ईश्वर दुबे
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केंद्र सरकार का पूरा ध्यान निजीकरण की तरफ होने से पढ़े-लिखे शिक्षित बेरोजगारों में बेरोजगारी की आशंका व्याप्त हो रही है। शिक्षित युवाओं को लगने लगा है कि आने वाले समय में सरकार के भरोसे उन्हें रोजगार मिलने वाला नहीं है।
पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव के दौरान ही लोगों को आशंका होने लगी थी कि जैसे ही चुनावी नतीजे आएंगे उसके बाद देश के आम जनता को एक बार फिर महंगाई की मार झेलनी पड़ेगी। चुनाव के नतीजे आते ही लोगों की आशंका सही साबित हुई और केंद्र सरकार ने पेट्रोलियम पदार्थों की कीमतों में बढ़ोतरी करनी शुरू कर दी। चुनावी नतीजों के बाद से अब तक पेट्रोल और डीजल की कीमतों में कई बार बढ़ोतरी की जा चुकी है। वहीं घरेलू गैस सिलेंडरों की कीमतों में भी 50 रुपये प्रति सिलेंडर की बढ़ोतरी हो चुकी है।
पेट्रोलियम पदार्थों की कीमतों में बढ़ोतरी ने आम आदमी की कमर ही तोड़ कर रख दी है। रही सही कसर गैस सिलेंडरों की दर में वृद्धि करके कर दी गई है। केंद्र की नरेन्द्र मोदी सरकार ने कोरोना के नाम पर गैस सिलेंडरों पर मिलने वाली सब्सिडी को बंद कर दिया था जिसे अब तक फिर से शुरू नहीं किया गया है। जबकि केन्द्र सरकार द्वारा आगामी एक अप्रैल से कोरोना के चलते लगाये गये सभी तरह के प्रतिबंध हटाए जाने की घोषणा की जा चुकी है।
चुनाव के दौरान वोट लेने के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपनी चुनावी सभाओं में जनता के लिए बड़ी-बड़ी लुभावनी घोषणाएं करते हैं। मगर जैसे ही चुनावी प्रक्रिया समाप्त हो जाती है। उसके बाद देश की आम जनता को महंगाई के डबल डोज का सामना करना पड़ता है। ऐसी दोमुंही बातों से देश के आम आदमी का जीना ही मुहाल हो गया है। देश में खाद्य पदार्थों की कीमतें पहले ही आसमान छू रही हैं। प्रतिदिन काम में आने वाली वस्तुओं की कीमतों में हर दिन बढ़ोत्तरी हो रही है। आटे, दाल, चावल, फल, सब्जियों की कीमत अचानक ही बहुत बढ़ गई है। वहीं खाने का तेल भी लोगों की पहुंच से दूर होता जा रहा है। मौजूदा परिस्थितियों में देश के गरीब व मध्यम वर्ग का गुजर बसर करना मुश्किल हो गया है।
अनाज, दाल, तेल, और ईंधन के बाद अब देश में दवाएं भी महंगी हो सकती हैं। अप्रैल से अधिसूचित दवाओं के करीब 10 फीसदी तक दाम बढ़ सकते हैं। राष्ट्रीय दवा मूल्य नियामक थोक मूल्य सूचकांक में हुए बदलाव से अधिसूचित दवाओं की कीमतें बढ़ाने की इजाजत दे सकता है। अधिसूचित दवाएं आवश्यक दवाओं की राष्ट्रीय सूची में आती हैं। इसमें एंटीबायोटिक, विटामिन, मधुमेह, रक्तचाप नियंत्रक सहित अन्य दवाएं आती हैं।
देश में एक तरफ जहां लगातार महंगाई बढ़ती जा रही है वहीं रोजगार के अवसर कम होते जा रहे हैं। चुनाव के दौरान सरकार लाखों लोगों को नई नौकरियां देने की घोषणाएं करती है। मगर नई नौकरी की बात करना तो दूर जो लोग रिटायर हो रहे हैं सरकार उनके पदों को ही समाप्त कर नई नौकरियों के अवसर को समाप्त करती जा रही है। ऐसे में युवाओं के और अधिक बेरोजगार होने की संभावना में बढ़ोतरी होती जा रही है।
केंद्र सरकार का पूरा ध्यान निजीकरण की तरफ होने से पढ़े-लिखे शिक्षित बेरोजगारों में बेरोजगारी की आशंका व्याप्त हो रही है। शिक्षित युवाओं को लगने लगा है कि आने वाले समय में सरकार के भरोसे उन्हें रोजगार मिलने वाला नहीं है। सरकारी नौकरियों में खुलेआम बंदरबांट हो रही है। बड़ी पहुंच और पैसों के बल पर ही सरकारी नौकरियां मिल रही हैं। ऐसे में आम गरीब का बेटा नौकरी की आस ही छोड़ चुका है। महंगाई के साथ ही देश में भ्रष्टाचार चरम पर है। सरकारी कर्मचारियों पर कोई नियंत्रण नहीं है। इस कारण वे बेखौफ होकर आकंठ भ्रष्टाचार में डूबे हुए हैं।
केंद्र में जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में सरकार बनी थी तब देश की जनता को लगा था कि अब भ्रष्टाचार पर नियंत्रण हो जाएगा। मगर कुछ समय तक भ्रष्टाचार रोकने की बातें होती रही उसके बाद वही पुरानी व्यवस्थाएं चलने लगीं। आज कोई भी नेता भ्रष्टाचार रोकने की बातें नहीं करता है। सबको अपना भविष्य सुरक्षित बनाने की चिंता लगी हुई है। ऐसे में सब अपने को आर्थिक रूप से सुदृढ़ करने में लगे हुए हैं।
प्रारम्भ में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भ्रष्टाचार रोकने के लिए बड़ी-बड़ी बातें किया करते थे। मगर अब लगता है कि वह भी पुराने ढर्रे में ढल गए हैं। उनको भी लगने लगा है कि इस देश में भ्रष्टाचार रोकना उनके बस की बात नहीं है। केंद्र के साथ ही भाजपा शासित राज्यों में आए दिन भ्रष्टाचार के बड़े-बड़े स्कैंडल उजागर हो रहे हैं। मध्य प्रदेश में व्यापमं घोटाले का भूत अभी भी मुख्यमंत्री शिवराज सिंह का पीछा नहीं छोड़ रहा है। भ्रष्टाचार के कारण राजस्थान में वसुंधरा राजे व छत्तीसगढ़ में डॉ. रमन सिंह को अपनी कुर्सी गंवानी पड़ी थी। मगर उससे भी किसी ने सबक नहीं लिया लगता है।
खाद्य उत्पादों की कीमतों में तेजी की वजह से फरवरी में खुदरा मुद्रास्फीति बढ़कर 6.07 प्रतिशत पर पहुंच गई। यह आठ महीनों का सबसे ऊंचा स्तर है। राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय की तरफ से हाल ही में जारी आंकड़ों के मुताबिक फरवरी 2022 में उपभोक्ता मूल्य सूचकांक आधारित खुदरा मुद्रास्फीति की दर 6.07 प्रतिशत रही। यह लगातार दूसरा महीना है जब खुदरा मुद्रास्फीति भारतीय रिजर्व बैंक के संतोषजनक स्तर से ऊपर बनी हुई है।
इसके पहले जनवरी 2022 में भी खुदरा मुद्रास्फीति की दर 6.01 प्रतिशत रही थी। वहीं फरवरी 2021 में यह 5.03 प्रतिशत पर रही थी। इसके पहले फरवरी में थोक मूल्य पर आधारित मुद्रास्फीति के बढ़ने के आंकड़े भी आए। इन आंकड़ों के मुताबिक थोक मुद्रास्फीति बढ़कर 13.11 प्रतिशत पर पहुंच गई। आंकड़ों से पता चलता है कि फरवरी में खुदरा महंगाई बढ़ने की मुख्य वजह खाद्य उत्पादों की कीमतों में 5.89 प्रतिशत की बढ़ोतरी रही। जनवरी के महीने में यह 5.43 प्रतिशत बढ़ी थी। अनाज के दाम 3.95 प्रतिशत बढ़े और मांस एवं मछली 7.45 प्रतिशत तक महंगे हो गए। वहीं फरवरी में अंडों के दाम 4.15 प्रतिशत बढ़े हैं। सब्जियों के दामों में 6.13 प्रतिशत और मसालों में 6.09 प्रतिशत की बढ़ोतरी दर्ज की गई थी। फलों की कीमतें जनवरी की तुलना में 2.26 प्रतिशत ही बढ़ीं थी।
रिजर्व बैंक को सरकार की तरफ से मुद्रास्फीति की दर को छह प्रतिशत के भीतर सीमित रखने का दायित्व मिला हुआ है। रिजर्व बैंक ने अगले वित्त वर्ष में खुदरा महंगाई को 4.5 प्रतिशत तक सीमित रखने का लक्ष्य तय किया है। वहीं चालू वित्त वर्ष के लिए यह अनुमान 5.3 प्रतिशत का है। मई 2020 से ही रिजर्व बैंक ने मुद्रास्फीति को काबू में रखने के लिए नीतिगत ब्याज दरों में कोई बढ़ोतरी नहीं की है। सरकार के पास महंगाई बढ़ने के हर तर्क मौजूद है, मगर उन्हें रोकने का एक भी उपाय नहीं है। महंगाई ने खासकर खाने-पीने की वस्तुओं की कीमतों में वृद्धि ने गरीब व मध्यवर्ग के लोगों का जीना मुहाल कर दिया है। मगर सरकार कुछ भी नहीं कर पा रही है। यदि महंगाई इसी तरह से बढ़ती रही तो देश में गरीब आदमी के पास तो मरने के अलावा अन्य कोई रास्ता ही नहीं बचेगा। केन्द्र सरकार को समय रहते महंगाई को रोकने की दिशा में प्रभावी कदम उठाने चाहिये जिससे आम आदमी में सरकार के प्रति बढ़ते आक्रोश को रोका जा सकें। वरना यही आम आदमी यदि सरकार के खिलाफ उठ खड़ा हुआ तो उसे सत्ता से उखाड़ फेंकने में देर नहीं लगेगी।
-रमेश सर्राफ धमोरा
(लेखक राजस्थान सरकार से मान्यता प्राप्त स्वतंत्र पत्रकार हैं। इनके लेख देश के कई समाचार पत्रों में प्रकाशित होते रहते हैं)
संघ में अलग अलग प्रकार की कई बैठकें होती हैं परंतु इनमें सबसे बड़ी एवं निर्णय की दृष्टि से सबसे महत्वपूर्ण बैठक प्रतिनिधि सभा के रूप में होती है। अभी हाल ही में दिनांक 11 मार्च से 13 मार्च 2022 के बीच प्रतिनिधि सभा की बैठक गुजरात के कर्णावती में सम्पन्न हुई है।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ आज पूरे विश्व में सबसे बड़ा स्वयंसेवी संगठन बन गया है। वैश्विक स्तर पर कई देशों में तो संघ की कार्य पद्धति पर कई शोध कार्य किए जा रहे हैं कि किस प्रकार यह संगठन अपने 97 वर्षों के लम्बे कार्यकाल में फलता फूलता रहा है एवं किस प्रकार यह समाज के समस्त वर्गों को अपने साथ लेते हुए अपने कई कार्यकर्मों को लागू करने में सफलता अर्जित करता आया है। आज जब कई देशों में अलगाववाद के बीज बोकर भाई को भाई से लड़ाया जा रहा है ऐसे माहौल में संघ भारत के नागरिकों में राष्ट्रीयता की भावना विकसित कर उनमें सामाजिक समरसता के भाव को जगाने में सफल रहा है।
यूं तो संघ में अलग अलग प्रकार की कई बैठकें होती हैं परंतु इनमें सबसे बड़ी एवं निर्णय की दृष्टि से सबसे महत्वपूर्ण बैठक प्रतिनिधि सभा के रूप में होती है। अभी हाल ही में दिनांक 11 मार्च से 13 मार्च 2022 के बीच प्रतिनिधि सभा की बैठक गुजरात के कर्णावती में सम्पन्न हुई है। पूर्व में प्रतिनिधि सभा की बैठकें केवल नागपुर नगर में ही हुआ करती थीं परंतु अब नागपुर नगर के बाहर भी इस बैठक का आयोजन किया जाने लगा है। प्रतिनिधि सभा की बैठक में चयनित प्रतिनिधि, प्रान्त संघचालक, प्रान्त कार्यवाह एवं विविध संगठनों के प्रतिनिधि अपेक्षित रहते हैं। इस वर्ष देश भर के सभी प्रांतों से 1248 कार्यकर्ता बैठक में अपेक्षित थे। प्रतिनिधि सभा की बैठक में आगामी वर्ष में किए जाने वाले कार्यों के बारे में योजना बनायी जाती है तथा गत वर्ष में सम्पन्न किए गए कार्यों की समीक्षा की जाती है। सरकार्यवाह संघ कार्य एवं विभिन्न प्रांतों का प्रतिवेदन भी इस बैठक में प्रस्तुत करते हैं। आज संघ समाज में समरसता, पर्यावरण, परिवार प्रबोधन अदि विषयों पर अनेक संगठनों के साथ मिलकर कार्य कर रहा है, इन विषयों पर भी प्रतिनिधि सभा की बैठक में चर्चा की जाती है।
हाल ही के समय में देश भर में संघ का कार्य बहुत तेजी से फैला है। हालांकि कोरोना महामारी के चलते संघ की प्रत्यक्ष शाखाओं का कार्य भी प्रभावित हुआ था परंतु अब तो संघकार्य 2020 की तुलना में 98.6% पुनः प्रारम्भ हो चुका है। साप्ताहिक मिलन की संख्या भी बढ़ी है। दैनिक शाखाओं में 61% शाखाएं छात्रों की हैं और 39% व्यवसायी शाखाएं हैं। संघ की दृष्टि से देशभर में 6506 खंड हैं, इनमें से 84% में शाखाएं हैं। 59,000 मंडलों में से लगभग 41% मंडलों में संघ का प्रत्यक्ष शाखा के रूप में कार्य है। 2303 नगरीय क्षेत्रों में से 94% में शाखा का कार्य चल रहा है एवं आने वाले दो वर्षों में सभी मंडलों में संघ की शाखा हो, ऐसा प्रयास किया जा रहा है। संघ के शताब्दी वर्ष के अवसर पर संघ कार्य एक लाख स्थानों तक ले जाने का लक्ष्य निर्धारित किया गया है। 2017 से 2021 तक संघ की वेबसाइट में ‘जवॉइन आरएसएस’ के माध्यम से 20 से 35 आयु वर्ग के लगभग 1 लाख से 1.25 लाख युवाओं ने प्रतिवर्ष संघ से जुड़ने की इच्छा व्यक्त की है।
कोरोना महामारी के दौरान संघ के स्वयंसेवकों ने समाज के साथ मिलकर सक्रियता के साथ सेवा कार्य किया था। लगभग 5.50 लाख स्वयंसेवकों ने महामारी के पहले दिन से ही सेवा कार्य प्रारम्भ कर दिया था तथा पूरे समय समाज के साथ सक्रिय सहयोग किया। विश्व में भारत ही एकमात्र ऐसा देश है, जहां बहुत बड़ी संख्या में मठ, मंदिर, गुरुद्वारों से बहुत बड़ा वर्ग सेवा कार्य के लिए निकला। यह एक जागरूक राष्ट्र के लक्षण हैं। साथ ही संघ द्वारा धर्म जागरण, कृषि विकास, पर्यावरण संरक्षण, कुटुंब प्रबोधन, गौसंवर्धन एवं ग्रामीण विकास का कार्य बहुत अच्छी मात्रा में एवं अच्छी गति के साथ चल रहा है।
देश को अंग्रेजों से स्वतंत्रता दिलाने के उद्देश्य से पूर्व में तो देश भर में एक सार्वदेशिक और सर्वसमावेशी राष्ट्रीय आन्दोलन चलाया गया था। इस आंदोलन के माध्यम से स्वामी दयानंद सरस्वती, स्वामी विवेकानंद, महर्षि अरविंद आदि आध्यात्मिक नेतृत्व ने देश के जन और जननायकों को ब्रिटिश अधिसत्ता के विरुद्ध सुदीर्घ प्रतिरोध करने हेतु प्रेरित किया था। इस आन्दोलन से देश में महिलाओं, जनजातीय समाज तथा कला, संस्कृति, साहित्य, विज्ञान सहित राष्ट्रजीवन के सभी आयामों में स्वाधीनता की चेतना जागृत हुई थी। लाल-बाल-पाल, महात्मा गांधी, वीर सावरकर, नेताजी-सुभाषचंद्र बोस, चंद्रशेखर आजाद, भगतसिंह, वेळू नाचियार, रानी गाईदिन्ल्यू आदि ज्ञात-अज्ञात स्वतंत्रता सेनानियों ने आत्म-सम्मान और राष्ट्र-भाव की भावना को और प्रबल किया। कालांतर में प्रखर देशभक्त डॉ. हेडगेवार के नेतृत्व में स्वयंसेवकों ने भी अपनी भूमिका का निर्वहन किया।
देश में संघ की स्थापना की आवश्यकता इसलिए भी हुई थी क्योंकि मुगल आक्रांताओं ने भारत को लूटने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी थी एवं अंग्रेजों ने भारत पर उपनिवेशवादी आक्रमण अपने व्यापारिक हितों को साधते हुए किया था, साथ ही, भारत को राजनैतिक, साम्राज्यवादी और धार्मिक रूप से गुलाम बनाने का भरपूर प्रयास किया था। अंग्रेजों ने भारतीयों के एकत्व की मूल भावना पर आघात करके मातृभूमि के साथ उनके भावनात्मक एवं आध्यात्मिक संबंधों को दुर्बल करने का षड्यंत्र किया था। उन्होंने भारत की स्वदेशी अर्थव्यवस्था, राजनैतिक व्यवस्था, आस्था-विश्वास और शिक्षा प्रणाली पर प्रहार कर स्व-आधारित तंत्र को सदा के लिए विनष्ट करने का भी प्रयास किया था। अतः किसी ऐसे राष्ट्रीयता से ओतप्रोत संगठन की आवश्यकता थी जो देश में पुनः राष्ट्रीयता की भावना का संचार कर सके। इस कार्य को संघ ने बखूबी अंजाम दिया है।
भारत के स्वतंत्रता आन्दोलन में कतिपय कारणों से ‘स्व’ की प्रेरणा क्रमशः क्षीण होते जाने से देश को विभाजन की विभीषिका झेलनी पड़ी थी। स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् इस ‘स्व’ की भावना को राष्ट्र-जीवन के सभी क्षेत्रों में अभिव्यक्त करने का हमें मिला हुआ सुअवसर भी शायद गवां दिया गया था। परंतु अब भारतीय समाज को एक राष्ट्र के रूप में सूत्रबद्ध रखने और राष्ट्र को भविष्य के संकटों से सुरक्षित रखने के लिए ‘स्व’ पर आधारित जीवनदृष्टि को ढृढ़ संकल्प के साथ पुनः स्थापित करना आवश्यक है और अब स्वाधीनता की 75वीं वर्षगांठ इस दिशा में पूर्ण प्रतिबद्ध होने का अवसर उपलब्ध कराती है।
प्रतिनिधि सभा की बैठक के अंतिम दिन प्रेस वार्ता को संबोधित करते हुए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरकार्यवाह दत्तात्रेय होसबोले ने संघ की आगे आने वाले समय की योजना के बारे में बताते हुए कहा है कि भारत के विमर्श को मजबूत करने एवं उसे प्रभावी बनाने के लिए आने वाले वर्षों में विशेष प्रयास किए जाएंगे। उन्होंने कहा कि भारत के हिन्दू समाज, संस्कृति, इतिहास, यहां की जीवन पद्धति के बारे में एक सही चित्र को समाज के सम्मुख रखना चाहिए। भारत में और विदेशों में भी भारत के बारे में अज्ञान के कारण या जानबूझकर भ्रांतियां फैलाने का षड्यंत्र लंबे समय से चल रहा है। इस वैचारिक विमर्श को बदल कर तथ्यों पर आधारित भारत बोध के सही विमर्श को आगे बढ़ाया जाना चाहिए। समाज में बहुत सारे लोग इस विषय पर कार्य कर रहे हैं, शोध किया गया है, पुस्तकें लिखी गई हैं। इस विमर्श को आगे बढ़ाने के लिए उनके साथ भी समन्वय-सहयोग किये जाने के प्रयास किए जाएंगे। संघ का स्वयंसेवक हर बस्ती-मंडल में राष्ट्रीयता, राष्ट्र भावना को आगे बढ़ाने का कार्य करता है साथ ही समाज में संकट के समय समाज के सब लोगों को जोड़ने का कार्य भी संवेदना के साथ करता है।
अपने संगठन की ताकत बढ़ाना संघ का उद्देश्य बिलकुल नहीं है परंतु समाज की आंतरिक शक्ति जरूर बढ़नी चाहिए। देश में सामाजिक एकता, समरसता, संगठन भाव भी बढ़ना ही चाहिए। इस दृष्टि से संघ की शाखाओं के विस्तार की योजना भी बनाई गई है। इसी भावना को समझते हुए समाज ने अभी तक सहयोग भी किया है और स्वीकार भी किया है। संघ के स्वयंसेवक समाज के विभिन्न क्षेत्रों में कार्य कर रहे हैं। स्वयंसेवकों की पहल से समाज की सज्जन शक्ति के सहयोग से समाज परिवर्तन के कार्य को परिणामकारी ढंग से आगे बढ़ाया गया है। संघ चाहता है कि समाज के सभी लोग मिलकर तालमेल के साथ कार्य करें। इसलिए समाज परिवर्तन के कार्य को समाज का आंदोलन बनाना चाहते हैं। संघ देश के हर जिले में एक गांव को आदर्श गांव बनाना चाहता है। अभी देश में 400 गांव प्रभात गांव हैं, जहां कुछ परिवर्तन दिखता है। इस कार्य को भी संघ आगे आने वाले समय में गति प्रदान करेगा।
-प्रह्लाद सबनानी
सेवानिवृत्त उप महाप्रबंधक
भारतीय स्टेट बैंक
अब मीडिया कश्मीर में पंडितों के साथ घटी घटनाओं का सच खोज रहा है और उसे दिखाने का साहस भी जुटा पाया है नहीं तो अभी तक यही धारणा थी कि कश्मीर में कुछ हुआ ही नहीं और सभी कश्मीरी पंडित तो अपनी स्वेच्छा से पलायन कर गये। लेकिन अब सच उजागर हो चुका है।
विवेक अग्निहोत्री की यह फिल्म देखने के लिये पूरा देश सिनेमाघरों की ओर उमड़ पड़ा है। फिल्म ने अपनी लागत से 20 गुना कमाई करने वाली फिल्म जय संतोषी मां का रिकॉर्ड तोड़ दिया है। यह फिल्म अब बहुत तेजी से लोकप्रियता का शिखर छू रही है और दूसरी आने वाली फिल्मों पर भी दबाव बन गया है। “द कश्मीर फाईल्स” ने सिनेमा जगत के लिये एक लकीर खींच दी है। जो सेकुलर मीडिया जमात इन हृदय विदारक घटनाओं पर मौन हो थी अब उसी को फिल्म और कश्मीर की घटनाओं पर घंटों चर्चा करनी पड़ रही है।
अब मीडिया कश्मीर में पंडितों के साथ घटी घटनाओं का सच खोज रहा है और उसे दिखाने का साहस भी जुटा पाया है नहीं तो अभी तक यही धारणा थी कि कश्मीर में कुछ हुआ ही नहीं और सभी कश्मीरी पंडित तो अपनी स्वेच्छा से पलायन कर गये। लेकिन अब सच उजागर हो चुका है। फिल्म के दृश्यों को देखकर आँखों में आंसू भी आ रहे हैं और सवाल भी कि आखिर उस समय जो अत्याचार हो रहे थे उस समय की सरकारों ने कार्यवाही क्यों नहीं की?
आज “द कश्मीर फाईल्स” का विरोध वही लोग विरोध कर रहे हैं जो लोग अब तक यह छुपाते रहे हैं और अपनी राजनैतिक रोटियां सेकते रहे हैं। आज इस फिल्म को देशव्यापी भारी जनसमर्थन मिल रहा है और फिल्म के माध्यम से राष्ट्रवाद की एक नयी बयार चल पड़ी है। बहुत से लोग पूरा का पूरा सिनेमाघर ही बुक कराकर लोगों को दिखाने के लिए ले जा रहे हैं। सिनेमाघरों में शो के दौरान भारतमाता की जय, वंदेमातरम और जयश्रीराम के नारे लग रहे हैं। लोग अपने पूरे परिवार के साथ यह फिल्म देख रहे हैं और पंडितों के कश्मीर से पलायन के कारण समझ रहे हैं। युवा, महिलाएं ,बुजुर्ग समाज के हर वर्ग के लोग यह फिल्म देखने के लिए समय निकाल रहे हैं और दूसरे लोगों को प्रेरित भी कर रहे हैं। एक प्रकार से यह फिल्म जनमानस की फिल्म बन गयी है जिसे फिल्म इतिहास के पन्नों में याद रखा जायेगा। फिल्म की लोकप्रियता ने सभी रिकॉर्ड तोड़ दिये हैं। कई राज्यों ने जनता को सच दिखाने के लिए फिल्म को को टैक्स फ्री कर दिया है।
कुछ लोग इस सच से बौखला गए हैं और विरोध के लिए हिंसा का सहारा ले रहे हैं। कई जगहों पर फिल्म देखकर लौट रहे लोगों पर जानलेवा हमले किये गये हैं। बंगाल में भाजपा सांसद जगन्नाथ सरकार पर कातिलाना हमला किया गया। ऐसी रिपोर्टें देखने को मिली हैं कि कई जगहों पर मुस्लिम समुदाय के लोग फिल्म देखकर लौट रहे लोगों पर बमों से हमला कर रहे हैं।
लखनऊ से लेकर बंगाल और केरल तक सेकुलर गैंग फिल्म को बिना देखे ही तिलमिला गया है। जब एक फिल्म देखकर यह गैंग तिलमिला गया है तो उससे यह साफ हो जाता है कि कश्मीर में पंडितों के साथ अत्याचार हुए थे जिसे इन सभी दलों और तत्वों का समर्थन व सहयोग भी हासिल था। “द कश्मीर फाईल्स” को देखे बिना ही जब शिवसेना जैसे दलों के नेता भी फिल्म के खिलाफ बयान देते हैं तो उन लोगों पर गहरा शक हो जाता है। शिवसेना जैसे दल जो कभी हिंदू हित की बातें करते थे और सदन के अंदर व बाहर धारा-370 को हटाने की मांग करते थे वही लोग आज कह रहे हैं कि इस फिल्म से नफरत की आग बढ़ रही है।
यह सेकुलर गैंग एक के बाद एक जो बयान दे रहा है उससे यह भी साबित हो गया है कि यह गैंग हिंदू सनातन संस्कृति से कितनी नफरत करता है। एक कांग्रेसी सांसद ने कहा कि अगर “कश्मीर फाईल्स” बन सकती है तो गुजरात फाईल्स क्यों नहीं बन सकती। उत्तर प्रदेश के समाजवादी नेता अखिलेश यादव ने कहा कि लखीमपुर फाईल्स भी बननी चाहिए। वहीं कश्मीरी पंडितों पर अत्याचार के लिए जिम्मेदार फारूख अब्दुल्ला ने कहा कि अब समय आ गया है कि देश के सभी मुसलमान एकजुट हो जायें। आज हिजाब से लेकर “द कश्मीर फाईल्स” तक और फिर गुजरात और कर्नाटक में गीता पढ़ाने को लेकर हर विषय पर अपनी विकृत मानसिकता का परिचय देकर समाज में खुद जहर घोल रहे हैं। यह वही लोग हैं जो एक मुस्लिम के साथ यदि कोई दुर्घटना घटित हो जाती है तो पूरे देश में बयान दे देकर आग लगा देते हैं और सेकुलर मीडिया भी खूब गर्मागर्म बहस करता है लेकिन यदि हिंदू समाज के साथ कोई अत्याचार होता है तो यह सभी दल व नेता चुप्पी साध जाते हैं। “द कश्मीर फाईल्स” में एक संवाद में ऐसे पत्रकारों को दलाल व आस्तीन का सांप तक कहा गया है जिन्होंने सच को छुपाया और गलत जानकारिया दीं।
यह वही लोग है जिन्होंने जनवरी 1990 में चुप्पी साध ली थी और आज विरोध कर रहे हैं और आरोप लगा रहे हैं कि इस फिल्म के कारण समाज में नफरत फैल रही है। जबकि यह फिल्म सच्चाई का एक आईना है जो अभी भी पूरा नहीं दिखाया गया है। जब पूरा का पूरा सच सामने आ जायेगा तब सेकुलर गैंग का क्या होगा? आज इस फिल्म के माध्यम से देश में एक नयी जन जागृति पैदा हो रही है और देश का जनमानस कश्मीरी पंडितों के साथ अत्याचार करने वालों को फांसी की सजा देने की मांग तक कर रहा है। एक जाने माने वकील ने देश के राष्ट्रपति के समक्ष याचिका दायर कर पूरे घटनाक्रम की एसआईटी गठित कर फिर से जांच कराने की मांग की है।
फिल्म के निर्देशक विवेक रंजन अग्निहोत्री का कहना है कि “द कश्मीर फाईल्स” संवदेनशीलता, मानवाधिकार और नरसंहार के खिलाफ अलग-अलग विचारधारा के लोगों को एक मंच पर लाने में सफल रही है। फिल्म का वही लोग विरोध कर रहे हैं जो केवल आधा सच ही जानते हैं। वही लोग विवाद की भी जड़ हैं। आज 32 सालों के बाद फिल्म के माध्यम से नरसंहार का सच सामने आया है। यह फिल्म बनने से पहले हर घटना पर पूरी तरह से शोध किया गया है। पीड़ित पक्षों से मिलकर कहानी बनायी गयी जो पूरी तरह से सत्य घटनाओं पर आधारित है।
फिल्म के सभी कलाकारों ने बहुत ही जोरदार अभिनय किया है। यह फिल्म धार्मिक कट्टरता और आतंकवाद की विभीषिका को निर्भीकता से प्रकट कर रही है। यह हिंदू समाज व देश को जागरूक करने का काम कर रही है। बहुत दिनों बाद एक ऐसी फिल्म आयी जिसकी चर्चा हर घर में हो रही है।
समय की मांग है कि अब कश्मीरी पंडितो पर अत्याचर करने वाले क्रूर आतंकवादियों को सजा दी जाये। एक रिपोर्ट के अनुसार कश्मीर पुलिस ने यासिन मलिक और बिट्टा कराटे को बाद में हिरासत में लिया था लेकिन जम्मू-कश्मीर के तत्कालीन नेताओं विशेषकर फारूख अब्दुल्ला की सरकार ने बहुत ही सोची समझी साजिश के तहत बिट्टा कराटे को जेल से छूट जाने दिया था। आज जो लोग कश्मीर में घटित घटनाओं के लिए तत्कालीन राज्यपाल जगमोहन व बीजेपी को दोष दे रहे हैं वह अपने पापों से मुंह मोड़ रहे हैं। लेकिन उन सभी लोगों के पाप का घड़ा अब फूट रहा है। आज नहीं तो कल सभी दोषियों को उनके पाप कर्म की सजा तो अवश्य मिलेगी। फिल्म से उपजी बहस से यह बात भी साफ हो गयी है कि घाटी के हालातों के लिए राजीव गांधी और फारूख अब्दुल्ला की मित्रता ही जिम्मेदार थी। यही कारण है कि आज कांग्रेस गांधी परिवार को बचाने के लिए पूर्व राज्यपाल जगमोहन को दोष दे रही है जबकि सच्चाई यह है कि उन्हीं की एक पुस्तक में सारा विवरण व तथ्य मौजूद हैं कि उन्होंने कई बार केंद्र सरकार से मदद मांगी थी लेकिन वोट बैंक तथा फारूख से अपनी मित्रता के कारण उन्होंने कोई मदद नहीं की थी।
-मृत्युंजय दीक्षित
देखने के लिए आंखें, सुनने के लिए कान, सोचने के लिए मन और काम करने के लिए हाथ-पैर भगवान ने सोच-समझकर बनाए हैं। साथ में भूख, प्यास और भोग-लालसा भी है। इन साधनों का सही और सार्थक प्रयोग करने से प्राणी अपने प्राणों का पालन-पोषण आराम से कर सकता है।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सर संघचालक मोहन भागवत ने कर्णावती के अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा की 11-13 मार्च 2022 की बैठक में देश में एक ऐसा आर्थिक मॉडल विकसित करने हेतु आग्रह किया है जिसके अंतर्गत मजबूत ग्रामीण अर्थव्यवस्था के साथ-साथ रोजगार के अधिक अवसर निर्मित हो सके। जिससे कुटीर एवं लघु उद्योगों का ग्रामीण इलाकों में विस्तार किया जा सके। संघ के ये स्वावलम्बी एवं आत्मनिर्भर अर्थतंत्र के ये विचार, दर्शन, कार्यक्रम एवं इतिहास प्रारंभ से ही सशक्त एवं सुदृढ़ राष्ट्र-निर्माण का आधार रहे हैं। संघ का भारत की आजादी एवं इसके नवनिर्माण में अभूतपूर्व योगदान रहा है और अब भारत को समग्र दृष्टि से विकसित करने के लिये संघ प्रयासरत है, जो एक सुखद आश्चर्य का विषय है, जिस पर समग्र राष्ट्र को बिना किसी आग्रह, पूर्वाग्रह एवं दुराग्रह के आगे बढ़ना चाहिए।
संघ का स्पष्ट मतव्य है कि मानव केंद्रित, पर्यावरण के अनुकूल, श्रम प्रधान तथा विकेंद्रीकरण एवं लाभांश का न्यायसंगत वितरण करने वाले भारतीय आर्थिक मॉडल को विकसित किया जाना चाहिए, ताकि ग्रामीण अर्थव्यवस्था, सूक्ष्म उद्योग, लघु उद्योग और कृषि आधारित उद्योगों को विकसित करते हुए भारत की अर्थव्यवस्था को आत्मनिर्भर एवं स्वावलम्बी बनाया जा सके। ग्रामीण रोजगार, असंगठित क्षेत्र एवं महिलाओं के रोजगार और अर्थव्यवस्था में उनकी समग्र भागीदारी जैसे क्षेत्रों को बढ़ावा देना संघ के इस आर्थिक सोच का उद्देश्य है। संघ चाहता है कि देश की सामाजिक परिस्थितियों के अनुरूप नई तकनीकी तथा कौशल विकास को अंगीकार करके आर्थिक क्षेत्र में नये उजाले किये जाए।
संघ का नया आर्थिक मॉडल माध्यम है एक सशक्त भारत के निर्माण को प्रभावी प्रस्तुति देने का। यह एक दस्तक है, एक आह्वान है जिससे न केवल सशक्त भारत का निर्माण होगा, बल्कि इस अनूठे काम में लगे संघ और उसके आर्थिक मॉडल से भारत के असंख्य युवाओं की आर्थिक समस्याओं एवं बेरोजगारी की समस्या से मुक्ति मिल सकेगी। बदलती आर्थिक तथा तकनीकी परिदृश्य की वैश्विक चुनौतियों का सामना करने के लिए भी हम सभी को मिलकर सामाजिक स्तर पर नवोन्मेषी पद्धतियां ढूंढ़ने की आवश्यकता है। उभरती डिजिटल अर्थव्यवस्था एवं निर्यात की संभावनाओं से उत्पन्न रोजगार और उद्यमिता के अवसरों का गहन अन्वेषण भी किया जाना चाहिए। इन्हीं सब जरूरतों को ध्यान में रखते हुए संघ ने नये आर्थिक मॉडल पर गहन चिन्तन-मंथन किया है।
भारत को सशक्त राष्ट्र बनाने, भारतीय संस्कृति को समृद्ध एवं शक्तिशाली बनाने के लक्ष्य के साथ 27 सितंबर 1925 को विजयदशमी के दिन संघ की स्थापना की गई थी। 2025 में यह संगठन 100 साल का हो जाएगा। नागपुर के अखाड़ों से तैयार हुआ संघ मौजूदा समय में विराट रूप ले चुका है। इसके इसी विराट स्वरूप का एक चरण है उसका स्वतंत्र आर्थिक चिन्तन एवं मॉडल। इसमें राष्ट्रीयता एवं भारतीयता की शुभता की आहट सुनाई देती है। संघ के प्रति लोगों की सोच बदलनी चाहिए क्योंकि इसकी सच्चाइयों एवं वास्तविकताओें को अब तक बिना जाने-समझे एवं तथाकथित पूर्वाग्रहों-दुराग्रहों के चलते एक खास खांचे में फिट करके देखते रहे हैं। एक सामाजिक-सांस्कृतिक-राष्ट्रीय संगठन के रूप में संघ देश और शायद दुनिया का सबसे विशाल संगठन है। जिसने हमेशा नई लकीरें खींची हैं, एक नई सुबह का अहसास कराया है। संघ शोषण और स्वार्थ रहित समाज चाहता है। संघ ऐसा समाज चाहता है जिसमें सभी लोग समान हों। समाज में कोई भेदभाव न हो। दूसरों के अस्तित्व के प्रति संवेदनशीलता आदर्श जीवनशैली का आधार तत्व है और संघ इसे प्रश्रय देता है। इसके बिना अखण्ड राष्ट्रीयता एवं समतामूलक समाज की स्थापना संभव ही नहीं है। जब तक व्यक्ति अपने अस्तित्व की तरह दूसरे के अस्तित्व को अपनी सहमति नहीं देगा, तब तक वह उसके प्रति संवेदनशील नहीं बन पाएगा। जिस देश और संस्कृति में संवेदनशीलता का स्रोत सूख जाता है, वहाँ मानवीय रिश्तों में लिजलिजापन आने लगता है।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ एक विचारधारा है, एक संस्कृति है, एक आन्दोलन है, एक मिशन है, इसलिये उसके बेरोजगारी दूर करने एवं स्वावलम्बन के नवीन उद्घोष का राष्ट्र निर्माण में अपूर्व योगदान हो सकता है। बात केवल आजादी में योगदान की ही नहीं है, बल्कि भारत को सशक्त एवं स्वावलम्बन बनाने की भी है। 1925 से 1940 तक स्वतंत्रता आंदोलन का सहयोग करते हुए डॉ. हेडगेवार ने स्वयंसेवक बनाने पर ध्यान दिया, उनका मानना था कि स्वयंसेवक आजादी के सिपाही के रूप में खड़े होंगे और वे हुए भी। 1940 तक संघ का सांगठनिक आधार देश भर में काफी व्यापक हो चुका था, जिसे उनके बाद गुरुजी गोलवलकर ने वैचारिक सुदृढ़ता प्रदान की। अब संघ को विस्तार देते हुए एवं उसकी ताकत को लगातार बढ़ाते हुए मोहन भागवत आर्थिक मजबूती एवं स्वावलम्बन पर सार्थक चिन्तन कर रहे हैं।
संघ को राष्ट्र की चिंता है, उसके अनुरूप उसकी मानसिकता को दर्शाने वाले इस नवीन स्वावलम्बन उद्घोष से निश्चित ही भारत के भविष्य की दिशाएं तय होंगी। संघ की दिलचस्पी राजनीति में कम और राष्ट्रनीति में अधिक है। उन्होंने समाज निर्माण को अपना एक मात्र लक्ष्य बताया। संघ का हिंदुत्व सब को जोड़ता है, स्वावलम्बी एवं आत्मनिर्भर बनाता है। संघ एक पद्धति है जो व्यक्ति एवं समाज में आर्थिक संतुलन का निर्माण करती है। प्रत्येक गांव और गली में ऐसे स्वयंसेवक खड़े करना संघ का काम है, जो सबको समान नजर से देखता हो, जो स्वयं आत्मनिर्भर एवं स्वावलम्बी होकर दूसरों को स्वावलम्बी बनाये।
संघ ने अपने प्रस्ताव में भारतीय अर्थव्यवस्था को सुदृढ़ करते हुए समग्र विकास के लक्ष्य को प्राप्त करने हेतु नागरिकों से रोजगार सृजन के भारत केंद्रित मॉडल पर काम करने का आह्वान भी किया है। साथ ही समाज के सभी घटकों का भी आह्वान किया है कि विविध प्रकार के कार्य के अवसरों को बढ़ाते हुए हमारे शाश्वत मूल्यों पर आधारित एक स्वस्थ कार्य-संस्कृति को प्रस्थापित करें, जिससे भारत वैश्विक आर्थिक परिदृश्य पर पुनः अपना उचित स्थान अंकित कर सके। कोरोना महामारी में संघ सहित विभिन्न स्वयंसेवी, समाजसेवी, धार्मिक, औद्योगिक एवं आर्थिक संगठनों ने समाज के गरीब एवं जरूरतमंद वर्ग की मदद करने में आपस में मिलकर कार्य किया था उसी प्रकार अब भारत को स्वावलंबी बनाने के लिए भी इन सभी संगठनों को आगे आकर रोजगार के नये-नये अवसर उपलब्ध कराने की अपेक्षा संघ द्वारा की जा रही है। देश में रोजगार सृजन के अनेक सफल उदाहरण उपलब्ध हैं। इन प्रयासों में स्थानीय विशेषताओं, व्यवसायियों, सूक्ष्म वित्त संस्थानों, स्वयं सहायता समूहों और स्वैच्छिक संगठनों ने मूल्यवर्धित उत्पादों, सहकारिता, स्थानीय उत्पादों के प्रत्यक्ष विपणन और कौशल विकास आदि के क्षेत्रों में प्रयास प्रारंभ किये हैं। इन प्रयासों ने हस्तशिल्प, खाद्य प्रसंस्करण, घरेलू उत्पादों तथा पारिवारिक उद्यमों जैसे व्यवसायों को बढ़ावा दिया है। उन सभी अनुभवों को परस्पर साझा करते हुए जहां आवश्यकता है, वहां उन्हें दोहराने के बारे में विचार किया जा सकता है। इससे समाज में ‘स्वदेशी और स्वावलम्बन’ की भावना उत्पन्न करने के प्रयासों से उपर्युक्त पहलों को प्रोत्साहन मिलेगा।
देखने के लिए आंखें, सुनने के लिए कान, सोचने के लिए मन और काम करने के लिए हाथ-पैर भगवान ने सोच-समझकर बनाए हैं। साथ में भूख, प्यास और भोग-लालसा भी है। इन साधनों का सही और सार्थक प्रयोग करने से प्राणी अपने प्राणों का पालन-पोषण आराम से कर सकता है और दूसरों की सहायता भी कर सकता है, इसी दृष्टि से संघ ने नवीन आर्थिक परिदृश्यों को विकसित करने की आवश्यकता व्यक्त की है। जहां तक हो सके अपने आप अपना काम करने और अपनी मौलिक आवश्यकताओं की पूर्ति करने का प्रयास करने से शरीर को सुख मिलता है, मन को प्रसन्नता होती है और आत्मा को स्वावलम्ब का अमृत रसास्वादन के लिए मिलता है। स्वावलम्ब के बल पर जीने वाला सबसे सुखी होता है। उसके लिए दूसरों पर निर्भर रहना नहीं पड़ता है। इसी बात को राष्ट्र कवि मैथिलीशरण गुप्त ने बड़े सरल शब्दों में कहा था-स्वावलंब की एक झलक पर, न्यौछावर कुबेर का कोष। यदि सुखमय जीवन के इस सहज मार्ग को सब लोग अपनाते हैं तो सामाजिक जनजीवन स्नेह, सौहार्द और समरसता से चल पाता है, अन्यथा बिना प्रयास, श्रम और साधना के अनर्जित सुख प्राप्त करने की या दूसरों की कमाई पर जीने या दूसरों की संपत्ति हड़प कर आसुरी आनंद पाने की प्रवृत्ति बढ़ जाती है।
-ललित गर्ग
सल 1949 में संयुक्त राष्ट्र में जम्मू कश्मीर के लोगों को जमनत संग्रह का अधिकार दिया था। ये भारत सरकार की बड़ी भूल की वजह से हुआ था। वर्ष 1947 में जम्मू कश्मीर के भारत में विलय को संयुक्त राष्ट्र की मदद से सुलझाने की कोशिश की गई
26 अक्टूबर 1947, अमर पैलेस, जम्मू... "मैं महाराजा हरि सिंह जम्मू और कश्मीर को हिंदुस्तान में शामिल होने का ऐलान करता हूं।" इन लफ्जों के साथ महाराजा ने अपनी रियासत को हिंदुस्तान में शामिल होने के लिए एग्रीमेंट पर साइन कर दिया। इन शब्दों के साथ ही जम्मू और कश्मीर का मसला हमेशा के लिए खत्म हो जाना चाहिए। लेकिन ऐसा हुआ नहीं और ऐसा क्यों नहीं हुआ? इसके लिए कौन जिम्मेदार है? कुछ लोग कहते हैं महाराजा हरि सिंह ने देर कर दी, इसलिए हम लोग कश्मीर समस्या को आज तक सुलझा नहीं पाए। कुछ लोग कहते हैं पंडित नेहरू यूएन चले गए, इसलिए आज तक हमारे सामने यह समस्या है तो कुछ लोग कहते हैं कि यह समस्या पाकिस्तान ने बनाई है। बजट सत्र चल रहा है और देश के माननीय लोक कल्याण के मुद्दों को लेकर लोकतंत्र के मंदिर कहे जाने वाले संसद में विभिन्न मुद्दों पर चर्चा कर रहे हैं। लेकिन संसद में इन दिनों कश्मीर को लेकर चर्चा खूब हो रही है। कश्मीर का जिक्र होता है तो पंडित नेहरू का भी खूब जिक्र होता है और संयुक्त राष्ट्र व जनमत संग्रह का भी। केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने आरोप लगाया कि देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने कश्मीर मुद्दे को संयुक्त राष्ट्र में ले जाकर इसका अंतरराष्ट्रीयकरण किया। इसका दुरुउपयोग पड़ोसी देश आज भी कर रहा है।
क्या कहा वित्त मंत्री ने
सीतारमण ने कहा, 'कांग्रेस ने (कश्मीर) मुद्दे का अंतरराष्ट्रीयकरण किया था। वह हमारे पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू जी थे जो इसे दिसंबर 1947 में संयुक्त राष्ट्र में ले गए थे। क्यों? हमारा पड़ोसी देश (पाकिस्तान) इसका अभी भी दुरुपयोग कर रहा है। आखिर इसके लिए जिम्मेदार कौन है?'
वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने जिस बात का जिक्र किया और इतिहास के तथ्यों का हवाला दिया वो वास्तविकता से काफी करीब भी है। वैसे संयुक्त राष्ट्र और इस मंच पर कश्मीर का मुद्दा कोई नया नहीं है। शुरुआती दौर से ही ये मुद्दा वैश्विक मंच पर उठता रहा है। जिसकी बड़ी वजह भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू रहे हैं। कश्मीर को लेकर नेहरू की नीतियों को लेकर हमेशा से सवाल उठते रहे हैं। पाकिस्तान के कबायलियों के भेष में हमले से लेकर यूएन जाने के स्टैंड तक। पूरे मामले को समझने के लिए हम आपको थोड़ा इतिहास में लिए चलते हैं। वो इतिहास जब भारत आजादी को प्राप्त तो नहीं किया था लेकिन इसके बहुत करीब भी था।
शेख अब्दुल्ला की रिहाई के लिए महाराजा हरि सिंह से भिड़ गए नेहरू
जून 1947 का दौर जब न केवल ब्रिटिश भारत छोड़ रहे थे बल्कि भारत में भी नई व्यवस्था तैयार हो रही थी। हरि सिंह जम्मू कश्मीर को पाकिस्तान से जोड़ना नहीं चाहते थे। महाराजा को अब भारत में अंग्रेजों से नहीं बल्कि पंडित नेहरू के साथ संबंध जोड़ना था और उनकी छत्रछाया में रहना था। दूसरी तरफ नेहरू महाराजा के फैसले लेने के अख्तियार पर ही सवाल उठा रहे थे। उनकी नजर में शेख अब्दुल्लाह ही जम्मू-कश्मीर के भविष्य का फैसला कर सकते थे, जिन्हें महाराजा हरि सिंह ने जेल में बंद करवा रखा था। बता दें कि शेख अब्दुल्ला ने महाराजा हरी सिंह के खिलाफ "क्विट कश्मीर" आंदोलन चलाया जिसके बाद महाराजा हरि सिंह ने 1946 में शेख अब्दुल्ला को जेल में बंद कर दिया था। अपने परम मित्र को छुड़ाने के लिए पंडित नेहरू खुद ही कश्मीर की ओर रवाना हो गए। महाराजा हरि सिंह को ये बात नागवार गुजरी और उन्होंने पंडित नेहरू के कश्मीर आने पर ही प्रतिंबध लगा दिया। नेहरू ने जब कश्मीर में दाखिल होने की कोशिश की तो महाराजा हरि सिंह ने उनकी गिरफ्तारी के आदेश दे दिए। लेकिन बाद में जवाहरलाल नेहरू की कोशिशों से शेख अब्दुल्ला जेल से रिहा हो गए।
जिन्ना को जवाब देने की जिद बाद में बन गई अशांति की बड़ी वजह
शेख अब्दुल्ला कश्मीर के लोकप्रिय नेता थे और पंडित नेहरू से भी उनके रिश्ते थे। पंडित नेहरू ने सोचा कि शेख अब्दुल्ला कश्मीरी आवाम का नेतृत्व करते हैं। उनकी रिहाई से पूरी दुनिया में संदेश जाएगा कि जो भी फैसला हुआ है वो सभी की सहमति से हुआ है। जिसके पीछे का बड़ा कारण जिन्ना की टू नेशन वाली थ्योरी का काउंटर था। राजनीतिक जानकार बताते हैं कि नेहरू ये दिखाना चाहते थे कि मुस्लिम बहुल कश्मीर की जनता भारत के साथ है और उनके चर्चित नेता शेख अब्दुल्ला भी भारत की बात करते हैं। कश्मीर के मामले में जवाहरलाल नेहरू की कुछ गलतियों की वजह से कश्मीर में शेख अब्दुल्ला का कद लगातार बढ़ता रहा। लेकिन जिन्ना को जवाब देने वाला स्टैंड आज तक जम्मू कश्मीर में अशांति की वजह बना हुआ है। जम्मू-कश्मीर का प्रधानमंत्री बनने के कुछ महीनों बाद ही शेख अब्दुल्ला ने पाकिस्तान की जुबान बोलनी शुरू कर दी। फिर 1953 में उन्हें जेल में डाल दिया गया।
आजादी के बाद से ही पाक हमले की फिराक में था
आजादी के बाद से ही पाकिस्तान जम्मू-कश्मीर पर हमला करने की फिराक में था। पाकिस्तानी हमले की रूपरेखा से जुड़ा एक पत्र संयोगवश मेजर ओएस कल्लत के हाथ लग गया। उस समय वह पाकिस्तानी इलाके बन्नू में थे। उन्होंने तुरंत भारत आकर आगाह किया। यह जानकर पटेल और तत्कालीन रक्षा मंत्री बलदेव सिंह घुसपैठियों से निपटने के लिए पाक से लगी जम्मू-कश्मीर सीमा पर सेना भेजना चाहते थे, लेकिन नेहरू इसके लिए राजी नहीं हुए। इसे भी राजनीति के जानकार एक बड़ी ऐतिहासिक भूल करार देते हैं। जिससे बाद के वर्षों में भी नेहरू ने कायम रखा।
संयुक्त राष्ट्र में कश्मीर मुद्दा
सल 1949 में संयुक्त राष्ट्र में जम्मू कश्मीर के लोगों को जमनत संग्रह का अधिकार दिया था। ये भारत सरकार की बड़ी भूल की वजह से हुआ था। वर्ष 1947 में जम्मू कश्मीर के भारत में विलय को संयुक्त राष्ट्र की मदद से सुलझाने की कोशिश की गई। जबकि ये घरेलू मामला था। आजादी के तुरंत बाद अक्टूबर 1947 को पाकिस्तान ने कश्मीर पर हमला कर दिया था और भारत के बड़े हिस्से पर कब्जा कर लिया था। जवाब में भारत की सेना पाकिस्तान से कश्मीर के वो सारे इलाके जीतकर लगातार आगे बढ़ रही थी। तभी अचानक प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने युद्ध विराम का ऐलान कर दिया। दुनिया में यह एकलौता उदाहरण है जहां जीतती हुई सेना को युद्ध विराम के कारण पीछे लौटना पड़ा। अचानक हुए इस फैसले से पाकिस्तान को जम्मू कश्मीर के एक बड़े हिस्से पर कब्जा करने का मौका मिल गया और युद्ध खत्म होने से पहले ही 1948 में जवाहर लाल नेहरू कश्मीर का मामला लेकर स्वयं ही संयुक्त राष्ट्र में चले गए और यहीं उनकी भूल थी। इस वजह से पाकिस्तान को पीओके से हटाया नहीं जा सका। जिसका नतीजा है कि पाकिस्तान कश्मीर को आज भी भारत के खिलाफ इस्तेमाल कर रहा है।
माउंटबेटन का विश्वास
यह अच्छी तरह से प्रलेखित है कि 15 अगस्त, 1947 से 21 जून, 1948 तक स्वतंत्रता के बाद भारत के पहले गवर्नर लॉर्ड माउंटबेटन थे। उनका मानना था कि तत्कालीन नव-स्थापित संयुक्त राष्ट्र कश्मीर विवाद को सुलझाने में मदद कर सकता है। माउंटबेटन ने 1 नवंबर 1947 को लाहौर में दो लोगों के बीच एक बैठक में मुहम्मद अली जिन्ना को यह सुझाव दिया था। अगले महीने नेहरू के लाहौर में लियाकत अली खान से मिलने के बाद, माउंटबेटन को यकीन हो गया कि एक मध्यस्थ की जरूरत है। कश्मीर इन कॉन्फ्लिक्ट के अनुसार उन्होंने अपने विचार व्यक्त करते हुए कहा कि मैंने महसूस किया कि गतिरोध पूरा हो गया था और अब एकमात्र रास्ता किसी तीसरे पक्ष को किसी न किसी क्षमता में लाना था। इस उद्देश्य के लिए मैंने सुझाव दिया कि संयुक्त राष्ट्र संगठन को बुलाया जाए। नेहरू की सबसे बड़ी भूल ये थी कि उन्होंने कश्मीर के मुद्दे पर सरदार पटेल को विश्वास में नहीं लिया और आज़ाद भारत के पहले गवर्नर जनरल लॉर्ड माउंटबेटन पर ज़रूरत से ज़्यादा भरोसा करते हुए कश्मीर पर जनमत संग्रह करवाने का फैसला ले लिया। विक्टोरिया शॉफिल्ड ने कश्मीर विवाद के अपने मौलिक इतिहास में लिखा है कि भारत पाकिस्तान के साथ समान स्तर पर निपटने के लिए तैयार नहीं था। दिसंबर 1947 के अंत में दोनों प्रधान मंत्री दिल्ली में फिर से मिले, तो नेहरू ने लियाकत अली खान को संयुक्त राष्ट्र चार्टर के अनुच्छेद 35 के तहत इस विवाद को संयुक्त राष्ट्र को संदर्भित करने के अपने इरादे से अवगत कराया। नतीजतन, 31 दिसंबर, 1947 को, नेहरू ने संयुक्त राष्ट्र महासचिव (तब नॉर्वे के ट्रिगवे लाई) को पत्र लिखकर जम्मू और कश्मीर में जनमत संग्रह को स्वीकार किया। उन्होंने कहा कि इस भ्रांति को दूर करने के लिए कि भारत सरकार जम्मू और कश्मीर में मौजूदा स्थिति का राजनीतिक लाभ लेने के लिए उपयोग कर रही है, भारत सरकार यह बहुत स्पष्ट करना चाहती है कि जैसे ही हमलावरों (पाकिस्तान समर्थित कबायली, जो भारत में प्रवेश कर चुके थे) कश्मीर घाटी) को खदेड़ दिया जाता है और सामान्य स्थिति बहाल हो जाती है, राज्य के लोग स्वतंत्र रूप से अपने भाग्य का फैसला करेंगे और यह निर्णय जनमत संग्रह या जनमत संग्रह के सार्वभौमिक रूप से स्वीकृत लोकतांत्रिक साधनों के अनुसार लिया जाएगा।
संयुक्त राष्ट्र में मुद्दा
संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद ने जनवरी 1948 में इस मामले को उठाया। न्यायविद सर जफरुल्ला खान ने पाकिस्तानी स्थिति के पक्ष में पांच घंटे तक बात की। सरदार वल्लभभाई पटेल के निजी सचिव वी शंकर ने अपने संस्मरण स्कोफिल्ड में कहा है कि भारत की तरफ से ब्रिटिश प्रतिनिधि, फिलिप नोएल-बेकर की भूमिका से नाखुश था, कहा जाता है कि परिषद को पाकिस्तान की स्थिति की ओर धकेल रहा था। जम्मू-कश्मीर में पाकिस्तान की ओर से किए गए हमले की हमारी शिकायत पर सुरक्षा परिषद में चर्चा ने बहुत प्रतिकूल मोड़ ले लिया है। जफरुल्ला खान, ब्रिटिश और अमेरिकी सदस्यों के समर्थन से, उस शिकायत से ध्यान हटाकर जम्मू-कश्मीर के प्रश्न पर भारत और पाकिस्तान के बीच विवाद की समस्या की ओर ध्यान हटाने में सफल रहा था। सरदार पटेल के निजी सचिव के अनुसार जम्मू कश्मीर में पाकिस्तान के हमले को उसकी आक्रामक रणनीति के कारण पृष्ठभूमि में धकेल दिया गया था। मानों जैसेहमने उसका मुकाबला करने के लिए कुछ नम्र और रक्षात्मक मुद्रा अपना रखी हो। 20 जनवरी, 1948 को, सुरक्षा परिषद ने विवाद की जांच के लिए भारत और पाकिस्तान के लिए संयुक्त राष्ट्र आयोग (यूएनसीआईपी) की स्थापना के लिए एक प्रस्ताव पारित किया और मध्यस्थता प्रभाव से कठिनाइयों को दूर करने की संभावना" को अंजाम दिया। सरदार पटेल नेहरू द्वारा मामले को संयुक्त राष्ट्र में ले जाने से असहज थे, और उन्हें लगा कि यह एक गलती है। स्कोफिल्ड में उन्होंने लिखा कि न केवल विवाद लंबा चला गया है, बल्कि सत्ता की राजनीति की बातचीत में हमारे मामले की योग्यता पूरी तरह से खो गई है।
संयुक्त राष्ट्र चार्टर का अनुच्छेद 35
इस पर कुछ बहस हुई है कि क्या भारत ने संयुक्त राष्ट्र से संपर्क करने के लिए गलत रास्ता चुना है। 2019 में गृह मंत्री अमित शाह ने कहा कि भारत संयुक्त राष्ट्र चार्टर के अनुच्छेद 35 के तहत संयुक्त राष्ट्र गया था जो विवादित भूमि से संबंधित है।अगर चार्टर के अनुच्छेद 51 के तहत संयुक्त राष्ट्र जाते तो यह भारतीय भूमि पर पाकिस्तान द्वारा अवैध कब्जे का मामला बनता। संयुक्त राष्ट्र के रिकॉर्ड के अनुसार भारत ने सुरक्षा परिषद को भारत और पाकिस्तान के बीच मौजूदा स्थिति की सूचना दी। जिसमें आक्रमणकारी, पाकिस्तान से सटे क्षेत्र के आदिवासी शामिल थे। संयुक्त राष्ट्र चार्टर के अनुच्छेद 33-38 में छह अध्याय आते हैं, "पेसेफिक सेटलमेंट ऑफ डिस्प्यूट" जिसका शीर्षक है।
बहरहाल, पंडित नेहरू ने जो गलती की उसकी सजा जम्मू-कश्मीर दशकों से भुगत रहा है। पाकिस्तान भी लगातार नेहरू के उसी बात को हर मंच पर उठाता है, जिसके तहत उन्होंने यूएन का दरवाजा खटखटाया था।
-अभिनय आकाश
1960 में के. आसिफ ने अकबर की बादशाहत पर 'मुगले-ए-आजम' के तौर पर एक भव्य और ऐतिहासिक फिल्म बनाई', जबकि उसी वक्त राजकपूर 'जिस देश में गंगा बहती है' और दिलीप कुमार 'गंगा-जमुना' जैसी फिल्में बना रहे थे।
समाज की बेहतरी, भलाई और मानवता का स्पंदन ही भारतबोध का सबसे प्रमुख तत्व है। फिल्म क्षेत्र में भारतीय विचारों के लिए यही कार्य 'भारतीय चित्र साधना' जैसी समर्पित संस्था विगत कई वर्षों से कर रही है। भारतीय चित्र साधना के प्रतिष्ठित 'चित्र भारती फिल्मोत्सव 2022' का आयोजन इस वर्ष मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल में 25 से 27 मार्च तक किया जाएगा। इस आयोजन के माध्यम से मध्य प्रदेश के युवाओं को कला जगत और खासकर फिल्मों के क्षेत्र में अवसर, प्रोत्साहन और मार्गदर्शन प्राप्त होगा।
आज का सिनेमा पश्चिम की नकल कर रहा है, जबकि भारतीय चित्र साधना भारतीय मूल्यों को बढ़ावा देने वाले सिनेमा पर कार्य कर रहा है। भारतीय सिनेमा का इतिहास भारत के आर्थिक, सांस्कृतिक, धार्मिक एवं राजनीतिक मूल्यों और संवेदनाओं का ऐसा इंद्रधनुष है, जिसमें भारतीय समाज की विविधता, उसकी सामाजिक चेतना के साथ सामने आती है। भारतीय समाज का हर रंग सिनेमा में मौजूद है। भारत में अलग-अलग समय में अलग तरह की फिल्मों का निर्माण किया गया। 1940 की फिल्मों का दशक गंभीर और सामाजिक समस्याओं से जुड़े मुद्दों को केंद्र में रखकर फिल्मों के निर्माण का समय था। 1950 का दशक फिल्मों का आदर्शवादी दौर था। 1960 का वक्त 1950 के दशक से काफी अलग था। राज कपूर ने जो रोमांटिक फिल्मों का ट्रेंड शुरू किया था, वह इस दौर में अपने पूरे शबाब पर था। 1970 का दशक व्यवस्था के प्रति असंतोष और विद्रोह का था। 1980 का फिल्मों का दशक यथार्थवादी फिल्मों का दौर था, जबकि 1990 का वक्त आर्थिक उदारीकरण का था।
भारतीय सिनेमा में जनमानस और भारतबोध के आधार पर फिल्मों का निर्माण करने की परंपरा बहुत पुरानी है। बॉलीवुड का सिनेमा भारतीय समाज की कहानी को कहने का सशक्त माध्यम रहा है। इसके जरिए भारत की स्वतंत्रता की कहानी, राष्ट्रीय एकता को कायम रखने के संघर्ष की कहानी और वैश्विक समाज में भारत की मौजूदगी की कहानी को चित्रित किया जाता रहा है। भारतीय सिनेमा विदेशों में काफी कामयाब हुआ है और इसके जैसा दूसरा कोई ब्रांड नहीं जो दुनिया भर में इतना कामयाब हुआ है। भारतीय सिनेमा में बदलते भारत की झलक भी मिलती रही है। 1943 में बनी फिल्म 'किस्मत' उस दौर में सुपर हिट साबित हुई थी। भारत छोड़ो आंदोलन जब चरम पर था, तब इस फिल्म का एक गाना बेहद लोकप्रिय हुआ था, 'दूर हटो ऐ दुनिया वालों हिंदुस्तां हमारा है।'
1949 में भारत को स्वतंत्रता मिले कुछ ही वक्त हुआ था। देश के तौर पर हमारी पहचान बस बन रही थी। तब 'शबनम' नामक फिल्म में पहली बार विविधभाषाई गीत का इस्तेमाल किया गया, जिसमें बंगाली, मराठी और तमिल भाषा का उपयोग किया गया था। इसके जरिए दर्शकों को ये बताने की कोशिश की गई थी कि ये सभी भाषाएं भारतीय भाषाएं हैं। मशहूर फिल्मकार वी. शांताराम 1921 से 1986 के बीच करीब 65 साल तक फिल्मी दुनिया में सक्रिय रहे। उन्होंने 1953 में विविध रंगी और बहुभाषी समाज होने के बाद भारत की एकता के मुद्दे पर 'तीन बत्ती चार रास्ते' फिल्म बनाई। इस फिल्म की कहानी में एक ऐसा परिवार था, जिसके घर की वधुएं अलग-अलग भाषाएं बोलती हैं।
1960 में के. आसिफ ने अकबर की बादशाहत पर 'मुगल-ए-आजम' के तौर पर एक भव्य और ऐतिहासिक फिल्म बनाई', जबकि उसी वक्त राजकपूर 'जिस देश में गंगा बहती है' और दिलीप कुमार 'गंगा-जमुना' जैसी फिल्में बना रहे थे। 1981 में प्रदर्शित मनोज कुमार की फिल्म 'क्रांति' ने भारतबोध के एक नए युग की शुरुआत की। 2001 में आमिर खान की फिल्म 'लगान' में भारत के एक गांव के किसानों को अपनी लगान की माफी के लिए अंग्रेजों के साथ क्रिकेट मैच खेलते हुए दिखाया गया। इस मैच में भारतीय गांव के किसानों ने अंग्रेजों को हरा दिया। ये विश्वस्त भारत की तस्वीर थी, जो अपने उपनिवेशवाद के दिनों को नए ढंग से देख रहा था। इसके अलावा भूमंडलीकरण और तेजी से बदलते महानगरीय समाज, खासकर महिलाओं की स्थिति को फिल्मों में दिखाया गया। ऐसी फिल्मों की शुरुआत 1994 में प्रदर्शित फिल्म 'हम आपके हैं कौन' से हुई।
भारत के सॉफ्ट पावर की शक्ति में हमारी फिल्मों की बहुत बड़ी भूमिका है। ये फिल्में ही हैं, जो पूरे विश्व में भारतीयता का प्रतिनिधित्व करती हैं। भारतीय फिल्में भारतीयता का आईना रही हैं। दुनिया को भी वो अपनी ओर आकर्षित करती रही हैं। हमारी फिल्में बॉक्स ऑफिस पर तो धूम मचाती रहती हैं, साथ ही पूरे विश्व में भारत की साख बढ़ाने, भारत को ब्रांड बनाने में भी बहुत बड़ा रोल प्ले करती हैं। सिनेमा की एक साइलेंट पावर ये भी है कि वो लोगों को बिना बताए, बिना ये जताए कि हम आपको ये सिखा रहे हैं, बता रहे हैं; एक नया विचार जगाने का काम करता है। अनेक ऐसी फिल्में होती हैं, जिन्हें173 देखकर जब लोग निकलते हैं, तो अपने जीवन में कुछ नए विचार ले करके निकलते हैं।
भारतीय फिल्मों में आज दिख रहा बदलाव सिर्फ स्टीवन स्पीलबर्ग की फिल्मों जैसा भव्य नहीं है, बल्कि यह एक सौंदर्यशास्त्रीय बदलाव है, जो बदल रहा है, उभर रहा है और अपनी स्वतंत्र राह पकड़ रहा है। इन दिनों शौचालय जैसा विषय हो, महिला सशक्तिकरण जैसा विषय हो, खेल हों, बच्चों की समस्याओं से जुड़े पहलू हों, गंभीर बीमारियों के प्रति जागरूकता का विषय हो या फिर हमारे सैनिकों का शौर्य, आज एक से एक बेहतरीन फिल्में बन रही हैं। विवेक अग्निहोत्री की फिल्म 'द कश्मीर फाइल्स' इस कड़ी का सबसे ताजा उदाहरण है। इन फिल्मों की सफलता ने सिद्ध किया है कि सामाजिक विषयों को लेकर भी अगर बेहतर विजन के साथ फिल्म बने, तो वो बॉक्स ऑफिस पर भी सफल हो सकती है और राष्ट्र निर्माण में अपना योगदान भी दे सकती है।
-प्रो. संजय द्विवेदी
महानिदेशक, भारतीय जन संचार संस्थान, नई दिल्ली
भारत को डराने के लिए जापान और आस्ट्रेलिया के प्रधानमंत्रियों ने चीन का घड़ियाल भी बजाया लेकिन आश्चर्य है कि इन्होंने अपनी पत्रकार-परिषद और संयुक्त वक्तव्य में एक बार भी गलवान घाटी में चीनी अतिक्रमण का जिक्र तक नहीं किया।
आस्ट्रेलिया के प्रधानमंत्री स्कॉट मोरिसन ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ हुई अपनी द्विपक्षीय वार्ता में वही बात कही, जो जापान के प्रधानमंत्री फ्यूमिओ किशिदा ने कही थी। दोनों प्रधानमंत्रियों ने यूक्रेन के सवाल पर रूस की आलोचना की और यह भी कहा कि रूस ने यूरोप में जो खतरा पैदा किया है, वैसा ही खतरा एशिया में चीन पैदा कर सकता है। इन दोनों देशों में कई नेताओं ने यह साफ-साफ कहा है कि यूक्रेन पर जैसा हमला रूस ने किया है, वैसा ही ताइवान पर चीन कर सकता है। चीन पर यह दोष तो पहले से ही मढ़ा हुआ है कि वह चीनी दक्षिण सागर और जापान के एक टापू पर अपना अवैध वर्चस्व जमाए हुआ है।
इन दोनों नेताओं के साथ मोदी ने इसी बात पर जोर दिया कि सभी देशों की स्वतंत्रता और संप्रभुता की रक्षा की जानी चाहिए और हमले की बजाय बातचीत को पसंद किया जाना चाहिए। दोनों नेताओं ने भारत को यूक्रेन के दलदल में घसीटने की कोशिश जरूर की लेकिन भारत अपनी नीति पर अडिग रहा। जापान और आस्ट्रेलिया ने अंतरराष्ट्रीय मंचों पर रूस के खिलाफ मतदान किया और उस पर थोपे गए प्रतिबंधों का समर्थन किया लेकिन भारत ने अमेरिका के इशारे पर थिरकने से मना कर दिया।
भारत को डराने के लिए इन राष्ट्रों ने चीन का घड़ियाल भी बजाया लेकिन आश्चर्य है कि इन्होंने अपनी पत्रकार-परिषद और संयुक्त वक्तव्य में एक बार भी गलवान घाटी में चीनी अतिक्रमण का जिक्र तक नहीं किया। इसका अर्थ यही निकला कि हर राष्ट्र अपने राष्ट्रीय स्वार्थों की ढपली बजाता रहता है और यह भी चाहता है कि दूसरे राष्ट्र भी उसका साथ दें। यह अच्छा है कि भारत ने कई बार दो-टूक शब्दों में कह दिया है कि चौगुटा (क्वॉड) नाटो की तरह सामरिक गठबंधन नहीं है लेकिन चीनी नेता इस चौगुटे को नाटो से भी बुरा सैन्य-गठबंधन ही मानते हैं। वे इसे ‘एशियन नाटो’ कहते हैं। उनका मानना है कि शीतयुद्ध की समाप्ति के बाद नाटो जैसे सैन्य संगठन को विसर्जित कर दिया जाना चाहिए था लेकिन उसके साथ पहले तो रूस के पूर्व प्रांतों को जोड़ लिया गया और अब यूक्रेन को भी शामिल किया जाना था। अमेरिका की यही आक्रामक नीति ‘क्वॉड’ के नाम से एशिया में थोपी जा रही है। चीन को पता है कि अमेरिका की यह आक्रामकता यूरोप और एशिया, दोनों का भयंकर नुकसान करेगी। चीन के विदेश मंत्री शीघ्र ही भारत आने वाले हैं। इस समय यूक्रेन पर भारत और चीन का रवैया लगभग एक-जैसा ही है।
-डॉ. वेदप्रताप वैदिक
पैगंबर मोहम्मद के जमाने में श्रेष्ठी महिलाओं को दुष्कर्मियों से बचाने के लिए और चालू औरतों से अलग दिखाने के लिए हिजाब का चलन शुरू किया गया था। अब उसी परंपरा को डेढ़ हजार साल बाद दुनिया के सभी देशों की मुसलमान औरतों पर थोप देना कहां तक उचित है?
कर्नाटक उच्च न्यायालय ने स्कूल-कालेजों में हिजाब पर प्रतिबंध को सही ठहरा दिया है। मेरी राय में हिजाब पहनना और हिजाब पर प्रतिबंध, दोनों ही गैर-जरूरी हैं। हमें उससे आगे की सोचना चाहिए। मुसलमान औरतें हिजाब पहनें, हिंदू चोटी-जनेऊ रखें, सिख पगड़ी-दाढ़ी-मूंछ रखें और ईसाई अपने गले में क्रास लटकाएं- ये निशानियां धर्म का अनिवार्य अंग कैसे हो सकती हैं? धर्म तो शाश्वत और सर्वकालिक होता है और इस तरह की ये बाहरी निशानियाँ देश-काल से बंधी होती हैं।
आप जिस देश में जिस काल में रहते हैं, उसकी जरूरतों को देखते हुए इन बाहरी चीज़ों का प्रावधान कर दिया जाता है। इन्हें सार्वकालिक और सार्वदेशिक बना देना तो बड़ा ही हास्यास्पद है। यदि कनाडा की भयंकर ठंड में कोई पुरोहित सिर्फ धोती या लुंगी पहनकर पूजा-पाठ कराए या विवाह-संस्कार करवाए तो उसे ढेर होने से उसका परमात्मा भी नहीं बचा सकता। कनाडा में सिख पगड़ी पहनें तो वहां के मौसम में वह धक सकती है लेकिन अरब देशों में वह आरामदेह रहेगी क्या?
इसी तरह पैगंबर मोहम्मद के जमाने में श्रेष्ठी महिलाओं को दुष्कर्मियों से बचाने के लिए और चालू औरतों से अलग दिखाने के लिए हिजाब का चलन शुरू किया गया था। अब उसी परंपरा को डेढ़ हजार साल बाद दुनिया के सभी देशों की मुसलमान औरतों पर थोप देना कहां तक उचित है? दुनिया के कई मुस्लिम और यूरोपीय देशों ने हिजाब पर प्रतिबंध लगा रखा है, क्योंकि चेहरे को छिपाने के पीछे दो गलत कारण काम करते हैं। एक तो अपराधियों को शै मिलती है और दूसरा सामूहिक अलगाव प्रकट होता है। सांप्रदायिकता पनपती है।
मैं तो सोचता हूं कि हिंदू पर्दा और मुस्लिम हिजाब, दोनों ही औरतों के अधिकारों का हनन भी है। ऐसी असामयिक और अनावश्यक प्रथाओं का त्याग करवाने का अभियान धर्मध्वजियों को आगे होकर चलाना चाहिए। स्कूल-कालेजों में यदि विशेष वेश-भूषा का प्रावधान है तो उसे सबको मानना चाहिए लेकिन यदि कोई छात्रा हिजाब पहनकर कक्षा में आना चाहती है तो वह अपने आप को खुद मजाक का केंद्र बनाएगी। उसका हिजाब अपने आप उतर जाएगा। उसकी अक्ल पर पड़े हिजाब को आप अपने आप क्यों नहीं उतरने देते?
तीन-चार हजार छात्र-छात्राओं के कालेज में पांच-छह लड़कियां हिजाब पहनकर आती रहें तो उससे क्या फर्क पड़ना है? यह हिजाबबाज़ी घोर सांप्रदायिकता, घोर अज्ञान और घोर पोंगापंथ के कारण भी हो सकती है। हमारी मुसलमान माँ-बहनें स्कूलों में ही नहीं, सर्वत्र इससे बचें, इसके लिए कानून से भी ज्यादा जिम्मेदारी है, हमारे मुल्ला मौलवियों की। वे यदि इस्लाम को आधुनिक बनाने और उसके बुनियादी सर्वहितकारी सिद्धांतों को मुसलमानों में लोकप्रिय करने का जिम्मा ले लें तो किसी कानून की जरूरत ही नहीं पड़ेगी।
-डॉ. वेदप्रताप वैदिक
पिछली बार योगी आदित्यनाथ ने कई मिथक तोड़े। नोएडा और बिजनौर मुख्यमंत्री इसलिए नहीं आते थे, क्योंकि माना जाता है कि जो मुख्यमंत्री यहां आता है, वह दुबारा मुख्यमंत्री नहीं बनता। योगी आदित्यनाथ बिजनौर तो गए ही, 19 बार नोएडा आए
उत्तर प्रदेश के चुनाव नतीजे आ गए। जनता ने प्रदेश की भाजपा और उसके मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ पर विश्वास दिखाया। भाजपा ने यहां अपने बूते पर ही पूर्ण बहुमत से 51 सीट ज्यादा यानि 255 सीटें कब्जा लीं। सपा के अखिलेश यादव द्वारा बनाया गया गठबंधन दूसरे नंबर पर बड़ा दल जरूर बन गया। यहां आप और ओवैसी साहब की एआईएमआईएम अपना खाता भी नहीं खोल सकीं। चार बार मायावती को मुख्यमंत्री बनाने वाली बसपा एक सीट तक सिमट गई। बसपा कांग्रेस से भी कमजोर हालत में रही। कांग्रेस को पूरी शक्ति लगाने के बाद भी दो सीट पर सब्र करना पड़ा। भाजपा ने 57 सीटें गंवाईं। ये बड़ा नुकसान है किंतु यह भी बड़ी बात है कि इतने विरोध के बावजूद वह बहुमत 204 से बहुत आगे 255 सीटों पर कब्जा जमा सकी।
सपा गठबंधन को छोटे-मोटे दलों को एक करने का लाभ मिला। इससे वोट का बंटवारा रुका। मुस्लिम वोट एक मुश्त उसे पड़ा। पिछली बार यादव वोट भाजपा और सपा में बंट गया था किंतु इस बार वह एक मुश्त सपा को गया। किसान आंदोलन की बात करें तो इसका मामूली-सा प्रभाव पड़ा। किसान आंदोलन का सबसे बड़ा प्रभाव लखीमपुर खीरी में था। यहां आरोप लगा था कि प्रदर्शन करते हुए चार किसान केंद्रीय गृह राज्यमंत्री अजय मिश्र के बेटे की कार से कुचल कर मरे थे। इस मामले में नौ मौत हुई थीं। यहां घटना के आरोपी बेटे के पिता केंद्रीय गृह राज्य मंत्री अजय मिश्र को हटाने का आंदोलन चल रहा था। इस आंदोलन का प्रभाव इतना था कि भाजपा के प्रत्याशी अपने−अपने क्षेत्र में प्रचार के लिए ही नहीं जा सके। किसान आंदोलन को लेकर उम्मीद थी कि यहां भारतीय जनता पार्टी को बड़ा नुकसान होगा। जहां प्रत्याशी प्रचार को ही न जा सके हों, उनके विरोध का स्तर समझा जा सकता है।
लखीमपुर की जनता ने सभी आठ सीटों पर भाजपा को विजय देकर किसान आंदोलन की सच्चाई बता दी। ये बता दिया कि इस आंदोलन और आंदोलन के नाम पर अराजकता को वह पसंद नहीं करते। वोट से जनता ने इस आंदोलन पर बड़ी चोट की है। यहां की जनता ने इस आंदोलन पर वोट की चोट करके सच्चाई बता दी। ये भी बता दिया कि वह इसका विरोध करती है। आम आदमी पार्टी उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड में अपना खाता भी नहीं खोल सकी, जबकि उसने 300 यूनिट फ्री बिजली और परिवार के एक सदस्य को रोजगार देने जैसे वादे किए थे। यही हाल ओवैसी की पार्टी एआईएमआईएम का रहा। पिछली बार बसपा के पास 19 सीटें थीं। अबकि बार उसे एक सीट पर ही संतोष करना पड़ा। चुनाव ने यह भी स्पष्ट कर दिया कि बसपा का दलित वोट भाजपा की ओर बढ़ा है।
पिछली बार योगी आदित्यनाथ ने कई मिथक तोड़े। नोएडा और बिजनौर मुख्यमंत्री इसलिए नहीं आते थे, क्योंकि माना जाता है कि जो मुख्यमंत्री यहां आता है, वह दुबारा मुख्यमंत्री नहीं बनता। योगी आदित्यनाथ बिजनौर तो गए ही, 19 बार नोएडा आए। श्राद्ध में शुभ कार्य नही किया जाता, किंतु उन्होंने श्राद्ध में बहुत सारी योजनाओं का शुभारंभ किया। भाजपा को अपनी नीति, अपनी योजनाओं का लाभ मिला। किंतु निरंकुश प्रशासन के रवैये का उसे नुकसान हुआ। योगी ईमारदार रहे। किंतु प्रशासनिक अमला पहले जैसा ही रहा। कोरोना काल में और अन्य समय पर सरकार की खरीद में जमकर भ्रष्टाचार हुआ। विधायक और सांसदों की प्रशासन में सुनवाई नहीं हुई। भाजपा का कार्यकर्ता और वोटर निराश रहा। इसी वजह से हार-जीत का अंतर पिछली बार के मुकाबले घटा।
भाजपा की यह जीत योगी आदत्यनाथ की जीत है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर विश्वास है, उनकी नीतियों और नेतृत्व की जीत है, वरन काफी प्रत्याशियों का पिछले पांच साल का आचरण वोट देने योग्य नहीं रहा। इसके बावजूद जनता ने भाजपा को वोट दिया। वोट योगी आदित्यनाथ और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नाम पर मिला। इस बार जनता ने योगी जी को दुबारा मुख्यमंत्री बनाया तो मुख्यमंत्री पद के काफी समय से दावेदारी करने वाले, कई बार योगी आदित्यनाथ को लेकर नाराजगी जताने वाले उपमुख्यमंत्री रहे केशव प्रसाद मौर्य को हरा कर बता दिया कि वह योगी आदित्यनाथ से लोकप्रियता में बहुत पीछे हैं। योगी आदित्यनाथ को जनता ने एक लाख के आसपास वोट से इस बार विजयी बना कर भेजा है।
प्रदेश सरकार दुबारा बन कर आई है तो इस बार उसके पास नौकरी में भ्रषटाचार रोकने की बड़ी चुनौती है। प्रतियोगी परीक्षा के पेपर आउट होना अब तक आम है। इस पर रोक लगाने के तुरंत उपाय करने होंगे। प्रशासन स्तर पर भ्रष्टाचार को चाबुक चलाकर नियंत्रित करना होगा। पिछले कार्यकाल के बारे में आरोप लगता रहा है कि विकास गोरखपुर का हुआ या पूरब का। देखना होगा कि विकास समान रूप से हो, बहुत से जनपद में विकास के नाम पर कुछ भी नहीं हुआ, वहां भी रोजगार के द्वार खोलने होंगे।
-अशोक मधुप
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
एक अन्य अनुमान के अनुसार न केवल यूक्रेन बल्कि आज विश्व के लगभग 85 देशों में 11 लाख से अधिक भारतीय शिक्षा ग्रहण करने के लिए प्रतिवर्ष जाते हैं और इन छात्रों की पढ़ाई पर देश की लगभग 10,000 करोड़ की बहुमूल्य विदेशी मुद्रा (अमेरिकी डॉलर) खर्च होते हैं।
भारतीय संस्कृति विश्व की सबसे पुरानी एवं महान संस्कृति मानी जाती है एवं भारत में शिक्षा को अत्यधिक महत्व देकर इसे प्रकाश का स्त्रोत मानकर मानव जीवन के विभिन क्षेत्रों को आलोकित किया जाता रहा है एवं यहां आध्यात्मिक उत्थान तथा भौतिक एवं विभिन्न उत्तरदायित्वों के विधिवत निर्वहन के लिये शिक्षा की महती आवश्यकता को सदा स्वीकार किया गया है। इस नाते प्राचीन काल से लेकर भारतीय सभ्यता विश्व की सर्वाधिक महत्वपूर्ण सभ्यताओं में से एक मानी जाती रही है।
भारत के विभिन्न वेदों, उपनिषदों एवं पुराणों में यह बताया भी गया है कि ज्ञान मनुष्य का तीसरा नेत्र है जो उसे समस्त तत्वों के मूल को जानने एवं जीवन की समस्त कठिनाईयों तथा बाधाओं को दूर करने में सहायता प्रदान करता है तथा सही कार्यों को करने की विधि बताता है। भारत में ज्ञान को मोक्ष का साधन भी माना गया है। प्राचीन भारतीयों का यह दृढ़ विश्वास था कि शिक्षा द्वारा प्राप्त एवं विकसित की गयी बुद्धि ही मनुष्य की वास्तविक शक्ति होती है।
प्राचीन भारतीय शिक्षा के पाठ्यक्रम में 4 वेद, 6 वेदांग, 14 विधायें, 18 शिल्प, 64 कलायें, आदि समाहित होते थे। चीन के हुएनसांग तथा अल्वेरूनी द्वारा लिखित साहित्य के माध्यम से उपलब्ध जानकारी के अनुसार प्राचीन काल में भारत में ज्योतिष की शिक्षा एवं व्याकरण का बहुत अधिक प्रचलन था। विभिन्न राजदरबारों में ज्योतिषियों को प्रमुख स्थान दिया जाता था तथा विभिन्न शिक्षा केन्द्रों में धार्मिक एवं आध्यात्मिक विषयों के साथ ही लौकिक विषयों की शिक्षा भी सुचारू रूप से प्रदान की जाती थी। तक्षशिला, पाटलीपुत्र, कान्यकुब्ज, मिथिला, धारा, तंजोर, काशी, कर्नाटक, नासिक आदि शिक्षा के प्रमुख वैश्विक केंद्र थे जहां विभिन्न देशों से छात्र शिक्षा ग्रहण करने के लिए आते थे। कालांतर में नालन्दा विश्वविद्यालय (450 ई), वल्लभी (700 ई), विक्रमशिला (800 ई), आदि शिक्षण संस्थाएं भी स्थापित हुई थीं। तक्षशिला विश्वविद्यालय (400 ई के पूर्व) विश्व के प्राचीनतम विश्वविद्यालयों में से एक रहा है एवं चाणक्य इस विश्वविद्यालय के आचार्य रहे हैं। इन वैश्विक शिक्षा केंद्रों में विद्यार्थी अध्ययन करके स्वतन्त्र रूप से जीविकोपार्जन करने हेतु धन अर्जन करने योग्य बन जाते थे।
परंतु पिछले 1000 वर्षों के दौरान अरब से विदेशी आक्रांताओं एवं अंग्रेजों के शासनकाल में भारतीय शिक्षा पद्धति को तहस नहस कर दिया गया एवं तक्षशिला, नालंदा एवं पाटलीपुत्र जैसे बड़े विश्वविद्यालयों में स्थापित भव्य पुस्तकालयों में जमा लाखों पुस्तकों को जला दिया गया एवं भारतीयों में यह भावना कूट कूट कर भर दी गई कि भारतीय संस्कृति तो जाहिलों की संस्कृति है एवं अरबी एवं अंग्रेजी संस्कृति कहीं अधिक महान हैं। इस सबका परिणाम यह हुआ कि भारतीय शिक्षा पद्धति एक तरह से खत्म ही हो गई। हालांकि स्वतंत्रता प्राप्ति के तुरंत बाद भारत में भारतीय शिक्षा पद्धति को पुनः प्रतिस्थापित किए जाने के प्रयास किए जाने चाहिए थे परंतु ऐसा कुछ हुआ नहीं और आज इसका परिणाम यह हुआ है कि आज कई भारतीयों द्वारा विदेशों में जाकर शिक्षा ग्रहण की जा रही है। यह जानकर आश्चर्य होता है कि यूक्रेन जैसे छोटे से देश में आज लगभग 18,000 से अधिक भारतीय डॉक्टर बनने हेतु वहां पर पढ़ाई कर रहे हैं।
एक अन्य अनुमान के अनुसार न केवल यूक्रेन बल्कि आज विश्व के लगभग 85 देशों में 11 लाख से अधिक भारतीय शिक्षा ग्रहण करने के लिए प्रतिवर्ष जाते हैं और इन छात्रों की पढ़ाई पर देश की लगभग 10,000 करोड़ की बहुमूल्य विदेशी मुद्रा (अमेरिकी डॉलर) खर्च होते हैं। आजादी के बाद के लगभग 67 वर्षों तक शिक्षा के क्षेत्र, चिकित्सा सहित, पर विशेष ध्यान ही नहीं दिया गया, इसके कारण यूक्रेन जैसे छोटे से देश में इतनी बड़ी संख्या में भारतीय चिकित्सा क्षेत्र में शिक्षा ग्रहण करने के लिए जा रहे हैं एवं युद्ध की स्थिति होने पर भारी परेशानियों का सामना कर रहे हैं। यह तो तब है जब पिछले 7 वर्षों के दौरान देश में चिकित्सा स्नातक एवं स्नातकोत्तर सीटों की संख्या में 80 प्रतिशत की वृद्धि की गई है एवं मेडिकल महाविद्यालयों की संख्या 54 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज करते हुए 596 तक पहुंच गई है। अब तो देश के प्रत्येक जिले में कम से कम एक चिकित्सा महाविद्यालय स्थापित करने हेतु युद्ध स्तर पर कार्य किया जा रहा है। दूसरे, भारत में चिकित्सा के क्षेत्र में शिक्षा बहुत महंगी है, इसके कारण भी भारतीय यूक्रेन जैसे छोटे छोटे देशों की ओर रूख कर रहे हैं। भारत में जहां निजी क्षेत्र के चिकित्सा महाविद्यालयों में एमबीबीएस का कोर्स करने के लिए 80-100 लाख रुपए खर्च होते हैं वहीं यूक्रेन जैसे छोटे देशों में यह कोर्स पूरा करने में 20-30 लाख रुपए ही खर्च होते हैं।
भारत में चिकित्सा का कोर्स पूरा करने के लिए सरकारी एवं निजी क्षेत्र के चिकित्सा महाविद्यालयों में आवेदक उम्मीदवारों की तुलना में उपलब्ध सीटों की संख्या बहुत कम है। चिकित्सा महाविद्यालयों में प्रवेश प्राप्त करने के लिए भारत में लगभग 16 लाख छात्र परीक्षा देते हैं जबकि उपलब्ध सीटों की संख्या लगभग 140,000 के आसपास है। इस प्रकार इतनी बड़ी संख्या में जिन छात्रों का चयन नहीं हो पाता है वे यूक्रेन जैसे छोटे छोटे देशों की ओर चिकित्सा क्षेत्र में शिक्षा प्राप्त करने के लिए जाने को मजबूर होते हैं।
यूक्रेन की घटना ने भारत में शिक्षा क्षेत्र की सोचनीय स्थिति को उजागर कर दिया है। चिकित्सा महाविद्यालयों का कम होना, चिकित्सा के क्षेत्र में सीटों की संख्या कम होना, शिक्षा का तुलनात्मक रूप से बहुत महंगा होना, आदि कमियां मुख्य रूप से उजागर हुई हैं। इन कमियों को तुरंत दूर कर शिक्षा के क्षेत्र को वापस पटरी पर लाकर देश के आर्थिक विकास को भी गति दी जा सकती है। कई विकसित देशों जैसे अमेरिका, कनाडा, यूके, जर्मनी आदि में पूरे विश्व से लाखों की संख्या में विद्यार्थी पढ़ने के लिए जाते हैं एवं इन देशों में भारी राशि प्रतिवर्ष खर्च करते हैं इससे इन देशों की अर्थव्यवस्था को बल मिलता है। अकेले अमेरिका एवं कनाडा में ही प्रतिवर्ष दो लाख से अधिक विद्यार्थी शिक्षा ग्रहण करने हेतु केवल भारत से पहुंचते हैं, इसी प्रकार आस्ट्रेलिया में लगभग एक लाख, ब्रिटेन में लगभग 50,000 विद्यार्थी प्रतिवर्ष शिक्षा अर्जन के लिए भारत से पहुंचते हैं। इसके ठीक विपरीत, प्राचीन भारत में विदेशों से विद्यार्थी शिक्षा अर्जन के लिए भारत आते थे। क्या भारत में शिक्षा व्यवस्था में सुधार कर पुनः विदेशों को भारत में शिक्षा अर्जन हेतु आकर्षित नहीं किया जाना चाहिए। इसके लिए हमें भारत की शिक्षा प्रणाली में आमूल चूल परिवर्तन करने होंगे और भारतीय संस्कृति की मजबूत जड़ों की ओर पुनः लौटना होगा। विकसित देशों में बसे लोग आज भौतिकवादी नीतियों से बहुत परेशानी महसूस कर रहे हैं। आज अमेरिका एवं अन्य विकसित देशों की आधी से ज़्यादा आबादी मानसिक रोग से पीड़ित है और वे इन मानसिक बीमारियों से निजात पाना चाहते हैं। जिसका हल केवल भारतीय प्राचीन संस्कृति को अपना कर ही निकाला जा सकता है।
-प्रह्लाद सबनानी
सेवानिवृत्त उप महाप्रबंधक
भारतीय स्टेट बैंक
यूक्रेन की सरकार ने रूस के खिलाफ हेग के अंतरराष्ट्रीय न्यायालय में भी याचिका लगाई है लेकिन रूस ने अदालती कार्रवाई का बहिष्कार कर दिया है। यह अदालत फैसला तो कुछ भी दे सकती है लेकिन उसे लागू करने की शक्ति किसी भी संस्था के पास नहीं है।
मुझे खुशी है कि हमारे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने रूस और यूक्रेन के राष्ट्रपतियों— व्लादिमीर पुतिन और वेलोदीमीर झेलेंस्की से बात की और दोनों को संवाद के लिए प्रेरित किया। यही काम वे यदि एक डेढ़-माह पहले शुरू कर देते तो शायद यूक्रेनी-संकट टल जाता लेकिन यह देर आयद, दुरुस्त आयद है। अब वे पांच राज्यों के चुनावी झंझट से मुक्त हो चुके हैं। वे चाहें तो अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन से भी सीधी बात कर सकते हैं। यूक्रेनी संकट की असली जड़ अमेरिका में ही है। यदि अमेरिका यूक्रेनी राष्ट्रपति झेलेंस्की को नाटो में शामिल होने के लिए नहीं उकसाता तो यूक्रेन पर इस रूसी हमले की नौबत ही क्यों आती?
क्रेमलिन के प्रवक्ता दिमित्री पेस्कोव ने कल ही अपने बयान में कहा है कि यूक्रेन के खिलाफ रूस अपनी सैन्य-कार्रवाई एक क्षण में ही बंद करने के लिए तैयार है, बशर्ते कि वह मास्को की मांगों पर ध्यान दे। मास्को ने मांग की है कि यूक्रेन तटस्थ रहने की घोषणा करे याने नाटो के सैन्य गुट में शामिल न होने की घोषणा करे, क्रीमिया को रूसी क्षेत्र घोषित करे और दोनेत्स्क और लुहांस्क को स्वतंत्र राष्ट्रों की मान्यता दे। पेस्कोव ने यह भी स्पष्ट किया कि रूस नहीं चाहता कि वह यूक्रेन को अपना प्रांत बना ले या कीव पर कब्जा कर ले। पिछले डेढ़ हफ्ते में रूस ने यूक्रेन के खिलाफ जो कुछ भी किया, उसे वह युद्ध नहीं, सिर्फ सैन्य कार्रवाई कह रहा है। इसीलिए मारे जाने वाले लोगों की संख्या सैंकड़ों में है, हजारों-लाखों में नहीं। लगभग 20 लाख यूक्रेनी भागकर पड़ौसी देशों में चले गए हैं और वे तथा भारतीय छात्र भी सुरक्षित बाहर निकल सकें, इस दृष्टि से रूस ने कल चार ‘सुरक्षित गलियारों’ की घोषणा की थी लेकिन यूक्रेन ने इसे शुद्ध पाखंड बताया है।
यूक्रेन की सरकार ने रूस के खिलाफ हेग के अंतरराष्ट्रीय न्यायालय में भी याचिका लगाई है लेकिन रूस ने अदालती कार्रवाई का बहिष्कार कर दिया है। यह अदालत फैसला तो कुछ भी दे सकती है लेकिन उसे लागू करने की शक्ति किसी भी संस्था के पास नहीं है। यदि यह हमला जारी रहा और कीव पर रूस का कब्जा हो गया तो झेलेंस्की अपनी निर्वासित सरकार कार्पेथिया नामक स्थल से चलाएंगे। यह नाटो राष्ट्रों के निकट पहाड़ों में स्थित राजमहल है। यदि रूसी हमले में झेलेंस्की मारे गए तो यूक्रेनी संसद के अध्यक्ष रूसलान स्टीफनचुक निर्वासित सरकार के मुखिया होंगे।
वैसे तो रूस और यूक्रेन के अधिकारी तीसरी बात बातचीत के लिए मिल रहे हैं लेकिन अभी तक यह पता नहीं है कि उनकी बातचीत के खास मुद्दे क्या हैं? दोनों पक्षों ने अपने पत्ते छुपा रखे हैं। यूक्रेन को पता चल गया है कि अमेरिका और नाटो राष्ट्रों ने उसे पानी पर चढ़ाकर अपना मुंह फेर लिया है। मामूली हथियार उसे देकर और रूस पर खोखले प्रतिबंध थोपकर उन्होंने यूक्रेन को विनाश के मुंह में ढकेल दिया है। अब भी यूक्रेन के नेता और लोग बड़ी हिम्मत से रूसी हमले का मुकाबला कर रहे हैं लेकिन उन्हें पता है कि यदि यह हमला लंबा खिंच गया तो यूक्रेन की बधिया बैठे बिना नहीं रहेगी। ऐसी हालत में यह सही होगा कि झेलेंस्की यूक्रेन की तटस्थता की घोषणा तो कर ही दें। ऐसा करके वे यूक्रेन के दरवाजे रूस और अमेरिका दोनों के लिए खुले रख सकते हैं। दोनेत्स्क और लुहांस्क को स्वतंत्र राष्ट्रों की तरह मान्य करने की बजाय वह वैसा ही करें, जैसा कि 2014 में यूक्रेन ने क्रीमिया पर किया था। क्रीमिया पर से रूसी कब्जा हटाने की कोशिश उसने नहीं की और उस कब्जे को मान्यता भी नहीं दी।
अभी तक बेलारूस में दोनों देशों के अफसर आपस में बात करते रहे हैं लेकिन अब खबर यह है कि तुर्की में रूसी विदेश मंत्री सर्गेइ लावरोव और यूक्रेनी विदेश मंत्री दिमित्री कुलेबा अगले तीन-चार दिन में ही मिलने वाले हैं। तुर्की नाटो का सदस्य है लेकिन रूस और यूक्रेन, दोनों से उसके घनिष्ट संबंध हैं। इन दोनों देशों की सीमाएं काले समुद्र की वजह से तुर्की से भी जुड़ती हैं। तुर्की ने रूसी हमले को अनुचित बताया है लेकिन उसने रूस के विरुद्ध घोषित प्रतिबंधों का भी विरोध किया है। भारत चाहे तो इस शांति-संवाद में तुर्की से भी आगे निकल सकता है। वह नई दिल्ली में अमेरिकी, रूसी और यूक्रेनी विदेश मंत्रियों के बीच संवाद करवा सकता है।
यूक्रेन-विवाद पर जब भी अंतरराष्ट्रीय मंचों पर मतदान हुआ, भारत सदा तटस्थ रहा। उसने न तो रूस का पक्ष लिया और न ही यूक्रेन या अमेरिका का! भारत के लगभग 20 हजार छात्रों और नागरिकों को यूक्रेन से बाहर निकाल लाने के भारी काम में यूक्रेन और रूस दोनों ने हमारी मदद की। भारत सरकार ने इस मामले में देर से ही सही लेकिन बड़ी मुस्तैदी से सराहनीय काम करके दिखाया। यदि भारत इस युद्ध को तुरंत रुकवा सके तो रूस और यूक्रेन को ही नहीं, सारे विश्व को वह कई आर्थिक संकटों से बचा ले सकता है। यदि यूरोपीय देशों को होने वाली रूसी तेल और गैस की आपूर्ति बंद हो जाए तो उनके होश फाख्ता हो जाएंगे। इसीलिए इन देशों ने अभी तक रूसी तेल और गैस पर प्रतिबंध नहीं लगाया है। पिछले 12-13 दिनों में कच्चा तेल 44 प्रतिशत मंहगा हो गया है। कोई आश्चर्य नहीं कि भारत में पेट्रोल के दाम सौ-सवा सौ रु. प्रति लीटर तक बढ़ जाएं। उसका असर हर चीज़ की बढ़ती कीमतों में दिखाई देगा। सोना, चांदी और डॉलर की कीमतें बढ़ती चली जा रही हैं।
यूक्रेन पर रूसी हमले के कारण अंतरराष्ट्रीय राजनीति में भी नए समीकरणों का विकास हो रहा है। तीन दशक पुराने शीत युद्ध की नरम शुरुआत तो हो ही चुकी है। अब एक तरफ अमेरिकी खेमा होगा और दूसरी तरफ चीनी-रूसी खेमा। इस दूसरे खेमे का नेतृत्व अब रूस नहीं, चीन करेगा। इसीलिए चीन अपना हर कदम फूंक-फूंककर रख रहा है। उसने अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भारत की तरह अपने आप को तटस्थ दिखाने की कोशिश की है। वह अब रूस और यूक्रेन के बीच मध्यस्थता की भी पहल करने लगा है। इस पहल पर अमेरिका पूरी तरह सशंकित रहेगा लेकिन भारत इस समय रूस और अमेरिका दोनों का प्रेमपात्र है। भारत चाहे तो यूक्रेन को वर्तमान संकट से उबार सकता है।
-डॉ. वेदप्रताप वैदिक
प्रधानमंत्री मोदी ने मेडिकल की पढ़ाई हिंदी में शुरु करने की बात भी कही है। इस कुप्रचार का खंडन रूस और यूक्रेन दोनों ने किया है कि दोनों देशों की सेनाएं भारतीय छात्रों को अपना कवच बना रही हैं। यूक्रेन के राष्ट्रपति झेलेंस्की पूरा खतरा डटकर झेल रहे हैं।
यूक्रेन से भारत के छात्रों की वापसी हो रही है, यह संतोष का विषय है लेकिन वहां चल रहा युद्ध बंद नहीं हो रहा है, यह अफसोस की बात है। एक रूसी गुप्त दस्तावेज के अचानक प्रगट हो जाने से पता चला है कि रूस का युद्ध 15 दिन तक चलनेवाला है। यदि यह अगले 6-7 दिन और चल गया तो यूक्रेन के अन्य शहर भी तबाह हो जाएंगे। रूस की सीमा से लगे कुछ शहरों पर तो रूसी फौजों का कब्जा हो चुका है। वहां के नागरिक बिजली-पानी, दवा-दारू और खाने-पीने के मोहताज हो रहे हैं। कई बड़े-बड़े भवन हवाई हमलों में ध्वस्त हो चुके हैं। दस लाख से ज्यादा लोग भागकर पड़ोसी देशों में शरणागत हो गए हैं। भारत के तीन-हजार छात्र अभी भी कुछ शहरों में फंसे हुए हैं। उन्हें यह चिंता भी है कि भारत लौटने पर उनकी मेडिकल की पढ़ाई का क्या होगा? जो पैसे उनके माता-पिता ने उनकी पढ़ाई पर यूक्रेन में अब तक खर्च किए हैं, वे क्या डूबतखाते में चले जाएंगे? भारत में उनकी मेडिकल पढ़ाई का भारी खर्च कौन उठाएगा? भारत सरकार उनकी इस समस्या का भी हल निकालने में जुटी हुई है।
प्रधानमंत्री मोदी ने मेडिकल की पढ़ाई हिंदी में शुरु करने की बात भी कही है। इस कुप्रचार का खंडन रूस और यूक्रेन दोनों ने किया है कि दोनों देशों की सेनाएं भारतीय छात्रों को अपना कवच बना रही हैं। यूक्रेन के राष्ट्रपति झेलेंस्की पूरा खतरा डटकर झेल रहे हैं। वे डटे हुए हैं। झुक नहीं रहे हैं। वाग्बाण भी छोड़ रहे हैं। ऐसा लगता है कि रूस उन्हें या तो गिरफ्तार कर लेगा या मार डालेगा। यूक्रेन को नाटो देश काफी आक्रामक प्रक्षेपास्त्र भी दे रहे हैं लेकिन उन्होंने यूक्रेन को अपने हाल पर छोड़ दिया है। अमेरिकी सीनेट में उसके कुछ सदस्य भारत के पक्ष में और कुछ विपक्ष में भी बोल रहे हैं। चौगुटे (क्वाड) की बैठक में भी भारत अपने रवैए पर कायम रहा। ऐसा लगता है कि भारत की तटस्थता को रूस और अमेरिका, दोनों ठीक से समझ रहे हैं। कोई तटस्थ राष्ट्र ही अच्छा मध्यस्थ बन सकता है। हमारी सरकार अपने छात्रों को लौटा लाने का तो अच्छा प्रयत्न कर रही है लेकिन इस अवसर पर देश के पक्ष या विपक्ष में कोई अनुभवी और बुद्धिमान नेता होता तो भारत की भूमिका अद्वितीय हो सकती थी। यह सुखद संयोग है कि यूक्रेन के मसले पर भारत के पक्ष और विपक्ष में सर्वसम्मति है। यूक्रेन-संकट के बाद विश्व राजनीति जो शक्ल लेगी, उसमें भारत की भूमिका क्या होगी, इसकी चिंता हमें अभी से करनी होगी।
- डॉ. वेदप्रताप वैदिक
(लेखक, भारतीय विदेश नीति परिषद के अध्यक्ष हैं)
रूस के अलावा जापान, हंगरी, फ्रांस, ऑस्ट्रेलिया समेत कई देशों में लोग यूक्रेन पर हमले की कड़ी निंदा कर रहे हैं। लोग 'युद्ध नहीं चाहिए' के नारे लिखे पोस्टर लेकर सड़कों पर उतर रहे हैं और राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन से इस युद्ध को रोकने की मांग कर रहे हैं।
यूक्रेन पर हमला करने के लिए रूस की विश्व में आलोचना हो रही है। जगह−जगह प्रदर्शन हो रहे हैं।कहा जा रहा है कि रूस के राष्ट्रपति व्लादिमिर पुतिन ने अपने अहम के लिए दुनिया को युद्ध में धकेल दिया।यह भी खबर है कि रूस के राष्ट्रपति पुतिन हर हालात में यूक्रेन पर कब्जा चाहतें हैं। इसके लिए वह अपने 50 हजार सैनिक की बलि देने के लिए भी तैयार हैं। ऐसे हालात में रूस से ही अच्छी खबर आई है। वहां के नागरिक युद्ध का विरोधकर रहे हैं। यह कार्य रूस के साथ –साथ पूरी दुनिया में होना चाहिए। जनता को युद्ध का विरोध करना चाहिए।
यूक्रेन पर हमले के विरोध में रूस में लोगों का युद्ध के खिलाफ विरोध प्रदर्शन तेज हो गया है। रूस की राजधानी मॉस्को, सेंट पीटर्सबर्ग और अन्य शहरों में शनिवार को लोग सड़क पर उतर आए और नारेबाजी की। पुलिस ने 460 लोगों को हिरासत में लिया गया। इसमें मॉस्को के 200 से अधिक लोग शामिल हैं।
रूस में यूक्रेन पर हमले की निंदा करने वाले ओपन लेटर भी जारी किए गए। इसमें 6,000 से अधिक मेडिकल स्टाफ, 3400 से अधिक इंजीनियरों और 500 टीचर्स ने साइन किए हैं। इसके अलावा पत्रकारों, लोकल बॉडी मेंबर्स और सेलिब्रिटिज ने भी ऐसे ही पिटीशन पर साइन किए हैं। यूक्रेन पर हमले को रोकने के लिए गुरुवार को एक ऑनलाइन पिटीशन शुरू की गई। इस पर शनिवार शाम तक 7,80,000 से अधिक लोगों ने साइन कर दिए हैं। माना जा रहा है कि यह बीते कुछ सालों में रूस में सबसे अधिक समर्थित ऑनलाइन याचिकाओं में से एक है।
रूस के अलावा जापान, हंगरी, फ्रांस, ऑस्ट्रेलिया समेत कई देशों में लोग यूक्रेन पर हमले की कड़ी निंदा कर रहे हैं। लोग 'युद्ध नहीं चाहिए' के नारे लिखे पोस्टर लेकर सड़कों पर उतर रहे हैं और राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन से इस युद्ध को रोकने की मांग कर रहे हैं। रूसी पुलिस ने दर्जनों शहरों में युद्ध के खिलाफ प्रदर्शन करने वाले 1,700 से अधिक लोगों को हिरासत में लिया गया है।
ये भी सूचना है कि रूस की कम्युनिस्ट पार्टी के सांसद युद्ध के खिलाफ हैं।कम्युनिस्ट पार्टी के दो सांसदों ने भी यूक्रेन पर हमले की निंदा की है। यह वही सांसद हैं, जिन्होंने कुछ दिन पहले पूर्वी यूक्रेन में दो अलगाववादी क्षेत्रों की स्वतंत्रता को मान्यता देने के लिए मतदान किया था। सांसद ओलेग स्मोलिन ने कहा कि जब हमला शुरू हुआ तो वह हैरान थे, क्योंकि राजनीति में सैन्य बल का इस्तेमाल अंतिम उपाय के रूप में किया जाना चाहिए। दूसरे सांसद मिखाइल मतवेव ने कहा कि युद्ध को तुरंत रोक दिया जाना चाहिए।
उधर यूक्रेन से आ रही खबर अच्छी नहीं हैं। रूसी सेना सैनिक प्रतिष्ठान के अलावा सिविलियन पर भी हमले कर रही है। शहरों में घुसे रूसी सैनिक लूटपाट कर रहे हैं। खार्किव शहर पर कब्जा करने के बाद रूसी सैनिकों ने एक बैंक लूट लिया।एटीएम लूटे जा रहे हैं ।सैनिक एक डिपार्टमेंटल स्टोर में घुसकर सामान भी उठाते नजर आए।यूक्रेन का दावा है कि अब तक रूसी हमले में 198 लोगों की जान जा चुकी है। इसमें 33 बच्चे भी शामिल हैं। इसके अलावा 1,115 लोग घायल हो गए हैं। यूक्रेन के हालत दिन पर दिन खराब हो रहे हैं। खाने− पीने का सामान कम पड़ गया है। रूसी हमले के बाद कीव, खार्किव, मेलिटोपोल जैसे बड़े शहरों में हर जगह तबाही दीख रही है। मिसाइल हमलों से इमारतें बर्बाद हो गई हैं। लोग खाने −पीने के सामान को तरस रहे हैं। कई जगह बच्चों से लेकर बड़े भी डर और दहशत की वजह से रोते देखे जा सकते हैं। लाखों लोग अपना शहर, देश छोड़कर बाहर जा रहे हैं। प्रत्येक व्यक्ति को अपने और अपने परिवार की चिंता है। वह जल्दी से जल्दी सुरक्षित स्थान पर पंहुच जाना चाहतें हैं। संयुक्त राष्ट्र के एक अधिकारी ने बताया कि अब तक 1.50 लाख से ज्यादा यूक्रेनी शरणार्थी पोलैंड, मोल्दोवा और रोमानिया पहुंच चुके हैं।
इस युद्ध के विरोध में रूस में जो हो रहा है, वह पूरी दुनिया में होना चाहिए। शांति स्थापना के बनी एजेंसी और संगठन जब असफल हो जांए तो जनता को इसके लिए उठना चाहिए। पिछले कुछ समय से लग रहा है कि दुनिया में अमन−शांति कायम रखने के लिए बना संयुक्त राष्ट्र संगठन अपनी महत्ता खो चुका है। वीटो पावर प्राप्त पांचों देश की दंबगई के आगे इसकी महत्ता खत्म हो गई है।ऐसे में पूरे विश्व को शांति स्थापना के लिए किसी नए संगठन को बनाने के बारे में सोचना होगा। इसके लिए आवाज बुलंद करनी होगी। आंदोलन करने होंगे। जनमत बनाना होगा।
- अशोक मधुप
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)