ईश्वर दुबे
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Bhilai
देश में अब कोरोना काल में एक बहुत अच्छा संकेत यह है कि आम व खास सभी वर्गों के लोग अपने दुखदर्दों को भूलकर तेजी के साथ अपनी रोजमर्रा की दिनचर्या को भयमुक्त करके सामान्य व खुशहाल बनाने के लिए लगातार धरातल पर प्रयास करने लगे हैं।
दुनिया के बहुत सारे देशों में प्रचलित अंग्रेजी कैलेंडर के अनुसार वर्ष 2021 का समापन होकर नूतन वर्ष 2022 की शुरुआत शनिवार के दिन से हो गयी है। हालांकि कोरोना महामारी के प्रकोप के चलते पिछले दो वर्षों से ही पूरी दुनिया एक अजीब से भय में जीवन यापन करने के लिए मजबूर है, लोग अपनों के साथ इकट्ठा होकर खुशियां साझा करने में भी डर रहे हैं, आज भी दुनिया को अपने घरों में कैद कर देने के लिए बार-बार मजबूर करने वाला कोराना का खतरनाक काल निरंतर चल रहा है, अच्छी लेकिन बात यह है कि अब हम लोगों ने कोरोना की गाइडलाइंस का पालन करते हुए इसके साथ जीवन जीना सीख लिया है। दुनिया भर में वर्ष 2021 में लोग अपनी बेहाल आर्थिक स्थिति, अपनों को कोरोना के चलते असमय काल का ग्रास बनने का दुख लिए हुए, मंदी से जूझ रहे व्यापार व काम धंधे, बेरोजगारी व डर के चलते बहुत ज्यादा तनावग्रस्त रहे हैं, हालांकि यह स्थिति हमारे देश व समाज के लिए उचित नहीं है, लेकिन ईश्वर की इच्छा पर किसी का कोई बस नहीं चलता है। वर्ष 2021 ने बहुत सारे लोगों को ताउम्र ना भूलने वाले जख्म देने का कार्य किया था, हालात यह हो गये थे कि कोरोना के भय व बचाव के मारे लोग लंबे समय से दिल खोलकर ज़िंदादिली के साथ खुशियां तक मनाने के लिए तरस गये हैं। लेकिन पिछले कुछ माह से भारत के दृष्टिकोण से अच्छी बात यह रही है कि दूसरी लहर के द्वारा उत्पन्न कोरोना के भयानक प्रकोप को लोगों व सरकार के प्रयास के द्वारा नियंत्रित कर लिया गया। वैसे अब कोरोना के नए वेरिएंट ओमिक्रॉन के आने से देश में एक बार फिर से कोरोना का प्रकोप बढ़ने की संभावना हो गयी है, लेकिन अब देश के समझदार लोग स्वयं ही जागरूक होकर कोरोना से बचाव के नियमों का अक्षरशः सावधानी के साथ पालन करते हुए उसके ग्राफ को नियंत्रण में रखने में सरकार का दिल से सहयोग कर रहे हैं।
देश में अब कोरोना काल में एक बहुत अच्छा संकेत यह है कि आम व खास सभी वर्गों के लोग अपने दुखदर्दों को भूलकर तेजी के साथ अपनी रोजमर्रा की दिनचर्या को भयमुक्त करके सामान्य व खुशहाल बनाने के लिए लगातार धरातल पर प्रयास करने लगे हैं। पिछ़ले वर्ष की तरह ही एक बार फिर से कोराना काल के दरम्यान ही अंग्रेजी नव वर्ष 2022 का आगमन हो गया है। लेकिन इस बार 31 दिसंबर को शुक्रवार होने के चलते भारत में शनिवार व रविवार में छुट्टियों का विशेष अवसर लोगों को मिलने के चलते अंग्रेजी नववर्ष को जोशोखरोश व हर्षोल्लास के साथ पूरी धूमधाम और बेहद चकाचौंध कर देने वाले तरीकों से लंबे समय तक मनाने की तैयारी है। वैसे भी खुशियों के चंद लम्हों को भी जीने के लिए आपदाकाल में अब हम लोगों को बहानों की तलाश रहती है, यह तो अंग्रेजी नूतन वर्ष 2022 के स्वागत का एक बड़ा अवसर है, फिर हम चैन से घरों में कहाँ तक बैठेंगे। वैसे तो अंग्रेजी कैलेंडर के अनुसार प्रत्येक वर्ष 1 जनवरी के दिन बहुत सारे देशों में बड़े पैमाने पर अंग्रेजी नववर्ष को पूर्ण हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है, हमारे देश भारत में भी बहुत सारे लोगों व बाजार की ताकत के बलबूते अंग्रेजी नूतन वर्ष को जमकर धूमधाम से सेलिब्रेट किया जाता है। आज अंग्रेजी नूतन वर्ष की हर्ष पूर्ण बेला पर मैं चंद पंक्तियों के माध्यम से अपनी भावना व्यक्त करना चाहता हूँ-
"विदा हो रही है जख्म देने वाली साल,
आ रहा है धूमधाम मचाने नूतन वर्ष यार,
ठाना है रुख बदल देगें हवाओं का हम,
एकजुट होकर मैदान में आयेंगे जब हम,
मेहनत के बलबूते बदल देंगे दुनिया सारी,
खत्म कर देंगे दुनिया से नकारात्मकता सारी,
भरोसा है हमको मेहनत पर अपनी यारों,
हौसले के बलबूते हम लोग आने वाले,
नववर्ष 2022 में भर देगें खुशियों से दुनिया सारी,
ईश्वर से दुआ है वो खत्म कर दे दुनिया से,
नकारात्मकता नफरत व जहालत सारी,
बस खुशहालियों से भर दे दुनिया को सारी।"
अंग्रेजी नूतन वर्ष पर मैं अपने इन शब्दों में छिपी सकारात्मक भावना के साथ यह उम्मीद करता हूँ कि अब हम सभी देशवासी आपसी मनमुटाव को भूलकर व कोरोना के द्वारा दिये गये गहरे जख्मों को भूलकर फिर से अपने जीवन की एक नई शानदार शुरुआत करते हुए देश निर्माण के लिए रात-दिन जुटकर कार्य करेंगे। वैसे भी हममें से अधिकांश लोग हमेशा यह चाहते हैं कि नूतन वर्ष की एक बहुत अच्छे से शुरुआत हो और हम लोग उज्ज्वल भविष्य की आशा में सकारात्मक ऊर्जा व हर्षोल्लास के साथ जीवन पथ पर निरंतर चलते रहें। हम लोगों की मान्यता है कि नववर्ष का प्रथम दिन सकारात्मक ऊर्जा प्राप्त करने के लिए ज़िंदगी में एक बेहद महत्वपूर्ण दिन होता है, हम उसके ही अनुरूप अपनी दिनचर्या को निर्धारित करते हुए जीवन पथ पर चलने का प्रयास करते हैं। हमें उम्मीद है कि यह नूतन वर्ष एक नई उम्मीद, नई आशाएं, नई खुशियां, जीवन में नई उमंग, नये लक्ष्य व ज़िंदगी के लिए जरूरी सकारात्मक ऊर्जा लेकर आया है।
नववर्ष के प्रथम दिन हम लोगों को संकल्प लेना होगा कि वो बीते वर्ष की खट्टी-मीठी व कड़वी यादों को दिलों में संजोकर उनसे सबक लेकर जीवन पथ पर पूर्ण सकारात्मक ऊर्जा के साथ अग्रसर होकर तय लक्ष्यों को हासिल करने के लिए दिल से प्रयास करेंगे। आज हम सभी देशवासियों को इस अंग्रेजी नूतन वर्ष 2022 का कोरोना से बचाव की तय सभी गाइडलाइंसों का पूर्ण रूप से पालन करते हुए हर्षोल्लास व ज़िंदादिली से स्वागत करना चाहिए। हम लोगों को अपने-अपने आराध्य सर्वशक्तिमान ईश्वर का तहेदिल से आभार व्यक्त करना चाहिए कि हम सभी के जीवन में फिर से एक बार नववर्ष उदित होने का अवसर आया है, उसके लिए हम हमेशा ऋणी रहेंगे। नूतन वर्ष में हम सभी के जीवन में नव आशा, नव उत्साह, नव हर्ष हो, ज़िंदगी में नयी ताजगी हो, एक नई उमंग हो, अपनों का हर वक्त संग हो, प्रगति के पथ पर चलते हुए हर्ष हो, नववर्ष नई आशाओं से पूर्ण शोभित हो, हम लोग कोरानाकाल में उत्पन्न बेहद गंभीर समस्याओं से मुक्त होकर जल्द से जल्द तनाव से मुक्त हों, हम सभी देशवासियों के जीवन में इन्हीं सकारात्मक मंगलकामनाओं के साथ नई आशाएँ व नई अभिलाषाएँ के साथ नूतन वर्ष 2022 बहुत ही शानदार ढंग से उदित हो।
-दीपक कुमार त्यागी
(वरिष्ठ पत्रकार व राजनीतिक विश्लेषक)
नये वर्ष में हम अपने भीतर एक ऐसे नये इंसान को जन्म दें जो स्वयं आगे आकर दायित्व की बागडोर थामे और निर्माण, सुधार तथा विकास का कार्य स्वयं से शुरू करें। चिन्तन की सकारात्मक खिड़कियां खोलते हुए नया नजरिया बनायें कि खुद के लिए क्या बेहतर है।
वर्ष 2022 का प्रारम्भ हो गया है। वर्ष 2021 को अलविदा कहा है। अगवानी एवं अलविदा की इस संधि-बेला ने चिन्तन की दीवारों पर अनेक प्रश्नचिन्ह टांगे हैं। उन प्रश्नों पर आत्म विश्लेषण भी करें कि बीते वर्ष में हमने क्या खोया और क्या पाया है। सोचनीय प्रश्न है कि आखिर हमने प्रतिकूलताओं से लड़ने के लिये ईमानदार प्रयत्न कितने किये? मंजिल तक पहुंचने के लिये संकल्पपूर्वक कितने कदम उठाये? कोरोना महामारी को परास्त करने में कितने सर्तक एवं सजगता से अपने दायित्व का निर्वहन किया? बिता वर्ष बहुत बोझिल भरा वर्ष था, संकट बहुत आये, बेरोजगारी बढ़ी, महंगाई बढ़ी, सीमाओं पर पड़ोसी देशों ने अनेक षड्यंत्र किये, गरीबी भी नये मुकाम पर पहुंची, भ्रष्टाचार के भी नये-नये रूप सामने आये, सत्ता और विपक्ष की खींचतान में राजनीतिक मूल्य ध्वस्त हुए, प्रकृति का कहर बरपा, जलवायु की चिंता ने सताया, किसान आन्दोलन से जन-समस्याएं खड़ी हुईं, परिवार संस्था भी टूटी, दबे, कुचले, वंचित लोगों, वर्गों के संकट बढ़े, स्वास्थ्य बिगड़ा। इन संकटों एवं समस्याओं के बीच बड़े आदर्शों की अपेक्षा एक छोटा-सा सवाल ही अपने आपसे हल करने की कोशिश करें कि नये वर्ष की शुरुआत करते हुए अलविदा किये गये? हम अलविदा उस निषेधात्मक सोच को कहें जिसने हमारे भीतर आत्मविश्वास का दीया बुझा दिया, संकटों एवं बुराइयों के विरुद्ध लड़ने की ताकत को कमजोर कर दिया, पुरुषार्थ के प्रयत्नों को पंगु बना दिया।
नये वर्ष में हम अपने भीतर एक ऐसे नये इंसान को जन्म दें जो स्वयं आगे आकर दायित्व की बागडोर थामे और निर्माण, सुधार तथा विकास का कार्य स्वयं से शुरू करें। चिन्तन की सकारात्मक खिड़कियां खोलते हुए नया नजरिया बनायें कि खुद के लिए क्या बेहतर है और अपनी बेहतरी किसी दूसरे के लिए दुख-दर्द का कारण तो नहीं बन रही है? आज के समय में संसाधनों की कमी से ज्यादा घातक नकारात्मक सोच है। विपदा के समय हमने जो व्यवहार किया था, विपदा के समय हम कैसे किसी के काम आए थे, यह सोचकर हमें नए वर्ष में सुधार की सीढ़ियां चढ़नी चाहिए। नए वर्ष में लोग और देश किसी बुराई नहीं, किसी अच्छाई का अनुकरण करें, तभी हम इंसानियत के पैमाने पर कोई आदर्श सामने रख पाएंगे। आपदा और टीकाकरण के समय हमने देखा है, अमीर देश गरीब देशों को और अमीर लोग अपने जरूरतमंद दोस्तों-रिश्तेदारों को अपने हाल पर छोड़कर एक अलग ही अकेलेपन एवं संकीर्णता की ओर बढ़ते रहे हैं। हम बीते वर्ष के इन तमाम संबंधों, स्मृतियों, स्वार्थों, सन्दर्भों, घटना प्रसंगों को अलविदा कहें जिनके कारण हमारी इंसानियत पर प्रश्न खड़े हुए। जिनके कारण हमारी संवेदनाएं निस्तेज हुईं, विकास में ठहराव आया एवं अनेक बाधाएं खड़ी हुईं।
नववर्ष में हमें उम्मीद के नये वातायन उद्घाटित करते हुए भारत की चौतरफा चुनौतियों के जबाव ढूंढ़ने होंगे। हमारे संकल्प और इरादों की मजबूती सामने आये, पड़ोसियों को समझ आए, सीमाओं पर अनुशासन, सभ्यता और शालीनता लौटे। तमाम बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियां भारतीयों को केवल उपभोक्ता न समझें, अपने सामाजिक दायित्व भी वे ढंग से निभाएं। विधि का कोरा कारोबार नहीं, बल्कि न्याय की निष्पक्षता एवं तत्परता हो, तो शासन-प्रशासन का ईमानदार एवं जागरूक स्वरूप सामने आए। वर्ष भर जनता की तकलीफों को बढ़ाने वाले किसान आंदोलन जैसे राजनीतिक पोषित आन्दोलनों की पुनरावृत्ति न हो। किसानों की जरूरतों पर ध्यान दिया जाना चाहिए न कि उनको आधार बनाकर स्वार्थ की राजनीति हो। जरूरतमंद लोगों के बढ़े हुए उत्साह के साथ हम नए वर्ष में आए हैं, क्योंकि सरकारों ने भी अपने स्तर पर राहत देने की पूरी कोशिश की है। नए वर्ष में भी सुनिश्चित करना होगा कि किसी गरीब को अन्न-धन के अभाव का सामना न करना पड़े। यह बेहतर सामाजिक योजनाओं और उनके क्रियान्वयन का वर्ष होना चाहिए। यह बेहतर काम-धंधे और रोजगार का वर्ष होना चाहिए। यह वर्ष महंगाई पर नियंत्रण का वर्ष हो।
हम उन राजनीतिक धारणाओं, मान्यताओं को बदलें जिनके आधार बनाकर कर गलतफहमियों, सन्देहों, आशंकाओं एवं अविश्वासों की दीवारें इतनी ऊंची खड़ी कर दी गयी हैं कि स्पष्टीकरण के साथ उन्हें मिटाकर सच तक पहुंचने के सारे रास्ते ही बन्द हो गये। यह स्थिति लोकतंत्र को कमजोर बनाती है। एक राष्ट्र के रूप में जब हम चिन्तन करते हैं तो पाते हैं कि इस देश की सबसे बड़ी ताकत लोकतन्त्र की संसदीय प्रणाली में ऐसी तन्त्रगत अराजकता व्याप्त होने का खतरा पैदा हो रहा है जिसे तुरन्त नियमित किये जाने की आवश्यकता है। इस सन्दर्भ में बीते वर्ष के दौरान संसद के हुए विभिन्न सत्र उदाहरण हैं जिनमें सत्ता और विपक्ष की खींचतान के चलते देश की इस सबसे बड़ी जनप्रतिनिधि संस्था की प्रतिष्ठा को आघात लगा। भारत का संसदीय लोकतन्त्र इसके लोगों की आस्था का ऐसा प्रतिष्ठान है जिसकी संवैधानिक सर्वोच्चता निर्विवाद है क्योंकि इसके माध्यम से सामान्य नागरिक के हाथ में बदलते समय के अनुसार अपने विकास के स्वस्तिक उकेरने का अधिकार होता है जो चुने हुए प्रतिनिधियों की मार्फत किया जाता है।
हाल ही में कानपुर में एक सुगन्ध व्यापारी के घर उत्तर प्रदेश चुनाव से पहले जिस तरह बेहिसाब से नकद धनराशि मिली है उससे यह अन्दाजा तो लगाया ही जा सकता है कि देश में राजनीतिक पोषित भ्रष्टाचार कितना गहरा है। अन्दाजा तो यह भी लगाया जा सकता है कि इस बेहिसाब भ्रष्ट धनराशि का उपयोग कोई राजनीतिक दल चुनावों में खर्च कर सकता था। इससे पहले भी हम देख चुके हैं कि विभिन्न राज्यों में जब चुनाव होते हैं तो सरकारी एजेंसियां कितना रोकड़ा जब्त करती रही हैं। हर रोज ऐसी बहुत-सी खबरें आती हैं, ज्यादातर खबरें डराने वाली होती हैं, कभी ओमीक्रोन की आती हैं, तो कभी भ्रष्टाचार या काले धन की आती हैं, ये खबरें इसलिये डराती हैं कि कहीं न कहीं ये अमानवीयकरण एवं भ्रष्ट व्यवस्था को पनपाने की प्रक्रिया है। सोचना चाहिए कि उसके समांतर हम क्या कर सकते हैं? कहीं हम खुद भी अपनी मानवीयता एवं ईमानदारी तो नहीं खो रहे हैं? क्या हम खुद भी किसी ब्रांड या राजनीतिक दल के विज्ञापनकर्ता बन गए हैं? सबसे जरूरी है, हम मनुष्य बनें, एक जिम्मेदार नागरिक का धर्म निभायें।
लोकतंत्र को बचाना सबसे जरूरी है और लोकतंत्र केवल संविधान को बचाने से नहीं बचेगा। कानून के आधार पर या संविधान के नारे लगाकर लोकतंत्र नहीं बचेगा। लोकतंत्र एक भावना है और वह अन्यों के प्रति उदारता या सहिष्णुता ही नहीं, बंधुत्व और सहकार की भावना भी है। यह अपने संविधान के मूलभूत संदेश समता, स्वतंत्रता, बंधुत्व और भाईचारे की ओर वापसी का समय है। उम्मीद है, नया साल 2022 हमें इन मूलभूत अच्छाइयों के निकट ले जाएगा। बेशक, तालियां खूब बजायी, दीये खूब जलाए गए हैं, लेकिन अंधेरा कायम है और खतरे बरकरार। फिर भी प्रतिकूल परिस्थितियों में घबराकर भागने की मनोवृत्ति को भी अलविदा कहें, क्योंकि संघर्ष की बुनियाद पर ही सफलता का महल खड़ा होता है। हममें अकेले लड़ने का साहस जागे, क्योंकि सत्य के लिये अकेले ही लड़ना होता है। हम वैक्सीन लेते हैं कि खुद में रोग प्रतिरोध की क्षमता विकसित कर सकें। प्रतिरोध का मतलब केवल चीखना, चिल्लाना, नारे लगाना, हिंसा करना, क्रांतिकारी होना नहीं है। प्रतिरोध प्रार्थना में भी होता है। गांधीजी से बड़ा प्रतिरोध करने वाला कौन रहा होगा? उन्होंने भी खूब प्रार्थनाएं की हैं, सबको सन्मति दे भगवान। नरेन्द्र मोदी ने भी खूब प्रार्थनाएं की हैं, खूब लोगों को जगाया है, उनकी उम्मीदों को नये पंख दिये हैं, उनका असर भी हुआ, समूचा राष्ट्र उनके आह्वान पर एकजुट हुआ।
नये वर्ष में वही एकजुटता दिखानी होगी। आज लोग बहुत कर्फ्यू, अंकुश, आदेश, निर्देश के बावजूद मास्क नहीं लगा रहे हैं, सामाजिक दूरी का पालन नहीं कर रहे हैं, कोरोना की नयी लहर के प्रति उदासीन बने हैं। यह कैसी लापरवाही है? क्या लोगों को अपनी मृत्यु की भी परवाह नहीं है? हम ऐसे कैसे हो गए? गहराई से सोचना होगा। आज हम मनुष्यता बचा सकें, हवा में ऑक्सीजन बचा सकें, नदियों में पानी बचा सकें, पर्यावरण को सुरक्षा दे सकें, जीवन के लिए जरूरी चीजें बचा सकें, परिवार बचा सकें, तभी देश बचा पाएंगे और तभी हम नए साल में उम्मीद के साथ आगे बढ़ सकेंगे। हर घटना स्वयं एक प्रेरणा है। अपेक्षा है जागती आंखों से उसे देखने की और जीवन को नया बदलाव देने की।
-ललित गर्ग
सरकार राज्यपाल की सहमति के बिना चुनाव कराने के विकल्प तलाश रही थी, लेकिन अंतत: अपने फैसले को मंगलवार को टाल दिया। एमवीए ने कहा कि अगर राज्यपाल ने उसके दूसरे पत्र का जवाब नहीं दिया तो इसे उनकी सहमति माना जाएगा।
विधानसभा अध्यक्ष के चुनाव को लेकर महाराष्ट्र के राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी और महा विकास अघाड़ी (एमवीए) सरकार के बीच खींचतान चल रही है। विधानसभा का शीतकालीन सत्र मंगलवार (28 दिसंबर) को समाप्त हो गया। लेकिन राज्यपाल ने कैबिनेट द्वारा अनुशंसित चुनाव कार्यक्रम पर अपनी सहमति नहीं दी। सरकार राज्यपाल की सहमति के बिना चुनाव कराने के विकल्प तलाश रही थी, लेकिन अंतत: अपने फैसले को मंगलवार को टाल दिया। एमवीए ने कहा कि अगर राज्यपाल ने उसके दूसरे पत्र का जवाब नहीं दिया तो इसे उनकी सहमति माना जाएगा। लेकिन, सूत्रों ने बताया कि कोश्यारी ने 28 दिसंबर सुबह जवाब दिया। कहा जा रहा है कि चुनाव राज्य विधानसभा के अगले सत्र में होगा। ऐसे में आपको बताते हैं कि पूरा मामला क्या है, इस मामले में संवैधानिक स्थिति क्या है, और उद्धव ठाकरे सरकार और राज्यपाल कोश्यारी के बीच गतिरोध की राजनीतिक पृष्ठभूमि क्या है?
अध्यक्ष चुनने की आवश्यकता क्यों पड़ी?
2019 के विधानसभा चुनाव के बाद कांग्रेस के नाना पटोले सदन के अध्यक्ष चुने गए। लेकिन पटोले के इस्तीफा देने और बाद में राज्य कांग्रेस के अध्यक्ष नियुक्त किए जाने के बाद फरवरी 2021 में यह पद खाली हो गया। पटोले के इस्तीफे ने एमवीए में कांग्रेस के सहयोगी शिवसेना और राकांपा को नाराज कर दिया, जिनसे इस कदम के बारे में सलाह नहीं ली गई थी। हाल ही में महाराष्ट्र विधान सभा ने बिना अध्यक्ष चुने ही अपना दो दिवसीय मानसून सत्र समाप्त किया है। राकांपा के उपाध्यक्ष नरहरि जिरवाल सीताराम विधानसभा में कार्यवाहक अध्यक्ष के रूप में भूमिका निभाई। हालांकि विपक्षी भाजपा ने नए अध्यक्ष के चुनाव के लिए दबाव डाला। राज्यपाल कोश्यारी ने विपक्ष के नेता देवेंद्र फडणवीस की मांग को मुख्यमंत्री ठाकरे के पास भेज दिया था, जिन्होंने जवाब दिया था कि चुनाव कोविड -19 प्रोटोकॉल का पालन करने के बाद उचित समय पर होगा। कांग्रेस के समझाने के बाद एमवीए सरकार ने आखिरकार चुनाव कराने का फैसला किया है। शुक्रवार (24 दिसंबर) को, राज्य मंत्रिमंडल ने 28 दिसंबर को अध्यक्ष का चुनाव कराने का निर्णय लिया और राज्यपाल को इसकी सूचना दी।
सरकार द्वारा राज्यपाल को लिखे पत्र के बाद क्या हुआ?
राज्य सरकार द्वारा 24 दिसंबर को राज्यपाल को लिखे जाने के दो दिन बाद, बालासाहेब थोराट, एकनाथ शिंदे और छगन भुजबल के मंत्रियों के एक प्रतिनिधिमंडल ने रविवार (26 दिसंबर) को उनसे मुलाकात की और उनसे अनुशंसित चुनाव कार्यक्रम के लिए अपनी सहमति देने का अनुरोध किया। 27 दिसंबर को राज्यपाल ने सरकार को पत्र लिखकर कहा कि इस दौरान राज्यपाल ने मतपत्र के बजाय ध्वनि मत से चुनाव कराने के लिए विधायी नियमों में संशोधन का ब्योरा मांगा था। उन्होंने कहा था कि वह कानूनी विशेषज्ञों से चर्चा करेंगे और अधिक जानकारी प्राप्त करेंगे और अपने फैसले से अवगत कराएंगे। उसी दिन, सरकार ने राज्यपाल को यह कहते हुए वापस लिखा कि संशोधन संवैधानिक रूप से सही हैं, और विधायिका ने संशोधन करते समय सभी आवश्यक प्रक्रियाओं का पालन किया था। सरकार ने सूचित किया कि वह चुनाव कराने की इच्छुक है, और राजभवन से राज्य मंत्रिमंडल की सलाह पर कार्य करने का आग्रह किया।
विधानसभा अध्यक्ष चुनाव के लिए राज्यपाल की मंजूरी क्यों जरूरी?
संविधान के अनुच्छेद 178 में कहा गया है- प्रत्येक राज्य की विधान सभा, यथाशक्य शीघ्र, अपने दो सदस्यों को अपना अध्यक्ष और उपाध्यक्ष चुनेगी और जब-जब अध्यक्ष या उपाध्यक्ष का पद रिक्त होता है तब-तब विधान सभा किसी अन्य सदस्य को, यथास्थिति, अध्यक्ष या उपाध्यक्ष चुनेगी । संविधान इन चुनावों को कराने की प्रक्रिया को निर्दिष्ट नहीं करता है; जो राज्य विधानसभाओं पर छोड़ दिया गया है। यह यह कहने के अलावा कोई समय-सीमा भी निर्धारित नहीं करता है कि चुनाव "शीघ्र" होने चाहिए। कुछ राज्य समय-सीमा निर्धारित करते हैं: उदाहरण के लिए, हरियाणा में विधानसभा चुनाव के बाद अध्यक्ष का चुनाव जल्द से जल्द होना चाहिए, और उपाध्यक्ष का चुनाव एक और सात दिनों के भीतर किया जाना चाहिए। उत्तर प्रदेश में विधानसभा के कार्यकाल के दौरान पद खाली होने पर अध्यक्ष का चुनाव 15 दिनों के भीतर होना आवश्यक है। अध्यक्ष के चुनाव की तारीख राज्यपाल द्वारा अधिसूचित की जाती है। महाराष्ट्र विधान सभा के नियम 6 के अनुसार, "राज्यपाल चुनाव कराने के लिए एक तारीख तय करेगा और सचिव हर सदस्य को इस तरह की तय की गई तारीख की सूचना भेजेगा। राज्य विधानसभा के एक पूर्व सचिव के अनुसार अध्यक्ष का चुनाव राज्यपाल द्वारा इसकी तारीख तय करने के बाद ही हो सकता है।
पिछले हफ्ते नियमों में क्या संशोधन किए गए?
पिछले हफ्ते, सरकार ने विधानसभा में एक प्रस्ताव पेश किया जिसमें नियम 6 (विधानसभा अध्यक्ष का चुनाव) और 7 (उपसभा अध्यक्ष का चुनाव) में गुप्त मतदान के बजाय ध्वनि मत से संशोधन करने की मांग की गई। संशोधन विधायिका की नियम समिति द्वारा प्रस्तावित किए गए थे। संशोधनों में "चुनाव कराने" शब्दों को शामिल नहीं किया गया और महाराष्ट्र विधान सभा नियमों के नियम 6 में "मुख्यमंत्री की सिफारिश पर अध्यक्ष का चुनाव करने के लिए" शब्द शामिल किए गए। संशोधनों ने अध्यक्ष के चुनाव के प्रावधान को "गुप्त मतदान" द्वारा "ध्वनि मत" से बदल दिया। संशोधनों को भाजपा के विरोध का सामना करने के लिए ध्वनि मत से पारित किया गया था।
इन संशोधनों पर क्या आपत्ति है?
विपक्ष ने एमवीए पर "सबसे असुरक्षित सरकार" चलाने का आरोप लगाया, जो अपने विधायकों पर भरोसा नहीं करती है और डरती है कि अध्यक्ष के चुनाव में क्रॉस वोटिंग होगी। विपक्ष ने यह भी तर्क दिया कि अध्यक्ष की अनुपस्थिति में नियमों में संशोधन नहीं किया जा सकता है। भाजपा ने कहा कि जुलाई में हुए मानसून सत्र के दौरान पार्टी के 12 विधायकों को एक साल के लिए निलंबित किए जाने के मद्देनजर चुनाव कराना उचित नहीं होगा। राज्यपाल ने कहा है कि वह इस बात की जांच कर रहे हैं कि संशोधन संविधान के प्रावधानों के अनुसार थे या नहीं।
क्या है सरकार की स्थिति?
सरकार ने तर्क दिया है कि संशोधन उन नियमों के अनुरूप हैं जो लोकसभा, राज्य विधानमंडल के उच्च सदन और कई अन्य राज्यों की विधानसभाओं में प्रचलित हैं। यह भी कहा है कि संशोधनों से खरीद-फरोख्त पर विराम लग जाएगा। कहा जाता है कि भाजपा सदस्यों के निलंबन पर सरकार ने यह स्थिति ले ली है कि यह मुद्दा अध्यक्ष के चुनाव से अलग है। यह भी बताया गया है कि राजभवन को अभी भी राज्यपाल के कोटे के माध्यम से राज्य विधानमंडल के उच्च सदन में नामांकन के लिए राज्य मंत्रिमंडल द्वारा अनुशंसित 12 नामों को मंजूरी देनी है। प्रस्ताव नवंबर 2020 में वापस राज्यपाल को भेजा गया था। राज्यपाल की आपत्ति पर, सरकार के सूत्रों ने कहा कि नियमों में संशोधन करना विधायिका के अधिकार में है। राज्य विधायिका को अपनी शक्तियों का उपयोग करके नियमों में संशोधन करने का अधिकार है, और इसमें कुछ भी गलत नहीं है। संशोधन संवैधानिक हैं। एक कैबिनेट मंत्री ने कहा कि साथ ही, राज्यपाल ने हमें दो बार (फरवरी और जुलाई 2021 में) पत्र लिखकर हमें चुनाव कराने के लिए कहा था। इसलिए, उन्हें हमें अभी अनुमति देनी चाहिए।
राज्यपाल के लिए मंत्रिमंडल की सिफारिशों को मानना अनिवार्य
शिवसेना सांसद संजय राउत ने सोमवार को कहा कि राज्यपाल के लिए राज्य मंत्रिमंडल की सिफारिशों को स्वीकार करना अनिवार्य है। राउत ने पत्रकारों से कहा, राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी पढ़ते बहुत हैं। लोकतंत्र में बहुत ज्यादा पढ़ना अच्छा नहीं है। यह महत्व रखता है कि लोगों की आवाज सुनी जाए। राज्यपाल के लिए मंत्रिमंडल की सिफारिशों को स्वीकार करना अनिवार्य है। महाराष्ट्र कांग्रेस अध्यक्ष नाना पटोले ने राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी को बीजेपी की बी टीम करार दिया है। पटोले का कहना है कि राज्यपाल हमेशा से महाराष्ट्र की महा विकास आघाडी सरकार का विरोध करते रहे हैं, ऐसे में यह उनका कोई नया पैंतरा नहीं है।
लग सकता है राष्ट्रपति शासन
बीजेपी ने सरकार के कामकाज पर सवाल उठाए हैं। विपक्ष के नेता देवेंद्र फडणवीस का कहना है कि जब स्पीकर के चुनाव में महाराष्ट्र की परंपरा गुप्त मतदान की रही है तो फिर ठाकरे सरकार ओपन वोटिंग क्यों कराना चाहती है। वहीं भाजपा की महाराष्ट्र इकाई के अध्यक्ष और विधायक चंद्रकांत पाटिल ने कहा कि जिस तरह से महा विकास अघाड़ी (एमवीए) सरकार ने विधानसभा अध्यक्ष के चुनाव के मुद्दे पर राज्यपाल बीएस कोश्यारी का अपमान किया है, वह राज्य में राष्ट्रपति शासन को आमंत्रित कर सकता है।
तो अब आगे का रास्ता क्या है?
सरकार के सूत्रों ने कहा कि वह यह देखने के लिए कानूनी विकल्प तलाशेगी कि क्या अध्यक्ष का चुनाव राज्यपाल की सहमति के बिना हो सकता है। लेकिन सदन के पूर्व सचिव ने कहा कि चुनाव कराना मुश्किल होगा।स्थिति बड़ी विचित्र है। जबकि नियम 6 में कहा गया है कि राज्यपाल को चुनाव की तारीख तय करनी चाहिए, संशोधन कहता है कि राज्यपाल को सीएम की सलाह पर तारीख तय करनी चाहिए। कुल मिलाकर कहा जाए तो ये दो संवैधानिक संस्थाओं के बीच का संघर्ष है।
-अभिनय आकाश
विधानसभा चुनाव नहीं टाले जायेंगे। चुनाव आयोग की स्वास्थ्य सचिवों के साथ ओमिक्रोन के बढ़ते संकट की स्थिति पर हुई बैठक के बाद यह निर्णय सामने आया है। लेकिन न्यायालय की अपील को लेकर चर्चा का बाजार गर्म है, राजनीतिक नफे-नुकसान की बातें हो रही हैं।
वर्ष 2022 की प्रथम तिमाही में पांच राज्यों- उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, गोवा, मणिपुर व पंजाब के विधानसभा चुनाव की सरगर्मियां बढ़ रही हैं साथ ही ओमिक्रोन का संकट भी गहराता जा रहा है। देश में कोरोना संक्रमण की संभावित इस ओमिक्रोन लहर की आशंका को देखते हुए इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायाधीश श्री शेखर यादव ने प्रधानमन्त्री से अपील की थी कि वह इन चुनावों को कुछ समय आगे बढ़ाने के बारे में विचार करें। न्यायालय की इस अपील को राजनीतिक रंग दिया जा रहा है, इसे जबर्दस्ती राजनीतिक विषयों में न्यायालय का हस्तक्षेप भी कहा जा जा रहा है, लेकिन जन-जन की जीवन रक्षा एवं स्वास्थ्य से जुड़ा मामला होने की वजह से न्यायालय का दखल अनुचित भी नहीं कहा जा सकता। यह तो तय है कि किसी भी राज्य में चुनाव कराने का फैसला केवल चुनाव आयोग के अधिकार क्षेत्र में ही आता है और आयोग ही तय करता है कि किसी भी विधानसभा की पांच साल की अवधि समाप्त होने से पहले चुनाव किस समय कराये जाने चाहिए, जिससे नई विधानसभा का गठन समय रहते हो सके।
ताजा निर्णय के अनुसार विधानसभा चुनाव नहीं टाले जायेंगे। चुनाव आयोग की स्वास्थ्य सचिवों के साथ ओमिक्रोन के बढ़ते संकट की स्थिति पर हुई बैठक के बाद यह निर्णय सामने आया है। लेकिन न्यायालय की अपील को लेकर चर्चा का बाजार गर्म है, राजनीतिक नफे-नुकसान की बातें हो रही हैं। विपक्षी दलों का मानना है कि हार के डर से आशंकित होकर भाजपा चुनाव को टालना चाहती है। लेकिन सच तो यह है कि चुनावी सभाओं और रैलियों में उमड़ रही भीड़ कोरोना के नये संकट के फैलने का बड़ा कारण बन सकता है, इस संकट की चिन्ता चुनाव से ज्यादा महत्वपूर्ण है। राज्य सरकारों एवं संबंधित विधानसभा चुनाव वाले पांच राज्यों को इस पर ध्यान देना ही चाहिए कि कहीं चुनाव प्रचार से जुड़ी गतिविधियों के कारण कोरोना अनियंत्रित तो नहीं होगा? इसके लिये लगातार निगरानी और समीक्षा भी की जानी चाहिए।
वैसे कोरोना की तीसरी लहर की संभावना राज्यों की सीमाओं को तोड़ कर अखिल भारतीय स्तर पर व्यक्त की जा रही है। लेकिन यह सर्वथा उचित कदम होगा कि चुनाव वाले राज्यों में टीकाकरण की रफ्तार बढ़ाई जाये। जरूरत पड़ने पर चुनाव रैलियों एवं सार्वजनिक चुनाव सभाओं के स्थान पर प्रचार के अन्य माध्यमों का प्रयोग किया जाये, जैसे समाचार पत्रों में विज्ञापन, रेडियो, टीवी के माध्यम से जन-संबोधन। कोरोना की दूसरी लहर के दौरान हम देख चुके हैं कि किस प्रकार यह संक्रमण बहुत तेजी के साथ फैला था। उस समय प. बंगाल में विधानसभा चुनाव हो रहे थे तो आयोग ने रैलियों जैसे आयोजनों के बारे में संशोधनात्मक दिशा-निर्देश दिये थे और मतदान केन्द्रों से लेकर मतों की गिनती होने तक के प्रबन्धन को कोरोना अनुरूप व्यवहार से बांध दिया था। इस बार भी ऐसी व्यवस्थाएं अपेक्षित हों तो करनी ही चाहिए। जो भी राजनीतिक दल ओमिक्रोन को गंभीर खतरा नहीं बताते हुए इसे भाजपा का चुनावी हथकंडा करार दे रहे हैं, यह उनका संकीर्ण एवं स्वार्थपूर्ण राजनीतिक नजरिया है।
हालांकि अभी तक ओमिक्रोन विदेशों की तुलना में भारत में नियंत्रित है, नये कोरोना वेरियंट की भयावहता के बारे में अभी तक चिकित्सा वैज्ञानिक स्पष्ट कुछ बताने की स्थिति में नहीं हैं सिवाय इसके कि यह पिछले वेरियंटों के मुकाबले तीन गुणा गति से फैलता है। इसे देखते हुए ही चुनाव आयोग ने स्वास्थ्य मन्त्रालय से मन्त्रणा करने के बाद निर्णय लिये हैं। दरअसल कोरोना का मुद्दा राजनीति से हट कर है और इस पर किसी प्रकार की राजनीति नहीं होनी चाहिए। मगर यह भी जरूरी है कि चुनाव आयोग को सभी प्रमुख राजनैतिक दलों को बुला कर उनकी राय भी लेनी चाहिए क्योंकि अन्ततः ये राजनैतिक दल ही चुनाव लड़ते हैं।
इलाहाबाद उच्च न्यायालय के मत का ख्याल रखते हुए मुख्य चुनाव आयुक्त श्री सुशील चन्द्र ने राय व्यक्त की कि आयोग इस बारे में अगले सप्ताह ही उत्तर प्रदेश का दौरा करेगा और वहां चुनावी तैयारियों का जायजा लेगा। यह बहुत स्पष्ट है कि चुनाव आयोग ही अपने संवैधानिक अधिकारों का प्रयोग करते हुए समस्त चुनावी प्रक्रिया का कार्यक्रम व रूपरेखा तैयार करता है और तदनुसार चुनाव नतीजों की घोषणा करके नई विधानसभाओं का गठन करता है। इन पांच राज्यों के चुनाव समानान्तर रूप से कराने के लिए उसे इस तरह का कार्यक्रम तैयार करना पड़ेगा जिससे मार्च महीने तक चार राज्यों को नई विधानसभा मिल सके जबकि उत्तर प्रदेश को मई महीने तक। सामान्य काल में इन विधानसभाओं के कार्यकाल को आगे बढ़ाने का कोई संवैधानिक प्रावधान नहीं है, आपातस्थिति में चुनाव समय पर नहीं हो पाते हैं तो राष्ट्रपति शासन की व्यवस्था लागू करनी होगी। अतः चुनाव आयोग को ऐसा रास्ता खोजना होगा जिससे कोरोना संक्रमण की आशंका भी कम से कम हो सके और चुनावी कार्यक्रम भी समय पर पूरा हो सके।
देश में सबसे बड़ी आबादी वाला राज्य उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव होने जा रहा है। इस बार उत्तर प्रदेश में 403 सीटों वाली 18वीं विधानसभा के लिए ये चुनाव होना है। बता दें कि 17वीं विधानसभा का कार्यकाल 15 मई तक है। पिछली बार 17वीं विधानसभा के लिए 403 सीटों पर चुनाव 11 फरवरी से 8 मार्च 2017 तक 7 चरणों में हुए थे। इनमें लगभग 61 प्रतिशत मतदाताओं ने अपने मताधिकार का प्रयोग किया। लेकिन कोरोना संकट के चलते चुनाव टलने से फायदे की स्थिति में तो कोई भी राजनीतिक दल नहीं होगा, भले ही वह भाजपा हो, कांग्रेस हो, सपा हो, बीएसपी हो या आम आदमी पार्टी। अन्य चार राज्यों एवं यूपी का चुनाव अपने फुल मोड में आ चुका है। सभी दल चुनाव प्रचार पर काफी खर्च कर चुके हैं। लेकिन इन स्थितियों के बावजूद किसी आपात स्थितियों में केवल अर्थ या राजनीतिक नफा-नुकसान से ज्यादा जरूरी है जन-जन की स्वास्थ्य-रक्षा।
कोरोना की तीसरी लहर को देखते हुए विभिन्न राज्य सरकारों के साथ-साथ उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने उत्तर प्रदेश में रात्रिकालीन कोरोना कर्फ्यू लगाने का निर्णय किया है। इसके साथ ही अब शादी-विवाह आदि सार्वजनिक आयोजनों में कोविड प्रोटोकॉल के साथ अधिकतम 200 लोगों की भागीदारी की अनुमति होगी। इनके आयोजनकर्ता को स्थानीय जिला तथा पुलिस प्रशासन को इसकी सूचना भी देनी होगी। देश के विभिन्न राज्यों में कोविड के मामलों में बढ़ोतरी देखी जा रही है। ऐसे में कुछ कड़े कदम उठाए जाने की आवश्यकता है। अभी तक कोविड से बचाव के लिए ट्रेसिंग, टेस्टिंग, ट्रीटमेंट और टीकाकरण की नीति के सही क्रियान्वयन से स्थिति नियंत्रित है। कोरोना की तीसरी लहर को किसी तरह से रोकना है। अतः बचाव ही सर्वाधिक सुरक्षित माध्यम है। इसके लिये चुनाव प्रचार, चुनाव गतिविधियां एवं चुनाव को आगे-पीछे करने की जरूरत महसूस हो तो बिना किसी राजनीतिक स्वार्थ के बेहिचक उन्हें लागू किया जाना चाहिए। राजनीतिक पार्टियां विवेक, मानवीय दृष्टि एवं संवेदनशीलता से अपना नजरिया तय करते हुए चुनाव प्रचार टीवी और अखबारों के माध्यम से करें। एक-दो माह के लिए चुनाव टालना अपेक्षित हो तो उस पर भी सकारात्मक दृष्टिकोण से निर्णय में सहभागिता पर भी विचार करें, क्योंकि जान है तो जहान है।
-ललित गर्ग
कृषि के क्षेत्र में भारतीय किसान ने अपनी मेहनत के बल पर एवं सरकारी नीतियों को लागू करते हुए, कृषि उत्पादों की पैदावार को मांग की तुलना में आपूर्ति आधिक्य की श्रेणी में ला खड़ा किया है। अब भारतीय कृषि क्षेत्र में उत्पादों की पैदावार में आधिक्य रहने लगा है।
भारतीय अर्थव्यवस्था में विकास दर सामान्यतः उत्पादों की आंतरिक मांग पर अधिक निर्भर करती है परंतु वित्तीय वर्ष 2021-22 में विदेशी व्यापार भी भारतीय अर्थव्यवस्था को गति देने में अपनी महती भूमिका निभाते नजर आ रहा है। वित्तीय वर्ष 2021-22 में भारत से 40,000 करोड़ अमेरिकी डॉलर की राशि के वाणिज्यिक उत्पादों के निर्यात होने की सम्भावना व्यक्त की जा रही है जो वित्तीय वर्ष 2020-21 में किए गए 29,063 करोड़ अमेरिकी डॉलर की तुलना में 38 प्रतिशत अधिक होने जा रहा है एवं वित्तीय वर्ष 2019-20 में किए गए 30,398 करोड़ अमेरिकी डॉलर की तुलना में 32 प्रतिशत अधिक रहेगा। भारतीय निर्यात संगठनों के महासंघ के अनुमान के अनुसार आगे आने वाले वित्तीय वर्ष 2022-23 में भारत से 47,500 करोड़ अमेरिकी डॉलर की राशि के वाणिज्यिक उत्पादों का निर्यात होने की सम्भावना है।
निर्यात-आयात बैंक के एक अन्य अनुमान के अनुसार वित्तीय वर्ष 201-22 के प्रथम नौ माह (अप्रैल-दिसम्बर 2021) के दौरान भारत से वाणिज्यिक उत्पादों का निर्यात 51 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज करते हुए 30,398 करोड़ अमेरिकी डॉलर के होने जा रहा है। इसी वृद्धि दर को जारी रखकर वित्तीय वर्ष 2021-22 के निर्धारित लक्ष्य को आसानी हासिल कर लिया जाएगा, ऐसी सम्भावना व्यक्त की जा रही है।
वित्तीय वर्ष 2021-22 में सकल घरेलू उत्पाद में वृद्धि दर लगभग 10 प्रतिशत के आसपास रहने की सम्भावना है जबकि इसी अवधि में वाणिज्यिक उत्पादों के निर्यात में वृद्धि दर 38 प्रतिशत रहने की सम्भावना है। इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि भारत की विकास दर में अब विदेशी व्यापार की हिस्सेदारी बढ़ती जा रही है जोकि एक अच्छा संकेत है।
भारत से निर्यात किए जा रहे उत्पादों की टोकरी में शामिल विभिन्न उत्पादों का विश्लेषण करने पर ज्ञात होता है कि देश से रोजगारोन्मुखी उद्योगों के उत्पाद तेज गति से बढ़ रहे हैं। यह देश के लिए हर्ष का विषय होना चाहिए क्योंकि इन उद्योगों से निर्यात के साथ-साथ रोजगार के नए अवसर भी पर्याप्त मात्रा में निर्मित हो रहे हैं। भारत से निर्यात होने वाले 80 उत्पादों की, देश से होने वाले कुल निर्यात में 50 प्रतिशत से अधिक की भागीदारी है। इन उत्पादों में विशेष रूप से शामिल हैं पेट्रोलियम उत्पाद, कृषि उत्पाद, मछली एवं मांस के उत्पाद, कैमिकल उत्पाद, दवाईयों के उत्पाद, धातु के उत्पाद, ऑटो, रेल, पानी के जहाज एवं हवाई यातायात के उपकरण आदि। वित्तीय वर्ष 2012-13 में भारत से होने वाले कुल निर्यात के 50 प्रतिशत भाग में केवल 20 उत्पादों का ही योगदान रहता था। इस प्रकार इन 8 वर्षों के दौरान देश से निर्यात किए जाने वाले उत्पादों की टोकरी में शामिल उत्पादों का अच्छा विस्तार हुआ है।
कृषि क्षेत्र से निर्यात का बढ़ना भी देश के लिए हर्ष का विषय है क्योंकि इससे किसानों की आय में वृद्धि दृष्टिगोचर है। वैसे भी हमारे देश में लगभग 60 प्रतिशत आबादी अभी भी ग्रामों में ही निवास करती है जो अपनी आजीविका के लिए मुख्य रूप से कृषि क्षेत्र पर ही निर्भर है। देश के सकल घरेलू उत्पाद में कृषि क्षेत्र का केवल 16 से 18 प्रतिशत तक का योगदान रहता है। ऐसे में यदि कृषि क्षेत्र से निर्यात बढ़ रहे हैं तो इससे किसानों की आय में वृद्धि हो रही है और देश के सकल घरेलू उत्पाद में कृषि क्षेत्र का योगदान बढ़ने के आसार नजर आने लगे हैं एवं इस प्रकार ग्रामीण इलाकों में गरीबी में कमी आने की सम्भावना बनती नजर आ रही है।
कृषि के क्षेत्र में भारतीय किसान ने अपनी मेहनत के बल पर एवं सरकारी नीतियों को लागू करते हुए, कृषि उत्पादों की पैदावार को मांग की तुलना में आपूर्ति आधिक्य की श्रेणी में ला खड़ा किया है। अब भारतीय कृषि क्षेत्र में उत्पादों की पैदावार में आधिक्य रहने लगा है और देश के किसान लगातार साल दर साल बहुत अच्छा उत्पादन करते दिख रहे हैं। विशेष रूप से सरकारी नीतियों एवं उत्पादकता में हो रही वृद्धि भी इस बढ़ती पैदावार में अहम भूमिका अदा कर रही है।
केंद्र सरकार, राज्य सरकार एवं कृषि संस्थानों ने कृषि के क्षेत्र को कई तरह के प्रोत्साहन उपलब्ध कराए हैं। इसके लिए विशेष रूप से कई नई योजनाएं भी लागू की गई हैं। कृषि उत्पादों की गुणवत्ता में बहुत सुधार किया गया है, जिसके चलते भी विदेशों में भारतीय कृषि उत्पादों की मांग लगातार बढ़ती जा रही है। यह पता करने के लिए कि किन-किन देशों में किस-किस कृषि उत्पाद की कमी है, विदेशों में स्थित भारतीय दूतावासों की भी मदद ली गई है, ताकि इन देशों को कृषि उत्पाद भारत से उपलब्ध कराये जा सकें। कृषि उत्पादों की मार्केटिंग एवं निर्यात के लिए सम्पर्क तंत्र को मजबूती प्रदान की गई। कृषि उत्पाद के विदेशी खरीदारों एवं भारत के किसानों की आपस में मीटिंग कराई गई। इसके लिए एक पोर्टल भी बनाया गया है ताकि क्रेता एवं विक्रेता सीधे ही एक दूसरे से माल खरीद एवं बेच सकें। इस संदर्भ में किसानों ने भी कम मेहनत नहीं की है। आत्मनिर्भर भारत, वोकल फोर लोकल एंड लोकल से ग्लोबल, जैसे नारों ने भी देश से कृषि उत्पादों के निर्यात में लगातार हो रही वृद्धि में अपनी अहम भूमिका अदा की है।
हमारे उत्तर पूर्वी राज्यों ने बागवानी की पैदावार में गुणवत्ता की दृष्टि से बहुत विकास किया है। इन राज्यों से बागवानी से हुई पैदावार का बहुत निर्यात हो रहा है, विशेष रूप से दुबई आदि देशों को। विशेष रूप से फल एवं सब्जियां बहुत जल्दी खराब हो जाती हैं, अतः इनके भंडारण के लिए बुनियादी सुविधाओं का तेजी से विकास किया जा रहा है ताकि इन पदार्थों का उचित भंडारण किया जा सके। अब तो दक्षिणी अमेरिकी देशों एवं अमेरिका को भी कृषि उत्पादों का निर्यात किया जाने लगा है। अफ्रीकी देशों को भी कृषि उत्पादों के निर्यात में लगातार वृद्धि हो रही है। उच्च मूल्य वाले कृषि उत्पादों का भी निर्यात अब तेजी से बढ़ रहा है जैसे आम, अंगूर, आदि पदार्थ यूरोपीयन देशों एवं अमेरिका को निर्यात किए जा रहे हैं। अंगूर का निर्यात हाल ही में शुरू किया गया है। जापान, दक्षिण कोरिया जैसे देशों में भी अब भारतीय कृषि उत्पादों के प्रति रुझान बढ़ रहा है।
भारत सदियों से मसाला उत्पादन के क्षेत्र में हमेशा ही पूरे विश्व में सबसे आगे रहा है। आज भी यह स्थिति बरकरार है। पिछले सात सालों में भारत में मसालों का उत्पादन 60 प्रतिशत बढ़कर वित्तीय वर्ष 2020-21 में 106.79 लाख टन के स्तर पर पहुंच गया है, जो कि एक रिकार्ड है। भारत में वित्तीय वर्ष 2014-15 में मसालों का उत्पादन 67.64 लाख टन का रहा था। मसालों के उत्पादन में हो रही वृद्धि के साथ-साथ मसालों के उत्पादन क्षेत्र में भी वृद्धि दृष्टिगोचर है जो इसी अवधि के दौरान 32.24 लाख हेक्टेयर से बढ़कर 45.28 लाख हेक्टेयर हो गया है। भारत में विशेष रूप से मिर्च, अदरक, हल्दी और जीरा जैसे मसालों के उत्पादन में शानदार वृद्धि हुई है और इनके निर्यात भी बहुत तेजी से बढ़े हैं। वित्तीय वर्ष 2014-15 में भारत से 14,899 करोड़ रुपए का 8.94 लाख टन मसालों का निर्यात हुआ था जो वित्तीय वर्ष 2020-21 में लगभग दुगना होकर 29,535 करोड़ रुपए का 16 लाख टन मसालों का निर्यात हुआ है।
भारत सरकार ने हाल ही में उत्पादन आधारित प्रोत्साहन योजना प्रारम्भ की है तथा निर्यातकों को अन्य प्रकार के प्रोत्साहन (यथा निर्यातकों द्वारा कच्चे माल एवं परिष्कृत किए जा रहे माल पर राज्य एवं केंद्र सरकार को अदा किए गए विभिन्न प्रकार के करों की निर्यातकों को वापसी) आदि भी दिए जा रहे हैं। उम्मीद की जानी चाहिए कि उत्पादन आधारित प्रोत्साहन योजना के अंतर्गत शामिल किए गए विभिन्न उद्योगों से भी अब निर्यात बहुत तेज गति से आगे बढ़ेगा। साथ ही, अब तो अन्य देशों की अर्थव्यवस्थाएं भी कोरोना महामारी के असर से उबर कर पटरी पर वापिस आती जा रही हैं, इसका असर भी हमारे देश से होने वाले निर्यात पर अच्छा प्रभाव डाल रहा है। अब तो भारत में कांट्रैक्ट फार्मिंग भी होने लगी है, इससे भी कृषि उत्पादों की उत्पादकता एवं गुणवत्ता में बहुत सुधार होने वाला है। अतः आगे आने वाले 5 से 10 वर्षों में भारत कृषि उत्पादों के क्षेत्र में वैश्विक स्तर पर एक मुख्य निर्यातक देश बन सकता है।
- प्रह्लाद सबनानी
सेवानिवृत्त उप महाप्रबंधक
भारतीय स्टेट बैंक
कांग्रेस आलाकमान मुख्यमंत्री अशोक गहलोत से खुश नजर आ रहा है। माना जा रहा है कि 2023 के राजस्थान विधानसभा चुनाव में कांग्रेस उन्हीं के नेतृत्व में चुनाव लड़ेगी। इससे गहलोत के विरोधी नेताओं के भी धीरे-धीरे सुर बदलने लगे हैं।
राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने अपनी जादूगरी से कांग्रेस आलाकमान को खुश कर दिया है। राजस्थान की राजनीति में उनके विरोधी माने जाने वाले सचिन पायलट व उनके समर्थकों को गहलोत किनारे लगाने में सफल रहे हैं। राजनीति में आने से पहले अशोक गहलोत जादूगरी के पेशे से जुड़े हुए थे। उनके पिता लक्ष्मण सिंह गहलोत अपने जमाने के जाने-माने जादूगर थे। मुख्यमंत्री अशोक गहलोत को भी जादू की कला विरासत में मिली थी। हालांकि अशोक गहलोत जादूगरी के क्षेत्र में तो नहीं गए। मगर समय-समय पर अपनी जादूगरी दिखाकर राजनीति के क्षेत्र में वह लगातार ऊंची सीढ़ियां चढ़ते चले गए।
तीसरी बार राजस्थान के मुख्यमंत्री पद पर काम कर रहे अशोक गहलोत छात्र जीवन से ही कांग्रेस से जुड़ गए थे। उस समय कांग्रेस के दिग्गज नेता रहे हरिदेव जोशी और परसराम मदेरणा के सानिध्य में उन्होंने राजनीति के क्षेत्र में ऊंची छलांग लगाई। 1980 में पहली बार जोधपुर से कांग्रेस के टिकट पर लोकसभा चुनाव जीत कर इंदिरा गांधी के मंत्रिमंडल में उप मंत्री बने। गहलोत राजीव गांधी व नरसिम्हा राव के मंत्रिमंडल में भी राज्य मंत्री रहे। तीन बार प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष, कांग्रेस के राष्ट्रीय महासचिव और कांग्रेस सेवा दल के अध्यक्ष रह चुके अशोक गहलोत जैसे-जैसे राजनीति की ऊंची सीढ़ियां चढ़ते गए वैसे-वैसे एक-एक कर अपने विरोधी नेताओं का सफाया करते गये।
1998 में वरिष्ठ नेता परसराम मदेरणा को मात देकर पहली बार मुख्यमंत्री बने अशोक गहलोत ने उसी कार्यकाल में परसराम मदेरणा, शिवचरण माथुर, पंडित नवल किशोर शर्मा, हीरालाल देवपुरा, नाथूराम मिर्धा, रामनिवास मिर्धा, जगन्नाथ पहाड़िया, कमला, बनवारी लाल बैरवा, रामनारायण चौधरी जैसे बड़े नेताओं को एक-एक कर किनारे लगा दिया। उसके बाद गहलोत राजस्थान कांग्रेस को अपने इर्द-गिर्द घुमाने लगे। 2008 के विधानसभा चुनाव में भी राजस्थान में कांग्रेस को बहुमत नहीं मिला था। इसके उपरांत भी अशोक गहलोत ने बसपा के विधायकों को कांग्रेस में शामिल करवा कर अपनी सरकार बना ली थी।
2018 के विधानसभा चुनाव में सचिन पायलट प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष होने के साथ ही मुख्यमंत्री पद के प्रबल दावेदार थे। विधानसभा चुनाव सचिन पायलट के नेतृत्व में ही लड़ा गया था। हर किसी का मानना था कि कांग्रेस की सरकार बनने पर सचिन पायलट ही मुख्यमंत्री बनेंगे। क्योंकि 2013 का विधानसभा चुनाव अशोक गहलोत के मुख्यमंत्री रहते उनके नेतृत्व में लड़ा गया था। जिनमें कांग्रेस को महज 21 सीटें ही मिल पाई थीं। राजस्थान में कांग्रेस बहुत कमजोर स्थिति में थी। कार्यकर्ता हताश, निराश थे। कांग्रेस कार्यकर्ताओं का मनोबल बुरी तरह से गिरा हुआ था। उस समय कांग्रेस आलाकमान ने युवा नेता सचिन पायलट को प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष बना कर कांग्रेस को फिर से एक बार फिर नए सिरे से मजबूत बनाने की जिम्मेदारी सौंपी थी। सचिन पायलट ने पूरी सक्रियता से प्रदेश में दौरे कर कांग्रेस कार्यकर्ताओं का मनोबल बढ़ाया और विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की सरकार बनाने का मार्ग प्रशस्त किया था। मगर मुख्यमंत्री बनने की बारी आई तब अशोक गहलोत एक बार फिर अपनी जादूगरी दिखाते हुए बाजी पलट कर खुद मुख्यमंत्री बन गए। उस समय सचिन पायलट को मात्र उप मुख्यमंत्री बनकर ही संतोष करना पड़ा था।
2018 में गहलोत के मुख्यमंत्री बनने की जरा भी संभावना नहीं थी। मगर अशोक गहलोत दिल्ली में कांग्रेस आलाकमान को अपने विश्वास में लेकर मुख्यमंत्री के पद पर काबिज हो गए। उस समय कांग्रेस आलाकमान ने सचिन पायलट व उनके समर्थक विधायकों को आश्वस्त किया था कि आधे कार्यकाल के बाद पायलट को मुख्यमंत्री बना दिया जाएगा। मगर आधा कार्यकाल बीतने से पहले ही मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने सचिन पायलट के सामने ऐसी परिस्थितियां उत्पन्न कर दी कि उनको गहलोत सरकार के खिलाफ बगावत करनी पड़ी। अशोक गहलोत इसी मौके की तलाश में थे। उन्होंने कांग्रेस आलाकमान से सचिन पायलट व उनके समर्थक सभी मंत्रियों को पद से बर्खास्त करवा दिया।
यहां तक कि सचिन पायलट को भी उपमुख्यमंत्री व प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष पद से बर्खास्त करवा दिया था। एक समय तो ऐसी परिस्थितियां उत्पन्न कर दी गई थी कि पायलट व उनके समर्थक विधायकों का कांग्रेस से निष्कासन होना तय लग रहा था। मगर ऐन वक्त पर पायलट ने बदली हुई परिस्थितियों को देखकर कांग्रेस आलाकमान के सामने सरेंडर कर दिया था। सचिन पायलट इन दिनों फिर से कांग्रेसी आलाकमान के नजदीक होकर मुख्यमंत्री बनने का दांव चल रहे थे। कांग्रेस के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष राहुल गांधी व महासचिव प्रियंका गांधी भी पायलट के पक्ष में खड़े नजर आ रहे थे।
कांग्रेस आलाकमान ने मुख्यमंत्री अशोक गहलोत पर पायलट समर्थक विधायकों को फिर से मंत्रिमंडल में शामिल करने को लेकर दबाव बनाना शुरू कर दिया था। हालांकि गहलोत ने सवा साल के टालमटोल के बाद पायलट समर्थक चार विधायकों को मंत्रिमंडल विस्तार में शामिल किया। यहां भी गहलोत के सख्त रुख के कारण भारी आरोपों के बावजूद किसी भी मंत्री को हटाया नहीं गया। कांग्रेस आलाकमान के समक्ष गहलोत किसी भी मंत्री को मंत्रिमंडल से हटाने पर सहमत नहीं हुए थे। जिन मंत्रियों को आरोपों के चलते हटाने के कयास लगाए जा रहे थे। मंत्रिमंडल विस्तार में उनमें से कइयों को तो पदोन्नत कर कैबिनेट मंत्री बना दिया गया।
पायलट के लगातार बढ़ते दबाव को कम करने के लिए मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने जयपुर में केंद्र सरकार के खिलाफ कांग्रेस की एक बड़ी सफल रैली करवा कर अपनी ताकत का इजहार कर दिया है। कांग्रेस की रैली में लाखों की भीड़ जुटाकर मुख्यमंत्री गहलोत ने आलाकमान को दिखा दिया कि राजस्थान में आज भी वही सबसे बड़े लोकप्रिय नेता हैं, जो अगले विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को जीत दिला सकते हैं। जयपुर की रैली में कांग्रेस की कार्यकारी अध्यक्ष सोनिया गांधी, राहुल गांधी, प्रियंका गांधी, मल्लिकार्जुन खड़गे, अधीर रंजन चौधरी, केसी वेणुगोपाल, कमलनाथ, छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल सहित सभी बड़े नेता शामिल हुए थे। हालांकि रैली को सोनिया गांधी ने तो संबोधित नहीं किया था। मगर राहुल गांधी ने मोदी सरकार पर जमकर हमला बोला था। रैली की सफलता से सोनिया गांधी, राहुल गांधी, प्रियंका गांधी तीनों ही अभिभूत नजर आ रहे थे। रैली की सफलता के बाद कांग्रेस आलाकमान मुख्यमंत्री अशोक गहलोत को अगले दो साल तक मुख्यमंत्री के रूप में फ्री हैंड देने के मूड में लग रहा है। कांग्रेसी हलकों में चर्चा है कि रैली की सफलता से अशोक गहलोत की पांचों अंगुलियां घी में हो गई हैं। एक तरफ जहां कांग्रेस आलाकमान उनसे खुश नजर आ रहा है। वहीं अगले दो साल तक वह अपने तरीके से मुख्यमंत्री के रूप में काम करेंगे। 2023 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस उन्हीं के नेतृत्व में चुनाव लड़ेगी। इससे गहलोत के विरोधी नेताओं के भी धीरे-धीरे सुर बदलने लगे हैं। अब वह गहलोत के समक्ष शरणागत होने लगे हैं। हालांकि चुनाव के मामले में मुख्यमंत्री गहलोत का पिछला ट्रैक रिकॉर्ड अच्छा नहीं रहा है। मुख्यमंत्री रहते अशोक गहलोत 2003 के विधानसभा चुनाव में मात्र 56 सीटों पर व 2013 के विधानसभा चुनाव में मात्र 21 सीटों पर ही कांग्रेस को जिता पाए थे। मगर मौजूदा परिस्थितियों में कांग्रेस आलाकमान का पलड़ा गहलोत को ही मुख्यमंत्री बनाये रखने के पक्ष में नजर आ रहा है। जो गहलोत के लिए बड़ी राहत की बात है।
-रमेश सर्राफ धमोरा
(लेखक राजस्थान सरकार से मान्यता प्राप्त स्वतंत्र पत्रकार हैं। इनके लेख देश के कई समाचार पत्रों में प्रकाशित होते रहते हैं।)
कश्मीर पर बोलना तो हर कोई चाहता है लेकिन कश्मीर को समझना है तो पहले कश्मीरियों को समझना होगा, उनके मन के भीतर झांकना होगा। हालिया कश्मीर यात्रा के दौरान अनेक कश्मीरियों से सीधे संवाद के दौरान मैंने जाना कि कश्मीरी चाहते क्या हैं, कश्मीरी सोचते क्या हैं।
जम्मू-कश्मीर की शांति भंग करने के लिए पाकिस्तान लगातार प्रयास करता रहता है लेकिन इन प्रयासों को विफल करने के लिए हमारे सुरक्षा बल पूरी तरह मुस्तैद रहते हैं। भारत के इस खूबसूरत राज्य पर कुदरत ने भले अपना पूरा प्यार उड़ेल रखा हो लेकिन कुछ स्वार्थी तत्व इसकी छवि नकारात्मक बनाये रखना चाहते हैं। यही कारण है कि इस राज्य की छवि के साथ आतंकवाद और हिंसा का ठप्पा ऐसे लगाया गया है कि वह सबके दिलो दिमाग पर छप-सा गया है। देखा जाये तो कश्मीर में लगभग सभी चीजें सकारात्मक ही सकारात्मक हैं, नकारात्मक अगर हैं तो सिर्फ मीडिया की खबरें। कश्मीर में अगर एक मुठभेड़ हो जाये तो वह मीडिया की सुर्खियां बन जाती है, ऐसे दर्शाया जाता है कि कश्मीर में बस मुठभेड़ ही मुठभेड़ हो रही है या चारों ओर सिर्फ आतंकवाद ही आतंकवाद फैला है। लेकिन कश्मीर में अगर डल झील इतिहास में पहली बार सबसे ज्यादा साफ नजर आ रही है तो वह कभी खबर नहीं बनती। कश्मीर में अगर सड़कों का तेजी से चौड़ीकरण हो रहा है या गांवों में सड़कों का जाल बिछ रहा है तो यह खबर कहीं पढ़ने को नहीं मिलेगी। कश्मीर में अगर प्रशासन में इस समय सर्वाधिक पारदर्शिता नजर आ रही है तो यह खबर कहीं पढ़ने को नहीं मिलेगी। कश्मीर में किसी विकास परियोजना से उस क्षेत्र की आबादी को बड़ा लाभ हो रहा है या होने वाला है तो वह खबर आपको कहीं नहीं मिलेगी। प्रतिशत के हिसाब से देखें तो इस समय आतंकवाद कश्मीर की मुख्य समस्या है ही नहीं, वहां की मुख्य समस्या है बेरोजगारी। कश्मीर की असल पहचान आतंकवाद नहीं वहां की प्राकृतिक खूबसूरती है, कश्मीर की असल पहचान आतंकवाद नहीं वहां के लोगों की बेहतरीन मेहमाननवाजी है। कश्मीर की पहचान आतंकवाद नहीं वहां के लोगों की भारत भक्ति है।
योजनाओं के क्रियान्वयन में खामियां
कश्मीर पर बोलना तो हर कोई चाहता है लेकिन कश्मीर को समझना है तो पहले कश्मीरियों को समझना होगा, उनके मन के भीतर झांकना होगा। हालिया कश्मीर यात्रा के दौरान अनेक कश्मीरियों से सीधे संवाद के दौरान मैंने जाना कि कश्मीरी चाहते क्या हैं, कश्मीरी सोचते क्या हैं। अनुच्छेद 370 हटने के बाद भले केंद्र सरकार की ओर से यहां केंद्रीय योजनाओं की बाढ़ ला दी गयी हो, भले यहां केंद्रीय मंत्रियों के लगातार दौरे हो रहे हों, भले स्वयं केंद्रीय गृहमंत्री कश्मीर का दौरे करके आये हों, भले उपराज्यपाल मनोज सिन्हा ग्राउण्ड पर उतर कर समस्याओं का हल करने में जुटे हों लेकिन फिर भी यहां बहुत कुछ करना बाकी है। दिल्ली की सरकार और उपराज्यपाल को चाहिए कि योजनाओं के क्रियान्वयन को पूरी तरह प्रशासन पर नहीं छोड़ें और कार्यों की लगातार समीक्षा हो। मैंने पाया कि बड़ी संख्या में ऐसे कश्मीरी हैं जिन्हें यह पता ही नहीं है कि केंद्र सरकार या राज्य प्रशासन उनके लिए क्या-क्या योजनाएं चला रहा है और वह उनका लाभ कैसे उठा सकते हैं। इसके अलावा प्रशासन की ढिलाई या टालने वाली आदत के चलते भी लोग सरकारी दफ्तरों के चक्कर काटने से कतराते हैं इसलिए सरकार को योजनाओं का लाभ आसानी से ऑनलाइन तरीके से मिल सके इसके प्रयास करने चाहिए।
क्या चाहता है कश्मीरी युवा?
कश्मीर के युवाओं को भटकाने के प्रयास भले सीमापार से होते हों लेकिन अधिकांश कश्मीरी युवा मुख्यधारा में रह कर अपनी रोजी-रोटी कमाने में यकीन रखते हैं। कश्मीरी युवाओं के मन की बात को समझने के दौरान यह बात उभर कर आयी कि वह अपने क्षेत्र में ही रह कर काम करना चाहते हैं, वह चाहते हैं कि वह अपने परिवार के साथ ही रहें, वह चाहते हैं कि सरकारी नौकरी मिले, अगर नहीं मिले तो स्वरोजगार में सरकार मदद करे। वह बाहरी कंपनियों के कश्मीर में प्रवेश के विरोधी नहीं हैं मगर यह जरूर चाहते हैं कि उन्हें नौकरी पर रखा जाये और उनके साथ असम्मानजनक व्यवहार नहीं किया जाये। कश्मीरी युवा चाहते हैं कि उनके लिए पढ़ाई-लिखाई का अच्छा प्रबंध हो, व्यवसायिक पाठ्यक्रम आसानी से उपलब्ध हों और वह अगर अन्य राज्यों में रह कर पढ़ाई कर रहे हैं तो उन्हें संदेह की दृष्टि से नहीं देखा जाये। श्रीनगर में वैसे तो अनेक युवाओं से मैंने बातचीत की लेकिन आज विशेष रूप से मुराद कादरी का जिक्र करना चाहूँगा जिन्होंने उच्च शिक्षा हासिल की लेकिन नौकरी नहीं मिली, सरकारी योजना का लाभ भी नहीं मिला तो अपना एक छोटा-सा कैफे ही खोल दिया और आज यह अच्छा चल रहा है। मुराद कादरी का अपने परिवार और राष्ट्र के प्रति स्नेह भी काफी प्रेरणादायी लगा। एक और युवा जोकि एमए कर चुका है जब उनसे यह पूछा कि आपने ड्राइवर पेशा ही क्यों चुना तो उनका कहना था कि यहां नौकरी है नहीं और मैं अपने परिवार को छोड़ कर बाहर जाना नहीं चाहता। साथ ही उनका कहना था कि मुझे पर्यटकों को अपने राज्य की खूबसूरती दिखाने में बहुत आनंद आता है इसलिए मैं इसी पेशे में बना रहूँगा। कश्मीर में खासतौर पर जिन परिवारों में एक ही लड़का है वह अपने परिवार के साथ ही रहना चाहता है जहां दो या तीन भाई हैं उनमें से जरूर कोई नौकरी के लिए बाहर चला जाता है।
सरकारी नीतियों पर उठ रहे सवाल!
कश्मीरी लोग यह भी चाहते हैं कि सरकार की नीतियां अटपटी-सी नहीं हों। जैसे कि एक कश्मीरी ने बातचीत में कहा कि एक ओर सरकार आतंकवाद की राह पर चलने वाले लोगों से आत्मसमर्पण करने को कहती है और उन्हें सामान्य जीवन जीने में मदद करने के लिए रोजगार का प्रबंध करने की बात कहती है लेकिन दूसरी ओर ऐसे लोगों को नौकरी से निकाला जा रहा है जिनका दस साल पहले आतंकवाद से संबंध रहा हो। कुछ लोगों ने यह भी कहा कि जो आतंकवाद की राह पर चले गये हैं उन्हें लौटने में परेशानी यह है कि उन्हें सामान्य जीवन जीने का मौका नहीं मिलता। उनका कहना था कि नौकरी से लेकर किसी भी काम के लिए पुलिस से एनओसी नहीं मिलती।
क्या वाकई कम हुई दिल्ली और कश्मीर के बीच दिल की दूरी?
कश्मीर की राजनीतिक स्थिति की बात करें तो भले कुछ समय पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दिल्ली में जम्मू-कश्मीर के राजनीतिक दलों के प्रमुखों की बैठक बुला कर दिल्ली और कश्मीर के बीच दिल की दूरी को कम करने का प्रयास किया था। इस बैठक को लेकर राजनीतिक रूप से खूब चर्चा भी रही लेकिन जनता से बात करने पर पता लगा कि उन्हें इससे कोई ज्यादा मतलब नहीं था। जनता से बात करने पर पता चला कि लोग भाजपा से खासतौर पर इसलिए नाराज हैं क्योंकि भ्रष्टाचार के सारे सुबूत होने के बावजूद अब तक फारूक अब्दुल्ला को गिरफ्तार नहीं किया गया। जम्मू-कश्मीर की 'बदहाली' के लिए लोग नेशनल कांफ्रेंस और कांग्रेस को सर्वाधिक जिम्मेदार मानते हैं। लोगों की शिकायत यह है कि फारूक अब्दुल्ला कश्मीर में कुछ और कहते हैं, जम्मू में कुछ और कहते हैं और जब दिल्ली जाते हैं तो कुछ और ही कहते हैं। लोगों का कहना था कि जब भी केंद्र सरकार के लोग बात करते हैं तो यहां के राजनेताओं से करते हैं जबकि इन्हीं कश्मीरी राजनेताओं ने जनता को सर्वाधिक लूटा है, ठगा है। गुपकार गठबंधन के प्रति भी लोगों का कोई खास आकर्षण नहीं नजर आया। डीडीसी चुनावों में गुपकार गठबंधन में शामिल दलों को मिली सफलता के बारे में लोगों का कहना था कि स्थानीय चुनाव में लोग उम्मीदवार को देखते हैं पार्टी को नहीं इसलिए इन दलों को कई जगह सफलता जरूर मिली है।
विकास की बात स्वीकार कर रहे लोग
कश्मीरी लोगों का यह भी कहना था कि जब दिल्ली से कोई नेता यहां लोगों से संवाद करने आता है तो आम लोगों से नहीं मिलवा कर उन्हें कुछ खास लोगों से मिलवा दिया जाता है। लोगों का सुझाव था कि जब दिल्ली से कोई नेता यहां आये तो उसे औचक रूप से किसी भी क्षेत्र में जाकर वहां के लोगों से बात करनी चाहिए ना कि अधिकारी या स्थानीय नेता जो बता दें उस पर विश्वास करना चाहिए। राजनीतिक रूप से पलड़ा किसी एक के पक्ष में यहां नहीं दिखा लेकिन एक बात साफ तौर पर नजर आई कि जनता इस बात को मान रही है कि कश्मीर में विकास हो रहा है। जैसे एक व्यक्ति ने कहा कि मैं भाजपा का विरोधी हूँ लेकिन यह मानता हूँ कि पहली बार डल झील इतनी साफ है वरना इसकी सफाई के नाम पर अब तक सिर्फ घोटाले ही हुए। एक व्यक्ति ने कहा कि मैं भाजपा का विरोधी हूँ लेकिन यह बात मानता हूँ कि बिजली सप्लाई की स्थिति में बहुत सुधार हुआ है, एक व्यक्ति ने कहा कि मैं भाजपा का विरोधी हूँ लेकिन यह बात मानता हूँ कि सड़कें बहुत बेहतरीन हुई हैं। ऐसे ही अनेक लोगों से सीधा संवाद हुआ जोकि भाजपा के समर्थक नहीं थे लेकिन कश्मीर में चल रहे विकास कार्यों की बात को उन्होंने स्वीकार किया।
कश्मीर पुलिस की चुनौतियां
कश्मीर में इस समय सर्वाधिक चुनौतीपूर्ण कार्य किसी का है तो वह है राज्य पुलिस का। जम्मू-कश्मीर पुलिस पर कानून व्यवस्था की स्थिति सही से बनाये रखने की जिम्मेदारी तो है ही आतंकवाद रोधी अभियानों में भी उसकी महती भूमिका होती है। आजकल आतंकवादियों के निशाने पर भी पुलिस बल के जवान ही हैं। इस लिहाज से देखें तो देशभर में जम्मू-कश्मीर पुलिस ही है जो सर्वाधिक बड़ी चुनौतियों से कुशलतापूर्वक जूझ रही है। खतरों की परवाह नहीं करते हुए जम्मू-कश्मीर पुलिस जिस दृढ़ता और जज्बे के साथ हालात का सफलता से सामना कर रही है उसके लिए वह प्रशंसा के योग्य है। हालांकि पुलिसकर्मियों के परिजन जरूर सदैव चिंतित रहते हैं। श्रीनगर में एक पुलिसवाले ने बातचीत के दौरान अपना फोन दिखाते हुए कहा कि पिछले एक घंटे में कई बार घर से फोन आया और हर बार यही कहा गया कि आसपास देखते रहो। उल्लेखनीय है कि पुलिस पर हमले अचानक ही किये जा रहे हैं ताकि उन्हें संभलने का अवसर नहीं मिले।
सुरक्षा जाँच से परेशान होते हैं कश्मीरी?
जहां तक सेना और अर्धसैनिक बलों की बात है तो उनके लिए भी चुनौतियां कम नहीं हैं। मौसम संबंधी विपरीत परिस्थितियों में भी कश्मीर की सुरक्षा बनाये रखने के लिए हमारे जवान तत्पर रहते हैं। यहां सुरक्षा बलों के जवानों से मुलाकात करके आपको पूरा भारत नजर आयेगा क्योंकि वह सभी विभिन्न प्रदेशों से संबंध रखते हैं। सुरक्षा बलों के जवान चाहे पुरुष हों या महिला, सभी मुस्तैदी के साथ अपने कर्तव्यों के निवर्हन में लगे हुए हैं। हालांकि कुछ उपद्रवी तत्वों की वजह से अक्सर होने वाली सुरक्षा जाँच के चलते लोगों को परेशानी जरूर होती है लेकिन यह जरूरी भी है क्योंकि कश्मीर की शांति भंग करने के लिए पाकिस्तान बस मौके की तलाश में ही रहता है। पाकिस्तान की कोशिश सिर्फ कश्मीर में अशांति फैलाने की नहीं रहती बल्कि वह चाहता है कि कश्मीरियों को संदिग्ध निगाह से देखा जाये। पाकिस्तान मानता है कि जब भारत के अन्य राज्यों के लोगों और कश्मीरियों के बीच 'दिल की दूरी' बढ़ेगी तभी उसका मिशन सफल होगा। यही नहीं संभवतः पाकिस्तान की शह पर ही एक ओर अभियान चल रहा है जिसके तहत खासतौर पर भाजपा नेताओं के खिलाफ मनगढ़ंत टाइप की खबरें और वीडियो बनाकर व्हाट्सएप पर भेजे जा रहे हैं। जैसे मैंने पहलगाम में एक ड्राइवर को एक वीडियो देखते पाया जिसका शीर्षक था- 'योगी आदित्यनाथ ने कैसे कत्ल किये?' जाहिर है एक जहर फैलाने का अभियान चल रहा है।
बेवजह का डर फैलाया जा रहा
हाल ही में सरकार ने संसद में बताया था कि अनुच्छेद 370 हटने के बाद से अन्य राज्यों के लोगों ने सिर्फ जम्मू में जमीन खरीदी है कश्मीर में नहीं। यहां कहा जा सकता है कि ऐसा सिर्फ बेवजह के डर से हुआ होगा। दरअसल जब कश्मीरियों से बात की जाती है तो वह कहते हैं कि हमें यहां किसी बाहरी के आने से कोई दिक्कत नहीं है बस हमारे लिये रोजगार के अवसर बरकरार रहने चाहिएं। लोगों का कहना है कि हम भी चाहते हैं कि कश्मीर में बहु-संस्कृति दिखे लेकिन कश्मीरी संस्कृति की प्रधानता बनी रहे। लोग चाहते हैं कि कश्मीर में उद्योग-धंधे लगें लेकिन जैसे कुछ राज्यों ने रोजगार में स्थानीय लोगों के लिए आरक्षण कर रखा है वैसे ही यहां भी हो। इसलिए कश्मीर में यदि आप घूमना चाहते हैं या फिर वहां निवेश करना चाहते हैं तो जो भी फैसला लें वह मीडिया की खबर के आधार पर कभी नहीं लें।
कश्मीरी पंडितों की वापसी के पक्ष वाला माहौल
कश्मीरी पंडितों की जहां तक बात है तो जरूर कई इलाकों में उनके घर सूने दिखे लेकिन वहां रहने वाले अन्य लोग यही चाहते हैं कि कश्मीरी पंडित घर लौटें। देखा जाये तो हालात उनके लिए पहले की अपेक्षा अनुकूल हुए हैं बस उनका विश्वास और बढ़ाने की जरूरत है। कश्मीरी पंडितों के इलाकों में यदि उनकी घर वापसी का एक अभियान गाजे-बाजे के साथ चलाया जाये तो उसके अच्छे नतीजे देखने को मिल सकते हैं। कश्मीर में सामाजिक और साम्प्रदायिक सद्भाव अन्य राज्यों की अपेक्षा बहुत अच्छा है और यह हमारी समृद्ध कश्मीरी संस्कृति को दर्शाता है। हालांकि जब-जब कश्मीरी पंडितों की वापसी की बात चलती है तो एकाध घटनाओं के जरिये डर का माहौल बनाया जाता है इसलिए कश्मीरी पंडितों की घर वापसी के अभियानों के दौरान सुरक्षा को उच्च स्तर पर बनाये रखने की जरूरत है।
कश्मीर में पर्यटन की बात ही अलग है
देखा जाये तो कश्मीर ऐसी जगह है जहां हर किसी को सपरिवार जरूर जाना चाहिए। यह देश के किसी भी अन्य पर्यटक स्थल से ज्यादा सुंदर है, यहां किसी तरह का प्रदूषण नहीं है, यहां के लोग भी अच्छे हैं, यहां के रोड़ भी अच्छे हैं, आपके बजट मुताबिक यहां सभी सुविधाएं भी उपलब्ध हैं, यदि आप वेजिटेरियन हैं तो भी यहां भोजन के बहुत से अच्छे रेस्टोरेंट, ढाबे और होटल हैं। कश्मीर इसलिए भी जाना चाहिए क्योंकि कश्मीरी संस्कृति को भी करीब से जानने-समझने की जरूरत है, जाना इसलिए भी चाहिए ताकि जम्मू-कश्मीर में पर्यटन क्षेत्र से जुड़े लोगों की आय होती रहे। हमें ध्यान रखना चाहिए कि खाली बैठे लोग ही इधर-उधर भटकते हैं, यदि जीवन अच्छे से चलता रहे तो शायद कोई गलत राह पर नहीं जायेगा। यहां एक कश्मीरी से बातचीत का जिक्र करना चाहूँगा जिन्होंने मुझसे वार्ता के दौरान दुख जताते हुए कहा कि जब परिवार में कोई बीमार होता है तो अन्य भाई उसकी मदद करते हैं ऐसे में यदि कश्मीर रूपी भाई बीमार है तो अन्य राज्यों को भी भाई की तरह मदद करनी चाहिए।
सुरक्षित है कश्मीर
बहरहाल, जहां तक पर्यटकों की बात है तो उन्हें वैसे भी किसी बात का डर नहीं होना चाहिए क्योंकि एक तो बड़ी तादाद में यहां सुरक्षा बल मौजूद हैं दूसरा जब आप ड्राइवर, गाइड, काह्वा बेचने वाले, मैगी बेचने वाले, तमाम तरह की राइड कराने वालों से बात करते हैं तो वह यही कहते हैं कि हम पर्यटकों के सुरक्षा गार्ड भी हैं और किसी पर कोई आंच नहीं आने दे सकते। वैसे तो आतंकवाद रूपी समस्या की किसी से तुलना नहीं की जा सकती लेकिन इसे आप किसी अन्य प्रदेश में जैसे अपराध होते ही रहते हैं और पुलिस अपराधियों पर शिकंजा कसती ही रहती है उस तरह से भी देख सकते हैं। आतंकवाद कश्मीर की पहचान नहीं है और हमें इसकी यह पहचान बनने भी नहीं देनी है।
- नीरज कुमार दुबे
श्रीरामजन्मभूमि पक्ष की ओर से कहा गया था कि उस स्थान पर महाराजा विक्रमादित्य के समय से एक मंदिर था जिसके कुछ हिस्से को बाबर की सेना के कमांडर मीर बांकी ने नष्ट किया था और मस्जिद बनाने का प्रयास किया था। उसने उसी मंदिर के खम्भे आदि इस्तेमाल किये।
भारतीय समाज के कम ही लोगों को पता है कि महाराज विक्रमादित्य ने भी बाबा महाकाल मंदिर की शोभा बढ़ाने के साथ साथ लोप हो चुकी अयोध्या की फिर से खोज करने तथा श्री राम जन्म मंदिर के पुनर्निर्माण कराने का महती कारज भी किया था। आज से कोई 2078 बरस पहले, जिसे बाबर के सेनापति मीर बांकी ने 1528 में ध्वस्त किया था और जिस पर अब भव्य राम मंदिर का पुनर्निर्माण हो रहा है। साथ ही अयोध्या में 240 नये मंदिरों का तथा 60 प्राचीन मंदिरों के निर्माण का श्रेय भी महाराजा विक्रमादित्य को जाता है। यह कोई कपोल कल्पित बात नहीं है, बल्कि सर्वोच्च न्यायालय में दी गयी तथ्यात्मक दलील का भाग है जिसे न्यायालय द्वारा मान्यता दी गयी है. इसका विस्तार से उल्लेख गीता प्रेस, गोरखपुर द्वारा प्रकाशित पुस्तक ‘अयोध्या दर्शन’ में भी मिलता है।
उल्लेखनीय है कि श्रीरामजन्मभूमि पक्ष की ओर से कहा गया था कि उस स्थान पर महाराजा विक्रमादित्य के समय से एक मंदिर था जिसके कुछ हिस्से को बाबर की सेना के कमांडर मीर बांकी ने नष्ट किया था और मस्जिद बनाने का प्रयास किया था। उसने उसी मंदिर के खम्भे आदि इस्तेमाल किये। ये खम्भे काले कसौटी पत्थर के थे और उन पर हिन्दू देवी-देवताओं की आकृतियां खुदी हुई थी। इस निर्माण कार्य का बहुत विरोध हुआ और हिन्दुओं ने कई बार लड़ाईयां लड़ीं जिसमें लोगों की जानें भी गई। अंतिम लड़ाई 1855 में लड़ी गयी थी। इस सबके कारण वहां मस्जिद की मीनार कभी नहीं बन सकी और वुजू के लिए पानी का प्रबंध भी कभी ना हो सका।
सुप्रसिद्ध जर्मन विद्वान मैक्समूलर ने भी श्री नागेश्वरनाथ मंदिर के प्रति अपने विचार प्रकट करते हुए लिखा है कि- ‘इस मंदिर पर नामालूम कितनी आंधियां और भयंकर तूफान आए परंतु यह सबको बर्दाश्त करता हुआ अपने स्थान पर अडिग और अचल खड़ा है।’ महाराज विक्रमादित्य ने जब अयोध्या की पुनः खोज की तो सबसे पहले इसी स्थान का पता लगा। जनश्रुति के अनुसार महाकवि कालिदास को ‘स्त्रीयोनि’ में जन्म लेने का श्राप यहीं से मिला था। डाउसन के अनुसार महाराजा विक्रमादित्य ने 240 नये मंदिर बनवाये और 60 का जीर्णोद्धार किया।
शुभशील के पंचशती बोध में महाराजा विक्रमादित्य द्वारा अयोध्या में उत्खनन करके चर्मकार स्त्री की स्वर्णजरी की जूतियां अन्वेषण की कथा है। अयोध्या दर्शन (गीता प्रेस, गोरखपुर, पृष्ठ 98-99) के अनुसार महाराजा विक्रमादित्य द्वारा निर्मित प्राचीन मंदिरों में हैं-
1. श्रीरामजन्म भूमि मंदिर :
श्रीराम जन्म स्थान पर कसौटी पत्थर के 84 स्तंभों और सात कलशों वाला मंदिर महाराजा विक्रमादित्य ने बनवाया था। जिसे 1528 ई. में मुगल बादशाह बाबर के सेनापति मीरबांकी ने ध्वस्त कर दिया था। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग द्वारा किये गये उत्खनन में वहां हिन्दू देवी-देवताओं की मूर्तियां, प्रतीक और स्तंभ प्राप्त हुए हैं जिसके आधार पर वहां एक भव्य मंदिर था, इस बात की पुष्टि हुई है।
2. कनक भवन :
अयोध्या राजवंश के पराभव के बाद कनक भवन भी जर्जर होकर ढह गया। सोने का यह महल माता कैकेयी ने सीताजी को मुंह दिखाई में दिया था। यह श्रीराम-जानकी का विहारस्थल है। महाराजा विक्रमादित्य ने 57 ई.पू. में कनक भवन पुनःनिर्मित कराया। उसे लगभग 11वीं शती ई. में यवनों ने ध्वस्त कर दिया। वर्तमान कनक भवन का निर्माण ओरछा नरेश सवाई महेन्द्र श्रीप्रतापसिंह की धर्मपत्नी महारानी वृषभानुकुंवरि द्वारा सन् 1891ई. में करवाया।
3. रत्नसिंहासन मंदिर :
जन्मस्थान के पास रत्नमंडप ही रत्नसिंहासन मंदिर है। यहां भगवान श्रीराम का राज्याभिषेक हुआ था। कनक भवन के निकट दक्षिण में है। यहां विक्रमादित्यकालीन तीन मूर्तियां हैं। दुर्र्भाग्य से यह स्थान अपनी स्वतंत्र पहचान खोता जा रहा है।
4. लक्ष्मण मंदिर, सहस्त्रधारा तीर्थ:
सहस्त्रधारा तीर्थ (लक्ष्मण घाट पर) लक्ष्मणजी के शरीर छोड़ने के स्थान पर यह मंदिर है। यहां रामांज्ञा से श्री लक्ष्मणजी शरीर छोड़कर परमधाम पधारे थे। यहां मंदिर में शेषावतार लक्ष्मणजी की 5 फुट ऊंची चतुर्भुज मूर्ति है। यह मूर्ति सामने कुंड में पायी गयी थी। लक्ष्मण घाट पर यह मंदिर लक्ष्मणकिला के निकट स्थित है। नागपंचमी एवं पूरे वैशाख मास में यहां विशेष भीड़ रहती है।
5. बड़ी देवकाली (शीतलादेवी दुर्गाकुण्ड पर):
इन्हें भगवान श्रीरामचंद्रजी की कुलदेवी कहा जाता है। द्वापर युग में सूर्यवंशी महाराज सुदर्शन द्वारा यहां एक मंदिर की स्थापना की गई। कालांतर में महाराजा विक्रमादित्य ने शालग्राम शिलामय की त्रिदेवियों की स्थापना की गयी। यहां एक ही शिला में महाकाली, महालक्ष्मी एवं महासरस्वती शक्तियंत्र सहित अंकित है। अयोध्या के इस आदिशक्तिपीठ पर आज भी अयोध्यावासी बड़ी श्रद्धा रखते हैं। यहां एक जल से परिपूर्ण सरोवर (कंुड) भी है। 2002ई. में मंदिर एवं सरोवर का जीर्णोद्धार किया गया है। यह फैजाबाद चौक से आग्नेय (दक्षिण पूर्व) कोण में स्थित है।
6. छोटी देवकाली गिरिजा:
छोटी देवकाली गिरिजा (ईशान देवी) नामक प्रसिद्ध मंदिर है। इस विग्रह की स्थापना त्रेतायुग में श्रीसीताजी द्वारा की गई थी जिसे वे अपने साथ जनकपुर से लायी थीं। यह स्थान मत्तगजेन्द्र चौराहे के पास सप्तसागर के निकट अयोध्या में ही है। (पृष्ठ-98-99)
वर्ष 2019 को उच्चतम न्यायालय का फैसला प्रकट हुआ। तद्नुसार श्रीरामजन्म भूमि पक्ष की ओर से कहा गया था कि उस स्थान पर महाराजा विक्रमादित्य के समय से एक मंदिर था। (पृष्ठ-81) उज्जयिनी के सम्राट विक्रमादित्य ने इसकी खोज कर इस (अयोध्या) को पुनः बसाया।(पृष्ठ-92) महाराजा विक्रमादित्य ने अयोध्या की पुनः खोज की तो सर्वप्रथम नागेश्वर मंदिर मिला। (पृष्ठ-75 एक कथानुसार महाकवि कालिदास को स्त्री योनि में जन्म लेने का श्राप यहीं से मिला था। (पृष्ठ-45-46)
डॉ. श्रीराम अवतार ‘श्रीराम जन्मभूमि : अयोध्या का इतिहास मे’ लिखते हैं कि सात मोक्षदायिनी नगरियों में प्रथम नगरी अयोध्या सतयुग में महाराज मनु ने बसायी थी। सरयू नदी के किनारे बसी यह नगरी 12 योजन (144 किलोमीटर) लम्बी तथा 3 योजन (36 किलोमीटर) चौड़ी थी। चक्रवर्ती सम्राट दशरथजी ने इसे विशेष रूप से बसाया था। इसमें सभी प्रकार के बाजार थे। तथा इसकी रक्षा खाइयों, किवाड़ों, और शताध्रियों से होती थी। महाराज इक्ष्वाकु, अनरण्य, मान्धाता, प्रसेनजित, भरत, सगर, अंशुमान, दिलीप, भगीरथ, ककुत्थ्य, रघु, अम्बरीष जैसे सम्राटों की यह राजधानी रही। श्रीरामजी की आज्ञा से इसके प्रधान देवता हनुमानजी हैं।
वे आगे लिखते हैं कि श्रीराम के परमधाम पधारने पर यह नगरी जनशून्य हो गई थी। तब महाराज कुश ने इसे पुनः बसाया था। यह पावन नगरी जब पुनः लुप्त हो गई तब लगभग 2500 वर्ष पूर्व उज्जयिनी के सम्राट विक्रमादित्य ने इसकी खोज कर इसे पुनः बसाया था। 1525 ई. में बाबर के मीर बांकी ने यहां के श्रीराम जन्मभूमि मंदिर को ध्वस्त कर दिया था। श्रीराम जन्मभूमि मंदिर की रक्षा के लिए संघर्ष का इतिहास काफी लम्बा है।
लेखक के अनुसार बाबर के पुत्र हुमायूं के शासनकाल में हसवर के स्वर्गीय राजा रणविजयसिंह की महारानी जयकुमारी ने तीस हजार स्त्री सैनिकों के साथ मंदिर पर पुनः अधिकार प्राप्त कर लिया था। उनके गुरु स्वामी रामेश्वरानंद ने हिन्दू-जागरण किया। किन्तु तीसरे दिन हुमायूं की सेना आ गयी और पुनः मुसलमानों का कब्जा हुआ। अकबर के समय में हिन्दुओं ने बीस बार आक्रमण किये किन्तु उन्नीस बार असफल रहे। 20वीं बार रानी और उनके गुरु बलिदान हो गये। किन्तु हिन्दुओं ने चबूतरे पर कब्जा कर राम मंदिर बनाया।
जहांगीर एवं शाहजहां के समय में शांति रही। औरंगजेब ने जांबाज के नेतृत्व में सेना भेजी, पर स्वामी वैष्णवदास के दस हजार चिमटाधारी साधुओं ने रेलवे के सोहावल स्टेशन के निकट अपना पड़ाव डाला था। खिलजी के आक्रमण से मंदिर का बाहरी भाग तो ध्वस्त हो गया किन्तु जब मुख्य भाग पर उसने आक्रमण किया, उस समय स्थानीय जनता ने ठाकुर परशुरामसिंह था श्री गणराजसिंह के नेतृत्व में आक्रमणकारियों से डटकर लोहा लिया। अंत में आताताइयों को बुरी तरह से यहां हारना पड़ा। तीसरा बड़ा आक्रमण इस मंदिर पर औरंगजेब का हुआ। उसने नागेश्वर मंदिर के निकटस्थ अहिल्याबाई घाट पर स्थिति श्रीत्रेतानाथ के मंदिर को ध्वस्त कर उस स्थान पर विशाल मस्जिद खड़ी कर दी, जो आज भी टूटी-फूटी अवस्था में खड़ी है।
इस संबंध में हैमिल्टन नामक विद्वान ने अपनी पुस्तक ‘वॉकिंग ऑफ द वर्ल्ड’ में लिखा है-‘मुसलमानी शासनकाल में अयोध्या के प्रसिद्ध नागेश्वरनाथ के मंदिर को गिरवाकर वहां मस्जिद खड़ी करने के विचार से दो बार आक्रमण किये गये, मगर वे नाकामयाब रहे।’
अयोध्या के इस अत्यंत प्राचीन शिव मंदिर के सम्बन्ध में पाश्चात्य इतिहासकारों ने, जिनमें उल्लेखनीय है- रैमिन्टन, कर्निंघम, जार्ज विलियम रेनॉल्ड्स, विसेंट स्मिथ, मैक्स मूलर, बेवर, लूथर, वूलर, हण्ट, सिटनी, ह्रिटमैन, बिल्फ्रेड, एच. इलियेट, सर जॉन फ्रांकिक तथा इनके अतिरिक्त भारतीय विद्वान श्री भांडारकर प्रभृति ने बहुमूल्य ऐतिहासिक तथ्य, संस्मरण एवं जानकारीपूर्ण उद्गार प्रस्तुत किये हैं। जिनसे नागेश्वरनाथ मंदिर के इतिहास एवं गौरवशाली अतीत पर पर्याप्त प्रकाश पड़ता है।
- डॉ अजय खेमरिया
श्रद्धेय अटल बिहारी वाजपेयी जी एक अध्ययनशील राजनेता थे, उनका मानना था कि शिक्षा ही किसी भी व्यक्ति, समाज और राष्ट्र की उन्नति के द्वार खोलती है। इसी क्रम में 2004 में उन्होंने राज्य को तीन विश्वविद्यालयों की सौगात देने का कार्य किया।
देश के भारत रत्न पूर्व प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी को उनकी 97वें जयंती पर आज पूरा देश याद कर रहा है। हम छत्तीसगढ़ के लोगों के लिए श्रद्धेय अटल जी सिर्फ एक वैश्विक राजनेता नहीं बल्कि हमारे अभिभावक व संरक्षक थे। छत्तीसगढ़ के तीन करोड़ नागरिक अटल जी के ह्दय में बसते थे और छत्तीसगढ़ ने भी अपने पितृपुरुष को खूब स्नेह दिया। मध्यप्रदेश से अलग राज्य के निर्माण की सौगात देने से लेकर राज्य में शैक्षणिक व अन्य बुनियादी सुविधाओं के विकास में अटलजी ने हमेशा छत्तीसगढ़ को वरीयता दी। राजनीति में प्रतिबद्धता कितनी महत्वपूर्ण होती है, इसका एक उदाहरण आज भी मुझे स्मरण आता है। 1998 में रायपुर के सप्रे शाला मैदान में एक सभा के दौरान दौरान अटल जी ने कहा कि आप लोग मुझे 11 सांसद दीजिए, मैं आपको सबके उम्मीदों का छत्तीसगढ़ राज्य बनाकर दूंगा। चुनाव परिणाम में भाजपा को 11 में से 10 सांसद चुनकर आए, तब भी तत्कालिन प्रधानमंत्री रहते हुए उन्होंने न सिर्फ छत्तीसगढ़ राज्य बनाया बल्कि बतौर प्रधानमंत्री एक राज्य को पल्लवित और पोषित करने में अग्रणी भूमिका का निर्वहन करते रहे।
श्रद्धेय अटल बिहारी वाजपेयी जी एक अध्ययनशील राजनेता थे, उनका मानना था कि शिक्षा ही किसी भी व्यक्ति, समाज और राष्ट्र की उन्नति के द्वार खोलती है। इसी क्रम में 2004 में उन्होंने राज्य को तीन विश्वविद्यालयों की सौगात देने का कार्य किया। प्रदेश में कुशाभाऊ ठाकरे पत्रकारिता एवं जनसंचार विश्वविद्यालय रायपुर, तकनीकी विश्वविद्यालय दुर्ग और पं. सुंदरलाल शर्मा मुक्त विश्वविद्यालय बिलासपुर की स्थापना भारत रत्न श्री अटल जी के कर कमलों से हुई। इन शैक्षणिक संस्थानों के जरिए छत्तीसगढ़ के युवा राष्ट्र निर्माण में आज अपनी महती भूमिका सुनिश्चित कर रहे हैं। श्रध्देय अटल जी अपने वैचारिक असहमतियों के बावजूद विरोधी पक्ष के नेताओं के बीच अत्यंत लोकप्रिय रहे। छत्तीसगढ़ राज्य की स्थापना के समय राज्य में कांग्रेस की सरकार थी, बावजूद उसके श्रद्धेय अटल जी राज्य को पूरा सहयोग करते रहे। छत्तीसगढ़ के समग्र विकास में गैर दलीय आधार उन्होंने प्रोत्साहित किया। यही वजह है कि हमारे छत्तीसगढ़ में विरोधी दल के नेताओं के ह्दय में भी अटल जी सुखद स्मृतियों के साथ बसते हैं।
पूर्व प्रधान मंत्री अटल जी सच्चे अर्थों में आदिवासियों, वंचितों और गरीबों तक सुशासन की बयार ले जाने के समर्थक थे। उन्होंने छत्तीसगढ़, झारखंड और उत्तराखंड जैसे छोटे राज्यों के निर्माण के जरिए देश को अंत्योदय की एक ऐसी दृष्टि दी, जिसमें सुशासन अंतिम पायदान पर खड़े व्यक्ति तक स्वयं पहुंचता है। हमें गर्व है कि भारतीय जनता पार्टी की पूर्ववर्ती सरकार ने छत्तीसगढ़ को विकास के पथ पर ले जाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। छत्तीसगढ़ में आज नेताओं की जो पीढ़ी सार्वजनिक जीवन में सक्रिय है, उनमें अधिसंख्य राजनीति में अटल जी की प्रेरणा से आए हैं। भारतीय जनता पार्टी के एक अभिन्न घटक होने के नाते हम सभी गौरवान्वित हैं कि प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी जी के नेतृत्व में आज केंद्र की भाजपा सरकार अटल जी के स्वप्न को हर क्षेत्र में साकार करने का कार्य कर रही है। राष्ट्र में सुशासन के जनक श्रद्धेय अटल बिहारी वाजपेयी जी कृतित्व को अपनाकर हम सभी छत्तीसगढ़ को विकासवादी राजनीति के मार्ग पर ले जाएंगे, यही उन्हें हमारी सच्ची आदरांजली होगी।
- धरमलाल कौशिक
(लेखक छत्तीसगढ़ विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष हैं)
यूपी में बीजेपी का कमजोर होने का मतलब केन्द्र में मोदी सरकार की भी ताकत का क्षीण होना तय है। इसी लिए पीएम मोदी भी यूपी विधान सभा चुनाव में पूरी ताकत झोंके हुए हैं। एक तरह से 2017 की तरह 2022 के विधान सभा चुनाव भी बीजेपी मोदी के चेहरे पर ही चुनाव की बिसात बिछा रही है।
उत्तर प्रदेश की योगी सरकार को भी क्या सत्ता विरोधी लहर का सामना करना पड़ेगा, जैसा की किसी भी चुनाव में अमूमन सभी सरकारों को करना पड़ता है। चुनाव कोई भी हो,लेकिन प्रत्येक चुनाव में करीब 3-4 प्रतिशत ऐसे वोटर अवश्य निकल आते हैं जो सरकार के कामकाज से नाखुश होकर उसके खिलाफ वोटिंग करते हैं। इन्हीं तीन-चार फीसदी वोटरों की नाराजगी के चलते कई बार सरकारें बदल भी जाती हैं। फिर यूपी का तो इतिहास ही रहा है कि यहां कोई भी पार्टी दोबारा सत्ता में नहीं आई है.बीजेपी चाहती है कि उसकी सत्ता में वापसी हो तो उसे यह मिथक भी तोड़ना होगा.आज की स्थिति यह है कि भले ही बीजेपी के नेता जीत के बड़े-बड़े दावें कर रहे हों, लेकिन अंदर खाने से यह नेता यह भी जान-समझ रहे हैं कि इस बार बीजेपी की राह बहुत ज्यादा आसान नहीं है। बीजेपी को चिंता इस बात की भी है कि कहीं हिन्दू वोट विभिन्न दलों के बीच बिखर नहीं जाए। क्योंकि इस बार सभी दल अकेले चुनाव लड़ रहे हैं, बीजेपी का सत्ता विरोधी लहर के अलावा भी दो-तीन प्रतिशत वोट अन्य दलों के खाते में चला गया तो बीजेपी को इसका बड़ा खामियाजा भुगतना पड़ सकता है. वहीं बात मुस्लिम वोटों की कि जाए तो उसको लेकर यही संभावना व्यक्त की जा रही है कि वह एक मुश्त साइकिल की ही सवारी करेगा। ओवैसी यूपी में इतने ताकतवर नहीं दिख रहे हैं, फिर उसकी छवि बीजेपी की बी टीम वाली भी बन गई है, जिसे तोड़ना ओवैसी के लिए आसान नहीं लग रहा है। यूपी में बीजेपी की पतली हालात को देखते हुए ही राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और बीजेपी आलाकमान यूपी में एड़ी-चोटी का जोर लगाए हुए है।
यूपी में बीजेपी का कमजोर होने का मतलब केन्द्र में मोदी सरकार की भी ताकत का क्षीण होना तय है। इसी लिए पीएम मोदी भी यूपी विधान सभा चुनाव में पूरी ताकत झोंके हुए हैं। एक तरह से 2017 की तरह 2022 के विधान सभा चुनाव भी बीजेपी मोदी के चेहरे पर ही चुनाव की बिसात बिछा रही है। बीजेपी के रणनीतिकारों को लगता है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ही उत्तर प्रदेश में सरकार विरोधी लहर की धार को कुंद कर सकते है। मोदी के साथ ही, केन्द्रीय गृहमंत्री अमित शाह और बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा,रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह भी पूरा यूपी मथने और योगी सरकार विरोधी लहर को ध्वस्त करने की रणनीति बनाने में लगे हैं। वहीं बीजेपी की प्रदेश इकाई की तरफ से भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष स्वतंत्र देव सिंह अपने सहयोगी और पार्टी के संगठन मंत्री सुनील बंसल के साथ कड़ी मेहनत कर रहे हैं। डिप्टी सीएम केशव प्रसाद मौर्या पार्टी के पक्ष में पिछड़ों को लामबंद करने के साथ हिन्दुत्व की भी अलख जलाए हुए हैं। सभी को मोदी की लोकप्रियता के सहारे 2022 में सरकार बना लेने का भरोसा है। आज स्थिति यह है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी आगे-आगे और मुख्यमंत्री योगी उनकी छाया बने हुए हैं। कुल मिलाकर भाजपा का थिंक टेंक मुख्यमंत्री के चेहरे के रूप में तो योगी को ही आगे किए हुए है, लेकिन जीत दिलाने का भरोसा उसे पीएम मोदी पर ही है।
उधर, नेताओं को वोटरों की चुप्पी रास नहीं आ रही है तो बीजेपी के शीर्ष नेत्त्व को लग रहा है कि इस बार 2017 की तुलना में सामाजिक समीकरण काफी बदले हुए हैं। भाजपा की चिंता इस बात को भी लेकर है कि क्यों क्यों उसके विधायक और नेता पार्टी छोड़ते जा रहे हैं? भाजपा की अंदरुनी रिपोर्ट भी बहुत संतोषजनक नहीं है। भाजपा के सामने सबसे बड़ी चुनौती जातिगत समीकरण की तरफ बढ़ रहे चुनाव को साधने की है। दूसरी बड़ी चुनौती टिकट बंटवारे की है। सूत्र बताते हैं कि बीजेपी आलाकमान ने इस बार विधायकों के कामकाज के आधार पर करीब 40 फीसदी विधायकों के टिकट काटने का मन बना लिया है। तीसरा कारण जनता के बीच में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की छवि को बताया जा रहा है,येागी के सख्त तेवरों ने तमाम लोगों की सरकार से नाराजगी बढ़ा दी है तो एक बड़ा कारण यह भी है कि योगी राज में किसी भाजपा नेता या कार्यकर्ता का कोई काम नहीं होता था, क्योंकि इस पर योगी ने रोक लगा रखी थी, जबकि सपा राज में सपाई छाती ठोंक कर सरकारी अधिकारियों से काम करा लिया करते थे। पार्टी के रणनीतिकारों को उम्मीद थी कि जगह-जगह विकास को लोकर की जा रही घोषणाओं से भी वातावरण बदलेगा, लेकिन ऐसा ज्यादा देखने को हनीं मिल रहा है।
गोरखपुर से लेकर गाजियाबाद तक एक संदेश भाजपा को परेशान कर रहा है। भाजपा के एक नेता का कहना है कि तीनों कृषि कानूनों पर प्रधानमंत्री की घोषणा के बाद पढ़े लिखे लोगों और किसानों में गलत संदेश गया है। यह भ्रम विपक्ष ने फैलाया है। लोग सवाल पूछ रहे हैं कि जब तीनों कानून सही थे तो वापस क्यों लिए गए? जरूर कुछ गड़बड़ थी। पश्चिमी उ.प्र. के कई जिलों में यह धारणा कुछ ज्यादा ही बन रही है। भाकियू के प्रवक्ता धर्मेन्द्र मलिक और उनकी टीम भी आग में घी डालने का काम रही है। वह गांव-गांव लोगों के बीच में जाकर इस सवाल को उठा रहे हैं। इसी प्रकार से लखीमपुर प्रकरण और उसमें केन्द्रीय राज्य मंत्री अजय मिश्र टेनी और उनके पुत्र की भूमिका भी बीजेपी नेताओं के लिए परेशानी का सबब बना हुआ है। केन्द्र सरकार भी इस मुद्दे पर असंवेदनशील हो जाती है। भाजपा के नेता भी नाम न छापने की शर्त पर मानते हैं कि टेनी को राहत देने से पार्टी को बड़ा नुकसान उठाना पड़ सकता है।
अखिलेश यादव की विजय रथ यात्रा के रणनीतिकार संजय लाठर कहते हैं कि भाजपा के पैर के नीचे से जमीन खिसक रही है। भाजपा छोड़कर समाजवादी पार्टी में शामिल होने वाले विधायकों, नेताओं की संख्या देख लीजिए। लाठर कहते हैं कि राजनीति करने वाले जमीन पर बदल रही हवा को भांपकर ही अपना पाला भी बदलते हैं। उ.प्र. सरकार के एक और पूर्व मंत्री कहते हैं कि चुनाव आयोग द्वारा अधिसूचना तो घोषित होने दीजिए बीजेपी की परेशानी और भी बढ़ जाएगी। राजनीति के जानकार सवाल खड़ा कर रहे हैं कि ऐन चुनाव से पहले सपा प्रमुख अखिलेश यादव के करीबी 4 लोगों के यहां आयकर का छापा, रघुराज प्रताप सिंह उर्फ राजा भैया के खिलाफ पुराने मामले को अब खोले जाने का आखिर क्या मतलब है? राजनैतिक पंडित कहते हैं कि विपक्षी दलों की जनसभा में भीड़ का उमड़ना लोगों की नाराजगी को ही दर्शाता है। कांग्रेस की नेता प्रियंका गांधी और बसपा की भी जनसभा देख लीजिए। मायावती की जनसभा में तो भीड़ होती थी, लेकिन कांग्रेस की नेता की जनसभा में भी लोग बड़ी संख्या में जुट रहे हैं।
वोटरों की नाराजगी के ताप को कम करने के लिए भाजपा ने सूबे के छह क्षेत्रों से छह रूट निर्धारित करके जन विश्वास यात्रा की शुरूआत की है। इसके माध्यम से बीजेपी का उत्तर प्रदेश की 403 विधान सीटों को साध लेने का उद्देश्य है। इसे भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा, केन्द्रीय गृहमंत्री अमित शाह, राजनाथ सिंह अपनी ऊर्जा दे रहे हैं। यात्रा का समापन लखनऊ में कराने की योजना है और इसे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी संबोधित करेंगे। भाजपा के रणनीतिकारों को उम्मीद है कि यह 2017 में विधानसभा चुनाव को ध्यान में रखकर की गई परिवर्तन यात्रा जैसा माहौल बनाएगी। जन विश्वास यात्रा में भाजपा ने प्रदेश की जनता तक उ.प्र. सरकार के कामकाज, केन्द्र सरकार की प्रदेश को सौगात और डबल इंजन की सरकार के कारण फलते-फूलते उ.प्र. का संदेश देने की योजना बनाई गई है।
लब्बोलुआब यह है कि बीजेपी की सत्ता में भले ही वापसी हो जाए,लेकिन अबकी बार उसके लिए 300 का आकड़ा छूना आसान नहीं होगा.तमाम ऐसे छोटे-बड़े मुद्दे हैं जो बीजेपी के खिलाफ नजर आ रहे हैं। बीजेपी की सहयोगी निषाद पार्टी, अपना दल समय-समय पर तेवर दिखाते रहते हैं, वहीं पश्चिमी यूपी में किसान आंदोलन की तपिश भले कम हो गई हो, लेकिन अब जाट आरक्षण की भी आग सुलगने लगी है। जाट आरक्षण की मांग को लेकर अखिल भारतीय जाट आरक्षण संघर्ष समिति ने पश्चिमी यूपी में अपना अभियान तेज कर दिया हैं। अखिल भारतीय आरक्षण संघर्ष समिति के प्रमुख यशपाल मलिक जाट आरक्षण की मांग लेकर पश्चिमी यूपी के तमाम जिलों में बैठकें कर रहे हैं। मेरठ, आगरा, सहारनपुर और मथुरा में जाट आरक्षण को लेकर समाज के बीच बैठक हो चुकी है। अगर जाट आंदोलन अपनी मांगों को लेकर आंदोलित हुआ फिर बीजेपी को काफी नुकसान उठाना पड़ सकता है। यशपाल मलिक ने कहा कि जाटों के आरक्षण के मुद्दों पर हम अब तक सरकार की सहमति का इंतजार कर रहे थे, लेकिन अब जाट आरक्षण गांवों से शहरों तक होगा और बिना मांग पूरे हुए हम नहीं शांत बैठेंगे। यशपाल ने कहा कि जाट समाज पश्चिमी यूपी की 100 सीटों पर अपना असर रखता है।
- अजय कुमार
आश्चर्य का विषय है कि व्यक्ति से उसके व्यक्तित्व को अलग बताया जा रहा है। व्यक्ति और व्यक्तित्व--दो अलग शब्द हैं, किंतु अर्थ की दृष्टि से वे परस्पर बहुत दूर नहीं हैं। व्यक्तित्व शब्द व्यक्ति से ही बना है। व्यक्ति पहले है और व्यक्तित्व बाद में।
आजकल हिंदू और हिंदुत्व में अंतर की चर्चा जोरों पर है। पिछले दिनों एक बड़ी राजनीतिक पार्टी के बड़े नेता ने राजस्थान की एक सभा में हिंदू और हिंदुत्व को लेकर जो ज्ञान दिया है उसे सुनकर बड़े-बड़े विद्वान और भाषाविद् भी आश्चर्यचकित हैं क्योंकि इससे पहले इन शब्दों की ऐसी ज्ञानगर्भित व्याख्या कभी पढ़ने-सुनने में नहीं आयी है। ऐसा लगता है कि हमारे विकासशील देश में राजनीति के साथ-साथ भाषा, साहित्य, इतिहास, दर्शन, विज्ञान, अर्थशास्त्र आदि सभी विषयों पर कुछ भी बोलने का एकाधिकार हमारे नेताओं ने अपने पक्ष में सुरक्षित कर लिया है। अब इन विषयों के विद्वानों की आवश्यकता नहीं रही। सारे विषय राजनीति के स्वार्थ सागर में समा गए हैं और अब जो राजनेता कहें वही अंतिम सत्य है।
आश्चर्य का विषय है कि व्यक्ति से उसके व्यक्तित्व को अलग बताया जा रहा है। व्यक्ति और व्यक्तित्व--दो अलग शब्द हैं, किंतु अर्थ की दृष्टि से वे परस्पर बहुत दूर नहीं हैं। व्यक्तित्व शब्द व्यक्ति से ही बना है। व्यक्ति पहले है और व्यक्तित्व बाद में। व्यक्ति की विशेषता ही उसका व्यक्तित्व है। यही बात हिंदू और हिंदुत्व शब्द में भी सही सिद्ध होती है। हिंदुत्व रहित हिंदू वैसा ही है जैसा व्यक्तित्व रहित व्यक्ति। समाज में, सार्वजनिक जीवन में व्यक्ति को नहीं व्यक्तित्व को प्रतिष्ठा मिलती है। व्यक्ति अपने विशिष्ट व्यक्तित्व के कारण ही महान कहलाता है, इतिहास में अमर होता है। व्यक्तित्व-विहीन सामान्य जन तो सृष्टि के अन्य जीवों के समान ही जीवन से मृत्यु तक की महत्वहीन यात्रा करता रहता है। इस कारण व्यक्ति के लिए व्यक्तित्व का महत्व है और हिंदू के लिए हिंदुत्व महत्वपूर्ण है ।इसी प्रकार इस्लाम और मुसलमान, ईसाइयत और ईसाई शब्द भी परस्पर भिन्न होकर भी अभिन्न हैं।
हिंदू और हिंदुत्व-- दोनों संज्ञा शब्द हैं। ‘हिंदू‘ जातिवाचक संज्ञा है जो एक जाति-धर्म विशेष में जन्म लेने वाले सभी मनुष्यों का बोध कराती है ।यह संज्ञा हिंदू परिवार में जन्म होते ही व्यक्ति को स्वतः प्राप्त हो जाती है और तब तक बनी रहती है जब तक वह किसी विशेष कारणवश स्वयं इस का त्याग नहीं कर देता है। हिंदुत्व भाववाचक संज्ञा है और हिंदू धर्म में स्वीकृत मान्यताओं, परंपराओं, विश्वासों, पूजा-पद्धतियों, रीतियों एवं अन्य तत्संबंधित विशिष्ट विषयों-बिंदुओं के प्रति आस्थाजनित दृढ़ता का बोध कराती है। हिंदुत्व समस्त हिंदू समाज के प्रति गहरी रागात्मकता का भाव-बोध है। जिसने हिंदू परिवार में जन्म लिया है किंतु हिंदुओं के पर्वों, त्योहारों एवं अन्य सामाजिक-सांस्कृतिक परंपराओं में जिसकी निष्ठा नहीं, हिंदुओं के आदर्श महापुरुषों के प्रति जिसके मन में श्रद्धा नहीं, हिंदुओं की दुर्दशा के प्रति जिसके मन में पीड़ा नहीं, और हिंदुओं पर होने वाले अत्याचारों को पढ़-सुनकर, देखकर जिसके हृदय में क्षोभ, आक्रोश और क्रोध नहीं वह हिंदुत्व विहीन हिंदू किस काम का..? पृथ्वीराज चैहान के समय से लेकर आज तक का हिंदू समाज जातिवाचक हिंदुओं की अधिसंख्यक स्थिति के बाद भी हिंदुत्व भावबोध की अल्पता के कारण सदा संकट ग्रस्त रहा है। हिंदुत्व पृथ्वीराज चैहान, राणा संग्राम सिंह, महाराणा प्रताप, दुर्गादास राठौर, छत्रपति शिवाजी ,गुरु गोविंदसिंह, बंदा बैरागी, राजा रणजीत सिंह ,महाराज छत्रसाल, नानासाहब पेशवा, रानी लक्ष्मीबाई, कुंवर सिंह, बाल गंगाधर तिलक, पंडित मदनमोहन मालवीय, विनायक दामोदर सावरकर, सुभाषचंद्र बोस, सरदार बल्लभभाई पटेल और श्यामाप्रसाद मुखर्जी की गौरवशाली बलिदानी परंपरा की ज्योति लिए आज भी संघर्षरत है जबकि हिंदुत्व भाव शून्य हिंदू जयचंद, मानसिंह, जयसिंह की भांति पहले मुगलों और अंग्रेजों की सेवा- सहायता करते हुए सत्ता सुख भोगते रहे और अब स्वतंत्र भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था में अल्पसंख्यक तुष्टीकरण की बलिवेदी पर हिंदू-हितों की बलि देते हुए हिंदुओं की जड़ें खोद रहे हैं। हिंदुत्व शब्द में ‘वादी‘ पद जोड़कर नया हिंदुत्ववादी शब्द गढ़कर उसे अलगाववादी, आतंकवादी की तरह बदनाम करने की साजिश रच रहे हैं। हिन्दुओं के विरुद्ध हिन्दुओं की ऐसी गतिविधियाँ हिन्दू समाज के लिए सदा दुर्भाग्यपूर्ण रहीं हैं और आज भी हैं।
हिंदू और हिंदुत्व में अलगाव की कुटिल कल्पना के अनुसार महात्मा गांधी हिंदू हैं और नाथूराम गोडसे हिंदुत्ववादी। अब तक किसी भी शब्दकोश में ‘हिंदुत्ववादी‘ शब्द देखने को नहीं मिला है। ‘हिंदू‘ और ‘हिंदुत्व‘ शब्द शब्दकोशों में भी हैं और व्यवहार में भी प्रचलित हैं किंतु ‘हिंदुत्ववादी‘ शब्द हिंदुओं के गौरव और हिंदू-अस्मिता के लिए जूझने वालों को समाज में अलोकप्रिय बनाने के लिए गढ़ा गया है। वास्तव में एक राजनीतिक शिविर से उभरा यह स्वर दूसरे राजनीतिक दल की बढ़ती शक्ति को क्षीण करने के लिए की जा रही असफल कोशिश है। प्रश्न यह भी है कि एक महात्मा गांधी पर गोली दागने वाला गोडसे हिंदू नहीं है, हिंदुत्ववादी है तो पूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय इंदिरा गांधी की हत्या के बाद राजधानी दिल्ली सहित देश के अनेक भागों में सिक्खों की निर्मम हत्यायें करने वाले कौन थे ?वे हिंदू थे अथवा हिंदुत्ववादी? निश्चय ही ये उसी शिविर के राजनीतिक नेतृत्व से प्रेरित लोग थे जो आज अपने प्रतिपक्षी दल के समर्थकों को हिंदुत्ववादी कहकर उन्हें आतंकवादियों की तरह कठघरे में खड़ा करना चाहते हैं।
महात्मा गांधी के सत्याग्रह को लक्ष्य करके कहा जा रहा है कि हिंदू सत्य चाहता है और हिंदुत्ववादी सत्ता चाहता है। विचारणीय है कि तथाकथित हिन्दुत्ववादी गोडसे ने किस सत्ता की प्राप्ति के लिए गोली चलाई थी और इससे उसे कौनसी सत्ता की प्राप्ति हुई। प्रश्न यह भी है कि सत्य कौन नहीं चाहता? क्या हिंदुओं के अतिरिक्त अन्य सब धर्मावलंबी सत्य नहीं चाहते? वस्तुतः संसार का प्रत्येक सज्जन व्यक्ति चाहे वह किसी भी धर्म, जाति, देश का हो-- सत्य अनुरागी होता ही है। जहां तक सत्ता का सवाल है-- सत्ता सबको चाहिए। सत्ता राणाप्रताप को भी चाहिए और सत्ता मानसिंह को भी चाहिए किंतु दोनों के सत्ता प्राप्ति के लक्ष्य परस्पर भिन्न हैं। मानसिंह को सत्ता निजी सुखों के लिए, विलासिता के लिए चाहिए जबकि राणाप्रताप को सत्ता अपने स्वाभिमान और मानवीय गौरव की सुरक्षा के लिए चाहिए। औरंगजेब को सत्ता इस्लाम के विस्तार के लिए चाहिए, मिर्जा राजा जयसिंह को अपने राजपद की सलामती के लिए चाहिए, डलहौजी को व्यक्तिगत ऐशो आराम और अपने देश इंग्लैंड की समृद्धि के लिए चाहिए जबकि शिवाजी को सत्ता अपने अस्तित्व की सुरक्षा तथा भारतवर्ष की सांस्कृतिक अस्मिता के संरक्षण-संवर्धन के लिए चाहिए। देश के वर्तमान सत्ता-संघर्ष में भी उपर्युक्त प्रतीक पुरुषों के चोले में आज के नेतागण भी इन्हीं अलग-अलग उद्देश्यों की सिद्धि के लिए संघर्षरत हैं।
यह सही है कि प्रायः एक शब्द का एक अर्थ होता है किंतु अनेक शब्द अनेकार्थी भी होते हैं। अतः यह नहीं कहा जा सकता कि जैसे एक शरीर में एक आत्मा निवास करती है वैसे ही एक शब्द का एक ही अर्थ होता है। संस्कृत में ‘पत्र‘ का अर्थ पत्ता और पाती है, हिंदी में ‘अंक’ शब्द गोद, नाटक का एक भाग, परीक्षा में प्राप्त अंक आदि अनेक अर्थ व्यक्त करता है। अंग्रेजी का ‘लेटर‘ शब्द ‘अक्षर ‘और ‘पत्र‘ दो अर्थ प्रकट करता है। इससे सिद्ध है कि एक शरीर में दो आत्माएं हों अथवा न हों किंतु बहुत से शब्द दो अर्थ अवश्य व्यक्त करते हैं तर्क दिया जा रहा है कि प्रत्येक व्यक्ति को अपनी दृष्टि से शब्द -अर्थ की व्याख्या करने का अधिकार है। यह बात तब सही हो सकती है जब व्याख्या करने वाला उस विषय का ज्ञाता हो और तथ्य तथा तर्क के धरातल पर अपना मत व्यक्त करे। अनर्गल प्रलाप करते हुए अर्थ का अनर्थ करना किसी ऐसे व्यक्ति को, जिसका कथन बहुत से लोगों को प्रभावित करता हो, शोभा नहीं देता। समाज में जिसका स्थान जितना बड़ा है उसका उत्तरदायित्व भी उतना ही अधिक है। समाज को भ्रमित करना, मनमाने अर्थ गढकर श्रोताओं को अपने पक्ष में करने के लिए भाषा-संवेदना को विकृत करना किसी भी दृष्टि से उचित नहीं कहा जा सकता।
स्वतंत्र भारत में सत्ता मिलते ही जिन्होंने गंगा को सांस्कृतिक विरासत के स्थान पर भौतिक समृद्धि का प्राकृतिक संसाधन मात्र माना और तथाकथित विकास के नाम पर पवित्र गंगा जल प्रदूषित कर विषाक्त बना दिया। नगरों-महानगरों के कचरे के साथ-साथ सैकड़ों उद्योगों के विषैले रसायन गंगा में प्रवाहित करने की खुली छूट दी और आजादी के साठ साल में ही गंगा-यमुना जैसी पवित्र नदियां प्रदूषित कर दीं उनके झंडाबरदार आज गंगा की दुहाई देकर हिंदुओं के गंगास्नान की बात कर रहे हैं। उनके अनुसार हिन्दू गंगा में करोड़ों लोगों के साथ स्नान करता है जबकि हिंदुत्ववादी अकेले स्नान करता है। यह बात समझ से परे है। जिन्हें हिंदुत्ववादी कहा जा रहा है उनके शासन में कुंभ स्नान की व्यवस्थाएं पहले से अधिक बेहतर रहीं हैं। सब जानते हैं कि पर्वों पर विशेष सामूहिक स्नान की सांस्कृतिक परंपरा सहस्त्रों वर्षों से चली आ रही है जबकि गंगा के निकटवर्ती क्षेत्रों में निवास करने वाले बहुत से हिन्दू श्रद्धा पूर्वक नित्य ही अकेले गंगा स्नान करते हैं। इसमें हिन्दू और हिंदुत्ववादी जैसे किसी अंतर के लिए कोई संभावना नहीं है किन्तु अपने समर्थकों के बीच लोग कुछ भी कहने को स्वतंत्र हैं। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का ऐसा दुरुपयोग लोकतंत्र के लिए बड़ा खतरा है।
वस्तुतः हिंदू देह है और हिंदुत्व उसकी आत्मा है। जैसे आत्मा के बिना देह का कोई महत्व नहीं वैसे ही हिंदुत्व रहित हिंदू का भी कोई अस्तित्व नहीं। आत्माविहीन देह जल्दी ही गल-सडकर समाप्त हो जाती है। जिस प्रकार देह के अस्तित्व में रहने के लिए आत्मा आवश्यक है उसी प्रकार हिन्दुओं की अस्मिता के लिए हिंदुत्व का भावबोध जागृत रहना भी आत्यंत आवश्यक है। हिंदुत्व के बिना हिंदू अस्मिता पर अस्तित्व का घोर संकट विगत एक हजार वर्ष से निरंतर छाया रहा है और आज भी है। अब भी यदि हिंदुत्व-बोध सशक्त नहीं हुआ तो इस देश में भविष्य में उसकी भी वही स्थिति हो सकती है जो शताब्दियों पूर्व पारसियों और यहूदियों की हो चुकी है। अपनी अस्मिता एवं सांस्कृतिक पहचान बनाए रखने के लिए हमारा जन्म से हिंदू होना ही पर्याप्त नहीं है उसमें हिंदुत्व की शौर्य -चेतना का दीप्त होना भी परमावश्यक है।
डॉ. कृष्णगोपाल मिश्र
विभागाध्यक्ष-हिन्दी
शासकीय नर्मदा स्नातकोत्तर महाविद्यालय
होशंगाबाद म.प्र.
बात 2007 के यूपी विधानसभा चुनाव की कि जाए तो उस चुनाव में भारतीय किसान यूनियन के अध्यक्ष चौधरी महेंद्र सिंह टिकैत ने कांग्रेस का हाथ थामा था। भारतीय किसान यूनियन की राजनीतिक पार्टी बहुजन किसान दल ने कांग्रेस के साथ गठबंधन में जाने का फैसला किया था।
भारतीय किसान यूनियन के नेता राकेश टिकैत का अगला कदम क्या होगा, इसको लेकर तमाम अटकलें चल रही हैं। खासकर टिकैत के राजनीतिक रुख को लेकर लोग कुछ ज्यादा ही परेशान हैं। लेकिन टिकैत की तरफ से अभी तक कुछ स्पष्ट नहीं किया गया है। उनकी बातों से यही लग रहा है कि वह राजनीति से दूरी बनाकर रखेंगे। इसका कारण भी है। राकेश टिकैत ने बड़ा आंदोलन चलाकर जो अपनी छवि बनाई है वह उसे खराब होता देखना शायद ही पसंद करें। राजनीति में कदम रखते हैं तो उनके ऊपर कई तरह के आरोप लगने लगेंगे। वैसे भी टिकैत राजनीति के मैदान में कभी सफल खिलाड़ी नहीं साबित हुए हैं। टिकैत ने पहली बार 2007 के यूपी विधानसभा चुनाव में किस्मत आजमाई थी। उस समय प्रदेश में बसपा की हुकूमत थी। टिकैत ने मुजफ्फरनगर की खतौली विधानसभा सीट से चुनाव लड़ा था। हालांकि, उन्हें जीत नसीब नहीं हुई थी। इस हार के बाद राकेश टिकैत ने साल 2014 में राष्ट्रीय लोक दल के टिकट पर अमरोहा लोकसभा सीट से चुनाव लड़ा था। लेकिन, इस चुनाव में भी टिकैत को हार का सामना करना पड़ा था। इस चुनाव में टिकैत को केवल 9,359 वोट मिले थे।
बात 2007 के यूपी विधानसभा चुनाव की कि जाए तो उस चुनाव में भारतीय किसान यूनियन के अध्यक्ष चौधरी महेंद्र सिंह टिकैत ने कांग्रेस का हाथ थामा था। भारतीय किसान यूनियन की राजनीतिक पार्टी बहुजन किसान दल ने कांग्रेस के साथ गठबंधन में जाने का फैसला किया था। उस समय कांग्रेस ने फैसला लिया था कि राकेश टिकैत के खिलाफ पार्टी अपना कोई प्रत्याशी नहीं उतारेगी। वहीं, बहुजन किसान दल ने भी कांग्रेस के पक्ष में पश्चिमी यूपी की कई सीटों पर अपने प्रत्याशी वापस लेने की बात कही थी। फिर भी टिकैत बुरी तरह से चुनाव हार गए थे। राजनीति के इन्हीं कड़वे अनुभवों की वजह से राकेश टिकैत दोबारा से चुनावी राजनीति में कदम नहीं रखना चाहते हैं।
बात आगे की कि जाए तो कई मौकों पर यह भी देखने को मिला है कि राकेश टिकैत ने किसी चुनाव में जिस प्रत्याशी का समर्थन किया वह जीत हासिल नहीं कर सका। यहां पर हाल ही में संपन्न हुए पंचायत चुनावों की भी बात करना जरूरी है। यह चुनाव उस समय हुए थे जब किसान आंदोलन उभार पर था और राकेश टिकैत इसकी मुखर आवाज बने हुए थे। ऐसा लग रहा था कि किसानों के बीच प्रदेश में भाजपा विरोधी लहर चल रही है, जिसके चलते यह उम्मीद जताई जा रही थी कि पंचायत चुनाव में कम से कम पश्चिमी उत्तर प्रदेश में तो भाजपा को करारी हार का सामना करना ही पड़ेगा, लेकिन नतीजे भाजपा के पक्ष में आए। 2016 में हुए पंचायत चुनाव के मुकाबले बीजेपी ने काफी बेहतर प्रदर्शन किया था। वहीं समाजवादी पार्टी सहित अन्य दलों के खाते में काफी कम सीटें आई थीं।
बहरहाल, हो सकता है कि किसान आंदोलन खत्म नहीं हुआ होता तो राकेश टिकैत खुद या अपने किसी करीबी को विधानसभा चुनाव लड़ा देते या फिर किसी दल का समर्थन करते, लेकिन आंदोलन खत्म हो गया है। केंद्र सरकार ने किसानों की बातें मान ली हैं, इसलिए किसानों की मोदी सरकार से नाराजगी काफी कम हो चुकी है। इसके अलावा भी मोदी-योगी सरकार द्वारा किसानों के लिए जो कुछ किया जा रहा है वह किसी से छुपा नहीं है। एक बात और ध्यान देने वाली है कि राकेश टिकैत ने आंदोलन के सहारे जो अपनी संघर्ष वाली इमेज बनाई है, वह इमेज उनके किसी दल से चुनाव लड़ने से टूट सकती है। फिर वह आगे कभी कोई आंदोलन भी नहीं चला पाएंगे। वैसे भी टिकैत पर कांग्रेस और सपा समर्थक तथा भाजपा विरोधी होने का आरोप लग रहा है। अपनी छवि को लेकर टिकैत इतना अलर्ट हैं क़ि उन्हें जब पता चला कि कुछ लोग उनकी फोटो का अपने बैनर पोस्टर में इस्तेमाल कर रहे हैं तो उन्होंने साफ कह दिया कि उनकी फोटो या उनकी यूनियन अथवा किसान आंदोलन के सहारे कोई अपना 'खेत जोतने' की कोशिश ना करें। सपा प्रमुख अखिलेश यादव के चुनाव लड़ने के प्रस्ताव को भी राकेश टिकैत ने ठुकरा दिया है। राकेश टिकैत अगर अगले वर्ष होने वाले विधानसभा चुनाव में तटस्थ रहते हैं तो इसका भाजपा को बड़ा फायदा मिल सकता है। वहीं सपा-रालोद के गठबंधन के लिए यह शुभ संकेत नहीं होगा।
-संजय सक्सेना
पाकिस्तान भी भारत की तरह कह रहा है कि अफगानिस्तान में सर्वसमावेशी सरकार बननी चाहिए, उसे आतंकवाद का अड्डा नहीं बनने देना है और दो-ढाई करोड़ नंगे-भूखे लोगों की प्राण-रक्षा करना है। भारत ने 50 हजार टन अनाज और डेढ़ टन दवाइयां काबुल भिजवा दी हैं।
पिछले सप्ताह एक ही समय में दो सम्मेलन हुए। एक भारत में और दूसरा पाकिस्तान में! दोनों सम्म्मेलन मुस्लिम देशों के थे। पाकिस्तान में जो सम्मेलन हुआ, उसमें दुनिया के 57 देशों के विदेश मंत्रियों और प्रतिनिधियों के अलावा अफगानिस्तान, रुस, अमेरिका, चीन और यूरोपीय संघ के प्रतिनिधियों ने भी भाग लिया जबकि भारत में होने वाले सम्मेलन में मध्य एशिया के पांचों मुस्लिम गणतंत्रों के विदेश मंत्रियों ने भाग लिया। इन विदेश मंत्रियों ने इस्लामाबाद जाने की बजाय नई दिल्ली जाना ज्यादा पसंद किया। यों भी इस्लामाबाद के सम्मेलन में इस्लामी देशों के एक-तिहाई विदेश मंत्री पहुंचे।
पाकिस्तानी सम्मेलन का केंद्रीय विषय सिर्फ अफगानिस्तान था जबकि भारतीय सम्मेलन में अफगानिस्तान पर पूरा ध्यान दिया गया लेकिन उक्त पांचों गणतंत्रों— कजाकिस्तान, उजबेकिस्तान, तुर्कमेनिस्तान, ताजिकिस्तान और किरगिजिस्तान के साथ भारत के व्यापारिक, आर्थिक, सामरिक और सांस्कृतिक सहकार के मुद्दों पर भी संवाद हुआ। इस तरह का यह तीसरा संवाद है। इन पांचों विदेश मंत्रियों के पाकिस्तान न जाने को भारत की जीत मानना तर्कसंगत नहीं है, क्योंकि इस सम्मेलन की तारीखें पहले से तय हो चुकी थीं। इस समय तो खेद की बात यह है कि इस्लामाबाद के सम्मेलन में भारत को नहीं बुलाया गया जबकि चीन, अमेरिका और रूस आदि को भी बुलाया गया था। याद रहे कि भारत ने जब अफगानिस्तान पर पड़ौसी देशों के सुरक्षा सलाहकारों का सम्मेलन बुलाया था तो उसमें पाकिस्तान और चीन, दोनों निमंत्रित थे लेकिन दोनों ने उसका बहिष्कार किया। अफगान-संकट के इस मौके पर मैं पाकिस्तान से थोड़ी दरियादिली की उम्मीद करता हूं।
पाकिस्तान भी भारत की तरह कह रहा है कि अफगानिस्तान में सर्वसमावेशी सरकार बननी चाहिए, उसे आतंकवाद का अड्डा नहीं बनने देना है और दो-ढाई करोड़ नंगे-भूखे लोगों की प्राण-रक्षा करना है। भारत ने 50 हजार टन अनाज और डेढ़ टन दवाइयां काबुल भिजवा दी हैं। उसने यह खिदमत करते वक्त हिंदू-मुसलमान के भेद को आड़े नहीं आने दिया। पाकिस्तान चाहे तो इस अफगान-संकट के मौके पर भारत-पाक संबंधों को सहज बनाने का रास्ता निकाल सकता है। 57 देशों के इस अफगान-सम्मेलन में भी इमरान खान कश्मीर का राग अलापने से नहीं चूके लेकिन क्या वे यह नहीं समझते कि कश्मीर को भारत-पाक खाई बनाने की बजाय भारत-पाक सेतु बनाना दोनों देशों के लिए ज्यादा फायदेमंद है? यदि भारत-पाक संबंध सहज हो जाएं तो अफगान-संकट के तत्काल हल में तो मदद मिलेगी ही, मध्य एशिया और दक्षिण एशिया के राष्ट्रों के बीच अपूर्व सहयोग का ऐतिहासिक दौर भी शुरु हो जाएगा।
- डॉ. वेदप्रताप वैदिक
पूरी बात जानने के लिए पाठकों को पंजाब की सामाजिक परिस्थितियों के बारे जानना आवश्यक है। राज्य में होने वाली बेअदबी की घटनाएं केवल राजनीति को ही प्रभावित नहीं करतीं बल्कि राज्य में आतंकवाद के दौर से ही सक्रिय अलगाववादी तत्व इसे अवसर के रूप में लेते हैं।
श्री गुरु ग्रन्थ साहिब इस देश के प्राण हैं और इनकी शिक्षाएं तो पंजाब निवासियों के गुणसूत्रों (डी.एन.ए.) में रची बसी हैं। आस्थावान लोग इन्हें जिन्दा गुरु के रूप में स्वीकार करते हैं, लेकिन यह भी सत्य है कि इतना सम्मान होने के बावजूद इनके अपमान की घटनाएं भी पंजाब में ही अधिक होती आई हैं। अक्तूबर, 2015 में तो इस तरह की घटनाओं की मानो बाढ़ सी ही आ गई थी और इसके लगभग छह साल बाद सिखों के सर्वोच्च धर्मस्थल श्री हरिमन्दिर साहिब व कपूरथला में हुई इस तरह की घटनाओं ने सभी के मनों को झिंझोड़ कर रख दिया है। ये घटनाएं किसी मनोरोगियों की करतूत हैं या किसी का षड्यन्त्र इस पर आभी राज कायम है परन्तु इन घटनाओं के बाद जिस तरह आरोपियों की तालिबानी शैली में हत्या कर दी जाती है उससे हर किसी के मन में एक सवाल पैदा होना शुरू हो चुका है कि आरोपियों की हत्या लोगों का आक्रोश है या किसी की पर्दादारी ? आखिर कौन है जो यह नहीं चाहता कि सच्चाई सामने आए ? आरोपियों की तत्काल हत्या कर जाञ्च के सबसे महत्त्वपूर्ण सूत्र माने जाने वाले व्यक्ति को क्यों खत्म कर दिया जाता है ? इन घटनाओं के बाद हर तरफ से निष्पक्ष जाञ्च की मांग होती है परन्तु जब आरोपी को ही खत्म कर दिया जाए तो इन घटनाओं को लेकर दूध का दूध और पानी का पानी कैसे हो ? क्या भीड़ तन्त्र का न्याय हमारे लोकतन्त्र के मुख को मलिन नहीं करता ?
पंजाब में हाल ही में हुई बेअदबी की घटनाओं में एक बात साञ्झी है कि दोनों के आरोपियों की लोगों ने ही हत्या कर दी। दो महीने पहले सिंघू सीमा पर चल रहे कथित किसान आन्दोलन के दौरान भी निहंगों ने इसी तरह के आरोप लगा कर एक वंचित वर्ग के व्यक्ति को काट कर बैरीअर पर लटका दिया था। आरोपियों की इस तरह की जाने वाली हत्याएं सन्देह तो पैदा करती ही हैं कि आखिर इनके पीछे का रहस्य क्या है ? आखिर सबूत क्यों मिटा दिए जाते हैं ?
पूरी बात जानने के लिए पाठकों को पंजाब की सामाजिक परिस्थितियों के बारे जानना आवश्यक है। राज्य में होने वाली बेअदबी की घटनाएं केवल राजनीति को ही प्रभावित नहीं करतीं बल्कि राज्य में आतंकवाद के दौर से ही सक्रिय अलगाववादी तत्व इसे अवसर के रूप में लेते हैं। इन समाज विरोधी तत्वों द्वारा इन्हीं घटनाओं को आधार बना कर युवाओं के कोमल दिल-दिमाग में साम्प्रदायिक विष भरा जाता है। उन्हें देश के खिलाफ उकसाया जाता है। पंजाब देश का वह सीमान्त राज्य है जो देश विभाजन के समय सर्वाधिक प्रभावित हुआ, बण्टवारे से पहले देखने में आता था कि समाज को तोडऩे के लिए पाकिस्तान की मांग करने वाले मुस्लिम लीग के लोग इसी तरह की शरारतें किया करते थे। लीग के लोग ही सूअर मार कर मस्जिदों के बाहर फिंकवा देते और इसकी आड़ में खूब साम्प्रदायिक विषवमन होता जो अन्तत: न केवल देश के विभाजन का ही नहीं बल्कि इतिहास में हुए सबसे बड़े नरसंहारों में एक का कारण बना। बेअदबी की घटनाओं से लोगों के मनों में सन्देह पैदा होने लगा है कि पंजाब की अलगाववादी शक्तियां कहीं मुस्लिम लीग का खेल तो नहीं खेल रहीं ? समाज में दरार पैदा करने के लिए क्या ये घटनाएं अलगाववादियों की ही तो करतूत नहीं हैं? शायद इसीलिए तो बेअदबी के आरोपियों की हत्याएं तो नहीं हो रहीं कि कहीं सच्चाई सामने न आ पाए ? कल्पना करें कि अगर मुम्बई पर हुए आतंकी हमले के अन्य आरोपियों की तरह कसाब को भी मार दिया जाता तो क्या पाकिस्तान की सच्चाई से पर्दा हट पाता ? क्या इसकी अलग-अलग व्याख्याएं व मनमाफिक विश्लेषण नहीं होने थे ?
दूसरी ओर गुस्साई हुई जुनूनी भीड़ से जिम्मेवार व्यवहार की क्या अपेक्षा की जाए जब संविधानिक पदों पर बैठे लोग ही तालिबानी मानसिकता की पीठ थपथपाना शुरू कर दें। श्री हरिमन्दिर साहिब व कपूरथला में हुई बेअदबी की घटनाओं के बाद कांग्रेस के पंजाब प्रदेश अध्यक्ष व पार्टी के मुंहफट नवरत्नों में सर्वश्रेष्ठ नवजोत सिंह सिद्धू ने इस तरह के आरोपियों को सरेआम चौक पर फांसी देने की वकालत की है। एक समारोह में बोलते हुए उन्होंने कहा कि बेअदबी के आरोपियों को चौक में फांसी पर लटका देना चाहिए। बड़े मीयां तो बड़े मीयां, छोटे मीयां सुभान अल्लाह वाली कहावत राज्य के मुख्यमन्त्री सरदार चरणजीत सिंह चन्नी पर पूरी तरह फिट बैठती दिख रही है, गैर-जिम्मेवाराना व्यवाहर के मामले में उन्होंने नवजोत सिंह सिद्धू से भी आगे निकलते हुए बिना जांच ही घोषित कर दिया कि इन घटनाओं के पीछे केन्द्रीय एजेंसियों का हाथ है। ऐसा बोलते समय लगा कि मुख्यमन्त्री या तो मामले की गम्भीरता से अनभिज्ञ थे या अपने शब्दों के महत्त्व को नहीं पहचानते। उन्हें मालूम होना चाहिए कि वो किसी गली-मोहल्ला स्तर के नेता नहीं बल्कि एक राज्य के संविधानिक मुखिया हैं। सरदार चन्नी ने जिस समय इन घटनाओं के पीछे केन्द्र की एजेंसियों का हाथ सूंघ लिया उस समय तक पुलिस आरोपियों के नाम तक पता नहीं कर पाई थी। उन्हें मालूम होना चाहिए कि उनकी यह गैर-जिम्मेवाराना ब्यानबाजी राज्य का साम्प्रदायिक वातावरण बिगाड़ सकती है और ऐसा करके वे देशविरोधी शक्तियों के हाथों में ही खेलते दिखाई दे रहे हैं।
देश में कानून का शासन है, किसी को अधिकार नहीं दिया जा सकता कि वह कानून अपने हाथों में ले। धार्मिक आस्था आहत होने से आक्रोश पैदा होना स्वभाविक है परन्तु जोश में होश का होना जरूरी है। कानून की दृष्टि में किसी धर्म या धर्मग्रन्थ का अपमान करना और इसके आरोपियों की हत्या करना दोनो संगीन अपराध है। आरोपियों की हत्या करने वालों को भी समझना चाहिए कि अपनी हरकतों से वे आखिर किसकी मदद कर रहे हैं ?
- राकेश सैन