ईश्वर दुबे
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Bhilai
रूस के हमले से पहले ही नाटों देशों ने रूस पर प्रतिबंध लगाने शुरू कर दिए हैं। अमेरिका रूस को भारी परिणाम भुगतने की धमकी दे तो रहा है किंतु वह युद्ध में भी कूदा नही हैं। युद्ध में अमेरिका और नाटो देश उतरते हैं तो यह निश्चित है कि चीन रूस का साथ देगा।
यूक्रेन पर रूस के हमले की आशंका सही साबित हो गई। रूस ने 24 फरवरी की सुबह पांच बजे यूक्रेन पर हमला बोल दिया। रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने नेशनल टेलिविजन पर हमले का ऐलान किया। धमकाने वाले अंदाज में बोले कि रूस और यूक्रेन के बीच किसी ने भी दख्ल दिया तो अंजाम बहुत बुरा होगा। लड़ाई जारी है। यूक्रेन ने रूस के सात फाइटर प्लेन गिराने का दावा किया है। रूस की सेना ने यूक्रेन के सैन्य हवाई अड्डों को निशाना बनाया है। यूक्रेन के सैन्य हवाई अड्डों को रूस की सेना द्वारा तबाह कर दिया गया है। इस कार्रवाई के बाद यूक्रेन ने सख्ती दिखाते हुए कहा कि, वह हार नहीं मानेंगे।
युद्ध शुरू हो गया तो यह भी निश्चित हो गया कि इसके परिणाम रूस और यूक्रेन पर ही असर नही छोडेंगे, पूरी दुनिया को प्रभावित करेंगे। युद्ध कभी ठीक नही होता। युद्ध कभी नही होना चाहिए। इसमें प्राकृतिक संसाधनों का तो विनाश होता ही है, मानव जाति की भी भारी क्षति होती है। देश−दुनिया का विकास प्रभावित होता है। सदियों तक इसका प्रभाव रहता है। अभी तो तेल के दाम बढे है, आगे तो मंहगाई के और ज्यादा बढ़ने की उम्मीद है।
रूस के हमले से पहले ही नाटों देशों ने रूस पर प्रतिबंध लगाने शुरू कर दिए हैं। अमेरिका रूस को भारी परिणाम भुगतने की धमकी दे तो रहा है किंतु वह युद्ध में भी कूदा नही हैं। युद्ध में अमेरिका और नाटो देश उतरते हैं तो यह निश्चित है कि चीन रूस का साथ देगा। और फिर शुरू होगा एक नया विश्व युद्ध।
अमेरिका अगर युद्ध में नही उतरता हैं तो उसकी साख को बहुत बड़ा धक्का लगेगा। पहले ही अफगानिस्तान से भागने पर उसकी बहुत इमेज खराब हुई थी। इस हमले में उसकी चुप्पी पर उसके मित्र देशों का उससे भरोसा खत्म हो जाएगा। यह उसके लिए अच्छा नही होगा।
वैसे 2014 में जब रूस ने क्रीमिया पर कब्जा जमा लिया था, तब भी सब देश शांत रहे थे। रूस कब्जा करने में कामयाब रह थे। पूरी दुनिया तमाशाबीन बनी देखती रही थी। इस बार अमेरिका और उसके मित्र देश युद्ध में कूदते हैं तो नए विश्वयुद्ध की शुरूआत होगी। महाविनाश होगा, क्योंकि अमेरिका और रूस परमाणु शक्ति सपन्न देश हैं।
ये देश युद्ध में नही उतरते तो चीन उनकी कमजोरी का फायदा उठाएगा। वह अभी भी कहता रहा है कि अमेरिका धोखेबाज है। अमेरिका की इसी चुप्पी का फायदा उठाकर वह वियतनाम पर कब्जा करने का प्रयास करेगा।
दोनों हालात ठीक नही है। ऐसे में इस आग से हम जितना बच सके, बचने का प्रयास होना चाहिए। लड़ाई भले ही हमसे दूर हो किंतु चीन के सदा सचेत रहने की जरूरत है। कहीं वह रूस तथा अमेरिका और उसके मित्र देशों की व्यस्तता का फायदा उठाकर हमें न कुचलने की कोशिश न करे।
इस हमले से ये तो हो गया कि संयुक्त राष्ट्र संघ का कोई औचित्य नहीं है। क्योंकि रूस को विटो पावर मिली हुई है। वह इसमें किसी भी प्रस्ताव को पारित नही होने देगा। एक भी विटो संपन्न देश किसी भी प्रस्ताव को गिरा सकता था। विटो पावर देश के सामने पूरी दुनिया बेकार है। यह भी स्पष्ट हो गया कि पहले भी ताकतवर दूसरे देश, उसकी संपत्ति पर कब्जा कर सकता था, आज भी। इसलिए जरूरी यह है कि इस जंगल राज में अपने को जिंदा रखना है, तो शेर बन कर रहें। ताकतवर बनें, ताकि कोई आपसे आंख मिलाने ही हिम्मत न कर सके। प्रसिद्ध कवि रामधारी सिंह दिनकर ने कहा भी है, जहां शस्त्रबल नहीं, शास्त्र पछताते रोतें हैं, ऋषियों को भी सिद्धि तभी तप में मिलती है, जब पहरे पर स्वंय धनुर्धर राम खड़े होते हैं।
- अशोक मधुप
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
पिछले दिनों ओलम्पिक खेलों के उदघाटन के अवसर पर पुतिन के साथ-साथ इमरान भी पेइचिंग गए थे। अब इमरान उस समय मास्को पहुंच रहे हैं, जबकि पुतिन ने यूक्रेन के तीन टुकड़े कर दिए हैं। मास्को पहुंचने वाले वे पहले मेहमान हैं।
पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान रूस पहुंच गए हैं। लगभग 22 साल पहले प्रधानमंत्री नवाज शरीफ के बाद किसी पाकिस्तानी प्रधानमंत्री की यह पहली मास्को-यात्रा है। इमरान और रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन की ऐसे संकट के समय इस भेंट पर लोगों को बहुत आश्चर्य हो रहा है, क्योंकि पाकिस्तान कई दशकों तक उस समय अमेरिका का दुमछल्ला बना हुआ था, जब अमेरिका और सोवियत संघ का शीतयुद्ध चल रहा था।
सोवियत संघ के बिखराव के बाद जब अमेरिका और रूस के बीच का तनाव थोड़ा घटा था, तब पाकिस्तान ने रूस के साथ संबंध बनाने की कोशिश की थी। वरना अफगानिस्तान में चल रही बबरक कारमल की सरकार के विरुद्ध मुजाहिदीन की पीठ ठोककर पाकिस्तान तो अमेरिकी मोहरे की तरह काम कर रहा था। उन्हीं दिनों अमेरिका अपने संबंध चीन के साथ भी नए ढंग से परिभाषित कर रहा था। इसी का फायदा पाकिस्तान ने उठाया। वह भारत के प्रतिद्वंदी चीन के साथ तो कई वर्षों से जुड़ा ही हुआ था। उसने कश्मीर की हजारों मील ज़मीन भी चीन को सौंप रखी थी। अब जबकि चीन और रूस के संबंध घनिष्ट हो गए तो उसका फायदा उठाने में पाकिस्तान पूरी मुस्तैदी दिखा रहा है।
पिछले दिनों ओलम्पिक खेलों के उदघाटन के अवसर पर पुतिन के साथ-साथ इमरान भी पेइचिंग गए थे। अब इमरान उस समय मास्को पहुंच रहे हैं, जबकि पुतिन ने यूक्रेन के तीन टुकड़े कर दिए हैं। मास्को पहुंचने वाले वे पहले मेहमान हैं। उन्होंने एक रूसी चैनल को दिए इंटरव्यू में कहा है कि उनका यूक्रेन-विवाद से कुछ लेना-देना नहीं है। वे सिर्फ रूस-पाकिस्तान द्विपक्षीय संबंधों पर अपना ध्यान केंद्रित करेंगे। मुझे ऐसा लगता है कि यूक्रेन के सवाल पर भारत की तरह तटस्थता का ही रूख अपनाएंगे या घुमा-फिराकर कई अर्थों वाले बयान देंगे। वे रूस को नाराज़ करने की हिम्मत नहीं कर सकते। वे चाहते हैं कि रूस 2.5 बिलियन डॉलर लगाकर कराची से कसूर तक की गैस पाइपलाइन बनवा दे। मास्को की मन्शा है कि तुर्कमानिस्तान से भारत तक 1800 किमी की गैस पाइपलाइन बन जाए। रूस चाहता है कि वह पाकिस्तान को अपने हथियार भी बेचे। अफगानिस्तान से अमेरिकी वापसी के मामले में भी रूस और पाकिस्तान का रवैया एक-जैसा रहा है। रूस का तालिबान के प्रति भी नरम रवैया रहा है। ओबामा-काल में ओसामा बिन लादेन की हत्या से पाक-अमेरिकी दूरी बढ़ गई थी। रूस ने उन दिनों पाकिस्तान को कुछ हथियार और हेलिकॉप्टर भी बेचे थे और दोनों राष्ट्रों की फौजों ने संयुक्त अभ्यास भी किया था। अब देखना है कि इमरान-पुतिन भेंट पर भारत और अमेरिका की प्रतिक्रिया क्या होती है? हम यहां यह न भूलें कि 1965 के युद्ध के बाद भारत-पाक ताशकंद समझौता रूस ने ही करवाया था।
- डॉ. वेदप्रताप वैदिक
विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने चीन के रवैए को लेकर जो चिंता और नाराजगी जताई है, वह बेवजह नहीं हैं, उसकी गंभीरता को समझने की जरूरत है। पिछले दो वर्षों में तो चीन ने सारी हदें पार कर दीं। सीमा पर शांति बनाए रखने के लिए नए-पुराने सभी समझौतों की धज्जियां उड़ाते हुए गलवान जैसे गंभीर विवाद खड़े कर दिए।
चीन की आक्रामक नीति भारत के लिये गंभीर खतरा है, लेकिन विश्व शांति एवं संतुलित विश्व-व्यवस्था के लिए एक बड़ा खतरा है, अशांति का कारण है। दुनिया के अधिकांश देश अब चीन की इस मंशा से वाकिफ हैं। भारत चीन के साथ सौहार्दपूर्ण संबंधों की लगातार कोशिश करता है, लेकिन तनाव लगातार बढ़ता ही जा रहा है, इस तनाव की जड़ सीमा विवाद तो है ही, लेकिन उसका अहंकार, सत्ता की महत्वाकांक्षा, स्वार्थ एवं स्वयं को शक्तिशाली-शांतिप्रिय दिखाने की इच्छा भी बड़े कारण हैं। इनसे भी बड़ी मुश्किल यह खड़ी हो गई है कि वह अक्सर ही ऐसे लिखित समझौतों को ताक पर रखकर षडयंत्रपूर्ण हरकतों को अंजाम देने में जरा नहीं हिचकिचा रहा जो भारत को उकसाने वाली होती हैं। ऐसी ही एक हरकत चीनी वेबसाइट पर हाल में ही प्रकाशित आठ हजार शब्दों के एक लेख में 1962 के भारत-चीन युद्ध का संशोधित इतिहास अंतरराष्ट्रीय प्रेक्षकों का ध्यान खींच रहा है जिसमें यह सिद्ध करने की कोशिश की गई है कि वह चीन का आक्रमण नहीं बल्कि भारत द्वारा किए गए हमले के जवाब में की गई कार्रवाई भर था। जाहिर है, यह चीन के उस दुष्प्रचार अभियान का हिस्सा है, जिसके तहत वह खुद को ऐसे शांतिप्रिय देश के रूप में पेश करता है, जिसने कभी किसी पर हमला नहीं किया और न ही किसी के क्षेत्र में घुसपैठ की।
चीन की ओर से भारत के खिलाफ पेश की जा रही लगातार चुनौतियों के लिये सर्तक एवं सावधान रहने की अपेक्षा है। चीन की हर हरकत पर लगाम लगाना जरूरी है और उसके लिये विश्व की शक्तियों को सही तथ्यों से अवगत करते हुए चीन की आक्रामकता एवं विस्तारवादी गतिविधियों के प्रति सावधान करने की भी अपेक्षा है। भारत हमेशा से विश्व शांति का पक्षधर रहा है। मानवता गुलामी में न बंध जाए, भूगोलों की अपनी स्वतंत्रता कायम रहे, इसके लिये भारत द्वारा चीन की आक्रामकता की पोल दुनिया के सामने खोलना जरूरी है। म्यूनिख सुरक्षा सम्मेलन में विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने यही सफल एवं सार्थक कोशिश की है। उन्होंने कहा कि चीन के द्वारा सीमा समझौतों का उल्लंघन करने के बाद उसके साथ भारत के संबंध ‘बहुत कठिन दौर’ से गुजर रहे हैं। जयशंकर ने रेखांकित किया कि ‘सीमा की स्थिति संबंधों की स्थिति का निर्धारण करेगी।’
विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने चीन के रवैए को लेकर जो चिंता और नाराजगी जताई है, वह बेवजह नहीं हैं, उसकी गंभीरता को समझने की जरूरत है। पिछले दो वर्षों में तो चीन ने सारी हदें पार कर दीं। सीमा पर शांति बनाए रखने के लिए नए-पुराने सभी समझौतों की धज्जियां उड़ाते हुए गलवान जैसे गंभीर विवाद खड़े कर दिए। आखिर कौन भूल सकता है कि चीनी सैनिकों ने सीमा का उल्लंघन करते हुए भारतीय जवानों पर हमला कर दिया था और हमारे चौबीस जवान शहीद हो गए थे। लेकिन अब ज्यादा चिंता की बात यह है कि चीन गलवान विवाद को खत्म करने के बजाय और बढ़ाने पर ही तुला है। अब तक तेरह दौर की वार्ताओं में उसके रवैए से यही सामने आया है। ऐसे में भारत चिंतित होना लाजिमी है और अपनी सुरक्षा के लिए हरसंभव कदम भी उठाएगा ही। म्यूनिख सुरक्षा सम्मेलन में विदेश मंत्री ने दो टूक शब्दों में दुनिया को उचित ही बताया है कि चीन किसी भी समझौते को मान नहीं रहा है और उसी का नतीजा है कि दोनों देशों के बीच रिश्ते बेहद खराब हो गए हैं। इसी महीने मेलबर्न में क्वाड देशों के विदेश मंत्रियों के सम्मेलन और आस्ट्रेलिया के विदेश मंत्री के साथ द्विपक्षीय वार्ता में भी भारत ने अपना पक्ष रखा। चीन के रवैया से भारत ही नहीं, सभी देशों की चिन्ता तो बढ़ ही रही है, बड़ी चुनौती का कारण भी बनी है। साथ ही क्षेत्रीय शांति भी खतरे में पड़ती जा रही है।
चीन हरसंभव वह कोशिश कर रहा है जिससे भारत जबावी कार्रवाही करें और फिर विवाद खड़े हो। लद्दाख में वास्तविक नियंत्रण रेखा के करीब हजारों सैनिकों को तैनात कर उसने मोर्चाबंदी शुरू कर दी। पिछले साल अगस्त में बड़ी संख्या में चीनी सैनिक उत्तरांखड के बाड़ाहोती सेक्टर में घुस आए थे और तीन घंटे तक वहां तोड़फोड़ करते रहे। अरुणाचल प्रदेश से लगती सीमा पर ऐसी घटनाएं आम हैं। गलवान विवाद से पहले लगभग साढ़े चार दशक तक भारत-चीन सीमा पर शांति बनी रही थी। भारत की ओर से कभी भी ऐसा कोई अनुचित कदम नहीं उठाया गया जो अशांति पैदा करता। लेकिन पिछले दो दशकों में चीन जिस तेजी से विस्तारवादी नीतियों पर बढ़ चला है और वह भारत से लगती लगभग चार हजार किलोमीटर लंबी सीमा पर ऐसी ही गतिविधियां जारी रखे हुए है, जिन पर भारत को सख्त एतराज रहा है। जबकि सीमा पर शांति बनी रहे, इसके लिए भारत और चीन के बीच 1996 में समझौता हुआ था। इस समझौते के अनुच्छेद-6 में साफ कहा गया है कि कोई भी पक्ष वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) के दो किलोमीटर के दायरे में गोली नहीं चलाएगा। इतना ही नहीं, समझौते के मुताबिक इस क्षेत्र में बंदूक, रासायनिक हथियार या विस्फोटक ले जाने की अनुमति भी नहीं है। लेकिन चीन इन सब समझौता शर्तों को नजरअंदाज कर विश्व को भटकाने एवं तनाव पैदा करने की कोशिश कर रहा है।
विश्व को गुमराह करने के लिये ही उसने अपनी वेबसाइट पर वास्तविक इतिहास को इस तरह तोड़मरोड़ कर सत्य को झूठा नकाब पहनाया है कि इसे पचाना किसी भी समझदार व्यक्ति के लिए संभव नहीं। जाहिर है, इतिहास को झूठलाना, अपनी आक्रामक नीतियों पर परदा डालना किसी शांतिप्रिय देश का लक्षण नहीं हो सकता। जहां तक 1962 युद्ध को लेकर बनाई जा रही नई धारणा का सवाल है तो इस लेख में कही गई बातें और इसमें दिए गए तथ्य ही इसके खिलाफ गवाही दे रहे हैं। वैसे भी 1962 युद्ध से जुड़े साक्ष्य आधारित विवरण मौजूद हैं, जो इस तरह के नए दावों की विश्वसनीयता पर सवाल खड़े करते हैं। इस तरह के झूठे, गुमराह करने वाले एवं भ्रामक इतिहास की प्रस्तुति से चीन को कुछ हासिल होने वाला नहीं है। चांग शियाकांग, जो पूर्व सैन्य कमांडर जनरल चांग ग्वोहुवा की बेटी हैं, वही यह ‘संशोधित इतिहास’ लेकर सामने आई हैं, उसने चीन को एक शांतिप्रिय देश ठहराने के लिये यह हरकत की है।
चीन किस तरह का शांतिप्रिय देश है उसका अनुमान इन घटनाक्रम पर एक नजर डालने से ही पता चल जाता हैं। चीन हांगकांग के सवाल पर ब्रिटेन से, व्यापार को लेकर ऑस्ट्रेलिया से, ईस्ट चाइना सी के सेंकाकू द्वीपों के स्वामित्व के मसले पर जापान से, सैन्य शक्ति प्रदर्शन को लेकर अमेरिका से और साउथ चाइना सी पर नियंत्रण के सवाल पर साउथ ईस्ट एशियन देशों से पंगेबाजी करता रहा है। ताइवान और हांगकांग पर कब्जा करने की चीन की कोशिश, पाकिस्तान के गवाहदार सी पोर्ट पर विकास के नाम पर कब्जा लेना, पाकिस्तानी हुक्मरानों का मुंह पैसा देकर बंद करवा देना, नेपाल की शासकीय कम्युनिस्ट पार्टी को पैसे और सुरक्षा के लालच देकर नेपाल को चीन के हाथों गिरवी रखवा देना, यह सब चीन की विस्तारवादी नीति और तानाशाही सोच के उदाहरण है। चीन की क्रूरता पर रोक लगाना भारत, एशिया और पूरे विश्व का कर्तव्य है। चीन की बढ़ती महत्वाकांक्षाओं, पड़ोसी देशों की सीमाओं पर निरंतर अतिक्रमण करने और विश्व में अशांति फैलाने के विस्तारवादी, आसुरी और तानाशाही चरित्र को दुनिया जाने, यह अपेक्षित है। जब कोई बड़ा देश लिखित समझौतों का अनादर करने लगे तो यह पूरी अंतरराष्ट्रीय बिरादरी के लिए जायज चिंता की बात हो जाती है। इन कारणों से टकराव और युद्ध की संभावनाएं बढ़ रही है। भारत जैसे कुछ एशियाई देशों के समक्ष आने वाले सालों में काफी चुनौतियां होंगी, लेकिन समय रहते इससे निपटने के लिए उपाय एवं उपचार कर लेना अब नितांत जरूरी हो गया है और इसी से चीन की घेरेबंदी करना संभव होगा।
- ललित गर्ग
दुनिया के जाने-माने वामपंथी चिन्तक नॉम चोमस्की ने भारत में कथित इस्लामोफोबिया बढऩे को लेकर चिन्ता जताते हुए मोदी सरकार पर धर्मनिरपेक्ष लोकतन्त्र को खत्म करने का आरोप लगाया है। चोम्सकी ने ‘भारत में नफरत भरे भाषण और हिंसा को लेकर खराब होती स्थिति’ पर एक विशेष चर्चा के दौरान ये बातें कहीं।
वामपंथी विचारकों द्वारा हिन्दुत्व को लेकर भारत के प्रति विचार किसी से छिपे नहीं, परन्तु इसमें दो राय नहीं कि ऐसा करते समय वे तथ्यों से अधिक अपने पूर्वाग्रहों को प्राथमिकता देना नहीं भूलते। वैसे तो इस तरह की कोशिश पहले भी होती रही हैं परन्तु पिछले सात सालों के दौरान इस तरह के प्रयासों में तेजी देखने को मिल रही है। तमाम तरह के दुष्प्रचारों के बीच देश की स्थिति बताती है कि यहां पिछले पांच सालों में साम्प्रदायिक तनाव की स्थिति में सुधार हुआ है। केवल दंगे ही कम नहीं हुए बल्कि दंगाइयों, फसादियों को सजा दिए जाने की दर में भी सुधार हुआ है। देश के कई उन हिस्सों में भी साम्प्रदायिक टकराव लगभग समाप्त हो गया जो कभी संवेदनशील माने जाते रहे हैं। परन्तु इसके बावजूद भारत के खिलाफ दुष्प्रचार जारी है।
दुनिया के जाने-माने वामपंथी चिन्तक नॉम चोमस्की ने भारत में कथित इस्लामोफोबिया बढऩे को लेकर चिन्ता जताते हुए मोदी सरकार पर धर्मनिरपेक्ष लोकतन्त्र को खत्म करने का आरोप लगाया है। चोम्सकी ने ‘भारत में नफरत भरे भाषण और हिंसा को लेकर खराब होती स्थिति’ पर एक विशेष चर्चा के दौरान ये बातें कहीं। भारत में साम्प्रदायिकता के मुद्दे पर अमेरिका के प्रवासी संगठनों ने एक महीने में ये तीसरी बार चर्चा आयोजित की। इसमें चोमस्की ने कहा, ‘‘इस्लामोफोबिया का प्रभाव पूरे पश्चिम में बढ़ रहा है और भारत में अपना सबसे घातक रूप ले रहा है, जहां नरेन्द्र मोदी की सरकार भारतीय धर्मनिरपेक्ष लोकतन्त्र को व्यवस्थित रूप से खत्म कर रही है और वे हिन्दू राष्ट्र बना रहे हैं।’’ उन्होंने भारत में साम्प्रदायिक हिंसा की भी बात की। इसी चर्चा में सामाजिक कार्यकर्ता वामपंथी विचारक हर्ष मन्दर ने अपने वीडियो सन्देश में कहा, ‘‘भारत आज खुद को भय और घृणा के एक भयावह अन्धेरे और हिंसा में पाता है।’’ चर्चा का आयोजन 17 संगठनों ने किया था। दूसरी तरफ देश की जानी-मानी वामपंथी लेखिका और बुकर पुरस्कार विजेता अरुन्धति रॉय ने ‘द वायर’ के लिए करण थापर को दिए साक्षात्कार में मोदी सरकार पर जमकर निशाना साधा है। अरुन्धति ने कहा है कि हिन्दू राष्ट्रवाद की सोच विभाजनकारी है और देश की जनता इसे कामयाब नहीं होने देगी। उन्होंने देश में हिंसा बढऩे के भी आरोप लगाए। उक्त वामपंथी विषवमन ने अन्तरराष्ट्रीय सुर्खियां बटोरी हैं जिससे दुनिया भर में भारत की छवि को आघात लगा है और विदेश मन्त्रालय को वक्तव्य जारी कर इसका खण्डन करना पड़ा है।
इस वामपंथी दुष्प्रचार के विपरीत तथ्य कुछ और ही दृश्य प्रस्तुत करते हैं। राज्यसभा में गृह मंत्रालय द्वारा दिए गए आंकड़ों के अनुसार, पिछले कुछ सालों में देश में न केवल साम्प्रदायिक दंगों में कमी आई है, बल्कि पहले की तुलना में ज्यादा संख्या में दंगाइयों को सजा भी मिली है। आज से करीब तीन से चार साल पहले केवल 2 से 3 प्रतिशत लोगों को ही अदालत से सजा मिल पाती थी। वहीं, अब यह संख्या बढक़र 10 प्रतिशत से ऊपर पहुंच गई है। इन आंकड़ों के अनुसार, देश में पिछले 5 साल में 3,399 दंगे हुए। साल 2020 में देश में दंगों के कुल 857 मामले दर्ज हुई, जिसमें सिर्फ दिल्ली में ही 520 (61 प्रतिशत) मामले दर्ज किए गए। यदि दिल्ली में इतने बड़े पैमाने पर दंगे नहीं होते तो 5 साल में देश में सबसे कम दंगों का रिकार्ड होता। वहीं, 2020 से लेकर अब तक उत्तर प्रदेश के अलावा उत्तराखण्ड, छत्तीसगढ़, गोवा, हिमाचल प्रदेश, केरल, मणिपुर, मेघालय, मिजोरम, नागालैण्ड, सिक्किम, त्रिपुरा समेत कुछ केन्द्र शासित प्रदेशों में एक भी दंगों के मामले सामने नहीं आए। पिछले 5 साल में दंगों के सबसे अधिक मामले बिहार से आए। वहां 721 मामले दर्ज किए गए। इसके अलावा दिल्ली में 521, हरियाणा में 421 और महाराष्ट्र में दंगों के 295 मामले दर्ज हुए। इनमें गिरफ्तार हुए आरोपियों की संख्या भी बढ़ी है। 2016 में दंगों के मामले में 1.42 प्रतिशत लोगों की गिरफ्तारी हुई। वहीं, 2017 में 2.44 प्रतिशत, 2018 में 4.08 प्रतिशत, 2019 में 13.80 प्रतिशत और 2020 में गिरफ्तार किए गए आरोपियों में से 11.10 प्रतिशत दोषियों को न्यायालय से सजा मिल चुकी है।
देश पर धरातल की सच्चाई प्रदर्शित करते यह आंकड़े वास्तव में उत्सावद्र्धक हैं और नई उम्मीद भी पैदा करते हैं। हिंसा और साम्प्रदायिक तनाव का असर केवल सामाजिक तौर पर नहीं पड़ता बल्कि इससे देश की अर्थव्यवस्था व विकास भी प्रभावित होता है। कोई निवेशक चाहे वो अपने देश का हो या विदेशी हिंसाग्रस्त क्षेत्र में पूंजीनिवेश करने का खतरा मोल नहीं रहता। इसका सीधा असर देश के विकास व रोजगार पर पड़ता है। साम्प्रदायिकता की दृष्टि से किसी समय उत्तर प्रदेश व बिहार जैसे राज्यों में इस तरह के टकराव कम होने का ही असर है कि अतीत में बिमारू राज्यों में शामिल किए जाने वाले इन राज्यों की अर्थव्यवस्था पटरी पर आती दिख रही है। इन प्रदेशों की अर्थव्यवस्था में सुधार का पैमाना यह भी है कि देश के सम्पन्न कहे जाने वाले राज्यों जैसे गुजरात, महाराष्ट्र, पंजाब, हरियाणा इत्यादि में इन्हीं प्रदेशों के श्रमिकों की संख्या अधिक रहती है परन्तु पिछले कुछ समय से यहां से मजदूरों की आवक में कमी देखने को मिली है। पंजाब में कृषि से लेकर उद्योग चलाने के लिए उत्तर प्रदेश व बिहार की श्रम शक्ति की जरूरत पड़ती है परन्तु अब इसकी कमी महसूस की जाने लगी है। स्वभाविक है कि जब हिंसा, अपराध कम होंगे व साम्प्रदायिक सौहार्द स्थापित होगा तो देश का विकास होगा ही।
देश की जमीन से उखड़े वामपंथी विचारकों को सोचना चाहिए कि उनका दुष्प्रचार किस तरह न केवल भारत की छवि धूमिल करने का काम करता है बल्कि विकास में भी बाधा पैदा करता है। विकास में आई रुकावट उसी गरीब को भारी पड़ती है जिसके कल्याण की झण्डाबरदारी वामपंथी करते आए हैं। देश में कहीं साम्प्रदायिकता की आग फैलती है तो उसके खिलाफ आवाज उठाना, समस्या का समाधान करना हर नागरिक का दायित्व है। इसके लिए व्यवस्था की कमी को भी आगे लाया जाना ही चाहिए परन्तु ऐसा करते समय न केवल दुराग्रहों से बचना चाहिए बल्कि तथ्यों की भी उपेक्षा नहीं होनी चाहिए।
- राकेश सैन
इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं। इस लेख से जुड़े सभी दावे या विचार के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है।
चौथे चरण के मतदान के लिए हरदोई में पार्टी प्रत्याशियों के लिए जनसभा करने पहुंचे मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने सपा पर खूब निशाना साधा। शाहाबाद की जनसभा में मुख्यमंत्री बोले, गुजरात में आतंकियों को फांसी की सजा सुनाई गई तो सपा को बहुत तकलीफ हुई।
उत्तर प्रदेश में तीन चरणों का मतदान हो चुका है। चौथे चरण का मतदान 23 फरवरी को सम्पन्न हो जाएगा। विभिन्न दलों नेताओं के बीच आरोप-प्रत्यारोप का दौर लगातार बना हुआ है। समाजवादी पार्टी जहां भाजपा को मंहगाई और बेरोजगारी को हथियार बनाए हुए हैं तो वहीं बीजेपी ने रणनीति के तहत पहले दो चरणों के चुनाव में पश्चिमी यूपी से हिन्दुओं के पलायन, दंगे और दंगाइयों को टिकट देने के बहाने समाजवादी पार्टी के मुखिया अखिलेश यादव को घेरा तो तीसरे चरण में बीजेपी ने परिवारवाद के नाम पर सपा पर तंज कसे। चौथे चरण में आतंकवाद की इंट्री हो गई। गुजरात में सीरियल ब्लास्ट के 38 आरोपियों को कोर्ट द्वारा दोषी करार देते हुए फांसी से लेकर 11 को आजीवन कारावास तक की सजा सुनाई तो बीजेपी ने गुजरात के सीरियल ब्लास्ट की घटना का कनेक्शन समाजवादी पार्टी से जोड़ दिया। क्योंकि ब्लास्ट की जिस घटना में आजमगढ़ के रहने वाले एक आतंकवादी को फांसी की सजा सुनाई गई थी, उसके पिता समाजवादी पार्टी के पक्ष में चुनाव प्रचार कर रहे थे।
कोर्ट का फैसला आते ही प्रधानमंत्री मोदी से लेकर मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ सहित तमाम बीजेपी नेताओं ने अखिलेश को घेरने में कोई कोरकसर नहीं रखी। उन्नाव में प्रधानमंत्री मोदी के तो हरदोई में योगी के निशाने पर अखिलेश रहे। उन्नाव में मोदी ने सपा के चुनाव निशान साइकिल को लेकर अखिलेश पर खूब शब्दबाण चलाए। बीजेपी वालों ने गुजरात में सीरियल ब्लास्ट पर कोर्ट के फैसले पर तो अखिलेश को घेरा ही इसके अलावा आतंकवाद के वह बंद पन्ने भी खोल दिए जिसकी इबारत अखिलेश सरकार के समय तमाम खूंखार आतंकवादियों से मुकदमें वापस लेकर लिखी गई थी। इसी लिए राजनीति के जानकार भी कहते हैं कि आतंकी हमले के आरोपितों के प्रति सपा द्वारा साफ्ट कार्नर अपनाने का भाजपा का आरोप पूरी तरह निराधार नहीं है। अखिलेश सरकार के दौरान 2013 में सात जिलों में आतंकी हमले से जुड़े 14 केस एक साथ वापस लिए गए थे। हालांकि, कुछ मामलों में अदालत के मना करने के बाद आरोपितों को 20-20 साल तक की सजा तक हुई थी। सीएम रहते अखिलेश ने जिन 14 मामलों को वापस लेने का आदेश दिया था। उनमें लखनऊ के छह और कानपुर के तीन मामले थे। इसके अलावा वाराणसी, गोरखपुर, बिजनौर, रामपुर और बाराबंकी का एक-एक मामला था। पांच मार्च, 2013 को वाराणसी के जिस मामले को वापस लिया गया था, वह सात मार्च 2006 में संकट मोचन मंदिर एवं रेलवे स्टेशन कैंट पर हुए सिलसिलेवार बम धमाके से जुड़ा था।
वाराणसी में एक प्रेशर कुकर में घड़ी लगा विस्फोटक दशाश्वमेध घाट पर किया गया था। इस आतंकी हमले में 28 लोगों की मौत हुई थी और 101 से अधिक लोग घायल हो गए थे। इसमें मुख्य आरोपित आतंकी संगठन हूजी से जुड़ा शमीम अहमद है। वैसे केस वापस लेने के बावजूद यह मामला अदालत में लंबित है। इसी तरह से 20 मई, 2007 को गोरखपुर के बलदेव प्लाजा, जरकल बिल्डिंग और गणेश चौराहा पर हुए सिलसिलेवार विस्फोट के मामले को राज्य सरकार ने वापस ले लिया। वैसे अदालत ने सरकार के आदेश को मानने से इन्कार कर दिया और बाद में दोषियों को 20 साल सश्रम कारावास की सजा हुई। वहीं कई मामलों में अदालत ने सरकार के फैसले को मानते हुए केस को खत्म कर दिया और आरोपित पूरी तरह से दोषमुक्त हो गए।
चौथे चरण के मतदान के लिए हरदोई में पार्टी प्रत्याशियों के लिए जनसभा करने पहुंचे मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने सपा पर खूब निशाना साधा। शाहाबाद की जनसभा में मुख्यमंत्री बोले, गुजरात में आतंकियों को फांसी की सजा सुनाई गई तो सपा को बहुत तकलीफ हुई। देश के दुश्मन भी इनके दोस्त हैं। उन्होंने कहा, क्या अखिलेश प्रदेश की जनता को बताएंगे कि उन्होंने राम मंदिर और सीआरपीएफ कैंप पर हमला करने वाले आतंकवादियों के मुकदमें क्यों वापस लिए थे।
सीएम योगी बोले, आज मैं इसीलिए आपके पास आया हूं। जब 2012 में समाजवादी पार्टी की सरकार आई थी तो इन्होंने सबसे पहले आतंकवादियों के मुकदमें वापस लिया। एक-दो नहीं बल्कि, डेढ़ दर्जन आतंकवादियों के मुकदमें वापस लिया था। मैं आज समाजवादी पार्टी के मुखिया से पूछना चाहता हूं कि उनको जनता की अदालत में स्पष्टीकरण देना चाहिए कि उन्होंने किस हैसियत से उत्तर प्रदेश और देश की सुरक्षा के लिए घातक बने आतंकवादियों के मुकदमों को वापस लेने का दुस्साहस किया था। आखिर सपा को आतंकियों से इतनी हमदर्दी क्यों है।
गौरतलब हो, गुजरात के एक न्यायालय ने गुजरात में सीरियल ब्लास्ट के मामले में 38 आतंकवादियों को फांसी की सजा सुनाई थी। उसमें आठ आतंकियों का संबंध आजमगढ़ से है। एक आतंकी का बाप समाजवादी पार्टी का प्रचारक है। हरदोई में सपा प्रमुख अखिलेश पर तंज कसते हुए योगी ने कहा,‘मैं अब्बा जान तभी बोलता था, क्योंकि मैं इनकी हरकतों को देखता था। सपा को जनता से माफी मांगनी चाहिए। सपा उत्तर प्रदेश की सुरक्षा के साथ खिलवाड़ कर रही है। मैं पूछना चाहता हूं क्या राजनीति इतनी बड़ी हो गई है कि देश की सुरक्षा के लिए कोई जगह नहीं है। सपा को इस पर विचार करना चाहिए।
लब्बोलुआब यह है कि बीजेपी आलाकमान अखिलेकश राज में हुए साम्प्रदायिक दंगों, आतंकवाद,गुंडा-माफियाओं को संरक्षण, लव जेहाद, तुष्टिकरण की सियासत और पारिवारिक कलह के सहारे घेरकर सपा प्रमुख की बोलती बंद करने में लगी है, जिसमें वह कामयाब भी होती दिख रही है। अखिलेश बीजेपी नेताओं के किसी भी आरोपों का जबाव नहीं दे रहे हैं। इसी वजह से सपा प्रमुख की विश्वसनीयता पर तो सवाल खड़े हो ही रहे हैं आम जनता के बीच भी अखिलेश की इमेज को नुकसान हो रहा है। वही राजनीति के कुछ जानकार यह भी कह रहे हैं सपा प्रमुख अखिलेश यादव बीजेपी के उठाए मुद्दों पर बयानबाजी करने के बजाए अपने द्वारा तैयार की गई सियासी पिच पर बैटिंग करने मैं लगे हैं, यदि अखिलेश बीजेपी नेताओं के बयान का उत्तर या सफाई देने लगे तो वह अपने द्वारा तैयार किए गए मुद्दों से भटक जाएंगे जो वह नहीं चाहते हैं।
- संजय सक्सेना
2017 के विधानसभा चुनाव के चुनावी नतीजों का विश्लेषण करें तो गोवा में कांग्रेस पार्टी ने 40 में से 36 सीटों पर चुनाव लड़कर 17 सीटें जीती थी। वहां कांग्रेस को दो लाख 59 हजार 758 वोट यानि 28.4 प्रतिशत वोट मिले थे। जबकि वहां भाजपा मात्र 13 सीटों पर ही जीत पाई थी।
देश के पांच राज्यों उत्तर प्रदेश, पंजाब, उत्तराखंड, गोवा, मणिपुर में विधानसभा चुनाव की प्रक्रिया जारी है। इन पांच राज्यों में से उत्तर प्रदेश को छोड़कर बाकी चार राज्यों में कांग्रेस पार्टी मुख्य चुनावी मुकाबले में है। फिलहाल पांच में से चार राज्यों में भाजपा व पंजाब में कांग्रेस पार्टी का शासन है। कांग्रेस पार्टी इन सभी पांच राज्यों में बेहतर प्रदर्शन करके अपने घटते जनाधार को रोक सकती है। पंजाब के साथ ही उत्तराखंड, गोवा व मणिपुर में कांग्रेस के फिर से सरकार बनाने की संभावनाएं बताई जा रही है।
2017 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस पार्टी ने जहां भारी बहुमत से पंजाब में अपनी सरकार बनाई थी। वहीं गोवा व मणिपुर में सबसे बड़ी पार्टी बनने के बावजूद अपनी रणनीतिक चूक के चलते सरकार बनाने से रह गई थी। इस बार कांग्रेस पार्टी को अपने प्रभाव वाले प्रदेशों में पहले से ही ऐसी सुदृढ़ रणनीति बनानी होगी। जहां बहुमत के करीब होने पर अपनी सरकार का गठन कर सके। ना कि पिछली बार की तरह बहुमत के करीब होने के बावजूद सत्ता से दूर रह जाए।
2017 के विधानसभा चुनाव के चुनावी नतीजों का विश्लेषण करें तो गोवा में कांग्रेस पार्टी ने 40 में से 36 सीटों पर चुनाव लड़कर 17 सीटें जीती थी। वहां कांग्रेस को दो लाख 59 हजार 758 वोट यानि 28.4 प्रतिशत वोट मिले थे। जबकि वहां भाजपा मात्र 13 सीटों पर ही जीत पाई थी। उसके उपरांत भी कांग्रेस के प्रभारी महासचिव दिग्विजय सिंह की ढिलाई के चलते सत्ता के नजदीक पहुंच कर भी कांग्रेस सरकार बनाने से चूक गई थी। इस बार गोवा में कांग्रेस ने गोवा फारवर्ड पार्टी से चुनावी गठबंधन कर चुनाव लड़ा है।
हालांकि गोवा में कांग्रेस को कई दिग्गज नेताओं के पार्टी छोड़ने से झटके भी लगे हैं। चार बार मुख्यमंत्री व 50 साल तक विधायक रह चुके प्रतापसिंह राणे इस बार पर्ये विधानसभा सीट पर कांग्रेस टिकट मिलने के बावजूद भाजपा से अपनी पुत्रवधू डॉ दिव्या रानी के उम्मीदवार बनने पर उन्होंने चुनाव लड़ने से इनकार कर दिया। इससे कांग्रेस को बैकफुट पर आना पड़ा। जबकि कांग्रेस इस बार गोवा में अपनी पार्टी की सरकार बनाने को लेकर पूरी तरह आश्वस्त नजर आ रही है।
उत्तराखंड में भी कांग्रेस सरकार बनाने के प्रति काफी आशान्वित हैं। इससे वहां भी अभी से मुख्यमंत्री पद के दावेदारो में खींचतान शुरू हो गई है। पिछले विधानसभा चुनाव में कांग्रेस 70 में से मात्र 11 सीटें ही जीत सकी थी। उस वक्त कांग्रेस के मुख्यमंत्री हरीश रावत हरिद्वार ग्रामीण व किच्छा दोनों विधानसभा सीटों से चुनाव हार गए थे। 2017 में कांग्रेस को 16 लाख 65 हजार 64 यानी 33.5 प्रतिशत मत मिले थे। पिछले विधानसभा चुनाव से पूर्व उत्तराखंड कांग्रेस के कई बड़े नेता भाजपा में शामिल हो गए थे। जिससे कांग्रेसी को काफी नुकसान उठाना पड़ा था। इस बार भी प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष रहे किशोर उपाध्याय व महिला कांग्रेस की अध्यक्ष सविता आर्य भाजपा में शामिल हो गई है। उसकी भरपाई के लिए कांग्रेस ने यशपाल आर्य व उनके पुत्र संजीव आर्य को भाजपा छोड़कर फिर से कांग्रेस में शामिल करवा लिया था।
मणिपुर में 2017 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने 60 में से 28 सीटें जीती थी। वहीं भाजपा ने मात्री 21 सीटें जीती थी। मगर कांग्रेस के नेताओं की कमजोरी के चलते वहां भाजपा की सरकार बन गई थी। उस चुनाव में कांग्रेस को 35.10 प्रतिशत वोट मिले थे। मणिपुर में सरकार बनाने को लेकर कांग्रेसी इस बार पूरी सतर्क नजर आ रही है। कांग्रेस इस बार मणिपुर में सरकार बनाने का कोई भी अवसर छोड़ना नहीं चाह रही है। क्योंकि पूर्वोत्तर में कभी कांग्रेस का एकछत्र राज होता था। मगर आज वहां के सभी आठों प्रदेशों में कांग्रेस सत्ता से बाहर है। इसलिए मणिपुर के रास्ते कांग्रेस एक बार फिर पूर्वोत्तर में अपना वर्चस्व स्थापित करने का पूरा प्रयास कर रही है।
कांग्रेस के लिए इस बार पंजाब में बड़ी संघर्षपूर्ण स्थिति हो रही है। 2017 में कांग्रेस ने 117 में से 77 सीटें जीती थी तथा 38.50 प्रतिशत वोट प्राप्त किए थे। उस वक्त कैप्टन अमरिंदर सिंह कांग्रेस के एक छात्र नेता होते थे। मगर अब पंजाब में कांग्रेस की स्थिति एकदम से बदल गई है। कैप्टन अमरिंदर सिंह कांग्रेस से बाहर होकर भाजपा के साथ गठबंधन कर अपनी अलग पार्टी बना कर उससे चुनाव लड़ रहे हैं। कांग्रेस मुख्यमंत्री चरणजीत सिंह चन्नी के नेतृत्व में चुनाव लड़ रही है। पंजाब में कांग्रेस को अरविंद केजरीवाल की आप पार्टी, अकाली दल बादल व भाजपा, कैप्टन अमरिंदर सिंह की पंजाब लोग कांग्रेस व सुखबीर सिंह ढींडसा के संयुक्त अकाली दल के गठबंधन के साथ चतुष्कोणीय मुकाबला करना पड़ रहा है। अपने सबसे मजबूत प्रदेश पंजाब में कांग्रेस को कड़ा संघर्ष करना पड़ रहा है। यदि पंजाब कांग्रेस के नेता एकजुट होकर मैदान में उतरते हैं तो कांग्रेस के लिए फिर से सरकार बनाने की संभावना बन सकती है।
देश के सबसे बड़े प्रदेश उत्तर प्रदेश में कांग्रेस अपनी उपस्थिति बनाए रखने की लड़ाई लड़ रही है। पिछले विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने समाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन कर 114 सीटों पर चुनाव लड़ा था। मगर महज 7 सीटें ही जीत पाई थी। उस चुनाव में कांग्रेस को 54 लाख 16 हजार 540 यानी 6.25 प्रतिशत वोट मिले थे। कांग्रेस की राष्ट्रीय महासचिव प्रियंका गांधी काफी लंबे समय से उत्तर प्रदेश में कांग्रेस संगठन को मजबूत करने के लिए काम कर रही हैं। उसी के चलते इस बार कांग्रेस अकेले ही अपने दम पर चुनाव मैदान में उतरी है। कांग्रेस ने बड़ी संख्या में महिलाओं, अल्पसंख्यकों को भी टिकट दिया है। यदि उत्तर प्रदेश में कांग्रेस कुछ बड़ा कर पाने में सफल रहती है तो पूरे देश में कांग्रेस के लिए अच्छी संभावनाएं बनने के आसार हो जाएंगे। उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के प्रदर्शन पर प्रियंका गांधी की भी राजनीति का भविष्य टिका हुआ है। क्योंकि प्रियंका गांधी ने अपना पूरा फोकस उत्तर प्रदेश पर ही कर रखा है।
पांच राज्यों में हो रहे विधानसभा चुनाव में कुल 690 विधानसभा सीटें हैं। जिनमें कांग्रेस ने पिछली बार 140 सीटें जीती थी। वहीं 2019 के लोकसभा चुनाव में इन पांच राज्यों की 102 लोकसभा सीटों में से कांग्रेस ने पंजाब में 8 उत्तर प्रदेश व गोवा में एक-एक सीटें जीती थी। पिछले विधानसभा व लोकसभा चुनाव में इन पांच राज्यों में कांग्रेस का प्रदर्शन ज्यादा अच्छा नहीं रहा था। मगर इस बार के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस करो या मरो की नीति पर चुनाव लड़ रही है। कांग्रेस पार्टी का पूरा वर्चस्व इन पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव पर ही टिका हुआ है।
यदि कांग्रेस पार्टी इस बार के चुनाव में पहले से अच्छा प्रदर्शन कर दिखाती है तो कांग्रेस के लिए पूरे देश में संभावनाओं के द्वार खुल सकते हैं। कैप्टन अमरिंदर सिंह के जाने के बाद कांग्रेस को पंजाब में कुछ बड़ा कर दिखाना होगा। तभी पार्टी छोड़कर जा रहे नेताओं के पलायन पर रोक लग सकेगी व कांग्रेस फिर से मुख्यधारा में शामिल हो पाएगी। इन पांच राज्यों के चुनाव कांग्रेस के लिये किसी अग्निपरीक्षा से कम नहीं हैं। जिसमें चूकने का मतलब है सब कुछ समाप्त हो जाना। ऐसे में चुनाव जीतने के लिये पार्टी के नेताओं को पूरा दम लगा कर काम करना होगा।
रमेश सर्राफ धमोरा
(लेखक राजस्थान सरकार से मान्यता प्राप्त स्वतंत्र पत्रकार है। इनके लेख देश के कई समाचार पत्रों में प्रकाशित होते रहते हैं।)
कुर्अतुल ऐन हैदर अलीगढ़ विश्वविद्यालय की तारीफ करती हैं। वह कहतीं हैं कि वह एक सांझा परिवार है। सब एक दूसरे के दुख−दर्द में शामिल होते हैं। शादी−विवाह भी आपस में होतें हैं। कहती हैं कि वह कभी यहां नहीं पढ़ी। सिर्फ उस एक या डेढ माह के जब वे पांचवी में पढ़ने बैठी थीं और वहां से भाग निकली।
आज देश में हिजाब को लेकर विवाद चल रहा है। मुस्लिम युवतियां हिसाब के पक्ष में प्रदर्शन कर रहीं हैं। प्रगतिशील लेखक उनके समर्थन में उतर आए हैं। ऐसे में मुझे याद आती हैं दुनिया की जानी−मानी लेखिका कुर्रतुन ऐन हैदर। उनके पिता अलीगढ़ विश्वविद्यालय के पहले रजिस्ट्रार थे। फिर भी उन्होंने अलीगढ़ विश्वविद्यालय में शिक्षा प्राप्त नही की।
वह दो बार विश्वविद्यालय में पढ़ने के लिए गईं। दोनों बार उनसे हिसाब पहने कर आने का कहा किंतु उन्होंने कहा कि मेरी मां ने कभी हिसाब नहीं पहना। मैं भी नहीं पहनूंगी। वह अपने परिवार की एक हजार साल के आत्म कथात्मक उपन्यास “कारे जहां दराज है”, में कहती हैं कि वह पांचवी में पढ़ने के लिए गईं। उस्तादनी जी को मेरे फ्राक पर एतराज था। उनका कहना था कि सिर ढंक कर बैठा करो। वह कहती हैं कि वह एक सवा माह पढ़ने गईं। एक दिन आकर यह दिया कि मुझे नही पढ़ने जाना।
वह अलीगढ़ विश्वविद्यालय की तारीफ करती हैं। वह कहतीं हैं कि वह एक सांझा परिवार है। सब एक दूसरे के दुख−दर्द में शामिल होते हैं। शादी−विवाह भी आपस में होतें हैं। कहती हैं कि वह कभी यहां नहीं पढ़ी। सिर्फ उस एक या डेढ माह के जब वे पांचवी में पढ़ने बैठी थीं और वहां से भाग निकली। वह कहती हैं कि उनका लगभग सारा खानदान अलीगढ़ में ही पढ़ा है। “कारे जहां दराज है”,, में वह कहती हैं कि वह अलीगढ़ एमए इंग्लिश से करने के इरादे से आईं। उस समय लड़कियां एमए के लेक्चर सुनने के लिए यूनिवर्सिटी जाने लगी थीं। लेकिन उनको बुर्का पहनना पड़ता था। वह एमए इंगलिश में अकेली लड़की थीं। एक छात्र के लिए क्या स्क्रीन लगाई जाए, क्या किया जाएॽ बड़ी समस्या थी। अंग्रेजी के प्रोफेसर ने कहा कि तुम बुर्का पहनकार क्लास के दरवाजे के पास बैठ जाया करो। कुर्रतुल ऐन हैदर कहती हैं कि मैंने उनसे कहा कि आप बिल्कुल संजीदा नहीं हो। उन्होंने जवाब दिया कि बुर्का पहनना लाजमी है। कुर्अतुल ऐन हैदर कहती हैं कि मैंने उनसे कहा कि यहां (अलीगढ) आकर मेरी बालिदा (मां) ने 1920 में पर्दा करना छोड़ दिया। यूनिवर्सिटी के शिक्षकों की बेगमात को पर्दे से बाहर निकाला। और अब 25 साल बाद आकर मैं यहां बुर्का ओढूं। ये मुझे स्वीकार नहीं और मैंने अलीगढ़ को खुदा हाफिज कहा और लखनऊ चली आई।
कुर्अतुल ऐन हैदर के नजदीकी रहे नहटौर के पत्रकार एम असलम सिद्दीकी बतातें हैं कि उन्होंने लखनऊ से पढाई की। वे पूरी दुनिया घूमीं। अकेले घूमी। 20 जनवरी 1927 में जन्मी कुर्रतुल ऐन हैदर का 21 अगस्त 2007 का निधन हुआ। काश आज वह जिंदा होती तो बुर्का पहनने को लेकर शुरू हुए विवाद पर मलाल जरूर करतीं।
- अशोक मधुप
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
दरअसल, हिजाब का धर्म से कोई लेना देना नहीं है, बल्कि ये मानसिकता दर्शाता है कि मुस्लिम मर्दों को अपनी औरतों बच्चियों पर विश्वास नहीं है। इसलिए वह कुरान की आड़ में उन पर तरह-तरह की पाबंदियां लगाते रहते हैं।
हिजाब की तुलना बिंदी चूड़ी पगड़ी से करना कुतर्क के अलावा कुछ नहीं है। यदि तुलना करना ही है तो इस बात की कि जाए कि क्यों देश पर तीन सौ साल राज करने वाले मुगलों की संताने शिक्षा के क्षेत्र में पिछड़ती जा रही हैं। क्यों जब पूरी दुनिया में मुसलमान अन्य कौमों के साथ रूढ़िवादी रवायतों को छोड़कर आगे बढ़ रहे है तब हिन्दुस्तानी मुस्लिम महिलाएं हिजाब के लिए पढ़ाई-लिखाई छोड़ने तक की बात कर रही हैं। हिजाब की जगह मुस्लिम महिलाएं यदि हलाला, बहु-विवाह प्रथा जैसी कुरीतियों के खिलाफ आगे आकर आंदोलन चलाती तो यह मुस्लिम समाज और महिलाओं के लिए बेहतर भविष्य के लिए मील का पत्थर साबित होता। मुस्लिम समाज को इस ओर भी ध्यान देना चाहिए कि क्यों पूरी दुनिया में आतंकवादी उन्हीं के बीच से निकलते हैं। गैर मुस्लिमों उसमें भी हिंदुओं में क्यों आतंकवादी, जिहादी देशद्रोही, संविधान विरोधी, दंगाई, गैर हिंदुओं को काफ़िर मानने वाले कहीं नहीं दिखाई देते हैं। क्यों हिंदू लोग अपने धर्म ग्रंथों की आड़ में देशद्रोही ताकतों के हाथ का खिलौना नहीं बनते हैं। विदेशों मे देश के खिलाफ प्रोपोगंडा नहीं करते हैं। हिन्दुस्तानी मुसलमानों के बीच से ही ऐसे लोग क्यों निकलते हैं जो अपने ही देश के खिलाफ मुसलमानों पर अत्याचार की कहानी गढ़ के संयुक्त राष्ट्र संघ (यूएनओ) को चिट्ठी लिखते हैं, जबकि पाकिस्तान और बंगलादेश में हिन्दुओं के साथ कैसा सलूक होता है,इस पर देश के मुसलमान और उसमें भी मुस्लिम बुद्धिजीवी अपनी जुबान नहीं खोलते हैं। आश्चर्य तब होता है जब इंसटेंट तीन तलाक (एक बार में तीन तलाक) के खिलाफ मोदी सरकार कानून बनाती है तो उसके विरोध में भी मुस्लिम महिलाएं सड़कों पर बैठ जाती हैं।हलाला जैसी कुंरीतियों के पक्ष में खड़ी नजर आती हैं।
दरअसल, हिजाब का धर्म से कोई लेना देना नहीं है, बल्कि ये मानसिकता दर्शाता है कि मुस्लिम मर्दों को अपनी औरतों बच्चियों पर विश्वास नहीं है। इसलिए वह कुरान की आड़ में उन पर तरह-तरह की पाबंदियां लगाते रहते हैं। और बात शान के साथ यह भी बताते हैं कि हिजाब के बिना मुस्लिम महिलाएं असुरक्षित हो जाएंगी। हिसाब से बड़ा मुद्दा तो धर्मांतरण का है। जिस तरह से हिंदू लड़कियों को लव जिहाद में फंसाया जाता है, वह न केवल शर्मनाक बल्कि देश के लिए बड़ा खतरा है। इस पर न गीतकार जावेद अख्तर बोलते हैं, न पूर्व उप-राष्ट्रपति हामिद अंसारी, नसीमुद्दीन सिद्दीकि, आमिर खान, शबाना आजमी जैसे कथित उदारवादी मुस्लिम चेहरे फिर मुल्ला-मौलानाओं से तो कल्पना भी नहीं की जा सकती है कि वह इस पर कुछ बोलेंगे, क्योंकि लव जेहाद की जड़ में मुल्ला-मौलानाओं का ही दिमाग चलता है।
यह अफसोसजनक है कि जब ईरान जैसे कट्टर मुस्लिम देश में महिलाएं बुर्के के खिलाफ और शिक्षा के लिए संघर्ष कर रही हैं। सऊदी अरब में महिलाएं आधुनिकता की ओर बढ़ रही हैं, वहीं भारतीय मुस्लिम लड़कियां हिसाब के लिए आपे से बाहर होती जा रही हैं। हिजाब का समर्थन वह बुद्धिजीवी भी कर रहे हैं जो अफगानिस्तान में बुर्का न पहनने वाली स्त्रियों के कोड़े मारने वाले तालिबानियों को कोसते-काटते हैं। जब से हिजाब चर्चा में आया है तब से हिजाब की बिक्री बढ़ गई है। अचानक ही सड़कों पर हिजाब पहन कर घूमने वाली लड़कियों औरतों की संख्या बढ़ गई है। अफसोसजनक है कि कुछ बड़े मुस्लिम चेहरे और धर्मगुरू ऐसे भी हैं जो अपनी बच्चियों को तो देश-विदेश में बिना हिजाब लगाए शिक्षा दिला रहे हैं, लेकिन आम मुसलमान की लड़कियों के बारे में कह रहे हैं कि पढ़ाई से जरूरी हिजाब हैं। ओवैसी इसके सबसे बड़े उदाहरण हैं। कर्नाटक में कुछ छात्राएं हिजाब पहनकर पढ़ाई करने पर आमादा हुई तो इसकी तपिश उत्तर प्रदेश में भी देखने को मिलने लगी है। गौरतलब हो, कर्नाटक के उडुपी जिले के एक सरकारी कालेज में इस विवाद ने तब तूल पकड़ा, जब इसी दिसंबर की शुरुआत में छह छात्राएं हिजाब पहनकर कक्षा में पहुंच गईं। इसके पहले वे कालेज परिसर में तो हिजाब पहनती थीं, लेकिन कक्षाओं में नहीं।
आखिर अचानक ऐसा क्या हुआ कि वे अध्ययन कक्ष में हिजाब पहनकर जाने लगीं? इस सवाल की तह तक जाने की जरूरत इसलिए है, क्योंकि एक तो यह विवाद देश के दूसरे हिस्सों को भी अपनी चपेट में लेता दिख रहा और दूसरे, इसके पीछे संदिग्ध पृष्ठभूमि वाले कैंपस फ्रंट आफ इंडिया का हाथ दिख रहा है। यह पापुलर फ्रंट आफ इंडिया की छात्र शाखा है। यह फ्रंट किसान आंदोलन और सीएए के दौरान दिल्ली में हुए दंगे के समय भी काफी एक्टिव नजर आया था। सुनियोजित तरीके से दिल्ली दंगा तब कराया गया था,जब अमेरिका के राष्ट्रपति ट्रम्प भारत के दौरे पर थे। माना जाता है कि यह फ्रंट प्रतिबंधित किए जा चुके मुस्लिम छात्र संगठन सिमी का नया अवतार है। हिजाब समर्थकों द्वारा सुनियोजित तरीके से इस तरह का दुष्प्रचार किया जा रहा है, मानों पूरे हिन्दुस्तान में मुस्लिम महिलाओं को हिजाब नहीं पहनने दिया जा रहा है। यह सब मोदी विरोधी के चलते भी हो रहा है क्योंकि जब से मोदी ने सत्ता संभाली है तब से उग्रवादी मुस्लिम संगठनों की दाल नहीं गल पा रही है। विदेश से आने वाली मुस्लिम फंडिंग पर भी मोदी सरकार ने शिकंजा कस रखा है। कश्मीर से धारा 370 खत्म किए जाने की वजह से भी मोदी देश-विदेश के कट्टर मुस्लिमों के निशाने पर हैं। इसी लिए मोदी सरकार को कमजोर करने के लिए समय-समय पर कोई न कोई मुद्दा मुस्लिम संगठनों द्वारा उठाया जाता रहता है।यह सिलसिला खत्म होने वाला नहीं है। मोदी सरकार को इन्हीं दुश्विारियों के बीच सरकार चलानी होगी।
यह सच है कि किसी को भी अपनी पसंद के परिधान पहनने की पूरी आजादी है, लेकिन इसकी अपनी कुछ सीमाएं हैं। हमारी आजादी तब खत्म हो जाती है, जब इस आजादी से दूसरे को परेशानी होने लगती है। फिर शैक्षिक संस्थाओं का तो ड्रेस कोड होता है, जो सबके लिए अनिवार्य होता है। स्कूल-कालेज में विद्यार्थी मनचाहे कपड़े पहनकर नहीं जा सकते। इसका एक बड़ा कारण छात्र-छात्राओं में समानता का बोध कराना भी होता है। ताकि जब यह समाज में आगे बढ़ें तो इन्हें कोई दिक्कत नहीं आए। दुर्भाग्यपूर्ण केवल यह नहीं कि जब दुनिया भर में लड़कियों-महिलाओं को पर्दे में रखने वाले परिधानों का करीब-करीब परित्याग किया जा चुका है और इसी क्रम में अपने देश में घूंघट का चलन खत्म होने को है, तब कर्नाटक में मुस्लिम छात्राएं हिजाब पहनने की जिद कर रही हैं। यह न केवल कूप-मंडूकता और एक किस्म की धर्माधता है, बल्कि स्त्री स्वतंत्रता में बाधक उन कुरीतियों से खुद को जकड़े रखने की सनक भी, जिनका मकसद ही महिलाओं को दोयम दर्जे का साबित करना है। समय की मांग है कि जिस तरह से हिन्दू समाज सती प्रथा, विधवा विवाह, घुंघट प्रथा जैसी कुरीतियों के खिलाफ लामबंद हुए थे, वैसे ही मुस्लिम समाज भी अपने बीच की कुरीतियों से मुक्ति पाने के लिए आगे आए।
कुल मिलाकर कभी सीएए के विरोध के नाम पर, कभी रोहनिया मुसलमानों को देश से बाहर निकालने के खिलाफ, कभी आतंकवादियों को फांसी देने के विरोध में, कभी पाकिस्तान के खिलाफ सर्जिकल स्ट्राइक पर हंगामा खड़ा करने वालों, कोर्ट का आदेश ना मानने वालों, जिस पार्टी को हिंदू वोट करते हों उसे कभी वोट ना देने की कसम खाने वालों, और अब हिज़ाब के नाम पर बखेड़ा खड़े करने वालों, हिंदुस्तान में गजवा-ए-हिंद का सपना पालने वालों से कभी भी देश प्रेम या सौहार्द की उम्मीद नहीं की जा सकती है। भले ही ऐसी अराजक शक्तियां बहुत सीमित हों, लेकिन सबसे दुखद यह है कि इन शक्तियों का मुस्लिम बुद्धिजीवी और मुल्ला मौलाना मुखालफत करने से बचते रहते हैं।
- अजय कुमार
फ्रांस के राष्ट्रपति मेक्रों ने पुतिन से बात की और अब जर्मनी के चांसलर ओलफ शोल्ज खुद पुतिन से मिलने मास्को गए। इसके पहले वे यूक्रेन की राजधानी कीव जाकर राष्ट्रपति व्लोदीमीर झेलेंस्की से भी मिले। वे एक सच्चे मध्यस्थ की भूमिका निभा रहे थे।
यूक्रेन का माहौल अभी तक कुछ ऐसा बना हुआ है कि वहां क्या होनेवाला है, यह कोई भी निश्चित रुप से नहीं कह सकता। रूसी नेता व्लादिमीर पुतिन ने यह घोषणा तो कर दी है कि वे अपनी कुछ फौजों को यूक्रेन-सीमांत से हटा रहे हैं लेकिन उनकी बात पर कोई विश्वास नहीं कर रहा है। भारत के विदेश मंत्रालय ने यूक्रेन में पढ़ रहे अपने 20 हजार छात्रों को सलाह दी है कि वे कुछ दिनों के लिए भारत चले आएं। उधर ‘नाटो’ के महासचिव जेंस स्टोलनबर्ग ने रूसी फौजों की वापसी को अभी एक बयान भर बताया है।
उन्होंने कहा है कि वे उनकी वापसी होते हुए देखेंगे, तभी पुतिन के बयान पर भरोसा करेंगे। पहले भी रूसी फौजी वापिस गए हैं लेकिन अभी की तरह वे अपने हथियार वहीं छोड़ जाते हैं ताकि दुबारा सीना ठोकने में उन्हें जरा भी देर न लगे। इसी मौके पर यूक्रेन की सरकार ने दावा किया है कि उनके रक्षा मंत्रालय और दो बैंकों पर कल जो साइबर हमला हुआ है, वह रूसियों ने ही करवाया है। पुतिन की घोषणा पर अमेरिका और कुछ नाटो सदस्यों को अभी भी भरोसा नहीं हो रहा है लेकिन रूसी सरकार के प्रवक्ता ने आधिकारिक घोषणा की है कि रूस का इरादा हमला करने का बिल्कुल नहीं है। वह सिर्फ एक बात चाहता है। वह यह कि यूक्रेन को नाटो में शामिल न किया जाए। यह ऐसा मुद्दा है, जिस पर फ्रांस, जर्मनी, रूस और यूक्रेन ने भी 2015 में एक समझौते के द्वारा सहमति जताई थी। रूसी फौजों के आक्रामक तेवरों से यूरोप में हड़कंप मचा हुआ है।
पहले फ्रांस के राष्ट्रपति मेक्रों ने पुतिन से बात की और अब जर्मनी के चांसलर ओलफ शोल्ज खुद पुतिन से मिलने मास्को गए। इसके पहले वे यूक्रेन की राजधानी कीव जाकर राष्ट्रपति व्लोदीमीर झेलेंस्की से भी मिले। वे एक सच्चे मध्यस्थ की भूमिका निभा रहे थे। इसमें उनका राष्ट्रहित निहित है, क्योंकि युद्ध छिड़ गया तो और कुछ हो या न हो, जर्मनी को रूसी तेल और गैस की सप्लाय बंद हो जाएगी। उसकी अर्थव्यवस्था घुटनों के बल बैठ जाएगी। ऐसा लगता है कि शोल्ज की कोशिशों का असर पुतिन पर हुआ जरुर है। शोल्ज ने पुतिन को आश्वस्त किया होगा कि वे यूक्रेन को नाटो में मिलाने से मना करेंगे। यों भी अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन ने पुतिन से चली अपनी बातचीत में भी कहा था कि नाटो की सदस्य-संख्या बढ़ाने का उनका कोई विचार नहीं है। और अमेरिकी सरकार ने यह भी साफ-साफ कहा था कि वह यूक्रेन में दूरमारक प्रक्षेपास्त्र तैनात नहीं करेगा। लंदन में यूक्रेन के राजदूत ने भी कहा है कि यूक्रेन अब नाटो में शामिल होने के इरादे को छोड़नेवाला है।
राष्ट्रपति झेलेंस्की ने भी कहा है नाटो की सदस्यता उनके लिए ‘‘एक सपने की तरह है।’’ यूरोप, अमेरिका और रूस तीनों को पता है कि यदि यूक्रेन को लेकर युद्ध छिड़ गया तो वह द्वितीय महायुद्ध से भी अधिक भयंकर हो सकता है। ऐसी स्थिति में अब यह मामला थोड़ा ठंडा पड़ता दिखाई पड़ रहा है लेकिन रूसी संसद ने अभी एक प्रस्ताव पारित करके कहा है कि यूक्रेन के जिन इलाकों में अलगाव की मांग हो रही है, उन्हें रूस अपने साथ मिला ले। लगता है, रूस, कुल मिलाकर जबर्दस्त दबाव की कूटनीति कर रहा है।
- डॉ. वेदप्रताप वैदिक
(लेखक, भारतीय विदेश नीति परिषद के अध्यक्ष हैं)
चोम्सकी का निर्भीक बुद्धिजीवी के तौर पर मैं काफी सम्मान करता हूं लेकिन यह बयान तो उन्होंने अज्ञानवश ही दे डाला है। उन्हें इस विवाद के बारे में पूरी जानकारी ही नहीं है। पहली बात तो यह है कि मोदी की केंद्र सरकार का इस विवाद से कुछ लेना-देना नहीं है।
अमेरिकी सरकार ने दुनिया के देशों की धार्मिक स्वतंत्रता की देख-रेख के लिए एक व्यापक राजदूत (एंबेसाडर एट लार्ज) नियुक्त किया हुआ है। उसका नाम है- रशद हुसैन। भारतीय मूल के इन राजदूत महोदय ने हिजाब के पक्ष में अपना फतवा जारी कर दिया है। उन्होंने कहा है कि कर्नाटक के स्कूलों में हिजाब पर पाबंदी धार्मिक स्वतंत्रता का उल्लंघन है। यह औरतों और युवतियों के साथ अन्याय है। यही बात अमेरिका की इस्लामी परिषद ने भी कही है। प्रसिद्ध अमेरिकी बुद्धिजीवी नोम चोम्स्की ने उक्त बयानों का समर्थन तो किया ही है, साथ ही यह भी कह दिया है कि मोदी सरकार भारत की धर्म-निरपेक्षता को प्रयत्नपूर्वक खत्म कर रही है और मुसलमानों को ‘प्रताड़ित अल्पसंख्यकों’ में परिणत कर रही है।
चोम्सकी का निर्भीक बुद्धिजीवी के तौर पर मैं काफी सम्मान करता हूं लेकिन यह बयान तो उन्होंने अज्ञानवश ही दे डाला है। उन्हें इस विवाद के बारे में पूरी जानकारी ही नहीं है। पहली बात तो यह है कि मोदी की केंद्र सरकार का इस विवाद से कुछ लेना-देना नहीं है। केंद्र सरकार ने इसके संबंध में कोई आदेश जारी नहीं किया है। दूसरी बात यह है कि यह सामान्य रूप से हिजाब पहनने पर नहीं, स्कूलों में हिजाब पहनने पर बहस है। तीसरी बात यह है कि यह मामला अभी भी अदालत में है। इसीलिए चोम्स्की और हुसैन के भारत-विरोधी बयान उनके पूर्वाग्रह के सूचक हैं। पाकिस्तानी नेताओं के बयानों पर क्या टिप्पणी की जाए?
वैसे भी दुनिया के सिर्फ दो तीन इस्लामी देशों, जैसे अफगानिस्तान और ईरान में ही महिलाओं पर हिजाब पहनने की अनिवार्यता है। सउदी अरब और पाकिस्तान में भी हिजाब अनिवार्य नहीं है जबकि सउदी अरब इस्लाम का जन्म स्थान है और पाकिस्तान दुनिया का ऐसा अकेला देश है, जो इस्लाम के नाम पर बना है। दुनिया के लगभग दर्जन भर देशों- जैसे चीन, श्रीलंका, फ्रांस, स्विटजरलैंड, डेनमार्क, आस्ट्रिया, हालैंड, बेल्जियम आदि में हिजाब पर सिर्फ स्कूलों में ही नहीं, घर के बाहर कहीं भी हिजाब पहनने पर पाबंदी है। कनाडा के प्रांत क्यूबेक में फातिमा अनवरी नामक एक अध्यापिका को सिर्फ इसीलिए नौकरी से निकाल दिया गया कि वह हिजाब लगाकर स्कूल में आती थी। 2019 में क्यूबेक में मुस्लिमों के हिजाब, यहूदियों के किप्पा और सिखों की पगड़ी पर कानूनन प्रतिबंध लगा दिया गया है। यह अध्यापकों, वकीलों, जजों और सरकारी अफसरों पर विशेषतः लागू होगा।
वैसे मैं यह मानता हूं कि यदि कोई महिला हिजाब या बुर्का या नकाब या घूंघट पहनना चाहती है तो उस पर कोई प्रतिबंध नहीं होना चाहिए। इस मामले में तो भारत इतना उदार है कि हजारों नंगे साधुओं के गंगा-स्नान और दिगंबर जैन मुनियों के विचरण पर कोई भी आपत्ति नहीं करता है तो अपना शरीर और मुंह ढकने वाली महिलाओं पर वह एतराज क्यों करेगा? एतराज बस इसी बात पर है कि स्कूल-कालेजों और सरकारी दफ्तरों में इस पोंगापंथी परंपरा को क्यों स्वीकार किया जाए? क्या घूंघटधारी हिंदू महिला अध्यापिकाएं और महिला पुलिस अफसर मजाक का विषय नहीं बन जाएंगी? और अब तो यह मामला बिल्कुल सांप्रदायिक बन गया है। हिजाब वगैरह डेढ़ हजार साल पुरानी अरब देशों की मजबूरी थी। उस समय वह ठीक और जरुरी भी थी। उसका इस्लाम के मूल सिद्धांतों से कुछ लेना-देना नहीं है। प्राचीन अरबों की अंधी नकल करना एक बात है और इस्लाम के क्रांतिकारी सिद्धांतों का मानना दूसरी बात है।
-डॉ. वेदप्रताप वैदिक
भाजपा ने इस बार 2017 की तुलना में बहुत छोटा संकल्प पत्र जारी किया है। भाजपा ने इस बार लोक कल्याण संकल्प पत्र में लिखा है “भाजपा ने कर के दिखाया है, भाजपा फिर करके दिखएगी।” भाजपा का कहना है कि वह जनता से सिर्फ वही वादे करती है जो वह पूर्ण करके दिखा सकती है।
उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनावों में मतदान का अवसर आ गया है, सभी दल जनमानस को लुभाने के लिए अपने-अपने चुनावी घोषणापत्रों को जारी कर रहे हैं। भारतीय जनता पार्टी ने जहां संकल्प पत्र जारी किया है वहीं समाजवादी पार्टी ने वचनपत्र जारी कर कई लोकलुभावन वादे किये हैं। बहुजन समाजवादी पार्टी ने इस बार अपना घोषणापत्र जारी नहीं करने की चतुराई की हैं लेकिन अभी तक उसे इसका कोई लाभ होता हुआ तो नहीं दिखाई पड़ रहा है।
भारतीय जनता पार्टी ने इस बार पहले अपनी सरकार का पांच साल का रिपोर्ट कार्ड जारी किया और अब संकल्प पत्र के सहारे मनोवैज्ञानिक ढंग से विकास और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के मुददों को आगे बढ़ाने का प्रयास किया है। प्रदेश का मतदाता किसका घोषणपत्र अधिक पसंद करता है यह तो आगामी दस मार्च को ही पता चलेगा लेकिन यहां पर यह भी देखना होगा कि अभी तक जितने चुनावी सर्वे आ रहे हैं उनमें कांटे के मुकाबले के साथ भारतीय जनता पार्टी को ही नंबर वन बताया जा रहा है।
भाजपा ने इस बार 2017 की तुलना में बहुत छोटा संकल्प पत्र जारी किया है। भाजपा ने इस बार लोक कल्याण संकल्प पत्र में लिखा है “भाजपा ने कर के दिखाया है, भाजपा फिर करके दिखएगी।” भाजपा का कहना है कि वह जनता से सिर्फ वही वादे करती है जो वह पूर्ण करके दिखा सकती है।
भाजपा ने अपने संकल्प पत्र में किसान, युवा, सुशासन, सशक्त नारी, स्वस्थ प्रदेश, अर्थव्यवस्था एवं आधारभूत संरचना के साथ सांस्कृतिक, धार्मिक व आध्यात्मिक केंद्रों के विकास के साथ ही सबका साथ सबका विकास के नारे को आगे बढ़ाया है।
भाजपा ने गृहमंत्री अमित शाह और मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की उपस्थिति में 130 संकल्पों का लोक कल्याण संकल्प पत्र जारी किया है। भारतीय जनता पार्टी ने हर बेघर को घर, हर परिवार को रोजगार-स्वरोजगार सहित हर व्यक्ति की प्रति व्यक्ति आय को दोगुनी करने का बड़ा वादा किया है। भाजपा ने विरासत से विकास तक सभी सरोकार को साधने का प्रयास किया है। सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के प्रतीकों के माध्यम के सहारे भाजपा ने पिछड़े और दलित वोट बैंक को भी साधने का प्रयास किया है। भाजपा ने अपने संकल्प पत्र के माध्यम से समाज के हर वर्ग को साधने का प्रयास किया है।
भाजपा ने दलित वोट बैक को साधने के लिए महर्षि वाल्मीकि का चित्रकूट, बनारस में संत रविदास और डा. भीमराव अंबेडकर की स्मृति में सांस्कृतिक केंद्र स्थापना की घोषणा की है। पासी समाज के लिए लखनऊ स्थित महाराजा बिजली पासी किले में लाइट एंड साउंड शो की सुविधा शुरू करने की घोषणा की है। निषाद वोट बैंक पर मजबूत पकड़ बनाने के लिए निषाद राज गुह का श्रृंग्वेरपुर में सांस्कृतिक केंद्र बनाने के साथ संतों व ब्राहमण समाज के कल्याण के लिए विशेष बोर्ड बनाने का भी संकल्प लिया गया है। पूर्व मुख्यमंत्री कल्याण सिंह के नाम पर ग्राम उन्नत योजना शुरू करने की घोषणा की गयी है। क्षेत्रीय भाषाओं के विकास पर भी बल दिया गया है और सूरदास ब्रजभाषा अकादमी, गोस्वामी तुलसीदास अवधि अकादमी और बुंदेलखंड के लिए केशवदास बुंदेली अकादमी की स्थापना करने का संकल्प भी लिया गया है। पूर्वांचल में संत कबीरदास भोजपुरी अकादमी की घोषणा की गयी है।
अयोध्या में सुप्रीम कोर्ट के ऐतिहासिक फैसले के बाद अयोध्या में भव्य राम मंदिर का निर्माण अबाध गति से चल रहा है और अब इसी विकास की कड़ी में अयोध्या में भगवान राम से संबंधित संस्कृति शास्त्रों और धार्मिक तथ्यों पर शोध के लिए रामायण विश्व विद्यालय की स्थापना और 2025 में दिव्य कुंभ कराने का संकल्प लिया गया है।
भाजपा ने अपने संकल्प पत्र में दलित पिछडा गरीब मजदूर और बुजुर्ग सभी के कल्याण का संकल्प लिया है। इसके अलावा दिव्यांगों, बुजुर्ग व विधवा महिलाओं की पेंशन 1500 रूपये करने और सरकारी बसों में 60 साल से ऊपर की बुजुर्ग की महिलाओं को निःशुल्क बस यात्रा कराने का भी संकल्प लिया है।
भाजपा को इस बार पश्चिमी उत्तर प्रदेश में किसानों की नाराजगी के कारण भारी दबाव झेलना पड़ रहा है। किसानों की नाराजगी को कम करने के लिए भाजपा ने सभी किसानों को सिंचाई के लिए मुफ्त बिजली देने का बहुत बड़ा वादा किया है।
देश में आज़ादी का अमृत महोत्सव मनाया जा रहा है जिसके कारण संकल्प पत्र में देश भक्तों को भी सम्मान देने का संदेश दिया गया है। गीत संगीत के क्षेत्र में कलाकारों को लुभाने के लिए दिवंगत स्वर कोकिला लता मंगेशकर की याद में अकादमी बनायी जायेगी।
विधानसभा चुनावों में कांग्रेस ने महिलाओं व छात्राओं को लुभाने के लिए पहली बार उनके लिए अलग से घोषणापत्र जारी किया है और सपा ने भी छात्राओं से काफी लोक लुभावन वादे किये हैं जिसकी काट खोजकर भाजपा ने भी मेधावी छात्राओं को स्कूटी देने और युवतियों को सुरक्षा प्रदान करने के लिए लव जिहाद पर कम से कम दस वर्ष की सजा का प्रावधान करने की घोषणा की है। मुख्यमंत्री कन्या सुंमगलम योजना में वित्तीय सहायता 15 हजार से बढ़ाकर 25 हजार करने का संकल्प लिया गया है। सामूहिक विवाह अनुदान योजना में एक लाख रूपये तक की वित्तीय सहायता साथ ही प्रधानमंत्री उज्ज्वला योजना के अंतर्गत सभी लाभार्थियों को होली व दीपावली पर दो फ्री सिलेंडर देने का वादा किया गया है। महिलाओं को अपनी ओर आकर्षित करने के लिए भाजपा ने अपने संकल्प पत्र में लोक सेवा आयोग समेत सभी सरकारी भर्तियों में महिलाओं के पदों को दोगुना करने का संकल्प लिया है।
भाजपा ने अपने संकल्प पत्र में लखनऊ और नोएडा में डिजिटल अध्ययन अकादमी बनाने, कानपुर में मेगा लेदर पार्क बनाने सहित भी कई बड़े वादे किये गये हैं।
भारतीय जनता पार्टी की सरकार ने प्रदेश में आतंकी व जेहादी गतिविधियों पर लगाम लगाने के लिए देवबंद में सेंटर बनाया अब उसी तर्ज पर मेरठ, रामपुर, आजमगढ, कानपुर और बहराइच में भी सेंटर बनाने का ऐतिहासिक कदम उठाया है और प्रदेश की जनता को जहां सुरक्षा के प्रति भरोसा जगाने का काम किया है वहीं आंतकवाद व आतंकवाद के समर्थक तत्वों को भी एक बहुत बड़ा और कड़ा संदेश दे दिया है कि प्रदेश में चल रही किसी भी प्रकार की आतंकी व देशद्रोही गतिविधियों से बेहद कड़ाई से निपटा जायेगा।
यह बात बिलकुल सही है कि प्रदेश की योगी सरकार ने विगत पांच वर्षो में गुंडे माफिया और अपराधियों तथा देशद्रोही गतिविधियों में लगे असमाजिक तत्वों व संगठनां के खिलाफ कड़ी कार्यवाही की गयी है। प्रदेश व देश की जनता ने देखा कि किस प्रकार से योगी सरकार में मुख्तार अंसारी जैसे कुख्यात डान के खिलाफ कार्यवाही की गयी है। योगी सरकार में आज प्रदेश अपराधमुक्त है और जो छुटपुट अपराध घटित हो रहे हैं वह अधिकतर सुनियोजित साजिशके तहत प्रायोजित हो रहे हैं।
यह बात बिल्कुल सही है कि आज प्रदेश में युवतियां आराम से घर से बाहर निकल रही हैं अपने कार्यालय व स्कूल कालेज जा रही हैं। प्रदेश का जनमानस यदि भाजपा के संकल्प पत्र को स्वीकार करता है और योगी सरकार दोबारा आती है तो प्रदेश देश का नंबर वन राज्य बन जायेगा इसमें कोई संदेह नही होना चाहिए।
प्रदेश में भाजपा सरकार बनने के बाद एक बार फिर से एक जिला- एक उत्पाद और एक जिला एक पर्यटन केंद्र जैसी योजनाओं का विकास होगा जिससे रोजगार को बढ़ावा मिलेगा और प्रदेश में धार्मिक सांस्कृतिक पर्यटन केंद्रों का विकास होने के साथ वहां पर सामाजिक व सांस्कृतिक गतिविधियां भी बढ़ जायेंगी। पर्यटन गतिविधियां बढ़ने से युवाओं को रोजगार के नये अवसर भी प्राप्त होंगे। योगी सरकार के पहले कार्यकाल से ही अयोध्या, मथुरा व काशी का विकास हो रहा है। अयोध्या में भव्य दीपोत्सव का आयोजन से लेकर मथुरा में दिव्य होली के आयोजन से इन क्षेत्र का विकास हो रहा है। योगी सरकार दोबारा आने के बाद प्रदेश में सांस्कृतिक राष्ट्रवाद और अधिक फले फूलेगा। प्रदेश में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने पांच वर्षो में यूपी के भविष्य की नींव रखी है और अब आने वाले समय में उस यात्रा को पूर्ण करने का अवसर है।
प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का कहना है कि प्रदेश की 25 करोड़ जनता के जीवन में परिवर्तन के लिए लोक कल्याण संकल्प पत्र लाये हैं। जो कहा करके दिखाया अब जो कह रहे हैं वह भी करके दिखाएंगे।
- मृत्युंजय दीक्षित
अपने जीवन में सफ़लता की अनेक सीढियां चढ़ने के बाद पंडित जी ने स्वयं को पूर्ण रूप से देश के प्रति अर्पित कर दिया। 21 अक्टूबर सन् 1951 में डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने भारतीय जनसंघ की स्थापना की तो 1951 से 1967 तक वे भारतीय जनसंघ के महामंत्री रहे।
अपने उच्च विचारों, आदर्शों और त्याग के कारण भारत के लोगों के हृदय में स्थान बनाने वाले और एकात्म मानववाद जैसी विचारधारा और राष्ट्रवादी चिंतन देनेवाले, राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ व राष्ट्रीय जनसंघ के संस्थापकों में शामिल पंडित दीनदयाल उपाध्याय सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के प्रणेता भारत के सबसे तेजस्वी एवं यशस्वी चिंतकों में से एक रहे हैं।
25 सितम्बर सन् 1916 को चंद्रभान, फ़राह, जिला मथुरा, उत्तर प्रदेश में जन्म लेने वाले पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी एक मध्यम वर्गीय परिवार से थे। जब दीनदयाल उपाध्याय की आयु महज़ ढ़ाई साल की थी, तब वे पितृविहीन हो गए, पिता की मृत्यु के बाद इनकी मां बीमार रहने लगी और 8 अगस्त 1924, पंडित जी के जीवन का सबसे दुखद दिन रहा। इसी दिन मां भी इन्हें छोड़कर चल बसी। महज सात साल की उम्र में दीनदयाल उपाध्याय माता-पिता के प्यार से वंचित हो गए। इसके बाद उनका पालन-पोषण उनके नाना के यहां होने लगा, 10 वर्ष की आयु में उनके नानाजी का भी देहांत हो गया। इसके बाद उनके मामा ने इनका पालन-पोषण शुरू कर दिया। छोटी सी उम्र में ही दीनदयाल उपाध्याय पर ख़ुद की देखभाल के साथ अपने छोटे भाई को सम्भालने की जिम्मेदारी आ गयी। कोई मनुष्य इन विपदाओं के आगे घुटने टेक देता,लेकिन उन्होंने दुखों का पहाड़ टूटने के बावजूद हार नहीं मानी और सकारात्मकता के साथ आगे बढ़ते रहे। शिक्षा प्राप्त करने के लिए पंडितजी ने सीकर, राजस्थान के विद्यालय में दाखिला लिया, जहां माध्यमिक परीक्षा में उन्होंने सर्वोच्च स्थान प्राप्त किया। दीनदयाल जी बचपन से ही बुद्धिमान और मेहनती थे। इन्होनें अपनी इंटर की शिक्षा बिरला कॉलेज, पिलानी से की तो वहीं सनातन धर्म कॉलेज, कानपुर से 1939 में स्नातक की परीक्षा प्रथम श्रेणी से उत्तीर्ण की। अपनी पढ़ाई को आगे जारी रखने के लिए सेंट जॉन्स कॉलेज, आगरा में दाखिला लिया और वहां से वे अंग्रेजी साहित्य में एम.ए. की पढाई करने लगे। उन्होंने प्रथम वर्ष की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की, किन्तु ममेरी बहन के अचानक बीमार पड़ जाने के कारण वे उनकी सेवा में व्यस्त हो गये और पढाई अधूरी छोड़नी पड़ी। 1937 में कानपुर में अपनी बी.ए. की पढ़ाई के दौरान वे अपने सहपाठी बालूजी महाशब्दे और सुंदर सिंह भंडारी के साथ मिलकर समाज सेवा करने लगे। इन्ही दिनों वे राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के संस्थापक डॉ. हेडगेवार जी व भाऊराव देवरस जी से संपर्क में आए। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की विचारधारा से प्रभावित होकर संघ से जुड़ गए। संघ की शिक्षा का प्रशिक्षण प्राप्त करने के लिए वे 1939 में संघ के 40 दिवसीय नागपुर शिविर का हिस्सा बने। अपने मामा के कहने पर पंडित जी प्रशासनिक परीक्षा में बैठे, उत्तीर्ण हुए, साक्षात्कार में भी चुन लिए गए, लेकिन नौकरी में रूचि नहीं होने के कारण एल.टी. की पढाई करने प्रयाग चले गए। सन 1942 में उन्होंने एल.टी. परीक्षा भी प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण कर ली, यह उनके विद्यार्थी जीवन का आखिरी सोपान था। इसके बाद उन्होंने न विवाह किया और ना ही धनोपार्जन का कोई कार्य किया, बल्कि अपना सम्पूर्ण जीवन राष्ट्र निर्माण और सार्वजनिक सेवा में लगा दिया।
भाऊराव देवरस से प्रेरणा पाकर सन 1947 में पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी ने लखनऊ में “राष्ट्रधर्म प्रकाशन” स्थापित किया, जिसके अंतर्गत मासिक पत्रिका “राष्ट्रधर्म” प्रकाशित एवं प्रसारित की जाने लगी। बाद में “ पांचजन्य” साप्ताहिक और दैनिक समाचार पत्र “स्वदेश” का भी प्रकाशन यहां से हुआ। पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी एक अच्छे साहित्यकार व लेखक भी थे। 1946 में जब संघ से जुड़े किशोरों तक अपनी विचारधारा सरल शब्दों में पहुंचाने की बात आयी तो पंडित जी ने बिना किसी से कुछ कहे रातभर जागकर चाणक्य और सम्राट चन्द्रगुप्त को केंद्र में रखकर “सम्राट चन्द्रगुप्त” नाम से एक उपन्यास लिख डाला। अगली सुबह जब उन्होंने यह पुस्तक भाऊराव जी को दी तो सभी आश्चर्यचकित थे। इस उपन्यास की सफलता के बाद युवाओं के लिए भी कुछ ऐसे ही लेखन की मांग उठी। तब उन्होंने “जगद्गुरु शंकराचार्य” नाम से अपना दूसरा उपन्यास लिखा।
अपने जीवन में सफ़लता की अनेक सीढियां चढ़ने के बाद पंडित जी ने स्वयं को पूर्ण रूप से देश के प्रति अर्पित कर दिया। 21 अक्टूबर सन् 1951 में डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने भारतीय जनसंघ की स्थापना की तो 1951 से 1967 तक वे भारतीय जनसंघ के महामंत्री रहे। 29 दिसम्बर 1967 को उन्हें पार्टी का अध्यक्ष चुन लिया गया। विडम्बना ही कही जायेगी कि पंडित जी सिर्फ 44 दिनों तक ही बतौर अध्यक्ष कार्य कर पाए। 1952 में कानपुर में हुए पार्टी के पहले अधिवेशन में पंडितजी को महामंत्री निर्वाचित किया गया। यहीं से अखिल भारतीय स्तर पर राजनीतिक यात्रा प्रारंभ हुई। पंडित जी ने प्रथम अधिवेशन में ही अपनी वैचारिक क्षमता का परिचय देते हुए सात प्रस्ताव प्रस्तुत किये और सभी को पारित कर दिया गया। उनकी कार्यक्षमता, परिश्रम और परिपूर्णता के गुणों से प्रभावित होकर डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने कहा था- यदि मुझे ऐसे दो दीनदयाल मिल जाएं तो मैं देश का राजनीतिक मानचित्र बदल दूंगा। डॉ. साहब की यही बातें पंडित जी का हौंसला और भी बढ़ाती गई। पंडितजी राष्ट्रनिर्माण व जनसेवा में इतने लीन थे कि उनका कोई व्यक्तिगत जीवन ही नहीं रहा, बांकी का जीवन संघ और जनसंघ को मजबूत बनाने और इन संगठनो के माध्यम से राष्ट्र की सेवा करने में अर्पित कर दिया। दीनदयाल उपाध्याय जी के विचार उन्हें औरों से बिल्कुल अलग साबित करते हैं। उनकी अवधारणा और चिंता का विषय था कि लम्बे समय तक की गुलामी के पश्चात कहीं पश्चिमी विचारधारा भारतीय संस्कृति पर हावी न हो जाए। भारत एक लोकतांत्रिक देश बन चुका था, परन्तु पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी के मन में भारत के विकास को लेकर चिंता थी। वे मानते थे कि लोकतंत्र भारतीयों का जन्मसिद्ध अधिकार है न कि अंग्रेज़ो का एक उपहार। उनका मकसद था कि कर्मचारियों और मज़दूरों को सरकार की शिकायतों के समाधान पर ध्यान देना चाहिए और प्रशासन का कर्तव्य होना चाहिए कि वे राष्ट्र के प्रत्येक व्यक्ति का सम्मान करे। दीनदयाल उपाध्याय जनसंघ के राष्ट्रजीवन दर्शन के निर्माता माने जाते हैं। उनका उद्देश्य स्वतंत्रता की पुनर्रचना के प्रयासों के लिए विशुद्ध भारतीय तत्वदृष्टि प्रदान करना था। उन्होंने भारत की सनातन विचारधारा को युगानुकूल रूप में प्रस्तुत करते हुए एकात्म मानववाद की विचारधारा दी। उन्हें जनसंघ की आर्थिक नीति का रचनाकार माना जाता है। उनका विचार था कि आर्थिक विकास का मुख्य उद्देश्य सामान्य मानव का सुख है। उनके अनुसार लोकतंत्र अपनी सीमाओं से परे नहीं जाना चाहिए और जनता की राय, उनके विश्वास और धर्म के आलोक में सुनिश्चित करना चाहिए, यही देश की उन्नति और प्रगति के लिए श्रेष्ठ होगा।
भारत में रहने वाला और इसके प्रति ममत्व की भावना रखने वाला मानव समूह एक जन हैं। उनकी जीवन प्रणाली, कला, साहित्य, दर्शन सब भारतीय संस्कृति है। इसलिए भारतीय राष्ट्रवाद का आधार यह संस्कृति है। इस संस्कृति में निष्ठा रहे तभी भारत एकात्म रहेगा। “वसुधैव कुटुम्बकम्” भारतीय सभ्यता से प्रचलित है। इसीके अनुसार भारत में सभी धर्मों को समान अधिकार प्राप्त हैं। संस्कृति से किसी व्यक्ति, वर्ग, राष्ट्र आदि की वे बातें, जो उसके मन, रुचि, आचार, विचार, कला-कौशल और सभ्यता की सूचक होती हैं, पर विचार होता है। दीनदयाल जी ने एकात्म मानववाद के आधार पर एक ऐसे राष्ट्र की कल्पना की, जिसमे विभिन्न राज्यों की संस्कृतियां विकसित हों और एक ऐसा मानव धर्म उत्पन्न हो जिसमे सभी धर्मों का समावेश हो, जिसमें व्यक्ति को सामान अवसर और स्वतंत्रता प्राप्त हो जो एक सुदृढ़, सम्पन्न एवं जागरूक राष्ट्र कहलाए। हमारी सम्पूर्ण व्यवस्था का केंद्र ‘मानव’ होना चाहिए। भौतिक चीजें मानव के सुख के साधन हैं, साध्य नहीं। पंडित जी का मानना था कि व्यक्ति का अर्थ सिर्फ उसका शरीर नहीं है, बल्कि उसका मन, बुद्धि, और आत्मा भी है। यदि इन चारों में से किसी एक की भी उपेक्षा की जाए तो व्यक्ति का सुख विकलांग हो जाएगा।
11 फ़रवरी 1968 को पंडित जी इस संसार को छोड़ गये। इस महान नेता, पत्रकार, सहित्यकार, अर्थशास्त्री, चिंतक और विचारक का निधन सभी को अचंभित कर दिया था। उनके विचार आज भी देश को प्रगति के मार्ग पर ले जा रहे हैं और यह उनकी ही देन है कि देश में लोकतंत्र का मतलब सबके लिए एक समान है। वर्तमान में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और गृहमंत्री श्री अमित शाह जी उनके चिंतन को साकार कर रहे हैं। श्रद्धेय अटल बिहारी वाजपेयी और नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में सरकार बनने पर एकात्ममानववाद और अन्त्योदय को मूर्त रूप दिया गया। परमब्रह्म में विलीन होने के बाद भी पंडितजी अपनी लेखनी, ज्ञान, शिक्षा और उच्च विचारों से आज भी हमारे बीच जीवंत हैं। ऐसे महान व्यक्तित्व को हम शत् शत् नमन करते हैं। पुण्यतिथि पर प्रेरणापुरुष पं. दीनदयाल उपाध्याय जी को विनम्र श्रद्धांजलि।
- डॉ. राकेश मिश्र,
कार्यकारी सचिव, पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष, भारतीय जनता पार्टी
खास बात यह कि कल्याणकारी अर्थशास्त्र पर अपने काम के लिए अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जाने और पहचाने जाने वाले, अमर्त्य सेन, जो 1970 के दशक से भारत, अमेरिका और यूके में काम कर रहे हैं, को 1998 में आर्थिक विज्ञान में नोबेल पुरस्कार मिला।
आजादी से लेकर आजतक की भारतीय अर्थव्यवस्था के सफर पर जब हमलोग सूक्ष्म दृष्टि डालते हैं तो पता चलता है कि तेजी से औद्योगीकरण की खोज ने, कृषि क्षेत्र से धन का एक बड़ा पुनर्वितरण किया था। वैसे तो दूसरी पंचवर्षीय योजना में कृषि परिव्यय को लगभग आधा करके 14 प्रतिशत कर दिया गया था। इसका असर उत्पादन पर पड़ा।लिहाजा देश में खाने की किल्लत और बढ़ गई, साथ ही महंगाई भी बढ़ गई।
वहीं, खाद्यान्नों के आयात ने बहुमूल्य विदेशी मुद्रा भंडार को समाप्त कर दिया। चक्रवर्ती "राजाजी" राजगोपालाचारी, जो कभी नेहरू के मित्र-आलोचक थे, आर्थिक स्वतंत्रता के कट्टर समर्थक थे। इसलिए अर्थव्यवस्था में राज्य की अत्यधिक भागीदारी के सवाल पर उनका प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू से मतभेद हो गया। यद्यपि 27 मई 1964 को, नेहरू की मृत्यु हो गई। लेकिन, तब और बाद के वर्षों में की गई आलोचनाओं के बावजूद, उन्होंने एक आधुनिकतावादी के रूप में अपनी विरासत को मजबूत किया था।
परिवर्तित समय के साथ एक दौर ऐसा भी आया जब नेहरू के मंत्रिमंडल में बिना पोर्टफोलियो के मंत्री लाल बहादुर शास्त्री 9 जून 1964 को एक भारतीय प्रधानमंत्री के रूप में सफल हुए। यह वह दौर था जब चीन के साथ दो वर्ष पहले यानी सन 1962 में हुए भारत-चीन युद्ध ने भारत की आर्थिक कमजोरी को अनवरत रूप से उजागर कर दिया था। लिहाजा लगातार भोजन की कमी और कीमतों में वृद्धि ने तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री को आश्वस्त किया कि भारत को केंद्रीकृत योजना और मूल्य नियंत्रण से दूर जाने की जरूरत है।
यही वजह है कि पीएम शास्त्री ने कृषि पर नए सिरे से ध्यान केंद्रित किया, निजी उद्यम और विदेशी निवेश के लिए एक बड़ी भूमिका स्वीकार की, और तत्कालीन योजना आयोग की भूमिका को कम कर दिया। 1965 के युद्ध में पाकिस्तान पर भारत की जीत ने उन्हें 25 साल बाद हुए आर्थिक सुधारों पर विचार करने के लिए प्रोत्साहित किया।या यूं कहिये कि राजनीतिक राजधानी दी। जैसा कि पी.एन. धर ने इंदिरा गांधी, द 'इमरजेंसी' एंड इंडियन डेमोक्रेसी में लिखा है।
दरअसल, खाद्य सुरक्षा पर शास्त्री का ध्यान इस तथ्य से आकर्षित हुआ कि 1960 के दशक में, भारत बड़े पैमाने पर अकाल के कगार पर था। वहीं, अमेरिका से खाद्य सहायता आयात, जिस पर देश निर्भर था, भारत की विदेश नीति की स्वायत्तता को गहरे से प्रभावित करने लगा था। यही वजह है कि उन्होंने भारतीय वैज्ञानिकों और अधिकारियों को कुछ बेहतर करने को प्रोत्साहित किया। यह वह दौर था जब आनुवंशिकीविद् एम.एस. स्वामीनाथन, नॉर्मन बोरलॉग और अन्य वैज्ञानिकों के साथ, गेहूं के उच्च उपज वाले किस्म के बीजों के साथ कदम रखा, जिसे हरित क्रांति के रूप में जाना जाने लगा। स्वामीनाथन अब भारत को सतत विकास की ओर ले जाने के पक्षधर हैं। वह पर्यावरण की दृष्टि से स्थायी कृषि, स्थायी खाद्य सुरक्षा और जैव विविधता के संरक्षण का समर्थन करते हैं। वह इसे "सदाबहार क्रांति" कहते हैं।
वहीं, हरित क्रांति की सफलता के बाद, शास्त्री ने अपना ध्यान डेयरी क्षेत्र, विशेष रूप से गुजरात के आणंद में वर्गीज कुरियन के नेतृत्व में सहकारी आंदोलन की ओर लगाया। उन्होंने कैरा डिस्ट्रिक्ट को-ऑपरेटिव मिल्क प्रोड्यूसर्स यूनियन लिमिटेड को श्वेत क्रांति की शुरुआत करते हुए अपने काम का विस्तार करने में मदद की। इसके बाद के वर्षों में, सरकार के ऑपरेशन फ्लड ने दूध उत्पादन में तेजी से वृद्धि की। वाकई डेयरी क्षेत्र में आत्मनिर्भरता पूरी तरह से सहकारी आंदोलन के माध्यम से हासिल की गई थी, जो पूरे देश में 1.2 करोड़ से अधिक डेयरी किसानों तक फैल गई है। यही वजह है कि दशकों बाद, आणंद में सहकारी किसानों द्वारा शुरू किया गया ब्रांड अमूल बाजार में अग्रणी दुग्ध उत्पाद के रूप में बना हुआ है।
एक वह भी दौर आया जब भारत ने पंचवर्षीय योजनाओं को संक्षिप्त रूप से निलंबित कर दिया, और इसके बजाय 1966 और 1969 के बीच वार्षिक योजनाएँ तैयार की गईं। ऐसा इसलिए किया गया, क्योंकि देश लंबी अवधि में संसाधन देने की स्थिति में नहीं था। चीन के साथ युद्ध, तीसरी योजना के निचले स्तर के विकास के परिणाम, और पाकिस्तान के साथ युद्ध को वित्तपोषित करने के लिए पूंजी के विचलन ने अर्थव्यवस्था को गंभीर रूप से कमजोर कर दिया था। वहीं, 1966-67 के मौसम में महत्वपूर्ण मानसूनी बारिश ने एक बार फिर अपना प्रभाव खो दिया था, जिससे भोजन की कमी और बढ़ गई थी और मुद्रास्फीति में तेज वृद्धि हुई थी। लिहाजा खाद्यान्न आयात करने या विदेशी सहायता लेने की निरंतर आवश्यकता ने भी भारत की राजनीतिक अर्थव्यवस्था के लिए एक गंभीर जोखिम उत्पन्न कर दिया। फलतः 1960 और 1970 के दशक में, इंदिरा गांधी ने अपने समाजवादी आदर्शों के भीतर रहते हुए ही आर्थिक विकास को गति देने के प्रयास में कई नीतियों का संचालन किया।
सच कहा जाए तो 1960 का दशक भारत के लिए कई आर्थिक और राजनीतिक चुनौतियों का दशक था। क्योंकि महज 3 वर्ष के अंतराल पर हुए दो-दो युद्धों- भारत-चीन युद्ध 1962 और भारत-पाक युद्ध 1965 ने जनता के लिए काफी कठिनाइयाँ पैदा की थीं। नेहरू और शास्त्री की त्वरित उत्तराधिकार में मृत्यु ने राजनीतिक अस्थिरता पैदा कर दी थी और कांग्रेस के भीतर भी सत्ता के लिए जॉकींग शुरू कर दी थी।वहीं, तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के द्वारा किये गए रुपये के अवमूल्यन के कारण सामान्य मूल्य वृद्धि हुई थी। परिणाम यह हुआ कि 1967 के आम चुनावों के बाद कांग्रेस एक छोटे से बहुमत के साथ सत्ता में लौटी और पार्टी ने सात राज्यों में सत्ता खो दी। जवाब में, श्रीमती गांधी ने 20 जुलाई 1969 को 14 निजी बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया। इस कदम का मुख्य उद्देश्य कृषि के लिए बैंक ऋण में तेजी लाना था। क्योंकि तब बड़े व्यवसायों ने ऋण प्रवाह के बड़े हिस्से पर कब्जा कर लिया था। इसलिए उन्होंने कृषक और उनपर आश्रित वर्ग के हित साधन के लिए उक्त कदम उठाए।
समझा जाता है कि बैंकिंग क्षेत्र को समाजवाद के लक्ष्यों के साथ जोड़ने के उद्देश्य से इंदिरा गांधी के कठोर कदम ने उन्हें जनता का प्रिय बना दिया था। क्योंकि बैंक राष्ट्रीयकरण ने कृषि ऋण को बढ़ावा देने और अन्य प्राथमिकता वाले क्षेत्रों को ऋण देने में मदद की। वहीं, ग्रामीण क्षेत्रों में शाखाएं खोलने के लिए बैंकों द्वारा किए गए पहल से वित्तीय बचत में उछाल आया। हालांकि प्रतिस्पर्धा के बिना ही ऋणदाता आत्मसंतुष्ट हो गए। इसके अलावा, राजनीतिक रूप से प्रभावित उधार निर्णयों ने क्रोनी कैपिटलिज्म को जन्म दिया। क्योंकि इन बैंकों ने परियोजना मूल्यांकन पर ध्यान केंद्रित करने के बजाय अपने राजनीतिक आकाओं को खुश करने के लिए प्रतिस्पर्धा की। यही वजह है कि आज, राज्य के स्वामित्व वाले बैंक लगभग ₹10-ट्रिलियन के बुरे ऋणों के पहाड़ के नीचे चरमरा रहे हैं, जो कुल ड्यूड ऋणों का लगभग 90 प्रतिशत है। बताया जाता है कि बैंकिंग अर्थव्यवस्था में किये गए इस तरह के राजनीतिक हस्तक्षेप की कीमत उन्हें और देश दोनों को चुकानी पड़ी बाद के वर्षों में।
इतिहास साक्षी है कि 6 जून 1966 को, इंदिरा गांधी ने भारतीय रुपये का 57 प्रतिशत तेजी से अवमूल्यन करने का कठोर कदम उठाया। रुपया 4.76 से गिरकर 7.50 प्रति अमेरिकी डॉलर पर आ गया। यह भारत के महत्वपूर्ण भुगतान संतुलन संकट का मुकाबला करने के लिए किया गया एक महत्वपूर्ण बदलाव था। क्योंकि उस दौर में विदेशी निवेश के प्रति देश की उदासीनता और निर्यात क्षेत्र की उपेक्षा का मतलब था कि यह देश लगातार व्यापार घाटे में चल रहा था। जबकि रुपये के अवमूल्यन का उद्देश्य विदेशी मुद्रा तक सीमित पहुंच के बीच निर्यात को बढ़ावा देना है। इसके बजाय, इसने मुद्रास्फीति को गति दी, जिसकी व्यापक आलोचना भी हुई। करने वाले जानकारों ने भी की। वहीं, भारत के इस कदम का असर दूसरे देशों पर भी पड़ा। ओमान, कतर और संयुक्त अरब अमीरात, जो भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा जारी खाड़ी रुपये का इस्तेमाल करते थे, को अपनी मुद्राओं के साथ आना पड़ा।
यही वजह है कि उनकी कई अप्रासंगिक नीतियों से क्रोधित भारतीयों ने इंदिरा गांधी को आपातकाल लगाने के लिए दंडित किया। वहीं, 1977 के चुनाव के बाद जनता पार्टी सत्ता में आई। प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई ने अवैध संपत्ति पर कार्रवाई में ₹1,000, ₹5,000 और ₹10,000 के नोटों की कानूनी-निविदा स्थिति वापस ले ली। हड़तालों के वैधीकरण, गांधी द्वारा गैरकानूनी घोषित और ट्रेड यूनियनों की बहाली ने आर्थिक गतिविधियों को प्रभावित किया। आपातकाल के दौरान प्रतिरोध के प्रतीक बन चुके जॉर्ज फर्नांडिस को उद्योग मंत्री बनाया गया था। उन्होंने जोर देकर कहा कि आईबीएम और कोका-कोला विदेशी मुद्रा विनियमन अधिनियम का अनुपालन करते हैं, जबकि अनिवार्य है कि विदेशी निवेशक भारतीय उद्यमों में 40 प्रतिशत से अधिक का स्वामित्व नहीं रख सकते। इसलिए दोनों बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने भारत में अपना परिचालन बंद कर दिया।
वहीं, अंतर्निहित अंतर्विरोधों से ग्रसित सन 1977 की जनता पार्टी की सरकार को 1980 में निबटाकर इंदिरा गांधी फिर सत्ता में लौटीं। इस बार उनमें एक बड़ा बदलाव दिखाई दिया। सन 1970 के दशक तक वामपंथी झुकाव वाली लोकलुभावन श्रीमती गांधी ने अबकी बार अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष ऋण को सुरक्षित करने के लिए बड़े-टिकट वाले आर्थिक सुधारों की शुरुआत की। उन्होंने छठी पंचवर्षीय योजना (1980-85) में संक्षेप में ही सही पर अर्थव्यवस्था की प्रतिस्पर्धात्मकता को बढ़ाने के उद्देश्य से उपायों की एक श्रृंखला शुरू करने का संकल्प लिया। इसका मतलब था- मूल्य नियंत्रण को हटाना, राजकोषीय सुधारों की शुरुआत, सार्वजनिक क्षेत्र में सुधार, आयात शुल्क में कमी, और घरेलू उद्योग का लाइसेंस रद्द करना, या दूसरे शब्दों में कहें तो लाइसेंस राज को समाप्त करना।
खास बात यह कि कल्याणकारी अर्थशास्त्र पर अपने काम के लिए अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जाने और पहचाने जाने वाले, अमर्त्य सेन, जो 1970 के दशक से भारत, अमेरिका और यूके में काम कर रहे हैं, को 1998 में आर्थिक विज्ञान में नोबेल पुरस्कार मिला। वह लंबे समय से भारत के विकास के उस मॉडल के आलोचक रहे हैं जो पिरामिड के निचले हिस्से की जरूरतों को नजरअंदाज करता है। अब हार्वर्ड में एक प्रोफेसर, जिनकी लोकप्रिय पुस्तकों जैसे द आर्गुमेंटेटिव इंडियन ने अर्थशास्त्र को आम पाठक के लिए सुलभ बना दिया। उन्होंने साबित किया कि सकल राष्ट्रीय उत्पाद जीवन स्तर का आकलन करने के लिए पर्याप्त नहीं था, एक ऐसी खोज जिसके कारण संयुक्त राष्ट्र मानव विकास सूचकांक का निर्माण हुआ, जो अब देशों के कल्याण की तुलना करने का सबसे आधिकारिक स्रोत है।
भारतीय अर्थव्यवस्था में एक और सकारात्मक मोड़ तब दिखाई दिया, जब राजीव गांधी, प्रशिक्षण और पेशे से एक पायलट, ने अक्टूबर 1984 में अपनी मां इंदिरा गांधी की हत्या के बाद प्रधानमंत्री के रूप में पदभार संभाला। वह तब महज 40 वर्ष के थे, और एक युवा भारत की आशाओं और आकांक्षाओं का प्रतिनिधित्व करते थे। यदि भारत को विदेशी सहायता और ऋण पर अपनी निर्भरता को छोड़ना है तो उन्होंने आर्थिक सुधार की आवश्यकता को पहचाना। उन्होंने एक साफ-सुथरे राजनेता वी.पी. सिंह, टेक्नोक्रेट सैम पित्रोदा और बाजार अर्थशास्त्री मोंटेक सिंह अहलूवालिया को भारतीय अर्थव्यवस्था को जनोनुकूल बनाने और सबके लिए लाभकारी बनाने के उपाय ढूंढने और उसे लागू करने को कहा। लिहाजा, 1985-86 के बजट में सरकार ने कंपनियों के लिए प्रत्यक्ष करों को कम किया और आयकर के लिए छूट की सीमा बढ़ा दी। इसके अलावा, सबसे महत्वपूर्ण बात यह कि उन्हें व्यापक रूप से देश में सूचना प्रौद्योगिकी और दूरसंचार क्रांतियों की शुरुआत करने का श्रेय दिया जाता है।
एक बात और, सन 1983 में गुड़गांव में असेंबली लाइन से पहली मारुति कार लुढ़क गई। प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने नवंबर में दिल्ली के हरपाल सिंह को इसकी चाबी सौंपी थी। यह एक ऐसी परियोजना थी जो विवादों में घिरी थी- इंदिरा के बेटे संजय गांधी द्वारा परिकल्पित, लेकिन इतनी खामियों से ग्रस्त कि सरकार ने वाहन के उत्पादन के लिए जापान के सुजुकी के साथ एक संयुक्त उद्यम पर हस्ताक्षर किए। यह एक वास्तविक लोगों की कार थी- ईंधन कुशल, सस्ती और चलाने में आसान, जबकि भारतीय उस समय तक इस्तेमाल की जाने वाली भद्दी कारों से बहुत दूर रहे। हालांकि, समय और जरूरत दोनों बदली। मारुति 800 और इसकी मांग ने एक नए भारतीय मध्यम वर्ग के उदय का संकेत दिया। तब यह माना गया कि इसी तरह की क्रांति के लिए विमानन को बाधित करने में लगभग 20 साल लगेंगे। मारुति 800 अपने विभिन्न अवतारों में 1983 और 2014 के बीच भारत की सबसे अधिक बिकने वाली कारों में से एक थी, जबकि इसे बंद कर दिया गया था।
सबसे ज्यादा ध्यान देने वाली बात यह है कि भारत ने कभी भी शत्रुतापूर्ण अधिग्रहण को प्रोत्साहित नहीं किया है। इसके व्यवसायियों, नियामकों और सरकार ने उन्हें रोकने के लिए मिलकर काम किया है। जैसा कि भारत सरकार ने 1982-83 में अधिक विदेशी धन प्राप्त करने के लिए पूंजी बाजार में ढील दी। विशेष रूप से अनिवासी भारतीयों से, लंदन स्थित लॉर्ड स्वराज पॉल ने घरेलू रासायनिक निर्माण कंपनी डीसीएम श्रीराम और इंजीनियरिंग समूह एस्कॉर्ट्स में खुले बाजार से महत्वपूर्ण शेयर हासिल किए। प्रमोटरों के परिवारों की बहुत छोटी जोत थी, लेकिन महत्वपूर्ण मंडलियों में उनका प्रभाव बहुत बड़ा था। इसलिए, वे पॉल के शत्रुतापूर्ण अधिग्रहण को टालने में सफल रहे। यह एक पैटर्न है जिसे अक्सर देखा गया है।
वहीं, साल 1984 की भोपाल गैस त्रासदी ने बड़े पैमाने पर औद्योगिक दुर्घटनाओं की वास्तविक संभावना और नियामक निरीक्षण के महत्व को सामने लाया। इस त्रासदी के केंद्र में -जिसका प्रभाव अभी भी स्थानीय आबादी द्वारा महसूस किया जाता है- यूएस-आधारित यूनियन कार्बाइड था, जो अब डॉव केमिकल्स के स्वामित्व में है। 2 दिसंबर की रात, संयंत्र से कम से कम 40 टन जहरीली मिथाइल आइसोसाइनेट गैस का रिसाव हुआ, जिससे कम से कम 4,000 लोग मारे गए और हजारों लोगों को स्थायी रूप से अक्षम कर दिया गया। यूनियन कार्बाइड के तत्कालीन अध्यक्ष वारेन एंडरसन विवादास्पद परिस्थितियों में भारत से भागने में सफल रहे। इस बीच, पीड़ितों को हर्जाने में एक छोटा सा हिस्सा दिया गया।
देखा जाए तो भारतीय अर्थव्यवस्था की गंभीर विशेषता हमेशा इसका उच्च राजकोषीय घाटा रहा है- सरकार द्वारा अपनी आय से अधिक खर्च करने का परिणाम। सरकारी खर्च का अधिकांश हिस्सा उधार की ब्याज लागत को चुकाने पर होता है; रक्षा, पेंशन, भोजन, उर्वरक और ईंधन की खपत पर सब्सिडी देना;और आवास, गरीबी, स्वास्थ्य और स्वच्छता पर निर्देशित योजनाएं। सरकार की पूंजी का एक बड़ा हिस्सा उसकी अपनी कंपनियों और होल्डिंग्स में बंद रहता है, जिसे वह बेचने में असमर्थ है। भारतीय अर्थव्यवस्था, इस प्रकार, खराब का पीछा करते हुए अच्छी पूंजी और साहसिक सुधारों को लागू करने के लिए राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी से पीड़ित है।
बता दें कि सन 1960 में हार्वर्ड से अर्थशास्त्र में पीएचडी करने वाली पहली एशियाई महिला पद्मा देसाई को भारत की पूर्व नियोजित अर्थव्यवस्था की आलोचना के लिए जाना जाता है। भारत की औद्योगिक और व्यापार नीतियों पर पति और साथी अर्थशास्त्री जगदीश भगवती के साथ सह-लेखक के रूप में उनकी 1970 के दशक की पुस्तक का 1970 के दशक में भारत में पेशेवर सोच और नीति निर्माण पर गहरा प्रभाव पड़ा। डॉ मनमोहन सिंह, 2000 के दशक में यानी वर्ष 2004 में प्रधानमंत्री बनने के बाद, यहां तक कह दिया था कि "जब 1991 में हमारी सरकार ने हमारी औद्योगिक और व्यापार नीतियों में व्यापक सुधार किए, तो हम केवल उन विचारों को लागू कर रहे थे जो जगदीश और पद्मा ने लगभग दो दशक पहले लिखे थे। इससे समझा जा सकता है कि नीतिगत जनहितकारी बदलाव लाने के लिए भारतीय अर्थव्यवस्था एक अरसे से विद्वान राजनेता की तलाश कर रही थी, जिसे तब डॉ मनमोहन सिंह ने पूरा ही नहीं कर दिया, बल्कि 10 वर्षों तक पीएम के रूप में उस भारत पर राज किया, जिसकी सशक्त आर्थिक नींव सन 1991 में उन्होंने वित्त मंत्री के रूप में रखी थी।
- कमलेश पांडेय
वरिष्ठ पत्रकार व स्तम्भकार
एडीआर की इस ताजा अध्ययन रिपोर्ट के अनुसार जिन पांच राज्य में विधानसभा चुनाव हो रहे हैं, उनमें उत्तर प्रदेश की जिन 58 विधानसभा सीटों पर मत डाले जाएंगे, वहां से कुल 623 प्रत्याशी अपनी किस्मत आजमा रहे हैं।
आजादी का अमृत महोत्सव मनाते हुए भारतीय राजनीतिक की शुचिता, चारित्रिक उज्ज्वलता और स्वच्छता पर लगातार खतरा मंडराना गंभीर चिन्ता का विषय है। स्वतंत्र भारत के पचहतर वर्षों में भी हमारे राजनेता अपने आचरण, चरित्र, नैतिकता और काबिलीयत को एक स्तर तक भी नहीं उठा सके। हमारी आबादी पचहतर वर्षों में करीब चार गुना हो गई पर हम देश में 500 सुयोग्य और साफ छवि के राजनेता आगे नहीं ला सके, यह देश के लिये दुर्भाग्यपूर्ण होने के साथ-साथ विडम्बनापूर्ण भी है। कभी सार्वजनिक जीवन में बेदाग लोगों की वकालत की जाती थी, लेकिन अब यह आम धारणा है कि राजनेता और अपराधी एक-दूसरे के पर्याय हो चले हैं। ‘एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स’ ने हाल ही में एक रिपोर्ट प्रस्तुत की है, जिसके तथ्य भारतीय राजनीति के दागी होने की तस्वीर प्रस्तुत करते हैं, जो चौंकानेवाले एवं चिन्तनीय भी है।
एडीआर की इस ताजा अध्ययन रिपोर्ट के अनुसार जिन पांच राज्य में विधानसभा चुनाव हो रहे हैं, उनमें उत्तर प्रदेश की जिन 58 विधानसभा सीटों पर मत डाले जाएंगे, वहां से कुल 623 प्रत्याशी अपनी किस्मत आजमा रहे हैं। इसमें से 615 उम्मीदवारों के बारे में एडीआर को जो सूचनाएं मिली हैं, उनसे छनकर आते हुए तथ्यों के अनुसार 156 प्रत्याशी, यानी करीब 25 फीसदी उम्मीदवार दागी, भ्रष्टाचारी एवं अपराधी हैं। 121 पर तो गंभीर आपराधिक मुकदमे चल रहे हैं, जिनमें दोषसिद्ध होने पर पांच साल या इससे भी अधिक की सजा वाले गैर-जमानती जुर्म शामिल हैं। जैसे, हत्या-अपहरण-बलात्कार आदि।
हर बार सभी राजनीति दल अपराधी तत्वों को टिकट न देने पर सैद्धान्तिक रूप में सहमति जताते हैं, पर टिकट देने के समय उनकी सारी दलीलें एवं आदर्श की बातें काफूर हो जाती है। ऐसा ही इन पांच राज्यों के उम्मीदवारों के चयन में देखने को मिला है। एक-दूसरे के पैरों के नीचे से फट्टा खींचने का अभिनय तो सब करते हैं पर खींचता कोई भी नहीं। कोई भी जन-अदालत में जाने एवं जीत को सुनिश्चित करने के लिये जायज-नाजायज सभी तरीकें प्रयोग में लेने से नहीं हिचकता। रणनीति में सभी अपने को चाणक्य बताने का प्रयास करते हैं पर चन्द्रगुप्त किसी के पास नहीं है, आस-पास दिखाई नहीं देता। घोटालों और भ्रष्टाचार के लिए हल्ला उनके लिए राजनैतिक मुद्दा होता है, कोई नैतिक आग्रह नहीं। कारण अपने गिरेबार में तो सभी झांकते हैं।
एडीआर की ही रिपोर्ट बताती है कि विधानसभाओं में ही नहीं, बल्कि मौजूदा लोकसभा के लिए 2019 में जीतने वाले 539 सांसदों में से 233, यानी 43 प्रतिशत सदस्यों ने खुद पर आपराधिक मामले होने की जानकारी दी है, जबकि 2014 के लोकसभा चुनाव में 542 विजेताओं में से 185 दागी चुनकर आए थे। 2009 के लोकसभा चुनाव में यह आंकड़ा 30 प्रतिशत 543 सांसदों में से 162 था। यानी, 2009 से 2019 तक आपराधिक छवि वाले सदस्यों की लोकसभा में मौजूदगी 44 फीसदी बढ़ गई थी। इसी तरह, गंभीर आपराधिक मामलों में मुकदमों का सामना करने वाले सांसदों की संख्या लगातार बढ़ती ही जा रही है, जो चिन्तनीय है। ऐसा प्रतीत होता है कि हम जमीन से आजाद हुए है, जमीर तो आज भी कहीं, किसी के पास गिरवी रखा हुआ है।
लोकतंत्र की कुर्सी का सम्मान करना हर नागरिक का आत्मधर्म और राष्ट्रधर्म है। क्योंकि इस कुर्सी पर व्यक्ति नहीं, चरित्र बैठता है। लेकिन हमारे लोकतंत्र की त्रासदी ही कही जायेगी कि इस पर स्वार्थता, महत्वाकांक्षा, बेईमानी, भ्रष्टाचारिता, अपराध आकर बैठती रही है। लोकतंत्र की टूटती सांसों को जीत की उम्मीदें देना जरूरी है और इसके लिये साफ-सुथरी छवि के राजनेताओं को आगे लाना समय की सबसे बड़ी जरूरत है। यह सत्य है कि नेता और नायक किसी कारखाने में पैदा करने की चीज नहीं हैं, इन्हें समाज में ही खोजना होता है। काबिलीयत और चरित्र वाले लोग बहुत हैं पर परिवारवाद, जातिवाद, भ्रष्टाचार, बाहुबल व कालाधन उन्हें आगे नहीं आने देता।
आजादी के अमृत महोत्सव मनाते हुए राजनीति के शुद्धिकरण को लेकर देश के भीतर बहस हो रही है परन्तु कभी भी राजनीतिक दलों ने इस दिशा में गंभीर पहल नहीं की। पहल की होती तो संसद और विभिन्न विधानसभाओं में दागी, अपराधी सांसदों और विधायकों की तादाद बढ़ती नहीं। यह अच्छी बात है कि देश में चुनाव सुधार की दिशा में सोचने का रुझान बढ़ रहा है। चुनाव आयोग एवं सर्वोच्च न्यायालय इसमें पहल करते हुए दिखाई देते हैं, चुनाव एवं राजनीतिक शुद्धिकरण की यह स्वागतयोग्य पहल उस समय हो रही है जब चुनाव आयोग द्वारा पांच राज्यों उत्तर प्रदेश, पंजाब, उत्तराखंड, मणिपुर व गोवा का चुनावी कार्यक्रम घोषित हो गया है।
विडम्बनापूर्ण स्थिति तो यह है कि चुनाव-दर-चुनाव आपराधिक छवि वाले उम्मीदवारों की जीत का ग्राफ ऊपर चढ़ रहा है, इसलिए राजनीतिक दल भी मानो अब यह मानने लगे हैं कि दागी छवि जीत की गारंटी है। वैसे भी, चुनावों में हर हाल में जीत हासिल करना ही राजनीतिक पार्टियों का मकसद होता है। इसके लिए वे हर वह जायज-नाजायज तरीका अपनाने को तैयार रहते हैं, जिनसे उनकी मौजदूगी सदन में हो। कुछ जन-प्रतिनिधि यह तर्क देते हैं कि राजनीति से प्रेरित मुकदमे उनके ऊपर जबरन लादे गए हैं। यह कुछ हद तक सही भी है। मगर चुनाव आयोग और अदालत, दोनों का यह मानना रहा है कि जिन उम्मीदवारों के खिलाफ गंभीर आपराधिक मामले दर्ज हैं, उनको तो चुनाव लड़ने से रोका जाना चाहिए।
समय की दीर्घा जुल्मों को नये पंख देती है। यही कारण है कि राजनीति का अपराधीकरण और इसमें व्याप्त भ्रष्टाचार लोकतंत्र को भीतर ही भीतर खोखला करता जा रहा है। एक आम आदमी यदि चाहे कि वह चुनाव लड़कर संसद अथवा विधानसभा में पहुंचकर देश की ईमानदारी से सेवा करे तो यह आज की तारीख में संभव ही नहीं है। सम्पूर्ण तालाब में जहर घुला है, यही कारण है कि कोई भी पार्टी ऐसी नहीं है, जिसके टिकट पर कोई दागी चुनाव नहीं लड़ रहा हो। यह अपने आप में आश्चर्य का विषय है कि किसी भी राजनीतिक दल का कोई नेता अपने भाषणों में इस पर विचार तक जाहिर करना मुनासिब नहीं समझता।
सर्वोच्च अदालत ने दागियों को विधायिका से बाहर रखने के तकाजे से समय-समय पहल की है उसका लाभ इन पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में तो होता हुआ दिखाई नहीं दे रहा है। एक समय था जब ऐसे किसी नियम-कानून की जरूरत महसूस नहीं की जाती थी, क्योंकि तब देश-सेवा और समाज-सेवा की भावना वाले लोग ही राजनीति में आते थे। पर अब हालत यह है कि हर चुनाव के साथ विधायिका में ऐसे लोगों की तादाद और बढ़ी हुई दिखती है जिन पर आपराधिक मामले चल रहे हों। हमारे लोकतंत्र के लिए इससे अधिक शोचनीय बात और क्या हो सकती है!
गांधीजी ने एक मुट्टी नमक उठाया था, तब उसका वजन कुछ तोले ही नहीं था। उसने राष्ट्र के नमक को जगा दिया था। सुभाष ने जब दिल्ली चलो का घोष किया तो लाखों-करोड़ों पांवों में शक्ति का संचालन हो गया। नेहरू ने जब सतलज के किनारे सम्पूर्ण आजादी की मांग की तो सारी नदियों के किनारों पर इस घोष की प्रतिध्वनि सुनाई दी थी। पटेल ने जब रियासतों के एकीकरण के दृढ़ संकल्प की हुंकार भरी तो राजाओं के वे हाथ जो तलवार पकड़े रहते थे, हस्ताक्षरों के लिए कलम पर आ गये। आज वह तेज व आचरण नेतृत्व में लुप्त हो गया। आचरणहीनता कांच की तरह टूटती नहीं, उसे लोहे की तरह गलाना पड़ता है। विकास की उपलब्धियों से हम ताकतवर बन सकते हैं, महान् नहीं। महान् उस दिन बनेंगे जिस दिन हमारी नैतिकता एवं चरित्र की शिलाएं गलना बन्द हो जायेगी और उसी दिन लोकतंत्र को शुद्ध सांसें मिलेंगी।
सभी दल राजनीति नहीं, स्वार्थ नीति चला रहे हैं और इसके लिये अपराधों को पनपने का अवसर दे रहे हैं। इन दागी सांसदों और विधायकों के खिलाफ आपराधिक मामलों की सुनवाई के लिए विशेष अदालतों के गठन की बात लम्बे समय से सुनाई दे रही है, लेकिन इसके गठन का साहस किसी ने नहीं किया। ऐसे आरोपों का सामना कर रहे जनप्रतिनिधियों के खिलाफ एवं लोकतंत्र के सर्वकल्याणकारी विकास लिये भारतीय मतदाता संगठन एवं उसके संस्थापक अध्यक्ष डॉ. रिखबचन्द जैन लम्बे समय से प्रयास कर रहे हैं। आरोपी-दोषी जनप्रतिनिधियों के लंबित मामलों में सुनवाई तेजी से हो, यह अपेक्षित है। इसी से लोकतंत्र का नया सूरज उदित हो सकेगा।
- ललित गर्ग