संपादकीय

संपादकीय (272)

अगर हम थोड़े ठंडे दिमाग से सोचें तो मुझे लगता है कि मनुष्य जाति इतनी महान है कि वह इन मुसीबतों का भी कोई न कोई हल निकाल लेगी। जैसे अब से लगभग 70 साल पहले दुनिया की आबादी सिर्फ ढाई अरब थी लेकिन अब वह लगभग 8 अरब हो गई है।

आज 11 जुलाई को विश्व जनसंख्या दिवस मनाया जाता है। ऐसे अवसरों पर लोग उत्सव करते हैं लेकिन इस विश्व दिवस पर लोग चिंता में पड़ गए हैं। उन्हें चिंता यह है कि दुनिया की आबादी इसी रफ्तार से बढ़ती रही तो अगले 30 साल में दुनिया की कुल आबादी लगभग 10 अरब हो जाएगी। इतने लोगों के लिए भोजन, कपड़े, निवास और रोजगार की क्या व्यवस्था होगी? क्या यह पृथ्वी इंसान के रहने लायक बचेगी? पृथ्वी का क्षेत्रफल तो बढ़ना नहीं है और अंतरिक्ष के दूसरों ग्रहों में इंसान को जाकर बसना नहीं है। ऐसे में क्या यह पृथ्वी नरक नहीं बन जाएगी? बढ़ता हुआ प्रदूषण क्या मनुष्यों को जिंदा रहने लायक छोड़ेगा? ये ऐसे प्रश्न हैं, जो हर साल जमकर उठाए जा रहे हैं।

 ये सवाल हमारे दिमाग में काफी निराशा और चिंता पैदा करते हैं लेकिन अगर हम थोड़े ठंडे दिमाग से सोचें तो मुझे लगता है कि मनुष्य जाति इतनी महान है कि वह इन मुसीबतों का भी कोई न कोई हल निकाल लेगी। जैसे अब से लगभग 70 साल पहले दुनिया की आबादी सिर्फ ढाई अरब थी लेकिन अब वह लगभग 8 अरब हो गई है। क्या इस बढ़ी हुई आबादी को कमोबेश सभी सुविधाएं नहीं मिल रही हैं? नए-नए आविष्कारों, यांत्रिक विकासों और आपसी सहकारों के कारण दुनिया के देशों में जबर्दस्त विकास हुआ है। इन्हीं की वजह से लोगों के स्वास्थ्य में सुधार हुआ है और पिछले 40 साल में लोगों की औसत आयु में 20 साल की वृद्धि हो गई है। जो लोग पहले 50 साल की आयु पाते थे, वे अब 70 साल तक जीवित रहते हैं। जनसंख्या-वृद्धि का यही मूल कारण भी है।

परिवार नियोजन तो लगभग सभी देशों में प्रचलित है। जापान और चीन में यह चिंता का विषय बन गया है। वहां जनसंख्या घटने की संभावना बढ़ रही है। यदि दुनिया की आबादी 10-12 अरब भी हो जाए तो उसका प्रबंध असंभव नहीं है। खेती की उपज बढ़ाने, प्रदूषण घटाने, पानी की बचत करने, शाकाहार बढ़ाने और जूठन न छोड़ने के अभियान यदि सभी सरकारें और जनता निष्ठापूर्वक चलाएं तो मानव जाति को कोई खतरा नहीं हो सकता। मुश्किल यही है कि इस समय सारे संसार में उपभोक्तावाद की लहर आई हुई है। हर आदमी हर चीज जरूरत से ज्यादा इस्तेमाल करना चाहता है। इस दुर्दांत इच्छा-पूर्ति के लिए यदि प्राकृतिक साधन दस गुना ज्यादा भी उपलब्ध हों तो भी वे कम पड़ जाएंगे। ऐसी हालत में पूंजीवादी और साम्यवादी विचारधाराओं के मुकाबले भारत की त्यागवादी विचारधारा सारे संसार के लिए बहुत लाभदायक सिद्ध हो सकती है।

 

जिस संयुक्त राष्ट्र संघ ने 11 जुलाई 1989 को इस विश्व जनसंख्या दिवस को मनाने की परंपरा डाली है, उसके कर्त्ता—धर्त्ताओं से मैं निवेदन करूँगा कि वे ईशोपनिषद् के इस मंत्र को सारे संसार का प्रेरणा-वाक्य बनाएं कि ‘त्येन त्यक्तेन भुंजीथा’ यानि ‘त्याग के साथ उपभोग करें’ तो आबादी का भावी संकट या उसकी चिंता का निराकरण अपने आप हो जाएगा। 

 

-डॉ. वेदप्रताप वैदिक

शिवसेना हिन्दूवादी पार्टी कहलाती है लेकिन इसके नेता उद्धव ठाकरे ने विधानसभा चुनाव से पहले ही पुत्र आदित्य ठाकरे को राज्य का मुख्यमंत्री बनाने की योजना बनाई थी। अपनी योजना के लिए उद्धव ठाकरे ने दूसरी हिन्दुत्त्ववादी पार्टी भाजपा से 30 साल पुराने संबंध तोड़ लिये।
 

भारतीय जनता पार्टी के तमाम नेता और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी एवं उनके मंत्रिमण्डल के सहयोगी आजकल परिवारवाद की सियासत को लेकर काफी गंभीर नजर आ रहे हैं। जब भी मोदी या बीजेपी नेता जनता के बीच जाते हैं या फिर मीडिया से मुखातिब होते हैं तो परिवारवाद से देश को होने वाले नुकसान की चर्चा करना नहीं भूलते हैं। जिस राज्य में वह जाते हैं उस राज्य में फैले परिवारवाद की राजनीति को निशाना बनाते हैं। बीजेपी नेता विपक्षी दलों के परिवारवाद पर तो हमला करते ही हैं, यह भी बताते हैं कि राजनीति में पुत्र मोह की कोई जगह नहीं होनी चाहिए। इससे फायदा कम, नुकसान ज्यादा होता है। इसके कई उदाहरण देश में मौजूद हैं। पुत्र मोह के चलते हिन्दू हृदय सम्राट बाला साहब ठाकरे ने अपने भतीजे और उनके (बाला साहब) सियासी उत्तराधिकारी समझे जाने वाले राज ठाकरे की जगह अपने बेटे उद्धव ठाकरे को शिवसेना की कमान सौंप दी थी, जबकि उद्धव की राजनीति में कोई रूचि नहीं थी। वह वाइल्ड लाइफ फोटोग्राफर थे और उसी में खुश नजर आते थे जबकि बाला साहब के भतीजे राज ठाकरे सियासत में रूचि रखते थे। इस बात का आभास बाला साहब को था भी, लेकिन चाचा बाला साहब के पुत्र मोह में भतीजे राज ठाकरे सियासी ठगी का शिकार हो गए। पुत्र मोह के चलते ही एक बार फिर से शिवसेना का अस्तित्व संकट में आ गया है। अबकी से शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे के पुत्र मोह ने सेना को 'चौराहे’ पर खड़ा कर दिया है। उद्धव को अपना सियासी अस्तित्व बचाना मुश्किल हो गया है। उद्धव के पुत्र मोह के चलते उनके सबसे वफादार नेता एकनाथ शिंदे और करीब 38 अन्य विधायकों ने पार्टी से नाता तोड़कर न केवल अपना अलग गुट बना लिया, बल्कि उद्धव ठाकरे से सत्ता छीन कर एकनाथ शिंदे मुख्यमंत्री भी बन गए हैं।

 

 

बहरहाल, भारतीय राजनीति में पुत्र मोह के चलते पार्टी के पतन का यह कोई पहला मामला नहीं है। शिवसेना इसका सबसे ताजा उदाहरण जरूर है। इससे पहले उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी के प्रमुख मुलायम सिंह यादव ने अपने पुत्र अखिलेश यादव को सियासत में आगे बढ़ाने के लिए अपने ही दो भाइयों को आमने-सामने खड़ा कर दिया था। एक और शिवपाल सिंह यादव ने अखिलेश यादव के खिलाफ ताल ठोंकी तो दूसरी ओर प्रोफेसर राम गोपाल यादव ने अखिलेश यादव को हर तरह से सहारा देकर पार्टी का राष्ट्रीय अध्याय बनाने में पूरी तरह से मदद की। इसका असर यह हुआ कि पार्टी इस महाभारत का शिकार हो गई और जनता के बीच जो साख बन रही थी वह खत्म हो गई। समाजवादी पार्टी की दुर्गति लोकसभा व विधानसभा चुनाव में लोग देख ही चुके हैं। बिहार में राष्ट्रीय जनता दल (राजद) सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव के कुनबे में सत्ता का संघर्ष इसी तरह हुआ और लालू प्रसाद यादव अपने पुत्रों के बीच कोई ठोस फैसला नहीं कर सके। जब उनके पुत्र बालिग नहीं हुए थे तब जेल जाने से पूर्व अपनी कुर्सी पत्नी राबड़ी देवी को सौंप दी थी।

 

कांग्रेस का नाम लिए बिना पुत्र मोह की सियासत पर चर्चा पूरी नहीं हो सकती है। कांग्रेस तो नेहरू-इंदिरा परिवार की विरासत ही समझी जाती है। कांग्रेस के अध्यक्ष पद पर ज्यादातर समय नेहरू-गांधी परिवार का कब्जा रहा। सोनिया गांधी के पुत्र मोह ने कांग्रेस को अर्श से फर्श पर पहुंचा दिया है। उत्तर प्रदेश जहां से कांग्रेस ने दिल्ली की राजनीति में जड़े जमायी थीं, वह यूपी आज कांग्रेस विहीन हो गया है। यूपी में कांग्रेस को कोई पूछने वाला नहीं है। यूपी कांग्रेस अल्पसंख्यक विभाग के पूर्व चेयरमैन और पूर्व एमएलसी सिराज मेहंदी से एक बार जब इस संबंध में पूछा गया तो उन्होंने कहा कि कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी पुत्र मोह में फंसी हैं, जिसके कारण राहुल और प्रियंका कांग्रेस को बर्बाद करने में लगे हैं। सिराज मेहंदी ने कहा कि राहुल गांधी द्वारा यूपी में लल्लू को कांग्रेस अध्यक्ष बना दिया गया, जिनकी अपनी ही छवि नहीं सही थी, वह कांग्रेस को कैसे उभार सकते हैं।

     

बहुजन समाज पार्टी की सुप्रीमो मायावती जो सियासी परिवारवाद के सख्त खिलाफ थीं, उनको जब पार्टी संभालने के लिए किसी विश्वासपात्र जरूरत पड़ी तो उन्हें भतीजे का नाम सबसे अधिक समझ में आया। 2019 में बीएसपी सुप्रीमो मायावती ने अपने छोटे भाई आनंद को पार्टी का राष्ट्रीय उपाध्यक्ष एवं भतीजे आकाश को नेशनल कार्डिनेटर बनाकर कटोरी का घी थाली में गिराने का काम कर लिया। बीएसपी संगठन में बदलाव से ज्यादा चर्चा मायावती के भतीजे आकाश को लेकर हुई। युवा आकाश को मायावती का उत्तराधिकारी माना जा रहा है। आकाश के सक्रिय राजनीति में उतरने से यूपी की राजनीति में एक और युवा चेहरे की आधिकारिक एंट्री हो गई। आकाश मायावती के छोटे भाई आनंद कुमार के पुत्र हैं।

 

शिवसेना की बात की जाए तो 15 साल तक राज करने वाली सेना की आज हालत दयनीय बनी हुई है। महाराष्ट्र में शिवसेना प्रमुख हिन्दूवादी पार्टी कहलाती है लेकिन इसके नेता उद्धव ठाकरे ने महाराष्ट्र विधानसभा चुनावों से पहले ही अपने पुत्र आदित्य ठाकरे को राज्य का मुख्यमंत्री बनाने की योजना बनाई थी। अपनी योजना के लिए उद्धव ठाकरे ने दूसरी हिन्दुत्त्ववादी पार्टी भाजपा से 30 साल पुराने संबंध तोड़ लिये। हालांकि संबंध तोड़ने के बाद कांग्रेस और एनसीपी ने आदित्य ठाकरे पर भरोसा नहीं किया और उद्धव ठाकरे को ही मुख्यमंत्री बनने के लिए विवश कर दिया। अब उनकी पार्टी की साख को बट्टा लग गया है। इस साख को बचाने के लिए ही बार-बार वह स्वयं को हिन्दुत्ववादी पार्टी कह रहे हैं। साथ ही अयोध्या का दौरा करके राम मंदिर निर्माण के लिए एक करोड़ रुपये देने का ऐलान भी किया है।

 

पुत्र मोह का एक और बड़ा उदाहरण पश्चिमी उत्तर प्रदेश में मिलता है। वो है राष्ट्रीय लोकदल के सुप्रीमो चौधरी अजित सिंह का। चौधरी अजित सिंह, उन चौधरी चरण सिंह की इकलौती संतान थे, जिन्होंने अजित सिंह की जगह हेमवती नंदन बहुगुणा और मुलायम सिंह यादव को अपना राजनीतिक उत्तराधिकारी कहा था। चौधरी चरण सिंह ने सियासत के लिए वंश नहीं बल्कि योग्यता को तरजीह दी थी। लेकिन अजित सिंह ने अपने पिता चौधरी चरण सिंह की इस सीख से मुंह मोड़कर अपने पुत्र जयंत चौधरी के अलावा किसी अन्य नेता को आगे बढ़ने का मौका नहीं दिया। इसके चलते राष्ट्रीय लोकदल इन्हीं दोनों पिता-पुत्र के बीच सिमटकर रह गया।

 

हरियाणा में चौधरी देवी लाल का भारतीय राजनीति में अच्छा खासा दबदबा था। उनके बेटे ओम प्रकाश चौटाला ने भी अपने पुत्र मोह में अपने ही दल का बंटाधार कर लिया। किसान राजनीति के सिरमौर माने जाने वाले देवीलाल के रुतबे की बदौलत ओम प्रकाश चौटाला ने हरियाणा में राज किया लेकिन वह बेटों को लेकर राजनीति के जिस झंझावात में फंसे, उससे उनके दल की दशा दलदल-सी हो गई। पंजाब में सबसे युवा और सबसे बुजुर्ग मुख्यमंत्री का तमगा हासिल करने वाले अकाली दल के अध्यक्ष प्रकाश सिंह बादल की राजनीति भी पुत्रमोह का शिकार हो गई और उनका दल पंजाब की सत्ता में पुनः आने के लिए संघर्ष कर रहा है लेकिन बादल के पुराने वोटर अब उनके दल पर पहले जैसा विश्वास नहीं कर पा रहे हैं। इन प्रमुख राजनीतिक दलों के अलावा केन्द्रीय मंत्री राम विलास पासवान ने भी अपने बेटे चिराग पासवान को आगे बढ़ाया और उनके दल की सियासत का हाल आज सबके सामने है। इसी तरह से झारखंड में चुनाव जीतकर मुख्यमंत्री बनने वाले हेमंत सोरेन को राजनीति अपने पिता शिबू सोरेन से विरासत में मिली है। कांग्रेस के धाकड़ नेता रहे अजीत जोगी ने छत्तीसगढ़ में अपने बेटे अमित जोगी को आगे बढ़ाने की कोशिश की। हालांकि उनके बेटे ने विधानसभा के सदस्य तक का सफर तो आसानी से तय कर लिया लेकिन इसके आगे की कोई बड़ी उपलब्धि हासिल नहीं कर सके हैं।

       

पिछले दिनों महाराष्ट्र की सियासत में काफी उतार-चढ़ाव देखने को मिले। सत्ता के खेल में बगावत-वफादारी, शर्म-बेशर्मी, गाली-गलौच, छल-प्रपंच, धमक-धमकी सब कुछ सरेआम सड़क पर ‘नंगा नाच’ कर रही थी। शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे ने मुख्यमंत्री की कुर्सी की चाहत और पुत्र आदित्य ठाकरे के मोह में फंसकर अपना मान-सम्मान सब कुछ खत्म कर लिया। आदित्य ठाकरे जो उद्धव सरकार में कैबिनेट मंत्री थे पूरे ढाई वर्ष तक विवादों में घिरे रहे। जहां तक महाराष्ट्र की सियासत का सवाल है तो पिछले विधानसभा चुनाव में मतदाताओं ने भाजपा-शिवसेना गठबंधन को सत्ता और कांग्रेस एवं शरद पवार की राष्ट्रवादी कांग्रेस दोनों को ही विपक्ष में बैठने का जनादेश दिया था, लेकिन हुआ उलटा। शिवसेना ने मुख्यमंत्री की कुर्सी के लालच में उन दलों से हाथ मिला लिया जिनको उसने चुनावी मैदान में पटखनी दी थी और उस भाजपा को ठेंगा दिखा दिया जिसके नेता और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की चुनावी जंग में फोटो लगाकर शिवसेना ने अच्छी खासी सीटें हासिल की थीं।

 

-अजय कुमार

नागरिक अपेक्षा करते हैं कि उनके शासक ईमानदार हों, चरित्रसम्पन्न हों, नशामुक्त हों एवं अपने पद की गरिमा को कायम रखने वाले हों। ब्रिटेन के नागरिक भी यही उम्मीद करते रहे कि सरकार एक सही, योग्य, जिम्मेदार और गम्भीर तरीके से काम करे।

ब्रिटेन के प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन की विदाई का कारण स्वच्छन्द, भ्रष्ट एवं अनैतिक राजनीति बना। समूची दुनिया के शासनकर्त्ताओं को एक सन्देश है बोरिस का इस बेकद्री से बेआबरू होकर विदा होना। किस तरह कांड-दर-कांड का सिलसिला चला और जॉनसन ने 2019 के चुनावों में जो राजनीतिक प्रतिष्ठा अर्जित की थी, वह धीरे-धीरे राजनीतिक अहंकार एवं अनैतिक कृत्यों के कारण गायब होती गई। उन्हें जो व्यापक जनादेश मिला था, उसका फायदा वह नहीं उठा पाए, क्योंकि जो अनुशासन, चरित्र की प्रतिष्ठा, संयम एवं मूल्यों का सृजन उनके प्रशासन में होना चाहिए था, वह कमोबेश नदारद रहा। जिस तेजतर्रार तेवर के साथ जॉनसन ने ब्रेग्जिट अभियान को अपने हाथों में लिया था और उसके बाद 2019 के आम चुनाव में जीत हासिल की थी, उस तेवर को वह बरकरार नहीं रख पाए। इसी वजह से विगत कुछ महीनों से उनकी कंजर्वेटिव पार्टी को लगातार झटके लगते आ रहे थे और नौबत यहां तक आ गई कि अनेक मंत्रियों ने इस्तीफा दे दिया।

 अपनी सरकार पर लगे भ्रष्टाचार के आरोपों और डिप्टी चीफ व्हिप के पद पर नियुक्त किए क्रिस पिंचर पर लगे आरोपों के चलते बोरिस जॉनसन को इस्तीफा देने पर मजबूर होना पड़ा है। विपक्ष के लगातार बढ़ते दबाव और कंजरवेटिव पार्टी में उनके खिलाफ उठती आवाजों के बीच उनके वित्त मंत्री ऋषि सुनक सहित 50 मंत्रियों और सांसदों के इस्तीफे के बाद जॉनसन को अपना पद छोड़ना ही पड़ा। हाऊस ऑफ कॉमन्स में मोबाइल फोन में अश्लील वीडियो देखने को लेकर कंजरवेटिव पार्टी के एक सांसद को इस्तीफा देने के लिए मजबूर होना पड़ा था। ब्रिटेन की सरकार पहले कोरोना महामारी के दौरान शराब पार्टी को लेकर फंसी थी और अब वह एक सैक्स स्कैंडल को लेकर फंसी है। कोरोना महामारी के दौरान पाबंदियों के बावजूद प्रधानमंत्री आवास में दारू पार्टियां की जाती रहीं, जिसमें खुद बोरिस जानसन भी शामिल होते रहे। अश्लील, भोगवादी एवं दारू पार्टियों के मदहोश में उन्मुक्त बोरिस एवं उनकी पार्टी के नेता भूल गये कि वे जिन जिम्मेदार पदों पर आसीन हैं, वहां बैठकर यह सब करना कितना गलत, अनैतिक एवं स्वच्छंद है। 30 जून को ब्रिटेन के समाचार पत्र द सन ने एक रिपोर्ट छापी जिसमें दावा किया गया था कि सत्ताधारी कंजरवेटिव पार्टी के सांसद क्रिस पिंचर ने लंदन के एक प्राइवेट क्लब में दो मर्दों को आपत्तिजनक तरीके से छुआ। हाल ही के वर्षों में पिंचर के कथित यौन दुर्व्यवहार से जुड़े अनेक मामले सामने आए। यह खुलासे होने के बाद पिंचर ने सरकार के सचेतक पद से इस्तीफा देकर जांच में सहयोग का वादा किया।

दुनिया की सभी शासन-कर्त्ताओं से वहां के नागरिक अपेक्षा करते हैं कि उनके शासक ईमानदार हों, चरित्रसम्पन्न हों, नशामुक्त हों एवं अपने पद की गरिमा को कायम रखने वाले हों। ब्रिटेन के नागरिक भी यही उम्मीद करते रहे कि सरकार एक सही, योग्य, जिम्मेदार और गम्भीर तरीके से काम करे। लेकिन ऐसा नहीं हो रहा था, वहां की सरकार सही ढंग से काम नहीं कर रही थी। राजनीतिक क्षेत्रों में इन बातों की चर्चा लम्बे समय से गर्मायी रही। भारतीय उद्योगपति नारायणमूर्ति के दामाद ऋषि सुनक ने बोरिस जॉनसन के माफी मांगने के बावजूद इस्तीफा क्यों दिया? ऋषि सुनक ने कहा है कि जो कुछ हुआ उसके खिलाफ यह जरूरी था। ब्रिटेन में ही नहीं, हमारे भारत में भी ऐसे ही कुछ कारणों से पिछले दिनों महाराष्ट्र में ठाकरे को मुख्यमंत्री की कुर्सी छोड़नी पड़ी। चरित्र, नैतिकता एवं राजनीतिक मूल्यों के साथ जुड़ी जागृति ही राजनीति में सच्चाई का रंग भरती है अन्यथा आदर्श, उद्देश्य और सिद्धान्तों को भूलकर सफलता की सीढ़ियों पर चढ़ने वाला और भी बहुत कुछ नीचे छोड़ जाता है, जिसके लिये मंजिल की अन्तिम सीढ़ी पर पहुंचकर अफसोस करना पड़ता है।

 

जॉनसन के खिलाफ शिकायतों की लंबी सूची है। जब कोरोना की लहर चल रही थी, देश में लॉकडाउन लगा था, तब प्रधानमंत्री के आवास 10 डाउनिंग स्ट्रीट में पार्टी या उत्सव का आयोजन हो रहा था, जब ब्रिटेन की जनता जिन्दगी और मौत के बीच रोशनी तलाश रही थी, तब उनके नेताओं के झुंड ऐश कर रहे थे, यौनाचार एवं नशे में डूबे थे और उनकी इन पार्टियों को पार्टीगेट स्कैंडल नाम दिया गया। आरोप लगा, तो शुरू में जॉनसन ने पार्टी के आयोजन से ही इनकार कर दिया, लेकिन बाद में उन्होंने गलती मान ली और जुर्माना भी चुकाया। बात केवल बोरिस की नहीं है, बात दुनिया पर शासन करने वाले शीर्ष नेताओं के चरित्र की है। जिन्दगी की सोच का एक महत्वपूर्ण पक्ष यह ही है कि चरित्र जितना ऊंचा और सुदृढ़ होगा, सफलताएं उतनी ही सुदृढ़ और दीर्घकालिक होंगी। बिना चरित्र न जिन्दगी है, न राजनीतिक सफलताएं और न समाज के बीच गौरव से सिर उठाकर सबके साथ चलने का साहस। राजनीति में संयम एवं चरित्र की प्रतिष्ठा जरूरी है। संयम का अर्थ त्याग नहीं है। संयम का अर्थ है चरित्र की प्रतिष्ठापना।

 

जॉनसन की कंजर्वेटिव पार्टी के लोग भी कहने लगे हैं कि जब पिंचर के खिलाफ पहले ही शिकायतें थीं तो उनको नियुक्त ही क्यों किया गया? बोरिस जॉनसन ने पिंचर की नियुक्ति को गलती बताते हुए पीड़ित लोगों से माफी भी मांगी। सरकार ने जिस तरीके से लोगों को हैंडल किया है लोग उस पर भरोसा करने को तैयार नहीं हैं। हर विवाद पर सरकार के जवाब बदलते रहे हैं। जॉनसन के आलोचक नेतृत्व बदलने के लिए मांग कर रहे हैं। ऐसा क्यों हुआ? क्योंकि नैतिक एवं चारित्रिक मूल्यों की उपेक्षा हुई, जबकि नैतिकता अपने आप में एक शक्ति है जो व्यक्ति की अपनी रचना होती है एवं उसी का सम्मान होता है। संसार उसी को प्रणाम करता है जो भीड़ में से अपना सिर ऊंचा उठाने की हिम्मत करता है, जो अपने अस्तित्व का भान कराता है। नैतिकता की आज जितनी कीमत है, उतनी ही सदैव रही है। जिस व्यक्ति के पास अपना कोई मौलिक विचार एवं उच्च चरित्र है तो संसार उसके लिए रास्ता छोड़ कर एक तरफ हट जाता है और उसे आगे बढ़ने देता है। मूल्यों को जीते हुए तथा काम के नये तरीके खोज निकालने वाला व्यक्ति ही देश एवं दुनिया की सबसे बड़ी रचनात्मक शक्ति होता है।

अब ब्रिटेन की राजनीति में बड़ा बदलाव आने की संभावना है, इसमें लेबर पार्टी का जो उभार आ रहा है, हो सकता है कि उसके नेता चुनाव जीत जाएं। सत्ता स्थानांतरित होती दिख रही है। दो दशक से कंजर्वेटिव ने सत्ता पर कब्जा किया हुआ था, लेकिन अब सत्ता लेबर की ओर जाती दिख रही है। कंजर्वेटिव के अंदर जो विभाजन हैं, वे बढ़ते नजर आ रहे हैं। जॉनसन अगले प्रधानमंत्री के चुने जाने तक प्रधानमंत्री रहना चाहते हैं, लेकिन सवाल है कि क्या उनकी पार्टी उन्हें यह मौका देगी? तय है, आने वाले दिनों में कंजर्वेटिव पार्टी के बीच विवाद बढ़ेगा। और इन सब स्थितियों का कारण राजनीति में मूल्यों का अवमूल्यन है। ब्रिटेन ही नहीं, दुनिया में शासन करने वाली नेतृत्व शक्तियों को जॉनसन से सबक लेना होगा, सीख लेनी होगी कि राजनीति के लिये चरित्र, संयम, मूल्य बहुत जरूरी है। इस घटनाक्रम से राजनीतिज्ञों के लिये एक सोच उभरती है कि दायें जाये चाहे बायें, लेकिन श्रेष्ठ एवं आदर्श चरित्र के बिना सब सूना है। 

 

-ललित गर्ग

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तम्भकार हैं)

यूरोपीय संघ की संसद ने कल ही दो ऐसे कानून पारित किए हैं, जिनके तहत गूगल, एमेजान, एप्पल, फेसबुक और माइक्रोसॉफ्ट जैसे कंपनियां यदि अपने मंचों से मर्यादा भंग करें तो उनकी कुल सालाना आय की 10 प्रतिशत राशि तक का जुर्माना उन पर ठोका जा सकता है

सोशल मीडिया की प्रसिद्ध कंपनी, ट्विटर, ने यह कहकर अदालत की शरण ली है कि भारत सरकार अपने अधिकारों का दुरुपयोग कर रही है, क्योंकि वह चाहती है कि ट्विटर पर जाने वाले कई संदेशों को रोक दिया जाए या हटा दिया जाए। उसने गत वर्ष किसान आंदोलन के दौरान जब ऐसी मांग की थी, तब कई संदेशों को हटा लिया गया था। लेकिन ट्विटर ने कई नेताओं और पत्रकारों के बयानों को हटाने से मना कर दिया था। जून 2022 में सरकार ने फिर कुछ संदेशों को लेकर उसी तरह के आदेश जारी किए हैं लेकिन अभी यह ठीक-ठीक पता नहीं चला है कि वे आपत्तिजनक संदेश कौन-कौन से हैं?

 

क्या वे न्यायाधीशों की मनमानी टिप्पणियां हैं या नेताओं के निरंकुश बयान हैं या साधारण लोगों के अनाप-शनाप अभिमत हैं? सरकारी आपत्तियों को ट्विटर कंपनी ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का उल्लंघन बताया है। उसका कहना है कि ज्यादातर आपत्तियां विपक्षी नेताओं के बयानों पर हैं। केंद्रीय सूचना तकनीक मंत्री अश्विनी वैष्णव का कहना है कि सरकार ऐसे सब संदेशों को हटवाना चाहती है, जो समाज में बैर-भाव फैलाते हैं, लोगों में गलतफहमियां फैलाते हैं और उन्हें हिंसा के लिए भड़काते हैं। पता नहीं कर्नाटक का उच्च न्यायालय इस मामले में क्या फैसला देगा लेकिन सैद्धांतिक तौर पर वैष्णव की बात सही लगती है परंतु असली प्रश्न यह है कि सरकार अकेली कैसे तय करेगी कि कौन-सा संदेश सही है और कौन-सा गलत?

अफसरों की एक समिति को यह अधिकार दिया गया है लेकिन ऐसे कितने अफसर हैं, जो मंत्रियों के निर्देशों को स्वविवेक की तुला पर तोलने की हिम्मत रखते हैं? इस बात की पूरी संभावना है कि वे हर संदेश की निष्पक्ष जांच करेंगे लेकिन अंतिम फैसला करने का अधिकार उसी कमेटी को होना चाहिए, जिस पर पक्ष और विपक्ष, सबको भरोसा हो। इसमें शक नहीं है कि सामाजिक मीडिया जहां सारे विश्व के लोगों के लिए बहुत उपयोगी सिद्ध हुआ है, वहीं उसके निरंकुश संदेशों ने बड़े-बड़े कोहराम भी मचाए हैं। आजकल भारत में चल रहा पैगंबर-विवाद और हत्याकांड उसी के वजह से हुए हैं। जरूरी यह है कि समस्त इंटरनेट संदेशों और टीवी चैनलों पर कड़ी निगरानी रखी जाए ताकि लक्ष्मण-रेखा का उल्लंघन कोई भी नहीं कर सके।

सामाजिक मीडिया और टीवी चैनलों पर चलने वाले अमर्यादित संदेशों की वजह से आज भारत जितना परेशान है, उससे कहीं ज्यादा यूरोप उद्वेलित है। इसीलिए यूरोपीय संघ की संसद ने कल ही दो ऐसे कानून पारित किए हैं, जिनके तहत गूगल, एमेजान, एप्पल, फेसबुक और माइक्रोसॉफ्ट जैसे कंपनियां यदि अपने मंचों से मर्यादा भंग करें तो उनकी कुल सालाना आय की 10 प्रतिशत राशि तक का जुर्माना उन पर ठोका जा सकता है। यूरोपीय संघ के कानून उन सब उल्लंघनों पर लागू होंगे, जो धर्म, रंग, जाति और राजनीति आदि को लेकर होते हैं। भारत सरकार को भी चाहिए कि वह इससे भी सख्त कानून बनाए लेकिन उसे लागू करने की व्यवस्था ठीक से करे।

 

-डॉ. वेदप्रताप वैदिक

वैसे भाजपा रही हो या केंद्र की कांग्रेस की मजबूत सरकार, कभी ये प्रयास नहीं हुआ कि चुनाव सर्वसम्मत हो। कभी प्रयास नहीं हुआ कि इस चुनाव में विपक्ष को भी विश्वास में लिया जाए। इसी का परिणाम यह है कि आज तक राष्ट्रपति का निर्वाचन सर्व सम्मत नहीं हुआ।

देश के सांसद और विधायक 18 जुलाई को देश के 15वें राष्ट्रपति पद के लिए प्रत्याशी का चुनाव करेंगे। वोटों की गिनती 21 जुलाई को होगी। नया राष्ट्रपति 25 जुलाई तक राष्ट्रपति भवन में होगा। सत्ता पक्ष के प्रत्याशी के सामने विपक्ष का उम्मीदवार होने के कारण मतदान होगा। राष्ट्र के सबसे बड़े पद के लिए निर्विरोध चुनाव कराने की कोशिश क्यों नहीं होती? क्यों केंद्र की सत्ताधारी पार्टी राष्ट्रपति के निर्विरोध चयन का प्रयास नहीं करतीॽ

 

 

भारत में राष्ट्रपति पद के लिए पांच साल में चुनाव होता है। डॉ. राजेंद्र प्रसाद ही अकेले ऐसे व्यक्ति रहे, जिन्हें दो बार राष्ट्रपति रहने का सौभाग्य मिला। प्रतिभा पाटिल को देश की पहली महिला राष्ट्रपति चुने जाने का गौरव प्राप्त है। भाजपा के नेतृत्व वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन ने राष्ट्रपति उम्मीदवार के लिए गठबंधन के सहयोगी दलों के साथ व्यापक विचार विमर्श किया। उसके बाद पूर्व राज्यपाल द्रौपदी मुर्मू को राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनाना तय हुआ।

पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी इस प्रयास में रहीं कि चुनाव में विपक्ष का एक उम्मीदवार हो। कई नाम आए। जिनके नाम आए, उनके द्वारा मना करने के बाद यशवंत सिन्हा विपक्ष के उम्मीदवार बनने को तैयार हो गए। उनकी सहमति पर गठबंधन में शामिल दलों ने उनकी उम्मीदवारी पर मुहर लगा दी। हालांकि इस गठबंधन में शामिल एक−दो दलों ने भी भाजपा नेतृत्व वाले गठबंधन के प्रत्याशी को वोट देने की घोषणा की। बसपा सुप्रीमो मायावती ने भी भाजपा गठबंधन प्रत्याशी को समर्थन की घोषणा की। वह विपक्ष द्वारा बनाए गठबंधन में शामिल नहीं रहीं। इससे पहले शरद पवार और फारूक अब्दुल्ला ने खुद को विपक्ष के राष्ट्रपति पद के संभावित उम्मीदवारों की सूची से बाहर कर लिया था।

 

इस चुनाव की खास बात यह है कि यदि विपक्ष एकजुट हो जाए तो केंद्र के सत्तारुढ़ भाजपा गठबंधन का प्रत्याशी विजयी नहीं हो सकता, किंतु अपने-अपने स्वार्थ और हित के कारण यह एकजुट नहीं है। वैसे भाजपा रही हो या केंद्र की कांग्रेस की मजबूत सरकार, कभी ये प्रयास नहीं हुआ कि चुनाव सर्वसम्मत हो। कभी प्रयास नहीं हुआ कि इस चुनाव में विपक्ष को भी विश्वास में लिया जाए। इसी का परिणाम यह है कि आज तक राष्ट्रपति का निर्वाचन सर्व सम्मत नहीं हुआ। नीलम संजीव रेड्डी निर्विरोध राष्ट्रपति बने पर तकनीकि कारणों से। उनके सामने खड़े सभी प्रत्याशियो के नामांकन चुनाव अधिकारी द्वा निरस्त कर दिए गए थे। इसके बाद वह निर्विरोध चुने गए।

आज भी केंद्र की सरकार और विपक्ष में अच्छे संबध नहीं हैं। फिर भी प्रयास तो होना ही चाहिए था। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी स्वयं अपने स्तर से प्रयास करते तो ज्यादा बेहतर रहता। हालांकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कई बार महत्वपूर्ण मुद्दों पर विपक्ष के साथ मीटिंग की। चीन से तनातनी का मामला हो या कोरोना महामारी से बचाव का, इसमें राहुल गांधी और पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी का रवैया  सहयोगात्मक नहीं रहा। विपक्ष के कई नेताओं ने प्रधानमंत्री पर गैर जिम्मेदाराना टिप्पणी की। वे यह भी भूल गए कि प्रधानमंत्री किसी पार्टी का नहीं देश का होता है। प्रधानमंत्री को सबको सम्मान देना चाहिए।

होना यह चाहिए कि प्रतिस्पर्धा और विरोध तब तक होना चाहिए जब तक चुनाव होता है। चुनाव के बाद चुन कर आई सरकार को उसके कार्यकाल के पांच साल पूरे होने तक सहयोग करना चाहिए। उसकी जनविरोधी नीति की आलोचना होनी चाहिए। स्वस्थ आलोचना होनी चाहिए, जबकि अब विरोध के लिए केंद्र और प्रदेश की चुनी सरकार का विरोध हो रहा है।

 

सही मायने में एक तरह से विरोध सरकार का नहीं मतदाता का है, जिसने सरकार बनाई। अपमान भी सरकार बनाने वाले मतदाता का है। चौधरी अजित सिंह मंच से ही कहा करते थे, राजनीति में न कोई किसी का स्थायी दुशमन होता है, न ही दोस्त। समय के साथ गठबंधन बनते और टूटते रहते हैं। इसलिए नाराजगी भी ऐसी ही होनी चाहिए। बुजुर्ग कहते आए हैं कि दुश्मनी ऐसी करो कि कभी आमने−सामने बैठना पड़े तो अपने पहले कहे पर शर्मिंदगी न उठानी पड़े। ये बात आज के राजनेता नहीं समझते। जनता की भी याद्दाश्त कमजोर है। वह नेताओं की कही बातें, अपनमानजनक टिप्पणी को याद नहीं रखती।

 

-अशोक मधुप

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

‘दुर्घटना’ एक ऐसा शब्द है जिसे पढ़ते ही कुछ दृश्य आंखों के सामने आ जाते हैं, जो भयावह होते हैं, त्रासद होते हैं, डरावने होते हैं, खूनी होते हैं। खूनी सड़कों में सबसे शीर्ष पर है यमुना एक्सप्रेस-वे। इस पर होने वाले जानलेवा सड़क हादसे कब थमेंगे?

भारत का सड़क यातायात तमाम विकास की उपलब्धियों एवं प्रयत्नों के बावजूद असुरक्षित एवं जानलेवा बना हुआ है। खूनी एवं हादसे को निमंत्रित करती सड़कें नित-नयी त्रासदियों की गवाह बन रही हैं। दुनिया की जानी-मानी पत्रिका ‘द लांसेट’ में इस मसले पर केंद्रित एक अध्ययन में बताया गया है कि भारत में सड़क सुरक्षा के उपायों में सुधार लाकर हर साल तीस हजार से ज्यादा लोगों की जिंदगी बचाई जा सकती है। अध्ययन के मुताबिक, खूनी सड़कों एवं त्रासद दुर्घटनाओं के मुख्य कारण हैं- वाहनों की बेलगाम या तेज रफ्तार, शराब पीकर गाड़ी चलाना, हेलमेट नहीं पहनना और सीट बेल्ट का इस्तेमाल नहीं करना। भले ही हर सड़क दुर्घटना को केन्द्र एवं राज्य सरकारें दुर्भाग्यपूर्ण बताती हैं, उस पर दुख व्यक्त करती हैं, मुआवजे का ऐलान भी करती हैं लेकिन बड़ा प्रश्न है कि एक्सीडेंट रोकने के गंभीर उपाय अब तक क्यों नहीं किए जा सके हैं? जो भी हो, सवाल यह भी है कि इस तरह की तेज रफ्तार सड़कों पर लोगों की जिंदगी कब तक इतनी सस्ती बनी रहेगी? सच्चाई यह भी है कि पूरे देश में सड़क परिवहन भारी अराजकता का शिकार है। सबसे भ्रष्ट विभागों में परिवहन विभाग शुमार है।

 केंद्रीय सड़क परिवहन एवं राजमार्ग मंत्री नितिन गडकरी की ओर से दी गई यह जानकारी हतप्रभ करने वाली है कि देश में प्रतिदिन करीब 415 लोग सड़क दुर्घटनाओं में जान गंवाते हैं। कोई भी अनुमान लगा सकता है कि एक वर्ष में यह संख्या कहां तक पहुंच जाती होगी? इसका कोई मतलब नहीं कि प्रति वर्ष लगभग डेढ़ लाख लोग सड़क हादसों में जान से हाथ धो बैठें। इन त्रासद आंकड़ों ने एक बार फिर यह सोचने को मजबूर कर दिया कि आधुनिक और बेहतरीन सुविधा की सड़कें केवल रफ्तार एवं सुविधा के लिहाज से जरूरी हैं या फिर उन पर सफर का सुरक्षित होना पहले सुनिश्चित किया जाना चाहिए।

‘द लांसेट’ के अध्ययन में यह तथ्य भी उभर कर सामने आया कि सड़कों पर वाहनों की गति की जांच और लगाम लगाने के लिए जरूरी कदम उठाने से भारत में बीस हजार से ज्यादा लोगों की जान बच सकती है। वहीं केवल हेलमेट पहनने को लोग अपने लिए अनिवार्य मानने लगें और यातायात महकमे की ओर से इस नियम का पालन सुनिश्चित किया जाए तो इससे पांच हजार छह सौ तिरासी जिंदगी बचाई जा सकती हैं। इसी तरह, वाहनों में बैठ कर सफर करने वाले लोगों के बीच सीट बेल्ट के इस्तेमाल को बढ़ावा देकर तीन हजार से अधिक लोगों को मरने से बचाया जा सकता है। इसके अलावा, शराब पीकर वाहन चलाने की वजह से सड़क हादसों की कैसी तस्वीर बनती है, यह किसी से छिपा नहीं है।

 

विचारणीय तथ्य है कि हर साल दुनिया भर में सड़क हादसों में साढ़े तेरह लाख से ज्यादा लोगों की जान चली जाती है। इसमें से करीब नब्बे फीसद मौतें कम और मध्यम आय वाले देशों में होती हैं। अगर सड़क सुरक्षा के कुछ उपायों को ही ठीक से प्रयोग में लाया जा सके, तो मरने वाले कुल लोगों में से लगभग चालीस फीसद तक लोगों को मरने से बचाया जा सकता है। ‘दुर्घटना’ एक ऐसा शब्द है जिसे पढ़ते ही कुछ दृश्य आंखों के सामने आ जाते हैं, जो भयावह होते हैं, त्रासद होते हैं, डरावने होते हैं, खूनी होते हैं। खूनी सड़कों में सबसे शीर्ष पर है यमुना एक्सप्रेस-वे। इस पर होने वाले जानलेवा सड़क हादसे कब थमेंगे? यह प्रश्न इसलिए, क्योंकि इस पर होने वाली दुर्घटनाओं और उनमें मरने एवं घायल होने वालों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है। यही नहीं, देश की अन्य सड़कें इसी तरह इंसानों को निगल रही हैं, मौत का ग्रास बना रही हैं। इनकी अनदेखी नहीं की जा सकती। सड़क दुर्घटनाओं में लोगों की मौत यही बताती है कि अपने देश की सड़कें कितनी अधिक जोखिम भरी हो गई हैं। बड़ा प्रश्न है कि फिर मार्ग दुर्घटनाओं को रोकने के उपाय क्यों नहीं किए जा रहे हैं? सच यह है कि बेलगाम वाहनों की वजह से सड़कें अब पूरी तरह असुरक्षित हो चुकी हैं। सड़क पर तेज गति से चलते वाहन एक तरह से हत्या के हथियार होते जा रहे हैं वहीं सुविधा की सड़कें खूनी मौतों की त्रासद गवाही बनती जा रही हैं।

सड़क परिवहन एवं राजमार्ग मंत्रालय लोगों के सहयोग से वर्ष 2025 तक सड़क हादसों में 50 प्रतिशत की कमी लाना चाहता है, लेकिन यह काम तभी संभव है जब मार्ग दुर्घटनाओं के मूल कारणों का निवारण करने के लिए ठोस कदम भी उठाए जाएंगे। कुशल ड्राइवरों की कमी को देखते हुए ग्रामीण एवं पिछड़े इलाकों में ड्राइवर ट्रेनिंग स्कूल खोलने की तैयारी सही दिशा में उठाया गया कदम है, लेकिन इसके अलावा भी बहुत कुछ करना होगा। हमारी ट्रैफिक पुलिस एवं उनकी जिम्मेदारियों से जुड़ी एक बड़ी विडम्बना है कि कोई भी ट्रैफिक पुलिस अधिकारी चालान काटने का काम तो बड़ा लगन एवं तन्मयता से करता है, उससे भी अधिक रिश्वत लेने का काम पूरी जिम्मेदारी से करता है। प्रधानमंत्रीजी के तमाम भ्रष्टाचार एवं रिश्वत विरोधी बयानों एवं संकल्पों के यह विभाग धड़ल्ले से रिश्वत वसूली करता है, लेकिन किसी भी अधिकारी ने यातायात के नियमों का उल्लघंन करने वालों को कोई प्रशिक्षण या सीख दी हो, ऐसा नजर नहीं आता। यह स्थिति दुर्घटनाओं के बढ़ने का सबसे बड़ा कारण है।

 

जरूरत है सड़कों के किनारे अतिक्रमण को दूर करने की, आवारा पशुओं के प्रवेश एवं बेधड़क घूमने को भी रोकने की। ये दोनों ही स्थितियां सड़क हादसों का कारण बनती हैं। यह भी समझने की जरूरत है कि सड़क किनारे बसे गांवों से होने वाला हर तरह का बेरोक-टोक आवागमन भी जोखिम बढ़ाने का काम करता है। इस स्थिति से हर कोई परिचित है, लेकिन ऐसे उपाय नहीं किए जा रहे, जिससे कम से कम राजमार्ग तो अतिक्रमण और बेतरतीब यातायात से बचे रहें। इसमें संदेह है कि उलटी दिशा में वाहन चलाने, लेन की परवाह न करने और मनचाहे तरीके से ओवरटेक करने जैसी समस्याओं का समाधान केवल सड़क जागरूकता अभियान चलाकर किया जा सकता है। इन समस्याओं का समाधान तो तब होगा जब सुगम यातायात के लिए चौकसी बढ़ाई जाएगी और लापरवाही का परिचय देने अथवा जोखिम मोल लेने वालों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई की जाएगी, चालान काटना या नये-नये जुर्माने की व्यवस्था करने से सड़क दुर्घटनाएं रुकने वाली नहीं हैं। यह ठीक नहीं कि जानलेवा सड़क दुर्घटनाओं का सिलसिला कायम रहने के बाद भी राजमार्गों पर सीसीटीवी और पुलिस की प्रभावी उपस्थिति नहीं दिखती।

 

यह गंभीर चिंता का विषय है कि सड़कों पर बेलगाम गाड़ी चलाना कुछ लोगों के लिए मौज-मस्ती एवं फैशन का मामला होता है लेकिन यह कैसी मौज-मस्ती या फैशन है जो कई जिन्दगियां तबाह कर देती है। ऐसी दुर्घटनाओं को लेकर आम आदमी में संवेदनहीनता की काली छाया का पसरना त्रासद है और इससे भी बड़ी त्रासदी सरकार की आंखों पर काली पट्टी का बंधना है। हर स्थिति में मनुष्य जीवन ही दांव पर लग रहा है। इन बढ़ती दुर्घटनाओं की नृशंस चुनौतियों का क्या अंत है? 

 

परिवहन नियमों का सख्ती से पालन जरूरी है, केवल चालान काटना समस्या का समाधान नहीं है। देश में 30 प्रतिशत ड्राइविंग लाइसेंस फर्जी हैं। परिवहन क्षेत्र में भारी भ्रष्टाचार है लिहाजा बसों का ढंग से मेनटेनेंस भी नहीं होता। इनमें बैठने वालों की जिंदगी दांव पर लगी होती है। देश भर में बसों के रख-रखाव, उनके परिचालन, ड्राइवरों की योग्यता और अन्य मामलों में एक-समान मानक लागू करने की जरूरत है, तभी देश के नागरिक एक राज्य से दूसरे राज्य में निश्चिंत होकर यात्रा कर सकेंगे। तेज रफ्तार से वाहन दौड़ाने वाले लोग सड़क के किनारे लगे बोर्ड पर लिखे वाक्य ‘दुर्घटना से देर भली’ पढ़ते जरूर हैं, किन्तु देर उन्हें मान्य नहीं है, दुर्घटना भले ही हो जाए।

 

-ललित गर्ग

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व स्तम्भकार हैं

उत्तर प्रदेश के लोकसभा उपचुनाव परिणाम ने अब यह स्पष्ट कर दिया है कि राज्य में भाजपा के बाद समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी का ही जनाधार है, जिन्होंने कांग्रेस को राजनैतिक हाशिये पर धकेल कर अपनी अपनी स्थिति मजबूत कर ली है।किसी भी चुनाव, उपचुनाव के कुछ सियासी मायने होते हैं जो न केवल समसामयिक राजनीति को प्रभावित करते हैं, बल्कि दीर्घकालिक राजनीति पर भी अपना गहरा असर डालते हैं। अमूमन, कोई दल या नेतृत्व इन चुनावों-उपचुनावों से सबक सीखते सीखते अपना जनाधार बढ़ा लेते हैं, वहीं कुछ रूढ़िवादी दल या नेता इन चुनावों से मिले संदेशों की उपेक्षा करते करते खुद ब खुद सियासी हाशिये पर पहुंच जाते हैं।

उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ और रामपुर लोकसभा सीट पर हाल में हुए उपचुनाव के जो परिणाम आये हैं, वह भी इसी बात के संकेत हैं। ये चुनाव चौंकाने वाले जरूर हैं, लेकिन सूबाई सियासत का ऊंट अब किस करवट बैठने की जुगत बिठा रहा है, इस बात की पुष्टि भी कर रहे हैं। शासन-प्रशासन की सख्त और पारदर्शी नीतियां अब उन लोगों को भी रास आने लगी हैं, जो लोग अब तक जाति, धर्म और क्षेत्र की सियासी खूंटे से बंधे समझे जाते थे, जिससे उत्तर प्रदेश पिछड़ा राज्य तक समझा गया। 

 

उत्तर प्रदेश के ताजा उपचुनाव परिणाम जहां भाजपा के हौसले बुलंद कर रहे हैं, वहीं सपा को अपनी राजनीतिक रणनीति पर फिर से सोच-विचार करने को मजबूर कर रहे हैं। वहीं बसपा को यह इशारा कर रहे हैं कि सपा को निपटाए बिना लखनऊ की गद्दी हासिल करना उसके लिए अब टेढ़ी खीर बन चुका है। वहीं, कांग्रेस समेत अन्य छुटभैये दलों को यह चुनाव परिणाम स्पष्ट नसीहत दे रहे हैं कि यूपी के मुसलमानों, दलितों, पिछड़ों का समर्थन हासिल करने के लिए उसे सपा या बसपा की शरण में ही जाना होगा।

 

 स्वभाव से शिष्ट पर विचार से दबंग मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने यूपी उपचुनाव के परिणाम पर प्रतिक्रिया देते हुए ठीक ही कहा है कि उपचुनाव में बीजेपी को मिली जीत से 2024 के लिए सकारात्मक संदेश जाएगा और राज्य की सभी 80 की 80 सीटें वो जीतेंगे। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की इस बात से इसलिए भी असहमत नहीं हुआ जा सकता है कि सपा नेता मुलायम सिंह यादव की खानदानी सीट आजमगढ़ लोकसभा क्षेत्र और सपा नेता आजम खान के वर्चस्व वाली सीट रामपुर लोकसभा क्षेत्र, यानी कि दोनों सीटें उन्होंने समाजवादी पार्टी से छीन ली हैं।

 

यह वही समाजवादी पार्टी है जिसने फरवरी 2022 में हुए विधानसभा चुनाव में अपना अच्छा प्रदर्शन करते हुए अपनी सीटों में आशातीत इजाफा ही नहीं किया, बल्कि बसपा के प्रदर्शन को सियासी रूप से बौना साबित करके खुद को बीजेपी के असली प्रतिद्वंद्वी के रूप में राज्य में स्थापित करने की कामयाब पहल की, ताकि अल्पसंख्यक मुस्लिम वोट उससे नहीं छिटके। 

 

हालांकि आजमगढ़ और रामपुर लोकसभा उपचुनाव के परिणाम इस बात की चुगली कर रहे हैं कि जहां आजमगढ़ में समाजवादी पार्टी के उम्मीदवार की हार की असली वजह बहुजन समाज पार्टी यानी बसपा के प्रत्याशी द्वारा अच्छा खासा वोट समेटा जाना है, वहीं रामपुर में बीएसपी उम्मीदवार नहीं होने से उसके वोटर बीजेपी के पक्ष में एकजुट हो गए। जिससे दोनों जगहों पर बीजेपी उम्मीदवारों की जीत आसान हो गई। 

 

आशय स्पष्ट है कि बिखरे विपक्ष का फायदा केंद्र व राज्य में सत्तारुढ़ पार्टी बीजेपी को मिल रहा है, जो आगे भी जारी रहेगा। इससे यूपी बीजेपी के हौसले बुलंद हैं। सियासत का सार्वभौमिक नियम है कि अपने लोगों को जोड़ते रहिये और विरोधियों को तोड़ते रहिये। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ अपने इस मिशन में अब तक इसलिए सफल हुए हैं, क्योंकि एक ओर उन्होंने जहाँ लोगों को पारदर्शी प्रशासन देने की कोशिश की है, वहीं दूसरी ओर सत्ता के समक्ष नंगा नृत्य करने वाली जमात को मौके पर ही तोड़ने का सफल प्रयास किया, जो लोगों को रास आ रहा है। 

 

एक सनातन संत होने के कारण उन्होंने वसुधैव कुटुम्बकम की नीतियों पर चलते हुए हिन्दू धर्म की प्रतिष्ठा को फिर से पुनर्स्थापित करने की अथक कोशिश की और साम, दाम, दंड, भेद की नीतियों को अपनाते हुए निष्कंटक राज कर रहे हैं, जिसको अपार जनसमर्थन भी मिल रहा है।

 

उत्तर प्रदेश के लोकसभा उपचुनाव परिणाम ने अब यह स्पष्ट कर दिया है कि राज्य में भाजपा के बाद सपा और बसपा का ही जनाधार है, जिन्होंने कांग्रेस को राजनैतिक हाशिये पर धकेल कर अपनी अपनी स्थिति मजबूत कर ली है। इसलिए सूबे में जब तक सपा और बसपा में राजनीतिक एकता नहीं स्थापित होगी, तब तक बीजेपी का भविष्य उज्ज्वल है। वहीं, बीजेपी ने भी दलित व पिछड़े नेताओं को आगे करके सपा-बसपा की लंका लगाना शुरू कर दिया है। उपचुनाव के दोनों विजयी प्रत्याशी भी पिछड़ा वर्ग से ही आते हैं।

 

देखा जाए तो बीजेपी का पार्टी विद डिफरेंस होना, भय-भूख-भ्रष्टाचार से सीधे पंगा लेना, राष्ट्रवाद और हिंदुत्व को निरन्तर मजबूत करते जाना, सामूहिक हित और जनहितैषी नेताओं को बढ़ावा देना और प्रशासनिक गलियारों में दक्ष एवं सुशील अधिकारियों को बढ़ावा देना आदि कुछ ऐसी सटीक सियासी पहल हैं जो बिखरे या एकजुट विपक्ष को भी मात देने की क्षमता रखती है। 

 

बीजेपी की नीतियों के प्रति समाज के सभी वर्गों में संतोष का भाव है, क्योंकि विपरीत वैश्विक और राष्ट्रीय परिस्थितियों में भी मोदी-योगी सरकार अपना बेस्ट देने के प्रति तत्पर है। यही कारण है कि योगी के हौसले बुलंद हैं और पीएम मोदी भी इस बात के प्रति आश्वस्त हैं कि जिस सशक्त व समृद्ध भारत का सपना उन्होंने देखा है, वह उनके बाद भी जारी रहेगा। क्योंकि 'मोदी हैं तो मुमकिन है' के सियासी नारे की जगह अब 'योगी हैं तो यकीन कीजिए' वाला जनविश्वास चुनाव दर चुनाव जनमानस में गहराता जा रहा है।

 

यह उपचुनाव परिणाम बसपा के लिए भी खास मायने रखते हैं। आजमगढ़ लोकसभा सीट पर बसपा के मुस्लिम प्रत्याशी ने जितने वोट बटोरे हैं, वह सपा के लिए हार और बीजेपी के लिए अप्रत्याशित जीत के सबब बन गए। ऐसे में सपा नेता अखिलेश यादव की समझदारी इसी बात में है कि अब वह मुंहबोली बुआ यानी बसपा सुप्रीमो सुश्री मायावती की शरण में जाएं और उनके साथ मिलकर बीजेपी को चुनावी शिकस्त दें।

 

यदि अखिलेश यादव बसपा के साथ दोस्ताना रिश्ते रखने में विफल होते हैं तो मुसलमानों को चाहिए कि वो एक बार पूरे राज्य में बसपा को अपना समर्थन उसी प्रकार दें, जैसा कि उन्होंने फरवरी 2022 के यूपी विधानसभा चुनाव में सपा को दिया था। क्योंकि यदि वह बसपा को मजबूत नहीं करेंगे, तो वे बीजेपी को उत्तर प्रदेश से बेदखल नहीं कर पाएंगे। चूंकि पिछड़ों का एक बड़ा तबका बीजेपी के साथ है, इसलिए सपा का पिछड़ा जनाधार खिसक चुका है। इसलिए मुस्लिम गोलबंदी के बावजूद अखिलेश यादव गत विधानसभा चुनाव में यूपी की सत्ता हासिल करते करते रह गए।

 

वहीं, मुस्लिम यदि बसपा के साथ जाते हैं और दलित वोट उसके साथ जुड़ जाते हैं तो बीजेपी के लिए यह स्थिति सुकूनदायक नहीं होगी। यूपी का राजनीतिक इतिहास इस बात का गवाह है कि बसपा-बीजेपी की दोस्ती कभी परदे के पीछे से तो कभी मंच पर सामने से भी कामयाब रही है। इसलिए बसपा को चाहिए कि वह बीजेपी से सम्मानजनक बातचीत करे, वहीं भाजपा को चाहिए कि वह बसपा के सियासी हितों के प्रति सॉफ्ट कॉर्नर रखे, ताकि उसका जनाधार वक्त आने पर बीजेपी से चिपकने में असहज महसूस नहीं करे। ऐसा करके ही वह राष्ट्रवाद और हिंदुत्व को और मजबूती प्रदान कर सकती है, अन्यथा नहीं। 

 

हालांकि बीजेपी की जो रणनीति है, उससे कांग्रेस की तरह सपा और बसपा भी अपने समर्थक वर्ग में ही अलोकप्रिय हो जाएंगी और उसके समर्थक 'सबका साथ, सबका विकास, सबका विश्वास' जैसे लोकलुभावन नारे पर लहालोट होकर बीजेपी के हिंदुत्व और राष्ट्रवाद की भावना से जुड़ते चले जायेंगे।

 

-कमलेश पांडेय

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व स्तम्भकार हैं)

कोई पार्टी मां-बेटा पार्टी है तो कोई बाप-बेटा पार्टी है। कोई चाचा-भतीजा पार्टी है तो कोई बुआ-भतीजा पार्टी है। बिहार में तो पति-पत्नी पार्टी भी रही है। अब जैसे कांग्रेस भाई-बहन पार्टी बनती जा रही है, वैसे ही पाकिस्तान में भाई-भाई पार्टी, पति-पत्नी पार्टी और बाप-बेटा पार्टी है।

कोई पार्टी मां-बेटा पार्टी है तो कोई बाप-बेटा पार्टी है। कोई चाचा-भतीजा पार्टी है तो कोई बुआ-भतीजा पार्टी है। बिहार में तो पति-पत्नी पार्टी भी रही है। अब जैसे कांग्रेस भाई-बहन पार्टी बनती जा रही है, वैसे ही पाकिस्तान में भाई-भाई पार्टी, पति-पत्नी पार्टी और बाप-बेटा पार्टी है। ये सब पार्टियां अब पार्टियां रहने की बजाय प्राइवेट लिमिटेड कंपनियां बनती जा रही हैं। न तो इनमें आंतरिक लोकतंत्र होता है, न इनमें आमदनी और खर्च का कोई हिसाब होता है और न ही इनकी कोई विचारधारा होती है। इनका एकमात्र लक्ष्य होता है— सत्ता-प्राप्ति! 

 

यदि सेवा से सत्ता मिले और सत्ता से सेवा की जाए तो उसका कोई मुकाबला नहीं लेकिन अब तो सारा खेल सत्ता और पत्ता में सिमट कर रह गया है। सत्ता हथियाओ ताकि नोटों के पत्ते बरसने लगें। सत्ता से पत्ता और पत्ता से सत्ता— यही हमारे लोकतंत्र की पहचान बन गई है। राजनीति में भ्रष्टाचार ही शिष्टाचार बन गया है। हमारी राजनीति में आदर्श और विचारधारा अब अंतिम सांसें गिन रही हैं। भारतीय राजनीति के शुद्धिकरण के लिए यह जरूरी है कि सभी पार्टियों में परिवारवाद पर रोक लगाने की कुछ संवैधानिक तजवीज की जाए।

 

महाराष्ट्र की राजनीति का दूसरा सबक यह है कि परिवारवाद उसके नेता को अहंकारी बना देता है। वह अपने पद को अपने बाप की जागीर समझने लगता है। एक बार उस पर बैठ गया तो जिंदगी भर के लिए जम गया। पार्टी में नेता जो तानाशाही चलाता है, उसे वह सरकार में भी चलाना चाहता है। कभी-कभी ऐसे लोग सरकारों को बहुत प्रभावशाली और नाटकीय ढंग से चलाते हुए दिखाई पड़ते हैं लेकिन जब पाप का घड़ा फूटने को होता है तो उस वक्त आपातकाल थोपना पड़ता है। यदि भारत को हमें लोकतांत्रिक राष्ट्र बनाए रखना है और उसे आपातकालों से बचाना है तो पार्टियों के आंतरिक लोकतंत्र की रक्षा के लिए कुछ संवैधानिक प्रावधान करने होंगे।

 

-डॉ. वेदप्रताप वैदिक 

महाराष्ट्र की राजनीति भारत के लिए कुछ महासबक दे रही है। सबसे पहला सबक तो यही है कि परिवारवाद की राजनीति पर जो पार्टी टिकी हुई है, वह खुद के लिए और भारतीय लोकतंत्र के लिए भी खतरा है। खुद के लिए वह खतरा है, यह उद्धव ठाकरे की शिवसेना ने सिद्ध कर दिया है। अब जो शिवसेना उद्धव ठाकरे के पास बची हुई है, वह कब तक बची रहेगी या बचेगी या नहीं बचेगी, कुछ पता नहीं। उसके दो टुकड़े पहले ही हो चुके थे जैसे लालू और मुलायम सिंह की पार्टियों के हुए हैं। ये पार्टियां परिवार के अलग-अलग खंभों पर टिकी होती हैं।

जॉन ली का विस्तार से आपको परिचय दें तो बता दें कि उन्हें जिस 1500 सदस्यीय चुनाव समिति ने नेता चुना है उसमें सारे चीन समर्थक लोग शामिल हैं। कमाल की बात देखिये कि जॉन ली इस चुनाव में एकमात्र उम्मीदवार थे।हांगकांग की कमान एक ऐसे नेता ने संभाल ली है जो लोकतंत्र का कट्टर विरोधी है, जो जनता की आवाज को दबाने में खुशी महसूस करता है, जो शी जिनपिंग का परम भक्त है, जो मानवाधिकारों का हनन करने की रेस में सबसे आगे रहने का पूरा प्रयास करता है। जी हाँ, हम बात कर रहे हैं जॉन ली की जिन्होंने हांगकांग के नये नेता के रूप में कमान संभाल ली है। लगभग ढाई साल बाद हांगकांग के दौरे पर आये शी जिनपिंग ने जॉन ली को शपथ दिलाई। कामकाज संभालते ही जॉन ली ने दमन का सिलसिला भी शुरू कर दिया है।
 

 

शी जिनपिंग के संबोधन की बड़ी बातें

वैसे जॉन ली के बारे में विस्तार से बात करने से पहले जरा नजर डालते हैं शी जिनपिंग के हांगकांग दौरे से जुड़ी बड़ी बातों पर। हम आपको बता दें कि पूरी दुनिया की नजर शी जिनपिंग के हांगकांग दौरे पर बनी हुई थी क्योंकि पूरी दुनिया जानती है कि हांगकांग की जनता किस प्रकार चीनी दमन की कार्रवाई झेल रही है। हालांकि अपने दौरे के दौरान चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने किसी भी प्रकार के दमन के आरोपों को तो खारिज किया ही साथ ही हांगकांग के लिए अपनी ‘‘एक देश, दो प्रणाली’’ नीति का बचाव भी किया। शी ने अमेरिका, ब्रिटेन और अन्य देशों के उन आरोपों को भी खारिज कर दिया, जिसमें दावा किया गया है कि चीन ने 'एक देश दो प्रणाली' नीति के जरिए 50 वर्ष के लिए हांगकांग को स्वतंत्रता एवं स्वायत्तता देने के वादे को कमजोर किया है।

 

हांगकांग में एक कार्यक्रम को संबोधित करते हुए शी जिनपिंग ने कहा, ''एक देश, दो प्रणाली’’ की नीति ने सार्वभौमिक रूप से सफलता प्राप्त की है। शी जिनपिंग का मानना है कि यह नीति हांगकांग को उसके स्वयं के कानून और अपनी सरकार बनाने का अधिकार देती है। शी ने कहा, ''इस तरह की सफल व्यवस्था को बदलने के लिए कोई वजह मौजूद नहीं है, बल्कि इसे लंबे समय तक कायम रखना चाहिए।’’ देखा जाये तो उनका यह बयान हांगकांग के लोगों को आश्वस्त करने का एक प्रयास प्रतीत होता है कि 50 वर्ष के बाद भी हांगकांग की स्वतंत्रता कायम रहेगी। शी ने जहां अपनी नीतियों को सही बताया वहीं दुनिया को आगाह करते हुए कहा कि हांगकांग के मामलों में विदेशी हस्तक्षेप बर्दाश्त नहीं किया जायेगा और देशद्रोहियों के प्रति कोई सहिष्णुता नहीं बरती जाएगी। उन्होंने कहा कि राष्ट्रीय संप्रभुता, सुरक्षा और विकास के हितों की रक्षा करना सर्वोच्च प्राथमिकता है। शी ने कहा, ''दुनिया का कोई भी देश या क्षेत्र विदेशी या देशद्रोही ताकतों को सत्ता पर कब्जा करने की अनुमति नहीं देगा।’’

 

हांगकांग में क्या-क्या बदला?

हम आपको बता दें कि हांगकांग को 'एक देश, दो प्रणाली' की व्यवस्था तब प्रदान की गयी थी, जब 1997 में ब्रिटेन ने वहां से उपनिवेश शासन की समाप्ति के उपरांत हांगकांग को वापस चीन के हवाले किया था। उल्लेखनीय है कि ब्रिटेन ने एक जुलाई, 1997 को हांगकांग को चीन को लौटा दिया था। हांगकांग को चीनी शासन को सौंपने की वर्षगांठ को चीन बड़ी धूमधाम से मनाता है। इस बार 25वीं वर्षगांठ के मौके पर शी जिनपिंग हांगकांग पहुँचे थे। कोरोना वायरस के प्रकोप के कारण करीब ढाई साल बाद शी हांगकांग की यात्रा पर आए थे। शी जिनपिंग इससे पहले इस खास दिन का जश्न मनाने एक जुलाई 2017 को हांगकांग आए थे। इस अवसर पर आयोजित ध्वजारोहण समारोह में शी जिनपिंग और शहर की निवर्तमान नेता कैरी लैम सहित कई अन्य लोगों ने शिरकत की थी। ध्वजारोहण समारोह तेज हवाओं के बीच आयोजित किया गया और चीन तथा हांगकांग के झंडे लाने वाले पुलिस अधिकारियों ने ब्रिटिश शैली में निकाले जाने वाले मार्च की जगह चीनी ‘गूज़-स्टेपिंग’ शैली में मार्च निकाला।

 

जहां तक हांगकांग में मानवाधिकारों की बात है तो हम आपको बता दें कि वहां मानवाधिकारों का लगातार हनन किया जाता है और लोकतंत्र समर्थकों को रौंदा जाता है और अब तो उस व्यक्ति को हांगकांग का नेता बना दिया गया है जिसने यहां के लोगों पर सर्वाधिक जुल्म ढाये हैं। इसके अलावा हांगकांग के बारे में यह भी जान लेना जरूरी है कि शी जिनपिंग के नेतृत्व में, चीन ने हांगकांग में विरोध प्रदर्शनों पर नकेल कसने और असंतोष को शांत करने के लिए सख्त राष्ट्रीय सुरक्षा कानून लागू करने, स्कूलों में ‘देशभक्ति’ संबंधी पाठ्यक्रम शुरू करने और चुनाव कानूनों में बदलाव करने समेत कई बदलाव किए हैं। 

 

कौन हैं जॉन ली?

जॉन ली का विस्तार से आपको परिचय दें तो बता दें कि उन्हें जिस 1500 सदस्यीय चुनाव समिति ने नेता चुना है उसमें सारे चीन समर्थक लोग शामिल हैं। कमाल की बात देखिये कि जॉन ली इस चुनाव में एकमात्र उम्मीदवार थे। अमूमन एकमात्र उम्मीदवार होने पर निर्विरोध निर्वाचन की घोषणा हो जाती है लेकिन अकेले उम्मीदवार जॉन ली के लिए वोट डलवाये गये ताकि दिखाया जा सके कि जॉन ली कितने वोटों से जीते हैं। जॉन ली, एक पूर्व सुरक्षा अधिकारी हैं। हांगकांग में 2019 के लोकतंत्र समर्थक प्रदर्शनों के बाद से असंतोष जताने वाली घटनाओं पर कार्रवाई उनकी निगरानी में ही की गई थी। जॉन ली ने शपथ ग्रहण करते हुए शहर के लघु-संविधान, मूल कानून को बनाए रखने और हांगकांग के प्रति निष्ठा रखने का संकल्प किया। उन्होंने चीन सरकार के प्रति जवाबदेह रहने का भी संकल्प किया।

 

हम आपको बता दें कि जॉन ली ने सिविल सेवा के अपने कॅरियर का ज्यादातर समय पुलिस व सुरक्षा ब्यूरो में बिताया है और वह वर्ष 2020 में हांगकांग पर लगाए गए राष्ट्रीय सुरक्षा कानून के कट्टर समर्थक हैं। इस सख्त कानून का उद्देश्य हांगकांग से असंतोष को पूरी तरह खत्म करना है। इसके अलावा जॉन ली चीन की कम्युनिस्ट पार्टी की सरकार और वहां के राष्ट्रपति शी जिनपिंग के भरोसेमंद नेताओं में गिने जाते हैं।

 

बहरहाल, शी जिनपिंग की हांगकांग नीति लगातार सफल हो रही है। हम आपको बता दें कि 2021 में हांगकांग के चुनावी कानूनों में बड़े बदलाव किए गए थे, ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि केवल चीन के प्रति वफादार देशभक्त को ही हांगकांग की कमान मिले। ऐसे में शी के वफादार जॉन ली अब जबकि हांगकांग के नये नेता के रूप में काबिज हो चुके हैं तो उनका एकमात्र काम होगा जनता की आवाज को दबा कर रखना।

 

-नीरज कुमार दुबे

यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने रामपुर व आजमगढ़ लोकसभा सीट पर हुए उपचुनाव में भाजपा प्रत्याशियों की जीत पर कहा कि यह डबल इंजन वाली सरकार की डबल जीत है। जोकि लोकसभा चुनाव 2024 के लिए एक संदेश है।

देश की तीन लोकसभा सीट पर उपचुनाव हुए। तीनों उपचुनाव के परिणाम बहुत कुछ कहते हैं। राजनीति की नई दिशा की ओर इशारा भी करते हैं। उत्तर प्रदेश में दो लोकसभा सीटों के लिए हुए उपचुनाव में भाजपा की जीत ने यह साबित कर दिया कि नुपूर शर्मा की विवादास्पद टिप्पणी हो या केंद्र सरकार की अग्निवीर योजना का विरोध, भाजपा के प्रति वोटर की दीवानगी पर कोई असर नहीं पड़ा। वह पूरी तरह भाजपा के साथ है। भाजपा ने रामपुर में पूर्व कैबिनेट मंत्री आजम खान के दबदबे और आजमगढ़ में मुलायम सिंह के परिवार के दबदबे वाली सीट पर जीत हासिल कर बता दिया कि उसकी पूरी तरह से आस्था प्रदेश की डबल इंजन वाली सरकार में है। जबकि पंजाब के संगरूर लोकसभा उपचुनाव के नतीजों में आम आदमी पार्टी को बड़ा झटका लगा है। यहां पर शिरोमणि अकाली दल (अमृतसर) के सिमरनजीत सिंह मान जीते हैं। सिमरनजीत सिंह मान ने आम आदमी पार्टी के गुरमेल सिंह को परास्त किया है।

उत्तर प्रदेश और पंजाब में विधान सभा चुनाव को अभी तीन माह ही हुए हैं। उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ के नेतृत्व वाली भाजपा ने पूर्ण बहुमत के साथ सरकार बनाई थी। इन तीन माह में भाजपा की प्रवक्ता  नुपूर शर्मा की पैगंबर मुहम्मद साहब के बारे में विवदास्पाद टिप्पणी का देश के साथ ही पूरे उत्तर प्रदेश में जमकर विरोध हुआ। कई जगह मुस्लिमों के प्रदर्शन के दौरान हिंसा भी हुई। केंद्र सरकार की सेना में भर्ती के लिए आई अग्निवीर योजना का भी प्रदेश में जगह−जगह जमकर विरोध हुआ। पैगंबर मुहम्मद साहब के बारे में टिप्प्णी से तो मुस्लिम ही नाराज थे। किंतु अग्निवीर योजना से तो प्रदेश के युवा नाराज थे। उनकी नाराजगी कई जगह प्रदेश में हिंसा और तोड़फोड़ के रूप में नजर आई। लगता था कि यह हाल का मामला है, अतः इसका चुनाव पर असर नजर आएगा। किंतु रामपुर और आजमगढ़ के मतदाताओं ने सभी अनुमानों का फेल कर दिया।

रामपुर मुस्लिम बहुल सीट है। 1952 से अब तक हुए लोकसभा के 17 चुनाव में  इस सीट से मुस्लिम प्रत्याशी ने 11 बार और हिंदू प्रत्याशी ने मात्र छह बार विजय हासिल की है। इस सीट पर पूर्व मंत्री रहे आजम खान का बड़ा प्रभाव माना जाता है। हाल के विधान सभा चुनाव में भी उन्होंने जीत दर्ज की थी। इस उपचुनाव में भाजपा ने घनश्याम लोधी को प्रत्याशी बनाया। घनश्याम एक समय आजम खां के करीबी थे। वह सपा से एमएलसी भी रह चुके हैं। 2022 विधानसभा चुनाव से ठीक पहले लोधी ने सपा का दामन छोड़कर भाजपा का दामन थाम लिया था। तब वह पार्टी से टिकट पाने की कोशिश में लगे थे, लेकिन नहीं मिल पाया। आजम खां के लोकसभा सीट छोड़ने पर उपचुनाव का ऐलान हुआ तो भाजपा ने घनश्याम लोधी को उम्मीदवार बना दिया। दूसरी तरफ सपा ने आजम खां के करीबी आसिम रजा को टिकट दिया। जेल से बाहर आने के बाद खुद आजम खां ने ही आसिम के नाम का ऐलान किया था, लेकिन इस चुनाव में घनश्याम लोधी ने 42 हजार मतों से जीत हासिल की।

 

आजमगढ़ लोकसभा सीट पूर्व मुख्यमंत्री और सपा नेता अखिलेश यादव की परम्परागत सीट बताई जाती रही है। 2019 के चुनाव में अखिलेश यादव को 64.04 प्रतिशत मत मिल पाए थे। जबकि इस बार के विजेता और 2019 चुनाव के भाजपा प्रत्याशी दिनेश लाल यादव निरहुआ को मात्र 35 प्रतिशत वोट मिले थे। पिछले लोकसभा चुनाव में अखिलेश यादव का मत 24 प्रतिशत बढ़ा था। इससे पहले इस सीट से  मुलायम सिंह यादव चुनाव जीते थे।

 

यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने रामपुर व आजमगढ़ लोकसभा सीट पर हुए उपचुनाव में भाजपा प्रत्याशियों की जीत पर कहा कि यह डबल इंजन वाली सरकार की डबल जीत है। जोकि लोकसभा चुनाव 2024 के लिए एक संदेश है। उन्होंने कहा कि पहले विधानसभा चुनाव में दो तिहाई बहुमत, विधान परिषद चुनाव और अब उपचुनाव में जीत डबल इंजन की सरकार के सुशासन पर जनता की मुहर है। उन्होंने यह भी कहा कि चुनाव परिणाम बताता है कि जनता परिवारवादी और सांप्रदायिक दलों और नेताओं को स्वीकार करने वाली नहीं है। जनता भाजपा के 'सबका साथ सबका विकास' के नारे के साथ है। उन्होंने कहा कि इन चुनाव परिणाम से यह स्पष्ट है कि भाजपा 2024 में यूपी की 80 में से 80 लोकसभा सीटों पर जीत की ओर बढ़ रही है।

पंजाब के संगरूर इलाके के जरिए राष्ट्रीय राजनीति में खुद को स्थापित करने के सपने पाल रही आम आदमी पार्टी के लिए अपने ही गढ़ के लोकसभा उपचुनाव में मिली हार किसी बड़े झटके से कम नहीं है। तीन माह पहले इसी आम आदमी पार्टी ने पंजाब विधानसभा चुनाव के दौरान इतिहास रचा था और सभी नौ विधानसभा सीटें साठ फीसदी से ज्यादा वोट हासिल करके जीतीं थीं। एक ही झटके में आप की सियासी पकड़ ढीली पड़ गई और आप का सियासी किला ध्वस्त हो गया। मुख्यमंत्री भगवंत मान अपने गृह इलाके को आप की सियासी राजधानी बताते हैं। ऐसे में सिमरनजीत सिंह के संगरूर का नया ‘मान' बनने के साथ आप के हाथ से राजधानी निकल गई है। उनके गृह क्षेत्र के लोगों ने इस फैसले के साथ आप सरकार की तीन माह की कारगुजारी को कटघरे में खड़ा कर दिया है। पंजाब की यह हार वहां की आप सरकार की घटती लोकप्रियता को जाहिर करती है। आम आदमी पार्टी को अपना वर्चस्व बनाए रखने के लिए अपने नजरिए और कार्यक्रम पर फिर से विचार करना होगा।

 

उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ भले ही कहें कि ये चुनाव 2024 के लोकसभा चुनाव के लिए भविष्यवाणी है किंतु आगामी लोकसभा चुनाव में अभी समय है। चुनाव एक दिन में बदलता है, ऐसे में अभी से आगामी चुनाव की भविष्यवाणी करना ठीक नहीं। किंतु तीन माह में पंजाब में आप की हार जरूर पार्टी के लिए चिंता पैदा करेगी।

 

-अशोक मधुप

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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