संपादकीय

संपादकीय (272)

हिन्दी को कानून की भाषा बनाने का जो काम भारत में सबसे पहले होना चाहिए था, वह काम संयुक्त अरब अमीरात ने किया है, सर्वोच्च न्यायालय तो अभी भी अंग्रेजी में ही सारे काम-काज के लिये अड़ा हुआ है। वहां मुकदमों की बहस अंग्रेजी में ही होती है।

 

विश्व हिन्दी दिवस प्रति वर्ष 10 जनवरी को मनाया जाता है। इसका उद्देश्य विश्व में हिन्दी के प्रचार-प्रसार के लिये जागरूकता पैदा करना तथा हिन्दी को अन्तरराष्ट्रीय भाषा के रूप में पेश करना है। विश्व हिंदी दिवस पहली बार 10 जनवरी, 2006 को मनाया गया था। आज हिन्दी विश्व की सर्वाधिक प्रयोग की जाने वाली तीसरी भाषा है, विश्व में हिन्दी की प्रतिष्ठा एवं प्रयोग दिनोंदिन बढ़ता जा रहा है, लेकिन देश में उसकी उपेक्षा एक बड़ा प्रश्न है। सच्चाई तो यह है कि देश में हिंदी तथा अन्य भारतीय भाषाओं को जो सम्मान मिलना चाहिए, वह स्थान एवं सम्मान अंग्रेजी को मिल रहा है। अंग्रेजी और अन्य विदेशी भाषाओं की सहायता जरूर ली जाए लेकिन तकनीकी एवं कानून की पढ़ाई के माध्यम के तौर पर अंग्रेजी को प्रतिबंधित किया जाना चाहिए। आज भी भारतीय न्यायालयों में अंग्रेजी में ही कामकाज होना राष्ट्रीयता कमजोर कर रहा है। राष्ट्रीयता एवं राष्ट्रीय प्रतीकों की उपेक्षा एक ऐसा प्रदूषण है, एक ऐसा अंधेरा है जिससे ठीक उसी प्रकार लड़ना होगा जैसे एक नन्हा-सा दीपक गहन अंधेरे से लड़ता है। छोटी औकात, पर अंधेरे को पास नहीं आने देता। राष्ट्र-भाषा को लेकर छाई धुंध को मिटाने के लिये कुछ ऐसे ठोस कदम उठाने ही होंगे। 

कितने दुख की बात है कि आजादी के 74 साल बाद भी राजधानी दिल्ली सहित महानगरों में ही नहीं बल्कि हमारे दूर-दराज के जिलों में राज्य सरकारें अपना कामकाज अंग्रेजी में करती हैं। हिन्दी विश्व की एक प्राचीन, समृद्ध तथा महान भाषा होने के साथ ही हमारी राजभाषा भी है, यह हमारे अस्तित्व एवं अस्मिता की भी प्रतीक है, यह हमारी राष्ट्रीयता एवं संस्कृति की भी प्रतीक है। भारत की स्वतंत्रता के बाद 14 सितम्बर 1949 को संविधान सभा ने एक मत से यह निर्णय लिया कि हिन्दी ही भारत की राजभाषा होगी। इस महत्वपूर्ण निर्णय के बाद ही हिन्दी को हर क्षेत्र में प्रचारित-प्रसारित करने के लिए 1953 से सम्पूर्ण भारत में 14 सितम्बर को प्रतिवर्ष हिन्दी-दिवस के रूप में मनाया जाता है। राजभाषा बनने के बाद हिन्दी ने विभिन्न राज्यों के कामकाज में आपसी लोगों से सम्पर्क स्थापित करने का अभिनव कार्य किया है। लेकिन अंग्रेजी के वर्चस्व के कारण आज भी हिन्दी भाषा को वह स्थान प्राप्त नहीं है, जो होना चाहिए। विशेषतः अदालतों में आज भी अंग्रेजी का वर्चस्व कायम रहना, एक बड़ा प्रश्न है। देश की सभी निचली अदालतों में संपूर्ण कामकाज हिंदी व अन्य भारतीय भाषाओं में होता है, किंतु उच्च न्यायालयों और उच्चतम न्यायालय में यही काम केवल अंग्रेजी में होता है। यहां तक कि जो न्यायाधीश हिंदी व अन्य भारतीय भाषाएं जानते हैं वे भी अपीलीय मामलों की सुनवाई में दस्तावेजों का अंग्रेजी अनुवाद कराते हैं।

 

आमजन के लिए न्याय की भाषा कौन-सी हो, इसका सबक भारत और भारतीय न्यायालयों को अबू धाबी से लेने की जरूरत है। संयुक्त अरब अमीरात यानि दुबई और अबू धाबी ने ऐतिहासिक फैसला लेते हुए अरबी और अंग्रेजी के बाद हिंदी को अपनी अदालतों में तीसरी आधिकारिक भाषा के रूप में शामिल कर लिया है। इसका मकसद हिंदी भाषी लोगों को मुकदमे की प्रक्रिया, उनके अधिकारों और कर्तव्यों के बारे में सीखने में मदद करना है। न्याय तक पहुंच बढ़ाने के लिहाज से यह कदम उठाया गया है। अमीरात की जनसंख्या 90 लाख है। उसमें 26 लाख भारतीय हैं, इन भारतीयों में कई पढ़े-लिखे और धनाढ्य लोग भी हैं लेकिन ज्यादातर मजदूर और कम पढ़े-लिखे लोग हैं। इन लोगों के लिए अरबी और अंग्रेजी के सहारे न्याय पाना बड़ा मुश्किल होता है। इन्हें पता ही नहीं चलता कि अदालत में वकील क्या बहस कर रहे हैं और जजों ने जो फैसला दिया है, उसके तथ्य और तर्क क्या हैं? ज्वलंत प्रश्न है कि विदेशों में बसे भारतीयों की इस तकलीफ का ध्यान रखने का निर्णय लिया गया है तो भारत में ऐसे निर्णय क्यों नहीं लिये जाते? प्रश्न यह भी है कि विदेशों में ही क्यों बढ़ रही है हिन्दी की ताकत? झकझोरने वाला प्रश्न यह भी है कि राष्ट्र भाषा हिन्दी को आजादी के 72 वर्ष बीत जाने पर भी अपने ही देश में क्यों घोर उपेक्षा का सामना करना पड़ रहा है? हिन्दी की उपेक्षा राष्ट्रीय शर्म का विषय है, जबकि विश्व में हिन्दी की ताकत बढ़ रही है। भारत सरकार के प्रयत्नों से हिन्दी को विश्वस्तर पर प्रतिष्ठापित किया जा रहा है, यह सराहनीय बात है। लेकिन भारत में उसकी उपेक्षा कब तक होती रहेगी, यह प्रश्न भी सरकार एवं आमजन के लिये सोचनीय होना चाहिए।

 

हिन्दी को कानून की भाषा बनाने का जो काम भारत में सबसे पहले होना चाहिए था, वह काम संयुक्त अरब अमीरात ने किया है, सर्वोच्च न्यायालय तो अभी भी अंग्रेजी में ही सारे काम-काज के लिये अड़ा हुआ है। वहां मुकदमों की बहस अंग्रेजी में ही होती है। जहां बहस ‘अंग्रेजी’ में होती है, वहां फैसले भी अंग्रेजी में ही आते हैं। अभी सुना है कि उनके हिंदी अनुवाद की बात चल रही है। बात केवल कानून के सर्वोच्च संस्थान की ही नहीं है, बल्कि समस्त सरकारी कामकाज भी अंग्रेजी में ही होता है, उच्च शिक्षा भी अंग्रेजी में ही दी जा रही है, यहां तक प्राथमिक-माध्यमिक शिक्षा में भी अंग्रेजी का ही बोलबाला है, कैसे हम अपनी भाषा को प्राथमिकता देंगे? कब भारत के भाग्य निर्माता हिन्दी को जनभाषा, राजकाज की भाषा एवं कानून की भाषा का दर्जा देकर बधाई के पात्र बनेंगे? भारत एक है, संविधान एक है। लोकसभा एक है। सेना एक है। मुद्रा एक है। राष्ट्रीय ध्वज एक है। लेकिन इन सबके अतिरिक्त बहुत कुछ और है जो भी एक होना चाहिए। बात चाहे राष्ट्र भाषा की हो या राष्ट्र गान या राष्ट्र गीत- इन सबको भी समूचे राष्ट्र में सम्मान एवं स्वीकार्यता मिलनी चाहिए। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और उनकी सरकार को चाहिए कि वह ऐसे आदेश जारी करे जिससे सरकार के सारे अंदरूनी काम-काज भी हिन्दी में होने लगें और अंग्रेजी से मुक्ति की दिशा सुनिश्चित हो जाये। अगर ऐसा होता है तो यह राष्ट्रीयता को सुदृढ़ करने की दिशा में एक अनुकरणीय एवं सराहनीय पहल होगी। ऐसा होने से महात्मा गांधी, गुरु गोलवलकर और डॉ. राममनोहर लोहिया का सपना साकार हो सकेगा।

दुनिया में जितने भी देश महाशक्ति के दर्जे में आते हैं, उनकी अदालतों में मातृभाषा चलती है। यूरोपीय देशों में जैसे-जैसे शिक्षा व संपन्नता बढ़ी, वैसे-वैसे राष्ट्रीय स्वाभिमान प्रखर होता चला गया। रूस, चीन, जापान, वियतनाम और क्यूबा में भी मातृभाषाओं का प्रयोग होता है। लेकिन भारत और भारतीय अदालतें कोई सबक या प्रेरणा लिए बिना अंग्रेजी को स्वतंत्रता के 74 साल बाद भी ढोती चली आ रही हैं। अदालतों को अब इस भाषायी रंगभेद की दासता से मुक्त होने की जरूरत है। नेता हो या जनता- हिन्दी की यह दुर्दशा एवं उपेक्षा सोचनीय है। अत्यन्त सोचनीय है। खतरे की स्थिति तक सोचनीय है कि आज का तथाकथित नेतृत्व दोहरे चरित्र वाला, दोहरे मापदण्ड वाला बना हुआ है। उसने कई मुखौटे एकत्रित कर रखे हैं और अपनी सुविधा के मुताबिक बदल लेता है, यह भयानक स्थिति है। इसी कारण हिन्दी को आज भी दोयम दर्जा हासिल है।

 

हिन्दी को उसका गौरवपूर्ण स्थान दिलाने के लिये नरेन्द्र मोदी एवं पूर्व प्रधानमंत्री अटल विहारी वाजपेयी के प्रयत्नों को राष्ट्र सदा स्मरणीय रखेगा। क्योंकि प्रधानमंत्री मोदी ने सितंबर 2014 में संयुक्त राष्ट्र महासभा में हिंदी में भाषण देकर न केवल हिन्दी को गौरवान्वित किया बल्कि देश के हर नागरिक का सीना चौड़ा किया। भारत और अन्य देशों में 70 करोड़ से अधिक लोग हिन्दी बोलते, पढ़ते और लिखते हैं। पाकिस्तान की तो अधिकांश आबादी हिंदी बोलती व समझती है। बांग्लादेश, नेपाल, भूटान, तिब्बत, म्यांमार, अफगानिस्तान में भी लाखों लोग हिंदी बोलते और समझते हैं। फिजी, सूरीनाम, गुयाना, त्रिनिदाद जैसे देश तो हिंदी भाषियों द्वारा ही बसाए गये हैं। हिन्दी का हर दृष्टि से इतना महत्व होते हुए भी भारत में प्रत्येक स्तर पर इसकी इतनी उपेक्षा क्यों? शेक्सपीयर ने कहा था- ‘दुर्बलता! तेरा नाम स्त्री है।’ पर आज शेक्सपीयर होता तो आम भारतीय एवं सरकारों के द्वारा हो रही हिन्दी की उपेक्षा के परिप्रेक्ष्य में कहता- ‘दुर्बलता! तेरा नाम भारतीय जनता एवं शासन व्यवस्था है।’ क्योंकि दुनिया में हिन्दी का वर्चस्व बढ़ रहा है, लेकिन हमारे देश में ऐसा नहीं होना, इन्हीं विरोधाभासी एवं विडम्बनापूर्ण परिस्थितियों को ही दर्शाता है।

 

-ललित गर्ग

(लेखक, पत्रकार, स्तंभकार)

पिछले लम्बे दौर से प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के राजनीतिक दर्शन, उनके व्यक्तित्व, उनकी बढ़ती ख्याति, उनकी कार्य-पद्धतियों एवं उनकी सफलता के विजय रथ को अवरुद्ध करने के लिये कांग्रेस द्वारा जिस तरह के हथकंड़े अपनाये जा रहे हैं, वह राजनीतिक मूल्यों एवं मर्यादाओं के खिलाफ है।

 

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के पंजाब दौरे के दौरान वहां की कांग्रेस सरकार द्वारा जो घोर उपेक्षा, गंभीर लापरवाही एवं असुरक्षा की गयी, वह कांग्रेस की राजनीति का एक कालापृष्ठ है। नरेन्द्र मोदी भारत के प्रधानमंत्री ही नहीं दुनिया के महानायक हैं। उनका काफिला अगर किसी फ्लाईओवर पर 15-20 मिनट के लिए रुक जाए, तो यह न सिर्फ चिंता की बात, बल्कि गंभीर लापरवाही का प्रदर्शन है। यह मामला प्रधानमंत्री की महज सुरक्षा में लापरवाही का नहीं, बल्कि घातक अनदेखी का मामला है। इसलिए और भी, क्योंकि यह सब पंजाब के उस सीमावर्ती इलाके में हुआ, जहां आतंकवादी गतिविधियों का भय हर समय बना रहता है। ऐसे इलाके में तो प्रधानमंत्री की सुरक्षा के कहीं अधिक पुख्ता उपाय किए जाने चाहिए थे। ऐसे उपाय करने में कैसी भयंकर कोताही बरती गयी, यह पंजाब के अफसरों से प्रधानमंत्री के इस कटाक्ष से स्पष्ट होता है कि अपने सीएम को धन्यवाद कहना कि मैं जिंदा लौट आया। इस मामले में पंजाब सरकार अपनी जवाबदेही से बच नहीं सकती, न ही उसे बच निकलने का अवसर दिया जाना चाहिए। 

इससे शर्मनाक और कुछ नहीं हो सकता कि अचानक धक्कामुक्की और प्रदर्शनकारियों के कारण प्रधानमंत्री का काफिला न केवल अटका रहे, बल्कि उसे वापस लौटने के लिए भी विवश होना पड़े। दुर्भाग्यवश पंजाब में ऐसा ही हुआ। यह इसलिए हुआ, क्योंकि प्रधानमंत्री का काफिला किस रास्ते से गुजरना है यह गोपनीय जानकारी प्रदर्शनकारियों तक पहुंचाई गई। आखिर यह गोपनीय सूचना किसने लीक की? इस सवाल के जवाब में यदि पंजाब पुलिस के साथ-साथ राज्य सरकार भी कठघरे में खड़ी दिख रही है तो इसके लिए वही जिम्मेदार है, क्योंकि खराब मौसम के कारण यह अंतिम क्षणों में तय हुआ था कि पंजाब के दौरे पर गए प्रधानमंत्री बठिंडा से हुसैनीवाला स्थित राष्ट्रीय शहीद स्मारक वायुमार्ग के बजाय सड़क मार्ग से जाएंगे। न केवल इसकी गहन जांच होनी चाहिए कि यह जानकारी प्रदर्शनकारियों तक कैसे पहुंची कि प्रधानमंत्री अमुक रास्ते से गुजरने वाले हैं, बल्कि उन कारणों की तह तक भी जाना चाहिए जिनके चलते वैकल्पिक रास्ते की व्यवस्था नहीं की जा सकी। प्रधानमंत्री की सुरक्षा से खिलवाड़ के लिए जिम्मेदार लोगों को जवाबदेह ठहरा कर उदाहरण पेश करने की जरूरत है। पंजाब सरकार के लापरवाह रवैये को देखते हुए केंद्र सरकार को यह सुनिश्चित करना होगा कि दोषी लोग बचने न पाएं।

 

पिछले लम्बे दौर से प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के राजनीतिक दर्शन, उनके व्यक्तित्व, उनकी बढ़ती ख्याति, उनकी कार्य-पद्धतियों एवं उनकी सफलता के विजय रथ को अवरुद्ध करने के लिये कांग्रेस द्वारा जिस तरह के हथकंड़े अपनाये जा रहे हैं, वह राजनीतिक मूल्यों एवं मर्यादाओं के खिलाफ है। मोदी पर कीचड़ उछालना, अमर्यादित भाषा का उपयोग करना, उन्हें गालियां देना आम बात हो गयी है, लेकिन उनकी जीवन-सुरक्षा को नजरअंदाज करना बेहद शर्मनाक है। इस निन्दनीय एवं पागलपन की घटना के उपरांत इसे सही ठहराने की कांग्रेस की कोशिश कोई नई बात नहीं है। आए दिन कोई-न-कोई कांग्रेस नेता प्रधानमंत्री मोदी के लिए अपशब्द कहता ही रहता है। पंजाब की ताजा घटना के बाद कांग्रेस पार्टी की न केवल फजीहत हो रही है, बल्कि यह उसकी बौखलाहट को दर्शा रही है। स्वयं पंजाब के पूर्व कांग्रेस अध्यक्ष सुनील जाखड़ ने इस घटना पर अफसोस जताते हुए कहा है कि जो हुआ, वह स्वीकार्य नहीं है और यह पंजाबियत के खिलाफ है।

 

प्रोटोकोल के अनुसार प्रधानमंत्री की अगवानी करने के लिए राज्य के मुख्यमंत्री सहित प्रमुख अधिकारी पहुंचने चाहिए। लेकिन वे नहीं पहुंचें और वह भी तब जब उनके वाहन वहां पहुंच गए थे। भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा का यह आरोप और भी गंभीर है कि मुख्यमंत्री चरणजीत सिंह चन्नी ने फोन तक नहीं उठाया। यह बेहद लज्जा की बात है कि जब प्रधानमंत्री की सुरक्षा से खिलवाड़ पर पंजाब सरकार सवालों के घेरे में है तब कुछ कांग्रेसी नेताओं को मसखरी सूझ रही है। इससे यही पता चलता है कि अंधविरोध की राजनीति किस तरह नफरत में तब्दील हो चुकी है। चन्नी जैसे लोग सत्ता के शीर्ष पर बैठकर यदि इस तरह जनतंत्र के आदर्शों को भुला रहे हैं तो इससे वहां लोकतंत्र के आदर्शों की रक्षा नहीं हो सकती। राजनैतिक लोगों से महात्मा बनने की आशा नहीं की जा सकती, पर वे अशालीनता एवं अमर्यादा पर उतर आये, यह ठीक नहीं है।

 

मूल्यहीन एवं अराजक राजनीति के कारण प्रधानमंत्री की सुरक्षा की अनदेखी की गई हो। सच्चाई जो भी हो यह किसी से छिपा नहीं कि कृषि कानून विरोधी आंदोलन के दौरान पंजाब के किसानों के मन में प्रधानमंत्री के खिलाफ किस तरह जहर घोला गया। कांग्रेस पार्टी एवं उसकी सरकार का गैरजिम्मेदाराना व्यवहार आपत्तिजनक ही नहीं राजनीतिक मूल्यों एवं लोकतांत्रिक आदर्शों से शून्य है। यह घटना भाजपा या प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का विरोध है, इस कारण से वह आपत्तिजनक है, ऐसी बात नहीं है। क्योंकि भाजपा और नरेन्द्र मोदी का विरोध कोई नई बात नहीं है। कांग्रेस के द्वारा मोदी के विरोध में स्तरहीन आलोचना होती रहती है। यह कांग्रेस की बौखलाहट ही है एवं विरोधी चेतना की मुखरता ही है कि प्रधानमंत्री के जीवन को खतरे में डालने का दुस्साहस कर दिया।

विरोध के लिये विरोध करना और जो जी में आये सारे मूल्यों एवं आदर्शों को ताक पर रखकर करना कांग्रेस का धर्म बन गया है। क्या कांग्रेस के विरोध का प्रतिवाद किया जाये? किन्तु जब कांग्रेस ने सारी मर्यादाओं एवं राजनीतिक मूल्यों को नजरअंदाज कर मोदी की बढ़ती लोकप्रियता को कुचलने एवं उनकी जीवन-रक्षा पर सीधा आक्रमण कर दिया तो उसका उत्तर देना भी अपरिहार्य हो गया है, कांग्रेस की गलती को साधारण नहीं माना जा सकता। मेरी समझ में मोदी ने राजनीतिक मूल्यों को ही नहीं बल्कि भारत के गौरव को जितना मुखर किया है, उतना किसी भी पूर्व प्रधानमंत्री या राजनीतिक दल ने नहीं किया। मोदी न केवल भारत बल्कि दुनिया की एक शीर्ष हस्ती हैं। मोदी ने अपना ही नहीं, भारत का कद दुनिया में बढ़ाया है। जो व्यापकता एवं राष्ट्रीय निष्ठा उनमें है, क्या इस तुलना में किसी दूसरे को उपस्थित किया जा सकता है? मोदी की इतनी व्यापकता, उपयोगिता और लोकप्रियता में भी कांग्रेस को कोई अच्छाई नजर नहीं आती, यह देखने का अपना-अपना नजरिया है। पंजाब में भी मोदी अनेक लोककल्याणकारी योजनाओं की घोषणा करने वाले थे। लेकिन लगता है कांग्रेस गुमराह है, मूल्यहीन हो गयी है, इस निराशावादी दृष्टिकोण से मोदी की बढ़ती साख एवं लोकप्रियता को बाधित करने का यह पागलपन है, जिसने प्रधानमंत्री पद की गरिमा को सीधा कुचलने का एवं सफलता के लगातार बढ़ते रथ को रोकने का गैर-जिम्मेदाराना कृत किया है।

 

प्रधानमंत्री की सुरक्षा तो विशेष रूप से सुनिश्चित होनी चाहिए, लेकिन पंजाब में यह शायद सरकार के स्तर पर हुई बड़ी चूक है। केंद्रीय गृह मंत्रालय ने पंजाब सरकार से रिपोर्ट मांगी है। पंजाब सरकार को इस चूक की तह में जाना चाहिए। अगर यह चूक प्रशासन के स्तर पर हुई है, तो ऐसे लापरवाह अधिकारियों के लिए सेवा में कोई जगह नहीं होनी चाहिए और यदि इसके पीछे कोई राजनीति है, तो इससे घृणित कुछ नहीं हो सकता। प्रदर्शनकारियों को पता था कि प्रधानमंत्री का काफिला गुजरने वाला है, लेकिन क्या यह बात सुरक्षा अधिकारियों को नहीं पता थी कि प्रधानमंत्री का रास्ता प्रदर्शनकारी रोकने वाले हैं? यह बात कतई छिपी नहीं है कि हम एक ऐसे देश में रहते हैं, जहां दुश्मन तत्वों की सक्रियता अक्सर सामने आती रहती है। ऐसे तत्वों के साथ अपराधी तत्वों के घालमेल ने हमें पहले भी बड़े संकट दिये हैं। बेशक, इस देश के लोगों को प्रधानमंत्री से कुछ मांगने का पूरा हक है, लेकिन उनका रास्ता रोकने की हिमाकत किसी अपराध से कम नहीं है। क्या कांग्रेस पार्टी ने अपने ही दो प्रधानमंत्रियों को खोकर कुछ सीखा है? दिल्ली की सीमाओं पर महीनों तक बैठने और पंजाब में सीधे प्रधानमंत्री का रास्ता रोकने के बीच जमीन-आकाश का फासला है। चुनाव का समय हो या सामान्य कार्य के दिवस, मोदी ने कम गालियां नहीं खाईं, अनेक अवरोध झेले हैं। उनके विचारों को, कार्यक्रमों को, देश के लिये कुछ नया करने के संकल्प को बार-बार मारा जा रहा है।

 

कांग्रेसी मानसिकता बोटी-बोटी कर सकती है, वह गाली दे भी दे सकती है, लेकिन जीवन-रक्षा को ही खतरे में डाले, यह अक्षम्य अपराध है। लेकिन नरेन्द्र मोदी भारत की आजादी के बाद बनी सरकारों के अकेले ऐसे प्रधानमंत्री हैं जिन्हें कोई गोली, कोई अवरोध या गाली नहीं मार सकती। क्योंकि मोदी की राजनीति व धर्म का आधार सत्ता नहीं, सेवा है। जनता को भयमुक्त व वास्तविक आजादी दिलाना उनका लक्ष्य है। वे सम्पूर्ण भारतीयता की अमर धरोहर हैं।

 

-ललित गर्ग

पाँच राज्यों में अब चूँकि चुनावी बिसात बिछ चुकी है इसलिए पल-पल राजनीतिक घटनाक्रम बदलता रहेगा। देखना होगा कि इन पाँच में से चार राज्यों में सत्तारुढ़ भाजपा क्या फिर से चारों राज्यों की सत्ता हासिल कर पाती है और क्या वाकई पंजाब में प्रभावी उपस्थिति दर्ज करा पाती है।

 

पाँच राज्यों में विधानसभा चुनावों की तारीखों का ऐलान हो चुका है और इसके साथ ही अब चुनावी मैदान सज गया है। देखना होगा कि किस-किस दल से कौन-कौन-से राजनीतिक महारथी चुनावी मुकाबले में उतरते हैं। माना जा रहा है कि मकर संक्रांति के बाद भाजपा सहित अन्य पार्टियों के उम्मीदवारों की पूरी सूची आ जायेगी। हालांकि आम आदमी पार्टी समेत कुछ और क्षेत्रीय दल हैं जो पिछले कुछ समय से एक-एक कर अपने उम्मीदवारों की सूची घोषित करने का सिलसिला बनाये हुए हैं। लेकिन अब जब चुनावों का ऐलान हो चुका है तो देखना यह होगा कि कौन-कौन-सी पार्टियां अपने कितने विधायकों का टिकट काटती हैं और जाहिर-सी बात है कि जिनके टिकट कटेंगे वह पाला बदल कर दूसरे दल के उम्मीदवार के रूप में नजर आयेंगे। यह भी देखना होगा कि इस बार चुनावों में उम्मीदवार के रूप में फिल्म, खेल या बिजनेस क्षेत्र की कौन-कौन-सी हस्तियां उतरती हैं।

यूपी का चुनावी परिदृश्य

 

विधानसभा चुनावों के मुद्दों की बात करें तो उत्तर प्रदेश में स्पष्ट रूप से नजर आ रहा है कि भाजपा जहां योगी और मोदी सरकार की उपलब्धियों और डबल इंजन वाली सरकार के फायदे गिना रही है और एक साफ और कठोर निर्णय करने वाले मुख्यमंत्री की छवि रखने वाले योगी आदित्यनाथ के नाम पर वोट मांग रही है तो वहीं सत्ता में आने को आतुर दिख रही समाजवादी पार्टी यह दावा कर रही है कि योगी सरकार जिन कामों को गिना रही है उन्हें सपा सरकार ने ही शुरू किया था। सपा का यह भी आरोप है कि पिछले पांच साल में बेरोजगारी, महंगाई और भ्रष्टाचार बढ़ा है और किसानों को उनकी उपज का सही दाम इस सरकार के कार्यकाल में नहीं मिल पा रहा है। जहां तक बसपा की बात है तो वह भी सपा और भाजपा दोनों पर ही आरोप लगाकर अपने शासनकाल की उपलब्धियां याद दिला कर वोट मांग रही है। कांग्रेस और आम आदमी पार्टी ने तो वादों का पिटारा ही खोल दिया है। इन दोनों पार्टियों के वादों पर तो उत्तर प्रदेश में खूब हंसी-ठिठोली भी चल रही है। बाकी अन्य क्षेत्रीय दल किसी ना किसी गठबंधन के तहत अपनी-अपनी चुनावी संभावनाएं बेहतर करने में लगे हुए हैं। सभी पार्टियों ने अपने घोषणापत्रों को अंतिम रूप देना भी शुरू कर दिया है। देखना होगा कि उम्मीदवारों की सूची आने के बाद जब पार्टियां अपना घोषणापत्र लाएंगी तो उसमें क्या बड़े-बड़े वादे होंगे। फिलहाल अगर मुख्य मुकाबले की बात करें तो यहां भाजपा के नेतृत्व वाले गठबंधन और समाजवादी पार्टी के नेतृत्व वाले गठबंधन के बीच ही टक्कर नजर आ रही है। यह चुनाव जितना योगी आदित्यनाथ के लिए चुनौतीपूर्ण है उतना ही अखिलेश यादव के लिए भी हैं क्योंकि यदि योगी दोबारा जीते तो सत्ता में वापसी करने वाले मुख्यमंत्री के रूप में इतिहास रचने के साथ ही भाजपा के शीर्ष नेताओं में शुमार हो जायेंगे वहीं अगर अखिलेश यादव फिर से यह चुनाव हारे तो समाजवादी परिवार में बगावत होना तय है।

 

उत्तराखण्ड का चुनावी परिदृश्य

 

बात उत्तराखण्ड की करें तो यहां मुख्य मुकाबला भाजपा और कांग्रेस के बीच ही नजर आ रहा है लेकिन आम आदमी पार्टी भी अपनी उपस्थिति दर्ज कराने के लिए जीतोड़ प्रयास कर रही है। यहां भाजपा ने स्थिर सरकार तो दी लेकिन पांच साल में तीन मुख्यमंत्री बदल दिये। हालांकि अब जो पुष्कर सिंह धामी मुख्यमंत्री बनाये गये हैं उनकी कर्मठ और साफ छवि का फायदा भाजपा को मिल सकता है। भाजपा यहां बढ़त में इसलिए भी नजर आ रही है क्योंकि कांग्रेस यहां काफी गुटों में बंटी दिखाई दे रही है। कांग्रेस नेता हरीश रावत चाहते हैं कि पार्टी उन्हें मुख्यमंत्री उम्मीदवार बनाकर चुनाव लड़े लेकिन पार्टी के अन्य नेता इस बात के खिलाफ हैं। टिकटों को लेकर भी कांग्रेस के भीतर जो झगड़ा नजर आ रहा है वह ऐन चुनावों के समय पार्टी की मुश्किलें बढ़ा सकता है। पिछले कुछ समय से उत्तराखण्ड में दल बदल का खेल चल रहा है लेकिन अब इसके और तेज होने की उम्मीद है। भाजपा यहां पांच साल की अपनी उपलब्धियों और केंद्र सरकार की ओर से मिली विकास परियोजनाओं के नाम पर वोट मांग रही है तो कांग्रेस राज्य सरकार की नाकामियां गिनाते हुए अपने को वोट देने की अपील कर रही है। वहीं आम आदमी पार्टी का कहना है कि जनता ने भाजपा और कांग्रेस को देख लिया इसलिए अब उसको मौका दिया जाना चाहिए।

पंजाब का चुनावी परिदृश्य

 

बात पंजाब की करें तो यहां का चुनाव इस बार बेहद दिलचस्प है। यहां कांग्रेस सत्तारुढ़ तो है लेकिन उसके तमाम गुट आपस में ही एक दूसरे की टांग खींचने में लगे हुए हैं। चरणजीत सिंह चन्नी चाहते हैं कि उन्हें ही मुख्यमंत्री उम्मीदवार के रूप में घोषित कर चुनाव लड़ाया जाये तो नवजोत सिंह सिद्धू की चाहत खुद मुख्यमंत्री बनने की है। सुनील जाखड़ समेत अन्य कई कांग्रेस नेता भी यह पद पाने का सपना संजोये हैं इसलिए टिकटों के बंटवारे के समय कांग्रेस में जबरदस्त घमासान देखने को मिल सकता है। पूर्व मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह अपनी अलग पार्टी बनाकर भाजपा के साथ चुनाव लड़ रहे हैं तो कई किसान संगठन भी अपना मोर्चा बनाकर चुनाव मैदान में हैं। शिरोमणि अकाली दल भाजपा का साथ छोड़कर इस बार बहुजन समाज पार्टी के साथ मिलकर चुनाव लड़ रही है। आम आदमी पार्टी भी पहले से बेहतर संगठन और अच्छी रणनीति के साथ मैदान में है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के हालिया पंजाब दौरे के दौरान उनकी सुरक्षा में हुई चूक के चलते शहरी क्षेत्रों में भाजपा के पक्ष में सहानुभूति का भी माहौल है। चुनावी मुद्दों की बात करें तो इस बार के चुनाव में कौन कितना क्या फ्री दे सकता है इसकी सर्वाधिक गूँज है। किसानों से जुड़े मुद्दे भी प्रमुख हैं। देखना होगा कि जनता आखिर स्पष्ट बहुमत वाली सरकार चुनती है या फिर राज्य में त्रिशंकु विधानसभा बनती है।

 

गोवा का चुनावी परिदृश्य

 

जहां तक गोवा की बात है तो इस छोटे से राज्य की सत्ता हासिल करने के लिए अन्य राज्यों की आधा दर्जन पार्टियां यहाँ पहुँच चुकी हैं। गोवा में मुख्य मुकाबला वैसे तो भाजपा के नेतृत्व वाले गठबंधन और कांग्रेस के नेतृत्व वाले गठबंधन के बीच ही है लेकिन मैदान में आम आदमी पार्टी और तृणमूल कांग्रेस भी ताल ठोंक रही हैं। इस बार के चुनावों में यहां कई नेता पुत्रों की फौज भी देखने को मिल सकती है क्योंकि बताया जा रहा है कि भाजपा और कांग्रेस के कई वरिष्ठ नेता अपने-अपने पुत्रों को टिकट दिलाने की जुगत में लगे हुए हैं। तृणमूल कांग्रेस और आम आदमी पार्टी की नजर ऐसे लोगों पर बनी हुई है जिन्हें भाजपा या कांग्रेस से उम्मीदवारी नहीं मिले तो वह उनके पाले में आ सकें। यहां चुनावी मुद्दों की बात करें तो भाजपा अपने विकास कार्यों को गिना रही है तो कांग्रेस समेत अन्य पार्टियां कोरोना की दूसरी लहर के दौरान राज्य सरकार की कथित नाकामियों, भ्रष्टाचार, महंगाई, खनन आदि को मुद्दा बना रही हैं। लेकिन फिर भी भाजपा को उम्मीद है कि साफ छवि वाले मुख्यमंत्री प्रमोद सावंत उसे सत्ता में वापिस ले आयेंगे। हम आपको याद दिला दें कि गोवा में भाजपा को पिछली बार भी सत्ता नहीं मिली थी और वह दूसरे नंबर की सबसे बड़ी पार्टी बनी थी लेकिन उसके बावजूद उसने जोड़तोड़ कर सरकार बना ली। यदि इस बार भी ऐसा ही हो जाये तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी।

मणिपुर का चुनावी परिदृश्य

 

मणिपुर की बात करें तो पिछले पांच साल में यह प्रदेश अपेक्षाकृत शांत रहा और इसे विकास की कई परियोजनाएं मिली हैं। यहां भाजपा की पहली सरकार है और उसका यह कहना है कि उसे अभी काम पूरे करके दिखाने के लिए और समय चाहिए इसीलिए यहां उसके खिलाफ कोई नकारात्मक माहौल नजर नहीं आ रहा है। कांग्रेस के कई नेताओं ने जिस तरह हाल ही में पाला बदला है उससे ऐन चुनावों से पहले पार्टी की स्थिति कमजोर हुई है। मणिपुर में भाजपा अपने सहयोगी दलों को साथ रखने और नये लोगों को साथ जोड़ने में कामयाब हुई है इसलिए फिलहाल उसका पलड़ा भारी नजर आ रहा है। लेकिन हाल में एकाध उग्रवादी घटनाओं और नगालैंड की घटना को देखते हुए कुछ नाराजगी भी दिख रही है। देखना होगा कि भाजपा यह नाराजगी कैसे दूर कर पाती है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपने हालिया दौरे के दौरान राज्य को विकास की कई सौगातें देकर गये हैं जिसका भाजपा को फायदा हो सकता है। कांग्रेस नेताओं ने वादा किया है कि यदि उनकी सरकार बनती है तो कैबिनेट की पहली बैठक में पूरे मणिपुर से अफ्स्पा हटाया जायेगा। देखना होगा कि इस वादे का कितना असर जनता पर होता है।

 

बहरहाल, पाँच राज्यों में अब चूँकि चुनावी बिसात बिछ चुकी है इसलिए पल-पल राजनीतिक घटनाक्रम बदलता रहेगा। देखना होगा कि इन पाँच में से चार राज्यों में सत्तारुढ़ भाजपा क्या फिर से चारों राज्यों की सत्ता हासिल कर पाती है और क्या वाकई पंजाब में प्रभावी उपस्थिति दर्ज करा पाती है। जहां तक कांग्रेस की बात है तो यदि उसने पंजाब की सत्ता खो दी तो गांधी परिवार के खिलाफ जी-23 ग्रुप फिर से खुलकर सामने आ सकता है। इसमें भी कोई दो राय नहीं कि यह चुनाव परिणाम 2024 में होने वाले लोकसभा चुनावों की भी दशा-दिशा तय करेंगे।

 

-नीरज कुमार दुबे

प्रधानमंत्री की सुरक्षा में हुई चूक के सवालों पर ही जवाब देते हुए नीरज दुबे ने यह भी कहा कि अब तो मामला सुप्रीम कोर्ट में है और जिस तरीके से एनआईए को इसमें जांच में शामिल करने को कहा गया है, वाकई इसके तार आतंकवाद से भी जोड़कर देखे जाएंगे।

 

पंजाब में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सुरक्षा में हुई चूक का मामला इस सप्ताह पूरा गर्म रहा। प्रधानमंत्री की सुरक्षा में हुई चूक को लेकर पंजाब की कांग्रेस सरकार को जमकर आलोचनाओं का सामना करना पड़ा। भाजपा लगातार कांग्रेस आलाकमान पर भी हमलावर है। लेकिन सबसे बड़ा सवाल तो यही उठता है कि आखिर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सुरक्षा में इतनी बड़ी चूक क्यों हो गई। प्रभासाक्षी के सप्ताहिक कार्यक्रम चाय पर समीक्षा में भी हमने इसी को लेकर चर्चा की। हमेशा की तरह प्रभासाक्षी के खास कार्यक्रम चाय पर समीक्षा में संपादक नीरज कुमार दुबे मौजूद रहे। प्रधानमंत्री मोदी की सुरक्षा में हुई चूक को लेकर नीरज दुबे ने साफ तौर पर कहा कि कहीं ना कहीं पंजाब सरकार और स्थानीय पुलिस की लापरवाही साफ तौर पर इसमें दिखाई पड़ रही है। उन्होंने कहा कि प्रधानमंत्री की सुरक्षा में हुई चूक को लेकर जितने भी सवाल उठ रहे हैं उसमें सबसे ज्यादा जवाबदेही पंजाब सरकार की ही है।

नीरज दुबे ने इस बात को स्वीकार किया कि वर्तमान में देखे तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सिर्फ भारत के ही प्रधानमंत्री नहीं बल्कि एक वैश्विक नेता के तौर पर उभर चुके हैं। भारत के प्रधानमंत्री की सुरक्षा में हुई चूक को लेकर जिस तरह से कांग्रेस के कुछ नेताओं ने अपनी प्रतिक्रिया दी है उससे तो यही लगता है कि उनके मन में फिलहाल इस संवैधानिक संस्थान का कोई महत्व नहीं रह गया है। उन्होंने कहा कि कांग्रेस को यह समझना चाहिए कि आप मोदी से नफरत कर सकते हैं परंतु प्रधानमंत्री की गरिमा का ख्याल रखना आपकी भी उतनी ही जिम्मेदारी है जितनी एक बीजेपी समर्थक की है क्योंकि वह देश के प्रधानमंत्री हैं और देश में हम सभी रहते हैं। दुबे ने इस बात को भी रखा कि प्रधानमंत्री के नेतृत्व में भारत में फिलहाल स्थिर सरकार है। भारत अस्थिरता के दौर से बाहर निकल चुका है और हम फैसलों पर भी देखें तो ऐसा लगता है कि काफी मजबूत सरकार देश में है।

 

प्रधानमंत्री की सुरक्षा में हुई चूक के सवालों पर ही जवाब देते हुए नीरज दुबे ने यह भी कहा कि अब तो मामला सुप्रीम कोर्ट में है और जिस तरीके से एनआईए को इसमें जांच में शामिल करने को कहा गया है, वाकई इसके तार आतंकवाद से भी जोड़कर देखे जाएंगे। क्योंकि जिस जगह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ क्या घटना हुई है वहां से पाकिस्तान कुछ ही किलोमीटर की दूरी पर है। दुबे ने कहा कि प्रधानमंत्री की सुरक्षा में चूक के मामले पर राजनीति करने की बजाय इस गंभीर खामी के कारणों की निष्पक्ष जाँच किये जाने की जरूरत है। यदि भारत के प्रधानमंत्री ही असुरक्षित हो जायेंगे तो देश की सुरक्षा पर सवाल उठना लाजिमी है। पंजाब सरकार ने मामले की जाँच के लिए जिस उच्च स्तरीय कमेटी का गठन किया है आखिर वह क्या निष्कर्ष निकालेगी जब मुख्यमंत्री पहले ही ऐलान कर चुके हैं कि प्रधानमंत्री की सुरक्षा में कोई चूक नहीं हुई है।

शीर्ष अदालत का उच्च न्यायालय के रजिस्ट्रार जनरल को प्रधानमंत्री दौर के सुरक्षा इंतजाम से जुड़े रिकॉर्ड हासिल करने का निर्देश

 

उच्चतम न्यायालय ने पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय के रजिस्ट्रार जनरल को पंजाब सरकार, राज्य की पुलिस तथा केन्द्रीय एजेंसियों से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के हालिया पंजाब दौरे से जुड़े सुरक्षा इंतजामों से संबंधित रिकॉर्ड ‘‘तत्काल’’ हासिल करने का निर्देश दिया। प्रधान न्यायाधीश एनवी रमण, न्यायमूर्ति सूर्यकांत और न्यायमूर्ति हिमा कोहली की पीठ ने पंजाब और केन्द्र सरकार की ओर से पेश अधिवक्ताओं से कहा कि प्रधानमंत्री के दौरे पर हुई चूक की जांच के लिए गठित समितियों से कहें कि वे ‘‘सोमवार तक कोई कार्रवाई ना करे’’। इस मामले में सोमवार को आगे सुनवाई की जाएगी। पीठ ने कहा कि दोनों पक्षों के वकीलों की बात सुन ली है। दलील पर गौर करने के बाद, यह ध्यान में रखते हुए कि यह प्रधानमंत्री की सुरक्षा और अन्य मुद्दों से संबंधित है...सबसे पहले, हमें पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय के रजिस्ट्रार जनरल को संबंधित रिकॉर्ड तत्काल हासिल करने का निर्देश देना उचित प्रतीत होता है। पीठ ने पंजाब सरकार, राज्य की पुलिस, अन्य केन्द्रीय एजेंसियों तथा राज्य एजेंसियों को सहयोग करने और सम्पूर्ण प्रासंगिक रिकॉर्ड तुरंत रजिस्ट्रार जनरल को उपलब्ध कराने का भी निर्देश दिया। पीठ इस मामले में अब 10 जनवरी को आगे सुनवाई करेगी। शीर्ष अदालत ‘लॉयर्स वॉइस’ की उस याचिका पर सुनवाई कर रही थी, जिसमें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सुरक्षा में चूक की गहन जांच और भविष्य में इसकी पुनरावृत्ति ना हो, यह सुनिश्चित करने का अनुरोध किया गया है।

 

इसके साथ ही निर्वाचन आयोग ने भले पाँच राज्यों में Assembly Elections 2022 की तारीखों का ऐलान कर दिया है लेकिन उसको यह ध्यान रखना होगा कि इस बार सिर्फ स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव ही उसकी जिम्मेदारी नहीं है। Covid Protocols का अक्षरशः पालन कराना और मतदान केंद्रों पर सभी कोविड-रोधी सुरक्षात्मक उपाय सुनिश्चित कराने पर भी ध्यान देना होगा।

 

चुनाव आयोग ने 15 जनवरी तक जनसभाओं और रोडशो पर रोक लगाई

 

निर्वाचन आयोग ने देश में कोविड-19 महामारी की स्थिति को देखते हुए पांच राज्यों में होने जा रहे विधानसभा चुनावों के दौरान आगामी 15 जनवरी तक जनसभाओं, साइकिल एवं बाइक रैली और पदयात्राओं पर रोक लगा दी है। मुख्य चुनाव आयुक्त सुशील चंद्रा ने संवाददाता सम्मेलन में कहा कि 15 जनवरी के बाद स्थिति का जायजा लेने के उपरांत आयोग आगे का निर्णय लेगा। उन्होंने कहा कि आयोग ने फैसला किया है कि 15 जनवरी तक लोगों की शारीरिक रूप से मौजूदगी वाली कोई जनसभा (फिजिकल रैली), पदयात्रा, साइकिल रैली, बाइक रैली रोडशो की अनुमति नहीं होगी...आगे चुनाव आयोग कोविड महामारी की स्थिति की समीक्षा करेगा और इसके मुताबिक निर्देश जारी करेगा।

 

- अंकित सिंह

 

 


 

देश के मौजूदा प्रधानमंत्री ही नहीं, किसी भी पिछले या भविष्य के प्रधानमंत्री का काफिला अगर किसी फ्लाईओवर पर 15-20 मिनट के लिए रुक जाए, तो यह न सिर्फ चिंता की बात, बल्कि उस राज्य सरकार की गंभीर लापरवाही का भी प्रदर्शन है।

 

उत्तर प्रदेश की वाराणसी लोकसभा सीट से सांसद और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के साथ पंजाब में जो कुछ हुआ उससे वाराणसी की जनता तो दुखी है ही यूपी में भी आक्रोश कम नहीं है। खासकर दुख इस बात का है कि गांधी परिवार इस मामले में घटिया राजनीति कर रहा है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बुधवार को फिरोजपुर (पंजाब) जाते समय सुरक्षा में हुई चूक से वाराणसी के भाजपाई नेता और जनता आक्रोशित हो गए हैं। वाराणसी समेत पूर्वांचल के अन्य जिलों में भाजपा कार्यकर्ताओं ने पंजाब सरकार का पुतला फूंका है। वाराणसी में भाजपा कार्यकर्ताओं ने पंजाब के मुख्यमंत्री चरणजीत सिंह चन्नी और कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी का पुतला फूंका और नारेबाजी की। इस घटना के बाद सोशल मीडिया पर जैसे कमेंट्स की बाढ़ आ गई। इस बीच यूथ कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष श्रीनिवास बीवी के एक ट्वीट ‘हाऊ इज जोश’ के बाद बीजेपी नेताओं और नेटिजन्स का गुस्सा सातवें आसमान पर पहुंच गया। दरअसल श्रीनिवास बीवी ने फिल्म ‘उरी-द सर्जिकल स्ट्राइक के एक पॉपुलर डायलॉग का हवाला देते हुए ट्वीट किया था- 'मोदीजी, हाउज द जोश?’ उनके इस कमेंट को सोशल मीडिया यूजर्स ने प्रधानमंत्री की सुरक्षा में चूक से जोड़कर देखा और बेहद तल्ख प्रतिक्रियाएं दीं। 

कांग्रेस की उत्तर प्रदेश प्रभारी और पार्टी की महासचिव प्रियंका वाड्रा जो कानून व्यवस्था को लेकर हर समय योगी सरकार की खिंचाई करती रहती हैं, वह ऐसे गंभीर मुद्दे पर चुप्पी कैसे साध सकती हैं। लोग तो यहां तक कह रहे हैं कि कांग्रेस की पूर्ववर्ती सरकारों का भी प्रधानमंत्री की सुरक्षा को लेकर ऐसा ही रवैया रहता होगा, जिसके चलते देश के दो प्रधानमंत्रियों- इंदिरा गांधी और राजीव गांधी को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा था। यह दोनों प्रधानमंत्री कांग्रेस के ही नेता थे, इसीलिए सवाल यह उठ रहा है कि जब कांग्रेस सरकारें अपने दिग्गज नेताओं और प्रधानमंत्रियों इंदिरा-राजीव की समुचित सुरक्षा नहीं कर पाईं तो वह कैसे यह कह सकते हैं कि पंजाब सरकार ने मोदी की सुरक्षा में कोई चूक नहीं की होगी। इतना ही नहीं पंजाब के मुख्यमंत्री अपनी गलती को छिपाने के लिए इस चूक को सियासी रंग देने में लगे हैं और कांग्रेस के दिग्गज नेता भी उनके सुर में सुर मिला रहे हैं।

 

देश के मौजूदा प्रधानमंत्री ही नहीं, किसी भी पिछले या भविष्य के प्रधानमंत्री का काफिला अगर किसी फ्लाईओवर पर 15-20 मिनट के लिए रुक जाए, तो यह न सिर्फ चिंता की बात, बल्कि उस राज्य सरकार की गंभीर लापरवाही का भी प्रदर्शन है, जबकि यह फ्लाईओवर पाकिस्तान बार्डर से मात्र 25-30 किलोमीटर की दूरी पर था। प्रधानमंत्री का कार्यक्रम पूर्व निर्धारित था, उन्हें फिरोजपुर में एक रैली को संबोधित करना था, लेकिन जब काफिला रुक गया, तो उन्हें लौटना पड़ा। विशेषज्ञ इसे सुरक्षा में भारी चूक मान रहे हैं। पंजाब पहले आतंकवाद से प्रताड़ित रह चुका है, अतः वहां विशिष्ट लोगों की सुरक्षा चाक-चौबंद होनी चाहिए। प्रधानमंत्री की सुरक्षा तो विशेष रूप से सुनिश्चित होनी चाहिए, लेकिन पंजाब में यह शायद सरकार के स्तर पर हुई बड़ी चूक है। इस पर सियासत करने की बजाए पंजाब सरकार को इस चूक की तह में जाना चाहिए। अगर यह चूक प्रशासन के स्तर पर हुई है, तो ऐसे लापरवाह अधिकारियों के लिए सेवा में कोई जगह नहीं होनी चाहिए और यदि इसके पीछे कोई सियासत है, तो इससे घृणित कुछ नहीं हो सकता। प्रदर्शनकारियों को पता था कि प्रधानमंत्री का काफिला गुजरने वाला है, लेकिन क्या यह बात सुरक्षा अधिकारियों को नहीं पता थी कि प्रधानमंत्री का रास्ता प्रदर्शनकारी रोकने वाले हैं? 

 

पंजाब सरकार और वहां के पुलिस अधिकारी यह नहीं कह सकते हैं कि प्रधानमंत्री के कार्यक्रम और यात्रा की योजना के बारे में उनको पहले से नहीं बताया गया था। गृह मंत्रालय ने इस गंभीर सुरक्षा चूक का संज्ञान लेते हुए पंजाब सरकार से विस्तृत रिपोर्ट मांगी है। मंत्रालय ने कहा कि प्रधानमंत्री के कार्यक्रम और यात्रा की योजना के बारे में पंजाब सरकार को पहले ही जानकारी दे दी गयी थी। पंजाब सरकार को सड़क मार्ग से किसी भी यात्रा को सुरक्षित रखने के लिए अतिरिक्त सुरक्षाकर्मी तैनात करने चाहिए थे। ऐसे मौके पर वहां के मुख्यमंत्री का फोन नहीं उठाना भी कम चौंकाने वाली बात नहीं है, इसीलिए उन पर भी उंगली उठ रही है। यह चूक काफी बड़ी और गंभीर है, इसलिए इस चूक के गुनाहागारों के खिलाफ कार्रवाई तो होगी ही। मामला अब सुप्रीम कोर्ट पहुंच है, जहां से सब आईने की तरह साफ हो जाएगा।

यह बात कतई छिपी नहीं है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी हों या उनकी कैबिनेट के अन्य मंत्री एवं कई राज्यों के मुख्यमंत्री सहित तमाम दलों के दिग्गज नेता, सब के सब आतंकवादियों और खालिस्तानियों के निशाने पर हैं। पाकिस्तान भी इस कोशिश में लगा रहता है कि किस तरह से भारत को अस्थिर किया जाए। ऐसे तत्वों के साथ अपराधी तत्वों का घालमेल हमें पहले भी मुसीबत में डाल चुका है। जम्मू-कश्मीर और पंजाब तो खासकर आतंकवादियों का पसंदीदा राज्य है। यहां आतंकवाद के साथ नशीले पदार्थों और हथियारों की सप्लाई भी चिंता का विषय रहती है। इस चूक को सिर्फ नाराज किसानों से जोड़कर नहीं देखा जा सकता है, जैसा कि भारतीय किसान यूनियन के नेता राकेश टिकैत और कांग्रेसी कर रहे हैं। बेशक, इस देश के लोगों को प्रधानमंत्री से कुछ मांगने का पूरा हक है, लेकिन उनका रास्ता रोकने की हिमाकत किसी अपराध से कम नहीं है और जो लोग इस हिमाकत का समर्थन करते हैं, वह भी कहीं न कहीं इस कृत्य में बराबर के भागीदार हैं। क्या हमने एक प्रधानमंत्री और एक पूर्व प्रधानमंत्री को खोकर कुछ सीखा है? दिल्ली की सीमाओं पर महीनों तक बैठने और पंजाब में सीधे प्रधानमंत्री का रास्ता रोकने के बीच जमीन-आसमान का फर्क है।

 

बहरहाल, इसमें कोई शक नहीं है कि पंजाब में पीएम के रैली स्थल पर नहीं पहुँच पाने की वजह जो भी रही हो, लेकिन इससे बेपरवाह लोग इस संवेदनशील मसले पर भी राजनीति करने से चूकेंगे नहीं, क्योंकि पंजाब में हुई इस चूक ने उन्हें मौका दे दिया है। बताया जाता है कि प्रधानमंत्री ने भी इस चूक पर नाराजगी जताई है। अतः इस चूक को पूरी गंभीरता से लेते हुए पंजाब सरकार को सुनिश्चित करना चाहिए कि उस राज्य में रास्ता रोकने की राजनीति अपनी हदों में रहे। आशंका है कि ऐसे रास्ता रोकने वालों को किसी प्रकार की कार्रवाई से बचाने के लिए भी पंजाब में राजनीति होगी। कोई आश्चर्य नहीं कि पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह ने प्रधानमंत्री की सुरक्षा में सेंध की खबर के बाद वहां राष्ट्रपति शासन लगाने की मांग कर दी है।

 

कुल मिलाकर अच्छा यह रहता है ऐसी गंभीर चूक पर राजनीतिज्ञों को ठोस समाधान के बारे में सोचना व बताना चाहिए, यदि पंजाब के सीएम को अपनी सरकार की चूक का अंदाजा नहीं हो तो राष्ट्रपति शासन इसका समाधान हो सकता है। यह दुखद है कि अपने देश में राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोप के बीच अक्सर समस्या जस की तस बनी रह जाती है। अपना तात्कालिक राजनीतिक मकसद हल करने के बाद नेता भी ऐसी मूलभूत चूक या समस्या को भुला देते हैं। इस बार ऐसा न हो, यह सुनिश्चित करने की जिम्मेदारी पंजाब सरकार और केंद्रीय गृह मंत्रालय की है। यह भी ध्यान रखना होगा कि पंजाब में दो-तीन महीने के भीतर चुनाव होने वाले हैं, चुनाव के दौरान कई दलों के छोटे-बड़े नेता भी पार्टी का प्रचार करने के लिए आएंगे, यदि उनको पंजाब सरकार समुचित सुरक्षा नहीं दिला पाएगी तो कैसे काम चलेगा। तमाम दलों और नेताओं की विचारधारा में मतभेद होना स्वभाविक है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि कोई ग्रुप या अवांछित तत्व किसी नेता को शारीरिक नुकसान पहुंचाए जाने की सोचे।

 

- अजय कुमार

आज प्रधानमंत्री की सुरक्षा में सेन्ध के बेहद गम्भीर मामले में जब जिम्मेदार लोगों की जवाबदेही तय करने को सर्वोच्च प्राथमिकता दी जानी चाहिए, चूक पर गम्भीर चर्चा कर भविष्य में ऐसा न हो इसके कदम उठाए जाने चाहिए तो ऐसे समय में छिछली राजनीति देखने को मिल रही है।

 

राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष शरद पवार ने हाल ही में एक सार्वजनिक कार्यक्रम में पटाक्षेप किया कि कांग्रेस के नेतृत्व वाली संयुक्त प्रगतिशील मोर्चा सरकारों में वह और स. मनमोहन सिंह नहीं चाहते थे कि गुजरात के तत्कालीन मुख्यमन्त्री श्री नरेन्द्र मोदी के खिलाफ विद्वेष पाला जाए। उस समय कुछ लोगों द्वारा मोदी के खिलाफ राजनीतिक बदले की कार्रवाईयां हुईं। जिस दल के लोग सत्ता में रहते हुए मोदी के विरुद्ध राजनीतिक बदलाखोरी की कार्रवाईयां करते रहे वे आज विपक्ष में आकर पागलपन की सीमा तक उनका विरोध करते दिख रहे हैं। पंजाब में उनकी सुरक्षा को लेकर हुई चूक की घटना ने साबित कर दिया है कि इन लोगों को सत्ता के लिए मोदी या किसी की भी जान को संकट में डालना पड़े तो उन्हें गुरेज नहीं। 

आज प्रधानमंत्री की सुरक्षा में सेन्ध के बेहद गम्भीर मामले में जब जिम्मेदार लोगों की जवाबदेही तय करने को सर्वोच्च प्राथमिकता दी जानी चाहिए, चूक पर गम्भीर चर्चा कर भविष्य में ऐसा न हो इसके कदम उठाए जाने चाहिए तो ऐसे समय में छिछली राजनीति देखने को मिल रही है। पंजाब के मुख्यमंत्री चरणजीत सिंह चन्नी इस प्रकरण पर खेद भी जता रहे हैं और साथ ही सुरक्षा में किसी तरह की खामी से इन्कार करते हुए सारी जिम्मेदारी केन्द्रीय एजेंसियों पर थोप रहे हैं। कोई पूछे कि यदि कहीं कुछ हुआ ही नहीं तो फिर मामले की जांच के लिए उच्चस्तरीय समिति का गठन क्यों किया गया है ? उनके रवैये से यह सवाल उठना भी स्वाभाविक है कि आखिर उनकी यह समिति दूध का दूध और पानी का पानी करने में समर्थ होगी या नहीं ? चन्नी केवल यही नहीं कह रहे कि छोटी-सी बात का बतंगड़ बनाया जा रहा है, बल्कि ऐसे अजीबोगरीब बयान भी दे रहे हैं कि प्रधानमन्त्री को जिस क्षेत्र में जाना था, वह तो सीमा सुरक्षा बल के दायरे में है। क्या इससे अधिक हास्यस्पद बात और हो सकती है ? केन्द्रीय बल को सीमावर्ती 50 किलोमीटर के दायरे में केवल तलाशी लेने और सन्दिग्धों की गिरफ्तारी का अधिकार दिया गया है। उसका विशिष्ट व्यक्तियों की सुरक्षा से कोई सरोकार नहीं। यह भी छिपा नहीं कि पंजाब सरकार बल के अधिकार बढ़ाने का विरोध भी कर रही है। कई कांग्रेसी नेता इसे लेकर खुशी जता रहे हैं कि प्रदर्शनकारियों ने प्रधानमन्त्री को अपनी ताकत दिखा दी, तो कोई यह ज्ञान बांट रहा है कि अपनी रैली में कम भीड़ जुटने के कारण से मोदी स्वयं ही लौट गए। युवा कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष श्रीनिवास बीवी प्रधानमन्त्री से पूछ रहे हैं ‘मोदी जी, हाऊ इज द जोश ?’

 

इस किस्म के ये कांग्रेसी नेता अपनी ही पार्टी के कुछ सुलझे हुए जिम्मेवार नेताओं के संयत बयानों की अनदेखी कर यही साबित कर रहे हैं कि ये पार्टी वैचारिक रूप से किस तरह बिखरी हुई है। साफ है कि प्रधानमन्त्री की सुरक्षा से खिलवाड़ पर छिछले बयान दे रहे कांग्रेसी मामले की गम्भीरता को समझने से इनकार कर रहे हैं। यह उसी दल के नेता हैं जिसने श्रीमती इन्दिरा गान्धी, श्री राजीव गान्धी व स. बेअन्त सिंह के रूप में अनेक वरिष्ठ नेता आतंकियों के हाथों खोए हैं। पंजाब की कांग्रेस सरकार व इस दल को आभास होना चाहिए कि पुलिस की ढिलाई से सड़क पर आ धमके प्रदर्शनकारियों के कारण प्रधानमन्त्री का काफिला एक फ्लाईओवर पर करीब 15-20 मिनट तक फंसा रहा। पाकिस्तानी सीमा के निकट सुरक्षा और तस्करी की दृष्टि से अत्यन्त संवेदनशील इलाके में ऐसा होना अकल्पनीय ही नहीं, शर्मनाक और चिन्तनीय भी है। ऊपर से कांग्रेसी नेताओं के स्तरहीन ब्यान और इसी तरह की राजनीति अशोभनीय भी है। ठीक है कि लोकतन्त्र में विपक्ष का काम विरोध करना भी है परन्तु केवल विरोध के लिए विरोध और इसके लिए प्रधानमन्त्री की सुरक्षा से समझौते को उचित ठहराया जा सकता है? विरोध के नाम पर ये पागलपन नहीं तो क्या है ?

कांग्रेस की हालत पर शरद पवार ने ही पिछले साल 10 सितम्बर को एक मीडिया समूह के कार्यक्रम में कहानी सुनाई। कहानी अनुसार, ‘उत्तर प्रदेश के जमींदारों के पास काफी जमीन और बड़ी हवेलियां थीं। भूमि नियन्त्रण अधिनियम से जमीन कम हो गई, हवेलियां बनी रहीं लेकिन उनकी मरम्मत की क्षमता जमींदारों की नहीं रही। हजारों एकड़ से सिमटकर उनकी जमीन 15-20 एकड़ रह गई। एक बार जमींदार सुबह उठा, उसने आसपास के हरेभरे खेतों को देखा और कहा कि सारी जमीन जो है, वो हमारी खानदानी है।’ यही हालत कांग्रेस की है, किसी समय केन्द्र के साथ-साथ कश्मीर से कन्याकुमारी तक सभी राज्यों में उसकी सरकारें थीं जो अब कुछ राज्यों तक सिमट गईं। पार्टी लोकसभा में विपक्षी नेता के पद को भी तरस रही है परन्तु लगता है वह दिल से स्वीकार नहीं पाई है कि उसके सुख भरे दिन बीत चुके। वह येन केन प्रकारेण दोबारा सत्ता हासिल करना चाहती है और इसके लिए उसे किसी भी सीमा तक जाना पड़े तो वह मौका नहीं छोड़ती।

 

कांग्रेस संसद से सड़क तक को अवरुद्ध कर मोदी सरकार के लिए असुखद स्थिति पैदा करने का प्रयास करती है। केवल विरोध के लिए विरोध कितना उचित है ? जिस आर्थिक सुधारों का ढिण्ढोरा पीट कर वह अपनी पीठ थपथपाती नहीं अघाती, जब मोदी सरकार उन्हीं सुधारों को आगे बढ़ाती है तो उसका विरोध क्यों किया जाता है ? वह क्यों उन कानूनों का विरोध करती है जिसे बनाने का वायदा अपने चुनावी घोषणापत्रों में करती है ? देश की सुरक्षा, विदेश नीति, सुरक्षा सेनाओं, आतंकवाद जैसे सर्वमान्य माने जाने वाले मुद्दों पर देश का मनोबल तोड़ने वाला दृष्टिकोण क्यों पेश करती है? जब संवैधानिक तरीकों से काम नहीं चलता तो क्या प्रधानमन्त्री की सुरक्षा तक को दांव पर लगा दिया जाना चाहिए ? विरोध का यह कौन-सा तरीका है ? अगर ये विपक्ष का विरोध है तो फिर पागलपन किसे कहते हैं ?

 

संविधान सभा में सदस्यों का आभार व्यक्त करते हुए बाबा साहिब भीमराव रामजी आम्बेडकर ने कहा था कि- स्वतन्त्रता के बाद हमें आन्दोलन और प्रदर्शन जैसे असंवैधानिक तरीके त्याग देने चाहिएं। जब देश को संवैधानिक अधिकार नहीं थे तब उक्त तरीकों की सार्थकता थी परन्तु अब हमारे हाथ में मताधिकार, संसद, विधान मण्डलों के रूप में संवैधानिक तरीके हैं और अपनी अपेक्षाएं पूरी करने के लिए इन्हीं का सहारा लेना चाहिए। शाहीन बाग और किसान आन्दोलन पर बाबा साहिब से मिलती जुलती राय सर्वोच्च न्यायालय भी व्यक्त कर चुका है कि अपनी बात रखने का हर किसी को अधिकार है परन्तु इसके लिए सड़कों को नहीं रोका जा सकता। सड़कें-रेल मार्ग आवागमन के लिए हैं न कि आन्दोलन के लिए। एक साल तक चले किसान आन्दोलन से देश को कितना नुक्सान उठाना पड़ा और भारत की छवि पर इसका क्या प्रभाव पड़ा इस पर पहले ही बहुत कुछ लिखा व कहा जा चुका है। पिछले सप्ताह ही पंजाब के खन्ना जिले में नौकरी मांग रहे आन्दोलनकारी युवाओं के बीच रोगी-वाहिनी फंस गई। उसमें सवार महिला लाख अनुनय-विनय करती रही परन्तु युवाओं ने रास्ता नहीं दिया जिससे उस महिला का एक साल का बच्चा ईलाज के अभाव में संसार छोड़ गया। विरोध के नाम पर यह पागलपन नहीं तो क्या है ? क्या सत्ता की कुर्सियां, सरकारी नौकरियां मानव जीवन से भी अधिक कीमती हो गईं?

 

-राकेश सैन

बुल्ली बाई एप के जरिए मुस्लिम महिलाओं को बदनाम करने की जो साजिश चल रही थी, उसमें जो लोग शामिल थे वो चौंकाने वाला है उसमें जो लोग शामिल थे वो चौंकाने वाला है। एक की उम्र 18 साल, दूसरे की 21 साल... दोनों पढ़ाई करने वाले स्टूडेंट्स।

 

टेक्नोलॉजी का सही तरीके से इस्तेमाल किया जाए तो वो काम फायदेमंद है। लेकिन अगर इसका इस्तेमाल गलत तरीके से किया जाए तो इसके काफी ज्यादा नुकसान भी हैं। टेक्नोलॉजी को कुछ लोग बहुत अच्छे तरीके से इस्तेमाल करते हैं तो कुछ लोग इसका इस्तेमाल ऐसे करते हैं कि जिससे बवाल बढ़ जाता है। इन दिनों एक ऐसे एप को लेकर भी बवाल बढ़ गया है। जिसका इस्तेमाल गलत तरीके से किया गया। एक एप इन दिनों काफी ज्यादा सुर्खियों में है। सुर्खियों में क्या हम कह सकते हैं कि इस ऐप को लेकर काफी ज्यादा विवाद हो रहा है। दरअसल, इस ऐप में ऐसे आपत्तिजनक पोस्ट थे जिसको लेकर नाराजगी जताई गई। हम बुल्ली बाई एप के बारे में बात कर रहे हैं। इस एप के जरिए मुस्लिम महिलाओं को बदनाम करने की जो साजिश चल रही थी, उसमें जो लोग शामिल थे वो चौंकाने वाला है उसमें जो लोग शामिल थे वो चौंकाने वाला है। एक की उम्र 18 साल, दूसरे की 21 साल... दोनों पढ़ाई करने वाले स्टूडेंट्स। इस उम्र में मुस्लिम महिलाओं को बदनाम करने की इनकी साजिश हर किसी को हैरान कर रही है। 

5 लाइनों में बुल्ली बाई ऐप विवाद 

बुल्ली बाई लोगों को बरगलाने और वित्तीय लाभ कमाने के लिए देश भर में एक संदिग्ध समूह (उनमें से अधिकांश की पहचान अभी बाकी है) द्वारा विकसित एक एप है।

एप को बनाने के पीछे का मकसद भारतीय महिलाओं (ज्यादातर मुस्लिम) की नीलामी के लिए रखना और बदले में पैसा कमाना है।

'बुल्ली बाई' एप माइक्रोसॉफ्ट के मालिकाना हक वाली ओपन सॉफ्टवेयर डेवलपमेंट साइट GitHub पर बनाया गया था।

बुल्ली बाई जैसी घटनाओं में, साइबर अपराधी इंटरनेट से लोकप्रिय महिलाओं, सेलेब्स, प्रभावशाली लोगों, पत्रकारों आदि की तस्वीरें लेते हैं और उनका उपयोग अपने वित्तीय लाभ के लिए करते हैं।

ये ऑनलाइन स्कैमर्स सोशल मीडिया अकाउंट से इन महिलाओं की तस्वीरें चुराते हैं और उन्हें प्लेटफॉर्म पर लिस्ट कर देते हैं। एप पर प्रोफाइल में पीड़ितों की फोटो और दूसरे पर्सनल डिटेल शामिल थे, जो महिलाओं की सहमति के बिना बनाई।

एप के हैंडलर्स 21 साल के इंजिनियरिंग स्टूडेंट विशाल झा और 18 साल की श्वेता सिंह को गिरफ्तार किया जा चुका है। उत्तराखंड की निवासी श्वेता इस मामले की मास्टरमाइंड बताई जा रही है, जिसे मुंबई पुलिस की साइबर सेल गिरफ्त में लेकर पूछताछ कर रही है। महाराष्ट्र पुलिस 'बुल्ली बाई' ऐप मामले में गिरफ्तार 18 साल की लड़की को उत्तराखंड से पांच दिन की ट्रांजिट रिमांड पर मुंबई ले जा चुकी है। बताया जा रहा है कि युवती के ट्विटर अकाउंट से कई फोटो शेयर की गईं थीं। मुंबई पुलिस ने बुल्ली बाई केस में उत्तराखंड से एक औऱ छात्र मयंक रावल को गिरफ्तार किया है। 

सोशल साइट्स पर दोस्ती

महाराष्ट्र पुलिस ने बताया कि बेंगलुरु से गिरफ्तार एक अन्य आरोपी विशाल कुमार झा इंजीनियरिग का छात्र है और फेसबुक और इंस्टाग्राम से श्वेता के साथ संपर्क में थे। यही वजह है कि मामले सामने आने पर सबसे पहले महाराष्ट्र पुलिस ने विशाल की गिरफ्तारी की थी और पूछताछ में सबसे पहला नाम रुद्रपुर की युवती श्वेता सिंह का सामने आया। सोशल साइट्स पर दोनों आरोपियों की दोस्ती होने के बाद लगातार एक-दूसरे के संपर्क में रहे, जिसकी पुष्टि सीडीआर और सोशल साइटस से महाराष्ट्र पुलिस ने कर ली थी। विशाल कुमार झा ने खालसा सुपरिमेसिस्ट नाम से एक अकाउंट बनाया था।

लड़की के माता पिता की हो चुकी है मौत

उत्तराखंड पुलिस मुख्यालय से मिली जानकारी में बताया गया है कि रुद्रपुर से लड़की को मुंबई पुलिस ने हिरासत में लिया है। युवती से हुई पूछताछ में पता लगा कि उसके पिता की मई 2021 में कोरोना से मौत हो चुकी है। पिता एक कंपनी में काम करते थे। मां की मौत 2011 में ही हो चुकी है। युवती खुद इंटर पास करके परीक्षा की तैयारी कर रही थी। उसकी तीन बहने हैं। एक बहन बीकॉम थर्ड ईयर में है, तो दूसरी बहन नवोदय में 10वीं क्लास में है। एक छोटा भाई है, जो छठी में पढ़ता है। परिवार का खर्चा वात्सल्य योजना के तहत मिलने वाले 3000 रुपये और पिता की कंपनी से मिलने वाले 10,000 रुपये से चलता है।

प्रभावशाली महिलाओं को बनाया जा रहा निशाना

इसमें उन मुस्लिम महिलाओं का नाम इस्तेमाल किया जा रहा है, जो सोशल मीडिया पर काफी सक्रिय है। इनमें वे मुस्लिम महिलाएं हैं, जो राजनीतिक और सामाजिक रूप से तीखे मसलों पर अपनी आवाज उठाती है। ऐप पर जानी-मानी पत्रकारों, सामाजिक कार्यकर्ताओं और वकीलों की तस्वीरें नीलामी के लिए डाली गई थीं।

सिखों और मुसलमानों के बीच नफरत

मुंबई पुलिस ने जांच में खुलासा किया है कि सोशल मीडिया मंच पर कई अकाउंट बनाए गए ताकि सिख और मुसलमानों के बीच विवाद पैदा किया जा सके। उन्होंने ट्विटर पर @bullibai_, @Sage0x11, @hmmaachaniceoki, @jatkhalsa, @jatkhalsa7, @Sikh_khalsa11, @wannabesigmaf जैसे अकाउंट के बारे में जानकारी दी। इन अकाउंट का इस्तेमाल इस मामले में किया जा रहा था। 

नेपाल का भी युवक निशाने पर

पुलिस को मिली जानकारी के अनुसार उत्तराखंड से गिरफ्तार लड़की की कुछ दिनों पहले नेपाली लड़के Giyou दोस्ती हुई थई। उसी ने लड़की को फेक अकाउंट बनाने को कहा था। अब पुलिस की नजर नेपाली युवक पर भी है। उसकी भी गिरफ्तारी किसी भी समय हो सकती है। 

शिवसेना सांसद ने की कार्रवाई की मांग

द वायर की पत्रकार इस्मत आरा को जब इस प्लैटफॉर्म पर अपनी तस्वीर के बारे में जानकारी मिली तो उन्होंने दिल्ली साइबर पुलिस में शिकायत दर्ज कराई। शिवसेना सांसद ने भी मुंबई पुलिस से इस मामले की जांच के साथ ही केंद्रीय मंत्री अश्विनी वैष्णव से भी कड़ी कार्रवाई करने की मांग की। चतुर्वेदी ने कहा कि उन्होंने इस मामले को मुंबई पुलिस के सामने उठाया है और मांग की है कि दोषियों को जल्द से जल्द गिरफ्तार किया जाना चाहिए। 

सुल्ली डील पर हुआ था विवाद 

इससे पहले सुल्ली डील्स नाम से बने एक ऐप को लेकर विवाद हुआ था। जिसमें मुस्लिम महिलाओं को निशाना बनाया गया था। मुस्लिम महिलाओं के नाम, फोटो और सोशल मीडिया प्रोफाइल शेयर की गई थी। 80 से ज्यादा तस्वीर नाम के साथ डाली गई।  तस्वीरों के आगे उनकी कीमत लिखी थी। एप के टॉप पर "Find Your sulli" लिखा था। बता दें कि  'सुल्ली' या 'सुल्ला' मुसलमानों के लिए इस्तेमाल किया जाने वाला अपमानजनक शब्द है। 

बहरहाल, इस बात को समझना जरूरी है कि अभी इस मामले की जांच शुरू हुई है। जो लोग अभी नजर आए हैं और पकड़े गए हैं उनकी वास्तविक भूमिका का पता लगाना अभी बाकी है। ये भी देखा जाना है कि ये लोग किन परिस्थितियों में और किन लोगों के कहने से इस मामले से जुड़े थे। जहां तक इस प्रकरण की बात है तो पुलिस की जांच सही ढंग से आगे बढ़कर इसके सभी दोषियों को कानून के अनुरूप सजा दिलाई जा सकती है। लेकिन इससे ज्यादा महत्वपूर्ण है समाज को इस जहरीली सोच के चंगुल से आजाद कराना। 

-अभिनय आकाश 

अब जब मुख्यमंत्री इतने बड़े-बड़े वादे कर रहे हैं तो मुख्यमंत्री बनने की इच्छा अपने मन में वर्षों से दबाये पंजाब कांग्रेस अध्यक्ष नवजोत सिंह सिद्धू कहां पीछे रहने वाले हैं। सिद्धू ने वादा किया है कि उनकी पार्टी सत्ता में वापस आती है तो गृहणियों को हर महीने 2,000 रुपये दिए जाएंगे।

 

पंजाब विधानसभा चुनावों से पहले नेताओं ने जनता से बड़े-बड़े वादों की झड़ी लगा दी है, कोई मुफ्त बिजली, पानी देने की बात कर रहा है तो कोई पेंशन बढ़ाने का वादा कर रहा है तो कोई राशन फ्री देने तो कोई मोबाइल फ्री देने के वादे कर रहा है। पंजाब के मुख्यमंत्री चरणजीत सिंह चन्नी तो वादे करते-करते इतने आगे निकल गये हैं कि वह लोगों को विदेश में सैटल कराने की बात भी कह रहे हैं। चन्नी ने कहा है कि अगर कांग्रेस अगले विधानसभा चुनावों में सत्ता में लौटती है तो वह युवाओं को एक साल के भीतर एक लाख नौकरियां देगी और उन्हें विदेश जाने में मदद करने के लिए एक कार्यक्रम भी चलाएगी। चन्नी ने कहा है कि युवाओं को विदेश में बसने के लिए अंग्रेजी भाषा की परीक्षाओं की निःशुल्क कोचिंग भी दी जाएगी। चन्नी ने कहा है कि नौकरियों का वादा एक घोषणा नहीं है बल्कि पंजाब मंत्रिमंडल के फैसले के समर्थन में एक प्रतिबद्धता है। उन्होंने कहा कि कांग्रेस सरकार का पहला फैसला ये नौकरियां मुहैया कराना होगा। 

अब जब मुख्यमंत्री इतने बड़े-बड़े वादे कर रहे हैं तो मुख्यमंत्री बनने की इच्छा अपने मन में वर्षों से दबाये पंजाब कांग्रेस अध्यक्ष नवजोत सिंह सिद्धू कहां पीछे रहने वाले हैं। सिद्धू ने वादा किया है कि अगर उनकी पार्टी सत्ता में वापस आती है तो गृहणियों को हर महीने 2,000 रुपये दिए जाएंगे। उन्होंने गृहणियों को हर साल आठ मुफ्त रसोई गैस (एलपीजी) सिलेंडर देने का वादा भी किया है। इसके साथ ही सिद्धू ने आगे की पढ़ाई के लिए कॉलेजों में नामांकन कराने वाली लड़कियों को दोपहिया वाहन और 12वीं कक्षा उत्तीर्ण करने वाली लड़कियों को 20,000 रुपये देने का भी वादा किया है। इन वादों पर प्रतिक्रिया देते हुए भाजपा ने कहा है कि सिद्धू नयी सरकार के गठन का इंतजार क्यों करना चाहते हैं। उनकी पार्टी की सरकार अभी से ही इन्हें लागू क्यों नहीं कर देती?

 

हम आपको बता दें कि सिद्धू के ये वादे आम आदमी पार्टी के राष्ट्रीय संयोजक और दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के उन वादों के जवाब में आये हैं जिसमें केजरीवाल ने पंजाब में आप की सरकार बनने पर राज्य की 18 वर्ष से अधिक आयु की महिलाओं को हर महीने 1000 रुपये देने की घोषणा करने के साथ ही बाकायदा इसके लिए महिलाओं का पंजीकरण भी शुरू कर दिया है। वह मुफ्त बिजली, पानी और शिक्षा का वादा भी कर चुके हैं। सिद्धू के वादे सामने आने पर आम आदमी पार्टी के नेता राघव चड्डा ने आरोप लगाया है कि सिद्धू अरविंद केजरीवाल द्वारा की गई घोषणाओं की नकल कर रहे हैं।

 

बहरहाल, पंजाब की जनता को मुफ्त में क्या-क्या मिलेगा यह तो चुनाव परिणामों के बाद ही पता चलेगा लेकिन जहां तक मुद्दों की बात है तो पंजाब में भाजपा और उसकी सहयोगी पार्टी के नेता कैप्टन अमरिंदर सिंह ने राज्य और राष्ट्र की सुरक्षा को सबसे अहम मुद्दा बना लिया है। कैप्टन अमरिंदर सिंह तो यहां तक कह रहे हैं कि भाजपा ही एकमात्र राजनीतिक पार्टी है जो राज्य की सुरक्षा और आर्थिक चुनौतियों की सुध ले सकती है। कांग्रेस में रहते समय भाजपा के घोर विरोधी रहे कैप्टन अमरिंदर सिंह अब कह रहे हैं कि उनकी पार्टी का आगामी विधानसभा चुनाव के लिए भाजपा और शिरोमणि अकाली दल-संयुक्त के साथ गठबंधन राष्ट्रीय और राज्य के हित में है। उल्लेखनीय है कि कैप्टन अमरिंदर सिंह ने पिछले साल मुख्यमंत्री पद से हटाये जाने के बाद राज्य में सत्तारुढ़ कांग्रेस छोड़ दी थी और अपने नये राजनीतिक दल पंजाब लोक कांग्रेस का गठन किया था।

 

दूसरी ओर मुख्यमंत्री बड़े-बड़े वादे कर रहे हैं तो शिरोमणि अकाली दल (शिअद) के प्रमुख और पंजाब के पूर्व उपमुख्यमंत्री सुखबीर सिंह बादल भी बड़े-बड़े वादे कर रहे हैं साथ ही उन्होंने कहा है कि अगर चुनावों के बाद शिअद सत्ता में आती है तो ‘‘फर्जी विज्ञापन’’ लगाकर मुख्यमंत्री के तौर पर ‘‘जन निधि का दुरुपयोग’’ करने के लिए चरणजीत सिंह चन्नी के खिलाफ एक आपराधिक मामला दर्ज किया जाएगा। आगामी विधानसभा चुनावों में शिअद-बहुजन समाज पार्टी गठबंधन का नेतृत्व कर रहे सुखबीर सिंह बादल ने कहा कि जनता की निधि का दुरुपयोग करना अपराध है।

पंजाब में नेताओं द्वारा किये गये वादों पर सरसरी निगाह डाली जाये तो एक चीज साफ है कि सभी दल महिलाओं को लुभाने का प्रयास कर रहे हैं और अब तक किये गये वादों में से अधिकांश महिलाओं के लिए ही हैं। दरअसल पंजाब की तीन करोड़ से ज्यादा की आबादी में महिलाओं की संख्या अच्छी-खासी है। लोकसभा चुनावों के समय की मतदाता सूची के हिसाब से पंजाब में 2.04 करोड़ मतदाताओं में से 96.19 लाख महिलाएं थीं। पिछले कुछ चुनावों के ट्रेंड देखें तो पुरुषों के मुकाबले महिलाएं ज्यादा मतदान करती हैं इसीलिए विभिन्न पार्टियां महिलाओं के लिए बड़े-बड़े वादे कर रही हैं। अब पार्टियां भले महिलाओं से वादे कर रही हों लेकिन महिलाओं को बस में मुफ्त सफर की सुविधा या महीने में 1000 रुपए का भत्ता नहीं बल्कि सुरक्षा और समाज में बराबरी का अधिकार और शिक्षा की सुविधा चाहिए। पंजाब में सत्तारुढ़ कांग्रेस के बड़े नेताओं की पत्नियों ने ही जिस तरह महिलाओं से किये जा रहे वादों का विरोध करते हुए इसे महिलाओं के वोट खरीदने के समान बताया है वह दर्शाता है कि अपने अधिकारों के प्रति महिलाएं अब जागरूक हो चुकी हैं।

 

- नीरज कुमार दुबे

 


 

इसमें कोई संदेह नहीं कि भारत दुनिया में सबसे तेज कोरोना टीकाकरण करने वाला देश है। 30 दिसम्बर तक भारत की 64 फीसदी आबादी को कोरोना वैक्सीन की दोनों डोज लग चुकी हैं और लगभग 90 फीसदी को कोरोना वैक्सीन की एक डोज लग चुकी है।

 

कोरोना की तीसरी लहर एक बार फिर बड़े संकट का इशारा कर रही है। अमेरिका से भारत तक एवं दुनिया के अन्य देशों में कोरोना के बढ़ते मामले चिंता में डालने लगे हैं, क्योंकि कोरोना की पहली एवं दूसरी लहर में जन-तबाही देखी है। पिछले सप्ताह से भारत में कोरोना संकट तेजी से बढ़ने लगा है। जबकि ठीक होने वालों का दैनिक आंकड़ा बहुत कम है, इसलिये सक्रिय मामलों की संख्या बढ़ने लगी है। इस बीच देश में 15 से 18 साल के किशोरों को कोरोना टीका लगाने की शुरुआत स्वागत योग्य है। लंबे इंतजार के बाद जब किशोरों के लिए टीकाकरण अभियान शुरू हुआ तो स्वाभाविक ही इसे लेकर उत्साह दिखा। पहले ही दिन चालीस लाख से अधिक किशोरों ने टीका लगवाया। टीकाकरण शुरू होने से पहले इस उम्र वर्ग के आठ लाख किशोरों ने जिस उत्साह के साथ पंजीकरण कराया है, उससे साफ है कि इस आयु वर्ग के टीकाकरण में ज्यादा वक्त नहीं लगेगा। पहली लहर में देखा गया था कि बच्चों और किशोरों पर कोरोना का बहुत असर नहीं हुआ था। मगर दूसरी लहर में वे भी भारी संख्या में चपेट में आए थे। इसलिए भी तीसरी लहर को लेकर एक भय, डर एवं आशंका का माहौल है, किशोरों के सुरक्षित जीवन के लिये उनका टीकाकरण एक जरूरी एवं उपयोगी कदम है। 

देश में इस आयु वर्ग के करीब दस करोड़ किशोरों को वैक्सीन दी जानी है। किशोरों को केवल भारत बायोटेक की कोवैक्सीन ही लगाई जाएगी। किशोरों का दसवीं कक्षा का आईडी कार्ड रजिस्ट्रेशन के लिए पहचान का प्रमाण माना जा रहा है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने 25 दिसम्बर को पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के जन्मदिन पर बच्चों-किशोरों को वैक्सीन देने की घोषणा की थी। कोरोना वैक्सीन की दोनों डोज लगा चुके वृद्ध लोगों के लिये 10 जनवरी 2022 से बूस्टर डोज लगाने का उपक्रम शुरू करना भी कोरोना को परास्त करने का एक प्रभावी चरण है। प्रारंभ में 60 से ज्यादा उम्र के बुजुर्गों, स्वास्थ्यकर्मियों व अन्य कोरोना योद्धाओं को बूस्टर डोज लगने की विधिवत शुरुआत हो जाएगी। इससे प्रतीत होता है कि केन्द्र सरकार एवं प्रांत की सरकारें कोरोना को लेकर गंभीर है, जागरूक हैं। लेकिन सरकार की जागरूकता से ज्यादा जरूरी है आम आदमी की जागरूकता और अपनी सुरक्षा के लिए सचेत रहना। किशोरों के टीकाकरण में उत्साह से सहभागी बनने की जरूरत है, बिना किसी भय एवं आशंका के। याद रखें कि पूर्ण रूप से टीकाकरण के बावजूद इजरायल भी चिंता में है और अमेरिका में तो कोरोना की नई लहर आ गई है। भारत को हर तरह से सचेत रहकर कोरोना महामारी से लड़ना है और साथ ही, यह भी सुनिश्चित करना चाहिए कि फिर से लॉकडाउन की नौबत न आने पाए।

 

दरअसल, टीके की उपलब्धता और किशोरों पर पड़ने वाले दुष्प्रभावों आदि के मद्देनजर सरकार ने इस दिशा में कोई कदम बढ़ाने से खुद को रोक रखा था। व्यापक जांच एवं परीक्षण के बाद अब वे दुविधाएं दूर हो चुकी हैं। हमारे देश में किशोरों की खासी बड़ी आबादी है। उनका टीकाकरण न हो पाने की वजह से स्कूल-कालेज खोलने को लेकर भी रुकावट पैदा हो रही थी। अभिभावक इस बात से सशंकित थे कि बच्चों को स्कूल भेजेंगे तो संक्रमण का खतरा बना रहेगा। ऐसा कई जगहों पर हुआ भी, जब स्कूल-कालेज खोले गए और बच्चे वहां गए, तो बड़ी संख्या में संक्रमित हो गए। फिर स्कूल बंद करने पड़े। पिछले दो साल से स्कूल-कालेज बंद रखने, आंशिक रूप से खोलने या ऑनलाइन पढ़ाई का नतीजा यह हुआ है कि बच्चों के सीखने की क्षमता पर बुरा प्रभाव पड़ा है। खासकर बोर्ड परीक्षाओं को लेकर फैसला करने में अड़चन आ रही थी।

 

ऐसे में टीकाकरण अभियान शुरू होने से बच्चे, अभिभावक, स्कूल और बोर्ड परीक्षा संचालित कराने वाली संस्था तक संक्रमण से सुरक्षा को लेकर कुछ आश्वस्त हो सकेंगे। ऐसा इसलिये भी जरूरी है कि बच्चों को देश का भविष्य माना जाता है। बच्चों के उन्नत, स्वस्थ एवं सुरक्षित भविष्य एवं कोरोना के संभावित खतरे को देखते हुए सरकार ने सोच-समझकर कोरोना के विरुद्ध कोई सार्थक वातावरण निर्मित किया है तो यह सराहनीय स्थिति है। ओमीक्रोन की तीव्र संक्रमण दर और बच्चों-किशोरों के भी इसकी चपेट में आने की खबरों ने अभिभावकों की चिंता बढ़ा दी थी। स्कूल-कालेज बंद करने और कड़ी पाबंदियों के लौटने से हर कोई चिंतित है। अभिभावक तो पहले ही बच्चों का वैक्सीनेशन नहीं होने तक उन्हें स्कूल भेजने को तैयार नहीं थे। अब बच्चों का वैक्सीनेशन शुरू होने से अभिभावकों को चिंता कम होगी, वहीं दूसरी ओर देश की शिक्षण संस्थाओं में स्थिति सामान्य बनाने में भी मदद मिलेगी। बच्चों के टीकाकरण से देशवासियों को नया सबल मिलेगा, स्वास्थ्य-सुरक्षा का वातावरण बनेगा। अभिभावकों को चाहिए कि वे किसी भ्रम में न रहें और बेवजह भयभीत न हों। अभिभावकों को जिम्मेदार व्यवहार दिखाते हुए किशोरों का टीकाकरण कराना चाहिए, इस टीकाकरण के लिये सकारात्मक वातावरण बनाने में सहयोगी बनना चाहिए। इस संबंध में उन्हें कोई लापरवाही नहीं बतरनी चाहिए।किशोरों के लिए शुरू हुए टीकाकरण अभियान में सरकार ने काफी सूझबूझ से काम लिया है, इस टीकाकरण की एक अच्छी बात यह भी है कि उनके लिए अलग से केंद्र बनाए गए हैं और स्कूलों में भी इसकी सुविधा उपलब्ध करा दी गई है। स्कूलों को टीकाकरण केन्द्र बनाने से बच्चों को काफी सुविधा हुई है। किशोरों को आगामी बोर्ड परीक्षा को लेकर चिंता है। वे चाहते हैं कि परीक्षाएं शुरू होने से पहले दोनों खुराक ले लें, ताकि प्रतिरोधक क्षमता बढ़े और वे संक्रमण से बच सकें। इसलिए भी किशोरों में टीकाकरण को लेकर उत्साह देखा जा रहा है। शुरू में जब टीकाकरण अभियान चला था, तो इसे लेकर तरह-तरह की आशंकाएं जताई गई थीं, जिसके चलते बहुत सारे लोगों के मन में हिचक बनी हुई थी। मगर कोरोना की दूसरी लहर में देखा गया कि जिन लोगों ने टीका लगवाया था, उन पर कोरोना का असर घातक नहीं रहा। इससे भी लोगों में टीकों को लेकर विश्वास पैदा हो गया था। इसलिए भी बहुत सारे अभिभावकों की मांग थी कि किशोरों के लिए भी टीकाकरण अभियान जल्दी शुरू किया जाए।

 

भारत में कठिन परिस्थितियों में भी देशवासियों ने जिस तरह से कोरोना की दूसरी लहर का सामना किया है वे आज भी तीसरी लहर का सामना करने में सक्षम हैं। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की सतत जागरूकता, देशवासियों और कोरोना वारियर्स के लगातार संघर्ष ने हताशा के बीच भी जीवन को आनंदित बनाने का साहस प्रदान किया है, जो समूची दुनिया के लिये प्रेरणा का माध्यम बना है। इस समय पूरी दुनिया कोरोना के अदृश्य नए वैरियंट ओमीक्रोन से जूझ रही है। भारत में भी कोरोना के नए केस तेजी से बढ़ रहे हैं लेकिन भारतीयों के चेहरे पर कोई खौफ नजर नहीं आ रहा। इसका श्रेय देश में सफलतापूर्वक चल रहे टीकाकरण अभियान को जाता है। लेकिन जानबूझकर लापरवाही एवं पाबंदियों एवं बंदिशों की उपेक्षा घातक हो सकती है।

 

इसमें कोई संदेह नहीं कि भारत दुनिया में सबसे तेज कोरोना टीकाकरण करने वाला देश है। 30 दिसम्बर तक भारत की 64 फीसदी आबादी को कोरोना वैक्सीन की दोनों डोज लग चुकी हैं और लगभग 90 फीसदी को कोरोना वैक्सीन की एक डोज लग चुकी है। सम्पूर्ण टीकाकरण का लक्ष्य प्राप्त करने में अभी भी लम्बा समय लगेगा। इसी तरह किशोर भी वैक्सीनेशन के बाद सुरक्षित और स्वतंत्र महसूस करेंगे। अभिभावक भी खुद को बच्चों-किशोरों के जीवन के प्रति किसी जोखिम की चिंता से मुक्त हो जाएंगे।

 

कोरोना आपातकाल में जीवन को सुरक्षित और सहज बनाने के लिए टीका लगवाना जरूरी है। इसलिए जो लोग टीका लगवाने से झिझक रहे हैं, उन्हें भी टीका लगवाना चाहिए। अभिभावक भी बिना किसी खौफ के अपने बच्चों को वैक्सीनेशन केन्द्रों तक ले जाएं तभी संक्रमण का खतरा कम होगा। सामाजिक तौर पर भी हमें जिम्मेदार व्यवहार अपनाना चाहिए और संक्रमण के बचाव के परम्परागत उपायों का पालन करना चाहिए, साथ ही हमें बच्चों को भी यह पालन करना सिखाना होगा। हमें तीसरी लहर का मुकाबला सामूहिक इच्छाशक्ति, संकल्प एवं जिम्मेदारी से करना होगा। अगर हम ऐसा कर गए तो कोरोना वायरस पराजित हो जाएगा। इसलिए हिम्मत से काम लेना होगा।

 

-ललित गर्ग

27 फरवरी पूरे देश के लिए तारीख ही नहीं बल्कि इस तारीख का हमारे देश के अतीत से काला रिश्ता है। यह वह तारीख है जिस पर चढ़ी धूल की परत वक्त गुजर ने के साथ साथ और मोटी होती चली गई।

 

27 फरवरी, 2002 भारत के इतिहास का एक काला अध्याय है, जिसने हिंदू-मुस्लिम भाईचारे की भावना को आग लगा दी थी। इस घटना के बाद पूरा गुजरात सुलग उठा औऱ सांप्रदायिक दंगे फैल गए। जिसमें 1200 से भी ज्यादा लोगों ने जान गंवाई। उस वक्त के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी पर दंगाइयों को रोकने के लिए जरूरी कार्रवाई नहीं करने के आरोप भी लगे। लेकिन बाद में सभी आरोपों से नरेंद्र मोदी को क्लीनचिट भी मिली। ऐसे में आइए जानते हैं जानिए गोधरा कांड और उसके बाद गुजरात में भड़के दंगों की कहानी।

27 फरवरी पूरे देश के लिए तारीख ही नहीं बल्कि इस तारीख का हमारे देश के अतीत से काला रिश्ता है। ये वो तारीख है जिस पर चढ़ी धूल की परत वक्त गुजरने के साथ साथ और मोटी होती चली गई। हमारे देश के मीडिया का एक बड़ा तबका आज खुद को बहुत ही जागरूक, निष्पक्ष और जिम्मेदार मानता है। लेकिन अफसोस की बात ये है कि इस तारीख में छुपी तकलीफ को दुनिया के कोने कोने तक पहुंचाने का समय शायद किसी भी न्यूज़ चैनल या अखबार को पिछले 20 वर्षों में नहीं मिला। हम गोधरा की बात कर रहे हैं, जहां 27 फरवरी 2002 को आधुनिक भारत के इतिहास का काला अध्याय लिखा गया था। इस दिन हमारे स्वतंत्र धर्मनिरपेक्ष देश में सुबह 7:43 पर गुजरात के गोधरा स्टेशन पर 23 पुरुष और 15 महिलाओं और 20 बच्चों सहित 58 लोग साबरमती एक्सप्रेस के कोच नंबर S6 में जिंदा जला दिए गए थे। उन लोगों को बचाने की कोशिश करने वाला एक व्यक्ति भी 2 दिनों के बाद मौत की नींद सो गया था।

अयोध्या से वापस लौट रही थी श्रद्धालुओं से भरी ट्रेन

अयोध्या में विश्व हिंदू परिषद की तरफ से फरवरी 2002 में पूर्णाहुति महायज्ञ का आयोजन किया गया था। देश के विभिन्न कोने से बड़ी संख्या में श्रद्धालु वहां गए थे। 25 फरवरी 2002 को अहमदाबाद जाने वाली साबरमती एक्सप्रेस ट्रेन में करीब 1700 तीर्थयात्री और कारसेवक सवार हुए थे। ट्रेन 27 फरवरी की सुबह 7 बजकर 43 मिनट पर गोधरा स्टेशन पहुंची। जैसे ही ट्रेन रवाना होने लगी, चेन पुलिंग की वजह से सिग्नल के पास ट्रेन रुक गई। और फिर बड़ी संख्या में भीड़ ने आगजनी की घटना को अंजाम दिया। 

 

अक्सर  गुजरात दंगों की बात गोधरा कांड पर आकर रुक जाती है यह दलील दी जाती है कि गुजरात दंगे, गोधरा कांड में किए क्रिया की प्रतिक्रिया थी। लेकिन कभी भी इन दोनों घटनाओं को न्याय की एक ही कसौटी पर रखकर नहीं तौला जाता। गोधरा कांड का इंसाफ आज भी अधूरा है। जिसमें 59 लोगों की चीखें छिपी है जिसकी गूंज आज तक किसी नेता के कान तक नहीं पहुंची और ना ही मानवता की दुहाई देने वाले मीडिया को कभी सुनाई थी। मामले पर 2011 में निचली अदालत का फैसला भी आया जिसमें 11 लोगों को मौत की सजा सुनाई गई। जबकि 20 लोगों को उम्र कैद की सजा हुई। लेकिन गोधरा कांड के ठीक 1 दिन बाद से गुजरात ही नहीं बल्कि पूरे देश की राजनीति हमेशा के बदल गई।

एसआईटी रिपोर्ट

उसी दिन शाम को गुजरात के मुख्यमंत्री निवास पर बैठक हुई जिसमें नरेंद्र मोदी पर शामिल हुए। इस मीटिंग को लेकर पूर्व आईपीएस संजीव भट्ट ने दावा किया था कि मोदी ने हिंदुओं की प्रतिक्रिया होने देने की बात कही थी। लेकिन एसआईटी ने संजीव भट्ट के आरोपों को गलत माना और कहा कि वह 27 तारीख की उस मीटिंग में मौजूद ही नहीं थे। एसआईटी ने कहा वह (संजीव भट्ट) तथ्यों को घुमा फिरा रहे हैं और मीडिया को बरगलाने की साजिश रच कर ना सिर्फ एमिकस क्यूरी राजू रामचंद्रन बल्कि सुप्रीम कोर्ट पर भी दबाव डालने की कोशिश कर रहे हैं।

कारसेवकों के शवों को गोधरा से अहमदाबाद लाने का फैसला हुआ पुलिस और प्रशासनिक अधिकारियों ने इसका विरोध किया था। द नमो स्टोरी के लेखक के अनुसार मोदी सरकार के मंत्री हरेन पांड्या ने भी इसका विरोध किया था। 2003 में  पांड्या की हत्या कर दी गई थी। इसके लिए उनके पिता ने मोदी को दोषी ठहराया था। हालांकि सीबीआई ने जांच के बाद मोदी को क्लीन चिट दे दी थी। शवों को गोधरा स्टेशन से अहमदाबाद लाया गया और विहिप को सौंपा गया। उस वक्त शहर में कर्फ्यू नहीं लगा था और जल्दी हैं अहमदाबाद में दंगे फैल गए।

गोधरा कांड के बाद पूरे गुजरात में हुआ दंगा

गोधरा की घटना में 1500 लोगों के खिलाफ प्राथमिकी दर्ज की गई थी। इस घटना के बाज पूरे गुजरात में सांप्रदायिक हिंसा भड़क उठी और जान-माल का भारी नुकसान हुआ। हालात इस कदर बिगड़े कि तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को जनता से शांति की अपील करनी पड़ी। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक दंगों में 1200 लोगों की मौत हुई थी।

 

नानावटी आयोग की 15 सौ पन्नों की रिपोर्ट 

27 फरवरी 2002 को गोधरा में साबरमती एक्सप्रेस में 59 कारसेवकों को जलाने की घटना के प्रतिक्रियास्वरूप समूचे गुजरात में दंगे भड़क उठे थे। इसकी जांच के लिए तीन मार्च 2002 को सुप्रीम कोर्ट के सेवानिवृत्त जज न्यायमूर्ति जीटी नानावती की अध्यक्षता में एक आयोग का गठन किया गया। न्यायमूर्ति केजी शाह आयोग के दूसरे सदस्य थे। शुरू में आयोग को साबरमती एक्सप्रेस में आगजनी से जुड़े तथ्य और घटनाओं की जांच का काम सौंपा गया। लेकिन जून 2002 में आयोग को गोधरा कांड के बाद भड़की हिंसा की भी जांच करने के लिए कहा गया। आयोग ने दंगों के दौरान नरेंद्र मोदी, उनके कैबिनेट सहयोगियों व वरिष्ठ अफसरों की भूमिका की भी जांच की। आयोग ने सितंबर 2008 में गोधरा कांड पर अपनी प्राथमिक रिपोर्ट पेश की थी। इसमें गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को क्लीन चिट दी गई थी। उस समय आयोग ने साबरमती एक्सप्रेस की बोगी संख्या-छह में आग लगाने को सुनियोजित साजिश का परिणाम बताया था। 2009 में जस्टिस शाह के निधन के बाद अक्षय मेहता को सदस्य बनाया गया। आयोग ने 45 हजार शपथ पत्र व हजारों गवाहों के बयान के बाद करीब 15 सौ पेज की रिपोर्ट तैयार की। अब इस रिपोर्ट को विधानसभा के पटल पर रखा गया। नानावटी कमीशन ने उन्हें क्लीन चिट दी और तमाम तरह के प्रोपोगैंडा जो न सिर्फ देश बल्कि पूरी दुनिया में फैलाए गए उसे सिरे से खारिज किया गया। इस रिपोर्ट में ये बताया गया कि वहां पर कोई भी ऐसा काम नहीं किया गया जो राज्य सरकार को नहीं करना चाहिए थे। 

सिलसिलेवार घटनाक्रम पर एक नजर..

27 फरवरी 2002 : गोधरा रेलवे स्टेशन के पास साबरमती ट्रेन के एस-6 कोच में आग लगाने से 59 से अधिक कारसेवकों की मौत हुई थी। 

28 फरवरी 2002 : गुजरात के कई इलाकों में दंगा भड़कने से 1200 से अधिक लोग मारे गए।

03 मार्च 2002 : गोधरा ट्रेन जलाने के मामले में गिरफ्तार किए गए लोगों के खिलाफ आतंकवाद निरोधक अध्यादेश (पोटा) लगाया गया।

25 मार्च 2002 : केंद्र सरकार के दबाव की वजह से सभी आरोपियों पर से पोटा हटाया गया।

18 फरवरी 2003 : गुजरात में भाजपा सरकार के दोबारा चुने जाने पर आरोपियों के खिलाफ फिर से आतंकवाद निरोधक कानून लगा दिया गया।

21 सितंबर : नवगठित संप्रग सरकार ने पोटा कानून को खत्म कर दिया और अरोपियों के खिलाफ पोटा आरोपों की समीक्षा का फैसला किया।

17 जनवरी 2005 : यूसी बनर्जी समिति ने अपनी प्रारंभिक रिपोर्ट में बताया कि गोधरा कांड महज एक ‘दुर्घटना’थी।

13 अक्टूबर 2006 : गुजरात उच्च न्यायालय ने कहा कि यूसी बनर्जी समिति का गठन ‘अवैध’ और ‘असंवैधानिक’ है, क्योंकि नानावटी-शाह आयोग पहले ही दंगे से जुड़े सभी मामले की जांच कर रहा है। 

26 मार्च 2008 : सुप्रीम कोर्ट ने गोधरा कांड और फिर हुए दंगों से जुड़े आठ मामलों की जांच के लिए विशेष जांच आयोग बनाया।

18 सितंबर : नानावटी आयोग ने गोधरा कांड की जांच सौंपी। इसमें कहा गया कि यह पूर्व नियोजित षड्‍यंत्र था।

22 फरवरी : विशेष अदालत ने गोधरा कांड में 31 लोगों को दोषी पाया, जबकि 63 अन्य को बरी किया।

1 मार्च 2011: विशेष अदालत ने गोधरा कांड में 11 को फांसी, 20 को उम्रकैद की सजा सुनाई। 

-अभिनय आकाश

  • R.O.NO.13286/69 "
  • R.O.NO. 13259/63 " A

Ads

R.O.NO. 13286/69

MP info RSS Feed

फेसबुक