्था का सम्मान करते हुए योगी सरकार ने यह फैसला किया। उन्होंने कहा कि रामचरित मानस में भी संगम नगरी का नाम प्रयागराज उल्लेख किया गया है। मुगल शासकों द्वारा प्रयागराज का नाम बदलकर इलाहाबाद करना भारत की परम्परा और आस्था के साथ खिलवाड़ करना था।

 
बहरहाल, बात पिछली सरकारों की कि जाये तो उन्होंने जिले ही नहीं विश्वविद्यालय, पार्क तक के नाम बदले थे। लखनऊ के जनेश्वर मिश्र पार्क का नाम पहले अम्बेडकर उद्यान था। अखिलेश सरकार ने अम्बेडकर उद्यान का न केवल विस्तार किया बल्कि नाम भी बदल दिया। मायावती ने अपने अलग−अलग कार्यकाल में नए जिले बना कर उनका नाम दलित व पिछड़े वर्ग से जुड़े संतों−महापुरुषों के नाम पर रखे। मायावती ने मुख्यमंत्री रहते एटा से काट कर बनाए गए कासगंज जिले का नाम कांशीराम नगर कर दिया था। अमेठी को जिला बना कर उसे छत्रपति शाहू जी नगर किया गया। अमरोहा का नाम ज्योतिबा फुले नगर रखा गया। इसी तरह हाथरस का नाम महामाया नगर तो कई बार बदला। बसपा राज में ही कानपुर देहात का नाम रमाबाई नगर, संभल का नाम भीमनगर, शामली का नाम प्रबुद्धनगर व हापुड़ का नाम पंचशील नगर रखा गया। 2012 में अखिलेश यादव मुख्यमंत्री बने तो उन्होंने मायावती द्वारा बनाये गये जिले के साथ तो कोई छेड़छाड़ नहीं की लेकिन इन जिलों के पुराने नाम जरूर बहाल कर दिए। इस पर मायावती ने सख्त एतराज जताते हुए इसे दलित महापुरुषों का अपमान बताया था।
 
संस्थान और शहर तो दूर कई राज्यों तक के नाम बदलने की सियासत परवान चढ़ चुकी है। उनमें से कुछ का उल्लेख करना समीचीन होगा। इसी के चलते असम अब (आसाम), ओडिशा (उड़ीसा), पश्चिम बंग (वैस्ट बंगाल), पुदुच्चेरी (पांडुचेरी) हो गया। इसी प्रकार शहरों में कन्याकुमारी (केप कोमारिन), कोजीकोड (कालीकट), कोलकाता (कैलकटा/कलकत्ता), गुवाहाटी (गौहाटी), चेन्नै (मद्रास), तिरुअनंतपुरम (त्रिवेन्द्रम), पणजी (पंजिम), पुणे (पूना), बंगलूरु (बैंगलोर), मुम्बई (बॉम्बे), विशाखापत्तनम (वालटेयर), विजयपुर (बीजापुर) हो गया।
 
कांग्रेस के उत्तर प्रदेश अध्यक्ष राज बब्बर भी इलाहाबाद का नाम बदले जाने को लेकर योगी पर निशाना साध रहे हैं लेकिन कड़वी सच्चाई यह भी है कि स्वतंत्र भारत के इतिहास में कांग्रेस सरकारों की नीति भी कुछ अलग नहीं रही थी। कांग्रेस ने हर नयी संस्था, मार्ग, पुल, आदि का नाम यथासंभव प्रथम प्रधानमंत्री नेहरू एवं उनके वंशजों के नाम पर ही रखा, सरकारी योजनाओं के साथ भी यही किया गया। कभी दिल्ली के कनॉट सर्किल एवं कनॉट प्लेस को इंदिरा गांधी तथा राजीव गांधी के नाम पर नया नाम दिया गया था।
 
दरअसल, नाम बदलने का विचार राजनेताओं से शुरु होता है और जनभावनाओं के उभार के रूप में आगे बढ़ता है। अंग्रेजी विरासत के तौर पर जो नाम देश में प्रचलित हैं उनको देशज नामों से संबोधित किया जाए यह बात कहने−सुनने में अच्छी लगती है। परंतु इस कार्य में विसंगति भी बहुत हैं। जिस देश में कदम−कदम पर अंग्रेजियत पैर पसारे मिलती हो, जहां प्रायः सभी दस्तावेजी कार्य अंग्रेजी में किए जाते हों, जिस देश का संविधान अंग्रेजी में हो, उच्चतम न्यायालय का कार्य अंग्रेजी में होता हो, जहां अंग्रेजी स्कूलों की बाढ़ आ रही हो, देशज भाषाओं के विद्यालय बंद होने के कगार पर हों, वहां अंग्रेजी नामों को बदलने का औचित्य ही क्या है।  
     
यह देश है ही विचित्र। यदि नाम ही बदलना है तो सबसे पहले देश का नाम बदला जाना चाहिए। इस देश का नाम "भारत" होना चाहिए "इंडिया" नहीं। इंडिया नाम अंग्रेजों का दिया हुआ है न कि इस देश का मौलिक या प्राचीन नाम है। विष्णु पुराण तथा अन्य प्राचीन ग्रंथों में इस भूभाग को भारतवर्ष या भारत कहा गया है। तब हम इसे भारत क्यों नहीं कहते ? सब जगह इंडिया ही क्यों सुनने को मिलता है ? यहां तक कि हिन्दूवादी नेता और पीएम मोदी भी "स्किल इंडिया", "डिजिटल इंडिया", "मेक इन इंडिया", आदि−आदि की बात करते हैं जबकि उसमें इंडिया की जगह भारत दिखना चाहिए।
 
-अजय कुमार

 

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