ईश्वर दुबे
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Bhilai
अश्लीलता एवं अश्लील सोच एक जीवन शैली का रूप ले रही है जोकि खतरनाक है, यह समाज के विभिन्न सूत्रों को प्रभावित करती है। पर उससे भी खतरनाक बात यह है कि चुने हुए जनप्रतिनिधि को इस तरह की अपसंस्कृति को महिमामंडित करने में कोई हिचक नहीं है।
नया भारत-सशक्त भारत को निर्मित करते हुए आज भी स्त्रियों के प्रति प्रदूषित एवं अश्लील दृष्टिकोण का कायम रहना, परेशान करता है। विडम्बना तो यह है कि इस तरह का अनैतिक, अमर्यादित एवं अश्लील दृष्टिकोण आम आदमी का नहीं बल्कि देश के भाग्यविधाता बने राजनेताओं का है। ऐसा ही एक शर्मनाक दृश्य कर्नाटक विधानसभा में सम्पूर्ण देश ने मीडिया के माध्यम से देखा, जब विधायक रमेश कुमार ने एक तरह से बलात्कार के बचाव में बेहद शर्मनाक टिप्पणी की। मंत्री रह चुके इस वरिष्ठ विधायक ने हंगामा होने के बाद माफी मांग ली है, लेकिन उनकी टिप्पणी इतनी अश्लील एवं नारी अस्मिता को आघात करने वाली है कि विवाद जल्दी शांत नहीं होगा, होना भी नहीं चाहिए। विरोध का धुंआ उठना ही चाहिए। महिलाओं ने त्वरित प्रक्रिया व्यक्त करते हुए इस तरह के व्यक्तियों के लोकतांत्रिक पदों पर कायम रहने को राष्ट्र का अपमान बताया है।
महिलाओं पर हो रहे बलात्कार, व्यभिचार, अपराध को रोकना या रोकने में मदद करना सरकार और उससे जुड़े लोगों की जिम्मेदारी है, लेकिन अव्वल तो अपराध को नहीं रोक पाना और इस तरह की आपराधिक स्थितियों का आनंद लेते हुए चर्चा करना हर दृष्टि से अक्षम्य है, एक अपराध है। अक्सर ऐसे मौके आते हैं, जब इस तरह से हमारे जन-प्रतिनिधियों का व्यवहार दुखी और शर्मसार कर जाता है। विधायक रमेश कुमार एवं पूरे सदन का इस चर्चा के दौरान जो व्यवहार देखने को मिला, वह लोकतांत्रिक मूल्यों का मखौल उड़ा रहा था, सदन की मर्यादाओं को शर्मसार कर रहा था।
कांग्रेस नेता रमेश कुमार की ओर से की गई दुखद एवं त्रासद टिप्पणी को लेकर कांग्रेस पार्टी की सहजता आश्चर्य करने वाली है, इस घटना पर भाजपा का आक्रामक होना स्वाभाविक है। केंद्रीय महिला एवं बाल विकास मंत्री स्मृति ईरानी ने शुक्रवार को यह मामला लोकसभा में उठा दिया। कांग्रेस नेता मल्लिकार्जुन खड़गे ने विधायक की माफी के बाद इस मामले को तूल देने को गलत ठहरा दिया है। हालांकि, जो कांग्रेस लखीमपुर खीरी मामले में केंद्रीय गृह राज्य मंत्री अजय कुमार मिश्रा की बर्खास्तगी की मांग को लेकर आक्रामक बनी हुई थी, उसके तीखे तेवर कांग्रेस विधायक की विवादास्पद एवं शर्मनाक टिप्पणी के बाद नरम पड़े हैं। वैसे अपने-अपने दागियों के बचाव की राजनीति नई नहीं है, लेकिन यह सिलसिला कहीं तो रुकना चाहिए। नैतिकता ही किसी को सच बोलने का साहस प्रदान करती है। चरित्रवान राजनेता ही ऐसे मौकों पर सत्य का साथ देते हैं। लोकतांत्रिक पदों पर आसीन होकर भी राजनेता कहां आदर्श उपस्थित कर पाते हैं? आज चारों तरफ से ऐसे चरित्रहीन राजनेताओं के खिलाफ महिलाएं आवाज उठा रही हैं। लोकसभा में चर्चा हो रही है। इस चारित्रिक गिरावट को रोका जाए। अश्लील सोच को रोका जाए, इस पर सब एकराय थे। राजनेताओं के लिये एक आचार संहिता होनी चाहिए, बोलने की मर्यादा एवं नारी के प्रति सम्मान का नजरिया होना चाहिए। पर ऐसा न होना राष्ट्र का दुर्भाग्य है।
कर्नाटक विधानसभा में जो घटित हुआ, वह पहली बार घटा ऐसा नहीं है। कुछ साल पहले इसी सदन में अश्लील फिल्म देखने का आरोप तीन भाजपा विधायकों पर भी लगा था, उनमें से एक बाद में उप-मुख्यमंत्री भी बनाए गए। इसलिए अपने दागी को बचाना और दूसरे के दागी पर निशाना साधने की राजनीति हमें उत्तरोतर पतन की ओर ही ले जा रही है। सपा सांसद जया बच्चन ने उचित कहा है कि पार्टी को दोषी विधायक पर सख्त कार्रवाई करनी चाहिए, ताकि यह उदाहरण बने, जिससे वह ऐसा सोचें भी नहीं, सदन में बोलना तो दूर की बात है। जब सदन में ऐसे लोग बैठेंगे, तो जमीन पर स्थितियां कैसे सुधरेंगी? आम आदमी में सुधार की अपेक्षा कैसे की जा सकती है। राजनीति की इन दूषित हवाओं ने न केवल सदनों की गरिमा को बल्कि भारत की चेतना को प्रदूषित कर दिया है। बुराई कहीं भी हो, स्वयं में या समाज, परिवार अथवा देश में तत्काल त्वरित कार्रवाई करना सर्वोच्च नेतृत्व को अपना दायित्व समझना चाहिए। क्योंकि एक नैतिक एवं चरित्रवान जनप्रतिनिधि न केवल पार्टी का बल्कि एक स्वस्थ समाज, स्वस्थ राष्ट्र एवं स्वस्थ जीवन की पहचान बनता है। ऐसी पहचान न बनना सबसे बड़ी नाकामी है। बड़ा प्रश्न है कि हम कैसी लोकतांत्रिक व्यवस्था निर्मित कर रहे हैं? हम भला कैसी विधायिका के दौर में जी रहे हैं? विधायक जब बोल रहे थे, तब पूरे सदन में ठहाके लग रहे थे। ऐसे में, आज हर जागरूक नागरिक स्वाभाविक ही रोष में है, महिलाओं का रोष एवं उनके द्वारा विधायक के इस्तीफे की मांग करना गलत नहीं है।
जिस तेजी के साथ अश्लीलता एवं अश्लील सोच एक जीवन शैली का रूप ले रही है वह अवश्य खतरनाक है, यह समाज के विभिन्न सूत्रों को प्रभावित करती है। पर उससे भी खतरनाक बात यह है कि चुने हुए जनप्रतिनिधि को इस तरह की अपसंस्कृति को महिमामंडित करने में कोई हिचक नहीं है। अपनी मूल संस्कृति की परिधि से ओझल होते ही जीवन संस्कारों का आधार खिसक जाता है, बिना चार दीवारी का मकान बन जाता है जहां सब कुछ असुरक्षित होता है। अतीत तो मिटता नहीं, मिटता वर्तमान ही है और भुगतता भविष्य है। इस संबंध में इस वास्तविकता को अनदेखा नहीं किया जा सकता। अपने आनन्द के बदले संस्कृति के मूल्यों के स्खलन की उन्हें परवाह नहीं होती। ऐसे लोग संस्कृति के साथ खिलवाड़ करने के अपराधी हैं।
दरअसल, हमारे समाज में ऐसे लोगों की बड़ी संख्या है, जो महिलाओं के साथ होने वाले अत्याचार, बलात्कार, व्यभिचार को लेकर ज्यादा गंभीर नहीं है। इसीलिये महिलाओं के खिलाफ अपराध निरंतर बढ़ रहा है। एनसीआरबी 2019 के अनुसार, अपने देश में प्रति 16 मिनट पर एक बलात्कार होता है, ससुराल में हर चार मिनट पर एक महिला के साथ निर्मम एवं बर्बर घटना घटित होती है। नेताओं को तो चर्चा यह करनी चाहिए कि इस निर्ममता एवं बर्बरता को कैसे खत्म किया जाए, लेकिन जब वह किसी न किसी बहाने से महिला विरोधी अपराध को सामान्य बताने की कुचेष्टा करते हैं, तो यह किसी अपराध से कम नहीं है। ऐसे हल्के नेताओं के वजूद पर अवश्य आंच आनी चाहिए, ताकि दुनिया को महिलाओं के अनुकूल बनाया जा सके, उनकी अस्मिता एवं अस्तित्व को कुचले जाने की कुचेष्टाओं पर विराम लगाया जा सके। अन्यथा जन्म से लेकर मृत्यु तक एक स्त्री के प्रति जिस तरह की धारणाएं समाज में काम करती हैं, उसमें बिना किसी अतिरिक्त प्रयास के लड़कियां या महिलाएं कई बार अपने न्यूनतम मानवीय अधिकारों एवं सम्मान से भी वंचित हो जाती हैं। उन्हें जो मिलता भी है, उसमें या तो दया भाव छिपा होता है या फिर वह उच्च सदनों में ऐसी त्रासद एवं स्तरहीन चर्चा में बार-बार कुचली जाती है। जब हमारी संस्कृति की सीमाओं को लांघा जाता है, हमारी नारी अस्मिता को दूषित करने की मानसिकता की चर्चाओं को भी तथाकथित रसभरा बनाने की कोशिश होती है एवं नारी की लज्जा और उसकी मान-मर्यादा की रक्षा के नाम पर उसको नंगा किये जाने का कुत्सित प्रयास होता है, तब भारत की आत्मा रो पड़ती है। जब इस तरह के फूहड़पन को जबरन हमारे सदनों की चौखट के भीतर घुसाया जा रहा होता है, तब ऐसा विभिन्न राजनीतिक दलों में मौन और गोलमाल क्यों? जनप्रतिनिधियों की नई पात्रता का निर्माण हो, उनका चरित्र एवं साख अपमान नहीं, सम्मान का माध्यम बने, जहां हमारी संस्कृति, हमारा चरित्र एवं हमारी नैतिकता पुनः अपने मूल्यों के साथ प्रतिष्ठापित हो। ऐसा होने से ही अश्लीलता घूंघट निकाल लेगी।
-ललित गर्ग
ममता बनर्जी ने अन्य राज्यों में तृणमूल कांग्रेस का आधार बढ़ाने के लिए और विपक्ष का नेतृत्व हासिल करने के लिए जो अभियान चलाया है यदि उसमें उन्हें सफलता मिली तो आगे के लिए उनका हौसला बुलंद हो जायेगा और विपक्ष का नेतृत्व कांग्रेस के हाथ से खिसक जायेगा।
पाँच राज्यों के विधानसभा चुनाव परिणाम से वैसे तो प्रदेशों में सरकारों का गठन होना है लेकिन यह नतीजे केंद्र की राजनीति की दशा-दिशा भी तय करेंगे। साल 2014 से केंद्र में भाजपा का राज उत्तर प्रदेश के बलबूते ही बना हुआ है इसलिए भाजपा हर हाल में यह प्रदेश दोबारा जीतना चाहेगी। यही नहीं उत्तर प्रदेश में यदि योगी आदित्यनाथ दोबारा सत्ता में वापसी करते हैं तो भविष्य में केंद्रीय राजनीति के द्वार भी उनके लिए खुल जायेंगे। इन चुनावों में वर्तमान मुख्यमंत्रियों का राजनीतिक भविष्य तो दाँव पर लगा ही है साथ ही विपक्ष के कई नेताओं के लिए अपना आधार बचाये रखने के लिए भी यह चुनाव महत्वपूर्ण हैं। इन चुनावों में गठबंधन राजनीति के उन नये प्रयोगों की भी परख होगी जो भाजपा को हराने के लिए बनाये गये हैं। इन चुनावों के परिणाम इस सवाल का भी कुछ हद तक जवाब तलाशेंगे कि साल 2024 में होने वाले आम चुनावों में किन नेताओं के बीच होगा मुकाबला ? ममता बनर्जी ने अन्य राज्यों में तृणमूल कांग्रेस का आधार बढ़ाने के लिए और विपक्ष का नेतृत्व हासिल करने के लिए जो अभियान चलाया है यदि उसमें उन्हें सफलता मिली तो आगे के लिए उनका हौसला बुलंद हो जायेगा और विपक्ष का नेतृत्व कांग्रेस के हाथ से खिसक जायेगा।
यूपी में किसके सामने क्या चुनौती?
सिर्फ उत्तर प्रदेश की राजनीति की ही बात कर लें तो यहां मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के समक्ष सत्ता में वापसी की तगड़ी और मुश्किल चुनौती है। यदि वह सत्ता में वापसी करते हैं तो इतिहास रच देंगे और भाजपा के राष्ट्रीय स्तर के नेताओं में शुमार हो जायेंगे। हो सकता है आगे चल कर उनको पीएम उम्मीदवार भी बना दिया जाये लेकिन यदि उनके नेतृत्व में पार्टी सत्ता में नहीं लौटी तो वह राजनीतिक रूप से एकदम किनारे किये जा सकते हैं। वहीं अखिलेश यादव के लिए भी खुद को साबित करने का अहम मौका है। अखिलेश यादव ने पिता मुलायम सिंह यादव की इच्छा के विपरीत समाजवादी पार्टी का नियंत्रण अपने हाथ में ले लिया और एक के बाद एक ऐसे फैसले किये जिससे पार्टी को बड़ा नुकसान उठाना पड़ा। इस बार यदि उनके नेतृत्व में समाजवादी पार्टी ने विधानसभा चुनावों में अच्छा प्रदर्शन किया तो यकीनन उनका राजनीतिक कद बढ़ जायेगा और यदि वह एक बार फिर विफल रहे तो घर से ही उनके खिलाफ बगावत खड़ी हो सकती है। यही नहीं अखिलेश के नेतृत्व वाला गठबंधन अगर हारा तो आगामी चुनावों में राजनीतिक दल उनके साथ गठबंधन के लिए राजी नहीं होंगे। इसी तरह कांग्रेस की राष्ट्रीय महासचिव प्रियंका गांधी वाड्रा के राजनीतिक कॅरियर के लिए भी यह चुनाव बड़ी चुनौती हैं क्योंकि लोकसभा चुनावों में गांधी परिवार का गढ़ अमेठी भी बचाने में नाकामयाब रहीं प्रियंका गांधी वाड्रा यदि विधानसभा चुनावों में कांग्रेस को नहीं उबार पाईं तो आगे के लिए मुश्किलें और बढ़ जायेंगी। राष्ट्रीय लोक दल के अध्यक्ष रहे चौधरी अजित सिंह के निधन के बाद अब पार्टी की कमान उनके बेटे जयंत चौधरी के हाथ में आ गयी है। जयंत के समक्ष अपने राजनीतिक कॅरियर को और पार्टी को बचाये रखने की तगड़ी चुनौती है। देखना होगा कि क्या समाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन कर जयंत अपनी पार्टी का खाता विधानसभा में खोल पाते हैं।
इसके अलावा उत्तर प्रदेश में तमाम ऐसे क्षेत्रीय दल हैं जिनके नेता अपने सुनहरे राजनीतिक भविष्य की खातिर किसी ना किसी गठबंधन में शामिल हो गये हैं। चुनाव उत्तर प्रदेश का है तो जाति के आधार पर बने दल ही नहीं बल्कि धर्म के नाम पर राजनीति करने वाले दल भी मैदान में कूद पड़े हैं। राष्ट्रीय दल, उत्तर प्रदेश आधारित क्षेत्रीय दल तो चुनाव मैदान में हैं ही साथ ही अन्य राज्यों की पार्टियां जैसे पश्चिम बंगाल से तृणमूल कांग्रेस, दिल्ली से आम आदमी पार्टी, तेलंगाना से एआईएमआईएम जैसे दल भी उत्तर प्रदेश में अपने लिये संभावनाएं तलाशने पहुँचे हैं। इन पार्टियों के नेता अपने आप को यूपी के लोगों का सबसे बड़ा हितैषी बता रहे हैं और बड़े-बड़े वादे भी कर रहे हैं। देखना होगा कि प्रदेश की जनता इनके बारे में क्या फैसला करती है।
उत्तराखण्ड का राजनीतिक हाल क्या है?
वहीं बात अगर उत्तराखण्ड की करें तो जबसे इस राज्य का गठन हुआ है तबसे एक बार भाजपा और एक बार कांग्रेस सत्ता में आती रही है। यहाँ अधिकतर मुख्यमंत्री अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पाये लेकिन राजनीतिक रूप से कभी बड़ी अस्थिरता का सामना इस राज्य ने नहीं किया। इस समय भाजपा सरकार का नेतृत्व पुष्कर सिंह धामी के हाथ में है। धामी जिस स्टाइल में काम कर रहे हैं उसने राज्य सरकार के प्रति नकारात्मक भाव को कुछ हद तक कम जरूर किया है लेकिन देखना होगा कि क्या वह उत्तराखण्ड का राजनीतिक इतिहास बदल पाने में सक्षम हो पाएंगे जिसमें किसी पार्टी की सरकार लगातार दोबारा सत्ता में नहीं लौटी है। उत्तराखण्ड में भाजपा के समक्ष नेतृत्व का संकट तो नहीं है लेकिन कांग्रेस जरूर इस मुद्दे को लेकर परेशान है। पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत अभी रिटायर होने को तैयार नहीं हैं लेकिन कांग्रेस उनके नेतृत्व में चुनाव लड़ने के पक्ष में नहीं है क्योंकि मुख्यमंत्री रहते हुए वह अपना विधानसभा चुनाव हार गये और बाद में लोकसभा चुनावों में भी उन्हें हार का मुँह देखना पड़ा। उत्तराखण्ड में आम आदमी पार्टी भी दम दिखाने को आतुर है लेकिन चूँकि उसका प्रभावी संगठन यहां नहीं है इसलिए मुख्य मुकाबला भाजपा और कांग्रेस के बीच ही होने के आसार हैं। धामी यदि भाजपा को दोबारा सत्ता में ले आये तो संभव है अन्यों की अपेक्षा वह अपना नया कार्यकाल पूरा कर पायें।
गोवा का चुनावी मौसम कैसा है?
वहीं गोवा राज्य की बात करें तो जिस तरह की राजनीतिक उठापटक यहाँ देखने को मिल रही है वह चुनाव करीब आते-आते और बढ़ेगी। मुख्यमंत्री प्रमोद सावंत पूर्व मुख्यमंत्री स्वर्गीय मनोहर पर्रिकर की पसंद थे। यकीनन वह साफ छवि के मुख्यमंत्री साबित हुए हैं लेकिन पार्टी को सत्ता में लाने की चुनौती पर विजय यदि वह पा लेते हैं तो उनका कद बढ़ जायेगा। दूसरी ओर कांग्रेस में जिस तरह की भगदड़ मची है वह ऐन चुनावों से पहले पार्टी को नुकसान पहुँचा रही है। राहुल गांधी ने कुछ क्षेत्रीय दलों का कांग्रेस के साथ गठबंधन तो करा दिया है लेकिन वहां कांग्रेस ही नजर नहीं आ रही है। एक-एक कर कांग्रेस नेता या तो तृणमूल कांग्रेस या फिर आम आदमी पार्टी या फिर भाजपा में शामिल हो रहे हैं। यदि कांग्रेस का यही हाल रहा तो वह मुख्य मुकाबले से ही बाहर हो सकती है। स्वर्गीय मनोहर पर्रिकर के सत्ता में आने के बाद से कांग्रेस के लिए गोवा की सत्ता दूर की कौड़ी हो गयी थी जिसे अब वापस पाने के प्रयास पार्टी कर रही है लेकिन इन प्रयासों में गंभीरता की कमी साफ नजर आ रही है। प्रियंका गांधी जिस दिन गोवा गईं उसी दिन प्रदेश कांग्रेस के कई बड़े नेता तृणमूल कांग्रेस में शामिल हो गये, जो दर्शाता है कि वहां कांग्रेस का क्या हाल है। आम आदमी पार्टी भी यहां मेहनत करती हुई दिख रही है। हाल में निकाय चुनावों में उसे जो थोड़ी बहुत सफलता मिली थी उसके चलते वह विधानसभा चुनावों के लिए काफी आशावान नजर आ रही है। देखना होगा कि जनता क्या आम आदमी पार्टी को मौका देती है?
पंजाब में अबकी बार किसकी सरकार?
वहीं अगर पंजाब की बात करें तो यहाँ पिछले कुछ समय से कभी कांग्रेस और कभी शिरोमणि अकाली दल और भाजपा गठबंधन का शासन रहा है लेकिन इस बार आम आदमी पार्टी सत्ता हासिल करने के लिए बेताब है। लेकिन अभी वह इस सवाल का जवाब नहीं दे पा रही है कि उसकी सरकार बनी तो मुख्यमंत्री पद कौन संभालेगा। आम आदमी पार्टी ने हालांकि जिस तरह के सब्जबाग जनता को दिखाने शुरू किये हैं उससे जनता का एक वर्ग प्रभावित जरूर नजर आ रहा है। कांग्रेस के समक्ष पंजाब में सिर्फ अपनी सत्ता बचाने की चुनौती नहीं है बल्कि गांधी परिवार के फैसले को भी सही साबित करने की चुनौती है। गांधी परिवार के निर्देश पर ही कैप्टन अमरिंदर सिंह को इस्तीफा देना पड़ा और चरणजीत सिंह चन्नी मुख्यमंत्री बनाये गये। यदि कांग्रेस पंजाब हारी तो गांधी परिवार के फैसलों पर जी-23 के नेता बड़े सवाल फिर से खड़े कर सकते हैं। दूसरी ओर पंजाब में सरकार और कांग्रेस का बरसों तक नेतृत्व करने के बाद अब कैप्टन अमरिंदर सिंह अपनी पार्टी बना चुके हैं और वह भाजपा के साथ गठबंधन कर मैदान में उतरने वाले हैं। देखना होगा कि इस गठबंधन को राष्ट्रवाद का मुद्दा कितना चुनावी लाभ दिला पाता है। भाजपा को उम्मीद है कि कृषि कानून वापस लेने के बाद अब उसके खिलाफ नकारात्मक माहौल नहीं रह गया है। वहीं शिरोमणि अकाली दल के सामने भी चुनौती है कि यदि इस बार उसके गठबंधन की सरकार नहीं बनी तो पार्टी को संभाले रखना मुश्किल हो जायेगा।
मणिपुर में कौन मारेगा बाजी?
मणिपुर की 40 सदस्यीय विधानसभा के लिए भी चुनाव कराये जाने हैं। वहां इस समय पहली भाजपा सरकार है। मणिपुर में भाजपा शासन में विकास के कार्य तो कई हुए हैं साथ ही प्रदेश में शांति भी स्थापित हुई है। वरना पहले हड़तालें आदि ही चलती रहती थीं। पूरे पूर्वोत्तर क्षेत्र में विकास कार्यों को जिस तरह से केंद्र सरकार वरीयता दे रही है उसका लाभ यहां भाजपा को मिल सकता है। लेकिन नगालैंड की हाल की घटना के बाद अफ्सपा वापसी की मांग जोर पकड़ रही है। ऐसे में यहां रैलियां करने के लिए जब भाजपा के आला नेता आयेंगे तो उसने जनता जरूर सवाल करेगी। प्रदेश कांग्रेस ने तो आगे बढ़ कर वादा भी कर दिया है कि यदि वह सत्ता में आई तो कैबिनेट की पहली बैठक में पूरे प्रदेश से अफ्सपा हटाने का फैसला लिया जायेगा। कांग्रेस ने यहां हाल ही में पार्टी में कुछ बदलाव कर संगठन में जान फूंकने की कोशिश की है लेकिन पार्टी में चल रही उठापटक उसे नुकसान पहुँचा सकती है। पिछले चुनावों में भी सबसे बड़ी पार्टी बनने के बावजूद कांग्रेस यहां सरकार नहीं बना पाई थी जबकि भाजपा ने कुछ सहयोगी दलों को साथ लेकर पूरे पाँच साल सरकार चला कर दिखा दिया। मणिपुर में यदि मुख्यमंत्री एन. बीरेंद्र सिंह दोबारा सत्ता में लौटते हैं तो भाजपा के बड़े नेताओं में शुमार हो सकते हैं।
बहरहाल, पाँच राज्यों के चुनावों में भाजपा के लिए उत्तर प्रदेश को जीतना सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण है। विपक्ष के अनेक दल भी इस बात को समझ रहे हैं कि यदि साल 2024 में देश में होने वाले आम चुनावों में भाजपा का मुकाबला करना है तो उत्तर प्रदेश में भाजपा के विजय रथ को रोकना होगा। देखना होगा कि सारे दलों का यह संयुक्त प्रयास क्या इस बार कोई रंग लाता है या पाँचों राज्यों में भगवा फहराता है। वैसे यदि पाँचों राज्यों में भाजपा की जीत हुई तो इतना तय है कि 2024 के आम चुनावों में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का मुकाबला करना विपक्ष के लिए और कठिन हो जायेगा। लेकिन इसके उलट यदि भाजपा सिर्फ उत्तर प्रदेश में ही सरकार बनाने से चूकती है तो उसको आगे के लिए अपनी रणनीति नये सिरे से तय करनी होगी।
-नीरज कुमार दुबे
मोदी अपनी राजनीति से जिस तरह देश को चौंकाते हैं, वह गांधी के अनुरूप नहीं है। गांधी चौंकाते नहीं थे, बल्कि वे धीरे से अपने कदमों के जरिए समय शैया पर पड़े इतिहास का करवट बदल देते थे। मोदी भी वैसा ही करते हैं, लेकिन अपने अंदाज से।
गांधी जब दक्षिण अफ्रीका से हमेशा के लिए भारत लौटे थे तो उन्होंने अपने राजनीतिक गुरु गोपालकृष्ण गोखले से पूछा था कि उन्हें क्या करना चाहिए। तब गोखले ने उन्हें पूरे देश को समझने की सलाह दी थी और गांधी की शुरू हुई थी पूरे देश की रेल यात्रा और वह भी तीसरे दर्जे की...तब रेल गाड़ियों में तीसरा दर्जा भी होता था। तीसरे दर्जे को आज के राजनेता शशि थरूर के शब्दों में कहें तो ‘केटल क्लास’ कहा जा सकता है। बहरहाल गांधी जी ने इस यात्रा के जरिए पूरे देश को समझा और इसके बाद उन्होंने कांग्रेस की राजनीति में प्रवेश लिया तो सिर्फ कांग्रेस ही नहीं, पूरे देश का स्वाधीनता आंदोलन बदल गया। कांग्रेस अभिजात्य समूह की पार्टी की बजाय पूरे देश की आकांक्षाओं के साथ ही स्वाधीनता प्राप्ति का साधन बन गयी।
सवाल यह है कि इस विषय की यहां चर्चा क्यों..इस चर्चा की वजह है गांधी के गुजरात की ही दूसरी हस्ती का राजनीतिक कौशल...जी हां, ठीक समझा इशारा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की ओर है। मोदी अपनी राजनीति से जिस तरह देश को चौंकाते हैं, वह गांधी के अनुरूप नहीं है। गांधी चौंकाते नहीं थे, बल्कि वे धीरे से अपने कदमों के जरिए समय शैया पर पड़े इतिहास का करवट बदल देते थे। मोदी भी वैसा ही करते हैं, लेकिन अपने अंदाज से। 13 दिसंबर के बारे में सबको इतना ही पता था कि इस दिन प्रधानमंत्री नई धज के साथ तैयार हुए ‘तीन लोकन ते न्यारी’ काशी के प्राचीन काशी विश्वनाथ मंदिर का दुनिया के श्रद्धालुओं के समक्ष लोकार्पण करेंगे। लेकिन किसी ने नहीं सोचा था कि अपने अंदाज में वे गंगा में त्यागी संन्यासियों के गेरूए वस्त्र में जल पात्र और सूर्य के प्रिय लाल पुष्प को लेकर उतर जाएंगे। कुछ कूढ़मगज आलोचकों की तरह आप भी मोदी की इस उत्सवकेंद्रित शैली की आलोचना कर सकते हैं। शिवसेना के सांसद संजय राऊत जैसे लोग काशी-विश्वनाथ कारीडोर की सज्जा बदलने में अहर्निश जुटे रहे मजदूरों पर मोदी के पुष्प बरसाने और उनके साथ बैठकर सादा भोजन करने को आडंबर बताते हुए आलोचना करते रहें, लेकिन हकीकत यह है कि मोदी के इन कदमों ने देश ही नहीं, दुनिया के सामने लंबी लकीर खींच दी है।
गांधी अपनी सहजता के साथ आम लोगों के दिलों तक सीधे उतर जाते थे। उनकी कृशकाया और उस पर लिपटी फकत धोती, पैरों में साधारण चप्पल और डंडा तब के भारतीय आम आदमी की हैसियत के मुताबिक थी। मोदी आज के दौर में गांधी की तरह हो भी नहीं सकते। वे देश के प्रधानमंत्री हैं और बदले विश्व में प्रधानमंत्री पर तमाम तरह के खतरे हैं। इसलिए सुरक्षा का बड़ा तामझाम है। इस तामझाम की चाहे लाख आलोचना हो, लेकिन जिम्मेदार पदों पर बैठे लोगों के लिए यह तामझाम अनिवार्य बुराई जैसा ही है। लेकिन इस तामझाम के बीच से देश की कार्यपालिका का सर्वोच्च व्यक्ति मजदूरों के बीच उतर जाता है, उनके ही साथ सादा दाल-रोटी खाता है। यह देश के दिल में सीधे घुसता है। इसलिए कि देश में समानता की बात करने वाला अभिजात्य वर्ग सिर्फ बातें ही करता है, जब उसे आम आदमी से बराबरी करने का मौका हाथ लगता है तो वह गंदगी से हाथ झाड़ते हुए अपने अभिजात्यपन में लौट जाता है हाथों पर सैनिटाइजर को मलते हुए। अभिजात्य के इस आडंबर के अभ्यासी निम्न मध्यवर्गीय प्रधान भारतीय समाज के बीच जब कोई सर्वशक्तिमान व्यक्ति सीधे उतरता है और उनके साथ खाना खाता है, उनके पांव पंखारता है तो ये बातें सीधे मर्म को भेदती हैं। मर्म का भेदना ही मोदी की राजनीति की सफलता का मूल मंत्र है।
याद कीजिए, 26 फरवरी 2019 की तारीख.. जगह थी वाराणसी से करीब एक सौ बीस किलोमीटर दूर प्रयागराज..ठीक वाराणसी की ही तरह मोदी उस दिन भी जल में सूर्य का अभिवादन कर रहे थे। बस अंतर यह था कि वाराणसी में सिर्फ पश्चिम मुखी गंगा थी तो प्रयागराज में तीन पवित्र नदियों का संगम...अंतर यह भी था कि उस दिन मोदी के हाथ में कोई पुष्प भी नहीं था..तब वाराणसी की तरह उन्होंने गेरूआ वस्त्र नहीं, बल्कि काले वस्त्र पहने थे। उस दिन प्रयाग कुंभ की सफाई व्यवस्था में लगे महत्तर समाज के लोगों के मोदी ने पांव पंखारे थे। याद कीजिए, उस दिन की मोदी की गंभीर मुद्रा को...इन पंक्तियों के लेखक ने तब यह दृश्य देखकर कुछ परिचितों और परिवारीजनों से कह दिया था कि जल्द ही कुछ खास घटित होने वाला है..संगम के जल में सूर्य को अर्घ्य देते मोदी का मुखमंडल संकेत दे रहा था, लेकिन आध्यात्मिकता की सुदीर्घ परंपरावाले देश के लोगों ने नहीं समझा।
विपक्ष को तो खैर आलोचना करनी ही थी और सदा की तरह वह आलोचनरत था ही। लेकिन उसी रात पाकिस्तान के बालाकोट में भारतीय वायुसेना ने एयर स्ट्राइक करके दक्षिण एशिया की भू-राजनीतिक स्थिति को बदल दिया था। मोदी ने तब भी चौंकाया था, ठीक वैसे ही जैसे उन्होंने वाराणसी में चौंकाया है। गांधी ने रेल गाड़ी के तीसरे दर्जे की अहर्निश यात्रा के बाद देश के मिजाज को समझा था। मोदी ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवक के तौर पर शुरू किए अपने राजनीतिक जीवन के साथ ही लंबे संघर्ष में देश को समझा और यह समझ ही है कि वे काशी विश्वनाथ के पास की बजबजाती गलियों को चमकदार बना देते हैं। बाबा विश्वनाथ का मंदिर चमका देते हैं। राजनीति की पारंपरिक धारा को धत्ता बताते हुए वे अयोध्या में राममंदिर का शिलान्यास कर देते हैं। अपनी जिद्दी छवि को तोड़ते हुए ठीक गुरु नानक जयंती के दिन 19 नवंबर को उन तीन कृषि कानूनों को वापस लेने का ऐलान कर देते हैं, जिन्हें वे अब भी खराब नहीं मानते। मोदी के इन कदमों के देखिए, हर बार उन्होंने देश को चौंकाया है।
वाराणसी में देर रात स्टेशन पर निकल जाना और उसके जरिए सीधे आम लोगों से संवाद करना हो, कभी मेट्रो में उतर कर बच्चे को दुलारना हो, कभी सेल्फी के लिए नौजवानों को प्रोत्साहित करना हो, मोदी की ये सभी शैलियां चौंकाऊ है। अभी हाल की एक यात्रा के दौरान तो पारंपरिक ढंग से उनके घर से हवाई अड्डे तक की सड़क पर रोक नहीं लगाई गई और प्रधानमंत्री का काफिला आम ट्रैफिक के बीच सरपट गुजरता रहा। दुनिया को पता तक नहीं चला कि अभिजात्य में जीने वाले देश का प्रधानमंत्री उनकी ही तरह उनके बीच से गुजर रहा है।
दरअसल मोदी ने जो अपनी शैली विकसित की है, उसकी मीमांसा करने की बजाय उनकी आलोचना पथ के राही इस चौंकाऊपन को समझने की कोशिश भी नहीं करते, सिर्फ मीन-मेख निकालते रहते हैं। दिलचस्प यह है कि जो इहलौकिक आस्थाओं का मजाक उड़ाते हैं, जो आस्थाओं की वैज्ञानिकता के आधार पर खारिज करते हैं, उन्हें भी मोदी का गंगा में नहाना आस्था का मजाक लगने लगता है। दरअसल आलोचक हर बार नकारात्मकता के साथ मोदी विरोधी नैरेटिव का वितान रचते रहते हैं। सोशल मीडिया का विशाल मंच इसमें सहयोगी की भूमिका निभाता है। विरोधीगण सोचते हैं कि सोशल मीडिया के जरिए अपने आलोचन रथ के जरिए देश को मोदी के खिलाफ भड़का देंगे। लेकिन हो उलटा रहा है। 2014 के बाद हुए चुनावों में भाजपा सिर्फ दस प्रतिशत चुनाव ही हारी है। यह बात खुद भाजपा विरोधी प्रशांत किशोर भी स्वीकार कर चुके हैं। और आलोचनातंत्र के सहारे मोदी को पटखनी देने की कोशिश में जुटा मोदी विरोधी पत्रकारीय खेमा और राजनीति लगातार मुंह की खा रही है।
सच मानिए तो अपने कदमों से मोदी राजनेता की मर्यादा से आगे निकलते हुए स्टेट्मैन की तरफ बढ़ चले हैं। कांग्रेस शासित एक राज्य के एक राज्यमंत्री जब ऑफ द रिकॉर्ड कहते हैं कि अब कांग्रेस नेतृत्व को भी मान लेना चाहिए कि मोदी ने इतनी बड़ी लकीर खींच दी है, जिसे कांग्रेस के लिए छोटी करना आसान नहीं है, तब उनका मकसद दरअसल भारतीय राजनीति और मानस की सच्चाई को ही स्वीकार करना होता है। लेकिन हकीकत में कम से कम विपक्षी मोर्चे पर ऐसा होता नजर नहीं आ रहा है।
तो क्या मान लिया जाये कि अपने कदमों से प्रधानमंत्री मोदी ने फिलहाल भारतीय राजनीति को विकल्पहीनता की ओर धकेल दिया है, जनता का मिल रहा प्यार और विपक्षी राजनीति की स्तरहीन आलोचना तो कम से कम इसी सोच को ही साबित कर रही है।
-उमेश चतुर्वेदी
(लेखक वरिष्ठ टिप्पणीकार हैं)
सब समस्याओं एवं स्थितियों के बावजूद भारत का एक स्वतंत्र वजूद भी रहा है, उसकी सोच राजनीति के साथ-साथ मानवीय एवं उदारवादी रही है। शायद यही वजह है कि भारत ने एक बार फिर अफगानिस्तान की जनता की खेर-खबर लेना जरूरी समझा है।
जब दुश्मनी निश्चित हो जाए तो उससे दोस्ती कर लेनी चाहिए- इस एक पंक्ति में फलसफा है, कूटनीति है, अहिंसा है, मानवीयता है एवं जीवन का सत्य है और यही भारतीयता भी है। इसी भारतीयता का एक अनूठा उदाहरण तमाम विपरीत स्थितियों के बावजूद अफगानिस्तान की मदद करके भारत ने प्रस्तुत किया है। भारत ने फिर से सहयोग, संवेदना एवं मानवीय सोच से कदम बढ़ाया है। संकट से जूझ रहे अफगान नागरिकों के लिए यहां से भारी मात्रा में जीवनरक्षक दवाओं की खेप भेजी गई है। जो विमान काबुल से भारतीय और अफगान नागरिकों को लेकर यहां आया था, उसी के जरिए यह खेप भेजी गई। यह भारत का सराहनीय कदम है, मानवीयता से जुड़ा है।
समस्या जब बहुत चिन्तनीय बन जाती है तो उसे बड़ी गंभीरता एवं चातुर्य से नया मोड़ देना होता है। भारत ने ऐसा ही किया गया है। जबसे अफगानिस्तान में तालिबान की सत्ता कायम हुई है, तबसे वहां भारत की गतिविधियां लगभग रुकी हुई थीं। वहां भारत के द्वारा चल रहे विकास के आयाम भी अवरुद्ध हो गये थे। तालिबानी मानसिकता एवं भारत विरोधी गतिविधियों के कारण शुरू में तो भारत लंबे समय तक यही तय नहीं कर पा रहा था कि वह तालिबान को मान्यता दे या न दे, क्योंकि पूरी दुनिया में तालिबान को एक दहशतगर्द, आतंकवादी एवं हिंसक संगठन माना जाता है और इस तरह किसी लोकतांत्रिक व्यवस्था पर कब्जा करके सत्ता बनाने वाली शक्तियों को मान्यता देना लोकतांत्रिक मूल्यों के विरुद्ध माना जाता है। इन स्थितियों के कारण भारत द्वंद्व में रहा। समस्याएं अनेक रही हैं, चीन और रूस की ओर से तालिबान की सत्ता को समर्थन देना भी एक समस्या रही है। भारत के सामने एक समस्या यह भी थी कि उसे अमेरिका का रुख भी देखना था। अमेरिका को पसंद नहीं कि कोई देश अफगानिस्तान की मदद करता। जब उसकी सेना वहां से हटी, तभी तालिबान ने अफगानिस्तान पर कब्जा किया था। इसलिए दुनिया के वे सभी देश तालिबान के विरोध में खड़े थे, जो अमेरिका के मित्र थे। लेकिन इन सब समस्याओं एवं स्थितियों के बावजूद भारत का एक स्वतंत्र वजूद भी रहा है, उसकी सोच राजनीति के साथ-साथ मानवीय एवं उदारवादी रही है। शायद यही वजह है कि भारत ने एक बार फिर अफगानिस्तान की जनता की खेर-खबर लेना जरूरी समझा है।
आज अफगानिस्तान के सम्मुख संकट इसलिए उत्पन्न हुआ कि वहां सब कुछ बनने लगा पर राष्ट्रीय चरित्र नहीं बना और बिन चरित्र सब सून........। तभी आतंकवाद जैसी स्थितियों के लिये उसका इस्तेमाल बेधड़क होने लगा, अहिंसा और शांति चरित्र के बिना ठहरती नहीं, क्योंकि यह उपदेश की नहीं, जीने की चीज है। उसे इस तरह जीने के लिये भारत ने वातावरण दिया, लेकिन उनके पड़ोसी पाकिस्तान ने इस वातावरण को पनपने नहीं दिया। अफगानिस्तान भारत का पड़ोसी है और पाकिस्तान का भी। पाकिस्तान के भारत से रिश्ते हमेशा तनाव भरे ही रहते हैं। ऐसे में अगर अफगानिस्तान का झुकाव भी उसकी तरफ रहेगा, तो भारत के लिए मुश्किलें और बढ़ सकती हैं। इसलिए भारत ने शुरू से अफगानिस्तान के साथ दोस्ताना संबंध बनाए रखा है। तालिबान के कब्जे से पहले वहां भारत ने अनेक विकास परियोजनाओं में भारी धन लगा रखा है। तालिबान के आने के बाद उन परियोजनाओं पर प्रश्नचिह्न लग गया था।
जगजाहिर है कि अफगानिस्तान तालीबानी बर्बरता एवं पाकिस्तानी कुचेष्ठाओं के चलते इस वक्त भयानक संकटों का सामना कर रहा है। देश में भुखमरी के हालात हैं, आम जीवन पर संकट के बादल मंडरा रहे हैं। विकास की जगह आतंकवाद मुख्य मुद्दा बना हुआ है। लाखों लोग पहले ही पलायन कर चुके हैं। सत्ता को लेकर तालिबान के उग्र तेवर एवं भीतर ही भीतर वहां के राजनीतिक गुटों में तना-तनी का माहौल है। देश के अंदरूनी मामलों में पाकिस्तान का दखल मुश्किलों को और बढ़ा रहा है, अधिक चिन्ता की बात तो यह है कि अफगानिस्तान की जमीन का उपयोग आतंकवाद के लिये हो रहा है। एक विकास की ओर अग्रसर शांत देश के लिये ये स्थितियां एवं रोजाना हो रहे आतंकी हमलों में निर्दोष नागरिकों का मारा जाना, भूख-अभाव का बढ़ना, चिन्ताजनक है। भारत यदि इन चिन्ताओं को दूर करने के लिये आगे आया है तो यह एक सराहनीय कदम है।
इस तरह भारत ने अफगानिस्तान को जीवनरक्षक दवाओं की खेप भेज कर न सिर्फ दुनिया के सामने अपना मानवीय पक्ष स्पष्ट किया है, बल्कि अफगानिस्तान के लोगों का दिल जीतने का भी प्रयास किया है और कूटनीतिक दृष्टि से भी बड़ा कदम उठाया है। चीन और अमेरिका दोनों को इससे स्पष्ट संकेत मिल गया है। भारत अभी अफगानिस्तान को पचास हजार टन अनाज और दवाओं की कुछ और खेप भेजने वाला है। यह खेप पाकिस्तान के रास्ते जानी है। पाकिस्तान ने इसके लिए रास्ता दे दिया है, उस पर दोनों तरफ के अधिकारी अंतिम बातचीत के दौर में है। तालिबानी हमले की वजह से अफगानिस्तान में बड़ी तबाही मची है, वहां के पारंपरिक कामकाज भी लगभग ठप हैं। ऐसे में वहां के लोगों के लिए भोजन और दवाओं की किल्लत झेलनी पड़ रही है। भारत से पहुंची यह मदद वहां के लोगों के लिए बड़ी राहत पहुंचाएगी। इससे वहां की जनता में भारत के प्रति मानवीय सोच पनपेगी। भारत चाहता है कि अफगानी लोग अहिंसा, शांति, मानवीयता एवं आतंकमुक्ति का जीवन जीयें। न अहिंसा आसमान से उतरती है, न शांति धरती से उगती है। इसके लिए पूरे राष्ट्र का एक चरित्र बनाना जरूरी होता है, भारत ऐसी ही कोशिश कर रहा है। वही सोने का पात्र होता है, जिसमें अहिंसा रूपी शेरनी का दूध ठहरता है। वही उर्वरा धरती होती है, जहां शांति का कल्पवृक्ष फलता है। ऐसी संभावनाओं को तलाशते हुए ही भारत सहयोग के लिये आगे आया है।
भारत ने तो अफगानिस्तान का लम्बे समय तक सहयोग किया है। वहां के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है, जो भारत वहां का विकास चाहता है, शांति चाहता है, उन्नत चरित्र गढ़ना चाहता है, वहां उन्नत जीवनशैली चाहता है, हर इंसान को साधन-सुविधाएं, शिक्षा-चिकित्सा देना चाहता है, उस देश का भी भारत के साथ प्रगाढ़ मै़त्री संबंध है, इन सुखद स्थितियों के बीच उस जमीन का उपयोग भारत विरोधी गतिविधियों के लिये हो, यह कैसे औचित्यपूर्ण हो सकता है? यह तो विरोधाभासी स्थिति है। भारत तो वहां लंबे समय से विकास की बहुआयामी एवं विकासमूलक योजनाओं में सहयोग के लिये तत्पर है। वहां संसद भवन के निर्माण, सड़कों का नेटवर्क खड़ा करने से लेकर बांध, पुलों के निर्माण तक में भारत ने मदद की है। लेकिन अब मुश्किल तालिबान सत्ता को मान्यता देने को लेकर बनी हुई है। दो दशक पहले भी भारत ने तालिबान की सत्ता को मान्यता नहीं दी थी। जाहिर है, इसमें बड़ी अड़चन खुद तालिबान ही है। जब तक तालिबान अपनी आदिम एवं आतंकी सोच नहीं छोड़ता, मानवाधिकारों का सम्मान करना नहीं सीखता, तब तक कौन उसकी मदद के लिए आगे आएगा? अब यह तालिबान पर निर्भर है कि वह गत दिनों दिल्ली में हुए क्षेत्रीय सुरक्षा संवाद को किस तरह लेता है और कैसे सकारात्मक कदम बढ़ाता है। लेकिन उसकी मानसिकता बदलने तक भारत इंतजार नहीं कर सकता है, इसलिये उसने अफगानी लोगों के सहयोग के लिये अपने कदम बढ़ा दिये हैं, जो सराहनीय है, मानवीय सोच से जुड़े हैं, निश्चित ही इन सहयोगी कदमों का सकारात्मक प्रभाव देखने को मिलेगा।
-ललित गर्ग
वर्तमान राजनीति का एकमात्र उद्देश्य सत्ता प्राप्त करने तक ही सीमित होकर रह गया है। इस कारण लोकतांत्रिक तरीके से चुनाव जीतकर आया राजनीतिक दल जब सत्ता के सिंहासन पर विराजमान होता है तो उसे सरकार के तौर पर देखने की वृत्ति लगभग समाप्त ही हो गई है।
पिछले दो लोकसभा चुनावों ने जो राजनीतिक दृश्य अवतरित किए, उसके कारण कांग्रेस का राजनीतिक अस्तित्व कोई भी मानने के लिए तैयार नहीं है। हालांकि इस स्थिति से कांग्रेस के नेतृत्वकर्ता इत्तेफाक नहीं रखते। क्योंकि वह इस बात को मानने के लिए तैयार ही नहीं हैं कि वह आज कमजोर हो चुकी है। क्षेत्रीय दल कांग्रेस से अच्छी स्थिति में हैं। इसी कारण क्षेत्रीय दल की एक मुखिया ममता बनर्जी ने कांग्रेस पर कमजोरी का टैग लगाते हुए आईना दिखाया है, जिसमें कांग्रेस की वर्तमान हालत दृष्टिगोचर हो रही है।
वर्तमान राजनीति का एकमात्र उद्देश्य सत्ता प्राप्त करने तक ही सीमित होकर रह गया है। इस कारण लोकतांत्रिक तरीके से चुनाव जीतकर आया राजनीतिक दल जब सत्ता के सिंहासन पर विराजमान होता है तो उसे सरकार के तौर पर देखने की वृत्ति लगभग समाप्त ही हो गई है, इसीलिए आज विपक्ष, सरकार को भी एक राजनीतिक दल के तौर पर देखने की मानसिकता बनाकर ही राजनीति करने पर उतारू होता जा रहा है। केवल राजनीतिक फलक प्रदर्शित होना ही राजनीति नहीं कही जा सकती, इसके लिए राष्ट्रीय नीति का परिपालन होना भी आवश्यक है। अच्छी बातों का खुले मन से समर्थन करने की वृति से देश में सकारात्मक अवधारणा निर्मित होती है। यह बात सही है कि आज देश ही नहीं, बल्कि विश्व के कई देशों में हमारे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी राजनीति के केन्द्र बिन्दु हैं। भारत की पूरी राजनीति उनके आसपास ही घूमती दिखाई देती है। चाहे सत्ता पक्ष हो या फिर विपक्ष, बिना मोदी के सबकी राजनीति अधूरी-सी लगती है। वर्तमान में विपक्षी दलों की राजनीति का केवल एक ही उद्देश्य रह गया है, कैसे भी सत्ता प्राप्त की जाए। इसके लिए भले ही झूठ बोलना पड़े। पिछले लोकसभा चुनाव के दौरान ऐसा ही कुछ देखने को मिला, जिसमें एक प्रकरण में राहुल गांधी को माफी भी मांगनी पड़ी। इस प्रकार की राजनीति करना किसी भी प्रकार से उचित नहीं है।
पश्चिम बंगाल में तीसरी बार सत्ता संभालने के बाद यह तय हो गया था कि ममता बनर्जी विपक्ष के लिए तुरुप का इक्का साबित हो सकती हैं, लेकिन बहुत समय निकल जाने के बाद जब विपक्ष ममता बनर्जी के पीछे चलने के लिए तैयार होता दिखाई नहीं दिया, तब स्वयं ममता बनर्जी ने ही कांग्रेस को अप्रासंगिक निरूपित करते हुए अपने आपको विपक्ष के नेता के तौर पर प्रस्तुत करना प्रारंभ कर दिया है। हालांकि इसे राजनीतिक महत्वाकांक्षा का प्रकटीकरण ही माना जाएगा। क्योंकि ममता बनर्जी स्वयं इस तथ्य से परिचित हैं कि तृणमूल कांग्रेस पार्टी का स्वरूप फिलहाल क्षेत्रीय दल की श्रेणी में ही माना जाता है, ऐसे में ममता बनर्जी का यह सपना देखना कि वह केवल अपनी ही पार्टी के सहारे राष्ट्रीय राजनीति का चेहरा बन सकती हैं, कोरी कल्पना ही कहा जाएगा।
वर्तमान में राजनीतिक विश्लेषकों के लिए यह मानने के लिए कोई परेशानी नहीं है कि कांग्रेस सहित कोई भी राजनीतिक दल राष्ट्रीय स्तर पर विकल्प बनने की स्थिति में नहीं है। इसके पीछे कांग्रेस की नीतियों को जिम्मेदार माना जा सकता है। क्योंकि जहां एक ओर कांग्रेस ने अपने आपको राजनीतिक रूप से कमजोर किया है, वहीं विपक्ष को एकजुट करने में भी रोड़ा अटकाने का काम भी किया है। इसलिए यह स्पष्ट तौर पर स्वीकार किया जा सकता है कि कांग्रेस ने अपने आपको तो कमजोर किया ही है, साथ ही विपक्ष को भी कमजोर कर दिया है। राजनीतिक अस्तित्व की दृष्टि से देखा जाए तो यह स्पष्ट ही परिलक्षित होता है कि केवल राज्यों में प्रभाव रखने वाले क्षेत्रीय राजनीतिक दल कांग्रेस से बेहतर स्थिति में हैं। उनका अपना राजनीतिक अस्तित्व बरकरार है। कई राज्यों में कांग्रेस इन क्षेत्रीय दलों का हाथ पकड़कर अपनी डूबती नैया को बचाने के लिए तिनके का सहारा तलाश करती हुई दिखाई देती है। एक समय सम्पूर्ण उत्तर प्रदेश में अपना प्रभाव रखने वाली कांग्रेस की स्थिति इतनी खराब हो चुकी है कि वह अकेले चल ही नहीं सकती है। कांग्रेस की स्थिति स्वयं की खड़ी की हुई है। इसलिए आज ममता बनर्जी द्वारा कांग्रेस की भूमिका को अप्रासंगिक करार देना समय के हिसाब से सही ही है। अब ऐसा लग रहा है कि तृणमूल कांग्रेस की मुखिया अपने आपको विपक्ष के नेता के तौर पर प्रस्तुत करके एक नया खेल खेल रही हैं। हालांकि इसके संकेत उन्होंने अपने शपथ ग्रहण समारोह में ही दे दिए थे, लेकिन वर्तमान राजनीति को देखकर ऐसा ही लग रहा है कि कोई भी क्षेत्रीय दल किसी के पीछे जाने की भूमिका में नहीं दिख रहा।
आज ममता बनर्जी ने कांग्रेस को आइना दिखाया है, जिसमें कांग्रेस की स्थिति साफ दिखाई दे रही है, लेकिन क्या कांग्रेस इसको स्वीकार कर पाएगी या पहले की तरह ही बिना आत्म मंथन के ही वर्तमान शैली में कार्य करती रहेगी। हम जानते ही हैं कि परदे के पीछे से पूरी कांग्रेस को चलाने वाले राहुल गांधी वर्तमान राजनीति के लिए पूरी तरह से अनफिट हो गए हैं, इसी प्रकार करिश्माई नेतृत्व के तौर पर राजनीति में पदार्पित हुई प्रियंका वाड्रा को भी जिस अपेक्षा के साथ स्थापित करने का प्रयास किया गया, वह भी असफल प्रयोग प्रमाणित हो चुका है।
भविष्य में होने वाले चुनावों के लिए विपक्षी राजनीतिक दल अपने आपको किस प्रकार से तैयार करेंगे, यह कहना फिलहाल जल्दबाजी ही होगी, लेकिन इतना तय है कि किसी एक दल का इतना राजनीतिक प्रभाव नहीं है कि वह राष्ट्रीय विकल्प के रूप में स्थापित हो जाए। इसलिए स्वाभाविक रूप से यही कहा जाएगा कि आने वाले समय में फिर से गठबंधन की कवायद भी होगी। जिसमें सभी दल अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षा को प्रदर्शित करेंगे ही। कांग्रेस की स्थिति भी कुछ खास नहीं है, इसलिए वह भी ऐसा ही प्रयास करेगी, लेकिन सवाल यह है कि कांग्रेस की सुनेगा कौन? जब कांग्रेस के वरिष्ठ नेता अपने ही नेताओं की अनदेखी करने की राजनीति कर रहे हैं, तब दूसरे से कैसे आशा की जा सकती है। हम जानते हैं कि कांग्रेस के दिग्गज नेता अपने नेतृत्व पर सवाल खड़े कर चुके हैं और कई प्रभावी राजनेता कांग्रेस छोड़कर जा चुके हैं। ऐसे में अब कांग्रेस से किसी चमत्कार की आशा करना अंधेरे में सुई ढूंढ़ने जैसा ही कहा जाएगा। हालांकि यह राजनीति है, कब कैसी तसवीर बन जाए, कहा नहीं जा सकता।
-सुरेश हिन्दुस्थानी
(लेखक राजनीतिक चिंतक व विचारक हैं)
प्रश्न लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं में लोकतांत्रिक प्रतिनिधियों की जवाबदेही एवं जिम्मेदारी का है। सबके लिये नियम बनाने वाले, सबको नियमों का अनुशासन से पालन करने की प्रेरणा देने वाले सांसद या विधायक यदि स्वयं अनुशासित नहीं होंगे तो यह लोकतंत्र के साथ मखौल हो जाएगा।
सांसदों की उपस्थिति को लेकर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी एक बार फिर तीखे तेवर में दिखे। इस मुद्दे पर वे बहुत सख्त हैं और इस विषय को लेकर उन्होंने सांसदों को चेताया भी है और सुदृढ़ लोकतंत्र के लिये इसे प्राथमिक आवश्यकता बताई। वे समय-समय पर सांसदों को संसद में उपस्थित रहने के लिए कहते रहते हैं। कुछ दिनों तक उनकी चेतावनी का असर दिखता है लेकिन फिर सांसद उपस्थिति के मामले को नजरअंदाज करने लगते हैं। इसलिये शीतकालीन सत्र के प्रारंभ में भाजपा की संसदीय बैठक में एक बार फिर प्रधानमंत्री ने सदन में उपस्थिति के मसले पर सांसदों को सलाह दी है, लेकिन उनकी बातें सभी दलों से जुड़े जनप्रतिनिधियों के लिए अहम एवं एक अनिवार्य सीख एवं लोकतांत्रिक आवश्यकता मानी जानी चाहिए। बात चाहे लोकसभा की हो, राज्यसभा की हो या विधानसभाओं एवं अन्य लोकतांत्रिक सदनों की हो। जानबूझकर अनुपस्थित रहना भी वीवीआईपी संस्कृति की एक त्रासदी रही है, ऐसी त्रासदियों से मुक्ति दिलाने में मोदी ने सार्थक प्रयत्न किये हैं। बिना किसी महत्त्वपूर्ण वजह के गैरहाजिर होना अगर एक प्रवृत्ति या अहंकार को प्रदर्शित करने का तरीका है तो यह न सिर्फ संसद के कामकाज में सभी पक्षों की भागीदारी को कमजोर करता है बल्कि लोकतंत्र को भी आहत करता है।
प्रश्न किसी दल का नहीं, प्रश्न किसी बिल को बहुमत से पारित कराने का भी नहीं है। प्रश्न लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं में लोकतांत्रिक प्रतिनिधियों की जवाबदेही एवं जिम्मेदारी का है। सबके लिये नियम बनाने वाले, सबको नियमों का अनुशासन से पालन करने की प्रेरणा देने वाले सांसद या विधायक यदि स्वयं अनुशासित नहीं होंगे तो यह लोकतंत्र के साथ मखौल हो जाएगा। जब नेताओं के लिये कोई मूल्य मानक नहीं होंगे तो फिर जनता से मूल्यों के पालन की आशा कैसे की जा सकती है? यह किसी से छिपा नहीं है कि लोकसभा या राज्यसभा या विधानसभाओं में सदस्य के तौर पर चुने जाने के बाद बहुत सारे सदस्य संबंधित सदन में नियमित तौर पर उपस्थित होना बहुत जरूरी नहीं समझते। शायद ही कभी ऐसा होता हो जब इन सदनों में सभी जनप्रतिनिधियों की उपस्थिति सुनिश्चित होती हो। ऐसे मौके आम होते हैं, जब सदन में बहुत कम सदस्य मौजूद होते हैं और इस बीच वहां कई जरूरी काम निपटाए जाते हैं। सिने स्टार या क्रिकेटर या ऐसी ही अन्य हस्तियां हो, इनकी सदन में उपस्थिति न के बराबर रहती है। इसलिये अब मांग भी उठने लगी है कि राज्यसभा में ऐसे सदस्यों को नामांकित किया जाए जो कम से कम अपने काम को गंभीरता से ले सकें, जो संसद को पूरा समय दे, जो संसद में आएं और सत्र में कुछ बोलें। अपने अनुभव बांटें और अपने क्षेत्र या राष्ट्र की समस्याओं को सरकार के सामने रखें।
प्रधानमंत्री ने भाजपा सांसदों के बहाने एक तरह से सदन से बेवजह अनुपस्थित रहने की इसी प्रवृत्ति एवं लोकतांत्रिक विसंगति पर टिप्पणी की है। भाजपा संसदीय दल की बैठक में उन्होंने सांसदों की गैरहाजिरी को जिस तरह गंभीरता से लिया, उसकी अपनी अहमियत है। इसके लिए उन्होंने साफ लहजे में हिदायत दी कि वे खुद में बदलाव लाएं, नहीं तो बदलाव वैसे ही हो जाता है। प्रधानमंत्री की इस बात में जरूरी संदेश छिपे हो सकते हैं, मगर इतना साफ है कि अगर सांसद अपनी जिम्मेदारी के प्रति गंभीर नहीं होते हैं तो लोकतंत्र में जनता ऐसे नेताओं का भविष्य तय करती है। मोदी ने जिस कड़ाई एवं कठोरता से यह संदेश दे दिया है कि अपनी जिम्मेदारी के प्रति लापरवाह रहने वालों को पार्टी घर का रास्ता दिखा सकती है, अन्यथा जनता तो अपना निर्णय देते वक्त ऐसे सांसदों को नकार सकती है। कैसी विडम्बनापूर्ण स्थिति है कि एक सरकारी कर्मी कार्यालय न पहुंचे तो वेतन कट जाता है, स्कूली छात्र स्कूल में न जाये तो अनुपस्थिति दर्ज या दंड का प्रावधान है, फिर सांसदों को अपनी मनमर्जी बरतने की सुविधा क्यों?
सवाल तो यह भी है कि लोकसभा या राज्यसभा के लिए चुने जाने के बाद सांसदों को यह अलग से बताए जाने की जरूरत क्यों होनी चाहिए कि सदन में मौजूदगी उनका दायित्व है! इस जिम्मेदारी को उन्हें खुद क्यों नहीं महसूस करना चाहिए? इसलिए प्रधानमंत्री की इस टिप्पणी का संदर्भ भी समझा जा सकता है कि बच्चों को बार-बार टोका जाता है तो उन्हें भी अच्छा नहीं लगता है। जाहिर है, यह सांसदों के लिए थोड़ी कड़वी घुट्टी है, मगर उनकी कमियों की ओर ध्यान दिलाने की कोशिश भी है, यह कोशिश भी किसी के द्वारा होनी ही चाहिए। यह इसलिये जरूरी है कि हमारे देश की राजनीतिक-सामाजिक और भौगोलिक परिस्थितियों के मद्देनजर देखें तो संसद की कार्यवाही और वहां तय होने वाले नियम-कायदों, बनने वाले कानूनों में जरूरी विविधता की झलक मौजूद रहनी चाहिए, इनमें सभी सांसदों यानी सम्पूर्ण देश का प्रतिनिधित्व भी होना चाहिए।
संसद देश की सर्वोच्च संस्था है। सांसद देश की संसद का सम्मान करते हैं या नहीं, यह गहराई से सोचने की बात है। सांसद सरकार से सुख-सुविधा प्राप्त करें, यह बहुत गौण बात है। प्रमुख काम है देश के सामने आने वाली समस्याओं का डटकर मुकाबला करना। अपना समुचित प्रतिनिधित्व करते हुए देश को प्रगति की ओर अग्रसर करना, उसे सशक्त बनाना। लेकिन ऐसा न होना दुर्भाग्यपूर्ण है, लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं को कमजोर करना है। संसद देश को उन्नत भविष्य देने का मंच है। सरकार इस पर जनता की गाढ़ी कमाई का बड़ा हिस्सा खर्च करती है। इसलिये संसद का प्रति क्षण तभी कारगर, उपयोगी एवं संतोषजनक हो सकता है जब चुना हुआ या मनोनीत प्रत्येक सदस्य अपनी प्रभावी एवं सक्रिय भागीदारी निभाये।
देश जल रहा हो और नीरो बंशी बजाने बैठ जाये तो इतिहास उसे शासक नहीं, विदूषक ही कहेगा। ठीक वैसा ही पार्ट आज की अति संवेदनशील स्थितियों में सांसद अदा कर रहे हैं। चाहिए तो यह है कि आकाश भी टूटे तो उसे झेलने के लिये सात सौ नब्बे सांसद एक साथ खड़े होकर अमावस की घड़ी में देश को साहस एवं उजाला दें। लेकिन ऐसा नहीं हो रहा है, यह विडम्बनापूर्ण है। हर दिन किसी न किसी विषय पर विवाद खड़ा कर संसद का कीमती समय गंवाया जा रहा है। महत्वपूर्ण प्रस्ताव पर सार्थक चर्चा की बजाय हो-हल्ला करके संसद की कार्रवाही को स्थगित करने का प्रचलन चल रहा है। कोई भी नहीं सोच रहा है कि इन स्थितियों में देश कहां पहुंचेगा? यह कर्तव्य-च्युति, असंसदीय गतिविधियां क्या संसदीय इतिहास में एक काली रेखा नहीं होगी? निश्चित ही सांसदों की गैर-जिम्मेदाराना हरकतों से संसद अपने कर्तव्य से चूक रही है।
देश का भविष्य संसद एवं सांसदों के चेहरों पर लिखा होता है। यदि वहां भी अनुशासनहीनता, अशालीनता एवं अपने कर्त्तव्यों के प्रति अरुचि-लापरवाही का प्रदर्शन दिखाई देता है तो समझना होगा कि सत्ता सेवा का साधन नहीं, बल्कि विलास का साधन है। यदि सांसद में विलासिता, गैरजिम्मेदाराना व्यवहार, आलस्य और कदाचार है तो देश को अनुशासन का पाठ कौन पढ़ायेगा? आज सांसदों की अनुपस्थिति के परिप्रेक्ष्य में इस विषय पर भी चिन्तन होना चाहिए कि जो वास्तविक रूप में देश के लिये कुछ करना चाहते हैं, ऐसे व्यक्तियों को संसद के पटल पर लाने की व्यवस्था बने। कोरा दिखावा न हो, बल्कि देश को सशक्त बनाने वाले चरित्रसम्पन्न व्यक्ति राज्यसभा में जुड़े- या लोकसभा की टिकट ऐसे ही जिम्मेदार व्यक्तियों को देकर उनको विजयी बनाने के प्रयत्न हो, इसके लिये नये चिन्तन की अपेक्षा है। हर कीमत पर राष्ट्र की प्रगति, विकास-विस्तार और समृद्धि को सर्वोपरि महत्व देने वाले व्यक्तित्वों को महत्व मिले, जो संसद के हर क्षण को निर्माण का आधार दे सके। लोकसभा कुछ खम्भों पर टिकी एक सुन्दर इमारत ही नहीं है, यह एक अरब 30 करोड़ जनता के दिलों की धड़कन है। उसके एक-एक मिनट का सदुपयोग हो। जो मंच जनता की भावना की आवाज देने के लिए है, उसे स्वार्थ का एवं स्व-इच्छा का मंच न बनने दे।
-ललित गर्ग
भाजपा को चुनावों का भय स्वाभाविक था लेकिन हम यह भी न भूलें कि इस किसान आंदोलन को आम जनता का समर्थन नहीं के बराबर था। वास्तव में यह आंदोलन उक्त तीन-चार प्रदेशों के मालदार किसानों का था, जो गेहूं और चावल की सरकारी खरीद पर मालदार बने बैठे हैं।
लगभग साल भर से चल रहा किसान आंदोलन अब स्थगित हो गया है, इस पर किसान तो खुश हैं ही, सरकार उनसे भी ज्यादा खुश है। सरकार को यह भनक लग गई थी कि यदि यह आंदोलन इसी तरह चलता रहा तो उत्तर प्रदेश, हरियाणा, पंजाब और उत्तराखंड के चुनावों में भाजपा को भारी धक्का लग सकता है। यदि उत्तर भारत के इन प्रांतीय चुनावों में भाजपा मात खा जाए तो सबको पता है कि दिल्ली में उसकी गद्दी भी हिल सकती है।
भाजपा का यह भय स्वाभाविक था लेकिन हम यह भी न भूलें कि इस किसान आंदोलन को आम जनता का समर्थन नहीं के बराबर था। वास्तव में यह आंदोलन उक्त तीन-चार प्रदेशों के मालदार किसानों का था, जो गेहूं और चावल की सरकारी खरीद पर मालदार बने बैठे हैं। इन किसानों को छोटे और गरीब किसानों के समर्थन या सहानुभूति का मिलना स्वाभाविक था लेकिन यह मानना पड़ेगा कि किसान नेताओं ने इस आंदोलन को अहिंसक बनाए रखा और इतने लंबे समय तक चलाए रखा। नरेंद्र मोदी की मजबूत सरकार को झुकने के लिए मजबूर कर दिया। यह वास्तव में भारतीय लोकतंत्र की विजय है। इस आंदोलन के खत्म होने से दिल्ली, हरियाणा और पंजाब की जनता को भी बड़ी राहत मिल रही है। इन प्रदेशों के सीमांत पर डटे तंबुओं ने कई प्रमुख रास्ते रोक दिए थे।
सरकार ने किसानों की मांगों को मोटे तौर पर स्वीकार कर ही लिया है। उसने तीनों कानून वापस ले लिए हैं। मृत किसानों को मुआवजा देना, पराली जलाने पर आपत्ति नहीं करना, बिजली की कीमत पर पुनर्विचार करना, उन पर लगे मुकदमे वापस करना आदि मांगें भी सरकार ने मान ली हैं। सबसे कठिन मुद्दा है— सरकारी समर्थन मूल्य का। इस पर सरकार ने कमेटी बना दी है, जिसमें किसानों का भी समुचित प्रतिनिधित्व रहेगा। यह बहुत ही उलझा हुआ मुद्दा है। अभी तो सरकार बढ़ी हुई कीमतों पर गेहूं और चावल खरीदने का वादा कर रही है लेकिन लाखों टन अनाज सरकारी भंडारों में सड़ता रहता है और करदाताओं के अरबों रु. हर साल बर्बाद होते हैं। यह ऐसा मुद्दा है, जिस पर मालदार किसानों से दो-टूक बात की जानी चाहिए। ताकि उनका नुकसान न हो और सरकार के अरबों रु. भी बर्बाद न हों।
सरकार को सबसे ज्यादा उन 80-90 प्रतिशत किसानों की हालत बेहतर बनाने पर ध्यान देना चाहिए, जो अपनी खेती के दम पर किसी तरह जिंदा रहते हैं। यह तभी हो सकता है, जबकि सरकार इन किसानों के साथ सीधे संवाद का कोई नया रास्ता निकाले। यह सवाद निर्भीक और किसान-हितकारी तभी हो सकता है, जबकि सरकार के सिर पर प्रांतीय चुनावों के बादल न मंडरा रहे हों। विपक्ष की मजबूरी है कि चुनाव की वेला में हर मुद्दे पर वह सरकार के विरोध को जमकर उकसाए लेकिन विपक्षियों से भी आशा की जाती है कि वे अपनी तात्कालिक लाभ-हानि से अलग हटकर देश के 80-90 प्रतिशत किसानों के हित की बात सोचेंगे।
-डॉ. वेदप्रताप वैदिक
केंद्र सरकार जिस तरह किसानों के समक्ष झुकती नजर आ रही है, उसे किसान संगठन अपनी जीत जरूर बताएंगे। लेकिन यह अर्धसत्य ही है। दरअसल सरकार भी जानती है कि ज्यादा दिनों तक किसानों का खेतों से बाहर रहना आखिरकार देश के लिए ही नुकसान दायक है।
आखिरकार केंद्र सरकार और आंदोलनकारी संयुक्त किसान मोर्चे के रिश्तों पर जमी बर्फ पिघलनी शुरू हो गई है। संयुक्त किसान मोर्चा ने दिल्ली की घेराबंदी उठाने का ऐलान कर दिया है। इस घोषणा के मुताबिक, शनिवार यानी 11 दिसंबर से धरनारत किसान अपने घरों को लौटना शुरू हो जाएंगे। किसानों की इस घोषणा के बाद सिर्फ सरकारों ने ही राहत की सांस नहीं ली है, बल्कि यह दिल्ली के सिंघु बार्डर और गाजीपुर के रास्ते बाहर से आने वाले लोग भी राहत महसूस कर रहे हैं।
अव्वल तो धरना उठने की शुरूआत अधिकतम बीस नवंबर से ही शुरू हो जानी चाहिए थी। 19 नवंबर की सुबह को अचानक तीनों विवादित कृषि कानूनों को वापस लेकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने देश को चौंकाया ही नहीं, बल्कि सख्त प्रशासक की छवि को भी दांव पर लगा दिया था। भारतीय जनता पार्टी और अपने समर्थकों के भी निशाने पर वे रहे। किसान संगठनों में इस घोषणा के बाद ही धरने को लेकर असमंजस दिखने लगा था। कुछ संगठन उसे खत्म करने की बातें भी करने लगे थे। हालांकि बक्कल निकालने वाली भाषा इस्तेमाल करने वाले राकेश टिकैत जैसे किसान नेताओं ने धरना उठाने से मना कर दिया। इतना ही नहीं, आगे बढ़कर टिकैत तो बैंकों के निजीकरण के खिलाफ आंदोलन चलाने की भी घोषणा करने में पीछे नहीं रहे। तब किसान संगठनों को लेकर कुछ वर्गों में गुस्सा भी दिखा। भारतीय समाज की जो बुनावट है, उसमें राजा-शहंशाह के झुकते ही उसके प्रति हमदर्दी स्वाभाविक रूप से पनप उठती है। किसान संगठनों की हठधर्मिता के चलते ऐसा होने लगा था। दिल्ली की बसें हों या मेट्रो या फिर मेरठ की चौपाल, हर जगह पर इन पंक्तियों के लेखक को किसान संगठनों की हठधर्मिता के खिलाफ किंचित गुस्सा नजर आया। इस तथ्य की जानकारी किसान संगठनों को है या नहीं, कहना मुश्किल है। लेकिन इतना तय है कि किसान संगठनों को भी लगने लगा था कि अब ज्यादा दिन तक धरना चला तो उसे न्यायोचित ठहराना आसान नहीं होगा।
केंद्र सरकार ने किसान संगठनों के समक्ष सुलह प्रस्ताव रखकर विवाद टालने का जो कदम उठाया है, उसका स्वागत होना चाहिए। सरकार मान गई है कि वह न्यूनतम समर्थन मूल्य के लिए कानून बनाने की दिशा में प्रयास करेगी। इस पर विचार के लिए जो समिति बनाई जानी है, उसमें केंद्र और राज्य सरकारों के प्रतिनिधियों के साथ ही किसान संगठनों के प्रतिनिधि के साथ कृषि वैज्ञानिकों को शामिल करने का प्रस्ताव निश्चित ही संतुलित कदम है। केंद्र सरकार किसान आंदोलन के दौरान किसानों पर दर्ज मामलों को वापस लेने को भी तैयार हो गई है। भारतीय जनता पार्टी शासित राज्यों उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश, हिमाचल प्रदेश, हरियाणा और मध्य प्रदेश ने इस दिशा में कदम उठाने पर हामी भर दी है। किसान संगठन आंदोलन के दौरान सात सौ किसानों के मरने या मारे जाने का दावा कर रहे हैं। इस बारे में संसद में भी सवाल पूछा गया था, जिसके जवाब में सरकार ने कह दिया है कि ऐसी मौतों का आंकड़ा राज्यों के पास होता है। वैसे उत्तर प्रदेश और हरियाणा किसानों को मुआवजा देने पर अंशत: सहमत भी हो चुके है। किसान संगठनों की मांग बिजली को लेकर भी थी। इस बारे में भी सरकार सहमत हो गई है कि बिजली को लेकर जो भी चर्चा होगी, उसमें किसानों के प्रतिनिधियों को भी शामिल किया जाएगा। इसके साथ ही पराली जलाने के दंड स्वरूप किसानों को जेल भेजने के प्रावधान को भी संबंधित कानून हटाने पर सहमति हो गई है।
केंद्र सरकार जिस तरह किसानों के समक्ष झुकती नजर आ रही है, उसे किसान संगठन अपनी जीत जरूर बताएंगे। लेकिन यह अर्धसत्य ही है। दरअसल सरकार भी जानती है कि ज्यादा दिनों तक किसानों का खेतों से बाहर रहना आखिरकार देश के लिए ही नुकसान दायक है। इसलिए वह चाहती है कि किसान आंदोलन जल्द से जल्द खत्म हो और देश का उत्पादक वर्ग एक बार फिर अपने अनमोल उत्पादन प्रक्रिया में शामिल हो।
इस आंदोलन के खत्म होने के बावजूद कुछ सवाल हैं जो आने वाले दिनों में राजनीति और सामान्य किसानों को मथते रहेंगे। इनमें सबसे महत्वपूर्ण यह है कि क्या किसानों को इससे सचमुच फायदा होने जा रहा है। 2015 में शांता कुमार समिति मान ही चुकी थी कि न्यूनतम समर्थन मूल्य पर सिर्फ छह प्रतिशत किसान ही अपनी उपज बेच पाते हैं। ऐसे में सवाल यह है कि बदले माहौल में अगर कोई कानून बनेगा भी तो क्या उसका सचमुच फायदा समूचे किसान आंदोलन को मिलेगा। सवाल यह भी है कि क्या अपनी मांग के लिए किसान आंदोलन की आड़ में देश की शान के प्रतीक लालकिले पर जो कुछ 26 जनवरी को हुआ, या उसके दाग धुल जाएंगे।
सवाल यह भी उठेगा कि क्या किसानों की राजनीति ऐसे ही चलती रहेगी और कुछ लोगों के फायदे के लिए व्यापक किसानों के हित के लिए खेती-किसानी में जो सुधार होने चाहिए, वे नहीं हो सकेंगे। सवाल यह भी उठेगा कि क्या किसान आंदोलनकारी अगले साल की शुरूआत में होने जा रहे पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में नहीं उतरेंगे और राजनीतिक रूख अख्तियार नहीं करेंगे।
निश्चित तौर पर इन सवालों के जवाब में भी भावी किसान आंदोलन, उसकी सफलता और किसानों के हितों का मसला जुड़ा हुआ है। फिलहाल इस आंदोलन का खत्म होना शांति व्यवस्था की एक तरफ उठने वाला कदम भी होने जा रहा है। इसलिए किसान संगठनों की नई घोषणा और सरकार की लचीली नीति का स्वागत ही होना चाहिए।
- उमेश चतुर्वेदी
वरिष्ठ पत्रकार
'तहरीक' ने प्रियंत पर यह आरोप लगाया कि उसने तौहीन-ए-अल्लाह की है। काफिराना हरकत की है। इसीलिए उसे उन्होंने सजा-ए-मौत दी है। प्रियंत ने तहरीके-लबायक के एक पोस्टर को अपने कारखाने की दीवार से इसलिए हटवा दिया था कि उस पर पुताई होनी थी।
‘तहरीके-लबायक पाकिस्तान’ नामक इस्लामी संगठन ने इस्लाम और पाकिस्तान, दोनों की छवि तार-तार कर दी है। पिछले हफ्ते उसके उकसाने के कारण सियालकोट के एक कारखाने में मैनेजर का वर्षों से काम कर रहे श्रीलंका के प्रियंत दिव्यवदन नामक व्यक्ति की नृशंस हत्या कर दी गई। दिव्यवदन के बदन का, उसकी हड्डियों का चूरा-चूरा कर दिया गया और उसके शव को फूंक दिया गया। इस कुकृत्य की निंदा पाकिस्तान के लगभग सारे नेता और अखबार कर रहे हैं और सैंकड़ों लोगों को गिरफ्तार भी कर लिया गया है। उसी कारखाने के दूसरे मैनेजर मलिक अदनान ने प्रियंत को बचाने की भरसक कोशिश की लेकिन भीड़ ने प्रियंत की हत्या कर ही डाली। पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान को दाद देनी पड़ेगी कि उन्होंने मलिक अदनान की तहे-दिल से तारीफ की और उन्हें ‘तमगा-ए-शुजात’ देने की घोषणा भी की है।
'तहरीक' ने प्रियंत पर यह आरोप लगाया कि उसने तौहीन-ए-अल्लाह की है। काफिराना हरकत की है। इसीलिए उसे उन्होंने सजा-ए-मौत दी है। प्रियंत ने तहरीके-लबायक के एक पोस्टर को अपने कारखाने की दीवार से इसलिए हटवा दिया था कि उस पर पुताई होनी थी। हमलावरों का कहना है कि उस पोस्टर पर कुरान की आयत छपी हुई थी। इन हमलावरों से कोई पूछे कि उस श्रीलंकाई बौद्ध व्यक्ति को क्या पता रहा होगा कि उस पोस्टर पर अरबी भाषा में क्या लिखा होगा? मान लें कि उसे पता भी हो तो भी कोई पोस्टर या कोई ग्रंथ या कोई मंदिर या मस्जिद वास्तव में क्या है? ये तो बेजान चीजें हैं। आप इनके बहाने किसी की हत्या करते हैं तो उसका अर्थ क्या हुआ? क्या यह नहीं कि आप बुतपरस्त हैं, मूर्तिपूजक हैं, जड़पूजक हैं? क्या इस्लाम बुतपरस्ती की इजाजत देता है? क्या अल्लाह या ईश्वर या गॉड या जिहोवा इतना छुई-मुई है कि किसी के पोस्टर फाड़ देने, निंदा या आलोचना करने, किसी धर्मग्रंथ को उठाकर पटक देने से वह नाराज़ हो जाता है? ईश्वर या अल्लाह को तो किसने देखा है लेकिन इंसान अपनी नाराजी को ईश्वरीय नाराजी का रूप दे देता है। यह उसके अपने अहंकार और दिमागी जड़ता का प्रमाण है। इसका अर्थ यह नहीं कि दूसरों की धार्मिक भावनाओं को चोट पहुंचाना उचित है।
पाकिस्तान का यह दुर्भाग्य है कि उसके संस्थापक मोहम्मद अली जिन्ना की चेतावनी पर उसके उग्रवादी लोग बिल्कुल भी ध्यान नहीं देते। जिन्ना पाकिस्तान को एक सहनशील राष्ट्र बनाना चाहते थे लेकिन पाकिस्तान दुनिया का सबसे असहिष्णु इस्लामी राष्ट्र बन गया है। कभी वहां मंदिरों, कभी गुरुद्वारों और कभी गिरजाघरों पर हमलों की खबरें आती रहती हैं। कभी कादियानियों पर हमले होते हैं। 2011 में लाहौर में राज्यपाल सलमान तासीर की हत्या इसलिए कर दी गई थी कि उन्होंने आसिया बीबी नामक एक महिला का समर्थन कर दिया था। आसिया बीबी पर तौहीन-ए-अल्लाह का मुकदमा चल रहा था। सलमान तासीर अच्छे खासे पढ़े-लिखे मुसलमान थे। वे मेरे मित्र थे। उनकी हत्या पर गजब का हंगामा हुआ लेकिन यह सिलसिला अभी भी ज्यों का त्यों जारी है। इस सिलसिले को रोकने के लिए इमरान सरकार की-सी सख्ती तो चाहिए ही लेकिन उससे भी ज्यादा जिम्मेदारी मजहबी मौलानाओं की है। ईश्वर और अल्लाह को अपनी तारीफ या तौहीन से कोई फर्क नहीं पड़ता लेकिन उसके कारण पाकिस्तान की तौहीन क्यों हो?
-डॉ. वेदप्रताप वैदिक
ममता बनर्जी को वर्तमान में कांग्रेस की गिरती साख एवं राहुल गांधी के शिथिल नेतृत्व के कारण ही कहना पड़ा है कि अब संप्रग जैसा कुछ नहीं रह गया है, उससे यह नए सिरे से स्पष्ट हो गया कि वह खुद के नेतृत्व में भाजपा का विकल्प तैयार करने को लेकर गंभीर हैं।
पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी एवं चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर के कांग्रेस पार्टी और विशेषकर राहुल गांधी को लेकर दिये गये ताजा कटाक्षपूर्ण बयान एक राष्ट्रीय पार्टी की लगातार गिर रही साख एवं बिखराव को दर्शाते हैं। इसका सीधा मतलब है कि विपक्षी एकता के मामले में न केवल ममता बल्कि अन्य कुछ दल कांग्रेस को अनुपयोगी और अप्रासंगिक मानकर चल रहे हैं। यह असामान्य स्थिति है कि एक क्षेत्रीय दल देश के सबसे पुराने राष्ट्रीय दल की अहमियत को इस तरह खारिज करे। अन्य दल ही नहीं, बल्कि पार्टी के बलिदानी, वफादार एवं कद्दावर नेता भी द्वंद्व एवं घुटन की स्थिति में हैं, तभी पार्टी के भीतर जी-23 असंतुष्टों का समूह बना। कांग्रेस पार्टी के बड़े नेताओं की यह खुली बगावत एवं विपक्षी दलों के तीखे तेवर पार्टी के भविष्य पर घने अंधेरों की आहट है।
ममता बनर्जी को वर्तमान में कांग्रेस की गिरती साख एवं राहुल गांधी के शिथिल नेतृत्व के कारण ही कहना पड़ा है कि अब संप्रग जैसा कुछ नहीं रह गया है, उससे यह नए सिरे से स्पष्ट हो गया कि वह खुद के नेतृत्व में भाजपा का विकल्प तैयार करने को लेकर गंभीर हैं। पता नहीं उनकी सक्रियता क्या रंग लाएगी, लेकिन इतना अवश्य है कि कांग्रेस को उनसे चिंतित होना चाहिए। अभी तक विपक्षी एकता की जो भी कोशिश होती रही है, उसमें कहीं-न-कहीं कांग्रेस भी शामिल रही है। खुद ममता बनर्जी भी ऐसी कोशिश का हिस्सा रही हैं, लेकिन अब वही कांग्रेस को किनारे कर रही हैं। इस तरह की स्थिति एकाएक नहीं बनी है, अकारण नहीं बनी है, उसके कारणों में कहीं-न-कहीं कांग्रेस का अप्रभावी नेतृत्व है। अनेक राजनीतिक दलों का भविष्य बनाने एवं राजनीति की धड़कनों पर पकड़ रखने वाले प्रशांत किशोर ने विपक्ष के कथित नेतृत्व को लेकर कांग्रेस की दावेदारी पर सवाल खड़े करते हुए कहा कि कांग्रेस जिस विचार और जगह का प्रतिनिधित्व करती है वो एक मजबूत विपक्ष के लिए अहम है, लेकिन कांग्रेस का नेतृत्व एक विशेष व्यक्ति का दैवीय अधिकार नहीं, खासकर जब पार्टी पिछले 10 सालों में अपने 90 प्रतिशत चुनावों में हार का सामना कर चुकी है।
प्रशांत किशोर के बयान हों या पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की प्रतिक्रियाएं, यह सब कांग्रेस के राहुल गांधी पर ही केन्द्रित हैं। ममता ने राजनीतिक जमीन बनाने के लिये जिस त्याग, बलिदान, समर्पण एवं जनता पर पकड़ की जरूरत को व्यक्त किया, उसी के सन्दर्भ में उन्होंने कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी के विदेश दौरों को लेकर सवाल उठाए हैं। ममता बनर्जी ने राहुल गांधी पर तंज कसते हुए कहा था कि जब आधा टाइम विदेश में रहेंगे तो राजनीति कैसे करेंगे? प्रशांत किशोर राहुल गांधी और कांग्रेस को लगातार घेरते रहे हैं। पिछले दिनों, सोशल मीडिया पर एक सवाल-जवाब के सत्र के दौरान उन्होंने कहा था कि आने वाले सालों में बीजेपी, भारतीय राजनीति के केंद्र में बनी रहेगी चाहे वह जीते या चाहे हारे। प्रशांत किशोर ने कहा था कि जैसे शुरुआती 40 वर्षों में कांग्रेस के साथ हुआ, वैसा ही भाजपा के साथ है। उन्होंने कहा था, ”दिक्कत राहुल गांधी के साथ है कि वे सोचते हैं कि बस कुछ वक्त की बात है और लोग बीजेपी को उखाड़ फेकेंगे। तो, ऐसा अभी नहीं होने जा रहा है।” यह सच भी है। लेकिन कांग्रेस को अपनी खोयी जमीन को पाने के लिये सीधा-सरल गणित नहीं बैठाना है, बल्कि कठोर परिश्रम करना होगा, लेकिन ऐसा होता हुआ नहीं दिख रहा है। कोरी बयानबाजी एवं नरेन्द्र मोदी के विरोध से खोयी जमीन नहीं मिलती, बल्कि वह और रसातल में जायेगी।
कांग्रेस नेतृत्व ने अपनी दिशाहीन राजनीति से न केवल अपनी पार्टी को कमजोर किया है, बल्कि विपक्ष को भी नुकसान पहुंचाया है। कांग्रेस को पर्दे के पीछे से चला रहे राहुल गांधी की नेतृत्व क्षमता को लेकर उनके सहयोगी-समर्थक चाहे जो दावा करें, वह हर दृष्टि से निष्प्रभावी हैं। राजनीति में इतना लंबा समय बिताने के बाद भी वह बुनियादी राजनीतिक परिपक्वता हासिल नहीं कर सके हैं। उनके लिए राजनीति का एक ही मकसद है प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को कोसना। उन्होंने सस्ती नारेबाजी को ही राजनीति समझ लिया है। आज तृणमूल कांग्रेस प्रमुख एवं प्रशांत किशोर के बदले हुए स्वर हैं तो इसके लिए एक बड़ी हद तक कांग्रेस ही जिम्मेदार है। वह अपनी दयनीय दशा और बिखराव के लिए अपने अलावा अन्य किसी को दोष नहीं दे सकती।
विडम्बना तो यह है कि कांग्रेस का शीर्ष नेतृत्व अपनी इस दुर्दशा पर न चिन्तन-मंथन करता है और न अपनी कमियों एवं गलतियों को स्वीकारता है। राहुल ही नहीं, कुछ इसी तरह की राजनीति प्रियंका गांधी भी कर रही हैं। भले ही कांग्रेस में राहुल और प्रियंका को करिश्माई नेता बताने वालों की कमी न हो, लेकिन सच यही है कि ये दोनों नेता अपनी तमाम सक्रियता के बावजूद कहीं कोई छाप नहीं छोड़ पा रहे हैं। वास्तव में इसीलिए कांग्रेस तेजी के साथ रसातल में जा रही है। यह कांग्रेस के लगातार कमजोर होते चले जाने का ही कारण है कि उसके नेता अन्य दलों की शरण में जा रहे हैं। पंजाब एवं राजस्थान के कांग्रेसी तनाव के लम्बे समय से हल नहीं हो पाने के पीछे राहुल की अपरिपक्व राजनीतिक सोच ही है। राहुल गांधी को चाहिए था कि पंजाब के मामले में सिद्धू को निर्देश व सलाह देते कि राज्य में जो स्थिति उन्होंने बनाई है, उसका हल भी खुद ही निकालें। ऐसे नेताओं पर नकेल-कसना पार्टी का ही काम है। मुख्यमंत्री अशोक गहलोत द्वारा लगातार शह-मात का खेल कांग्रेस को राज्य में कमजोर कर रहा है। यदि राहुल और प्रियंका ने सचिन पायलट को ठोस आश्वासन दिए थे, तो उन्हें तुरंत पूरा करना चाहिए और ऐसे प्रयास करने चाहिए कि कांग्रेस राज्य में 2023 में वापसी करे। कोई भी व्यक्ति संगठन से बड़ा नहीं है और यह संदेश साफ शब्दों में जाना चाहिए। पार्टी में संवादहीनता चरम पर है। अब जब कोविड-19 का प्रकोप कम होता लग रहा है, तब सोनिया गांधी को तुरंत ऑल इंडिया कांग्रेस समिति का अधिवेशन बुलाकर विचारधारा व नेतृत्व के मामले को पार्टी के समक्ष रखना चाहिए। इस कदम से कांग्रेस व नेहरू-गांधी परिवार और मजबूत, दृढ़ निश्चयी के साथ-साथ राजनीतिक लक्ष्यों के प्रति सजग व प्रेरित नजर आता, लेकिन ऐसा न होना पार्टी के अस्त होते जाने का ही संकेत है।
कांग्रेस की राजनीति की सोच एवं संस्कृति सिद्धान्तों, आदर्शों और निस्वार्थ को ताक पर रखकर सिर्फ सत्ता, पु़त्र-मोह, राजनीतिक स्वार्थ, परिवारवाद एवं सम्पदा के पीछे दौड़ी, इसलिये आज वह हर प्रतिस्पर्धा में पिछड़ती जा रही है। कांग्रेस आज उस मोड़ पर खड़ी है जहां एक समस्या समाप्त नहीं होती, उससे पहले अनेक समस्याएं एक साथ फन उठा लेती हैं। कांग्रेस के भीतर एवं बाहरी विरोधाभास नये-नये चेहरों में सामने आ रही है। कांग्रेस की इस दुर्दशा एवं लगातार रसातल की ओर बढ़ने का सबसे बड़ा कारण राहुल गांधी हैं। वह पार्टी एवं राजनीतिक नेतृत्व क्या देश की गरीब जनता की चिन्ता एवं राष्ट्रीय समस्याओं को मिटायेगी जिसे पु़त्र के राजनीतिक अस्तित्व को बनाये रखने की चिन्ताओं से उबरने की भी फुरसत नहीं है। असंतुष्ट नेता एवं विपक्षी दल इस नतीजे पर भी पहुंच चुके हैं कि राहुल के रहते कांग्रेस में कोई सूरज उग नहीं पाएगा। जो लोग प्रियंका गांधी से बड़ी उम्मीद लगाए थे, वे और ज्यादा निराश हैं। भाई-बहन किसी गरीब से मिल लें, किसी गरीब के साथ बैठकर खाना खा लें, किसी पीड़ित को सांत्वना देने पहुंच जायें तो समझने लगते हैं कि एक सौ तीस करोड़ लोगों का दिल जीत लिया है। वे अपने बयानों, कार्यों की निंदा या आलोचना को कभी गंभीरता से लेते ही नहीं। उनकी राजनीति ने इतने मुखौटे पहन लिये हैं, छलनाओं, दिखावे एवं प्रदर्शन के मकड़ी जाल इतने बुन लिये हैं कि उनका सही चेहरा पहचानना आम आदमी के लिये बहुत कठिन हो गया है। प्रश्न है कि इन स्थितियों के चलते कांग्रेस कैसे मजबूत बनेगी? कैसे पार्टी नयी ताकत से उभर सकेगी? कांग्रेस को राष्ट्रीय धर्म एवं कर्त्तव्य के अलावा कुछ न दिखे, ऐसा होने पर ही पार्टी को नवजीवन मिल सकता है, अन्यथा अंधेरा ही अंधेरा है।
- ललित गर्ग
अदालतों में साढ़े पांच हजार पद खाली पड़े हैं। 400 से ज्यादा पद तो उच्च और सर्वोच्च न्यायालयों में खाली हैं। सरकार ने इन पदों को भरने में थोड़ी मुस्तैदी इधर जरूर दिखाई है लेकिन जरूरी यह है कि वह पत्तों पर पानी छिड़कने की बजाय जड़ों में लगे कीड़ों का इलाज करे।
प्रसिद्ध ब्रिटिश विचारक जॉन स्टुअर्ट मिल ने लिखा था कि देर से किया गया न्याय तो अन्याय ही है। हमारे देश में आज भी अंग्रेजों की चलाई हुई न्याय-पद्धति ही चल रही है। आजादी के 75 वर्ष पूरे होने जा रहे हैं लेकिन भारत में एक भी प्रधानमंत्री ऐसा पैदा नहीं हुआ, जो विश्व की सबसे प्राचीन न्याय-पद्धति, जो कि भारतीय ही है, को लागू करने की कोशिश करता। इसका दुष्परिणाम है कि आज भारत की अदालतों में लगभग पांच करोड़ मुकदमे लटके पड़े हुए हैं। जो न्याय कुछ ही दिनों में मिल जाना चाहिए, उसे मिलने में तीस-तीस और चालीस-चालीस साल लग जाते हैं। कई मामलों में तो जज, वकील और मुकदमेबाज- सभी का निधन भी हो जाता है। कई लोग बरसों-बरस जेल में सड़ते रहते हैं और जब उनका फैसला आता है तो मालूम पड़ता है कि वे निर्दोष थे। ऐसा क्यों होता है? ऐसा इसलिए भी होता है कि बेचारे जज क्या करें?
एक ही दिन में वे कितने मुकदमे सुनें? देश की अदालतों में अभी साढ़े पांच हजार पद खाली पड़े हैं। 400 से ज्यादा पद तो उच्च और सर्वोच्च न्यायालयों में ही खाली हैं। वर्तमान सरकार ने इन पदों को भरने में थोड़ी मुस्तैदी इधर जरूर दिखाई है लेकिन जरूरी यह है कि वह पत्तों पर पानी छिड़कने की बजाय जड़ों में लगे कीड़ों का इलाज करे। विधि आयोग का कहना है कि भारत में अभी लगभग 20 हजार जज हैं। उनकी संख्या दो लाख होनी चाहिए। इतने जजों की जरूरत ही नहीं होगी, यदि विधि आयोग की समझ ठीक हो जाए तो। उसे पता ही नहीं है कि हमारी संपूर्ण न्याय-व्यवस्था आंख मींचकर चल रही है। यदि भारत की अदालतें भारतीय भाषाओं में बहस और फैसले करने लगें तो फैसले भी जल्दी-जल्दी होंगे और 20-30 हजार जज ही भारत के लिए काफी होंगे। भारत में 18 लाख वकील हैं। वे कम नहीं पड़ेंगे।
यदि अदालतों में भारतीय भाषाएं चलेंगी तो मुवक्किलों को बहस और फैसले समझना भी आसान होगा और उनकी ठगाई भी कम होगी। लेकिन यह क्रांतिकारी परिवर्तन करने की हिम्मत कौन कर सकता है? वही नेता कर सकता है, जो अपनी हीनता-ग्रंथि का शिकार न हो और जिसके पास भारत को महाशक्ति बनाने की दृष्टि हो। यदि स्वतंत्र भारत में हमारे पास ऐसे कोई बड़े नेता होते तो भारत की न्याय-व्यवस्था कभी की सुधर जाती। लेकिन हमारे ज्यादातर नेता तो नौकरशाहों की गुलामी करते हैं। यह गुलामी गुप्त और अदृश्य होती है। जनता को यह आसानी से पता नहीं चलती। नेताओं को भी यह स्वाभाविक ही लगती है। यदि उन्हें भी इसकी समझ हो जाती तो क्या भारत की संसद अब भी अपने मूल कानून अंग्रेजी में बनाती रहती? जो देश अंग्रेज के गुलाम नहीं रहे, यदि आप उन पर नज़र डालें तो आप पाएंगे कि वे अपने कानून अपनी भाषा में ही बनाते हैं। इसीलिए उनकी जनता को मिलने वाला न्याय सस्ता, सुलभ और त्वरित होता है। पता नहीं, भारत में वह दिन कब आएगा?
-डॉ. वेदप्रताप वैदिक
दुनिया के कुछ देशों ने कोरोना रोधी वैक्सीन तो बना ली लेकिन अब भी विश्व आबादी का बड़ा हिस्सा वैक्सीन के लिए तरस रहा है। जिन देशों में वैक्सीन लगी है वहां व्यस्क आबादी को तो कुछ सुरक्षा मिल गयी है लेकिन बच्चों के लिए अब भी सुरक्षित टीकों का इंतजार है।
दिसम्बर 2019 में चीन के वुहान शहर में कोरोना वायरस के मामले सबसे पहले सामने आये थे उस लिहाज से देखें तो दिसम्बर 2021 में दुनिया को कोरोना वायरस से लड़ते-लड़ते दो साल पूरे हो चुके हैं। इन दो सालों में कोविड-19 ने रूप बदल-बदल कर दुनियाभर में जान-माल का काफी नुकसान किया है। आधिकारिक आंकड़ों को ही देख लें तो अब तक दुनियाभर में कोरोना से 52 लाख लोगों की मौत हो चुकी है। यह तो वह संख्या है जो सरकारों के पास दर्ज है, मौत के ऐसे भी लाखों मामले होंगे जो दर्ज ही नहीं हुए होंगे। कोरोना ने किसी की जान अचानक से ले ली तो किसी की जान तड़पा-तड़पा कर ली, कोरोना ने किसी की नौकरी ले ली, किसी का परिजन छीन लिया, किसी के सिर से माता-पिता का साया उठा लिया तो किसी को जिंदगी भर के लिए तमाम अन्य रोगों से लड़ने के लिए छोड़ दिया। आज लॉकडाउन और तमाम तरह की पाबंदियों के चलते दुनियाभर की अर्थव्यवस्था को जो नुकसान उठाना पड़ा वह अलग है। लेकिन इतने भर से कोरोना संक्रमण का मन नहीं भरा है वह अब भी रूप बदल-बदल कर पहले से ज्यादा घातक स्वरूप में आकर विभिन्न देशों में कहर बरपा रहा है। अभी यूरोप और अफ्रीकी देश इसके निशाने पर हैं लेकिन कब यह एशिया या दक्षिण एशिया या अन्य क्षेत्रों में कहर बरपाना शुरू कर दे इसके बारे में कुछ नहीं कहा जा सकता।
क्या दिन थे वह?
दुनिया के कुछ देशों ने कोरोना रोधी वैक्सीन तो बना ली लेकिन अब भी विश्व आबादी का बड़ा हिस्सा वैक्सीन के लिए तरस रहा है। जिन देशों में वैक्सीन लगी है वहां व्यस्क आबादी को तो कुछ सुरक्षा मिल गयी है लेकिन बच्चों के लिए अब भी सुरक्षित टीकों का इंतजार है। यही नहीं कोरोना की वजह से बिना मास्क और बिना सोशल डिस्टेंसिंग वाले जीवन की कल्पना करना अब मुश्किल हो गया है। कोरोना ने स्कूली बच्चों को ऑनलाइन कक्षा में भाग लेने पर मजबूर कर दिया, कोरोना ने कार्यालयों की संस्कृति बदल कर वर्क फ्रॉम होम का माहौल ला दिया और अब जिस तरह से यह नया स्वरूप लेकर फैलना शुरू हुआ है उससे लॉकडाउन और तमाम तरह की पाबंदियां फिर शुरू हो गयी हैं। कहीं अंतरराष्ट्रीय यात्राओं पर पाबंदी लग रही है तो कहीं शहरों को बंद किया जा रहा है। यह सब कुछ दिन और चला तो विश्व अर्थव्यवस्था पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ेगा।
टीके के प्रति झिझक कैसे मिटाएं?
लगभग सभी देशों में यह भी एक बड़ी समस्या है कि कोविड रोधी टीकाकरण के प्रति लोगों के मन में झिझक है और यह झिझक सिर्फ गरीब देशों में ही नहीं बल्कि समृद्ध पश्चिमी देशों में भी है। इसीलिए अब विभिन्न सरकारों ने अपना रुख भी कड़ा कर लिया है जैसे यूनान से खबर है कि वहां टीकाकरण कराने से इंकार कर रहे 60 साल से अधिक उम्र के लोगों के खिलाफ मासिक जुर्माना लग सकता है और इससे उनकी पेंशन की एक-तिहाई राशि कट सकती है। वहां के नेताओं का कहना है कि इस कठोर नीति से वोट घटेंगे पर लोगों की जान बचाने में मदद मिलेगी। दक्षिण अफ्रीकी राष्ट्रपति सिरील रामफोसा भी देश के नागरिकों से टीका लगवाने की अपील कर रहे हैं। जर्मनी ने तो ऑस्ट्रिया की राह पर चलते हुए सख्त पाबंदियां लागू कर दी हैं। जर्मनी की चांसलर एंजेला मर्केल ने कहा है कि टीका नहीं लगवाने वाले लोगों को सार्वजनिक गतिविधियों में भाग नहीं लेने दिया जाएगा और संसद टीकाकरण को अनिवार्य बनाने के लिये एक आदेश जारी करने पर विचार कर रही है। वहीं, स्लोवाकिया सरकार 60 वर्ष और उससे अधिक आयु के लोगों को टीकाकरण कराने पर 500 यूरो (568 डॉलर) देने की पेशकश कर रही है।
पाबंदियों का दौर लौटा
कई देशों में तो हालात ऐसे हो गये हैं कि सरकारें कोरोना संक्रमण पर नियंत्रण के लिए अगर पाबंदियां लगाती हैं तो लोग विरोध प्रदर्शन करने लगते हैं। यूरोप के कई देशों से हाल में ऐसे घटनाक्रम सामने आये। नीदरलैंड में भी लॉकडाउन और अन्य पाबंदियों के खिलाफ साप्ताहिक प्रतिबंधों ने हिंसक रूप ले लिया है। दक्षिण कोरिया ने भी सामाजिक दूरी संबंधी नियमों को कड़ा करने का फैसला किया है जिसके विरोध में आवाजें उठ रही हैं।
ओमीक्रॉन कितना घातक?
जहां तक दक्षिण अफ्रीका से सामने आये वायरस के नये स्वरूप ओमीक्रान की बात है तो विश्व स्वास्थ्य संगठन ने ओमीक्रोन के केंद्र गौतेंग प्रांत में निगरानी के उपायों में तेजी लाने और वायरस के संपर्क में आए लोगों की पहचान के लिए अधिकारियों का एक दल भेजा है। उल्लेखनीय है कि ओमीक्रोन का मामला पहली बार दक्षिण अफ्रीका में ठीक एक हफ्ते पहले सामने आया था जो अब दुनिया भर के कम से कम 30 देशों में पहुँच चुका है। जहां भी ओमीक्रान के मामले सामने आये हैं वहां पर संक्रमित व्यक्ति की हालत गंभीर होने की सूचना नहीं है। विशेषज्ञ अभी भी इस बात का अध्ययन कर रहे हैं कि यह वास्तव में कितना घातक स्वरूप है। लेकिन इस बात की पुष्टि हो चुकी है कि यह बहुत तेजी से फैलता है।
बूस्टर डोज कितनी जरूरी?
दूसरी ओर, अब टीका कंपनियों ने अपने टीके को उन्नत बनाने की दिशा में तेजी से काम शुरू कर दिया है। फाइजर ने भी कहा है कि नया टीका सौ दिन में तैयार हो जाएगा। फाइजर के मुख्य कार्यकारी अधिकारी डॉ. एल्बर्ट बोउर्ला ने हाल ही में यहाँ तक कहा था कि आने वाले कई वर्षों तक लोगों को संक्रमण से बचाव से किए सालाना टीकाकरण कराना पड़ सकता है। कई देशों ने तो अपने यहां बूस्टर डोज लगवाना शुरू भी कर दिया है। भारत में भी सीरम इंस्टीट्यूट ने बूस्टर डोज देने की इजाजत मांगी है। भारत में इस पर विचार हो रहा है कि क्या हैल्थवर्कर्स और गंभीर बीमारियों से पीड़ित लोगों को बूस्टर डोज दिया जाना चाहिए? दुनियाभर में कोरोना से बचाव के लिए औषधियों पर भी नये-नये शोध हो रहे हैं। इसी कड़ी में एक खुशखबरी यह आई है कि ब्रिटेन के औषधि नियामक ने कोविड-19 के एक नये एंटीबॉडी उपचार को मंजूरी दे दी, जिसके बारे में उसका मानना है कि यह ओमीक्रोन जैसे नये स्वरूप के खिलाफ भी कारगर होगा। औषधि एवं स्वास्थ्य देखभाल उत्पाद नियामक एजेंसी ने कहा है कि सोट्रोविमैब, कोविड के हल्के से मध्यम संक्रमण से पीड़ितों के लिए है। सोट्रोविमैब एक खुराक वाली एंटीबॉडी है और यह दवा कोरोना वायरस के बाहरी आवरण पर स्पाइक प्रोटीन से जुड़कर काम करती है। इससे यह वायरस को मानव कोशिका में प्रवेश करने से रोक देती है।
नयी कोविड गाइडलाइन
वहीं अगर भारत की बात करें तो केंद्र सरकार के अलावा विभिन्न राज्यों ने भी नयी कोरोना गाइडलाइन जारी करना शुरू कर दिया है। हवाई अड्डों पर अंतरराष्ट्रीय यात्रा करने वालों पर निगरानी की जा रही है खासकर 'रिस्क' वाले देशों से आ रहे यात्रियों की कोविड जाँच की जा रही है। हाल के दिनों में 'रिस्क' वाले देशों से जो यात्री आये हैं उनकी पहचान कर उनकी तथा उनके संपर्क में आये लोगों की जाँच की जा रही है। भारत ने कोरोना की दूसरी खतरनाक लहर का जिस तरह सामना किया उसकी दर्दनाक यादें आज भी खौफ पैदा करती हैं इसलिए बहुत सतर्कता तथा सावधानी बरते जाने की जरूरत है।
बहरहाल, हमें याद रखना है कि कोरोना कहीं गया नहीं है वह इंतजार सिर्फ इसी बात का कर रहा है कि हम मास्क उतारें, सोशल डिस्टेंसिंग का पालन छोड़ें या हाथ सैनेटाइज ना करें। अगर हम किसी खुशफहमी में हैं या खुद को बहुत बहादुर समझ रहे हैं तो जरा अमेरिका का हाल देख लें जहां आज भी रोजाना एक लाख से ज्यादा संक्रमण के मामले और 1000 से ज्यादा मौतें प्रतिदिन हो रही हैं। जरा यूरोप का हाल देख लें जहां केसों में वृद्धि के चलते अस्पतालों पर बोझ बढ़ता जा रहा है और लोग एक बार फिर अपने घरों के भीतर बंद होने को मजबूर हो रहे हैं, जरा चीन का हाल देख लें जहां कई शहरों में सख्त पाबंदियां लगा दी गयी हैं।
-नीरज कुमार दुबे
इतने बड़े राष्ट्र को यह संविधान सम्हाले हुए है, इसीलिए भारत में आज तक कोई फौजी या राजनीतिक तख्ता-पलट नहीं हुआ। जरा हम किसी भी दक्षिण एशिया के राष्ट्र का नाम बताएं, जहां इतने शांतिपूर्ण ढंग से सत्ता-परिवर्तन होता रहा हो।
यह तथ्य है कि भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है लेकिन क्या यह सत्य है कि वह सबसे अच्छा लोकतंत्र भी है? वह सबसे बड़ा तो सिर्फ इसलिए है कि उसकी जनसंख्या किसी भी बड़े से बड़े लोकतंत्र से पांच गुनी या दस गुनी है। संख्या-बल हमारे लोकतंत्र को अनुपम तो बनाता ही है, उसकी विविधता भी उसे विलक्षण रूप प्रदान करती है। अमेरिका, ब्रिटेन और फ्रांस जैसे देश अपने-अपने लोकतंत्र को अतिविशिष्ट बता सकते हैं लेकिन क्या उनके यहां भारत के समान दर्जनों धर्म, संप्रदाय, भाषाएं, रीति-रिवाज और हजारों जातियां हैं? क्या वे लोकतांत्रिक देश भारत की तरह सैंकड़ों वर्ष विदेशियों की गुलामी में कभी पिसते रहे हैं?
इतने बड़े राष्ट्र को यह संविधान सम्हाले हुए है, इसीलिए भारत में आज तक कोई फौजी या राजनीतिक तख्ता-पलट नहीं हुआ। जरा हम किसी भी दक्षिण एशिया के राष्ट्र का नाम बताएं, जहां इतने शांतिपूर्ण ढंग से सत्ता-परिवर्तन होता रहा हो। इंदिरा गांधी ने आपातकाल थोपने का दुस्साहस 1975 में जरूर किया था लेकिन अगले दो साल पूरे होने के पहले ही भारत की जनता ने उन्हें सूखे पत्ते की तरह फूंक मारकर उड़ा दिया। एक-दो राष्ट्रपतियों और सेनापतियों के बारे में ये अफवाहें जरूर सुनने में आई थीं कि वे कुछ दुस्साहस करना चाहते थे लेकिन भारतीय लोकभय ने लोकतंत्र की रक्षा की और वे अपनी मर्यादा में रहने को मजबूर हुए।
भारतीय लोकतंत्र सामाजिक और धार्मिक विविधता को साधे रखने में तो सफल हुआ ही है, वह राजनीतिक विविधता का संतुलन बनाए रखने में भी कुशल सिद्ध हो रहा है। वह जमाना गया, जब केरल की कम्युनिस्ट सरकार को नेहरू काल में और इंदिरा व मोरारजी-काल में विरोधियों की प्रांतीय सरकारों को अकारण ही बर्खास्त कर दिया जाता था। अब केंद्र की कांग्रेस और भाजपा सरकार काफी मजबूत होते हुए भी राज्यों की विपक्षी सरकारों को बर्दाश्त करती रहती हैं।
जहां तक मतदान से सत्ता-परिवर्तन का सवाल है, इस मुद्दे पर हारी हुई पार्टियां कुछ न कुछ गड़बड़ी का इल्जाम जरूर लगाती हैं लेकिन भारत की जनता न तो उससे प्रभावित होती है और न ही वे पार्टियां कभी अपने आरोपों को सिद्ध कर पाती हैं।
इन सब खूबियों के बावजूद क्या हम अपने लोकतंत्र की वर्तमान दशा से संतुष्ट हो सकते हैं? क्या हम उसे दुनिया का सर्वश्रेष्ठ लोकतंत्र कह सकते हैं? फिलहाल तो नहीं कह सकते लेकिन हमारी जनता और नेता कोशिश करें तो सचमुच भारत दुनिया का सर्वश्रेष्ठ लोकतंत्र बन सकता है। इसके लिए जरूरी है कि हम हमारे लोकतंत्र की कमियों को खोजें और उनका निवारण करें। भारतीय लोकतंत्र की सबसे बड़ी कमी तो यह है कि आजादी के बाद देश में एक भी सरकार ऐसी नहीं बनी कि जिसे भारतीय मतदाताओं का न्यूनतम स्पष्ट बहुमत भी मिला हो। जवाहरलाल नेहरू, इंदिरा गांधी और राजीव गांधी की सरकारों को संसद में सीटें तो 400 तक भी मिलीं लेकिन उनसे पूछिए कि आपको कुल मतदान के कितने प्रतिशत वोट मिले? आज तक किसी भी सरकार को 50 प्रतिशत तक वोट कभी नहीं मिले। नरेंद्र मोदी सरकार को स्पष्ट बहुमत जरूर मिला लेकिन वह सिर्फ सीटों का बहुमत था, वोटों का नहीं। वोट तो उसे 2019 में सिर्फ 38 प्रतिशत ही मिले। 2014 में उसे सिर्फ 31 प्रतिशत वोट मिले थे। हमारी चुनाव-पद्धति में ऐसे मौलिक परिवर्तन की जरूरत है कि कम से कम 51 प्रतिशत वोटों के बिना कोई भी सरकार न बन सके।
हमारे दर्जन भर से भी ज्यादा प्रधानमंत्री हो गए हैं लेकिन कितने प्रधानमंत्री हैं, जिन्हें अपने निर्वाचन-क्षेत्र में 51 प्रतिशत से ज्यादा वोट मिले हैं? पीवी नरसिंहराव और नरेंद्र मोदी के अलावा किसी भी प्रधानमंत्री को इस श्रेणी में नहीं रखा जा सकता। नेहरू और इंदिरा गांधी को भी नहीं। यही हाल हमारी संसद का भी है। संसद के लगभग साढ़े पांच सौ सदस्यों में से 50 भी प्रायः ऐसे नहीं होते, जिन्हें अपने चुनाव-क्षेत्र में 51 प्रतिशत वोट मिले होते हैं। दूसरे शब्दों में हमारे नेता और सांसद ठोस बहुमत से ही चुने जाने चाहिए।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने संविधान-दिवस पर ठीक ही कहा कि भारतीय लोकतंत्र को परिवारवाद ने लंगड़ा कर दिया है। हमारे देश में भाजपा और माकपा के अलावा सभी पार्टियाँ अब पार्टियाँ कहां रह गई हैं? वे प्राइवेट लिमिटेड कंपनियां बन गई हैं। कोई माँ-बेटा पार्टी है, कोई बाप-बेटा पार्टी है, कोई भाई-भतीजा पार्टी है तो कोई भाई-भाई पार्टी है। जो पार्टियाँ ऐसी नहीं हैं, क्या उनमें भी आंतरिक लोकतंत्र है? क्या उनके मंत्रिमंडलों, पार्टी-मंचों और विधानसभाओं व लोकसभाओं में उनके सदस्य खुलकर अपनी बात रख पाते हैं? उनके पदाधिकारियों की नियुक्तियां मुक्त चुनाव से होती हैं? अपने लोकतंत्र को स्वस्थ बनाने के लिए इस कमी को दूर करना जरूरी है।
भारतीय लोकतंत्र को भेड़तंत्र बनाने का सबसे ज्यादा दोष जातिवाद को है। सभी पार्टियाँ थोक वोट पटाने के लिए जातिवाद का सहारा लेती हैं। चुनावों से जातिवाद को खत्म करने का एक तरीका यह भी है कि किसी खास चुनाव क्षेत्र से किसी खास उम्मीदवार को खड़ा करने की बजाय पार्टियां अपने उम्मीदवारों की सामूहिक सूचियां जारी करें और चुनाव परिणाम आने के बाद जीते हुए उम्मीदवारों को अलग-अलग चुनाव क्षेत्र सौंप दें। इसके कारण मतदाता अपना वोट अपनी जाति के उम्मीदवार की बजाय उसकी पार्टी की विचारधारा और नीति को देंगे। जर्मनी में इसे सानुपातिक प्रतिनिधित्व व्यवस्था कहते हैं।
-डॉ. वेदप्रताप वैदिक
Fish Scales Skin In Winter: सर्दियों में स्किन का ड्राई होना काफी आम बात है. एक बार स्किन ड्राई हो जाए तो देखभाल करना काफी जरूरी मुश्किल हे जाता है. कई बार स्किन मछली की तरह ड्राई हो जाती है. ऐसे में इस तरह की स्किन का ख्याल रखना काफी जरूरी होता है. सर्दियों में मछली स्किन जैसी त्वचा को फिश स्केल स्किन (Fish Scales Skin) डिजीज भी कहा जाता है. ऐसे में आइए जानते हैं कैसे फिश स्केल स्किन से छुटकारा पाा जा सकता है.
फिश स्केल स्किन के लक्षण – त्वचा की पपड़ी उतरना – ड्राई स्किन पर खुलजी होना – स्किन का ड्राई होना फिश स्केल की परेशानी देखने को मिलती है. फिश स्केल स्किन के उपाय – फिश स्केल से बचने के लिए त्वचा की देखभाल बहुत ही जरुरी है. त्वचा की देखभाल के लिए मॉइश्चराइजर लगाएं. – इससे बचने के लिए ज्यादा गर्म पानी से नहीं नहाना चाहिए. नहाने के पानी नमक का इस्तेमाल करें. – सर्दियों में फिश स्केल स्किन से बचने के लिए पानी ज्यादा से ज्यादा पीएं. इससे स्किन फटती नहीं है.स्केल स्किन का कारण सर्दियों में चलने वाली ठंडी हवा की वजह से स्किन ड्राई हो जाती है जिसकी वजह से फिश