संपादकीय

संपादकीय (272)

सबका विश्वास जीतने में जुटी मोदी सरकार ने अल्पसंख्यकों के प्रति कांग्रेस की सोच को एक बार फिर उजागर कर दिया है जिससे नया राजनीतिक विवाद खड़ा हो गया है। संसद में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने राष्ट्रपति के अभिभाषण की चर्चा का जवाब देते हुए कहा था कि राजीव गांधी के कार्यकाल में हुए शाहबानो केस के दौरान एक तत्कालीन मंत्री से कांग्रेस नेताओं ने मुस्लिमों को गटर में रहने देने की बात कही थी। हालांकि प्रधानमंत्री ने उस तत्कालीन केंद्रीय मंत्री का नाम नहीं लिया था लेकिन हम आपको बता दें कि वह मंत्री थे आरिफ मोहम्मद खान जोकि राजीव गांधी सरकार में गृह राज्यमंत्री थे।
दरअसल मामला यह था कि 23 अप्रैल 1985 को तीन तलाक के केस में उच्चतम न्यायालय ने एक मुस्लिम महिला शाह बानो के पक्ष में फैसला सुनाया था, जिसके पति ने उसे तीन तलाक दे दिया था। उच्चतम न्यायालय के फैसले के बाद उस समय की कांग्रेस सरकार को अपने मुस्लिम वोट बैंक के खिसकने का डर पैदा हो गया और प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने अदालत के फैसले को संसद में अपने बहुमत की मदद से पलट दिया। इससे नाराज होकर आरिफ मोहम्मद खान ने गृह राज्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया। इस्तीफा देने वाले दिन तो आरिफ मोहम्मद खान ने किसी से संपर्क नहीं किया लेकिन इसके अगले दिन जब वह संसद भवन पहुँचे तो उन्हें मनाने के लिए अरुण सिंह, अरुण नेहरू और तत्कालीन गृहमंत्री पीवी नरसिम्हा राव भी आये। नरसिम्हा राव ने कथित रूप से आरिफ मोहम्मद खान से कहा, 'तुम इतनी जिद्द क्यों करते हो। कांग्रेस पार्टी मुसलमानों का सामाजिक सुधार करने के लिए नहीं है और न ही तुम हो इसलिए तुम ऐसा क्यों कर रहे हो।' आरिफ मोहम्मद खान ने अपने इस साक्षात्कार में बताया था कि इसके बाद नरसिम्हा राव ने कहा कि उनसे कहा था कि 'अगर कोई गटर में पड़े रहना चाहता है तो रहने दो।' इसी बात को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने भाषण में बताया और अब आरिफ मोहम्मद खान ने इस बात की पुष्टि भी कर दी है कि एक टीवी समाचार चैनल के कार्यक्रम 'प्रधानमंत्री' में उन्होंने वह बात कही थी जिसका जिक्र प्रधानमंत्री ने अपने भाषण में किया है। 
 
मोदी सरकार कर रही है अल्पसंख्यकों का भी विकास
 
छात्रवृत्ति
 
जहाँ तक कांग्रेस की ओर से मोदी सरकार पर यह आरोप लगाये जाते हैं कि उसके राज में अल्पसंख्यकों के साथ नाइंसाफी हो रही है तो यह जान लेना जरूरी है कि दोबारा सरकार बनाने के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जो शुरुआती फैसले लिये उनमें एक प्रमुख फैसला यह है कि अल्पसंख्यक वर्ग के पांच करोड़ विद्यार्थियों को अगले पांच साल में 'प्रधानमंत्री छात्रवृत्ति' दी जायेगी। इन पांच करोड़ विद्यार्थियों में आधी संख्या यानि ढाई करोड़ छात्रवृत्तियां छात्राओं को दी जायेंगी। इस योजना का लाभ लेने की प्रक्रिया को सरल और पारदर्शी भी बनाया गया है।
 
हज सब्सिडी का छल खत्म
 
यही नहीं मोदी सरकार ने हज सब्सिडी के छल को ख़त्म कर दिया है। खास बात यह है कि हज सब्सिडी खत्म होने से किसी भी हज यात्री की जेब पर कोई अतिरिक्त बोझ नहीं पड़ा है। इस साल देश भर के 21 हवाई अड्डों से 500 से ज्यादा उड़ानों के जरिये रिकॉर्ड दो लाख भारतीय मुसलमान बिना किसी सब्सिडी के हज पर जा सकेंगे। यह सऊदी अरब सरकार के साथ सुधारे गये संबंधों का ही नतीजा है कि भारत का हज कोटा दो लाख कर दिया गया है और आजादी के बाद पहली बार उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल, आंध्र प्रदेश, बिहार सहित देश के सभी बड़े प्रमुख राज्यों से सभी हज आवेदक हज 2019 पर जा रहे हैं।
तीन तलाक से मुक्ति दिलाने के प्रयास
 
इसके अलावा मुस्लिम महिलाओं को तीन तलाक के अभिशाप से मुक्ति दिलाने के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कितने प्रतिबद्ध हैं यह इसी बात से पता लग जाता है कि 17वीं लोकसभा के गठन के बाद मोदी सरकार द्वारा जो पहला विधेयक पेश किया गया है वह है तीन तलाक पर रोक का प्रावधान करने वाला मुस्लिम महिला विवाद अधिकार संरक्षण विधेयक। यदि इस बार यह विधेयक दोनों सदनों में पारित हो जाता है तो वर्तमान में लागू अध्यादेश का स्थान लेगा। प्रधानमंत्री ने हमला करते हुए कहा भी है कि महिला सशक्तिकरण के लिए कांग्रेस को कई बड़े मौके मिले, लेकिन हर बार वो चूक गए। 1950 में समान नागरिक संहिता के दौरान वह पहला मौका चूके और उसके 35 साल बाद शाहबानो मामले के दौरान एक और मौका गंवा दिया। अब तीन तलाक विरोधी विधेयक के रूप में इनके पास एक और मौका है। देखना होगा कि कांग्रेस अब क्या फैसला लेती है क्योंकि कई राज्यों में खासकर केरल और तमिलनाडु में उसे मुस्लिमों के अच्छे वोट मिले हैं।
 
कांग्रेस के आरोप
 
जहाँ तक कांग्रेस की बात है तो उसने मोदी सरकार को उसके दूसरे कार्यकाल में भी घेरना शुरू कर दिया है। पार्टी का कहना है कि अगर देश में भीड़ की हिंसा जारी रही तो उनके भरोसे को कैसे जीता जा सकता है। राष्ट्रपति अभिभाषण पर पेश धन्यवाद प्रस्ताव पर उच्च सदन में हुयी चर्चा में भाग लेते हुए कांग्रेस सदस्य दिग्विजय सिंह ने भाजपा पर सांप्रदायिकता फैलाने का आरोप भी लगाया और कहा कि देश में सांप्रदायिकता का जहर कूट कूट कर भर दिया गया है जिसे हटाना आसान नहीं होगा। उन्होंने कहा कि सांप्रदायिकता का असर यह है कि लोकसभा तक में धार्मिक नारे लग रहे हैं।
 
दूसरी ओर असद्दुदीन ओवैसी कह रहे हैं कि आपको शाहबानो याद रही लेकिन अखलाक को भूल गये। लेकिन यहां यह ध्यान दिलाने की जरूरत है कि जब अखलाक की हत्या हुई उस समय उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी का शासन था। साल 2015 में अखलाक के साथ जो हुआ उसे किसी भी तर्क से सही नहीं ठहराया जा सकता। यह ध्यान रखना चाहिए कि अखलाक के आरोपी इस समय कानून की गिरफ्त में हैं और इस तरह के मामले रुकें इसके लिए सरकारों की ओर से पर्याप्त कानूनी प्रबंध किये गये हैं।
 
बहरहाल, हाल ही में झारखंड में जो जबरन नारे लगवाने की घटना सामने आई थी वह सचमुच सभ्य समाज के माथे पर बड़ा कलंक है। अल्पसंख्यकों का उत्थान करना है तो उनके लिए मात्र सरकारी योजनाओं की ही नहीं बल्कि उनके संरक्षण की भी जरूरत है। उम्मीद की जा सकती है कि भारत की 20 करोड़ की मुस्लिम आबादी सम्मान के साथ उन्मुक्त होकर जी सकेगी क्योंकि यह सरकार किसी के तुष्टिकरण में नहीं बल्कि 'सबका साथ, सबका विकास और सबका विश्वास' के मूलमंत्र के पालन की बात करती है। जहाँ तक कांग्रेस की बात है तो एक बात तो दिख रही है कि मुस्लिमों को वोट बैंक के रूप में उपयोग करती रही इस पार्टी ने उनके उत्थान में कभी भी ज्यादा रुचि नहीं दिखाई।
 
-नीरज कुमार दुबे
भारतीय सेना के पराक्रम पर जो लोग सवालिया निशान उठा रहे हैं उनको शर्म आनी चाहिये। सैनिकों ने जो पराक्रम पाकिस्तान में घुसकर दिखाया और आतंकियों के ठिकानों को नष्ट किया उस पर अब राजनीतिक लोग अपनी-अपनी रोटियां सेंकने पर लगे हैं कोई मारे गये आतंकियों की सख्या जानना चाहता है तो कोई उस पर सबूत चाहता है कि आतंकियों के ठिकानों पर सर्जिकल स्ट्राइक हुई या केवल जंगलों को ही नुकसान पहुँचाया गया। मानने की यह बात है कि यदि सेना ने आतंकियों को नुकसान नहीं पहुँचाया तो पाकिस्तान ने भारत में लड़ाकू विमान एफ-16 से भारतीय सीमा पर बमबारी क्यों की और सैन्य ठिकानों को क्यों निशाना बनना चाहता था।
जब भारतीय सेना ने एयर स्ट्राइक की थी उसके दूसरे दिन ही पाकिस्तान ने एफ-16 लड़ाकू विमान से भारतीय सीमा में घुसकर बमबारी शुरू की थी तभी विंग कमांडर अभिनंदन ने पाकिस्तान का लड़ाकू विमान एफ-16 मार गिराया था और उनका विमान मिराज-2000 भी दुर्घटनाग्रस्त हो गया था जिसके चलते पाकिस्तानी नागरिकों ने अभिनंदन को पकड़ लिया था और उनको काफी मारा-पीटा था। जिसका वीडियो भी बहुत तेजी से वायरल हुआ था। बाद में वहाँ की सेना ने अपने कब्जे में लेकर अभिनंदन से पूछताछ भी की थी जिसका भी वीडियो आया था। केंद्र सरकार ने पाकिस्तान पर दबाव बनाया था तभी विंग कमांडर अभिनंदन को पाकिस्तान सरकार रिहा करने पर मजबूर हुई थी।
 
इन सब के बीच भारतीय सेना के शौर्य पर राजनीतिक उठापटक चालू हो गयी। सबसे पहले एयर स्ट्राइक के दूसरे दिन ही उमर अब्दुल्ला ने वायुसेना पर सवाल उठाया था कि जो एयर स्ट्राइक की गयी है वह बालाकोट भारतीय हिस्से में है। जबकि भारतीय सीमा से सटा हुआ बालाकोटे है न कि पाकिस्तान वाला बालाकोट। यह सरकार को बताना पड़ा था कि यह बालाकोट पाकिस्तान वाला है। इसके बाद उनका कोई बयान नहीं आया। बिना जानकारी के ऐसी बयानबाजी नेताओं की आदत-सी हो गई है। वहीं पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने मोदी सरकार से एयर स्ट्राइक के सबूत मांग लिये और यह भी कहा कि एयर स्ट्राइक के बाद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कोई सर्वदलीय बैठक नहीं बुलाई व इस ऑपरेशन की जानकारी विपक्ष को भी नहीं साझा की। मोदी सरकार से जवाब मांगा गया कि इस ऑपरेशन से कहाँ बम गिराए गए और कितने लोग उसमें मारे गए। वहीं नवजोत सिंह सिद्धू पुलवामा हमले के बाद भी पाकिस्तान से वार्ता की बात कह रहे थे और जब प्रधानमंत्री ने पुलवामा हमले के बाद विपक्ष की सर्वदलीय बैठक में सभी से पाकिस्तान के खिलाफ सहमति मांगी तो सभी उनके पक्ष में रहे और सभी ने एक सुर में पाकिस्तान के खिलाफ कड़ी कार्रवाई की मांग भी की थी। तब सिद्धू भी सुर में सुर मिला रहे थे लेकिन जब भारतीय विंग कामंडर को पाकिस्तान छोड़ने के लिए मजबूर हो गया तब इमरान की दरियादिली की बात करने लगे। फिर वार्ता का सुर अलापना शुरू कर दिया। बाद में सिद्धू भी सेना की कार्रवाई का सुबूत मांगने लगे कि इस कार्रवाई में कितने आतंकी मरे उसकी जानकारी साझा की जाये।
गौरतलब है कि कांग्रेस के वरिष्ठ नेता दिग्विजय सिंह ने भी भारतीय सेना के पराक्रम को न देखते हुए एयरस्ट्राइक का सुबूत मांगने लगे। उन्होंने अमेरिका का हवाला देते हुए कहा कि ओसामा बिन लादेन के खिलाफ जब अमेरिका ने कार्रवाई की थी तब उन्होंने सैटेलाइट के जरिये तस्वीरें साझा की थीं। उन्होंने यह भी कहा था कि यह तकनीकी का युग है ऐसे में सैटेलाइट के माध्यम से सारी तस्वीरें सामने आ जाती हैं। अगर देखा जाये तो जब कांग्रेस की केन्द्र में सरकार थी तब भी तो सैटेलाइट था तब भी तो आतंकी हमले होते थे तब क्यों सैटेलाइट का इस्तेमाल नहीं किया गया। आज जो लोग इन कार्रवाई पर सवालिया निशान उठाकर राजनीतिक फायदा लेना चाहते हैं उन्हें यह भी देखना चाहिये कि दूसरे देश क्यों भारत का साथ देने के लिए तैयार हैं। ईरान भी तो मुस्लिम देश है फिर पाकिस्तान के आतंकवाद को मुंहतोड़ जवाब देने के लिए क्यों कह रहा है और उसने भारतीय सेना जैसी कार्रवाई करने की चेतावनी तक दे डाली है।
 
बता दें 13 फरवरी को पाकिस्तान से सटी ईरान के सिस्तान बलूचिस्तान सीमा में एक आत्मघाती हमले में ईरानी रिवोल्यूशनरी गार्ड के 27 जवान शहीद हो गए थे। इसी के चलते कुर्द सेना के कमांडर जनरल कासिम सोलेमानी ने कहा था कि अगर पाकिस्तान ने अपनी जमीन पर पनप रहे आतंकवाद को खत्म नहीं किया तो उन्हें गंभीर परिणाम भुगतने पड़ सकते हैं और पाकिस्तान से सवाल भी किया कि आप किस ओर जा रहे हैं ? आपने सभी पड़ोसी देशों की सीमा पर अशांति फैलाई हुई है ऐसा कोई पड़ोसी देश बचा नहीं जहाँ असुरक्षा न फैलाई गयी हो।


वहीं राजनीतिक लोगों का निशाना बनने के कारण भारतीय वायुसेना प्रमुख बीएस धनोआ को आखिरकार प्रेस के सामने आना पड़ा। सभी सवालों को उन्होंने बहुत ही सटीक जवाब भी दिया। उन्होंने बहुत ही कम शब्दों में अच्छा जवाब दिया। उन्होंने कहा, वायुसेना मरने वालों की गिनती नहीं करती और बालाकोट आतंकी शिविर पर हवाई हमले में हताहत लोगों की संख्या की जानकारी सरकार देगी। मरने वालों की संख्या लक्षित ठिकाने में मौजूद लोगों की संख्या पर निर्भर करती है। वायु सेना प्रमुख ने यह भी बताया कि यदि जंगल में बम गिरते तो पाकिस्तान क्यों जवाबी हमला करता।
 
वहीं इसी खींचतान के बीच एनटीआरओ (नेशनल टेक्निकल रिसर्च ऑर्गनाइजेशन) ने बड़ा खुलासा किया था कि सर्विलांस के मुताबिक बालाकोट स्थित जैश-ए-मोहम्मद के कैम्प में जब भारतीय सेना ने एयर स्ट्राइक की थी तब वहाँ करीब 300 मोबाइल फोन एक्टिव थे। अब इसको लेकर भी राजनीति हो सकती है। वहीं पाकिस्तान ने अपने लड़ाकू विमान एफ-16 से तो घुसपैठ की ही थी साथ ही ड्रोन से भारतीय सीमा पर भी जानकारियां इकट्ठा करने में जुटा था। 26 फरवरी को भारतीय सेना ने पाक सीमा से सटे कच्छ के अबडासा के निकट घुसे एक पाकिस्तानी ड्रोन को मार गिराया था। जिसके दो टुकड़े वहाँ के ग्रामीणों को मिले थे। इतना ही नहीं 4 मार्च को सुखोई 30एमकेआई विमान ने पाकिस्तानी ड्रोन को मार गिराया। पाकिस्तानी ड्रोन को भारतीय वायु सुरक्षा रडार प्रणाली के जरिए पकड़ा गया। इतना ही नहीं आये दिन पाकिस्तान की तरफ से सीजफायर का उल्लंघन होता है। इसी सब से समझ आता है कि पाकिस्तान, भारत पर हमले की फिराक में है लेकिन उसको मौका नहीं मिल रहा है।
 
 
कुछ राजनीतिक लोगों को अपने देश के शहीदों और उनके परिवार वालों की नहीं बल्कि पड़ोसी देश की चिंता है। अपने ही देश की सेना पर सवालिया निशान उठाकर उनके पराक्रम पर संशय जता रहे हैं। पाकिस्तानी मीडिया विपक्षियों के सवालिया निशान उठाने को लेकर जमकर सुर्खियां चला रहे हैं। कांग्रेस नेता दिग्विजय सिंह के सबूत मांगने पर पाकिस्तानी टीवी जियो न्यूज ने ब्रेकिंग खबर चलाई। चैनल ने कहा कि भारत के प्रमुख विपक्षी नेताओं ने मोदी सरकार से बालाकोट हमले का सबूत मांगा।
यह समय पांच राज्यों में चुनाव का समय है जो हमें थोड़ा ठहरकर अपने बीते दिनों के आकलन और आने वाले दिनों की तैयारी का अवसर देता है। एक व्यक्ति की तरह एक समाज, एक राष्ट्र के जीवन में भी इसका महत्वपूर्ण स्थान है। इन पांच राज्यों के चुनाव का वर्तमान एवं लोकसभा चुनाव की दस्तक जहां केन्द्र एवं विभिन्न राज्यों में भाजपा को समीक्षा के लिए तत्पर कर रही है, वहीं एक नया धरातल तैयार करने का सन्देश भी दे रही है। इन पांच राज्यों में चुनाव परिणाम क्या होंगे, इसका पता 11 दिसम्बर को लगेगा।
 
भाजपा के लिये यह अवसर जहां अतीत को खंगालने का अवसर है, वहीं भविष्य के लिए नये संकल्प बुनने का भी अवसर है। उसे यह देखना है कि बीता हुआ दौर उसे क्या संदेश देकर जा रहा है और उस संदेश का क्या सबब है। जो अच्छी घटनाएं बीते साढ़े चार साल के नरेन्द्र मोदी शासन में हुई हैं उनमें एक महत्वपूर्ण बात यह कही जा सकती है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ जनजागृति का माहौल बना- एक विकास क्रांति का सूत्रपात हुआ, विदेशों में भारत की स्थिति मजबूत बनी। लेकिन जाते हुए वक्त ने अनेक घाव भी दिये हैं, जहां नोटबंदी ने व्यापार की कमर तोड़ दी और महंगाई एक ऐसी ऊंचाई पर पहुंची, जहां आम आदमी का जीना दुश्वार हो गया है। जीएसटी का लागू होना एवं उससे सकारात्मक वातावरण का निर्माण होना एक क्रांतिकारी कदम कहा जा सकता है। ऐसा भी प्रतीत हुआ कि में राजनीति और सत्ता गरीबी उन्मूलन की दिशा में अधिक गतिशील बनी। आर्थिक घटनाओं के संकेत हैं कि हम न सिर्फ तेजी से आगे बढ़ रहे हैं बल्कि किसी भी तरह का झटका झेलने में सक्षम है। इस साल सेंसेक्स ने लगातार ज्वारभाटा की स्थिति बनाए रखी  हालांकि पेट्रोल की कीमतों ने काफी परेशान किया। जब दुनिया की बड़ी आर्थिक एवं राजनीतिक सत्ताएं धराशायी होती दिख रही है तब भी भारत ने स्वयं को संभाल रखा है। इसका श्रेय नरेन्द्र मोदी सरकार को जाता है।
 
भाजपा ने अपनी विचारधारा में व्यापक बदलाव किये हैं, जो उसके स्थायित्व के लिये जरूरी भी थे। जब तक भाजपा वाजपेयीजी की विचारधारा पर चलती रही, तब वह श्रीराम के बताये मार्ग पर चलती रही। मर्यादा, नैतिकता, राजनीतिक शुचिता उसके लिए कड़े मापदंड थे। सत्ता की शर्त पर उसने इनसे कभी समझौता नहीं किया। जहाँ करोड़ों रुपये के घोटाले-घपले करने के बाद भी कांग्रेस बेशर्मी से अपने लोगों का बचाव करती रही, वहीं भाजपा ने फंड के लिए मात्र एक लाख रुपये ले लेने पर अपने राष्ट्रीय अध्यक्ष बंगारू लक्षमण को हटाने में तनिक भी विलंब नहीं किया। झूठे ताबूत घोटाला के आरोप पर तत्कालीन रक्षामंत्री जार्ज फर्नांडिस का इस्तीफा ले लिया। कर्नाटक में येदियुरप्पा पर भ्रष्टाचार के आरोप लगते ही उन्हें भाजपा से निष्कासित करने में कोई विलंब नहीं किया। ऐसे अनेक नैतिकता एवं आदर्श के प्रतिमानों को महत्व देने वाले अटलजी ने अपनी व्यक्तिगत नैतिकता के चलते एक वोट से अपनी सरकार गिरा डाली। एक सफल एवं सक्षम लोकतंत्र के लिये ऐसी ही नैतिक प्रतिबद्धताएं अपेक्षित होती है, लेकिन राजनीति के लिये इन्हें त्याज्य माना गया है। जब राजनीति में नैतिकता एवं शुचिता के साथ आगे बढ़ने का संकल्प होता है तो चुनावी संग्राम में हार का मुंह भी देखना पड़ता है, लेकिन जब से नरेन्द्र मोदी प्रधानमंत्री बने है एवं अमित शाह भाजपा अध्यक्ष बने हैं, उन्होंने मर्यादा पुरुषोत्तम राम के नक्शे कदम पर चलने वाली भाजपा को कर्मयोगी श्रीकृष्ण की राह पर ले आए हैं। जिस तरह श्रीकृष्ण अधर्मी को मारने में किसी भी प्रकार की कोताही नहीं करते हैं। छल हो तो छल से, कपट हो तो कपट से, अनीति हो तो अनीति से नष्ट करना ही उनका ध्येय होता है। इसीलिए वे अर्जुन को सिर्फ कर्म करने की शिक्षा देते हैं। मोदी एवं शाह भी कर्म करने में विश्वास कर राष्ट्र के अस्तित्व एवं अस्मिता को अक्षुण्ण रखने का उपक्रम करते रहे हैं। 
 
आजादी के सात दशक की यात्रा में न केवल देश की अस्मिता एवं अस्तित्व पर ग्रहण लगा बल्कि लोकतंत्र भी अंधकार की ओट में आ गया। राष्ट्र में ये ग्रहणपूर्ण स्थितियां मनुष्य जीवन के घोर अंधेरों की ही निष्पत्ति कही जा सकती है। यहां मतलब है मनुष्य की विडम्बनापूर्ण और यातनापूर्ण स्थिति से। दुःख-दर्द भोगती और अभावों-चिन्ताओं में रीतती उसकी हताश-निराश जिन्दगी से। उसे इस लम्बे दौर में किसी भी स्तर पर कुछ नहीं मिला। उसकी उत्कट आस्था और अदम्य विश्वास को राजनीतिक विसंगतियों, सरकारी दुष्ट नीतियों, सामाजिक तनावों, आर्थिक दबावों, प्रशासनिक दोगलेपन और व्यावसायिक स्वार्थपरता ने लील लिया था। लोकतन्त्र भीड़तन्त्र में बदल गया था। दिशाहीनता और मूल्यहीनता बढ़ती रही है, प्रशासन चरमरा रहा था। भ्रष्टाचार के जबड़े खुले थें, साम्प्रदायिकता की जीभ लपलपा रही थी और दलाली करती हुई कुर्सियां भ्रष्ट व्यवस्था की आरतियां गा रही थीं। उजाले की एक किरण के लिए आदमी की आंख तरस रही थी और हर तरफ से केवल आश्वासन बरस रहे थें। सच्चाई, ईमानदारी, भरोसा और भाईचारा जैसे शब्द शब्दकोषों में जाकर दुबक गये थें। व्यावहारिक जीवन में उनका कोई अस्तित्व नहीं रह गया था। इस विसंगतिपूर्ण दौर में भाजपा ने शहद में लिपटी कड़वी दवा के रूप में घावों पर मरहम का काम किया है। कुल मिलाकर सार यह है कि, अभी देश दुश्मनों से घिरा हुआ है, नाना प्रकार के षडयंत्र रचे जा रहे हैं। देश को बचाने के लिये नैतिकता से काम नहीं चलेगा, उसके लिये सशक्त एवं विजनरी सत्ता जरूरी है। बिना सत्ता के कुछ भी संभव नहीं हैं। भगवान कृष्ण ने कहा, अभिमन्यु को घेर कर मारने वाले और द्रौपदी को भरी दरबार में वेश्या कहने वाले के मुख से धर्म, नैतिकता, मर्यादा एवं अनुशासन की बातें शोभा नहीं देती। आज चुनावी महासंग्राम में विभिन्न राजनीतिक दल जिस तरह से संविधान, नैतिकता एवं धर्म  की बात कर रहे है तो लग रहा है जैसे हम पुनः महाभारत युग में आ गए हैं। जरूरी है कि जिस तरह महाभारत में श्रीकृष्ण ने अर्जुन को नहीं चूकने दिया था, देश की जनता श्रीकृष्ण बनकर नरेन्द्र मोदी रूपी अर्जुन को भी नहीं चूकने दे। देश में आज सक्षम एवं सार्थक विपक्ष नहीं है जिसके साथ नैतिकता का खेल खेला जाए।
 
 
आज देश के जिस तरह के जटिल हालात है, राजनीतिक दल सत्ता एवं स्वार्थ की दौड़ में राष्ट्र को भुलते रहे हैं, उनमें यह प्रसंग हमारे लिये प्रेरणा बन सकता है। बहुत पुरानी बात है। एक राजा ने एक पत्थर को बीच सड़क पर रख दिया और खुद एक बड़े पत्थर के पीछे जाकर छिप गया। उस रास्ते से कई राहगीर गुजरे। किन्तु वे पत्थर को रास्ते से हटाने की जगह राजा की लापरवाहियों की जोर-जोर से बुराइयां करते और आगे बढ़ जाते। कुछ दरबारी वहां आए और सैनिकों को पत्थर हटाने का आदेश देकर चले गए। सैनिकों ने उस बात को सुना-अनसुना कर दिया, लेकिन पत्थर को किसी ने नहीं हटाया।
 
उसी रास्ते से एक किसान जा रहा था। उसने सड़क पर रखे पत्थर को देखा। रुककर अपना सामान उतारा और उस पत्थर को सड़क के किनारे लगाने की कोशिश करने लगा। बहुत कोशिशों के बाद अंत में उसे सफलता मिल गई। पत्थर को हटाने के बाद जब वह अपना सामान वापस उठाने लगा तो उसने देखा कि जहां पत्थर रखा हुआ था वहां एक पोटली पड़ी है। उसने पोटली को खोलकर देखा। उसमें उसे हजार मोहरें और राजा का एक पत्र मिला। जिसमें लिखा था- यह मोहरें उसके लिए हैं, जिसने मार्ग की बाधा को दूर किया।  यह प्रसंग हर बाधा में हमें अपनी स्थिति को सुधारने की प्रेरणा देती है। चुनावों का समय किसान बनने का समय है जो राष्ट्र की बाधा रूपी पत्थर को हटाये।
 
 
समय के इस विषम दौर में आज आवश्यकता है आदमी और आदमी के बीच सम्पूर्ण अन्तर्दृष्टि और संवेदना के सहारे सह-अनुभूति की भूमि पर पारस्परिक संवाद की, मानवीय मूल्यों के पुनस्र्थापना की, धार्मिक, राजनैतिक, सामाजिक और चारित्रिक क्रांति की। आवश्यकता है कि राष्ट्रीय अस्मिता के चारों ओर लिपटे अंधकार के विषधर पर मतदाता अपनी पूरी ऊर्जा और संकल्पशक्ति के साथ प्रहार करे तथा वर्तमान की हताशा में से नये विहान और आस्था के उजालों का आविष्कार करे। सदियों की गुलामी और स्वयं की विस्मृति का काला पानी हमारी नसों में अब भी बह रहा है। इन  हालातों में भारत ने कितनी सदियों बाद खुद को आगे बढ़ता देखा है। यह लंबा इतिहास, जो हमारी परम्पराओं में पैठ चुका था, हमें भविष्य को लेकर ज्यादा आशावादी होने से बचना सिखाता रहा। यह जंगल का सरवाइकल मंत्र है कि डर कर रहो, हर आहट पर संदेह करो, हर चमकती चीज को दुश्मन समझो और नाराजगी कायम रखो। इसलिए आम जनता को गुमराह करने वाली राजनीति को समझना होगा। अगर आमदनी बढ़ रही है, तो उसमें जरूर कोई दमघोंटू फंदा छिपा होगा, तरक्की जरूर बर्बादी की आहट है, विकास में गुलामी के बीज जरूर मौजूद है- विपक्षी दलों द्वारा रोपी गयी इन मानसिकताओं से उबरे बिना हम वास्तविक तरक्की की ओर अग्रसर नहीं हो सकते। जीवन की तेजस्विता के लिये हमारे पास तीन मानक हैं- अनुभूति के लिये हृदय, चिन्तन और कल्पना के लिये मस्तिष्क और कार्य के लिये मजबूत हाथ। यदि हमारे पास हृदय है पर पवित्रता नहीं, मस्तिष्क है पर सही समय पर सही निर्णय लेने का विवेकबोध नहीं, मजबूत हाथ हैं पर क्रियाशीलता नहीं तो जिन्दगी की सार्थक तलाश अधूरी है।           
 
ललित गर्ग
जम्मू-कश्मीर विधानसभा को भंग करने की राज्यपाल सत्यपाल मलिक की कार्रवाई ने पीडीपी, नेकां और कांग्रेस को तो इतना नहीं चौंकाया जितना उसने भाजपा को चौंकाया है क्योंकि सही मायनों में उन्होंने केंद्र में स्थापित भाजपा सरकार के उन कदमों को रोक दिया है जिसके तहत भाजपा सज्जाद गनी लोन के कांधों पर बंदूक रख कर सरकार बनाना चाहती थी और मात्र दो विधायक होने के बावजूद वे सरकार बनाने का दावा कर स्थिति को हास्यास्पद बना रहे थे।
 
इससे इंकार नहीं किया जा सकता कि राज्यपाल के कदम से भाजपा का गणित गड़बड़ा गया है। जिस राज्यपाल को भाजपा ‘अपना आदमी’ बताती रही थी उनकी मदद से भाजपा का अप्रत्यक्ष सरकार बनाने का सपना इसलिए टूट गया क्योंकि विपक्ष ने ऐसा जाल फंसाया कि उसमें मलिक फंस कर रह गए। कुछ दिन पहले ही पीपुल्स कांफ्रेंस के सज्जाद लोन के नेतृत्व में सरकार गठन के लिए पीडीपी में बड़े विभाजन की रणनीति बन चुकी थी। तय योजना के तहत लोन शुक्रवार को सरकार बनाने का दावा पेश करने वाले थे। इसी योजना के तहत एक दिन पहले पीडीपी के कद्दावर नेता मुजफ्फर हुसैन बेग का बागी तेवर सामने आया, लेकिन बदल रहे समीकरणों को भांपते हुए उमर ने महबूबा से फोन पर संपर्क साधा और पासा पलट गया।
 
उमर-महबूबा संवाद से महागठबंधन सरकार की संभावना बढ़ी और पीडीपी के विभाजन की कोशिशें फेल होती दिखने लगीं। फिर दोनों पक्षों द्वारा सरकार बनाने के परस्पर दावों के बाद गवर्नर के लिए विधानसभा भंग करने का रास्ता साफ हो गया। राज्यपाल नई सरकार के गठन के संदर्भ में ही विचार विमर्श के लिए दिल्ली भी गए थे। तब सज्जाद लोन के नेतृत्व में भाजपा और पीडीपी के बंटे धड़े को मिलाकर नई सरकार के गठन का ब्लू प्रिंट तैयार हो चुका था, लेकिन उमर और महबूबा के बीच साझा सरकार पर सहमति को कांग्रेस आलाकमान की हरी झंडी के बाद समीकरण उलट पुलट हो गए। दरअसल मलिक भाजपा को लाभ पहुंचाना चाहते थे।
 
पर जब भाजपा को आभास हो गया कि इस हालात में उसके लिए सरकार बनाना संभव नहीं रह गया है तो उसने महबूबा द्वारा सरकार बनाने के दावे के ठीक बाद सज्जाद लोन से दावा पेश कराया। इससे राज्यपाल को विधानसभा भंग करने का पुख्ता आधार मिल गया। राजभवन के पास अब यह तर्क है कि मौजूदा हालात में विधायकों की खरीद फरोख्त की संभावना बढ़ सकती थी, लिहाजा विधानसभा भंग करने का कदम उठाया गया। वैसे राजनीतिक पंडित कहते थे कि सज्जाद लोन का दावा इस खरीद फरोख्त की पुष्टि करता था क्योंकि पीडीपी द्वारा लिखे गए पत्र में स्पष्ट था कि तीन राजनीतिक दल मिलकर सरकार बना रहे हैं और सज्जाद लोन के पत्र में स्पष्ट लिखा था कि उनके साथ पीडीपी के 18 विधायक हैं। इसे समझना कोई मुश्किल नहीं था कि विधायकों को कौन खरीदना चाहता था।
 
उमर ने मंगलवार रात को ही पीडीपी नेता महबूबा मुफ्ती से बातचीत की। उमर ने महबूबा को बताया कि अगर अब चुप रहीं तो उनकी पार्टी तो टूटेगी ही, साथ ही प्रदेश में भाजपा की सरकार काबिज हो जाएगी। उन्होंने अनुच्छेद 370 और 35 ए को बचाने के लिए महागठबंधन की सरकार के पक्ष में तर्क दिए। पार्टी में बगावत झेल रहीं महबूबा ने इससे सहमत होकर अल्ताफ बुखारी को बातचीत के लिए उमर के पास भेजा। इससे महागठबंधन सरकार की संभावना बढ़ी थी।
 
नई सरकार के गठन की कवायद में पीडीपी ही मुख्य धुरी थी। पीडीपी के बिना महागठबंधन की सरकार संभव नहीं थी। दूसरी ओर भाजपा भी पीडीपी के विभाजन के बाद बंटे धड़े के साथ मिलकर सरकार बनाने का सपना पाल रही थी। यही कारण है कि सरकार के गठन के मुद्दे पर महबूबा ने चुप्पी तोड़ी और दावा पेश किया, लेकिन यह प्रयास विफल हो गया।
 
आंकड़ों का गणित महागठबंधन के पक्ष में दिख रहा था। जम्मू-कश्मीर की 89 सीटों वाली विधानसभा में बहुमत के लिए 44 का आंकड़ा चाहिए जबकि भाजपा के पास सिर्फ 25 विधायक थे। सज्जाद लोन के दो और एक निर्दलीय को मिलाकर भाजपा 28 के आंकड़े तक पहुंच रही थी। भाजपा की आस पीडीपी के विभाजन पर टिकी थी। दूसरी ओर पीडीपी के 28, कांग्रेस के 12 और नेकां के 15 विधायक थे। तीन निर्दलीय भी इसी महागठबंधन के करीब थे। इस तरह आकंड़ा आसानी से 58 तक पहुंच रहा था।
 
याद रहे पहली बार वर्ष 2014 के विधानसभा में भाजपा को 25 सीटें मिली थीं। उसकी सहयोगी पीपुल्स कांफ्रेंस को दो सीटें मिलीं। भाजपा का पूरा जनाधार सिर्फ जम्मू में ही है। कांग्रेस ने कभी भी कश्मीर केंद्रित सियासत का विरोध नहीं किया था। इसके अलावा कश्मीर में नेकां के विकल्प के तौर पर उभर कर सामने आई पीडीपी ने 28 सीटें प्राप्त कीं। नेकां और कांग्रेस की सियासत के खिलाफ यह जनादेश था। बेशक पीडीपी और भाजपा के राजनीतिक एजेंडे परस्पर विरोधी थे, लेकिन प्रयोग के तौर पर दोनों के बीच एजेंडा ऑफ एलांयस के आधार पर पहली मार्च 2015 में सरकार बनाई गयी। हालांकि चुनाव परिणाम 28 दिसंबर 2014 को घोषित हो चुके थे।
 
खैर, सरकार बनी और इसे दो ध्रुवों का मेल कहा गया जो 7 जनवरी 2016 को तत्कालीन मुख्यमंत्री मुफ्ती सईद के निधन के बाद भंग हो गया। लेकिन 4 अप्रैल को फिर भाजपा-पीडीपी में समझौते के बाद महबूबा मुफ्ती ने गठबंधन सरकार संभाली। महबूबा की नीतियां पूरी तरह कश्मीर केंद्रित होने लगीं और राज्य में हालात सामान्य बनाए रखने की मजबूरी में भाजपा उसके पीछे चलती नजर आ रही थी। कश्मीरी पंडितों की वापसी, सैनिक कालोनी का निर्माण, पत्थरबाजों की माफी, बुरहान वानी की मौत के बाद वादी में पैदा हालात और उसके बाद रमजान सीज फायर। हरेक जगह महबूबा मुफ्ती नाकाम नजर आईं। खुद उनकी पार्टी पीडीपी में लोग उनकी नीतियों से नाखुश थे जो इसी साल जून में भाजपा गठबंधन सरकार के भंग होने के साथ खुलकर सामने आए। रही सही कसर धारा 35-ए और धारा 370 पर अदालत में जारी विवाद को लेकर कश्मीर में शुरु हुई सियासत ने पूरी कर दी। निकाय व पंचायत चुनावों से दोनों दलों की दूरियां बढ़ गईं।
 
इसी बीच, राज्य में तीसरे मोर्चे के गठन की प्रक्रिया शुरु हुई। ऐसे में पीडीपी एकदम सरकार बनाने के लिए सक्रिय हुई। उसने नेकां और कांग्रेस को साथ मिलाकर सरकार बनाने के लिए राजी भी कर लिया। हालांकि खुद गुलाम नबी आजाद ने कहा कि कांग्रेस ने कोई समर्थन नहीं दिया है। अगर यह दल मिलकर सरकार बनाते तो जम्मू संभाग में एक वर्ग विशेष ही नहीं लद्दाख में भी बहुत से लोग उपेक्षित रहते। ऐसे में आशंका थी कि अलगाववादी ताकतें मुनाफे में रहतीं।
 
-सुरेश डुग्गर

 

विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने ऐलान किया है कि वह 2019 का लोकसभा चुनाव नहीं लड़ेंगी। उन्होंने इसका कारण अपनी सेहत को बताया है। दिसंबर 2016 में गुर्दा प्रतिरोपण के बाद उन्हें डॉक्टरों ने धूल से बचने की हिदायत दी है। मध्य प्रदेश के विदिशा संसदीय क्षेत्र से वर्तमान में लोकसभा सांसद सुषमा स्वराज का लोकसभा चुनाव नहीं लड़ने का ऐलान भाजपा के लिए झटका भी है क्योंकि स्वराज जिस भी सीट से चुनाव लड़तीं वहां पार्टी की जीत पक्की ही थी। सुषमा का लोकसभा में नहीं रहना भाजपा को इसलिए भी परेशान करेगा क्योंकि सदन में उसके पास से एक प्रखर वक्ता चला जायेगा हालांकि यदि 2019 में वापस मोदी सरकार बनती है तो सुषमा मंत्री के नाते लोकसभा में बैठ सकती हैं और सरकार का पक्ष रख सकती हैं लेकिन नियमित तौर पर सदन में उनके नहीं रहने से पार्टी अथवा भावी सरकार को कमी खलेगी।
 
भाजपा को लगातार लग रहा है झटका
 
अब तक लोकसभा में भाजपा का मजबूती से पक्ष रखने वाले और विभिन्न दलों के साथ अपने रिश्तों की बदौलत सरकार के लिए कठिन समय पर राह आसान बनाने वाले केंद्रीय मंत्री अनंत कुमार नहीं रहे, लालकृष्ण आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी हालांकि वर्तमान लोकसभा में अधिकांश समय खामोश ही रहे लेकिन अपने अनुभव की बदौलत सरकार को राह दिखाते रहे हैं। इन दोनों को भी अगले चुनावों में भाजपा का टिकट मिलने की संभावना बेहद कम है। अब सुषमा स्वराज ने लोकसभा चुनाव लड़ने से मना कर दिया है तो निश्चित ही संसद के निचले सदन में भाजपा की अनुभव और वक्तृत्व कला में निपुण लोगों की कमी हो जायेगी।
 
भाजपा का समयचक्र
 
अटल बिहारी वाजपेयी के सक्रिय राजनीति से दूर होने के बाद और नितिन गडकरी के दिल्ली आने से पहले तक राष्ट्रीय राजधानी में भाजपा आलाकमान के तौर पर जो लोग प्रभावी माने जाते थे उनमें लालकृष्ण आडवाणी, सुषमा स्वराज, राजनाथ सिंह, अरुण जेटली और अनंत कुमार मुख्य थे। लेकिन समय बदला, नितिन गडकरी भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाये गये तो आडवाणी को छोड़ बाकी सब नेता प्रभावी भूमिका में बने रहे और केंद्र में नरेंद्र मोदी के आने के बाद तो सिर्फ मोदी और अमित शाह भी प्रभावी रह गये। राजनाथ सिंह, अरुण जेटली और सुषमा स्वराज को बड़े-बड़े मंत्रालय तो मिल गये लेकिन जेटली प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के प्रिय बने रहे। समय-समय पर प्रधानमंत्री भी जेटली को अतिरिक्त मंत्रालयों का कार्यभार सौंप कर अन्य मंत्रियों से उनका कद ऊँचा रखते रहे।
 
सुषमा के ऐलान से जेटली की चिंता बढ़ी
 
अब सुषमा स्वराज का यह ऐलान कि मैं लोकसभा चुनाव भले नहीं लडूंगी लेकिन राजनीति में बनी रहूंगी, से साफ है कि वह राज्यसभा के जरिये संसद में आएंगी। सुषमा के इस ऐलान से वित्त मंत्री अरुण जेटली की चिंता बढ़नी स्वाभाविक है क्योंकि सुषमा स्वराज राजनीति में उनसे काफी वरिष्ठ हैं और ऐसे में राज्यसभा में सदन के नेता का पद जेटली के पास बना रहेगा या सुषमा के पास जायेगा, इस पर सभी की निगाहें बनी रहेंगी। आपको बता दें कि जब 1999 में अटल बिहारी वाजपेयी की केंद्र में तीसरी बार सरकार बनी और सुषमा स्वराज उसमें फिर से कैबिनेट मंत्री बनायी गयीं उस वक्त अरुण जेटली ने सरकार में बतौर राज्यमंत्री अपनी संसदीय पारी शुरू की थी।
 
सुषमा से काफी छोटा है जेटली का राजनीतिक कद
 
अरुण जेटली 1999 से राज्यसभा में हैं और एक बार ही लोकसभा का चुनाव लड़े हैं। वर्ष 2014 के लोकसभा चुनावों में उन्होंने अमृतसर से कैप्टन अमरिंदर सिंह के सामने चुनाव लड़ा था और भारी मतों के अंतर से चुनाव हार गये थे जबकि सुषमा स्वराज अब तक एक ही बार लोकसभा चुनाव हारी हैं और वह भी तब जब 1999 में भाजपा ने कर्नाटक के बेल्लारी से चुनाव लड़ रहीं तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के खिलाफ उन्हें अपना उम्मीदवार बनाया था। तब बेल्लारी में सुषमा स्वराज ने सोनिया गांधी को कड़ी टक्कर दी थी। जेटली वाजपेयी सरकार में बतौर राज्यमंत्री, राज्यमंत्री (स्वतंत्र प्रभार) और फिर कैबिनेट मंत्री के रूप में काम कर चुके हैं। साथ ही वह भाजपा के राष्ट्रीय महासचिव भी रह चुके हैं। 
सुषमा स्वराज का राजनीतिक सफर
 
सुषमा स्वराज की बात करें तो निश्चित ही वह हिन्दी की प्रखर वक्ता हैं और एक सांसद एवं मंत्री के रूप में उन्होंने संसद एवं विदेश मंत्री के रूप में संयुक्त राष्ट्र महासभा में प्रभावी भाषण हिन्दी में दिए हैं। वह अंग्रेजी में उसी सहजता के साथ भाषण देती हैं किंतु वह प्राय: हिन्दी में ही बोलना पसंद करती हैं। सुषमा स्वराज के नाम देश में सबसे युवा कैबिनेट मंत्री बनने का भी रिकार्ड है। वह हरियाणा सरकार में 1977 में महज 25 वर्ष की आयु में कैबिनेट मंत्री बनी थीं। उन्हें दिल्ली की पहली महिला मुख्यमंत्री बनने का गौरव भी हासिल है। स्वराज भारत की पहली महिला विदेश मंत्री थीं। इससे पहले इन्दिरा गांधी ने प्रधानमंत्री रहते हुए यह दायित्व निभाया था। स्वराज तीन बार राज्यसभा सदस्य और अपने गृह राज्य हरियाणा की विधानसभा में दो बार सदस्य रह चुकी हैं। अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली सरकार में उन्होंने सूचना प्रसारण मंत्रालय, स्वास्थ्य मंत्रालय, संसदीय कार्य मंत्री सहित विभिन्न मंत्रालयों की जिम्मेदारी कैबिनेट मंत्री के रूप में संभाली थी। सुषमा पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की भी करीबी रहीं थीं और भाजपा के वरिष्ठ नेता एवं पूर्व उप प्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी के भी वह काफी करीब थीं हालांकि आडवाणी के साथ जिन्ना विवाद जुड़ने के बाद वह उनसे कुछ अलग दिखने लगी थीं। 2009 में जब आडवाणी भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार थे और पार्टी की चुनावों में बुरी हार हुई थी तब आरएसएस ने आडवाणी को विपक्ष का नेता नहीं बनने दिया था और निचले सदन में पार्टी की कमान सुषमा स्वराज के हाथों सौंप दी थी।
 
बहरहाल, सुषमा स्वराज जोकि विदेश मंत्री के तौर पर भारत की प्रतिष्ठा बढ़ाने में, विदेशियों को भारत के करीब लाने में, भारतवंशियों को भारत भूमि के साथ जोड़ने में और ट्वीटर पर एक माँ की तरह सभी की समस्याओं को तत्काल सुलझाने में लगी रहती हैं, जल्द पूर्ण रूप से स्वस्थ हों और वापस आम जनता की प्रतिनिधि बनकर लोकसभा पहुँचे।
 
-नीरज कुमार दुबे
लोकतंत्र के चार स्तंभों में से एक न्यायपालिका काफी दबाव में है। अदालतों में मुकदमों का अंबार लगा हुआ है। देश के सर्वोच्च न्यायालय से लेकर विभिन्न अदालतों में मुकदमों का बोझ इस कदर हावी है कि न्याय की रफ्तार धीमी से धीमी होती जा रही है। अदालतों पर बढ़ते बोझ की समस्या की तस्वीर आंकड़ों के साथ पेश की जाए तो आम आदमी न्याय की आस ही छोड़ बैठेगा। आंकड़ों के हवालों से बात की जाए तो देश के विभिन्न अदालतों में अभी जितने मुकदमे लंबित हैं, सिर्फ उनकी ही ढंग से सुनवाई की जाए, तो उनका निपटारा होने में लगभग 25 सालों का समय लगेगा। आसानी से समझा जा सकता है कि अगले 25 सालों में अदालतों में और कितने नए मुकदमे आएंगे। इस तरह से जो लंबित मुकदमे हैं, उन्हें निपटाने में 25 वर्ष की जगह और भी लंबा समय लग सकता है। साफ है कि एक ओर तो न्यायपालिका पर मुकदमों का बोझ लदा है, दूसरी ओर उसके जरूरत भर न्यायाधीश भी नहीं हैं। देश की न्याय प्रक्रिया को यदि दुरुस्त करना है तो एक साथ दो मोर्चों पर काम करने की जरूरत है।
 
देश की सर्वोच्च अदालत में करीब 54,013 मुकदमे लंबित हैं। वहीं 3.32 करोड़ मामले देश की निचली अदालतों और उच्च न्यायालयों में लंबित हैं। इसमें 2.85 करोड़ भी ज्यादा मुकदमे निचली अदालतों में हैं जबकि उच्च न्यायालयों में 47.64 लाख से अधिक निपटारे की बाट जोह रहे हैं। सर्वाधिक मामले उत्तर प्रदेश में लंबित हैं जिनमें निचली अदालतों में 68,51,292 हैं और इलाहाबाद हाईकोर्ट में 7,20,440 मुकदमे लटके हैं। हालांकि हाईकोर्ट में लंबित मामलों की फेरहिस्त में राजस्थान हाईकोर्ट ने इलाहाबाद को भी पछाड़ रखा हैं जहां 7,28,030 मुकदमे हैं। दुनिया के किसी दूसरे मुल्क में इतनी तादाद में मुकदमे लंबित नहीं हैं।
 
देश की विभिन्न अदालतों में लंबित लगभग सवा तीन करोड़ मुकदमों में 57 फीसदी मुकदमे फौजदारी मामलों के हैं, जबकि दीवानी व अन्य मामले की संख्या लगभग 43 फीसदी है। इसमें हैरान करने वाली जो बात है, वह यह कि सवा तीन करोड़ से ज्यादा मुकदमों में 46 फीसदी यानी करीब एक करोड़ सैंतालीस लाख मुकदमे तो विभिन्न सरकारों की वजह से हैं। केंद्र और राज्य की सरकारों ने इतनी याचिकाएं दाखिल की हुई हैं कि अदालत की बड़ी ताकत उन याचिकाओं के निपटारे में ही खराब हो रही है। यदि सरकार छोटे-छोटे मसलों पर मुकदमा दायर करना बंद कर दे, तो सिर्फ इतना से ही न्यायपालिका के बोझ में काफी कमी आ सकती है।
 
देशभर के 24 उच्च न्यायालयों में 10 साल से ज्यादा पुराने 21.61 फीसदी मामले हैं जबकि पांच साल से ज्यादा समय से 22.31 फीसदी मुकदमे लटके हुए हैं। निचली अदालतों में यह आंकड़ा बहुत कम है, जहां 10 साल से पुराने महज 8.30 फीसदी हैं और 5 साल से ज्यादा समय के 16.12 फीसदी मामले लंबित हैं। पिछले माह उच्च न्यायालयों ने दस साल से ज्यादा पुराने दशमलव 15 फीसदी मामले निपटाए हैं। हालांकि निचली अदालतों का प्रदर्शन पुराने मुकदमों के निपटारे में बेहतर है, जहां कुल मामलों में 46.89 फीसदी दो साल से कम समय के हैं और दो साल से अधिक पर पांच साल से कम समय के 28.69 फीसदी मुकदमे लंबित हैं। पांच साल अधिक पुराने 16.12 फीसदी मामले हैं जबकि दस साल से ज्यादा समय से 8.30 फीसदी मामले हैं। देश की विभिन्न अदालतों द्वारा इन सभी मामलों का जल्द निपटारा करना पहाड़ को हिलाने जैसी चुनौती का सामना करने से कम नहीं है। 
 
भारत में न्यायपालिका के सामने मुकदमों का बोझ कोई नई समस्या नहीं है। आजादी के बाद से ही अदालतों और जजों की संख्या आबादी के बढ़ते अनुपात के मुताबिक कभी भी कदमताल नहीं कर पाई। इस वजह से न्याय के नैसर्गिक सिद्धांत के मुताबिक न्यायपालिका में भी मांग और आपूर्ति के बीच संतुलन कायम नहीं हो सका। विधि आयोग ने 1987 में कहा था कि दस लाख लोगों पर कम से कम पचास न्यायाधीश होने चाहिए लेकिन आज भी दस लाख लोगों पर न्यायाधीशों की संख्या पंद्रह से बीस के आस-पास है। न्यायाधीशों के रिक्त पड़े पदों की करें तो सर्वोच्च न्यायालय में न्यायाधीशों के कुल 31 स्वीकृत पदों में से 3 पद रिक्त हैं। एक अनुमान के अनुसार इस समय अधीनस्थ अदालतों में न्यायाधीशों के 5,400 से अधिक पद रिक्त हैं जबकि देश के 24 उच्च न्यायालयों में 1221 स्वीकृत पदों में 330 पद खाली हैं। कुल 891 न्यायाधीश अपनी सेवाएं उच्च न्यायालयों में दे रहे हैं। इस समय 4180 पदों पर नियुक्तियों की प्रक्रिया विभिन्न चरणों में है। निचली अदालतों में न्यायाधीशों के रिक्त पदों के मामले में उत्तर प्रदेश सबसे आगे है जहां करीब 1360 पद रिक्त हैं जबकि मध्य प्रदेश में रिक्त पदों की संख्या 706 और बिहार में 684 है। गुजरात और दिल्ली में भी न्यायाधीशों के 380 और 281 पद रिक्त हैं। बीते अक्टूबर मध्य तक निचली अदालतों में न्यायिक अधिकारियों के स्वीकृत 22,036 पदों में 5,133 पद खाली थे। इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने नाराजगी भी जताई थी जिसके बाद से राज्यों में न्यायिक अधिकारियों की भर्ती की प्रक्रिया जारी है। इस समस्या के प्रति केन्द्र सरकार भी चिंतित है और निचली अदालतों में न्यायाधीशों के पदों पर भर्ती के लिये अखिल भारतीय स्तर पर परीक्षा आयोजित करने पर वह भी विचार कर रही थी। पिछले साल अप्रैल में केन्द्र सरकार ने न्यायाधीशों के चयन हेतु उच्चतम न्यायालय से एक केन्द्रीयकृत व्यवस्था तैयार करने का भी अनुरोध किया था। 
 
विशेषज्ञों के अनुसार अदालतों में मुकदमों के निपटारे में देरी और मुकदमों की संख्या में लगातार इजाफा होने का जिम्मेदार किसी एक को ठहराना गलत है। अगर, सही ढंग से कहा जाए तो किसी भी मामले में देरी का कारण शुरू से लेकर अंत तक सभी होते हैं। मसलन कभी पुलिस चार्जशीट दाखिल करने में देरी करती है तो कभी गवाहों तक समन नहीं पहुंचते, कभी जज का तबादला हो जाता है तो कभी बचाव पक्ष के वकील के पास समय की कमी के कारण केस की तारीख आगे बढ़ा दी जाती है और कभी जज के पास मुकदमों की अधिक संख्या होने के कारण मामलों को अगली तारीख पर टाल दिया जाता है। ऐसे में न्याय की रफ्तार में तेजी लाना पहाड़ को हिलाने जैसी चुनौती से कम नहीं है। पूरा सिस्टम सुधारने पर ही न्याय प्रक्रिया में तेजी आना संभव है। समय के साथ व्यवस्था के तीनों प्रमुख स्तंभों के बीच बढ़ते टकराव ने इस समस्या को और गंभीर बना दिया। 
 
सवाल यह भी है कि देश की अदालतें मुकदमों के बोझ तले भला दबी क्यों हैं ? असल में तमाम विसंगतियों के बाद भी न्यायालयीन प्रक्रिया के प्रति आम लोगों का बढ़ता विश्वास कुछ इस वजह से भी है कि आम लोगों में विश्वास बहाली के लिये जो कार्य कार्यपालिका को करना चाहिये था, न्यायालय को करना पड़ा है। पिछले कुछ वर्षों में नेताओं की स्वेच्छाचारिता और गुंडों से उनकी सांठ-गांठ पर चुनाव आयोग और न्यायालय ने मिलकर लगाम कसने की जो सार्थक कोशिश की है, उससे भी आम लोगों का उस पर भरोसा बढ़ा है। 
 
वास्तव में भारतीय न्यायपालिका के पास संसाधन पर्याप्त नहीं हैं। केंद्र और राज्य दोनों सरकारें न्यायपालिका के संबंध में खर्च बढ़ाने में रुचि नहीं रखते हैं। वहीं पूरे न्यायपालिका के लिए बजटीय आवंटन पूरे बजट का एक महज 0.1 फीसदी से 0.4 फीसदी है। जो बेहत निराशाजनक है। देश में अधिक अदालतों और अधिक बेंच की जरूरत है। आजादी के कई दशक बीत जाने के बाद भी आधुनिकीकरण और कम्प्यूटरीकरण सभी अदालतों तक नहीं पहुंच पाया है। निचली अदालतों में न्यायिक गुणवत्ता किसी से छिपी नहीं है। वहीं भारतीय न्यायिक व्यवस्था बेहतरीन दिमागों और प्रतिभाशाली छात्रों को आकर्षित करने में बुरी तरह विफल रही है। चूंकि निचली अदालतों में न्यायाधीशों के फैसले से संतुष्ट नहीं होने पर लोग उच्च न्यायालयों में फैसलों के खिलाफ अपील दायर करते हैं, जिससे फिर मुकदमों की संख्या बढ़ जाती है।
 
सरकार को अपनी तरफ से ऐसे सभी मामलों को वापस ले लेना चाहिये जिनका बहुत अधिक महत्व नहीं है। इसके साथ ही न्यायाधीशों के रिक्त पदों को भरने के साथ तथा उनकी संख्या कम से कम दस गुणा अधिक कर देनी चाहिये। वहीं पुराने और अप्रासंगिक हो चुके कानूनों में संशोधन, अदालतों को अत्याधुनिक तकनीकी से लैस करने और सरक्षित न्यायिक परिसर बनाने पर गौर करना होगा। न्यायपालिका में व्याप्त खामियों की वजह से ही कई समस्याएं पैदा हुई हैं। न्यायापालिका को देश की बाकी संस्थाओं से कतई अल नहीं मानना चाहिए। जो दिक्कतें हमारे समाज में मौजूद हैं, कमोबेश वहीं न्यायपालिका में भी हैं। अमेरिकी विचारक अलेक्जेंडर हैमिल्टन ने कहा था, ‘न्यायापालिका राज्य का सबसे कमजोर तंत्र होता है, क्योंकि उसके पास न तो धन होता है और न ही हथियार। धन के लिए न्यायपालिका को सरकार पर आश्रित रहना होता है और अपने दिए फैसलों को लागू कराने के लिए उसे कार्यपालिका पर निर्भर रहना होता है।’ न्यायिक प्रक्रिया में आमूल सुधार के जरिए अदालतों का बोझ भी हल्का हो सकता है और लोगों को न्याय मिलने में देरी को रोका जा सकता है। न्यायपालिका में लोगों के विश्वास को बहाल करने के लिए यह बहुत ही जरूरी है।
 
-आशीष वशिष्ठ
जिस तरह राम मंदिर मुद्दे को लेकर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, हिंदूवादी संगठन और भाजपा हवा बनाने में जुटे हैं उससे ऐसा आभास हो रहा है कि क्या मोदी सरकार जल्द ही राम मंदिर पर अध्यादेश लाने वाली है? ऊपरी तौर पर तो मामला कुछ ऐसा ही दिखाई देता है लेकिन असलियत कुछ और है। असल में आरएसएस, भगवा ब्रिगेड और भाजपा राम मंदिर मुद्दे के ‘करंट’ को मापने के साथ जनमानस का दिल टटोल रहे हैं। हिंदूवादी संगठनों ने भाजपा को पर्याप्त मात्रा में राजनीतिक प्राणवायु प्रदान की है और इससे उत्साहित भगवा टोली नये सिरे से अयोध्या विवाद को गरमाने में जुट गयी है। चूंकि मामला सुप्रीम कोर्ट में लंबित है, ऐसे में मोदी सरकार इस मसले पर अध्यादेश लाने से कुछ ज्यादा करने की स्थिति में नहीं है। राजनीतिक गलियारों से जो हवाएं छनकर आ रही हैं वो यह संदेश दे रही हैं कि मोदी सरकार संसद के शीतकालीन सत्र में राम मंदिर पर अध्यादेश लाएगी। राम मंदिर अध्यादेश की खबर ऊपरी हवा है। अंदरखाने भगवा टोली पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव नतीजों पर नजरें गड़ाए है और पांच राज्यों के चुनाव नतीजे ही राम मंदिर निर्माण का भविष्य तय करेंगे।
 
आरएसएस और हिंदूवादी संगठनों ने सुप्रीम कोर्ट में अयोध्या विवाद की सुनवाई की तारीख से पूर्व ही मोदी सरकार पर राम मंदिर के लिये अध्यादेश लाने का दबाव बनाना शुरू कर दिया था। संघ प्रमुख ने चेतावनी भरे लहजे में सरकार को इस बाबत कोई ठोस कदम उठाने का फरमान सुनाया है। संघ, हिन्दूवादी संगठनों और जनमानस से मिल रही प्रतिक्रियाओं के बीच मोदी सरकार के सामने राम मंदिर का मुद्दा सुरसा के मुंह की भांति खड़ा हो गया है। यह बात सच है कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने मोदी सरकार की मुश्किल बढ़ा दी है, लेकिन एक सच यह भी है कि इस फैसले से बीजेपी को नया चुनावी मुद्दा भी मिल सकता है। यदि विकास के नाम पर भाजपा के पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में जीत मिलती है तो संभव है कि मोदी सरकार राम मंदिर निर्माण पर अध्यादेश के बारे में विचार भी न करे, लेकिन कहीं अगर उसके हाथ हार लगी तो हिंदुत्व की शरण में जाने के सिवाय बीजेपी के पास दूसरा कोई विकल्प नहीं रह जाएगा। 
 
राम मंदिर की सियासत के उबाल के बीच मोदी सरकार संसद के शीतकालीन सत्र में बिल पेश किए जाने या सत्र के बाद अध्यादेश का सहारा लेने के सियासी नफा नुकसान तौलने में पूरी तरह जुट गई है। सरकार, भाजपा और संघ का एक बड़ा धड़ा शीतकालीन सत्र में बिल पेश कर कांग्रेस समेत तमाम विपक्ष को सियासी पिच पर बैकफुट पर धकेलने के पक्ष में है। 11 दिसंबर को पांच राज्यों के चुनाव नतीजे देश के सामने होंगे। इसके बाद पूरे घटनाक्रम में नाटकीय मोड़ आ सकता है। दिसंबर के दूसरे स्पताह में संसद का शीतकालीन सत्र शुरू होगा। रणनीति के तहत मंदिर निर्माण मामले में सरकार फ्रंट फुट पर खेलने के लिए तैयार है। फिलहाल दो विकल्पों- अध्यादेश लाने या बिल पेश किए जाने के प्रश्न पर सरकार, भाजपा, संघ और संतों के बीच गहन विमर्श का दौर जारी है। यदि बीजेपी 2019 लोकसभा चुनाव राम नाम पर लड़ने का मन बनाती है तो उसके पास दो विकल्प होंगे, पहला- अध्यादेश और दूसरा शीतकालीन सत्र में विधेयक लाने का। जानकारों की माने तों अगर पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव के नतीजे भाजपा के पक्ष में नहीं आए तो राम मंदिर मामले में सरकार दो टूक निर्णय लेगी।
 
पिछले दिनों दिल्ली के तालकटोरा स्टेडियम में आयोजित धर्मादेश कार्यक्रम में देशभर से आए साधु-संतों ने राम मंदिर निर्माण के लिए प्रस्ताव पास किया है। इस मौके पर संत समाज ने कहा कि अब राम मंदिर के निर्माण को लेकर किसी प्रकार का समझौता नहीं होगा, इसके लिए सरकार जल्द से जल्द अध्यादेश लेकर आए या फिर कानून बनाए। धर्मादश में स्वामी रामभद्राचार्य ने कहा कि, अगर सरकार 2019 चुनाव से पहले राम मंदिर बनवाने में नाकाम रहती है तो भगवान उन्हें सजा देगा।  राममंदिर निर्माण को लेकर मोदी सरकार चैतरफा दबाव में है। लेकिन इस दबाव ने राफेल के मुद्दे की आवाज दबाने के साथ भाजपा को विरोधियों पर मनोवैज्ञानिक बढ़त बनाने का मौका दिया है। राम मंदिर के लिए हिलोरे लेते लहरों के बीच भाजपा अपने सियासी नफे-नुकसान का गणित समझने में जुटी है। भाजपा के शीर्ष नेतृत्व की तरफ से पार्टी के मुख्यमंत्रियों, केंद्रीय मंत्रियों और प्रवक्ताओं से कहा गया है कि मंदिर बनने वाला है इस तरह का माहौल बनाया जाए। और ऐसी बयानबाजी की जाए कि कि सिर्फ नरेंद्र मोदी ही राम मंदिर जैसे मुश्किल मुद्दे पर फैसला कर सकते हैं। इसके बाद अगर विधानसभा चुनाव में पार्टी हारी तो सुनी-सुनाई है कि राम मंदिर के नाम पर अध्यादेश आना लगभग तय है।
 
मोदी सरकार अध्यादेश लाई तो क्या होगा ? सरकार, संघ और भाजपा का एक बड़ा धड़ा शीत सत्र में राम मंदिर निर्माण के लिए बिल पेश करने का पक्षधर है। रणनीतिकारों का मानना है कि बिल से कांग्रेस समेत तमाम विपक्ष की परेशानी बढ़ेगी। बिल के विरोध की स्थिति में लोकसभा चुनाव से ठीक पहले कांग्रेस के नरम हिंदुत्व की हवा निकल जाएगी। हालांकि सरकार के लिए मुश्किल सहयोगियों को मनाना होगा। सवाल है कि क्या इसके लिए लोजपा, अपना दल, रालोसपा जैसे सहयोगी दल सरकार का साथ देंगे ? मंदिर निर्माण के लिए सरकार के पास अध्यादेश भी एक विकल्प है। एक धड़ा किसी की परवाह किए बिना सत्र के तत्काल बाद अध्यादेश लाने के पक्ष में है। शीतकालीन सत्र में भाजपा के राज्यसभा सांसद राकेश सिन्हा राम मंदिर पर प्राइवेट मेंबर बिल लेकर आने वाले हैं। जानकारों के मुताबिक अध्यादेश की तुलना में सदन के पटल पर विधेयक लाना बीजेपी के लिए ज्यादा मुफीद होगा। हालांकि, लोकसभा में तो बीजेपी इसे पास करा सकती है, लेकिन राज्यसभा में इसकी राह आसान नहीं। ऐसे में कानून न बन पाने का ठीकरा बीजेपी विपक्ष पर फोड़कर कांग्रेस के वोट बैंक में सेंध लगा सकती है। बीजेपी भले ही मंदिर निर्माण में सफल न हो, लेकिन वह कांग्रेस को हिंदू विरोधी साबित करने का पूरा प्रयास करेगी। 
 
संघ और भगवा टोली के पास जो फीडबैक है उसके मुताबिक मोदी सरकार की योजनाओं के बलबूते लोकसभा चुनाव में एनडीए का बहुमत पाना उन्हें दूर की कौड़ी मालूम पड़ रही है। संघ ने भाजपा को यह फीडबैक दिया है कि हर बीतते दिन के साथ केंद्र सरकार के प्रति शिकायतें बढ़ रही हैं और कांग्रेस कोई न कोई ऐसा मुद्दा उठाने में कामयाब हो रही है जिसकी चर्चा गांव के चौपाल से लेकर शहर के चौराहे तक हो रही है। वहीं कांग्रेस भी सोशल मीडिया के मंच पर भाजपा को पूरी तरह टक्कर देने लगी है। भाजपा के तमाम नेता और सांसद इस चिंता में घुले जा रहे हैं कि वे अगला चुनाव किस मुद्दे पर लड़ेंगे, मोदी सरकार की किस बात पर वोट मांगेंगे। जन-धन योजना, प्रधानमंत्री आवास, उज्जवला योजना, जन औषधि योजना या प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना आदि का बखान कर वोट नहीं मिलने वाले हैं। ये योजनाएं चुनाव नहीं जिता सकती हैं। इसलिए एक ऐसा सॉलिड ब्रह्मास्त्र चाहिए जिसे लेकर भाजपा के उम्मीदवार गांव-गांव जाएं और प्रचारित करें कि यह काम सिर्फ मोदी ही कर सकता है। ऐस में राम मंदिर से ज्यादा मुफीद और क्या हो सकता है। 
 
अब ये तय हो गया है कि सुप्रीम कोर्ट की तरफ से 2019 चुनाव से पहले राम मंदिर पर फैसला नहीं आने वाला है। 2014 लोकसभा चुनाव के बीजेपी के घोषणा पत्र में राम मंदिर निर्माण का मुद्दा काफी नीचे था, लेकिन जिस तरह से घटनाक्रम चल रहा है, उससे इस बात की पूरी संभावना बन रही है कि 2019 लोकसभा चुनाव में राम मंदिर निर्माण का मुद्दा सबसे ऊपर होगा। अब तक भाजपा पर इल्जाम लगता था, राम लला हम आएंगे, मंदिर वहीं बनाएंगे, तारीख नहीं बताएंगे। लेकिन इस बार भाजपा बदले तेवरों और नये नारे के साथ खड़ी दिख सकती है- राम लला हम आएंगे। तारीख नहीं बताएंगे, सीधे मंदिर बनाएंगे। फिलवक्त राम मंदिर का भविष्य पांच राज्यों के जनादेश पर टिका है। 
 
-डॉ. आशीष वसिष्ठ
केन्द्रीय मंत्री अनंत कुमार का अचानक अनन्त की यात्रा पर प्रस्थान करना न केवल भाजपा बल्कि भारतीय राजनीति के लिए दुखद एवं गहरा आघात है। उनका असमय देह से विदेह हो जाना सभी के लिए संसार की क्षणभंगुरता, नश्वरता, अनित्यता, अशाश्वता का बोधपाठ है। वे कुछ समय से कैंसर से पीड़ित थे। 12 नवम्बर 2018 को रात 2 बजे अचानक उनकी स्थिति बिगड़ी और उन्हें बचाया नहीं जा सका। उनका निधन एक युग की समाप्ति है। भाजपा के लिये एक बड़ा आघात है, अपूरणीय क्षति है। आज भाजपा जिस मुकाम पर है, उसे इस मुकाम पर पहुंचाने में जिन लोगों का योगदान है, उनमें अनंत कुमार अग्रणी हैं।
 
अनंत कुमार भारतीय राजनीति के जुझारू एवं जीवट वाले नेता, सामाजिक कार्यकर्ता, व्यापारी और एक सफल उद्योगपति थे। वे 11वीं, 12वीं, 13वीं और 14वीं लोकसभा चुनाव में लगातार चार बार लोकसभा चुनावों के लिए चुने गए। वे कर्नाटक में राम-जन्मभूमि के लिए अपनी आवाज उठाने और उसके हक में लड़ने वाले विशिष्ट नेताओं में से एक थे। वे भाजपा संगठन के लिए एक धरोहर थे। वर्ष 1998 में, अनंत कुमार को अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाले मंत्रिमंडल में नागरिक उड्यन मंत्री के रूप में शामिल किया गया था। उस मंत्रिमंडल में सबसे कम उम्र के मंत्री बने अनंत कुमार ने कुशलतापूर्वक पर्यटन, खेल, युवा मामलों और संस्कृति, शहरी विकास एवं गरीबी उन्मूलन जैसे कई मंत्रालयों को संभाला। उन्होंने अपने कार्यकाल के दौरान कई नए अभिनव दृष्टिकोण, राजनैतिक सोच और कई योजनाओं की शुरुआत की तथा विभिन्न विकास परियोजनाओं के माध्यम से लाखों लोगों के जीवन में सुधार किया और उनमें जीवन में आशा का संचार किया। वर्तमान में वे नरेन्द्र मोदी सरकार में एक सशक्त एवं कद्दावर मंत्री थे। भाजपा में वे मूल्यों की राजनीति करने वाले नेता, कुशल प्रशासक और योजनाकार थे।
 
अनंत कुमार का निधन एक युवा सोच की राजनीति का अंत है। वे सिद्धांतों एवं आदर्शों पर जीने वाले व्यक्तियों की श्रृंखला के प्रतीक थे। उनके निधन को राजनैतिक जीवन में शुद्धता की, मूल्यों की, राजनीति की, आदर्श के सामने राजसत्ता को छोटा गिनने की या सिद्धांतों पर अडिग रहकर न झुकने, न समझौता करने की समाप्ति समझा जा सकता है। हो सकता है ऐसे कई व्यक्ति अभी भी विभिन्न क्षेत्रों में कार्य कर रहे हों। पर ऐसे व्यक्ति जब भी रोशनी में आते हैं तो जगजाहिर है- शोर उठता है। अनंत कुमार ने तीन दशक तक सक्रिय राजनीति की, अनेक पदों पर रहे, पर वे सदा दूसरों से भिन्न रहे। घाल-मेल से दूर। भ्रष्ट राजनीति में बेदाग। विचारों में निडर। टूटते मूल्यों में अडिग। घेरे तोड़कर निकलती भीड़ में मर्यादित। उनके जीवन से जुड़ी विधायक धारणा और यथार्थपरक सोच ऐसे शक्तिशाली हथियार थे जिसका वार कभी खाली नहीं गया।
 
22 जुलाई, 1959 को बेंगलुरु में एच.एन. नारायण शास्त्री और गिरिजा शास्त्री के घर जन्मे अनंत कुमार ने कर्नाटक विश्वविद्यालय से जुड़े केएस आर्ट्स कॉलेज, हुबली से कला संकाय (बीए) में स्नातक की उपाधि प्राप्त की और बाद में कर्नाटक विश्वविद्यालय से संबद्ध लॉ कॉलेज जेएसएस से स्नातक कानून (एलएलबी) की पढ़ाई पूरी की। उन्होंने 15 फरवरी 1989 में श्रीमती तेजस्विनी से शादी की और इनकी दो बेटियाँ हैं। उन्होंने भाजपा को कर्नाटक और खासतौर पर बेंगलुरु और आस-पास के क्षेत्रों में मजबूत करने के लिए कठोर परिश्रम किया। वह अपने क्षेत्र की जनता के लिए हमेशा सुलभ रहते थे। वे युवावस्था में ही सार्वजनिक जीवन में आये और काफी लगन और सेवा भाव से समाज की सेवा की। भारतीय राजनीति की वास्तविकता है कि इसमें आने वाले लोग घुमावदार रास्ते से लोगों के जीवन में आते हैं वरना आसान रास्ता है- दिल तक पहुंचने का। हां, पर उस रास्ते पर नंगे पांव चलना पड़ता है। अनंत कुमार इसी तरह नंगे पांव चलने वाले एवं लोगों के दिलों पर राज करने वाले राजनेता थे, उनके दिलो-दिमाग में कर्नाटक एवं वहां की जनता हर समय बसी रहती थी। काश ! सत्ता के मद, करप्शन के कद, व अहंकार के जद्द में जकड़े-अकड़े रहने वाले राजनेता उनसे एवं उनके निधन से बोधपाठ लें। निराशा, अकर्मण्यता, असफलता और उदासीनता के अंधकार को उन्होंने अपने आत्मविश्वास और जीवन के आशा भरे दीपों से पराजित किया।
 
अनंत कुमार राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से प्रभावित होने के कारण, अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के सदस्य बने। वर्ष 1975-77 के दौरान, ये भारत में आपातकाल नियमों के विरुद्ध जे.पी. आंदोलन में भाग लेने के कारण लगभग 40 दिनों तक जेल में रहे थे। उन्हें एबीवीपी के राज्य सचिव के रूप में निर्वाचित किया गया और बाद में 1985 में उन्हें राष्ट्रीय सचिव बनाया गया। बाद में वे भाजपा में शामिल हो गए और उन्हें भारतीय जनता युवा मोर्चा के राज्य अध्यक्ष के रूप में नामित किया गया। उसके बाद 1996 में वे पार्टी के राष्ट्रीय सचिव बनाये गये। जनवरी 1998 के आम चुनाव से पहले वे एक स्वतंत्र वेबसाइट की मेजबानी करने वाले पहले भारतीय राजनेता बने, वे 2003 में बीजेपी की कर्नाटक राज्य इकाई के अध्यक्ष बने और राज्य इकाई का नेतृत्व किया जो कि विधानसभा में सबसे बड़ी पार्टी बन गयी और 2004 में कर्नाटक में सबसे ज्यादा लोकसभा सीटें जीतीं। 2004 में उन्हें एमपी, बिहार, छत्तीसगढ़ और अन्य राज्यों में पार्टी को मजबूती देने में योगदान देने के लिये भाजपा का राष्ट्रीय महासचिव नियुक्त किए गया।
 
अनंत कुमार भाजपा के एक रत्न थे। संस्कृत साहित्य में एक प्रश्न आता है- रत्नों का ज्ञान और उनकी परख किसे होती है ? उत्तर दिया गया- इसका पता शास्त्र से नहीं होगा। शास्त्र में तो लक्षण बताए गए कि ऐसा हो तो समझा जाए कि हीरा है, पन्ना है या मोती, माणिक है। लेकिन वह सच्चा और खरा हीरा है या खोटा, यह शास्त्र नहीं बताएगा। यह तो बताएगी हमारी दृष्टि और हमारा अभ्यास। इस माने में अनंत कुमार का सम्पूर्ण जीवन अभ्यास की प्रयोगशाला थी। उनके मन में यह बात घर कर गयी थी कि अभ्यास, प्रयोग एवं संवेदना के बिना किसी भी काम में सफलता नहीं मिलेगी। उन्होंने अभ्यास किया, दृष्टि साफ होती गयी और विवेक जाग गया। उन्होंने हमेशा अच्छे मकसद के लिए काम किया, तारीफ पाने के लिए नहीं। खुद को जाहिर करने के लिए जीवन जीया, दूसरों को खुश करने के लिए नहीं। उनके जीवन की कोशिश रही कि लोग उनके होने को महसूस ना करें। बल्कि उन्होंने काम इस तरह किया कि लोग तब याद करें, जब वे उनके बीच में ना हों। इस तरह उन्होंने अपने जीवन को एक नया आयाम दिया और जनता के दिलों पर छाये रहे।
 
अनंत कुमार एक ऐसा आदर्श राजनीतिक व्यक्तित्व हैं जिन्हें सेवा और सुधारवाद का अक्षय कोश कहा जा सकता है। उनका आम व्यक्ति से सीधा संपर्क रहा। यही कारण है कि आपके जीवन की दिशाएं विविध एवं बहुआयामी रही हैं। आपके जीवन की धारा एक दिशा में प्रवाहित नहीं हुई, बल्कि जीवन की विविध दिशाओं का स्पर्श किया। यही कारण है कि कोई भी महत्त्वपूर्ण क्षेत्र आपके जीवन से अछूता रहा हो, संभव नहीं लगता। आपके जीवन की खिड़कियाँ राष्ट्र एवं समाज को नई दृष्टि देने के लिए सदैव खुली रहीं। इन्हीं खुली खिड़कियों से आती ताजी हवा के झोंकों का अहसास भारत की जनता सुदीर्घ काल तक करती रहेगी। 
इस शताब्दी के भारत के ‘राजनीति के महान् सपूतों’ की सूची में कुछ नाम हैं जो अंगुलियों पर गिने जा सकते हैं। अनंत कुमार का नाम प्रथम पंक्ति में होगा। अनंत कुमार को अलविदा नहीं कहा जा सकता, उन्हें खुदा हाफिज़ भी नहीं कहा जा सकता, उन्हें श्रद्धांजलि भी नहीं दी जा सकती। ऐसे व्यक्ति मरते नहीं। वे हमें अनेक मोड़ों पर राजनीति में नैतिकता का संदेश देते रहेंगे कि घाल-मेल से अलग रहकर भी जीवन जिया जा सकता है। निडरता से, शुद्धता से, स्वाभिमान से।
 
-ललित गर्ग
केंद्र सरकार का रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया जैसे संवैधानिक स्वायत्त संस्थान से टकराव से नया नहीं है। इससे पहले केंद्र सरकार करीब आधा दर्जन से अधिक स्वायत्त और संवैधानिक संस्थाओं से टकराव मोल ले चुकी है। केन्द्र में भाजपा गठबंधन सरकार के गठन के बाद से ही टकराव का यह सिलसिला शुरू हो गया। ऐसे संस्थान जो केंद्र सरकार के इशारे पर नहीं चल सके, उन्हें टकराव झेलना पड़ा। ताजा विवाद की इस कड़ी में रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया का नाम जुड़ गया है।
 
केंद्र सरकार रिजर्व बैंक को अपनी आर्थिक नीतियों के हिसाब से चलाना चाहती है, जबकि रिजर्व बैंक का नजरिया आर्थिक नीतियों को लेकर सरकार से जुदा है। केंद्र सरकार के दबाव के कारण ही रिजर्व बैंक प्रबंधन ने स्वर मुखर किया है। इससे दोनों टकराव के रास्ते पर बढ़ रहे हैं। विवाद की वजह है केंद्र सरकार रिजर्व बैंक से तीन लाख करोड़ से ज्यादा रकम उसके रिजर्व पूंजी भंडार से मांग रही है, ताकि बैंकों में पूंजी की गतिशीलता को बढ़ाया जा सके। इससे पहले भी केंद्र सरकार की नीतियों से इत्तफाक नहीं रखने के कारण ही आरबीआई के गर्वनर रघुराम राजन को जाना पड़ा था। राजन ने इसका खुलासा भी किया था कि किस तरह केंद्र सरकार दबाव डाल कर हित साधना चाहती है।
 
राजन ने मौजूदा गर्वनर उर्जित पटेल को किसी भी सूरत में सरकार के दबाव में काम नहीं करने की सलाह दी है। आरबीआई से पहले सीबीआई विवाद सामने आ चुका है। केंद्रीय जांच ब्यूरो को बताया तो स्वायत्त जांच संस्थान जाता है, किन्तु यह केंद्र सरकार के इशारे पर ही चलता है। इसमें सीबीआई के निदेशक आलोक वर्मा और संयुक्त निदेषक राकेश अस्थाना के विवाद में केंद्र सरकार की दखलंदाजी से साबित हो गया कि सीबीआई की स्वायत्तता केवल मात्र दिखावा है। सरकार के नजरिए के विपरीत चलने की कोशिश में टकराव निश्चित है। हालांकि यह मामला अब सुप्रीम कोर्ट के विचाराधीन है। इसमें सरकार ने अपने हित साधने का भरसक प्रयास किया।
 
सुप्रीम कोर्ट जैसी सर्वोच्च न्यायिक संस्था और केंद्र सरकार में जजों की नियुक्तियों को लेकर विवाद जगजाहिर है। सुप्रीम कोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश टीएस ठाकुर ने मुख्यमंत्रियों और उच्च न्यायालयों के मुख्य न्यायाधीशों के संयुक्त सम्मेलन में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के सामने अपनी पीड़ा का इजहार आंसू बहाकर किया था। ठाकुर का कहना था कि जानबूझ कर न्यायिक अधिकारियों के पदों की संख्या नहीं बढ़ाई जा रही है। इससे मुकदमों की संख्या बढ़ती जा रही है।
 
केंद्रीय फिल्म सेंसर बोर्ड भी केंद्र सरकार की वजह से विवादों में रहा। केंद्र सरकार ने पहलाज निहलानी को इसका चेयरमैन नियुक्त किया। निहलानी जबरदस्त विवादों में घिर गए। निहलानी पर अनावश्यक रूप से फिल्मों को पास करने में अड़ंगे लगाए जाने के आरोप लगे। जेम्स बान्ड से लेकर उड़ता पंजाब जैसी फिल्मों में अनावश्यक कट लगाए गये। बोर्ड के कामकाज से खफा होकर फिल्म इंडस्ट्री में व्यापक असंतोष फैल गया। केंद्र सरकार पर बोर्ड के जरिए छिपे हुए एजेंडे के अनुरूप काम करने के आरोप लगे। सरकार की ज्यादा किरकिरी होने पर निहलानी को रूखसत होना पड़ा। गीतकार प्रसून जोशी को बोर्ड का नया चेयरमैन नियुक्त किया गया।
 
सेंसर बोर्ड की तरह ही फिल्म इंस्टीट्यूट ऑफ पुणे में गजेन्द्र सिंह चौहान की नियुक्ति को लेकर कई दिनों तक हंगामा होता रहा। इंस्टीट्यूट में प्रशिक्षण ले रहे छात्र−छात्राएं हड़ताल पर चले गए। कई महीनों तक चले धरने, प्रदर्शन और प्रशिक्षण के बहिष्कार के बाद आखिरकार केंद्र सरकार को चौहान को हटाकर अभिनेता अनुपम खेर को अध्यक्ष नियुक्त करना पड़ा। हालांकि खेर ने अपनी व्यस्तता के चलते हाल ही में इस्तीफा दे दिया है। देखना यह है कि केंद्र सरकार अब किसे इसका अध्यक्ष नियुक्त करती है।
 
सत्ता में आते ही केंद्र सरकार ने योजना आयोग को भंग करके नीति आयोग का गठन किया। ख्यातनाम अर्थशास्त्री अरविंद पनगढ़िया को अमेरिका से लाकर आयोग का उपाध्यक्ष बनाया गया। पनगढ़िया की पटरी केंद्र सरकार से नहीं बैठ सकी। पनगढ़िया ने उपाध्यक्ष पद से इस्तीफा देकर वापस अमेरिका का रास्ता पकड़ लिया। पनगढ़िया ने हाल ही में केंद्र सरकार और रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया के बीच चल रहे विवाद में बीच का रास्ता निकालने की सलाह दी है।
 
केंद्रीय चुनाव आयोग का केंद्र सरकार से अपराधियों के चुनाव लड़ने के मुद्दे पर टकराव हो गया। केंद्र सरकार ने गंभीर आपराधिक आरोपियों के चुनाव पर पाबंदी लगाने के चुनाव आयोग के परामर्श को मानने से इंकार कर दिया। इस पर आयोग ने सुप्रीम कोर्ट से गुहार लगाई कि अपराधियों के चुनाव लड़ने पर रोक लगाई जाए। सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार को इस मामले में कानून बनाने के निर्देश दिए। भाजपा पर केंद्र में सत्तारूढ़ होते ही देश भर में एनजीओं पर छापों की कार्रवाई को लेकर खूब उंगलिया उठीं। केंद्र सरकार पर एनजीओ की स्वायत्तता को दबाने के आरोप लगे। सरकार ने बड़ी संख्या में एनजीओं का रजिस्ट्रेशन निरस्त कर दिया। यह निश्चित है कि जिस तरह केंद्र सरकार का देश की स्वायत्त और संवैधानिक संस्थाओं से टकराव बढ़ रहा है, उससे देश में लोकतंत्र की जड़ें कमजोर होंगी। कहने को भले ही सरकार नियमानुसार देशहित में काम करने की दलील दे, किन्तु सच्चाई यही है कि केंद्र सरकार का अनावश्यक हस्तक्षेप लोकतांत्रिक प्रणाली में रक्त वाहिनियों का काम करने वाले स्वायत्तशाषी संवैधानिक संस्थाओं में अवरोध उत्पन्न कर रहा है।
 
-योगेन्द्र योगी
5 नवंबर को एक दिन की विशेष पूजा के लिए सबरीमाला मंदिर के द्वार कड़े पहरे में खुले। न्यायालय के आदेश के बावजूद किसी महिला ने मंदिर में प्रवेश की कोशिश नहीं की। लेकिन कुछ बुद्धिजीवियों द्वारा सबरीमाला मंदिर में महिलाओं को प्रवेश देने के न्यायालय के आदेश के विरोध को गलत ठहराया जा रहा है। इनका कहना है कि कुछ समय पहले जब ट्रिपल तलाक के खिलाफ न्यायायल का आदेश आया था तब उस सम्प्रदाय के लोग भी मजहबी परंपरा के नाम पर कोर्ट के इस फैसले का विरोध कर रहे थे। लेकिन उस समय जो लोग ट्रिपल तलाक को उस सम्प्रदाय की एक कुप्रथा कहकर न्यायालय के आदेश का समर्थन कर रहे थे, आज जब बात उनकी एक धार्मिक परंपरा को खत्म करने की आई, तो ये लोग अपनी धार्मिक आस्था की दुहाई दे रहे हैं। अपने इस आचरण से ये लोग अपने दोहरे चरित्र का प्रदर्शन कर रहे हैं। ऐसे लोगों के लिए कुछ तथ्य।

1. अब यह प्रमाणित हो चुका है, मंदिर में वो ही औरतें प्रवेश करना चाहती हैं जिनकी भगवान अय्यप्पा में कोई आस्था ही नहीं है। जबकि जिन महिलाओं की अय्यप्पा में आस्था है, वे न तो खुद और न ही किसी और महिला को मंदिर में जाने देना चाहती हैं। इसका सबूत ताजा घटनाक्रम में केंद्रीय मंत्री केजे अल्फोन्स का वो बयान है जिसमें उन्होंने कहा है कि मंदिर में जो महिलाएं प्रवेश करना चाहती थीं वे कानून व्यवस्था में खलल डालने के इरादे से ऐसा करना चाहती थीं। एक मुस्लिम महिला जो मस्जिद तक नहीं जाती, एक ईसाई लड़की जो चर्च तक नहीं जाती।
 
2. ऐसी बातें सामने आ जाने के बाद, यह इन बुद्धिजीवियों के आत्ममंथन का विषय होना चाहिए कि कहीं ये लोग सनातन परम्पराओं को अंध विश्वास या कुरीतियाँ कह कर खारिज करने के कुत्सित षड्यंत्र का जाने अनजाने एक हिस्सा तो नहीं बन रहे? 

3. इन्हें यह नहीं भूलना चाहिए कि हिंदू धर्म एक मात्र ऐसा धर्म है जो नए विचारों को खुले दिल से स्वीकार करता है और अपने अनुयायी को अपने हिसाब से पूजा करने या न करने की आजादी भी देता है।
 
यह अतुल्य है क्योंकि कट्टर नहीं है,
यह कट्टर नहीं है क्योंकि यह उदार है,
यह उदार है क्योंकि यह समावेशी है,
यह समावेशी है क्योंकि यह जिज्ञासु है,
यह जिज्ञासु है क्योंकि यह विलक्षण है।

4. शायद इसलिए इसकी अनेकों शाखाएँ भी विकसित हुईं, सिख जैन बौद्ध वैष्णव आर्य समाज लिंगायत आदि।
 
5. अन्य पंथों के विपरीत जहाँ एक ईश्वरवादी सिद्धान्त पाया जाता है, और ईश्वर को भी सीमाओं में बांधकर उसको एक ही नाम से जाना जाता है और उसके एक ही रूप को पूजा भी जाता है, हिन्दू धर्म में एक ही ईश्वर को अनेक नामों से जाना भी जाता है और उसके अनेक रूपों को पूजा भी जाता है। खास बात यह है कि उस देवता का देवत्व हर रूप में अलग होता है। जैसे कृष्ण भगवान के बाल रूप को भी पूजा जाता है और उनके गोपियों के साथ उनकी रासलीला वाले रूप को भी पूजा जाता है। लेकिन इन रूपों से बिल्कुल विपरीत उनका कुरुक्षेत्र में गीता का ज्ञान देते चक्रधारी रूप का भी वंदन भारत ही नहीं सम्पूर्ण विश्व में किया जाता है। इसी प्रकार माँ दुर्गा के भी अनेक रूपों की स्तुति की जाती है। हर रूप का अपना नाम अपनी पूजन पद्धति है और विशेष बात यह है, कि हर रूप में देवी की शक्तियां भिन्न हैं। जैसे नैना देवी मंदिर में उनके सती रूप की, कलिका मंदिर में काली रूप की, कन्याकुमारी मंदिर में कन्या रूप की तो कामाख्या मंदिर में उनके रजस्वला रूप की उपासना की जाती है।
 
6. यह बात सही है कि समय के साथ हिन्दू धर्म में कुछ कुरीतियाँ भी आईं जिनमें से कुछ को दूर किया गया जैसे सति प्रथा और कुछ अभी भी हैं जैसे बाल विवाह जिन्हें दूर करने की आवश्यकता है।
 
7. लेकिन किसी परंपरा को खत्म करने से पहले इतना तो जान ही लेना चाहिये कि क्या वाकई में वो "कुप्रथा" ही है ?
 
8. यहां सबसे पहले तो यह विषय स्पष्ट होना आवश्यक है कि इस परंपरा का ट्रिपल तलाक से कोई मेल नहीं है क्योंकि जहाँ पति के मुख से निकले तीन शब्दों से एक औरत ना सिर्फ अकल्पनीय मानसिक प्रताड़ना के दौर से गुजरती थी, उसका शरीर भी एक जीती जागती जिंदा लाश बन जाता था क्योंकि यह कुप्रथा यहीं समाप्त नहीं होती थी। इसके बाद वो हलाला जैसी एक और कुप्रथा से गुजरने के लिए मजबूर की जाती थी। वहीं सबरीमाला मंदिर में एक खास आयु वर्ग के दौरान महिलाओं के मंदिर में न जाने देने से ना उसे कोई मानसिक प्रताड़ना झेलनी पड़ती है और न ही किसी प्रकार का शारीरिक कष्ट। इसलिए सर्वप्रथम तो जो लोग दोनों विषय मिला रहे हैं उनका मकसद शायद मूल विषय से लोगों का ध्यान भटकाना है।
 
9. इस विषय से जुड़ा एक और भ्रम जिसे दूर करना आवश्यक है, वो यह कि मासिक चक्र के दौरान हिन्दू धर्म में महिला को अछूत माना जाता है। यह एक दुष्प्रचार के अलावा कुछ और नहीं है क्योंकि अगर सनातन परंपरा में मासिक चक्र की अवस्था में स्त्री को "अछूत" माना जाता तो कामख्या देवी की पूजा नहीं की जाती।
 
10. अगर मासिक चक्र के दौरान महिला के शरीर की स्थिति को आधुनिक विज्ञान के दृष्टिकोण से देखें तो इस समय स्त्री का शरीर विभिन्न क्रियाओं से गुजर रहा होता है। यह सिद्ध हो चुका है कि मासिक चक्र के दौरान महिलाओं की बीएमआर (BMR) लेकर हर शारिरिक क्रिया की चाल बदल जाती है। यहां तक कि उसका शारीरक तापमान भी इन दिनों सामान्य दिनों की अपेक्षा बढ़ जाता है, क्योंकि इस दौरान उसके शरीर में होर्मोन के स्तर में उतार चड़ाव होता है। दूसरे शब्दों में इस अवस्था में महिला "अछूत' नहीं होती बल्कि कुछ विशेष शारिरिक और मानसिक क्रियाओँ से गुजर रही होती है। यह तो हम सभी मानते हैं कि हर वस्तु चाहे सजीव हो या निर्जीव, एक ऊर्जा विसर्जित करती है। इसी प्रकार मासिक चक्र की स्थिति में स्त्री एक अलग प्रकार की ऊर्जा का केंद्र बन जाती है। जिसे आधुनिक विज्ञान केवल तापमान का बढ़ना मानता है, वो दरअसल एक प्रकार की ऊर्जा की उत्पत्ति होती है। खास बात यह है कि किसी भी पवित्र स्थान में ऊर्जा का संचार ऊपर की दिशा में होता है, लेकिन मासिक चक्र की अवधि में स्त्री शरीर में ऊर्जा का प्रभाव नीचे की तरफ होता है (रक्तस्राव के कारण)।
 
अतः समझने वाला विषय यह है कि मासिक चक्र के दौरान मंदिर जैसे आध्यात्मिक एवं शक्तिशाली स्थान पर महिलाओं को न जाने देना "कुप्रथा" नहीं है, और ना ही उनके साथ भेदभाव बल्कि एक दृष्टिकोण अवश्य है जो शायद भविष्य में वैज्ञानिक भी सिद्ध हो जाए जैसे ॐ, योग और मंत्रों के उच्चारणों से होने वाले लाभों के आगे आज विश्व नतमस्तक है।
 
-डॉ. नीलम महेंद्र

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