ईश्वर दुबे
संपादक - न्यूज़ क्रिएशन
+91 98278-13148
newscreation2017@gmail.com
Shop No f188 first floor akash ganga press complex
Bhilai
भारतीय मुसलमानों को लेकर घड़ियाली आंसू बहाने और अभी हाल में पैगंबर मोहम्मद साहब को लेकर की गईं टिप्पणियों के बहाने आसमान सिर पर उठाने तथा इस्लामी जगत को भारत के खिलाफ उकसाने वाला पाकिस्तान अपने यहां अल्पसंख्यकों का किस प्रकार दमन, दोहन, उत्पीड़न कर रहा है, इसका ताजा प्रमाण है कराची में एक मंदिर में किया गया हमला। इस हमले के दौरान न केवल प्रतिमाओं को तोड़ा गया, बल्कि लूटपाट-मारपीट भी की गई। पड़ोसी देश में हिन्दू अल्पसंख्यकों के उत्पीड़न की यह एक और त्रासद एवं विडम्बनापूर्ण घटना है। इस घटना में सबसे पहले कुछ मोटरसाइकिलों पर दर्जन भर लोग आए और मंदिर पर हमला कर दिया, बाद में और लोग आए तथा हमलावर भीड़ में तब्दील हो गए। हमलावर हिंदुओं के खिलाफ नारेबाजी कर रहे थे। इस घटनाक्रम से कराची के हिंदू समुदाय में काफी दहशत एवं असुरक्षा है। ऐसी अमानवीय एवं त्रासद घटनाओं का विरोध केवल भारत में ही नहीं, दुनिया में होना चाहिए।
इन दिनों पाकिस्तान पूर्व बीजेपी नेता नूपुर शर्मा के बयानों पर भारत को ज्ञान दे रहा है लेकिन उसके अपने मुल्क में हिंदू और सिख जैसे अल्पसंख्यकों और उनके पूजा-स्थलों की स्थिति बेहद दयनीय है। पिछले बाइस महीनों में कराची में मन्दिर पर यह दसवां हमला है। उससे पहले भी पाकिस्तान में हिंदू मंदिरों पर भीड़ हमला करती रही है और वहां की सरकारें चुप्पी साधे रही हैं। अक्सर हिंदू मंदिर व हिंदू जनमानस कट्टरवादी एवं उन्मादी उपद्रवियों के हमले का शिकार होते रहते हैं। पाकिस्तान सरकार इन पर नियंत्रण की बात तो करती है किन्तु हिंदुओं के हमलावरों पर नियंत्रण कर पाने में सफल नहीं हो पाती। इससे लगता है कि सरकार की कथनी और करनी में फासला है एवं वह पूर्वाग्रहों एवं आग्रहों से ग्रस्त है। आज पाकिस्तान एवं अन्य कट्टरवादी मुस्लिम राष्ट्रों में सचमुच इसकी महती आवश्यकता है कि इस्लाम को मानने वाले शांति-पसन्द लोग आगे आएं और खुलकर कहें कि सभी रास्ते एक ही ईश्वर की ओर जाते हैं, अपने-अपने विश्वासों के साथ जीने की सबको आज़ादी है और अल्लाह के नाम पर किया जाने वाला खून-ख़राबा अधार्मिक है, अमानवीय है एवं अपवित्र है।
अब समय आ गया है कि इसका सही-सही मूल्यांकन हो कि इन कट्टरपंथी ताक़तों की जड़ में कौन-सी विचारधारा या मानसिकता काम कर रही है। वह कौन-सी विचारधारा है जो नन्हीं हिन्दू बच्चियों का अपहरण कर उन्हें मुस्लिम बनाने को अल्लाह की इच्छा करार देती है? वह कौन-सी विचारधारा है जो विद्यालयों-पुस्तकालयों-प्रार्थनाघरों-मन्दिरों पर हमला करने में बहादुरी देखती है और हज़ारों निर्दोषों का ख़ून बहाने वालों पर गर्व करती है? वह कौन-सी विचारधारा है जो दूर देश में हुए किसी घटना-निर्णय के विरोध में अपने देश के अल्पसंख्यकों के घर जलाने, उन पर हिंसक हमले करने में सुख या संतोष पाती हैं? अल्पसंख्यकों के खिलाफ भेदभाव किया जाता है, उनके मंदिरों पर हमले केवल कट्टरपंथी मुस्लिम ही नहीं करते बल्कि आम लोग भी करते हैं। पिछले कुछ सालों में ये हमले कई गुना बढ़ गए हैं। यह हमला मानसिकता को पनपाने में सरकार की महत्वपूर्ण भूमिका है।
पाकिस्तान में हिन्दुओं को तरह-तरह से उत्पीड़ित किया जाता है। अल्पसंख्यकों और विशेष रूप से हिंदू लड़कियों का अपहरण कर उन्हें पहले जबरन मुसलमान बनाया जाता है और फिर छल-बल का सहारा लेकर उनके अपहर्ता से ही उनका निकाह करा दिया जाता है। इसमें पुलिस, प्रशासन से लेकर अदालतें तक उन तत्वों का सहयोग करने को तत्पर रहती हैं, जो इन लड़कियों का अपहरण करते हैं। ऐसे मामलों में पाकिस्तान सरकार या तो चुप रहना पसंद करती है या फिर ऐसे जबरिया निकाह को कट्टरपंथी मुल्लाओं की तरह अल्लाह की मर्जी बताकर कर्तव्य की इतिश्री कर लेती है। पाकिस्तान में सरकार मंदिरों पर कोई खास ध्यान नहीं दे रही है। कई पुराने मंदिर या तो नष्ट कर दिए गए हैं, या फिर उनकी हालत बहुत बुरी है। यही हाल अन्य अल्पसंख्यकों का भी है। उदारवादी पत्रकार पीरजादा सलमान जैसे लोगों का मानना है कि लोग यह बात नहीं समझा पा रहे हैं कि इन हमलों के कारण वे देश की सांस्कृतिक धरोहर भी नष्ट कर रहे हैं, कराची के मालीर इलाके में एक मंदिर हुआ करता था। आर्किटेक्चर के लिहाज से यह एक शानदार इमारत थी। मंदिर में हिंदू देवी देवताओं की मूर्तियों पर बहुत ही बारीकी से काम किया गया था। जब मंदिर पर हमला हुआ तब लोगों ने ये मूर्तियां भी तबाह कर दी। ये केवल पूजा पाठ की जगह नहीं थीं, बल्कि यह पाकिस्तान की अमूल्य सांस्कृतिक धरोहर थी। अपनी ही धरोहर को नष्ट करना पाकिस्तान के मानसिक दिवालियापन का द्योतक है। स्थिति कितनी भयावह है, इसे इससे समझा जा सकता है कि कुछ समय पहले जब खैबर पख्तूनख्वा में एक मंदिर को जलाने वालों पर अदालत ने जुर्माना लगाया, तो उसे हिंदुओं को ही भरना पड़ा। यह अंधेरगर्दी इसलिए हुई, क्योंकि हिंदुओं को धमका कर उन पर यह दबाव बनाया गया कि अमन-चैन बनाए रखने के लिए बेहतर यही होगा कि वे दोषियों पर लगाया गया जुर्माना खुद भरें। उन्हें ऐसा करना पड़ा।
दुनिया के किसी कोने में मुसलमानों के साथ हुई किसी मामूली या बड़ी घटना को लेकर अपने ही देश के ग़ैर इस्लामिक बंधु-बांधवों, पास-पड़ोस का अंधा विरोध, स्थानीय समाज के विरुद्ध हिंसक प्रदर्शन, अराजक रैलियां, उत्तेजक नारे, मज़हबी मजलिसें समझ से परे हैं? ऐसी मानसिकता को किस तर्क से सही ठहराया जा सकता है? पंथ-विशेष की चली आ रही मान्यताओं, विश्वासों, रिवाजों के विरुद्ध कुछ बोले जाने पर सिर काट लेने की जिद्द, फरमान और सनक सभ्य समाज में कभी नहीं स्वीकार की जा सकती। आधुनिक समाज संवाद और सहमति के रास्ते पर चलता है। समय के साथ तालमेल बिठाता है। किसी काल विशेष में लिखे गए ग्रंथों, दिए गए उपदेशों, अपनाए गए तौर-तरीकों को आधार बनाकर तर्क या सत्य का गला नहीं घोंटता। चांद और मंगल पर पहुंचते क़दमों के बीच कट्टरता की ऐसी ज़िद व जुनून प्रतिगामी एवं संकीर्ण मानसिकता की परिचायक है। इस्लाम का कट्टरपंथी धड़ा आज भी इस संकीर्ण एवं मध्ययुगीन मानसिकता से बाहर आने को तैयार नहीं। नतीजतन वह विश्व मानवता के लिए एक ख़तरा बनकर खड़ा है। आस्था के नाम पर यह उचित नहीं कि जो-जो हमसे सहमत नहीं हैं, उन्हें दुनिया में रहने व जीने का अधिकार ही नहीं। यह घोर अलोकतांत्रिक एवं अवैज्ञानिक सोच होगी। अराजकता का व्याकरण और मूर्खताओं का तर्कशास्त्र गढ़ने में माहिर लोग भी इसकी पैरवी नहीं कर सकते।
पाकिस्तान में ईसाइयों के साथ हिंदुओं एवं सिखों के उत्पीड़न का सिलसिला एक लंबे अर्से से कायम है, लेकिन न तो विश्व समुदाय इस पर ध्यान देने को तैयार है और न ही वह इस्लामिक सहयोग संगठन (ओआइसी), जो पाकिस्तान के इशारे पर भारत के मामलों में अनावश्यक दखल देने को उतावला रहता है। बीते दिनों इस्लामी देशों में जो भारत विरोधी माहौल बनाया गया, उसमें पाकिस्तान की तो एक बड़ी भूमिका थी ही, ओआइसी का भी हाथ था। भारत ने तब उचित ही पाकिस्तान के साथ ओआइसी को फटकार लगाई थी। अब कराची में मंदिर पर हमले की घटना को लेकर उसे फिर से ओआइसी को आईना दिखाना होगा। इसी के साथ ही इस संगठन के अन्य देश खासकर कतर एवं मलेशिया अपने गिरेबान में झांकें? अन्य सच्चे इस्लामिक राष्ट्रों से भी यह सवाल है कि वे पाकिस्तान में जो कुछ हो रहा है, उस पर अपना मुंह खोलें और पाकिस्तान का असली चेहरा पहचानने की जहमत उठायें। इस्लामिक कट्टरपंथी ताक़तें पूरी दुनिया में अमन और भाईचारे का माहौल बिगाड़ने का काम कर रही हैं। जबकि इस्लाम के नाम पर दुनिया के हर कोने में हो रहे आतंकवादी हमलों एवं वारदातों के विरुद्ध इस्लाम के अनुयायियों के बीच से ही आवाज़ उठनी चाहिए। पाकिस्तान जैसे इस्लाम को धुंधलाने वाले राष्ट्र की गुमराह करने वाली बातों से दूरी बनाई जानी चाहिए। उसके द्वारा मज़हब के नाम पर किये जा रहे ख़ून-खराबे का खंडन करना चाहिए था। उसे सच्चा इस्लाम न मानकर कुछ विकृत मानसिकता का प्रदर्शन माना-बतलाया जाना चाहिए था।
-ललित गर्ग
पाकिस्तान में अल्पसंख्यक हिंदुओं पर जारी अत्याचारों के बीच उनके आस्था स्थलों को नुकसान पहुँचाने की घटनाएं भी लगातार बढ़ रही हैं। ताजा खबर है कि पाकिस्तान के दक्षिणी बंदरगाह शहर कराची में एक हिंदू मंदिर में तोड़फोड़ की गयी है। इस घटनाक्रम ने एक बार फिर पाकिस्तान में अल्पसंख्यकों पर हो रहे अत्याचार के मुद्दे को सुर्खियों में ला दिया है लेकिन सवाल उठता है कि क्या पाकिस्तान में सबसे बड़े अल्पसंख्यक समुदाय हिंदुओं की वहां कोई सुनेगा? कराची के कोरंगी इलाके के श्री मारी माता मंदिर में तोड़फोड़ के बाद से इलाके में रह रहे हिंदू समुदाय में दहशत का माहौल है क्योंकि पिछली कई घटनाएं बताती हैं कि अक्सर पाकिस्तान में हिंदू मंदिरों में तोड़फोड़ के बाद समुदाय के लोगों के साथ मारपीट की जाती है या फिर उन्मादी भीड़ हिंदुओं को अपना शिकार बनाती है। ऐसे में श्री मारी माता मंदिर में तोड़फोड़ के बाद हिंदुओं के बीच दशहत होना स्वाभाविक है।
घटनाक्रम का ब्यौरा
जहां तक इस घटना की बात है तो आपको बता दें कि पाकिस्तान के डॉन अखबार की खबर के अनुसार कोरंगी पुलिस थाने में दर्ज प्राथमिकी के मुताबिक बुधवार रात मोटरसाइकिल पर सवार होकर पांच लोग आए और मंदिर की देखरेख करने वाले के बारे में पूछताछ की। अखबार ने शिकायतकर्ता संजीव कुमार के हवाले से बताया कि मंदिर की भीतर की दीवार की पुताई कर रहे दो मजदूरों ने उन लोगों को बताया कि मंदिर की देखरेख करने वाला वहां नहीं है तो संदिग्धों ने प्रतिमाओं पर पथराव शुरू कर दिया। उसके बाद उन लोगों ने मजदूरों को भी धमकी दी और मौके से फरार हो गए। शिकायत मिलने के बाद पुलिस इलाके में पहुंची और मंदिर का मुआयना किया। उपद्रवियों के खिलाफ पाकिस्तान दंड संहिता की धारा की तहत प्राथमिकी दर्ज की गई है। पुलिस इलाके में लगे सीसीटीवी कैमरों की फुटेज हासिल करने का प्रयास कर रही है लेकिन अभी तक उसके हाथ कुछ नहीं लगा है ना ही किसी को गिरफ्तार किया गया है।
भारत की प्रतिक्रिया
पाकिस्तान में हुई इस कायराना हरकत की निंदा करते हुए भारत ने इस घटना को पड़ोसी देश में धार्मिक अल्पसंख्यकों के सुनियोजित उत्पीड़न की एक और कड़ी बताया है साथ ही कहा है कि वहां अल्पसंख्यकों की सुरक्षा एवं भलाई सुनिश्चित की जानी चाहिए। विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता अरिंदम बागची ने एक सवाल के जवाब में यह बात कही। उन्होंने कहा कि हमने पाकिस्तान के कराची में हिन्दू मंदिर में तोड़फोड़ की घटना से जुड़ी हाल की घटना पर गौर किया है। यह उस देश में धार्मिक अल्पसंख्यकों के सुनियोजित उत्पीड़न की एक और कड़ी है। अरिंदम बागची ने कहा कि हमने पाकिस्तान को अपने विरोध से अवगत करा दिया है।
पाक अल्पसंख्यकों पर अत्याचार
हम आपको याद दिला दें कि पिछले साल अक्टूबर में भी सिंध नदी के किनारे कोटरी में एक ऐतिहासिक मंदिर को मुस्लिमों ने अपवित्र कर दिया था। यही नहीं पिछले साल अगस्त में ही भोंग शहर में भीड़ ने हिंदू मंदिर में तोड़फोड़ की थी और सकुर-मुल्तान राजमार्ग को बाधित कर दिया था। दिसंबर 2020 में भी भीड़ ने खैबर पख्तूनख्वा के कारक जिले स्थित करीब एक सदी पुराने मंदिर को तोड़ दिया था। जहां तक पाकिस्तान में रहने वाले हिंदुओं की बात है तो आपको बता दें कि उनकी दशा बेहद खराब है। सरकारी योजनाओं के लाभ से तो उनको वंचित रखा ही जाता है साथ ही हिंदुओं को उनके प्रमुख त्योहारों होली, दीवाली आदि पर भी अपमानित करने का काम किया जाता है, उनको त्योहार मनाने से रोका जाता है, महिलाओं को बिंदी और सिंदूर लगाने पर टोका जाता है, होली पर रंग गुलाल लगा कर घूमने वाले युवकों को पीटा जाता है, मंदिरों में भजन-कीर्तन को बाधित किया जाता है, हिंदू-सिख-जैन आदि की लड़कियों का जबरन धर्म परिवर्तन करवा कर उनसे निकाह किया जाता है। पाकिस्तान में अल्पसंख्यकों पर होने वाले जुल्मों के बारे में दुनिया भी कुछ नहीं कहती। अंतरराष्ट्रीय स्तर के मानवाधिकार संगठन भी पाकिस्तान में अल्पसंख्यकों पर हो रहे अत्याचार को लेकर चुप्पी साधे रहते हैं।
आपको ध्यान होगा कि साल 2020 में कैसे सैंकड़ों लोगों की भीड़ ने सिखों के सबसे पवित्र धर्मस्थलों में से एक ननकाना साहिब गुरुद्वारा पर पत्थरबाजी की थी। उस समय एक सिख लड़की का अपहरण भी किया गया था और सिखों को ननकाना साहिब से भगाने और इस पवित्र शहर का नाम बदलकर गुलाम अली मुस्तफा करने की धमकी दी गयी थी। यही नहीं पाकिस्तान में जो लोग अल्पसंख्यक हिंदू लड़कियों का अपहरण करते हैं, पाकिस्तानी सेना उन कट्टरपंथियों का समर्थन करती है। हाल के वर्षों में हिंदू लड़कियों के अपहरण और जबरदस्ती धर्म परिवर्तन कराने के कई मामले सामने आये हैं जिसने पाकिस्तान में हिंदू समुदाय को हिलाकर रख दिया है और वे अपने धर्म और संस्कृति को बचाए रखने के लिए इंसाफ मांग रहे हैं।
पश्तूनों पर अत्याचार
साथ ही बलूचिस्तान में जो अत्याचार हो रहे हैं वह भी किसी से छिपे नहीं हैं। पाकिस्तान में करीब 3 करोड़ की आबादी वाले पश्तून समुदाय पर होने वाले अत्याचार अक्सर सुर्खियां बनते रहते हैं। पिछले काफी समय से पश्तून लोगों के साथ अत्याचार, उन्हें गायब कर देने और उनके साथ बुरे बर्ताव की खबरें आम रही हैं। पश्तूनी लोग पाकिस्तान के साथ कितनी भी मजबूती से खड़े रहें लेकिन वहां की सरकार इन्हें गद्दार मानती है और उसी तरह का व्यवहार करती है। संघ प्रशासित कबायली इलाके जिसे फाटा भी कहा जाता है, वहां अक्सर कर्फ्यू लगा रहता है। इस इलाके में स्कूल, कॉलेज और अस्पताल बनाने की बात तो छोड़ दीजिये यहां के बेचारे लोगों के घर-बार भी अक्सर तोड़ दिये जाते हैं और उनके सामान पर कब्जा कर लिया जाता है तथा उन्हें सड़कों पर जीवन बिताने के लिए छोड़ दिया जाता है। यही कारण है कि विदेशों में भी जहाँ-जहाँ पश्तून रहते हैं, वह लोग वहाँ-वहाँ की राजधानियों में पाकिस्तानी दूतावास के बाहर अक्सर विरोध प्रदर्शन करते हैं।
पाकिस्तान में कितने अल्पसंख्यक हैं?
जहां तक पाकिस्तान में अल्पसंख्यकों की संख्या की बात है तो हम आपको बता दें कि सेंटर फॉर पीस ऐंड जस्टिस पाकिस्तान की रिपोर्ट के मुताबिक पाकिस्तान में 22,10,566 हिंदू रहते हैं जो कुल पंजीकृत आबादी 18,68,90,601 का महज 1.8 प्रतिशत हैं। नेशनल डाटाबेस ऐंड रजिस्ट्रेशन अथॉरिटी (NADRA) के आंकड़ों के आधार पर तैयार रिपोर्ट में कहा गया है कि पाकिस्तान की आबादी में अल्पसंख्यकों की आबादी पांच प्रतिशत से कम है और इनमें से भी हिंदू सबसे बड़ा अल्पसंख्यक समूह है। NADRA के मुताबिक मार्च तक पाकिस्तान में कुल पंजीकृत आबादी 18,68,90,601 है जिनमें से मुस्लिमों की संख्या 18,25,92,000 है।
हम आपको बता दें कि पाकिस्तान में अलग-अलग 17 धार्मिक समूहों की पुष्टि की गई है और 1,400 लोगों ने स्वयं को नास्तिक बताया है। पाकिस्तान में तीन राष्ट्रीय जनगणना के आधार पर तैयार रिपोर्ट के मुताबिक, वहां 22,10,566 हिंदू, 18,73,348 ईसाई, 1,88,340 अहमदिया, 74,130 सिख, 14,537 बहाई और 3,917 पारसी रहते हैं। पाकिस्तान में 11 अन्य अल्पसंख्यक समुदाय हैं जिनके लोगों की संख्या दो हजार से कम है। रिपोर्ट के मुताबिक, पाकिस्तान में 1,787 बौद्ध, 1,151 चीनी, 628 शिंटो, 628 यहूदी, 1,418 अफ्रीकी धर्म अनुयायी, 1,522 केलाशा धर्म अनुयायी और छह लोग जैन धर्म का पालन करते हैं।
बहरहाल, पाकिस्तान के यह आंकड़े दर्शाते हैं कि विभाजन के समय अल्पसंख्यकों की जो संख्या वहां थी वह बढ़ने की बजाय तेजी से घटी है। पाकिस्तान जोकि एकाध घटना पर भारत को उपदेश देने को उतावला रहता है, उसे जरा अपने गिरेबां में झांक कर देखना चाहिए कि उसने अपने देश के अल्पसंख्यकों के साथ अब तक कैसा बर्ताव किया है। वक्त की माँग है कि संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार संस्था भी पाकिस्तान में अल्पसंख्यकों पर हो रहे अत्याचार के मुद्दे का संज्ञान ले और वहां अल्पसंख्यकों की जान और माल की सुरक्षा सुनिश्चित कराये। यहां एक सवाल यह भी उठता है कि भारत में भाजपा की एक प्रवक्ता के विवादित बयान पर जिस तरह खाड़ी सहित मुस्लिम देशों में आंदोलन हुए और नाराजगी दिखी क्या वैसा ही आंदोलन पाकिस्तान में अल्पसंख्यकों पर हो रहे अत्याचार के खिलाफ भी चलेगा?
-नीरज कुमार दुबे
चालीस साल पहले जो पंजाब अलगाववाद एवं आतंकवाद की चपेट में था, अनेकों के बलिदान एवं प्रयासों के बाद पंजाब में शांति स्थापित हुई, उसी पंजाब में एक बार फिर अलगाववाद की चिंगारी सुलग उठी है। ‘ऑपरेशन ब्लू स्टार’ की 38वीं बरसी पर स्वर्ण मंदिर में खालिस्तान समर्थक नारे लगे। पंजाब के हालात बिगड़ते जा रहे हैं, पृथक खालिस्तान बनाये जाने की मांग उठ रही है, आम आदमी पार्टी के शासन में समूचे पंजाब में रह-रह कर आक्रामक, विघटनकारी, अलगाववादी आग सुलग रही है। ईमानदारी से सोचना होगा कि पंजाब में अलगाव को भड़काने का यह मौका कैसे मिला? किसने यह आग लगाई? पाकिस्तान का भी ध्यान कश्मीर के साथ-साथ अब पंजाब पर केन्द्रित है, वह पंजाब में अशांति, आतंकवाद एवं हिंसा भड़काने के नये-नये षड्यंत्र कर रहा है। पाकिस्तान अपने यहां प्रशिक्षित आतंकियों को पंजाब की सीमाओं से घुसपैठ करा कर या फिर यहां युवाओं को गुमराह कर अस्थिरता पैदा करने की लगातार कोशिश कर रहा है। इन हालातों में भड़कने और भड़काने से बचना होगा। राजनीतिक स्वार्थों एवं संकीर्णताओं से ऊपर उठकर सोचना होगा।
करीब महीना भर पहले ही पटियाला में ‘सिख फॉर जस्टिस’ के स्थापना दिवस पर रैली निकाली गई थी, जिसके विरोध में उतरे शिव सेना (बाला साहब) के कार्यकर्ताओं के साथ भिड़ंत हुई और खूब पत्थर चले, तलवारें लहराई गईं। रोपड़ स्थित मिनी सचिवालय परिसर के बाहर खालिस्तान के बैनर मिले। यहां उपायुक्त और वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक के कार्यालयों के अलावा जिला अदालतें भी हैं। परिसर की चारदीवारी के बाहर लगे पेड़ों पर बैनर लगाये गये। समूचा पंजाब ऐसी ही अराजकता एवं अलगाववाद से रू-ब-रू हो रहा है।
स्वर्ण मन्दिर में कट्टरपंथी सिख संगठनों के अलावा शिरोमणि अकाली दल (अमृतसर) ने भी हिस्सा लिया। अकाल तख्त के जत्थेदार ने ‘सिख राज’ की मांग उठाते हुए कहा कि इस बार सिख युवकों को बाकायदा हथियार चलाने का प्रशिक्षण दिया जाएगा। इस मौके पर खालिस्तान के समर्थन में तख्तियां लहराई गईं, कई युवा भिंडरावाले की तस्वीर वाली टी-शर्ट पहन कर आए थे। तलवारें भी लहराई गईं। प्रश्न है कि आप की सरकार बनने के बाद ही ये अलगाववादी ताकतें क्यों सक्रिय हुई हैं? कहीं पंजाब सरकार के मन में अलगाववादी ताकतों को लेकर कोई सहानुभूति या पूर्वाग्रह की भावना तो नहीं। पंजाब विधानसभा चुनाव के वक्त आम आदमी पार्टी के संयोजक अरविंद केजरीवाल पर खालिस्तान समर्थकों से नजदीकी की बात क्या सच थी? अगर ऐसा है, तो यह न केवल पंजाब, बल्कि पूरे देश के लिए खतरनाक साबित हो सकता है। भारत जैसे गणतंत्र में कोई भी राज्य इस तरह अलग होने या स्वतंत्र राज की मांग कैसे उठा सकता है?
सर्वविदित है कि खालिस्तान समर्थक कट्टरपंथी संगठनों को विदेशों से बड़ी मात्रा में सहायता मिल रही है। किसान आन्दोलन के समय भी पंजाब के किसानों के दिल्ली के बॉर्डरों पर चले महीनों के प्रदर्शनों में इन्हीं भारत विरोधी विदेशी शक्तियों ने करोड़ों रुपयों की सहायता भेजी थी। तथ्य तो यह भी सामने आया कि सिख फॉर जस्टिस के नेता पन्नू के पाकिस्तानी आतंकवादी संगठनों से संबंध हैं। इन त्रासद स्थितियों का सामना देश की जनता कर रही है। साम्प्रदायिकता, अलगाववाद एवं आतंकवाद से देश को कमजोर करने वाले राजनैतिक दल किस तरह जनता को गुमराह करते हुए सत्ता पर काबिज हो जाते हैं, इसका उदाहरण पंजाब है। करीब चालीस साल पहले पंजाब अलगाववाद की आग में झुलस चुका है। बहुत सारे परिवार उजड़ गए, बहुत सारे युवक गुमराह होकर अपना भविष्य बर्बाद कर चुके हैं। पंजाब की हरीमिता खून की लालिमा ओढ़ चुकी थी। बड़ी मुश्किल से पंजाब पटरी पर लौटा। अगर फिर से वहां वह आग भड़कती है, तो भयावह नतीजे भुगतने होंगे। हैरानी की बात है कि पंजाब में नई सरकार आने के बाद ही वहां अलगाववादी ताकतें क्यों सक्रिय हो उठी हैं।
तथाकथित राजनैतिक दलों द्वारा साम्प्रदायिक दंगे भारत की कुण्डली में स्थायी रूप से लिख दिये जाते हैं। दंगे सड़कों पर कम इन विकृत एवं सत्तालोलुप दिमागों में ज्यादा होते हैं, जिनसे जनमानस विकृत हो गया है। कमोबेश सभी लोग साम्प्रदायिक बन गये हैं। ‘सम्प्रदायविहीनता एवं धर्म-निरपेक्षता’- लगता है शब्दकोश में ही रह जायेंगे। एक हत्या को दूसरी हत्या से रद्द नहीं किया जा सकता और दो गलतियाँ मिलकर कभी एक सही काम नहीं कर सकतीं। देश में अलग प्रान्त की मांग का एक ऐसा सिलसिला शुरू हो गया है जिसका कोई सिरा नजर नहीं आता। मांगों के साथ ही पूर्व नियोजित हिंसा शुरू हो जाती है। प्रान्त नहीं मानो मकान हो गये, जो अलगाववादी अपना अलग बनाना चाहता है। चारदीवारी पर छत डालकर दरवाजे पर शीघ्र अपनी ”नेम-प्लेट“ लगाने के लिए उत्सुक है। यह उन्माद देश की एकता, अखंडता, सार्वभौमिकता के लिए चुनौती है।
पंजाब में आतंकवाद जितना लम्बा चला, वह क्रोनिक होकर भारतीय जीवनशैली का अंग बन गया था। इसमें ज्यादातर वे युवक थे जो जीवन में अच्छा-बुरा देखने लायक बन पाते, उससे पहले उनके हाथों में एके-47 थमा दी जाती थी। फिर जो भी यह करते थे, वह कोई गुरबानी नहीं कहती। आखिर कोई भी पूज्य ग्रन्थ उनके साथ नहीं हो सकता जो उसके पवित्र पृष्ठों को खून के छींटों से भर दे। आज तक किसी आतंकवादी के मारे जाने पर या भाग जाने पर जो चीजें मिलीं, उनमें हथियार थे, शराब थी, अश्लील साहित्य था- लेकिन गुरबाणी का गुटका किसी के पास से नहीं मिला। एक बार फिर पंजाब के युवकों को गुरबाणी से दूर करने की कुचेष्टा हो रही है, जिसे नाकाम करना पंजाब ही नहीं, समूचे देश का दायित्व है। सोचने की बात है कि कहीं ये सत्ता के भूखे राजनेता महावीर, बुद्ध, गांधी और नानक के देश एवं प्रांत रूपी खूबसूरत बगीचे को कहीं अलगाव का प्रान्त, घृणा का मजहब, हिंसा की सड़क तो नहीं बना रहे हैं? अंधेरा कभी जीता नहीं जाता। किसी को भयभीत नहीं करके ही स्वयं भयरहित रहा जा सकता है।
पंजाब में सुलगती अलगाव की आग एवं हिंसक-अराजक घटनाएं केंद्र और राज्य दोनों सरकारों के लिए गंभीर चिन्ता का विषय एवं चेतावनी हैं। पटियाला हिंसा के बाद राज्य सरकार ने जरूर उपद्रवियों के खिलाफ सख्त कदम उठाने का दम भरा था, कुछ कार्रवाइयां भी हुईं, पर उसका कोई सख्त संदेश नहीं जा पाया। उसी का नतीजा है कि स्वर्णमंदिर परिसर में फिर से अलगाववाद की आग भड़काने का प्रयास किया गया। अब भी वहां की सरकार सख्त नजर नहीं आ रही है। अगर सिख फॉर जस्टिस और दूसरे कट्टरपंथी, अलगाववादी संगठनों के प्रति नरम रवैया अपनाया गया और वे इसी तरह अपना दायरा बढ़ाते गए, तो उनके जरिए पाकिस्तान जैसे देश अपने मंसूबे पूरे करने की कोशिश करेंगे। आतंकवाद पर नकेल कसना पहले ही सरकार के सामने बड़ी चुनौती है, तिस पर एक शांत हो चुके मामले की राख कुरेद कर कोई फिर से आग जलाने का प्रयास करे, तो यह नई परेशानी खड़ी कर सकता है। यह वहां की सरकार की बड़ी नाकामी मानी जाएगी। हालांकि इन घटनाओं को लेकर केंद्र सरकार को भी सावधान हो जाने की जरूरत है।
पंजाब के शांति, अमन, राष्ट्रीय एकता एवं सौहार्द को कायम रखना पंजाब सरकार की प्राथमिकता तो बने ही और केंद्र सरकार भी इसके लिये सतर्क एवं सावधान हो जाये। केन्द्र एवं प्रांत के बीच की दलगत प्रतिद्वंद्विता कहीं देश की सुरक्षा को आहत करने का माध्यम न बन जाये। अब पंजाब को शांति का आश्वासन, उजाले का भरोसा देने की नहीं, बल्कि उसे सामने घटित करने की जरूरत है। इस नये उभरते अभूतपूर्व संकट के लिए अभूतपूर्व समाधान खोजना होगा। जो अतीत के उत्तराधिकारी और भविष्य के उत्तरदायी हैं, उनको दृढ़ मनोबल और नेतृत्व का परिचय देना होगा, पद, पार्टी, पक्ष, प्रतिष्ठा एवं पूर्वाग्रह से ऊपर उठकर। अन्यथा वक्त इसकी कीमत सभी दावों व सभी लोगों से वसूल कर लेगा।
-ललित गर्ग
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत ने एक ऐसा बयान दे दिया है, जिसे सुनकर देश के कांग्रेसी, वामपंथी और मुस्लिम संगठन दांतों तले उंगली दबा लेंगे। ये सभी लोग आरोप लगा रहे थे कि काशी और मथुरा में भी मंदिर और मस्जिद का झंगड़ा संघ के इशारों पर खड़ा किया जा रहा है लेकिन नागपुर के एक संघ-समारोह के समापन भाषण में उन्होंने दो-टूक शब्दों में यह स्पष्ट कर दिया कि मस्जिदों को तोड़कर उनकी जगह मंदिर बनाने के पक्ष में संघ बिल्कुल नहीं है।
यह ठीक है कि विदेशी आक्रमणकारियों ने अपना वर्चस्व जमाने के लिए सैंकड़ों-हजारों मंदिरों को भ्रष्ट किया। उनकी जगह उन्होंने मस्जिदें खड़ी कर दीं। लेकिन यह इतिहास का विषय हो गया है। उस इतिहास को अब दोहराना क्यों? यदि इतिहास को दोहराएंगे तो रोज़ एक नया मामला खड़ा हो जाएगा। ‘‘ज्ञानवापी के मामले में हमारी श्रद्धा परंपरा से चलती आई है। ...वह ठीक है लेकिन हर मस्जिद में शिवलिंग क्यों देखना?’’
मोहन भागवत के तर्कों को अगर मुहावरों की भाषा में कहना है तो उनका तर्क यह है कि गड़े मुर्दे अब क्यों उखाड़ना? मंदिर हो या मस्जिद, दोनों ही पूजा-स्थलों पर भगवान का नाम लिया जाता है। हिंदू लोग किसी भी पूजा-पद्धति के विरोधी नहीं हैं। यह ठीक है कि मुसलमानों की पूजा-पद्धति स्वदेशी नहीं है। उनकी पूजा-पद्धति चाहे विदेशी है लेकिन मुसलमान तो स्वदेशी हैं। मोहनजी ने वही बात दोहराई जो अटलजी कहा करते थे। अटलजी का एक प्रसिद्ध बयान था कि मुसलमानों की रगों में वही खून बहता है, जो हिंदुओं की रगों में बह रहा है। मोहन भागवत ने तो यहां तक कह दिया है कि भारत के हिंदुओं और मुसलमानों का डीएनए भी एक ही है।
हिंदू धर्म और अन्य पश्चिमी मजहबों में यही फर्क है कि हिंदू जीवन शैली सभी पूजा-पद्धतियों को बर्दाश्त करती है। मध्यकाल से यह वाक्य बहुत प्रचलित था कि ‘अंदर से शाक्त हूं, बाहर शैव हूं और सभा मध्य मैं वैष्णव हूं।’’ भारतीयों घरों में आपको ऐसे अनगिनत घर मिल जाएंगे, जिनके कुछ सदस्य आर्यसमाजी, कुछ सनातनी, कुछ जैनी, कुछ राधास्वामी, कुछ रामसनेही और कुछ कृष्णभक्त होंगे। वे सब अपने-अपने पंथ को श्रद्धापूर्वक मानते हैं लेकिन उनके बीच कोई झगड़ा नहीं होता। मेरे ऐसे दर्जनों मित्र—परिवार हैं जिनमें पति—पत्नी अलग—अलग मजहबों और धर्मों को मानने वाले हैं। मोहनजी के कहने का सार यही है, जो गांधीजी कहते थे, सर्वधर्म समभाव ही भारत का धर्म है। भारत धर्म है।
इसी भारत धर्म को हमारे मुसलमान, ईसाई, यहूदी और बहाई लोग भी तहे-दिल से मानने लगें तो कोई सांप्रदायिक विवाद भारत में कभी हो ही नहीं सकता। यह ठीक है कि कई अभारतीय धर्मों के भारत में फैलने के मुख्य आधार भय, लालच और वासना रहे हैं लेकिन यह भी सत्य है कि इन विदेशी धर्मों ने उनके अपने देशों को कई अंधकूपों से निकालकर प्रकाशमान भी किया है। उनके अपने देशों में उनकी भूमिका काफी क्रांतिकारी रही है। यदि उस क्रांतिकारी भूमिका और भारत की परंपरागत धर्मदृष्टि में उचित समन्वय हो सके तो वह सर्वश्रेष्ठ मानव धर्म बन सकता है। वही सच्चा भारत धर्म कहलाएगा।
-डॉ. वेदप्रताप वैदिक
पैगंबर मोहम्मद के खिलाफ विवादित टिप्पणी करने पर भाजपा की राष्ट्रीय प्रवक्ता नुपूर शर्मा और दिल्ली भाजपा के मीडिया विभाग प्रमुख नवीन कुमार जिंदल के खिलाफ जो कार्रवाई की गयी है वह नाकाफी है। जिस व्यक्ति की विवादित टिप्पणी से साम्प्रदायिक सद्भावना बिगड़े, जिस व्यक्ति की टिप्पणी से देश की छवि पर विपरीत असर पड़े उसे सिर्फ दल से ही निलंबित कर देना काफी नहीं है। वैसे भी बात सिर्फ एक नुपूर शर्मा की नहीं रह गयी है बल्कि आजकल टीवी समाचार चैनलों पर होने वाली बहसों के दौरान वक्तागण जिस तरह एक दूसरे पर चीखते चिल्लाते हैं, भड़काऊ और अमर्यादित टिप्पणियां करते हैं, एक दूसरे के धर्म को निशाना बनाते हैं, उससे सामाजिक तानेबाने पर असर पड़ रहा है। सरकार ने हालांकि कई बार मीडिया के लिए कंटेंट संबंधी गाइडलाइंस जारी की हैं लेकिन अब समय है कि इस तरह की बहसों के लिए भी दिशानिर्देश जारी किये जायें। यही नहीं देश के मुख्य मुद्दों से ध्यान हटाकर जिस तरह टीवी समाचार चैनल सिर्फ धार्मिक विषयों को ही कवरेज प्रदान करते रहते हैं उससे भी बचे जाने की जरूरत है।
नुपूर ने भाजपा का किया नुकसान
नुपूर शर्मा वैसे तो टीवी समाचार चैनलों पर भाजपा का पक्ष रखती थीं लेकिन देखा जाये तो उन्होंने ही भाजपा को सर्वाधिक नुकसान भी पहुँचाया है। उनकी एक टिप्पणी ने मोदी सरकार के किये कराये पर पानी फेरने का काम किया है। उल्लेखनीय है कि पिछले 8 सालों में मोदी सरकार के विशेष प्रयासों से इस्लामिक देशों के साथ भारत के संबंधों में बड़ा सुधार आया, इस्लामिक देश अब पहले की तरह विश्व मंचों पर पाकिस्तान के भारत विरोधी एजेंडे को आगे नहीं बढ़ाते बल्कि भारत के साथ खड़े दिखते हैं। यही नहीं भाजपा पर भले साम्प्रदायिक दल होने का ठप्पा कुछ लोग लगाते रहें लेकिन मोदी के नेतृत्व वाली भारत सरकार ने अल्पसंख्यकों के वास्तविक कल्याण के लिए इन आठ सालों में कई कदम उठाये और योजनाओं का लाभ उन तक पहुँचाते हुए उनके जीवन में बदलाव का मार्ग प्रशस्त किया। यही नहीं मोदी सरकार की वजह से ही मुस्लिम महिलाओं को तीन तलाक के अभिशाप से आजादी मिली। देखा जाये तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपने कार्यकाल के पहले दिन से 'सबका साथ, सबका विकास और सबका विश्वास' के सिद्धांत को लेकर आगे बढ़ रहे हैं। लेकिन नुपूर शर्मा और उनके जैसे कुछ अन्य बड़बोले नेता पहले माहौल बिगाड़ते हैं फिर कार्रवाई के डर से बयान वापस लेते हुए माफी मांग लेते हैं।
मोदी-भागवत से सीख लें
हमें ध्यान रखना चाहिए कि राम मंदिर का मुद्दा भले भाजपा का चुनावी वादा था लेकिन 2019 के लोकसभा चुनावों से पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने स्पष्ट कर दिया था कि अयोध्या विवाद पर अदालत का जो फैसला आयेगा हम उसका पालन करेंगे। अभी ज्ञानवापी विवाद पर भी विभिन्न पक्षों के तमाम प्रवक्तागण टीवी चैनलों की बहसों के दौरान माहौल को गर्मा रहे थे। लेकिन जबसे आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने कहा है कि अदालत पर विश्वास रखना चाहिए तबसे थोड़ी शांति देखने को मिल रही है। जो लोग उकसावे की राजनीति करते हैं उन्हें हाल ही में संघ प्रमुख की ओर से दिये गये संबोधन को अवश्य सुनना चाहिए। अपने संबोधन के दौरान हिंदू-मुस्लिम एकता को बढ़ावा देते हुए आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने कहा है कि किसी भी समुदाय को अतिवाद का सहारा नहीं लेना चाहिए और एक-दूसरे की भावनाओं का सम्मान करना चाहिए। यही नहीं भागवत ने यह भी कहा है कि 'हर मस्जिद में शिवलिंग नहीं तलाशें'। इसके अलावा हाल ही में जिस तरह कुछ धर्म संसदों के आयोजनों के दौरान भी दूसरे धर्म को लेकर जो अमर्यादित टिप्पणियां की गयी थीं उससे दो समुदायों के बीच तनाव की स्थिति बन गयी थी लेकिन सरकार और अदालतों ने उन मुद्दों को बड़े अच्छे ढंग से हल किया।
नुपूर ने देश की छवि बिगाड़ी
सभी को समझना चाहिए कि बहस के दौरान विचारों और नीतियों को लेकर चर्चा हो सकती है लेकिन निजी जीवन पर कटाक्ष या किसी के धर्म का मजाक उड़ाने से बचना चाहिए। नुपूर शर्मा तो अधिवक्ता भी हैं ऐसे में उन्हें विशेष सावधानी बरतनी चाहिए थी। वह चूँकि कानून की जानकार हैं इसलिए उन्हें पता होना चाहिए कि उनकी किस टिप्पणी से किस कानून का उल्लंघन हो सकता है। उनकी एक टिप्पणी से कानपुर में बवाल हो जाये, दूसरे प्रदेशों में विरोध प्रदर्शन होने लगें, खुद उन्हें जान से मारने की धमकी मिलने लगे और भारत के वरिष्ठ नेताओं के विदेशी दौरों के समय वहां की सरकारें उनसे भाजपा नेता के बयान पर आपत्ति जताने लगें तो सोचिये देश की छवि पर क्या असर पड़ा होगा। उपराष्ट्रपति एम. वेंकैया नायडू फिलहाल कतर की यात्रा पर हैं। जरा सोचिये जब उन्होंने इस माहौल के बीच कतर के प्रधानमंत्री व गृह मंत्री शेख खालिद बिन खलीफा बिन अब्दुलअजीज अल सानी से मुलाकात की होगी तो उन्हें कैसा महसूस हो रहा होगा? जब कतर के उप अमीर अब्दुल्ला बिन हमद बिन खलीफा अल थानी की ओर से उपराष्ट्रपति के सम्मान में दिया जाने वाला रात्रिभोज रद्द कर दिया गया तब कैसी असहज स्थिति उत्पन्न हुई होगी? यही नहीं उपराष्ट्रपति एम. वेंकैया नायडू को दोहा में अपनी प्रेस कांफ्रेंस रद्द करने पर मजबूर होना पड़ा होगा तो भारतीय दल के समक्ष क्या स्थिति रही होगी? इसके अलावा एक ओर भारत सरकार भारतीय उत्पादों को ग्लोबल बनाने के लिए कड़ी मेहनत कर रही है लेकिन नुपूर शर्मा की विवादित टिप्पणी के चलते अरब देशों में ट्विटर पर भारतीय उत्पादों के बहिष्कार के लिए एक अभियान चलाया गया।
इस्लामिक देशों के बयान
हम आपको बता दें कि कतर, ईरान और कुवैत के बाद अब सऊदी अरब ने भी पैगंबर मोहम्मद के खिलाफ विवादित टिप्पणियों की आलोचना करते हुए सभी से ‘‘आस्थाओं और धर्मों का सम्मान’’ किए जाने का आह्वान किया है। सऊदी अरब के विदेश मंत्रालय ने एक बयान जारी करके भाजपा प्रवक्ता की टिप्पणियों की निंदा की और कहा कि इनसे पैगंबर मोहम्मद का अपमान हुआ है। यही नहीं पाकिस्तान को भी भारत के खिलाफ जहर उगलने का मौका मिल गया। पाकिस्तान के प्रधानमंत्री शहबाज शरीफ ने ट्वीट किया, 'मैं अपने प्यारे पैगंबर के बारे में भारत के भाजपा नेता की आहत करने वाली टिप्पणियों की कड़े शब्दों में निंदा करता हूं।' पाकिस्तानी प्रधानमंत्री ने यह आरोप भी लगाया कि मोदी के नेतृत्व में भारत धार्मिक स्वतंत्रता को कुचल रहा है और मुसलमानों को प्रताड़ित कर रहा है। उन्होंने कहा कि दुनिया को इस पर ध्यान देना चाहिए और भारत को कड़ी फटकार लगानी चाहिए। शहबाज शरीफ ने कहा कि पैगंबर के लिए हमारा प्यार सर्वोच्च है।
भाजपा हुई शर्मसार
इससे पहले, कतर, ईरान और कुवैत ने पैगंबर मोहम्मद के बारे में भाजपा नेता की विवादित टिप्पणियों को लेकर भारतीय राजदूतों को तलब किया था। खाड़ी क्षेत्र के महत्वपूर्ण देशों की ओर से जताई गयी कड़ी आपत्ति के बाद कतर और कुवैत स्थित भारतीय दूतावास को प्रेस विज्ञप्ति जारी कर कहना पड़ा कि ''विवादित टिप्पणी किसी भी तरह से भारत सरकार के विचारों को नहीं दर्शाती। ये संकीर्ण सोच वाले तत्वों के विचार हैं।’’ यहां खास बात यह है कि सरकार की ओर से एक तरह से भाजपा नेता को संकीर्ण सोच वाला तत्व बताया गया। यकीनन यह स्थिति भाजपा के लिए शर्मसार कर देने वाला विषय है। इसलिए भाजपा को भी बयान जारी कर कहना पड़ा कि वह सभी धर्मों का सम्मान करती है और उसे किसी भी धर्म के पूजनीय लोगों का अपमान स्वीकार्य नहीं है।
बहरहाल, जहां तक नुपूर और नवीन के पक्ष की बात है तो इन दोनों का कहना है कि किसी की धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुँचाने का कोई इरादा नहीं था। लेकिन इन दोनों को यह तो दिख ही रहा होगा कि उनके बयानों ने कितना नुकसान किया है। उम्मीद की जानी चाहिए कि अब विभिन्न पार्टियों के प्रवक्ता संयम के साथ अपना पक्ष रखेंगे। यहाँ भारत के मुस्लिमों की तारीफ की जानी चाहिए कि वह किसी उकसावे वाली साजिश का हिस्सा नहीं बनते और सदैव कानून में विश्वास रखते हैं। नुपूर शर्मा मामले में भी अधिकांशतः सभी ने संयम का ही परिचय दिया है। प्रमुख मुस्लिम संगठन जमीयत उलमा-ए-हिंद ने भाजपा की ओर से अपने नेताओं के खिलाफ की गई कार्रवाई को ‘आवश्यक और सामयिक’ बताया है। दूसरी ओर, कांग्रेस ने इस मुद्दे पर राजनीतिक बयानबाजी शुरू की तो अन्य दल भी आगे आ गये। यहां राजनीतिक दलों को समझना चाहिए कि जब देश की छवि का सवाल हो तो राजनीतिक हितों से ऊपर उठते हुए सभी को एकजुटता दिखानी चाहिए। सबको यह ध्यान रखना चाहिए कि भारत में साम्प्रदायिक सद्भाव का माहौल बना रहे यह सिर्फ सरकार की ही नहीं बल्कि हम सबकी भी जिम्मेदारी है। इसलिए ऐसा आचरण बिल्कुल नहीं करना चाहिए जिससे किसी की धार्मिक भावनाएं आहत होती हों।
-नीरज कुमार दुबे
किसी भी देश की माटी को प्रणम्य बनाने, राष्ट्रीय एकता को सुदृढ़ बनाने एवं कालखंड को अमरता प्रदान करने में राष्ट्रनायकों की अहम भूमिका होती है। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के सरसंघ चालक होते हुए भी मोहन भागवत ने भारत की वसुधैव कुटुम्बकम् एवं सर्वधर्म समभाव की संस्कृति एवं सिद्धान्तों पर निरन्तर बल दिया है। संघ की जीवन-दृष्टि व्यापक एवं सर्वसमावेशक रही है। इसी दृष्टि-बोध का सन्देश है भागवत द्वारा ज्ञानवापी के सन्दर्भ में दिया गया बयान। भागवत ने स्पष्ट करते हुए कहा है कि काशी के ज्ञानवापी क्षेत्र के मुद्दे पर कोई नया आन्दोलन चलाने का संघ का कोई इरादा नहीं है और यह मसला अदालत के समक्ष रखे गये साक्ष्यों के आधार पर ही सुलझना चाहिए, जिसे हिन्दू व मुसलमान दोनों ही पक्षों को मानना चाहिए और सामाजिक सौहार्दता बनाये रखने में योगदान करना चाहिए, यह पूरी तरह ऐसा राष्ट्रवादी बयान है जिससे हर उदारवादी धर्मनिरपेक्षता के पक्षकार भी सहमत होंगे।
इन दिनों भारत के मन्दिरों-मस्जिदों को लेकर देश में साम्प्रदायिकता फैलाने की कोशिशें हो रही हैं। भागवत ने व्यापक राष्ट्रीय हितों के सन्दर्भ में एक सवाल किया है कि हर मन्दिर में शिवलिंग क्यों ढूंढ़ना? उन्होंने स्पष्ट किया है कि भारत में इस्लाम आक्रान्ताओं के माध्यम से आया। आक्रान्ताओं ने हिन्दू मन्दिरों का विध्वंस किया जिससे इस देश पर उनके हमलों से निजात पाने वाले हिन्दुओं का मनोबल गिर सके। ऐसे देशभर में हजारों मन्दिर हैं। अतः भारत में आज ऐसे मन्दिरों की अस्मिता पुनः स्थापित करने की बात हो रही है जिनकी लोगों के हृदय में विशेष हिन्दू प्रतिष्ठा या मान्यता है। हिन्दू मुसलमानों के खिलाफ नहीं हैं। मुसलमानों के पुरखे भी हिन्दू ही थे। मगर रोज एक नया मन्दिर-मस्जिद का मामला निकालना भी अनुचित है। हमें झगड़ा क्यों बढ़ाना। ज्ञानवापी के मामले हमारी श्रद्धा परंपरा से चलती आयी है। हम यह निभाते चले आ रहे हैं, वह ठीक है।
भागवत द्वारा ज्ञानवापी के लिये दिया गया ताजा वक्तव्य बेहद महत्वपूर्ण, राष्ट्र के प्रति दायित्वबोध जगाने एवं राष्ट्र-बोध से प्रेरित है। उनका कहना है कि इस तरह के विवादों को आपसी सहमति से हल किया जाना चाहिए और यदि अदालत गए हैं, तो फिर जो भी फैसला आए, उसे सभी को स्वीकार करना चाहिए। वास्तव में इस तरह के विवादों को हल करने का यही तार्किक एवं न्यायसंगत रास्ता है और इसी रास्ते पर चलकर शांति-सद्भाव के वातावरण को बल देते हुए राष्ट्रीय-एकता को मजबूती प्रदान की जा सकती है।
मोहन भागवत ने यह भी स्पष्ट किया कि अब आरएसएस किसी मंदिर के लिए वैसा कोई आंदोलन नहीं करने वाला, जैसा उसने अयोध्या में राम जन्मभूमि मंदिर को लेकर किया था। उनका यह कथन इसलिए उल्लेखनीय है, क्योंकि इन दिनों काशी के ज्ञानवापी परिसर के साथ मथुरा के श्रीकृष्ण जन्मस्थान परिसर का मसला भी सतह पर है और दिल्ली की कुव्वत उल इस्लाम मस्जिद का भी, जहां के शिलालेख पर ही यह लिखा है कि इसे अनेक हिंदू और जैन मंदिरों को तोड़कर बनाया गया। अतीत में साम्प्रदायिक उन्माद में उन्मत्त शासकों एवं संकीर्ण-कट्टरवादी ताकतों ने हिन्दू संस्कृति को कुचलने के अनेक सफल प्रयत्न किये। जबकि भारत की संस्कृति ऐसी संकीर्ण एवं साम्प्रदायिक सोच से परे सर्वधर्म समभाव की रही है। जिसमें व्यक्ति अपने-अपने मजहब की उपासना में विश्वास करें, कोई बुराई नहीं थी। लेकिन आज जहां एक सम्प्रदाय के लोग दूसरे सम्प्रदाय के प्रति द्वेष और घृणा का प्रचार करते हैं, वहां देश की मिट्टी कलंकित होती है, राष्ट्र शक्तिहीन होता है तथा व्यक्ति का मन अपवित्र बनता है।
साम्प्रदायिक उन्माद को बढ़ाने में असामाजिक, कट्टरवादी एवं संकीर्ण तत्वों का तो हाथ रहता ही है, कहीं-कहीं तथाकथित राजनैतिक दल एवं धर्मगुरु भी इस आग में ईंधन डाल देते हैं। लेकिन संघ ने हमेशा उदारता का परिचय दिया है। संघ प्रमुख के बयान से स्पष्ट है कि भारत हिन्दू व मुसलमानों दोनों का ही है मगर दोनों को एक-दूसरे की उन भावनाओं का आदर करना चाहिए जिनसे उनकी अस्मिता परिलक्षित होती है। काशी विश्व की प्राचीनतम नगरी मानी जाती है और इस देश के हिन्दुओं का मानना है कि इसकी रचना स्वयं भोले शंकर ने की है तो मुसलमानों को भी आगे आकर अपना हठ छोड़ना चाहिए और स्वीकार करना चाहिए कि हिन्दुओं के लिए काशी का वही स्थान है जो मुसलमानों के लिए काबे का। क्योंकि सनातन धर्म इसी देश में अनादिकाल से चल रहा है तो भारत के कण-कण में इस धर्म के चिह्न बिछे हुए हैं जो बहुत स्वाभाविक हैं। निश्चित तौर पर हिन्दू धर्म शास्त्रों की रचना इसी देश में हुई है जिनमें विभिन्न विशिष्ट स्थानों का वर्णन है और उन्हीं को मिलाकर भारत देश का निर्माण हुआ है। अतः संघ प्रमुख की बातों को पूरा देश मनन करे, वैचारिक वैषम्य में समन्वय स्थापित करे और देश के संविधान पर पूरा भरोसा रखे।
संघ प्रमुख भागवत ने नागपुर में संघ के विशिष्ट पदाधिकारी सम्मेलन में दिये गये अपने उद्बोधन में साफ किया कि मुस्लिम भी इसी देश के हैं और उनके पुरखे भी हिन्दू ही रहे हैं। उन्होंने किसी कारणवश इस्लाम धर्म स्वीकार कर पृथक पूजा पद्धति अपनाई। अतः उनसे किसी भी प्रकार का द्वेष उचित नहीं है। भागवत ने इसके साथ ही एक अत्यन्त महत्वपूर्ण सन्देश देते हुए समस्त हिन्दू समाज को सचेत भी किया कि वह हर मस्जिद में शंकर या शिवलिंग ढूंढ़ने की बात न करें। वास्तविकता तो यही रहेगी कि मुस्लिम आक्रान्ता राजाओं ने अपनी सत्ता की साख जमाने के लिए मन्दिरों पर आक्रमण किये और उन्हें विध्वंस भी किया।
अतीत की भूलों से वर्तमान को दूषित करना प्रासंगिक नहीं है। हिंदू धर्म तो उदारवादी रहा है, वास्तविक तो यह है कि हिंदू एक जीवन शैली है, जिसमें सभी पूजा-पद्धतियों को स्थान दिया है। यही कारण है कि भारतीयों घरों में आपको ऐसे अनगिनत परिवार मिल जाएंगे, जिनके कुछ सदस्य आर्यसमाजी, कुछ सनातनी, कुछ जैनी, कुछ राधास्वामी, कुछ रामसनेही और कुछ कृष्णभक्त होंगे। ऐसे भी उदाहरण देखने को मिलते हैं कि जैनी एवं हिन्दू परिवारों में सिख, ईसाई, इस्लाम मानने वाले लोग साझा आस्था एवं श्रद्धा से रहते हैं। वे सब अपने-अपने पंथ को श्रद्धापूर्वक मानते हैं लेकिन उनके बीच कोई झगड़ा नहीं होता। आज ऐसे ही इंसान को इंसान से जोड़ने वाले तत्व चाहिए। लेकिन किन्हीं लोगों की नादानी एवं कट्टरवादी सोच से हिन्दू-मुस्लिम लड़ते हुए देखने को मिलते हैं, तो पूरा कश्मीर ऐसी ही संकीर्णता की आग में झुलस रहा होता है। कभी पश्चिम बंगाल तो कभी राजस्थान में भी ऐसे दृश्य अस्थिरता एवं अशांति का कारण बनते हैं। पड़ोसी देश इसका फायदा उठाते हैं। आज जरूरत इंसानों को आपस में जोड़ने की है, उन्हें जोड़ने के लिये प्रेम चाहिए, करूणा चाहिए, एक-दूसरे को समझने की वृत्ति चाहिए। ये मानवीय गुण आज तिरोहित हो गये हैं और इसी से आदमी आदमी के बीच चौड़ी खाई पैदा हो गयी है, भारत की साझा संस्कृति ध्वस्त हो गयी है।
संभव है कि कुछ हिंदू संगठन भागवत के विचारों से असहमत हो सकते हैं, लेकिन उन्हें विदेशी हमलावरों की ओर से तोड़े गए हर मंदिर की वापसी के लिए बिना किसी ठोस दावे के मुहिम चलाना एवं देश की एकता और अखण्डता को खण्डित करना ठीक नहीं है। इसके बजाय उन्हें कानून का सहारा लेना चाहिए। इसी के साथ किसी को यह अपेक्षा भी नहीं करनी चाहिए कि हिंदू समाज ज्ञानवापी और मथुरा जैसे अपने प्रमुख मंदिरों के ध्वंस को सहजता से भूल जाए, क्योंकि यहां खुली-नग्न आंखों से यह दिखता है कि इन मंदिरों को तोड़कर वहां मस्जिदों का निर्माण किया गया। इस कटु सच से मुस्लिम समाज भी परिचित है और उसे उससे मुंह नहीं मोड़ना चाहिए। इसलिए तो काशी की ज्ञानवापी मस्जिद हो या मथुरा की शाही ईदगाह, ये हिंदू समाज को मूर्तिभंजक आक्रांताओं की बर्बरता की याद दिलाते हैं। यह देखना दुखद है कि कुछ मुस्लिम नेता उस औरंगजेब का गुणगान करने में लगे हुए हैं, जिसने काशी के ज्ञानवापी में भी कहर ढाया और मथुरा के श्रीकृष्ण जन्मस्थान मंदिर में भी। अतीत की भूलों को सुधारने का रास्ता संघर्ष एवं सड़कों पर हिंसा, अराजकता, नफरत, द्वेष एवं अशांति की बजाय कानून के द्वारा विधिसम्मत निकाला जाना चाहिए, यही देश की एकता एवं शांति के लिये उचित होगा।
-ललित गर्ग
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
अक्सर सड़कों के या शहरों के नाम बदलते तो आपने देखे होंगे लेकिन जब कोई देश अपना नाम बदल ले तो हैरत होती है कि आखिर उसने ऐसा क्यों किया। देश अगर तुर्की जैसा सुविधा संपन्न हो तो आपके मन में प्रश्न आयेगा कि आखिर उसने नाम क्यों बदला? जी हाँ, हम आपको बता दें कि तुर्की ने अपना नाम बदल कर तुर्किये रख लिया है। तुर्की के नाम में बदलाव को संयुक्त राष्ट्र ने भी अपनी मंजूरी प्रदान कर दी है।
वैसे तुर्की पहला देश नहीं है जिसने अपना नाम बदला हो लेकिन जहां तक उसके इस निर्णय की बात है तो आपको बता दें कि राष्ट्रपति रजब तैयब एर्दोगन का प्रयास था कि उनका देश अपने सांस्कृतिक और ऐतिहासिक मूल्यों की ओर लौटे। एर्दोगन इसके लिए काफी समय से प्रयास कर रहे थे। उन्होंने तुर्की के नाम में बदलाव करने से पहले देश और विदेश में माहौल बनाना शुरू कर दिया था। इसके लिए पिछले साल दिसंबर में एर्दोगन ने तुर्की की संस्कृति और मूल्यों का बेहतर प्रतिनिधित्व करने के लिए “तुर्किये” शब्द के उपयोग का आदेश दिया। इसके तहत निर्यात उत्पादों पर “मेड इन तुर्की” के बजाय “मेड इन तुर्किये” का उपयोग शुरू किया गया। इसके अलावा तुर्की के मंत्रालयों ने भी आधिकारिक दस्तावेजों में “तुर्किये” का उपयोग करना शुरू कर दिया था। यही नहीं साल 2022 की शुरुआत में तुर्की की सरकार ने नाम बदलने के प्रयासों के तहत एक प्रचार वीडियो भी जारी किया था। इस वीडियो में दुनिया भर के पर्यटकों को प्रसिद्ध स्थलों पर “हैलो तुर्किये” कहते हुए दिखाया गया था।
हम आपको बता दें कि तुर्की का नाम बदलने के पीछे जो सबसे बड़ा कारण बताया जा रहा है वह यह है कि तुर्की नाम के कारण देशवासियों को अक्सर हीन भावना का शिकार होना पड़ता था। दरअसल क्रैम्ब्रिज डिक्शनरी में Turkey से आशय ऐसी चीज से है जो बुरी तरह विफल हो जाता है। इसके अलावा तुर्की नाम इस देश को हमेशा गुलामी की यादें दिलाता था जिसके चलते इस नाम से छुटकारा पाया गया। हम आपको बता दें कि गुलामी के दिनों में तुर्किया को तुर्की कहा जाने लगा था। जब 1923 में यह देश आजाद हुआ तो यहां के लोगों ने अपने देश को तुर्किये बोला लेकिन अंतरराष्ट्रीय स्तर पर तुर्की नाम ही प्रचलित रहा। इस तरह गुलामी की याद दिलाने वाले नाम से छुटकारा पाने के लिए इस देश ने अपना नाम ही बदल दिया।
इसके अलावा तुर्की के इस कदम को देश की छवि में बदलाव करने और पक्षी, टर्की तथा इसके साथ जुड़े कुछ नकारात्मक अर्थों से अपना नाम अलग करने के प्रयास के रूप में भी देखा जा रहा है। उल्लेखनीय है कि अंग्रेजी में तुर्की को टर्की कहा जाता है। अंग्रेजी में टर्की का मतलब मूर्ख भी होता है। इसके अलावा टर्की एक ऐसे पक्षी का नाम है जिसको पश्चिमी देशों में खूब खाया जाता है। इस पक्षी को भारत में तीतर कह कर पुकारा जाता है। आप यदि इंटरनेट पर Turkey लिखकर सर्च करेंगे तो तीतर पक्षी की ही तस्वीरें सामने आएंगी। इसके चलते भी तुर्की को कई बार हीन भावना का सामना करना पड़ता था। इसके अलावा तुर्क लोग भी अपने देश को तुर्किये कहना और सुनना पसंद करते हैं। इस तरह जन भावना को देखते हुए वहां की सरकार ने नाम बदलने का फैसला किया। देश का नाम बदल जाने से इस समय वहां हर्ष का माहौल भी देखा जा रहा है।
हम आपको बता दें कि तुर्की पहला देश नहीं है जिसने अपना नाम बदला है। तुर्की से पहले नाम बदलने वाले देशों में नीदरलैंड भी शामिल है। उसने हॉलैंड नाम बदल कर नीदरलैंड कर लिया था। इसके अलावा बर्मा अपना नाम बदल कर म्यांमार, फारस अपना नाम बदल कर ईरान, सीलोन अपना नाम बदल कर श्रीलंका, स्वाजीलैंड अपना नाम बदल कर इस्वातीनी, चेक रिपब्लिक अपना नाम बदल कर चेकिया और मैसेडोनिया अपना नाम बदल कर उत्तरी मैसेडोनिया कर चुके हैं। बहरहाल, तुर्किये नाम पाकर तुर्की इतिहास से जुड़ी शर्मसार करने वाली घटनाओं से तो छुटकारा पा गया लेकिन अब देखना होगा कि क्या यह देश अपनी नीतियों की वजह से अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बनी नकारात्मक छवि को बदलने की दिशा में भी कोई कदम उठाता है?
-नीरज कुमार दुबे
जम्मू-कश्मीर में जबसे धारा 370 हटी है, वहां राजनीतिक उठा-पटक और आतंकवादी घटनाओं में काफी कमी हुई है लेकिन इधर पिछले कुछ हफ्तों में आतंकवाद ने फिर से जोर पकड़ लिया है। कश्मीर घाटी के एक स्कूल में पढ़ा रही जम्मू की अध्यापिका रजनीबाला की हत्या ने कश्मीर में तूफान-सा खड़ा कर दिया है। कश्मीर के हजारों अल्पसंख्यक हिंदू कर्मचारी सड़कों पर उतर आए हैं और वे उप-राज्यपाल से मांग कर रहे हैं कि उन्हें घाटी के बाहर स्थानांतरित किया जाए, वरना वे सामूहिक बहिर्गमन का रास्ता अपनाएंगे। उनका यह आक्रोश तो स्वाभाविक है लेकिन उनकी मांग को क्रियान्वित करने में अनेक व्यावहारिक कठिनाइयां हैं। यहां एक सवाल तो यही है कि क्या आतंकवादी सिर्फ हिंदू पंडितों को ही मार रहे हैं? यह तो ठीक है कि मरने वालों में हिंदू पंडितों की संख्या ज्यादा है, क्योंकि एक तो वे प्रभावशाली हैं, मुखर हैं और उनकी संख्या भी ज्यादा है लेकिन रजनीबाला तो पंडित नहीं थीं। वह तो दलित थीं।
इसके अलावा हम थोड़े और गहरे उतरें तो पता चलेगा कि इस वर्ष अब तक आतंकवादियों ने 13 लोगों की हत्या की है, उनमें चार पुलिस के जवान थे, तीन हिंदू थे और छह मुसलमान थे। इन मुसलमानों में पुलिस वालों के अलावा पंच, सरपंच और टीवी की एक महिला कलाकार भी थी। कहने का अर्थ यह कि आतंकवादी सबके ही दुश्मन हैं। वे घृणा और घमंड से भरे हुए होते हैं। वे जिनसे भी घृणा करते हैं, उनकी हत्या करना वे अपना धर्म समझते हैं। क्या वे यह नहीं जानते यह कुकर्म वे इस्लाम के नाम पर करते हैं और उनकी इस करनी की वजह से इस्लाम सारी दुनिया में बदनाम होता रहता है। ऐसे ही हिंसक उग्रवादियों की मेहरबानी के कारण आज पाकिस्तान और अफगानिस्तान बिल्कुल खस्ता-हाल हुए जा रहे हैं। कश्मीर में इधर कुछ हफ्तों से आतंकवादी हमलों में जो बढ़त हुई है, उसका एक कारण यह भी लगता है कि ये आतंकवादी नहीं चाहते कि भारत-पाक रिश्तों में जो सुधार के संकेत इधर मिल रहे हैं, उन्हें सफल होने दिया जाए। इधर जब से शाहबाज शरीफ की सरकार बनी है, दोनों देशों के नेताओं का रवैया रचनात्मक दिख रहा है।
दोनों देश सीमा पर युद्ध विराम समझौते का पालन कर रहे हैं और सिंधु-जल विवाद को निपटाने के लिए हाल ही में दोनों देशों के अधिकारियों की बैठक दिल्ली में हुई है। पाकिस्तान के व्यापारी भी बंद हुए आपसी व्यापार को खुलवाने का आग्रह कर रहे हैं। आतंकवादियों के लिए यह सब तथ्य काफी निराशाजनक हैं। इसीलिए वे अंधाधुंध गोलियां चला रहे हैं। उनकी हिंसा की सभी कश्मीरी नेताओं ने कड़ी निंदा की है और उप-राज्यपाल मनोज सिन्हा ने भी कठोर शब्दों में आतंकवादी हत्यारों को शीघ्र ही दंडित करने की घोषणा की है। क्या इन आतंकवादियों को इतनी-सी बात भी समझ नहीं आती कि वे हजार साल तक भी इसी तरह लोगों का खून बहाते रहें तो भी अपना लक्ष्य साकार नहीं कर पाएंगे और वे जितने निर्दोष लोगों की हत्या करते हैं, उससे कई गुना ज्यादा आतंकवादी हर साल मारे जाते हैं। यह बात उन पाकिस्तानी लोगों को भी समझनी चाहिए, जो आतंकवाद को प्रोत्साहित करते हैं।
-डॉ. वेदप्रताप वैदिक
राज्यसभा के द्विवार्षिक चुनाव के लिए भाजपा और कांग्रेस ने अपने-अपने उम्मीदवारों के नामों का ऐलान कर दिया है। कांग्रेस की सूची में शामिल सारे नामों को देखेंगे तो सिर्फ गांधी परिवार के वफादारों के नाम ही मिलेंगे तो दूसरी ओर भाजपा की सूची को देखेंगे तो कुछ वरिष्ठ मंत्रियों के नामों के अलावा बाकी सारे नाम आपको अनजाने लगेंगे। कहा जा सकता है कि कांग्रेस ने जहां वफादारों को टिकट दिया है वहीं भाजपा ने आम कार्यकर्ताओं को अपना उम्मीदवार बनाया है। कांग्रेस ने हाल ही में उदयपुर के चिंतन शिविर में जो भी संकल्प लिये थे उनमें से किसी का पालन भी पार्टी ने राज्यसभा के उम्मीदवारों को तय करते हुए नहीं किया है। कांग्रेस पर परिवारवाद के जो आरोप लगते हैं पार्टी ने शायद उसके साथ ही जीने का संकल्प लिया है। कांग्रेस ने तमिलनाडु से पी. चिदम्बरम को उम्मीदवार बनाया है जोकि वर्षों से लगातार राज्यसभा और लोकसभा के सदस्य बनते रहे हैं। चिदम्बरम तमिलनाडु से राज्यसभा उम्मीदवार बनाये गये हैं जबकि उनके बेटे कार्ति चिदम्बरम तमिलनाडु से कांग्रेस के लोकसभा सांसद हैं। यही नहीं राजस्थान पर नजर डालिये। राजस्थान से कांग्रेस ने उत्तर प्रदेश के पार्टी नेता और पूर्व राज्यसभा सांसद प्रमोद तिवारी को अपना उम्मीदवार बनाया है। प्रमोद तिवारी की बेटी आराधना मिश्रा उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की विधायक हैं। प्रमोद तिवारी उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ़ के अलावा पार्टी का कहीं भी विस्तार नहीं कर पाये लेकिन उन्हें राज्यसभा का टिकट थमा दिया गया।
संकल्पों को कांग्रेस ने दे दी तिलांजलि
यही नहीं, कांग्रेस ने उदयपुर के चिंतन शिविर में युवाओं को तरजीह देने की बात कही थी और कहा था कि लोकसभा या राज्यसभा की उम्मीदवारी कितनी बार मिले इसके बारे में सीमा तय की जायेगी। लेकिन 90 के दशक से राज्यसभा सदस्य रहे राजीव शुक्ला, जयराम रमेश और कई बार सांसद रहे मुकुल वासनिक को टिकट थमा दिया। यही नहीं कांग्रेस जिन युवा नेताओं को टिकट देने की बात कह रही है जरा उनका जनाधार भी देख लीजिये। कांग्रेस के राष्ट्रीय प्रवक्ता रणदीप सुरजेवाला हरियाणा विधानसभा चुनावों में अपनी कैथल सीट नहीं बचा पाये थे। यही नहीं हरियाणा चुनाव से पहले सुरजेवाला ने जींद विधानसभा सीट पर उपचुनाव भी लड़ा था और तीसरे नंबर पर रहे थे। अजय माकन लगातार कई बार से दिल्ली में लोकसभा और विधानसभा चुनाव तो हार ही रहे हैं साथ ही वह उपचुनाव भी हार गये थे। यही नहीं उनके दिल्ली कांग्रेस अध्यक्ष पद पर रहते हुए पार्टी नगर निगम का चुनाव भी बुरी तरह हारी थी। छत्तीसगढ़ से रंजीत रंजन को उम्मीदवार बनाया गया है लेकिन वह भी 2019 का लोकसभा चुनाव हार गयी थीं। मध्य प्रदेश से वरिष्ठ वकील विवेक तन्खा को कांग्रेस ने दोबारा मौका दिया है। तन्खा भी 2019 का लोकसभा चुनाव जबलपुर सीट से हार गये थे। महाराष्ट्र से उम्मीदवार बनाये गये इमरान प्रतापगढ़ी भी 2019 का लोकसभा चुनाव उत्तर प्रदेश की मुरादाबाद सीट से हार गये थे। 2019 में कांग्रेस में शामिल होने वाले इमरान पर सांप्रदायिक माहौल बिगाड़ने तक के आरोप लगे हैं। ऐसे में सवाल उठता है कि कांग्रेस इन उम्मीदवारों के जरिये किस तरह की राजनीति करना चाहती है। उम्मीदवारों को लेकर जिस तरह का बवाल कांग्रेस के भीतर देखने को मिल रहा है वह पार्टी की सेहत के लिए अच्छा नहीं है।
अब जरा भाजपा के उम्मीदवारों की बात कर ली जाये। केंद्रीय मंत्री पीयूष गोयल और निर्मला सीतारमण केंद्रीय मंत्रिमंडल में महत्वपूर्ण जिम्मेदारी निभा रहे हैं इसलिए उन्हें फिर से राज्यसभा जाने का मौका मिलेगा यह पहले से ही माना जा रहा था। लेकिन भाजपा ने नये चेहरों और खासकर जमीनी स्तर पर काम कर रहे लोगों को मौका देने के लिए दुष्यंत गौतम, विनय सहस्रबुद्धे, प्रकाश जावडेकर, मुख्तार अब्बास नकवी, सैयद जफर इस्लाम और ओम प्रकाश माथुर को फिर से टिकट नहीं दिया।
उत्तर प्रदेश
उत्तर प्रदेश से भाजपा के उम्मीदवारों पर नजर डालें तो मिथिलेश कुमार, के. लक्ष्मण, दर्शना सिंह और संगीता यादव का नाम शायद पहले लोगों ने सुना भी नहीं होगा। हम आपको बता दें कि मिथिलेश कुमार शाहजहांपुर से लोकसभा के पूर्व सदस्य हैं। वह 2009 में समाजवादी पार्टी के टिकट पर लोकसभा के लिए चुने गए थे। वह एक बार निर्दलीय (2002-2007) और फिर समाजवादी पार्टी के टिकट (2007-2012) पर शाहजहांपुर जिले के पोवायां विधानसभा क्षेत्र से विधायक रहे हैं। 2019 के लोकसभा चुनाव से पहले मिथिलेश कुमार ने सपा का साथ छोड़कर भाजपा का दामन थाम लिया था। हालांकि उस समय लोकसभा चुनाव में उन्हें उम्मीदवार नहीं बनाया गया था। लेकिन जून 2021 में मिथिलेश कुमार को एससी-एसटी आयोग का उपाध्यक्ष मनोनीत किया गया था और अब ठीक एक साल बाद उन्हें राज्यसभा चुनाव में उम्मीदवार बना दिया गया। माना जा रहा है कि कठेरिया समाज से आने वाले मिथिलेश कुमार को संसद के उच्च सदन में भेजकर भाजपा अनुसूचित जाति के वोट बैंक में अपनी पकड़ मजबूत करना चाहती है।
वहीं दर्शना सिंह की बात करें तो उत्तर प्रदेश के चंदौली जिले से ताल्लुक रखने वालीं दर्शना सिंह वर्तमान में भाजपा महिला मोर्चा की राष्ट्रीय उपाध्यक्ष हैं। माना जा रहा है कि पिछले एक दशक से वह जिस तरह पार्टी की सेवा कर रही हैं उसका ईनाम उन्हें दिया गया है। भाजपा ने उत्तर प्रदेश में जिन विधायकों का हालिया संपन्न विधानसभा चुनावों में टिकट काटा था उनमें गोरखपुर से चार बार के विधायक डॉ. राधा मोहन दास अग्रवाल और चौरी चौरा की विधायक संगीता यादव का नाम भी था। डॉ. राधा मोहन दास अग्रवाल ने जहां मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के लिए गोरखपुर शहर सीट खाली की थी वहीं संगीता यादव की चौरी चौरा सीट गठबंधन के तहत निषाद पार्टी को दे दी गयी थी। टिकट कटने के बावजूद इन दोनों नेताओं ने पाला नहीं बदला और भाजपा उम्मीदवारों के लिए प्रचार कर उनकी जीत सुनिश्चित की जिसका ईनाम इन्हें मिला है। संगीता यादव वर्तमान में भाजपा महिला मोर्चा की राष्ट्रीय मंत्री और महिला मोर्चा की दिल्ली प्रभारी भी हैं। संगीता यादव की अति पिछड़ा वोट बैंक में अच्छी पकड़ मानी जाती है।
इसी तरह उत्तर प्रदेश से जिन के. लक्ष्मण को उम्मीदवार बनाया गया है वह भाजपा के ओबीसी मोर्चा के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं। साथ ही वह भाजपा की तेलंगाना इकाई के पूर्व अध्यक्ष भी रह चुके हैं। लक्ष्मण आंध्र प्रदेश विधानसभा और उसके बाद तेलंगाना विधानसभा के भी सदस्य रह चुके हैं। तेलंगाना में अगले साल होने वाले विधानसभा चुनावों को देखते हुए लक्ष्मण को राज्यसभा भेजा जाना महत्वपूर्ण माना जा रहा है। इसी तरह उत्तर प्रदेश से पार्टी के पूर्व अध्यक्ष लक्ष्मीकांत बाजपेई को उम्मीदवार बनाना उनके दशकों तक समर्पण और सेवा का ही फल है। इसके अलावा पार्टी ने मौजूदा राज्यसभा सदस्य सुरेंद्र सिंह नागर को दोबारा उम्मीदवार पश्चिमी उत्तर प्रदेश के जातिगत समीकरणों को देखते हुए ही बनाया है। इसके अलावा जिन बाबूराम निषाद को उम्मीदवार बनाया गया है वह वर्तमान में उत्तर प्रदेश पिछड़ा वर्ग वित्त विकास निगम के अध्यक्ष हैं। बुंदेलखंड में उनकी गहरी पकड़ मानी जाती है। विधानसभा चुनावों में उन्हें टिकट नहीं मिला था लेकिन उन्होंने पार्टी के लिए मेहनत से काम किया और अब परिणाम सामने है।
मध्य प्रदेश
वहीं मध्य प्रदेश से कैलाश विजयवर्गीय और अन्य कई बड़े नामों को पछाड़ते हुए भाजपा ने जिन सुमित्रा वाल्मिकी और कविता पाटीदार को उम्मीदवार बनाया है उनका परिचय जान कर भी आप चौंक जायेंगे। संविधान निर्माता डॉ. भीमराव आम्बेडकर की जन्मस्थली महू की रहने वालीं कविता पाटीदार भाजपा की प्रदेश महासचिव हैं। उन्होंने वर्ष 2005 से सक्रिय राजनीति की शुरुआत की थी। कविता पाटीदार, इंदौर जिला पंचायत की अध्यक्ष रह चुकी हैं। कविता पाटीदार ओबीसी समुदाय से ताल्लुक रखती हैं। वहीं जबलपुर की सुमित्रा वाल्मीकि भाजपा की प्रदेश उपाध्यक्ष हैं। वह अनुसूचित जाति वर्ग से ताल्लुक रखती हैं। राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि मध्य प्रदेश के आगामी स्थानीय निकाय चुनावों से पहले, ओबीसी आरक्षण पर तेज होते सियासी घमासान के बीच कविता पाटीदार और सुमित्रा वाल्मीकि को राज्यसभा चुनावों में उम्मीदवार बनाकर सत्तारुढ़ भाजपा ने यह संदेश देने की कोशिश की है कि वही इस तबके की सबसे बड़ी हितैषी है।
उत्तराखण्ड
इसी प्रकार आप उत्तराखण्ड से उम्मीदवार बनायी गयीं कल्पना सैनी का नाम देख लीजिये। एक समय था जब राज्यसभा चुनावों के समय माना जाता था कि किसी बड़े नाम को मौका दिया जायेगा लेकिन भाजपा ने यह परम्परा बदलते हुए साधारण कार्यकर्ताओं को मौका देना शुरू कर दिया है। कल्पना सैनी हरिद्वार जिले से हैं तथा वर्तमान में प्रदेश में राज्य पिछड़ा वर्ग आयोग की अध्यक्ष हैं। यानि इस राज्य में भी भाजपा ने पिछड़ा वर्ग को ही ध्यान में रखा है।
महाराष्ट्र
वहीं महाराष्ट्र में पीयूष गोयल के अलावा जिन अनिल बोंडे और धनंजय महादिक को अवसर मिला है जरा उनका भी परिचय जान लीजिये। महाराष्ट्र में माना जा रहा था कि भाजपा पंकजा मुंडे अथवा विनोद तावड़े को अवसर देगी लेकिन यहां भी भाजपा ने ओबीसी को ही महत्व दिया। अनिल बोंडे महाराष्ट्र में भाजपा की ओर से बड़े ओबीसी नेता माने जाते हैं। राज्य में जल्द ही स्थानीय निकाय चुनाव होने हैं वह भी बिना ओबीसी आरक्षण के। ऐसे में अनिल बोंडे का चयन काफी महत्वपूर्ण हो जाता है। अनिल बोंडे किसानों की समस्याओं को समझने वाले नेता भी माने जाते हैं। वह देवेंद्र फडणवीस सरकार में कृषि मंत्री भी रह चुके हैं। वहीं धनंजय महादिक की बात करें तो वह कोल्हापुर से सांसद रह चुके हैं। वह महाराष्ट्र भाजपा प्रवक्ता के साथ ही सहकारी शक्कर कारखाने से भी जुड़े हुए हैं। धनंजय महादिक महाराष्ट्र में भाजपा के उभरते हुए युवा नेताओं में भी गिने जाते हैं।
राजस्थान
वहीं राजस्थान की बात करें तो भाजपा ने यहां से वरिष्ठ नेता घनश्याम तिवाड़ी को उम्मीदवार बनाकर कई संदेश दिये हैं। घनश्याम तिवाड़ी जनसंघ के समय से ही साथ रहे हैं लेकिन वसुंधरा राजे से नाराजगी के चलते उन्होंने 2017 में राजे के खिलाफ तब मोर्चा खोला था जब वह मुख्यमंत्री थीं। उस समय घनश्याम तिवाड़ी को अनुशासनहीनता का नोटिस भी जारी किया गया था। बाद में उन्होंने जून 2018 में पार्टी से त्यागपत्र दे दिया था। तिवाड़ी ने 2018 में राजस्थान विधानसभा चुनाव से पहले ‘‘भारत वाहिनी पार्टी’’ बनाकर जयपुर की सांगानेर विधानसभा क्षेत्र से चुनाव लड़ा था लेकिन उनकी जमानत जब्त हो गयी थी। बाद में उन्होंने कांग्रेस की सदस्यता ग्रहण कर ली थी लेकिन दिसंबर 2020 में भाजपा के केन्द्रीय नेतृत्व से बातचीत के बाद वे वापस भाजपा में आ गये थे। अब तिवाड़ी को टिकट देकर जहां भाजपा ने अगले साल होने वाले विधानसभा चुनावों से पहले ब्राह्मणों को साधने की कोशिश की है वहीं वसुंधरा राजे के गुट को भी सख्त संदेश दे दिया है। वैसे घनश्याम तिवाड़ी अब तक एक ही चुनाव हारे हैं। वह कई बार राजस्थान विधानसभा के सदस्य रहने के अलावा राज्य मंत्रिमंडल में कैबिनेट मंत्री भी रहे हैं।
कर्नाटक
जहां तक कर्नाटक से भाजपा के उम्मीदवारों की बात है तो यहां पार्टी ने केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण के अलावा जग्गेश और लहर सिंह सिरोया को उम्मीदवार बनाया है। अभिनेता से नेता बने जग्गेश को उम्मीदवार बनाकर भाजपा ने विधानसभा चुनावों से पहले वोक्कालिगा समुदाय को लुभाने और तुमकुरु जिले में पार्टी के जनाधार को मजबूत करने का प्रयास किया है। जग्गेश कांग्रेस के विधायक और भाजपा के विधान परिषद सदस्य रहे हैं। अभिनय जगत में उनकी धाक मानी जाती है। इसके अलावा लहर सिंह सिरोया जिन्हें उम्मीदवार बनाया गया है वह कर्नाटक विधान परिषद के सदस्य हैं और पूर्व मुख्यमंत्री बीएस येदियुरप्पा के करीबी माने जाते हैं। लहर सिंह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के भी बड़े प्रशंसकों में से हैं। गुजरात का मुख्यमंत्री रहते हुए जब नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा वहां पंचायत चुनाव जीती थी तो लहर सिंह सिरोया ने देश के सभी बड़े हिंदी समाचार पत्रों में पूरे पेज का विज्ञापन देकर मोदी को बधाई दी थी। यह वह अवसर था जब बिहार विधानसभा चुनावों के प्रचार के समय सुषमा स्वराज ने कहा था कि गुजरात में मोदी का जादू बढ़िया चला, उन्होंने पंचायत चुनाव में शानदार जीत हासिल की लेकिन उनके जादू की और जगह जरूरत नहीं है। ऐसे में लहर सिंह सिरोया की ओर से दिये गये विज्ञापन को मोदी के लिए राष्ट्रीय भूमिका तैयार करने की कोशिश के तौर पर देखा गया था। यही नहीं लहर सिंह सिरोया तत्कालीन पार्टी अध्यक्ष लालकृष्ण आडवाणी पर आरोप लगाकर कुछ समय तक भाजपा से निलंबित भी रह चुके हैं।
बिहार
वहीं जहां तक बिहार से उम्मीदवार बनाये गये सतीश चंद्र दुबे और शंभू शरण पटेल की बात है तो भाजपा ने इन उम्मीदवारों के जरिये भी कार्यकर्ताओं के सम्मान के साथ ही जातिगत समीकरण साधने की कोशिश की है। 2005 में नरकटियागंज से विधायक रहे सतीश चंद्र दुबे 2014 में वाल्मीकि नगर संसदीय सीट से लोकसभा चुनाव जीते थे लेकिन 2019 के चुनाव में उनकी सीट गठबंधन के तहत जदयू के पास चली गयी तो भाजपा ने उन्हें राज्यसभा भेज दिया। अब एक बार फिर सतीश चंद्र दुबे पर भरोसा जताते हुए पार्टी ने उन्हें राज्यसभा भेजा है। वैसे भी सतीश चंद्र दुबे को अभी राज्यसभा में तीन वर्ष का ही कार्यकाल मिला था क्योंकि वह राम जेठमलानी के निधन से खाली हुई सीट पर उपचुनाव जीते थे। वहीं शंभू शरण पटेल बिहार में भाजपा का युवा चेहरा होने के साथ ही प्रदेश पार्टी संगठन में मंत्री पद पर हैं। शंभू शरण पटेल के चयन के जरिये भाजपा ने संगठन के लोगों को यह संदेश दिया है कि सभी के कामकाज पर केंद्रीय नेतृत्व की नजर है और मेहनत का फल एक दिन मिलता ही है।
हरियाणा
वहीं हरियाणा में भाजपा ने अनुसूचित जाति के बड़े चेहरे पूर्व मंत्री कृष्ण लाल पंवार को उम्मीदवार बनाकर बड़ा दांव चल दिया है। कृष्ण लाल पंवार हरियाणा विधानसभा में पांच बार विधायक रह चुके हैं। वह इंडियन नेशनल लोकदल के विधायक भी रहे हैं। वर्ष 2014 में टिकट नहीं मिलने पर उन्होंने भाजपा का दामन थामा था और जीत के बाद खट्टर सरकार में परिवहन मंत्री बनाए गए थे। वह 2019 का विधानसभा चुनाव हार गये थे लेकिन अपने समाज के बीच उनका बड़ा आधार देखते हुए पार्टी ने उन्हें राज्य भाजपा के अनुसूचित जाति मोर्चा का प्रदेश अध्यक्ष बनाया था।
बहरहाल, राज्यसभा चुनावों के लिए क्षेत्रीय दलों ने जो नाम घोषित किये हैं वह भी परिवारवाद की परम्परा को आगे बढ़ाने वाले या किसी को खुश करने के लिए किये गये प्रयास के रूप में ही नजर आ रहे हैं। वैसे जल्द ही होने वाले राष्ट्रपति चुनाव से पहले इस बार के राज्यसभा चुनाव काफी महत्वपूर्ण हो गये हैं। अभी यह देखना भी बाकी है कि भाजपा और कांग्रेस की ओर से जिन दिग्गजों को संसद से बाहर कर दिया गया है उनका आगे का राजनीतिक भविष्य क्या रहता है। खासतौर पर सबकी नजरें केंद्रीय मंत्री मुख्तार अब्बास नकवी पर हैं। राज्यसभा की सदस्यता खत्म होते ही अब उन्हें मंत्री पद छोड़ना होगा या फिर संसद का सदस्य बन कर मंत्री पद बचाना होगा। माना जा रहा है कि आजम खान की ओर से खाली की गयी रामपुर लोकसभा सीट पर होने वाले उपचुनाव में भाजपा उन्हें उम्मीदवार बना सकती है। इसके अलावा एक अन्य केंद्रीय मंत्री और जदयू नेता आरसीपी सिंह का राजनीतिक भाग्य भी अधर में लटक गया है क्योंकि उनकी पार्टी ने उन्हें दोबारा राज्यसभा नहीं भेजा है।
- नीरज कुमार दुबे
संसद और विधान सभा गंभीर बहस का केन्द्र होते हैं। बहस से ही देश-प्रदेश के आगे बढ़ने की राह निकलती है। बहस के दौरान अक्सर पक्ष-विपक्ष के बीच तकरार भी हो जाती है। कभी-कभी तो माहौल इतना गरम हो जाता है कि दोनों पक्ष आमने-सामने आ जाते हैं। अब तो लात-घूंसे और माइक फेंकने तक की घटनाएं सदन में देखने को मिल जाती है। इसकी वजह है आज के दौर में नेता, देश से बड़ा हो गया है। देश से बड़े हो गए नेता का अहंकार भी बड़ा हो गया है। नेताओं की तुनकमिजाजी भी खूब चर्चा बटोरती है। उत्तर प्रदेश के बजट सत्र को ही ले लीजिए। बहस के दौरान उप मुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य और नेता प्रतिपक्ष अखिलेश यादव के बीच इतनी गरमा-गरम बहस छिड़ गई कि अखिलेश यादव उप मुख्यमंत्री के पिता जी तक पर उतर आए। दरअसल, जब अखिलेश और केशव एक-दूसरे पर व्यंग्य बाण छोड़ रहे थे तभी बहस के दौरान अखिलेश ने कहा कि आपके जिले की चार लेन सड़क भी सपा सरकार ने बनवाई थी। केशव बोले- जैसे आपने सैफई की जमीन बेचकर सड़क, एक्सप्रेसवे, मेट्रो बनवाई हो। केशव का यह जवाब सुनकर तैश में आए अखिलेश ने केशव को डपटते हुए कहा कि तुम अपने पिताजी से पैसे लाते हो सड़कें बनाने के लिए, तुमने राशन बांटा पिताजी से पैसे लेकर...। इस पर मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने दोनों को समझा-बुझाकर मामला शांत किया, लेकिन दूसरे ही दिन पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव और सीएम योगी आदित्यनाथ गोबर को लेकर आमने-सामने आ गए।
हुआ यूं कि बजट भाषण के दौरान जब अखिलेश प्रदेश की प्राथमिक शिक्षा की हालत पर बोल रहे थे तो सत्ता पक्ष के सदस्य ने उनके (अखिलेश यादव) आस्ट्रेलिया में पढ़े होने पर टिप्पणी कर दी। इस टिप्पणी से अखिलेश यादव भड़क गए। उन्होंने कहा कि हम वहां पढ़े हैं इसलिए जो अच्छा देखा वो लागू किया। आप लोग गोबर देखते रहते हो तो वही इम्पलीमेंट कर रहे हो। अखिलेश का सीधा इशारा योगी आदित्यनाथ पर था, योगी गौ माता के बड़े सेवक हैं और गोरखपुर में उनके गोरखनाथ मंदिर में बहुत बड़ी गौशाला भी है। अखिलेश यादव ने योगी को संबोधित करते हुए कहा था कि हमें कन्नौज में गोबर प्लांट नहीं चाहिए। वह आप गोरखपुर ले जाइए। हमें हमारा परफ्यूम पार्क दे दीजिए। सरकार के कन्नौज में गोबर प्लांट लगाने की घोषणा पर अखिलेश ने कहा कि कन्नौज की पहचान इत्र से है, गोबर से नहीं। इसलिए गोबर प्लांट लगाना है तो गोरखपुर में प्लांट लगाएं।
उस समय तो सीएम योगी अखिलेश की बातों पर मुस्कुराते रहे, लेकिन जब वह बजट के पक्ष में बोलने के लिए खड़े हुए तो अखिलेश को गोबर पर खूब लपेटा। मंगलवार 31 मई को योगी आदित्यनाथ ने अखिलेश के गोबर वाले बयान पर उन्हें ज्ञान दिया। योगी ने कहा कि अखिलेश के भाषण में भैंस के दूध का असर ज्यादा दिखाई दे रहा था। गाय का कम था। इस पर सदन में जमकर ठहाके लगे। योगी ने कहा कि बहुत से लोग फैट कंटेंट के नाते भैंस का दूध ज्यादा पसंद करते हैं। उन्हें तो जिसकी लाठी उसकी भैंस की तर्ज पर काम करना है। उन्होंने कहा कि नेता प्रतिपक्ष एक तरफ किसान की बात कर रहे हैं और दूसरी तरफ गोबर में उन्हें बदबू नजर आ रही है। हमारे यहां गाय का गोबर बड़ा पवित्र माना गया है। तंज कसते हुए सीएम ने आगे कहा कि अखिलेश ने हमसे न सही, चाचा शिवपाल से ही सीखा होता तो पता चल जाता कि पूजा कैसे होती है।
गोबर पर घेरते हुए योगी ने अखिलेश को यहीं नहीं छोड़ा। उन्होंने कहा कि भारत की कृषि प्रधान व्यवस्था बिना गाय और बिना गोबर के नहीं हो सकती। नेचुरल फार्मिंग बगैर गौ माता के संभव ही नहीं है लेकिन आपको (अखिलेश को) गाय के गोबर में बदबू आती है। अगर आपने पूजा की होती और गाय के गोबर को लक्ष्मी के रूप में रखा होता तो पता होता कि भारत की समृद्धि का प्रतीक तो यहीं से प्रारंभ होता है। उन्होंने अखिलेश के सवाल के जवाब में कहा कि कन्नौज भी उत्तर प्रदेश का हिस्सा है और हम किसी से भेदभाव नहीं करते हैं।
योगी ने गोबर पर अखिलेश को लेकर ज्ञान देते हुए कहा कि कहा कि हमसे नहीं तो कम से कम चाचा शिवपाल से सीख लिए होते, इस पर सत्ता पक्ष के साथ-साथ विपक्ष के सदस्य भी हंस पड़े। खुद अखिलेश भी मुस्कुराते नज़र आए। सीएम योगी ने कहा कि नेता प्रतिपक्ष ने यदि गौ-सेवा की होती तो उसी तरह बोले भी होते लेकिन भाषण में भैंस के दूध का ज्यादा असर दिखाई दे रहा था। गाय का कम था।
सीएम ने तंज कसते हुए कहा कि नेता प्रतिपक्ष (अखिलेश) ने कन्नौज की चिंता जरूर की, लेकिन इनके इत्र वाले मित्र तो बहुत कुछ गुल खिला रहे थे, परंतु इत्र उद्योग के लिए बीजेपी सरकार ने ईमानदारी से काम किया है। वर्तमान में अकेले कन्नौज से इत्र का 800 करोड़ का व्यापार हो रहा है। एक जिला-एक उत्पाद योजना से कन्नौज जुड़ा है। पिछले पांच साल में 55 नई इकाइयां लगी हैं। यद्यपि पहले से भी वहां इकाइयां थीं। 375 इकाइयां वहां काम कर रही हैं। कोरोना काल खंड में भी हम लोगों ने 2.7 मिलियन यूएस डॉलर का इत्र निर्यात किया है।
बहरहाल, विधानसभा के अंदर यदि गोबर पर चर्चा हो तो यह समझा जा सकता है कि या तो हम लोग वैज्ञानिक आधार पर काफी आगे बढ़ गए हैं इसके उलट यह भी कहा जा सकता है कि हमारे माननीय विधायकों के पास अब कोई मुद्दा ही नहीं रह गया है, इसलिए सदन में अब गोबर पर चर्चा होने लगी है। सबसे खास बात यह है कि गोबर पर चर्चा कोई छोटे-मोटे नेताओं के बीच नहीं बल्कि दो वरिष्ठ नेताओं के बीच हुई जिसमें एक पूर्व था तो दूसरा सीएम की कुर्सी पर विराजमान है।
-अजय कुमार
आतंकवाद के खिलाफ सुरक्षाबल त्वरित कार्रवाई कर रहे हैं। कश्मीरी पंडित राहुल भट्ट की हत्या के 24 घंटे के भीतर उनकी हत्या में शामिल आतंकवादियों को मार गिराया गया। 48 घंटे के भीतर टीवी अभिनेत्री के हत्यारों को ढेर कर दिया गया और पुलिस अधिकारी की हत्या में शामिल आतंकियों को भी मार गिराया गया है।
जम्मू-कश्मीर में हाल ही में बढ़ी आतंकी गतिविधियों के बाद सवाल पूछा जा रहा है कि जब अनुच्छेद 370 हटा दिया गया है तब भी आतंकी वारदातें क्यों नहीं थम रही हैं। प्रभासाक्षी के खास साप्ताहिक कार्यक्रम चाय पर समीक्षा में इसी मुद्दे की समीक्षा की गयी। गौरतलब है कि जम्मू-कश्मीर में जनवरी से अभी तक सुरक्षा बलों ने लश्कर-ए-तैयबा और जैश-ए-मोहम्मद से जुड़े 26 विदेशी आतंकवादियों को मार गिराया है। माना जा रहा है कि घाटी में स्थानीय आतंकवादियों की संख्या कम होने के बाद विदेशी आतंकवादियों के लिए बिल से बाहर निकलना मजबूरी हो गई है।
जम्मू-कश्मीर के नेता खाते हिंदुस्तान की हैं लेकिन बात पाकिस्तान की करते हैं और उनकी बातों में पाकिस्तान प्रेम दिखाई देता है। ऐसे में अनुच्छेद 370 को हटाने बस से काम नहीं चलने वाला है इन नेताओं को भी यहां से हटाने की जरूरत है। क्योंकि अनुच्छेद 370 के हटने के बाद से इन नेताओं की दुकान बंद हो गई है। ऐसे में एक-दूसरे के खिलाफ लड़ने वाले यह नेता एकजुट हो गए हैं और अपने गुट को गुपकार का नाम दे दिया है।
इसके साथ ही प्रभासाक्षी के संपादक ने जम्मू-कश्मीर पुलिस की जमकर तारीफ की। उन्होंने कहा कि आतंकवादी मुस्लमानों को निशाना बना रहे हैं, कश्मीरी लोगों पर हमले कर रहे हैं। इसके बावजूद जम्मू-कश्मीर पुलिस के हौसलों में कोई कमी नहीं आई और वो 24वों घंटे मुस्तैद रहते हैं। इसी बीच उन्होंने एक जम्मू-कश्मीर पुलिस के जवान से हुई बातचीत के बारे में भी जानकारी दी। उन्होंने बताया कि एक दफा पुलिस जवान ने मुझे अपना फोन दिखाते हुए कहा कि देखिए 10 मिनट में मेरे पास 5 बार घर से फोन आ चुके हैं। दरअसल, मेरे घर वाले मेरी खैरियत जानना चाहते हैं कि मैं जिंदा हूं या नहीं। इस तरह का माहौल होने के बावजूद सुरक्षाकर्मी मुस्तैद रहते हैं।
इसी बीच उन्होंने बताया कि आतंकवाद के खिलाफ सुरक्षाबल त्वरित कार्रवाई कर रहे हैं। कश्मीरी पंडित राहुल भट्ट की हत्या के 24 घंटे के भीतर उनकी हत्या में शामिल आतंकवादियों को मार गिराया गया। 48 घंटे के भीतर टीवी अभिनेत्री के हत्यारों को ढेर कर दिया गया और पुलिस अधिकारी की हत्या में शामिल आतंकियों को भी मार गिराया गया है। उन्होंने बताया कि सरकार जम्मू-कश्मीर के लिए बेहतरीन काम कर रही है। चाहे बात कोरोना महामारी के दौरान की हो या फिर उसके बाद की। वहां पर पर्यटन बढ़ा है और कश्मीरी विकास में लगातार सरकार का समर्थन कर रहे हैं।
आपको बता दें कि जम्मू-कश्मीर के निकले हुए युवा को भारतीय क्रिकेट टीम में जगह मिली है। दरअसल, इंडियन प्रीमियर लीग (आईपीएल) में कश्मीर के तूफान उमरान खान ने 157 किमी प्रतिघंटे की रफ्तार से गेंदबाजी की। जिसके दम पर उनका चयन साउथ अफ्रीका के खिलाफ होने वाली 5 मैचों की टी20 अंतरराष्ट्रीय सीरीज के लिए हुआ। कश्मीर में ऐसा हुनर बहुत ज्यादा है और हर क्षेत्र को निखार रहा है। इसी ऊर्जा और नई ताकत के साथ कश्मीर को और बेहतर बनाने की जिम्मेदारी में युवा डटे हुए हैं।
- अनुराग गुप्ता
सावरकर दुनिया के अकेले स्वातंत्र्य योद्धा थे जिन्हें दो-दो आजीवन कारावास की सजा मिली, सजा को पूरा किया और फिर से राष्ट्र जीवन में सक्रिय हो गए। वे विश्व के ऐसे पहले लेखक थे जिनकी कृति 1857 का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम को दो-दो देशों ने प्रकाशन से पहले ही प्रतिबंधित कर दिया।
"मैं तुम्हारे दर्शन करने आया हूँ मदन, मुझे तुम पर गर्व है। सावरकर तुम्हें मेरी आँखों में डर की परछाई तो नहीं दिखाई दे रही, बिल्कुल नहीं मुझे तुम्हारे चेहरे पर योगेश्वर कृष्ण का तेज दिखाई दे रहा है, तुमने गीता के स्थितप्रज्ञ को साकार कर दिया है मदन" न जाने ऐसे कितने ही जीवन है जो सावरकर से प्रेरणा प्राप्त कर मातृभूमि के लिए हस्ते हस्ते बलिदान हो गए। अपने महापुरुषों का स्मरण व सदैव उनके गुणों को आत्मसात करते हुए आगे बढ़ते रहना, यही भारत की श्रेष्ठ परंपरा है। ऐसे ही अकल्पनीय व अनुकरणीय जीवन को याद करने का दिन है सावरकर जयंती।
यहां दीप नहीं जीवन जलते हैं
स्वातंत्र्य विनायक दामोदर सावरकर केवल नाम नहीं, एक प्रेरणा पुंज है जो आज भी देशभक्ति के पथ पर चलने वाले मतवालों के लिए जितने प्रासंगिक हैं उतने ही प्रेरणादायी भी। वीर सावरकर अदम्य साहस, इस मातृभूमि के प्रति निश्छल प्रेम करने वाले व स्वाधीनता के लिए अपने प्राणों को न्यौछावर करने वाला अविस्मरणीय नाम है। इंग्लैंड में भारतीय स्वाधीनता हेतु अथक प्रवास, बंदी होने पर भी अथाह समुद्र में छलांग लगाने का अनोखा साहस, कोल्हू में बैल की भांति जोते जाने पर भी प्रसन्ता, देश के लिए परिवार की भी बाजी लगा देना, पल-प्रतिपल देश की स्वाधीनता का चिंतन व मनन, अपनी लेखनी के माध्यम से आमजन में देशभक्ति के प्राण का संचार करना, ऐसा अद्भुत व्यक्तित्व था विनायक सावरकर का। सावरकर ने अपने नजरबंदी समय में अंग्रेजी व मराठी अनेक मौलिक ग्रंथों की रचना की, जिसमें मैजिनी, 1857 स्वातंत्र्य समर, मेरी कारावास कहानी, हिंदुत्व आदि प्रमुख है।
सर्वत्र प्रथम कीर्तिमान रचने वाले सावरकर
सावरकर दुनिया के अकेले स्वातंत्र्य योद्धा थे जिन्हें दो-दो आजीवन कारावास की सजा मिली, सजा को पूरा किया और फिर से राष्ट्र जीवन में सक्रिय हो गए। वे विश्व के ऐसे पहले लेखक थे जिनकी कृति 1857 का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम को दो-दो देशों ने प्रकाशन से पहले ही प्रतिबंधित कर दिया। सावरकर पहले ऐसे भारतीय राजनीतिज्ञ थे जिन्होंने सर्वप्रथम विदेशी वस्त्रों की होली जलाई। वे पहले स्नातक थे जिनकी स्नातक की उपाधि को स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लेने के कारण अंग्रेज सरकार ने वापस ले लिया। वीर सावरकर पहले ऐसे भारतीय विद्यार्थी थे जिन्होंने इंग्लैंड के राजा के प्रति वफादारी की शपथ लेने से मना कर दिया। फलस्वरूप उन्हें वकालत करने से रोक दिया गया। वीर सावरकर ने राष्ट्र ध्वज तिरंगे के बीच में धर्म चक्र लगाने का सुझाव सर्वप्रथम दिया था, जिसे तात्कालिक राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने माना। उन्होंने ही सबसे पहले पूर्ण स्वतंत्रता को भारत के स्वतंत्रता आंदोलन का लक्ष्य घोषित किया। वे ऐसे प्रथम राजनैतिक बंदी थे जिन्हें विदेशी (फ्रांस) भूमि पर बंदी बनाने के कारण हेग के अंतरराष्ट्रीय न्यायालय में मामला पहुँचा। वे पहले क्रांतिकारी थे जिन्होंने राष्ट्र के सर्वांगीण विकास का चिंतन किया तथा बंदी जीवन समाप्त होते ही जिन्होंने अस्पृश्यता आदि कुरीतियों के विरुद्ध आंदोलन शुरू किया। दुनिया के वे ऐसे पहले कवि थे जिन्होंने अंडमान के एकांत कारावास में जेल की दीवारों पर कील और कोयले से कविताएँ लिखीं और फिर उन्हें याद किया। इस प्रकार याद की हुई दस हजार पंक्तियों को उन्होंने जेल से छूटने के बाद पुन: लिखा।
काल कोठरी के ग्यारह साल व सावरकर
क्या मैं अब अपनी प्यारी मातृभूमि के पुनः दर्शन कर सकूंगा ? 4 जुलाई 1911 में अंडमान के सेलुलर जेल में पहुँचने से पहले सावरकर के मन की व्यथा शायद कुछ ऐसी ही रही होगी। अंडमान की उस काल कोठरी में सावरकर को न जाने कितनी ही शारीरिक यातनाएं सहनी पड़ी होंगी, इसको शब्दों में बता पाना असंभव है। अनेक वर्षों तक रस्सी कूटने, कोल्हू में बैल की तरह जुत कर तेल निकालना, हाथों में हथकड़ियां पहने हुए घंटों टंगे रहना, महीनों एकांत काल-कोठरी में रहना और भी न जाने किसी-किस प्रकार के असहनीय कष्ट झेलने पड़े होंगे सावरकर को। लेकिन ये शारीरिक कष्ट भी कभी उस अदम्य साहस के प्रयाय बन चुके विनायक सावरकर को प्रभावित न कर सके। कारावास में रहते हुए भी सावरकर सदा सक्रिय बने रहे। कभी वो राजबंदियों के विषय में निरंतर आंदोलन करते, कभी पत्र द्वारा अपने भाई को आंदोलन की प्रेरणा देते, कभी अपनी सजाएँ समाप्त कर स्वदेश लौटने वाले क्रांतिवीरों को अपनी कविताएं व संदेश कंठस्थ करवाते। इस प्रकार सावरकर सदैव अपने कर्तव्यपथ पर अग्रसर दिखाई दिए। उनकी अनेक कविताएं व लेख अंडमान की उन दीवारों को लांघ कर 600 मील की दूरी पार करके भारत पहुँचते रहे और समाचार पत्रों द्वारा जनता में देशभक्ति की अलख जगाते रहे।
समरसता व हिंदुत्व के पुरोधा
सन 1921 में सावरकर को अंडमान से कलकत्ता बुलाना पड़ा। वहां उन्हें रत्नागिरी जेल भेज दिया गया। 1924 को सावरकर को जेल से मुक्त कर रत्नागिरी में ही स्थानबद्ध कर दिया गया। उन्हें केवल रत्नागिरी में ही घूमने-फिरने की स्वतंत्रता थी। इसी समय में सावरकर ने हिंदू संगठन व समरसता का कार्य प्रारम्भ कर दिया। महाराष्ट्र के इस प्रदेश में छुआछूत को लेकर घूम-घूमकर विभिन्न स्थानों पर व्याख्यान देकर धार्मिक, सामाजिक तथा राजनैतिक दृष्टि से छुआछूत को हटाने की आवश्यकता बतलाई। सावरकर के प्रेरणादायी व्याख्यान व तर्कपूर्ण दलीलों से लोग इस आंदोलन में उनके साथ हो लिए। दलितों में अपने को हीन समझने की भावना धीरे-धीरे जाती रही और वो भी इस समाज का महत्वपूर्ण हिस्सा है ऐसा गर्व का भाव जागृत होना शुरू हो गया। सावरकर की प्रेरणा से भागोजी नामक एक व्यक्ति ने ढाई लाख रुपए व्यय करके रत्नागिरी में ‘श्री पतित पावन मंदिर' का निर्माण करवाया। दूसरी और सावरकर ने ईसाई पादरियों और मुसलमानों द्वारा भोले भाले हिंदुओं को बहकाकर किये जा रहे धर्मांतरण के विरोध में शुद्धि आंदोलन प्रारम्भ कर दिया। रत्नागिरी में उन्होंने लगभग 350 धर्म-भ्रष्ट हिंदुओं को पुनः हिंदू धर्म में दीक्षित किया।
युवाओं के सावरकर
सावरकर का जीवन आज भी युवाओं में प्रेरणा भर देता है। जिसे सुनकर प्रत्येक देशभक्त युवा के रोंगटे खड़े हो जाते हैं। विनायक की वाणी में प्रेरक ऊर्जा थी। उसमें दूसरों का जीवन बदलने की शक्ति थी। सावरकर से शिक्षा-दीक्षा पाकर अनेकों युवा व्यायामशाला जाने लगे, पुस्तकें पढ़ने लगे। विनायक के विचारों से प्रभावित असंख्य युवाओं के जीवन में सकारात्मक परिवर्तन आ गया। जो भोग-विलासी थे, वे त्यागी बन गए। जो उदास तथा आलसी थे, वे उद्यमी हो गए। जो संकुचित और स्वार्थी थे, वो परोपकारी हो गए। जो केवल अपने परिवार में डूबे हुए थे, वे देश-धर्म के संबंध में विचार करने लगे। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि युवाओं के लिए सावरकर वो पारस पत्थर थे, कि जो भी उनके संपर्क में आया वो ही इस मातृभूमि की सेवा में लग गया। सावरकर स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए व उसके बाद भी उसकी रक्षा हेतु प्रयास करते रहे। इसलिए उनका नाम 'स्वातंत्र्य सावरकर' अमर हुआ। आज जयंती दिवस पर उस हुतात्मा को शत शत नमन...
-डॉ. पवन सिंह मलिक
(लेखक मीडिया विभाग, जे.सी. बोस विश्वविद्यालय, फरीदाबाद में एसोसिएट प्रोफेसर हैं)
टैरर फंडिंग मामले में आतंकवादी और कश्मीरी अलगाववादी नेता यासीन मलिक को सजा सुनाये जाने से जहां देशभर में खुशी का माहौल है वहीं पाकिस्तान को मिर्ची लग गयी है और जम्मू-कश्मीर को दशकों तक लूटते रहे वहां के स्थानीय नेताओं पर भी जैसे दुखों का पहाड़ टूट पड़ा है।
कश्मीरी आतंकवादी और अलगाववादी नेता यासीन मलिक को उसके बुरे कर्मों की सजा मिलने की शुरुआत हो चुकी है। दिल्ली की एक अदालत ने आतंकवाद का वित्त पोषण करने के एक मामले में प्रतिबंधित संगठन जेकेएलएफ के प्रमुख यासीन मलिक को गैरकानूनी गतिविधियां रोकथाम अधिनियम (यूएपीए) के तहत उम्रकैद की सजा सुनाई है। हम आपको बता दें कि यासीन मलिक ने अपने ऊपर लगाए गए सभी आरोपों को स्वीकार कर लिया था जिसके बाद अदालत ने 19 मई को यासीन मलिक को टैरर फंडिंग मामले में दोषी ठहराया था। दिल्ली की पटियाला हाउस कोर्ट में यासीन मलिक की सजा पर बहस के दौरान एनआईए ने दोषी के लिए मौत की सजा की मांग की थी मगर अदालत ने उम्रकैद की सजा सुनाई। यासीन मलिक को सजा मिलना उन कश्मीरी पंडितों को न्याय मिलने की शुरुआत भी कही जा सकती है जिन्हें कश्मीर में आतंकवाद की घटनाओं ने कहीं का नहीं छोड़ा। अदालत के फैसले के बाद अब हुर्रियत के उन नेताओं की धड़कनें भी तेज हो गयी होंगी जोकि अपना राजनीतिक चेहरा आगे रखकर राष्ट्रविरोधी गतिविधियों में लिप्त रहते थे।
पिक्चर अभी बाकी है!
देखा जाये तो यासीन मलिक को टैरर फंडिंग मामले में तो सजा मिल गयी है लेकिन अभी उसे सैंकड़ों निर्दोषों की हत्या और इस पृथ्वी का स्वर्ग माने जाने वाले समूचे कश्मीर को आतंकवाद की आग में झोंकने जैसे गंभीर अपराधों में सजा मिलना बाकी है। उल्लेखनीय है कि जम्मू-कश्मीर में आतंक को बढ़ावा देने, कश्मीर की आजादी की वकालत करते रहने, बम बारूद और बंदूक के दम पर कश्मीर घाटी में डर का माहौल बनाये रखने, कश्मीर घाटी के युवाओं को बरगलाने का अभियान चलाये रखने और कत्लेआम मचाने वाला यासीन मलिक और भी कड़ी सजाओं का हकदार है। 1987 में पाकिस्तान जाकर वहां आतंक की ट्रेनिंग लेकर लौटने वाले यासीन मलिक ने कश्मीर घाटी को जिस तरह बर्बाद किया उसे देश भूल नहीं सकता इसीलिए उसे उसके सभी गुनाहों की सजा मिलकर रहेगी।
पाकिस्तान क्यों भड़क गया है?
फिलहाल तो टैरर फंडिंग मामले में यासीन मलिक को सजा सुनाये जाने से जहां देशभर में खुशी का माहौल है वहीं पाकिस्तान को मिर्ची लग गयी है और जम्मू-कश्मीर को दशकों तक लूटते रहे वहां के स्थानीय नेताओं पर भी जैसे दुखों का पहाड़ टूट पड़ा है। हम आपको याद दिला दें कि यासीन मलिक को दोषी ठहराये जाने पर पाकिस्तान के विदेश मंत्रालय ने भारत के प्रभारी उच्चायुक्त को तलब कर एक आपत्ति पत्र भी सौंपा था। अब तो यासीन मलिक के बचाव में पाकिस्तान के प्रधानमंत्री शहबाज शरीफ तक आ गए हैं। उन्होंने सोशल मीडिया पर लिखा है कि दुनिया को जम्मू और कश्मीर में सियासी कैदियों के साथ भारत सरकार के रवैये पर ध्यान देना चाहिए। पाकिस्तानी प्रधानमंत्री ने कहा कि यासीन मलिक को फर्जी आतंकवाद के आरोपों में दोषी ठहराना भारत के मानवाधिकारों के उल्लंघन की आलोचना करने वाली आवाजों को चुप कराने की कोशिश है। पाकिस्तानी प्रधानमंत्री ने अंतरराष्ट्रीय समुदाय से अपील की है कि मोदी सरकार को इसके लिए दोषी ठहराया जाना चाहिए। वहीं पाकिस्तान के विदेश मंत्री बिलावल भुट्टो जरदारी ने संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार उच्चायुक्त मिशेल बैश्लेट को पत्र लिखकर भारत से यह अपील करने का अनुरोध किया है कि वह यासीन मलिक को सभी आरोपों से बरी करे और जेल से उसकी तत्काल रिहाई सुनिश्चित करे ताकि वह अपने परिवार से मिल सके। वहीं भारत में पाकिस्तान के उच्चायुक्त रह चुके अब्दुल बासित ने भी इस मसले पर अपनी भड़ास निकालते हुए पाकिस्तान सरकार को सलाह दी है कि वह इस मामले को अंतरराष्ट्रीय कोर्ट में ले जाए। यहां तक कि क्रिकेटर अफरीदी ने भी संयुक्त राष्ट्र से गुहार लगा दी है। देखा जाये तो पाकिस्तान की यह खिसियाहट समझ आ सकती है क्योंकि उसका एक 'काबिल' और 'भरोसेमंद' गुर्गा पकड़ा गया है। पाकिस्तान ने जिस यासीन मलिक के सहारे वर्षों तक कश्मीर में आतंकवाद को बढ़ावा दिया उसको सजा सुनाये जाने पर पाकिस्तान का भड़कना स्वाभाविक है।
लेकिन हैरत होती है जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री और नेशनल कांफ्रेंस के नेता उमर अब्दुल्ला के बयान पर जिन्होंने यासीन मलिक को दोषी करार दिये जाने के फैसले का स्वागत करने की बजाय उन्हें सलाह दे डाली कि वह इस फैसले को ऊपरी अदालत में चुनौती दें। महबूबा मुफ्ती ने भी यासीन मलिक को सजा सुनाये जाने का स्वागत नहीं कर अपनी मानसिकता का परिचय दिया है। महबूबा मुफ्ती ने कहा है कि किसी को सजा दिये जाने से कश्मीर के मसले हल नहीं होंगे।
कौन-से आरोप सिद्ध हुए?
हम आपको बता दें कि यासीन मलिक को जिस मामले में सजा सुनाई गई है उसके तहत जो आरोप सिद्ध हुए हैं उनमें यूएपीए की धारा 16 (आतंकवादी कृत्य), 17 (आतंकवादी कृत्यों के लिए धन जुटाना), 18 (आतंकवादी कृत्य की साजिश) और धारा 20 (आतंकवादी गिरोह या संगठन का सदस्य होना) तथा भारतीय दंड संहिता की धारा 120-बी (आपराधिक षड्यंत्र) और 124-ए (राजद्रोह) शामिल हैं। उल्लेखनीय है कि यासीन मलिक के नेतृत्व वाला जम्मू-कश्मीर लिबरेशन फ्रंट यूएपीए कानून के तहत प्रतिबंधित आतंकवादी संगठन है।
और किन-किन को दोषी ठहराया गया
हम आपको यह भी बता दें कि इसी मामले में अदालत ने पूर्व में, फारूक अहमद डार उर्फ बिट्टा कराटे, शब्बीर शाह, मसरत आलम, मोहम्मद युसूफ शाह, आफताब अहमद शाह, अल्ताफ अहमद शाह, नईम खान, मोहम्मद अकबर खांडे, राजा मेहराजुद्दीन कलवल, बशीर अहमद भट, जहूर अहमद शाह वटाली, शब्बीर अहमद शाह, अब्दुल राशिद शेख तथा नवल किशोर कपूर समेत कश्मीरी अलगाववादी नेताओं के खिलाफ औपचारिक रूप से आरोप तय किए थे। यही नहीं लश्कर-ए-तैयबा के संस्थापक हाफिज सईद और हिज्बुल मुजाहिदीन प्रमुख सैयद सलाहुद्दीन के खिलाफ भी आरोपपत्र दाखिल किया गया, जिनको इस मामले में भगोड़ा अपराधी बताया गया है।
जिस मामले में सजा सुनाई गयी है वह क्या था?
हम आपको बता दें कि यह मामला हाफिज सईद और हुर्रियत कांफ्रेंस के सदस्यों सहित अलगवावादी नेताओं की कथित साजिश से संबंधित है, जिन्होंने प्रतिबंधित आतंकी संगठन- हिजबुल मुजाहिदीन, दुख्तरान ए मिल्लत, लश्कर ए तैयबा और अन्य के सक्रिय सदस्यों के साथ हवाला सहित विभिन्न अवैध माध्यमों से देश-विदेश से धन जुटाने की साजिश रची थी। यह धन जम्मू-कश्मीर में आतंकवादी गतिविधियों और कश्मीर घाटी में सुरक्षा बलों पर पथराव करने, स्कूलों को जलाने, सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान पहुंचाने और भारत के खिलाफ युद्ध छेड़ने के कृत्य के लिए था। एनआईए के मुताबिक, जांच से यह स्थापित हुआ है कि यासीन मलिक जम्मू-कश्मीर में आतंकी गतिविधियों में संलिप्त था। अदालत में सुनवाई के समय यासीन मलिक ने कहा था कि वह खुद के खिलाफ लगाए आरोपों का विरोध नहीं करता। 17 साल की उम्र में पहली बार जेल जाने वाला यासीन मलिक फिलहाल दिल्ली की तिहाड़ जेल में बंद है और अन्य मामलों में सुनवाई का इंतजार कर रहा है।
बहरहाल, अब देखना होगा कि यासीन मलिक के खिलाफ जो अन्य मामले हैं उस पर कब तक निर्णय आता है। खासकर वायुसेना अधिकारी रवि खन्ना की पत्नी को इंतजार है कि कब उनके पति का हत्यारा अपने गुनाह की सजा पाता है। हम आपको याद दिला दें कि यासीन मलिक ने 1990 में अपने आतंकवादी साथियों के साथ मिलकर वायु सेना अधिकारियों पर अंधाधुंध गोलीबारी की थी, जिसमें चार अधिकारियों की मौत हो गई थी और 40 अन्य घायल हो गए थे। मरने वालों में स्क्वॉड्रन लीडर रवि खन्ना भी थे। रवि खन्ना को 26 गोलियां मारी गयी थीं। शहीद रवि खन्ना की पत्नी निर्मल खन्ना का कहना है कि हमें न्याय मिलने का इंतजार है। उम्मीद है निर्मल खन्ना समेत बाकी पीड़ित परिवारों का भी न्याय का इंतजार जल्द खत्म होगा।
- नीरज कुमार दुबे
हाल के दिनों में देखें तो भाजपा के पाँच विधायकों के अलावा पार्टी के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष रहे मुकुल रॉय, सांसद और केंद्रीय मंत्री रहे बाबुल सुप्रियो और अब सांसद अर्जुन सिंह पार्टी छोड़कर तृणमूल कांग्रेस में चले गये हैं। पिछले दिनों राजीब बनर्जी, सब्यशाची दत्ता और जयप्रकाश मजूमदार भी भाजपा छोड़कर तृणमूल कांग्रेस में लौट चुके हैं।
पश्चिम बंगाल भाजपा में मचा तूफान शांत होने का नाम ही नहीं ले रहा है। ऐसा लग रहा है कि इस तूफान को शांत करने में भाजपा आलाकमान भी कोई रुचि नहीं ले रहा है। पिछले कुछ दिनों से लगातार भाजपा और केंद्र सरकार की आलोचना कर रहे पार्टी के सांसद अर्जुन सिंह तृणमूल कांग्रेस में वापस चले गये हैं। कल तक अर्जुन सिंह यही कह रहे थे कि मैं सिर्फ नेतृत्व का ध्यान असल मुद्दों की तरफ आकृष्ट कर रहा हूँ और पार्टी छोड़ने का कोई इरादा नहीं है लेकिन एकाएक वह तृणमूल कांग्रेस में शामिल हो गए। 2019 के लोकसभा चुनावों से पहले भाजपा में शामिल हुए अर्जुन सिंह कल तक तृणमूल कांग्रेस के अत्याचारों के खिलाफ लड़ रहे थे लेकिन लड़ते-लड़ते अचानक वह अपनी पुरानी पार्टी में शामिल हो गये। भाजपा सांसद अर्जुन सिंह ने इसे अपनी पुरानी पार्टी में ‘‘सभी समस्याओं के समाधान के बाद घर वापसी’’ करार दिया है।
भाजपा में भगदड़ के दौरान कई ने साथ छोड़ा
हाल के दिनों में देखें तो भाजपा के पाँच विधायकों के अलावा पार्टी के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष रहे मुकुल रॉय, सांसद और केंद्रीय मंत्री रहे बाबुल सुप्रियो और अब सांसद अर्जुन सिंह पार्टी छोड़कर तृणमूल कांग्रेस में चले गये हैं। पिछले दिनों राजीब बनर्जी, सब्यशाची दत्ता और जयप्रकाश मजूमदार भी भाजपा छोड़कर तृणमूल कांग्रेस में लौट चुके हैं। भाजपा सांसद लॉकेट चटर्जी के बारे में भी अटकलें लगती रही हैं कि वह तृणमूल कांग्रेस में जा सकती हैं। ऐसे में सवाल यह है कि क्या और भी भाजपा सांसद या विधायक पार्टी का दामन छोड़ कर तृणमूल कांग्रेस का हाथ थामेंगे?
बंगाल में भाजपा संगठन की हालत खस्ता
देखा जाये तो पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनावों के बाद से भाजपा राज्य में कमजोर पड़ती जा रही है। जबसे दिलीप घोष की जगह सुकांत मजूमदार को पश्चिम बंगाल भाजपा अध्यक्ष बनाया गया है तबसे वरिष्ठ और युवा नेताओं के बीच खाई बढ़ती ही जा रही है। हाल ही में संपन्न एक विधानसभा और लोकसभा उपचुनाव में भाजपा का जो हश्र हुआ था उसके बाद पार्टी नेताओं ने आपस में ही कैसे एक दूसरे के खिलाफ बयानबाजी की थी वह सबके सामने है। हाल ही में केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह के बंगाल दौरे के बाद माना जा रहा था कि अब सबकुछ ठीक हो जायेगा लेकिन अर्जुन सिंह का पार्टी छोड़ना दर्शाता है कि सबकुछ ठीक हो नहीं सका। अमित शाह ने बंगाल दौरे के दौरान पार्टी नेताओं को एकजुटता के साथ तृणमूल कांग्रेस का मुकाबला करने के लिए कहा था लेकिन अर्जुन सिंह ने उनकी बात नहीं सुनी। आश्चर्य इस बात पर है कि जिन अर्जुन सिंह पर भाजपा में आने के बाद कथित रूप से तृणमूल कांग्रेस की ओर से कई हमले किये गये, उनके कार्यालय और घर पर हमला किया गया, जो अर्जुन सिंह कल तक बंगाल में राजनीतिक हिंसा के लिए तृणमूल कांग्रेस को कोसते फिर रहे थे उनका हृदय अचानक कैसे परिवर्तित हो गया?
कौन हैं सांसद अर्जुन सिंह?
2019 के लोकसभा चुनावों से पहले तृणमूल कांग्रेस के विधायक रहे अर्जुन सिंह जब भाजपा में आये थे तो पार्टी ने उन्हें बैरकपुर लोकसभा सीट से टिकट दे दिया और मोदी लहर में अर्जुन सिंह तृणमूल कांग्रेस के दिग्गज नेता रहे दिनेश त्रिवेदी को हराकर लोकसभा पहुँच गये। लेकिन मंत्रिमंडल में शामिल होने का उनका लक्ष्य पूरा नहीं हो सका इसीलिए उनका असंतोष जब तब सामने आना लगा। अर्जुन सिंह ने अब तृणमूल में शामिल होने के बाद कहा है कि वह ममता बनर्जी और अभिषेक बनर्जी के नेतृत्व में एक परिवार की तरह काम करेंगे। देखा जाये तो भले भाजपा के कई नेता तृणमूल में चले गये लेकिन अर्जुन सिंह का भाजपा छोड़ना पार्टी के लिए ज्यादा नुकसानदेह इसलिए है क्योंकि वह प्रमुख हिंदीभाषी नेता थे जोकि बंगाली समाज पर भी अच्छी पकड़ रखते हैं। श्रमिक नेता, व्यवसायी और सांसद के तौर पर जमीनी स्तर पर उनकी अच्छी पकड़ है जिसका फायदा भाजपा को अब तक मिल रहा था लेकिन अब यह सियासी लाभ तृणमूल कांग्रेस को मिलेगा। बैरकपुर में बड़ी संख्या में हिंदीभाषी श्रमिक हैं जिन पर अर्जुन सिंह का अच्छा प्रभाव माना जाता है क्योंकि खुद अर्जुन सिंह मूल रूप से बिहार के सीवान से ताल्लुक रखने हैं। हम आपको बता दें कि अर्जुन सिंह के पिता सत्यनारायण सिंह कांग्रेस के वरिष्ठ नेता थे। पिता की तरह अर्जुन सिंह ने भी अपनी राजनीति की शुरुआत कांग्रेस से की। 1995 में उन्होंने कांग्रेस के टिकट पर भाटपारा नगर निगम का चुनाव लड़कर पहली जीत हासिल की थी। 1998 में ममता बनर्जी ने जब तृणमूल कांग्रेस का गठन किया तब उन्होंने कांग्रेस छोड़ दी थी और तृणमूल के साथ आ गये थे। जहां तक बैरकपुर क्षेत्र के समीकरणों की बात है तो वहां की राजनीति अब बिलकुल उलटी हो गयी है। ममता बनर्जी के करीबी नेता रहे दिनेश त्रिवेदी अब भाजपा के साथ हैं और अर्जुन सिंह तृणमूल कांग्रेस में चले गये हैं।
अर्जुन सिंह ने क्यों छोड़ी भाजपा?
अर्जुन सिंह ने भाजपा छोड़ने के कारणों के बारे में बताया है कि केंद्र सरकार पश्चिम बंगाल के जूट उद्योग को नजर अंदाज कर रही है। उनका कहना है कि केंद्र सरकार की जूट नीति पर मेरे विरोध के बावजूद कुछ हासिल नहीं हुआ। अर्जुन सिंह ने हालांकि यह माना है कि केंद्र सरकर ने हाल में कुछ कदम उठाए थे लेकिन उन्होंने उसे बहुत मामूली कदम बताते हुए कहा कि अभी लंबा रास्ता तय करना है। अब अर्जुन सिंह भले कुछ भी आरोप लगा रहे हों मगर हम आपको बता दें कि हाल ही में उनकी तथा उद्योग की मांग मानते हुए केंद्र सरकार की ओर से कच्चे जूट की अधिकतम कीमत 6,500 रुपये प्रति कुंतल की सीमा को खत्म कर दिया गया था। इसके अलावा अर्जुन सिंह को यह भी लग रहा था कि उनके जैसा वरिष्ठ नेता पश्चिम बंगाल भाजपा इकाई में उपाध्यक्ष है और युवा नेता तथा राजनीति में उनसे कम अनुभवी सुकांत मजूमदार पार्टी के अध्यक्ष हैं। यही नहीं तृणमूल कांग्रेस छोड़कर भाजपा में आये शुभेंदु अधिकारी को भाजपा ने विधानसभा में विपक्ष का नेता बना रखा है और राज्य से संबंधित पार्टी मामलों में भाजपा आलाकमान अर्जुन सिंह से ज्यादा शुभेंदु अधिकारी को महत्व देता था जोकि उन्हें नहीं भा रहा था। यही कारण है कि अर्जुन सिंह पिछले कुछ दिनों से लगातार आरोप लगा रहे थे कि भाजपा में जो लोग संगठन के बारे में कुछ नहीं समझते हैं वे हमें उपदेश दे रहे हैं। अर्जुन सिंह का आरोप था कि पार्टी ने हमें एक कुर्सी दी है, लेकिन उसके पास पैर नहीं हैं। उनका आरोप था कि पार्टी ने हमें एक कलम दी है लेकिन इसमें स्याही नहीं है। उनके इस प्रकार के आरोपों पर भाजपा की ओर से कुछ भी नहीं कहा जा रहा था क्योंकि पार्टी को पता लग चुका था कि अर्जुन सिंह की तृणमूल कांग्रेस से बात चल रही है और वह कभी भी पाला बदल सकते हैं।
भाजपा ने अर्जुन सिंह को मनाने के क्या प्रयास किये?
सबकुछ जानने के बावजूद भाजपा ने अर्जुन सिंह को मनाने के प्रयास जारी रखे हुए थे। अर्जुन सिंह की पश्चिम बंगाल भाजपा नेतृत्व के प्रति शिकायतों को अभी इसी 17 मई को खुद पार्टी अध्यक्ष जेपी नड्डा ने दिल्ली में सुना था। केंद्रीय नेताओं के साथ अर्जुन सिंह की बैठक के दौरान पार्टी ने उन्हें लिखित में अपनी शिकायतें देने को कहा था जिसके बाद अर्जुन सिंह ने जो पत्र दिया उसमें आरोप लगाया कि बंगाल में पार्टी नेताओं का जमीनी स्तर के कार्यकर्ताओं से कोई संपर्क नहीं है और जो नेता केवल सोशल मीडिया पर सक्रिय हैं, उन्हें पार्टी की राज्य इकाई में प्रमुखता मिल रही है। उन्होंने यह भी आरोप लगाया था कि उन्हें कोई वास्तविक अधिकार दिये बिना प्रदेश भाजपा का उपाध्यक्ष बनाया गया है।
भाजपा की प्रतिक्रिया
दूसरी ओर, अर्जुन सिंह के चले जाने को भाजपा ने खास तवज्जो नहीं दी है। भाजपा का कहना है कि ‘‘अवसरवादियों’’ के जाने से पार्टी पर कोई असर नहीं होगा। भाजपा का कहना है कि ऐसे लोग जो सत्ता के करीब रहना पसंद करते हैं, उनके जाने से पार्टी पर कोई असर नहीं होगा। बंगाल भाजपा के वरिष्ठ नेता और पार्टी के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष दिलीप घोष तो सीधा आरोप लगा रहे हैं कि अर्जुन सिंह ने तृणमूल कांग्रेस के दबाव में आकर पार्टी में वापसी की है क्योंकि जबसे वह भाजपा में आये थे तबसे उनके खिलाफ कई मुकदमे दर्ज हो गये थे और उनके व्यवसाय के लिए भी दिक्कतें खड़ी की जा रही थीं।
बहरहाल, भाजपा भले ही अर्जुन सिंह के जाने को बहुत बड़ा झटका नहीं मान रही है लेकिन इतना तो है ही कि बंगाल भाजपा में पिछले एक साल से जो भगदड़ मची हुई है और वरिष्ठ नेताओं तथा युवा नेताओं के बीच जिस तरह खाई बढ़ती जा रही है वह पार्टी के भविष्य के लिए सही नहीं है। भाजपा आलाकमान ने यदि पश्चिम बंगाल में पार्टी संगठन पर तुरंत ध्यान नहीं दिया तो 2024 के लोकसभा चुनावों में 2019 जैसा प्रदर्शन दोहरा पाना मुश्किल हो सकता है। वैसे सिर्फ भाजपा के ही सांसद तृणमूल में गये हों ऐसा भी नहीं है। तृणमूल कांग्रेस के दो सांसद कांथी से सिसिर अधिकारी और तामलुक से दिब्येंदु अधिकारी भाजपा के साथ हैं। उल्लेखनीय है कि सिसिर भाजपा नेता शुभेंदु अधिकारी के पिता हैं जबकि दिब्येंदु उनके छोटे भाई हैं।
- नीरज कुमार दुबे