ईश्वर दुबे
संपादक - न्यूज़ क्रिएशन
+91 98278-13148
newscreation2017@gmail.com
Shop No f188 first floor akash ganga press complex
Bhilai
विश्व बैंक के शोधपत्र में यह भी बताया गया है कि पिछले कई दशकों के बाद पहली बार अत्यधिक गरीबी (क्रय शक्ति समता के संदर्भ में प्रतिदिन प्रति व्यक्ति 1.9 डॉलर से कम पर गुजर-बसर करने वाले) में गुजर बसर करने वाले लोगों की संख्या पूरे विश्व में वर्ष 2020 में बढ़ी है।
अभी हाल ही में अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष ने “महामारी, गरीबी और असमानता: भारत से मिले साक्ष्य” विषय पर एक शोधपत्र जारी किया था, जिसके अनुसार भारत में अत्यंत गरीबी में बहुत तेजी से गिरावट दर्ज की गई है एवं यह अब 0.8 प्रतिशत के निचले स्तर पर आ गई है। अत्यंत गरीब उस व्यक्ति को माना जाता है जिसकी प्रतिदिन आय 1.9 अमेरिकी डॉलर से कम है। इसके तुरंत बाद अब विश्व बैंक ने भी एक पॉलिसी रिसर्च वर्किंग पेपर (शोध पत्र) जारी किया है। इस शोध पत्र के अनुसार वर्ष 2011 से 2019 के बीच भारत में गरीबों की संख्या में भारी गिरावट दर्ज की गई है। वर्ष 2011 में भारत में गरीबी की रेखा से नीचे जीवन यापन कर रहे व्यक्तियों की संख्या 22.5 प्रतिशत थी जो वर्ष 2019 में घटकर 10.2 प्रतिशत पर नीचे आ गई है अर्थात गरीबों की संख्या में 12.3 प्रतिशत की गिरावट दृष्टिगोचर है।
अत्यंत चौंकाने वाला एक तथ्य यह भी उभरकर सामने आया है कि भारत के शहरी क्षेत्रों की अपेक्षा ग्रामीण क्षेत्रों में गरीबों की संख्या बहुत तेज गति से कम हुई है। जहां ग्रामीण इलाकों में गरीबों की संख्या वर्ष 2011 के 26.3 प्रतिशत से घटकर वर्ष 2019 में 11.6 प्रतिशत पर आ गई है अर्थात यह 14.7 प्रतिशत से कम हुई है तो शहरी क्षेत्रों में यह संख्या 7.9 प्रतिशत से कम हुई है। उक्त शोधपत्र में एक अन्य महत्वपूर्ण तथ्य यह भी बताया गया है कि वर्ष 2015 से वर्ष 2019 के बीच गरीबों की संख्या अधिक तेजी से घटी है। वर्ष 2011 से वर्ष 2015 के दौरान गरीबों की संख्या 3.4 प्रतिशत से घटी है वहीं वर्ष 2015 से 2019 के दौरान यह 9.1 प्रतिशत से कम हुई है और यह वर्ष 2015 के 19.1 प्रतिशत से घटकर वर्ष 2019 में 10 प्रतिशत पर नीचे आ गई है। वर्ष 2017 एवं वर्ष 2018 के दौरान तो गरीबी 3.2 प्रतिशत से कम हुई है यह कमी पिछले दो दशकों के दौरान सबसे तेज गति से गिरने की दर है। ग्रामीण इलाकों में छोटे जोत वाले किसानों की आय में वृद्धि तुलनात्मक रूप से अधिक अच्छी रही है जिसके कारण ग्रामीण इलाकों में गरीबों की संख्या वर्ष 2015 के 21.9 प्रतिशत से वर्ष 2019 में घटकर 11.6 प्रतिशत पर नीचे आ गई है, इस प्रकार इसमें 10.3 प्रतिशत की आकर्षक गिरावट दर्ज की गई है। उक्त शोधपत्र में यह भी बताया गया है कि बहुत छोटी जोत वाले किसानों की वास्तविक आय में 2013 और 2019 के बीच वार्षिक 10 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज हुई है वहीं अधिक बड़ी जोत वाले किसानों की वास्तविक आय में केवल 2 प्रतिशत की वृद्धि प्रतिवर्ष दर्ज हुई है।
अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष ने तो अपनी रिपोर्ट में भारत द्वारा कोरोना महामारी के दौरान लिए गए निर्णयों की सराहना करते हुए कहा है कि विशेष रूप से गरीबों को मुफ्त अनाज देने की योजना (प्रधानमंत्री गरीब कल्याण अन्न योजना) को लागू किए जाने के चलते ही भारत में अत्यधिक गरीबी का स्तर इतना नीचे आ सका है और अब भारत में असमानता का स्तर पिछले 40 वर्षों के दौरान के सबसे निचले स्तर पर आ गया है। ज्ञातव्य हो कि भारत में मार्च 2020 में प्रधानमंत्री गरीब कल्याण अन्न योजना (पीएमजीकेएवाई) प्रारम्भ की गई थी। इस योजना के अंतर्गत केंद्र सरकार द्वारा लगभग 80 करोड़ लोगों को प्रति माह प्रति व्यक्ति पांच किलो अनाज मुफ्त में उपलब्ध कराया जाता है एवं इस योजना की अवधि को अभी हाल ही में सितम्बर 2022 तक आगे बढ़ा दिया गया है। उक्त मुफ्त अनाज, राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून (एनएफएसए) के अंतर्गत काफी सस्ती दरों पर (दो/तीन रुपए प्रति किलो) उपलब्ध कराए जा रहे अनाज के अतिरिक्त है।
विश्व बैंक के शोधपत्र में यह भी बताया गया है कि पिछले कई दशकों के बाद पहली बार अत्यधिक गरीबी (क्रय शक्ति समता के संदर्भ में प्रतिदिन प्रति व्यक्ति 1.9 डॉलर से कम पर गुजर-बसर करने वाले) में गुजर बसर करने वाले लोगों की संख्या पूरे विश्व में वर्ष 2020 में बढ़ी है। यह वृद्धि पूरे विश्व में फैली कोरोना महामारी के चलते हुई है।
भारत में गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन कर रहे लोगों की संख्या में आ रही भारी कमी दरअसल केंद्र सरकार द्वारा समय समय उठाए जा रहे कई उपायों के चलते सम्भव हो पाई है। भारत में वर्ष 1947 में 70 प्रतिशत लोग गरीबी की रेखा से नीचे जीवन यापन कर रहे थे, जबकि अब वर्ष 2020 में देश की कुल आबादी का लगभग 10 प्रतिशत हिस्सा गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन कर रहा है। जबकि 1947 में देश की आबादी 35 करोड़ थी जो आज बढ़कर लगभग 136 करोड़ हो गई है। देश में वित्तीय समावेशन को सफलतापूर्वक लागू किए जाने के कारण ही गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन करने वाले लोगों की संख्या में भारी कमी देखने में आई है।
केंद्र में वर्तमान मोदी सरकार के कार्यभार ग्रहण करने के बाद से तो वित्तीय समावेशन के कार्यान्वयन में बहुत अधिक सुधार देखने में आया है। उसके पीछे मुख्य कारण देश में विभिन्न वित्तीय योजनाओं को डिजिटल प्लैट्फार्म पर ले जाना है। केंद्र सरकार द्वारा प्रारम्भ की गई प्रधानमंत्री जनधन योजना ने इस संदर्भ में उल्लेखनीय भूमिका निभाई है। जब यह योजना प्रारम्भ की जा रही थी तब कई लोगों द्वारा यह सवाल उठाए गए थे कि देश में पहले से ही इस तरह की कई योजनाएं मौजूद हैं, फिर इस एक और नई योजना को शुरू करने की क्या जरूरत है? अब उक्त योजना की महत्ता समझ में आती है जब जनधन योजना के अंतर्गत करोड़ों देशवासियों के खाते विभिन्न बैंकों में खोले गए हैं एवं इन खातों में आज सीधे ही सब्सिडी का पैसा केंद्र एवं राज्य सरकारों द्वारा हस्तांतरित किया जा रहा है। मनरेगा योजना की बात हो अथवा केंद्र सरकार की अन्य योजनाओं की बात हो, पहले ऐसा कहा जाता था कि केंद्र से चले 100 रुपए में से शायद केवल 8 रुपए से 16 रुपए तक ही अंतिम हितग्राही तक पहुंच पाते हैं, परंत आज सहायता राशि के हितग्राहियों के खातों में सीधे ही जमा हो जाने के कारण बिचोलियों की भूमिका एकदम समाप्त हो गई है एवं हितग्राहियों को पूरा का पूरा 100 प्रतिशत पैसा उनके खातों में सीधे ही जमा हो रहा है। यह वित्तीय समावेशन की दृष्टि से एक क्रांतिकारी कदम सिद्ध हुआ है। वित्तीय समावेशन के कुछ अन्य लाभ भी देश में देखने में आए हैं जैसे हाल ही में भारतीय स्टेट बैंक द्वारा जारी एक प्रतिवेदन के अनुसार, जिन राज्यों में प्रधानमंत्री जनधन योजना के अंतर्गत अधिक खाते खोले गए हैं तथा वित्तीय समावेशन की स्थिति में सुधार हुआ है, उन राज्यों में अपराध की दर में कमी आई है तथा इन राज्यों में अल्कोहल एवं तंबाकू के सेवन में भी कमी आई है।
कोरोना महामारी के दौरान भारत में प्रथम सोपान के अंतर्गत गरीब वर्ग को खाद्य सामग्री उपलब्ध करायी गई थी। दूसरे सोपान के अंतर्गत मुफ़्त वैक्सीन दिया जा रहा है जिससे गरीब वर्ग को बीमारियों से बचाए रखा जा सके। अब जब देश में अर्थव्यवस्था पूर्ण रूप से खुल चुकी है तो अब गरीब वर्ग के लिए रोजगार के अवसर भी उपलब्ध कराए जा रहे हैं। मनरेगा योजना भी ग्रामीण इलाकों में वृहद स्तर पर चलायी जा रही है एवं इससे भी ग्रामीण क्षेत्रों में रोजगार के अवसर बढ़ाए जा रहे हैं। निर्माण एवं पर्यटन क्षेत्र भी अब खोल दिए गए हैं जिससे इन क्षेत्रों में भी रोजगार के अवसर वापिस निर्मित होने लगे हैं। भारत में तो धार्मिक पर्यटन भी बहुत बड़े स्तर पर होता है एवं धार्मिक स्थलों को खोलने से भी रोजगार के अवसर बढ़ रहे हैं। इस प्रकार कुल मिलाकर गरीब वर्ग को कमाई के पर्याप्त साधन उपलब्ध होने लगे हैं जिससे भारत में गरीबी की रेखा से नीचे जीवन यापन कर रहे लोगों की संख्या में निरंतर कमी देखने में आ रही है।
भारत सरकार ने पिछले कुछ वर्षों के दौरान किसानों से खाद्य पदार्थों की खरीद बहुत बड़े स्तर पर की है ताकि देश की 80 करोड़ जनसंख्या को प्रधानमंत्री गरीब कल्याण अन्न योजना के अंतर्गत मुफ़्त में अनाज उपलब्ध कराया जा सके। साथ ही, आज भारत से बहुत बड़े स्तर पर अनाज का निर्यात भी किया जा रहा है। केंद्र सरकार द्वारा किसानों से बड़े स्तर पर की जा रही खरीद एवं कृषि पदार्थों के निर्यात के कारण किसानों के हाथों में सीधे ही पैसा पहुंच रहा है इससे किसानों की आय तेजी से बढ़ रही है एवं उनकी खर्च करने की क्षमता में भी वृद्धि दृष्टिगोचर है। साथ ही, गरीब वर्ग को मुफ्त अनाज उपलब्ध कराकर भी गरीब वर्ग के हाथों में एक तरह से अप्रत्यक्ष रूप से पैसा ही पहुंचाया जा रहा है। इसके साथ ही गोदामों में रखा अनाज भी ठीक तरीके से उपयोग हो रहा है अन्यथा कई बार गोदामों में रखे रखे ही अनाज सड़ जाता है। इस तरह से सरकार द्वारा लिए जा रहे उक्त कदमों के चलते आज देश में गरीबों की संख्या में भारी कमी देखने में आ रही है।
-प्रह्लाद सबनानी
सेवानिवृत्त उप महाप्रबंधक
भारतीय स्टेट बैंक
जहां तक इल्हान उमर के राजनीतिक इतिहास की बात है तो आपको बता दें कि अमेरिकी प्रतिनिधिसभा की सदस्य इल्हान उमर पहली अफ्रीकी शरणार्थी हैं जो अमेरिकी संसद के लिए निर्वाचित हुई हैं। इल्हान उमर ने साल 2019 में मिनिसोटा से चुनाव जीतकर इतिहास रचा था।
अमेरिकी कांग्रेस की महिला सदस्य इल्हान उमर बेहद संकीर्ण मानसिकता वाली नेता हैं। उनकी छोटी सोच वैसे तो अक्सर उजागर होती रहती है लेकिन अब वह अपनी पाकिस्तान यात्रा को लेकर लोगों के निशाने पर हैं। हमेशा चर्चा में रहने को आतुर इल्हान उमर ने अपनी पाकिस्तान यात्रा के दौरान वहां नये प्रधानमंत्री शाहबाज शरीफ, विदेश मंत्री हिना रब्बानी खार, राष्ट्रपति, नेशनल असेंबली के स्पीकर और यहां तक कि पूर्व प्रधानमंत्री इमरान खान से मुलाकात कर अपने भारत विरोधी एजेंडा को आगे बढ़ाया। यही नहीं वह पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर यानि पीओके भी जा पहुँचीं और भारत को लेकर कई आरोप लगाये। इल्हान उमर इससे पहले भी कई वैश्विक मंचों से भारत की आलोचना कर चुकी हैं और कहती रही हैं कि भारत में अल्पसंख्यकों पर जुल्म होते हैं। लेकिन इल्हान उमर के भारत पर लगाये जाने वाले आरोपों से खुद अमेरिका भी इत्तेफाक नहीं रखता।
भारत ने किया पलटवार
हम आपको बता दें कि पाकिस्तान की चार दिवसीय यात्रा पर पहुँचीं इल्हान उमर अमेरिका के मिनिसोटा से सांसद हैं। सोमालिया मूल की इल्हान उमर अपनी पाकिस्तान यात्रा के दौरान पीओके में उमर चकोठी सेक्टर में नियंत्रण रेखा पर पहुंचीं, जहां उन्हें 2003 के संघर्ष विराम समझौते का सम्मान करने के लिए पाकिस्तान और भारत की सेनाओं के बीच नये समझौते के पूर्व और बाद की स्थिति के बारे में जानकारी दी गई। इस मुद्दे पर प्रतिक्रिया पूछे जाने पर भारतीय विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता अरिंदम बागची ने कहा कि हमने उनकी (इल्हान उमर के) भारत के केंद्र शासित क्षेत्र जम्मू-कश्मीर के एक इलाके में यात्रा की खबरों को देखा है जो अभी पाकिस्तान के अवैध कब्जे में है। उन्होंने कहा, ''मैं केवल इतना कहना चाहता हूं कि अगर कोई ऐसी नेता अपनी संकीर्ण मानसिकता को प्रदर्शित करती हैं, तब यह उनका काम है।’’ उन्होंने कहा कि लेकिन इस क्रम में हमारी क्षेत्रीय अखंडता एवं सम्प्रभुता का उल्लंघन होता है तब हम समझते हैं कि यह यात्रा निंदनीय है।
अमेरिका ने भी पल्ला झाड़ा
वहीं अमेरिका के विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता नेड प्राइस ने पत्रकारों से कहा, ''जहां तक मैं समझता हूं सांसद उमर की पाकिस्तान यात्रा अमेरिका सरकार द्वारा प्रायोजित नहीं है।' साथ ही अमेरिकी विदेश मंत्री के सचिव डेरेक चोलेट ने भी कहा कि इल्हान उमर निजी हैसियत से पाकिस्तान की यात्रा पर गयी थीं। इस लिहाज से देखा जाये तो अपनी इस यात्रा को लेकर इल्हान उमर अपने ही देश में अलग-थलग पड़ गयी हैं। भले पाकिस्तान यात्रा के दौरान इल्हान उमर की राहों में पाकिस्तानी नेताओं ने पलक-पांवड़े बिछा दिये हों लेकिन अमेरिकी सरकार उनके इस कदम को धिककार रही है।
पाकिस्तान में आया राजनीतिक तूफान
जहां तक इल्हान उमर की पाकिस्तान यात्रा की बात है तो उसके चलते पाकिस्तानी राजनीति में नया विवाद भी खड़ा हो गया है। अभी कुछ ही दिन पहले सत्ता से बाहर हुए इमरान खान ने आरोप लगाया था कि विदेशी ताकतों ने उनकी सरकार गिराई है। इमरान का साफ इशारा अमेरिका की ओर था। अब अमेरिकी सांसद से इमरान खान की मुलाकात पर वहां के सत्ताधारी गठबंधन के नेता उनसे पूछ रहे हैं कि जब अमेरिका ने आपके खिलाफ साजिश की थी तो आप उनके लोगों से मिल क्यों रहे हो?
कौन हैं इल्हान उमर?
जहां तक इल्हान उमर के इतिहास की बात है तो आपको बता दें कि अमेरिकी प्रतिनिधिसभा की सदस्य इल्हान उमर पहली अफ्रीकी शरणार्थी हैं जो अमेरिकी संसद के लिए निर्वाचित हुई हैं। इल्हान उमर ने साल 2019 में मिनिसोटा से चुनाव जीतकर इतिहास रचा था क्योंकि इस सीट से निर्वाचित होने वाली वह पहली अश्वेत महिला हैं। इल्हान उमर के बारे में बताया जाता है कि उनका जन्म सोमालिया में हुआ था लेकिन जब वह 8 साल की थीं तब गृहयुद्ध के कारण उन्होंने अपना देश छोड़ दिया था और अपने परिवार के साथ केन्या के शरणार्थी शिविर में चार साल रहीं। 1990 के दशक में जब उनका परिवार अमेरिका आ गया तबसे उनके मन में राजनीतिक क्षेत्र में जगह बनाने की ललक थी। इसी के चलते वह साल 2016 में पहले मिनिसोटा की प्रतिनिधि सभा के लिए निर्वाचित हुईं और तीन साल बाद अमेरिकी संसद के लिए चुन ली गयीं।
इल्हान उमर की विचारधारा क्या है?
इल्हान उमर का ट्विटर प्रोफाइल देखें या अमेरिकी प्रतिनिधिसभा की वेबसाइट पर उनके प्रोफाइल पेज को देखें तो पता चलता है कि वह स्वतंत्रता और समानता की प्रबल पक्षधर हैं लेकिन असल में वह कट्टर इस्लामिक विचारधारा रखती हैं। बुरका और हिजाब की वह पक्षधर हैं और इस्लामोफोबिया के बारे में दलीलें पेश करती हैं। इल्हान उमर की अपने देश के नेताओं से भले नहीं बनती हो लेकिन तुर्की के राष्ट्रपति रिसेप तैयब एर्दोगन से उनकी खूब बनती है। दोनों के दोस्ताना संबंध जगजाहिर हैं। यही नहीं इल्हान उमर हर वो प्रयास करती हैं ताकि बाइडन प्रशासन के साथ भारत के संबंध खराब हो जाएं। कश्मीर का मामला हो या फिर भारतीय मुसलमानों से जुड़ा मामला हो, इल्हान उमर भारत पर निशाना साधने से गुरेज नहीं करतीं। भाजपा और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ बयान देने में तो वह हमेशा आगे रहती हैं। इल्हान उमर को इस बात का बड़ा शौक है कि पहले एजेंडा तैयार करो फिर माहौल बनाकर उसे आगे बढ़ाओ। इल्हान उमर के बारे में बहुत से मुस्लिम लेखकों ने ही लिखा है कि वह बेहद कट्टर विचारों की हैं और गैर मुस्लिमों से इसलिए सख्त नफरत करती हैं क्योंकि बचपन में ही उनके मन में जहर भर दिया गया था।
बहरहाल, इल्हान उमर के पीओके की यात्रा कर लेने और पाकिस्तानी नेताओं से मुलाकात कर लेने से कोई फर्क नहीं पड़ता क्योंकि पूरी दुनिया जानती है कि पूरा का पूरा जम्मू-कश्मीर भारत का है। जिस भाग पर अभी पाकिस्तान का कब्जा है उसे समय आने पर भारत वापस ले ही लेगा और कोई ताकत उसे ऐसा करने से नहीं रोक सकती। अभी तो एक इल्हान उमर हैं अगर अनेक इल्हान उमर भी पैदा हो जायें और हजार बार भी पीओके का दौरा कर वीडियो सोशल मीडिया पर डाल दें तो भी कश्मीर की हकीकत को नहीं बदला जा सकता।
- नीरज कुमार दुबे
उत्तर प्रदेश भाजपा इकाई द्वारा तैयार इस रिपोर्ट में स्वीकार किया गया है कि बड़ी संख्या में बहुजन समाज पार्टी कैडर के वोट भाजपा को मिले हैं जोकि जीत का एक बड़ा कारक बना है। इस रिपोर्ट में कहा गया है कि ओबीसी वोट बड़ी संख्या में भाजपा से छिटके हैं
उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव भले भाजपा ने दोबारा जीत लिया हो लेकिन पिछले विधानसभा चुनावों के मुकाबले उसकी सीटों की संख्या काफी कम हो गयी है। इस बात को लेकर भाजपा का केंद्रीय नेतृत्व चिंता में है क्योंकि चाहे साल 2014 का लोकसभा चुनाव रहा हो या साल 2019 का लोकसभा चुनाव, दोनों ही बार केंद्र में भाजपा की सत्ता उत्तर प्रदेश की बदौलत ही बन पाई है। अब साल 2024 के लोकसभा चुनावों की तैयारी में जुटी भाजपा ने इस बात पर मंथन शुरू कर दिया है कि क्यों उत्तर प्रदेश विधानसभा में उसकी सीटें पहले के मुकाबले कम हो गयीं? इस बारे में भाजपा आलाकमान की ओर से पार्टी की उत्तर प्रदेश इकाई से जवाब मांगा गया था जिसने चुनाव परिणामों का विस्तृत विश्लेषण कर एक रिपोर्ट प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा अध्यक्ष जगत प्रकाश नड्डा को भेजी है।
उत्तर प्रदेश भाजपा इकाई द्वारा तैयार इस रिपोर्ट में स्वीकार किया गया है कि बड़ी संख्या में बहुजन समाज पार्टी कैडर के वोट भाजपा को मिले हैं जोकि जीत का एक बड़ा कारक बना है। इस रिपोर्ट में कहा गया है कि ओबीसी वोट बड़ी संख्या में भाजपा से छिटके हैं और सहयोगी दल चुनावों में भाजपा की खास मदद नहीं कर पाये। हर चरण के चुनाव के हिसाब से तैयार की गयी 80 पन्नों की इस रिपोर्ट में विस्तार से उन कारणों को बताया गया है जिनकी वजह से भाजपा अपने सहयोगी दलों अपना दल (एस) और निषाद पार्टी के साथ 273 सीटें जीत पाई और उन कारणों का भी रिपोर्ट में वर्णन किया गया है जिनकी वजह से बाकी सीटों पर हार मिली है।
इस रिपोर्ट में कहा गया है कि अपना दल से कुर्मी और निषाद पार्टी से निषाद वोटर छिटक गये जिसकी वजह से चुनावों में इन समुदायों का भाजपा को वोट नहीं मिल सका। इन दोनों समुदायों के बहुत कम वोट मिलने का ही प्रभाव रहा कि उपमुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य अपनी सिराथु विधानसभा सीट से ही चुनाव हार गये। ओबीसी समुदाय के कुशवाहा, मौर्य, सैनी, कुर्मी, निषाद, पाल, शाक्य और राजभर समाजवादी पार्टी गठबंधन के साथ चले गये और भाजपा के हिस्से में इनका बहुत कम वोट प्रतिशत आया। जबकि 2017 के विधानसभा चुनावों में यह सभी समुदाय भाजपा के साथ खड़े रहे थे। रिपोर्ट में कहा गया है कि मुस्लिम वोटरों का एकजुट होकर समाजवादी पार्टी गठबंधन के साथ जाना भी कई सीटों पर एनडीए की हार का कारण बना है।
बताया जा रहा है कि भाजपा आलाकमान को इस बात की भी चिंता थी कि जब हाल ही में चलाये गये पार्टी के सदस्यता अभियान के दौरान 80 लाख नये सदस्य जुड़े थे और उत्तर प्रदेश में भाजपा के कुल सदस्यों की संख्या दो करोड़ दस लाख के आसपास हो गयी थी तब भी ऐसे परिणाम क्यों आये। भाजपा ने इस बात का भी बारीकी से अध्ययन किया है कि उत्तर प्रदेश में केंद्र और राज्य सरकार की तमाम कल्याणकारी योजनाओं के 9 करोड़ लाभार्थियों का चुनावों के दौरान क्या रुख रहा। अध्ययन में पाया गया कि सरकारी योजनाओं का लाभ लेने और उसके प्रशंसक होने के बावजूद बड़ी संख्या में लाभार्थियों ने भाजपा और उसके सहयोगी दलों का समर्थन करने की बजाय समाजवादी पार्टी गठबंधन को समर्थन दिया।
इस रिपोर्ट के मुताबिक भाजपा का सबसे खराब चुनावी प्रदर्शन गाजीपुर, अंबेडकर नगर और आजमगढ़ जिलों में रहा। इन तीनों जिलों की कुल 22 सीटों में से भाजपा एक पर भी चुनाव नहीं जीत पाई। जबकि समाजवादी पार्टी ने आजमगढ़ और अंबेडकर नगर की सभी विधानसभा सीटों पर जीत दर्ज की और गाजीपुर की सात में से पांच सीटों पर जीत हासिल की। बाकी दो सीटों पर सपा गठबंधन में शामिल सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी ने जीत हासिल की।
भाजपा ने इस बात पर भी गौर किया कि क्यों पोस्टल बैलेट में समाजवादी पार्टी गठबंधन को ज्यादा वोट मिले? गौरतलब है कि सपा गठबंधन को 311 सीटों पर पोस्टल बैलेट ज्यादा मिले थे। पोस्टल बैलेट वोट उन सरकारी कर्मचारियों के होते हैं जो मतदान के समय अलग-अलग जगह तैनात होते हैं। भाजपा ने निष्कर्ष निकाला है कि सपा गठबंधन का पुरानी पेंशन योजना बहाल करने का वादा सरकारी कर्मचारियों को भाया। साथ ही भाजपा का निष्कर्ष यह भी कहता है कि पहले दो-तीन चरणों के दौरान सरकारी कर्मचारियों में ज्यादा नाराजगी देखने को मिली। हम आपको बता दें कि सपा गठबंधन को 4.42 लाख पोस्टल वोट मिले जबकि भाजपा के नेतृत्व वाले एनडीए को मात्र 1.48 लाख पोस्टल वोट मिले।
बसपा कैडर भाजपा की ओर जा रहा है, यह विधानसभा चुनावों के दौरान साफ दिख रहा था। इस कैडर में जो मुस्लिम थे वह समाजवादी पार्टी गठबंधन के साथ गये। हम आपको याद दिला दें कि प्रभासाक्षी न्यूज नेटवर्क ने उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों की ग्राउण्ड कवरेज के दौरान भी इस बात का उल्लेख अपनी रिपोर्टों में किया था कि कई क्षेत्रों में यह अफवाह हावी रही कि मायावती ने अपने वोटरों से भाजपा के पक्ष में मतदान के लिए कहा है। यह अफवाह तेजी से फैलना जहां चौंका रहा था वहीं इस बात पर भी आश्चर्य हो रहा था कि बसपा की ओर से जमीनी स्तर पर इसका खंडन नहीं किया जा रहा था। जिसका सीधा लाभ भाजपा को मिला। बहरहाल, अब माना जा रहा है कि उत्तर प्रदेश भाजपा की ओर से तैयार की गयी यह रिपोर्ट साल 2024 के लोकसभा चुनावों के लिए भाजपा को अपनी रणनीति बनाने में मददगार साबित होगी।
- नीरज कुमार दुबे
कैसी विसंगतिपूर्ण साम्प्रदायिक सोच है कि जब हमारी ऊर्जा विज्ञान व पर्यावरण, शिक्षा एवं चिकित्सा के जटिल मुद्दों को सुलझाने में खर्च होनी चाहिए थी, वो ऊर्जा सांप्रदायिक ताकत को बढ़ाने के लिए खर्च हो रही है। ऐसा क्यों है?
समस्याएं अनेक हैं। बात कहां से शुरू की जाए। खो भी बहुत चुके हैं और खोने की रफ्तार तीव्र से तीव्रत्तर होती जा रही है। जिनकी भरपाई मुश्किल है। भाईचारा, सद्भाव, निष्ठा, विश्वास, करुणा यानि कि जीवन मूल्य खो रहे हैं। मूल्य अक्षर नहीं होते, संस्कार होते हैं, आचरण होते हैं। हम अपने आदर्शों एवं मूल्यों को खोते ही जा रहे हैं, एक बार फिर रामनवमी और हनुमान जयंती के अवसरों पर देश के कई प्रदेशों में हिंसा, नफरत, द्वेष और तोड़-फोड़ के दृश्य देखे गए। उत्तर भारत के प्रांतों के अलावा ऐसी घटनाएं दक्षिण और पूर्व के प्रांतों में भी हुईं। ऐसे सांप्रदायिक दंगे और खून का बहना कांग्रेस के शासन में होता रहा, लेकिन पिछले एक दशक में ऐसी हिंसात्मक साम्प्रदायिक घटनाएं पहली बार कई प्रदेशों में एक साथ हुई हैं, ऐसा होना काफी चिंता का विषय है।
उन्माद, अविश्वास, राजनैतिक अनैतिकता और दमन एवं संदेह का वातावरण एकाएक उत्पन्न हुआ है। उसे शीघ्र दूर करना होगा। ऐसी अनिश्चय और भय की स्थिति किसी भी राष्ट्र के लिए संकट की परिचायक है और इन संकटों को समाप्त करने की दृष्टि से देश के कई राज्यों में घटी सांप्रदायिक हिंसा की घटनाओं के मद्देनजर उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के ताजा फैसलों का महत्व समझा जा सकता है। योगी सख्त प्रशासक के रूप में जाने जाते हैं और उनके ताजा निर्देश इस बात की ओर इंगित करते हैं। मुख्यमंत्री योगी ने राज्य की कानून-व्यवस्था की समीक्षा बैठक में स्पष्ट निर्देश दिया कि नए धार्मिक जुलूसों की इजाजत न दी जाए और न ही नए धर्मस्थलों पर लाउडस्पीकर लगाने की। पारंपरिक जुलूसों और शोभायात्राओं के संदर्भ में भी उन्होंने तय मानदंडों का हर हाल में पालन कराने का निर्देश दिया है। इसमें कोई दो मत नहीं कि आस्था नितांत निजी विषय है और देश का कानून अपने सभी नागरिकों को उपासना की आजादी देता है। लेकिन आस्था जब प्रतिस्पर्धा में तब्दील होने लगे, तब वह कानून के दायरे में भी आ जाती है।
पिछली सरकारें समाधान के लिए कदम उठाने में भले ही राजनीति नफा-नुकसान के गणित को देखते हुए भय महसूस करती रही हों, उन्हें सत्ता से विमुख हो जाने का डर सताता रहा हो। लेकिन योगी और मोदी इन भयों से ऊपर उठकर कठोर एवं साहसिक निर्णय ले रहे हैं, यही कारण है कि साम्प्रदायिक नफरत, हिंसा एवं द्वेष फैलाने वाले समय रहते पृष्ठभूमि में जाते देखे गये हैं। क्योंकि यदि इस तरह के दायित्व से विमुख हुए तो देश के नागरिक युद्ध की ओर बढ़ सकते हैं। लोकतंत्र में साम्प्रदायिकता, जातीयता, हिंसा एवं अराजकता जैसे उपाय किसी भी समस्या का समाधान नहीं हो सकते। इस मौलिक सत्य व सिद्धांत की जानकारी से आज का नेतृत्व वर्ग भलीभांति भिज्ञ है, यही इस राष्ट्र की एकता और अखण्डता को जीवंतता दे सकेगा।
बहुधर्मी भारतीय समाज में पूजा-इबादत की विविधता इसके सांस्कृतिक सौंदर्य का अटूट हिस्सा है और दुनिया इसकी मिसालें भी देती रही है और यही इस राष्ट्र की ताकत भी रहा है। यह विशेषता एकाएक हासिल नहीं हुई, समाज ने सहस्राब्दियों में इसको अर्जित किया है। लेकिन आजाद भारत में कतिपय राजनीतिक दलों द्वारा साम्प्रदायिक नफरत एवं द्वेष की तल्ख घटनाओं को कुरेदने की राजनीति से भाईचारे की संस्कृति को चोट पहुंचाई जा रही है। स्वार्थ एवं संकीर्णता की राजनीति से देश का चरित्र धुंधला रहा है। सत्ता के मोह ने, वोट के मोह ने शायद उनके विवेक का अपहरण कर लिया है। कहीं कोई स्वयं शेर पर सवार हो चुका है तो कहीं किसी नेवले ने सांप को पकड़ लिया है। न शेर पर से उतरते बनता है, न सांप को छोड़ते बनता है।
धरती पुत्र, जनक रक्षक, पिछड़ों के मसीहा और धर्मनिरपेक्षता के पक्षधर का मुखौटा लगाने वाले आज जन विश्वास का हनन करने लगे हैं। जनादेश की परिभाषा अपनी सुविधानुसार करने लगे हैं। कोई किसी का भाग्य विधाता नहीं होता, कोई किसी का निर्माता नहीं होता, भारतीय संस्कृति के इस मूलमंत्र को समझने की शक्ति भले ही वर्तमान के इन तथाकथित राजनीतिज्ञों में न हो, पर इस नासमझी से सत्य का अंत तो नहीं हो सकता। अंत तो उसका होता है जो सत्य का विरोधी है, अंत तो उसका होता है जो जनभावना के साथ विश्वासघात करता है। जनमत एवं जन विश्वास तो दिव्य शक्ति है। उसका उपयोग आदर्शों, सिद्धांतों और मर्यादाओं की रक्षा के लिए हो, तभी अपेक्षित लक्ष्यों की प्राप्ति होगी। तभी होगा राष्ट्रीय समस्याओं का समाधान। तभी होगी अपनत्व और विश्वास की पुनः प्रतिष्ठा। तभी साम्प्रदायिकता के अंधेरे को दूर किया जा सकेगा। वरना ईमानदारी की लक्ष्मण रेखा जिसने भी लांघी, वक्त के रावण ने उसे उठा लिया।
कैसी विडम्बना है कि इस तरह के सांप्रदायिक दंगे और हिंसात्मक घटना-क्रम का आरोप भाजपा लगाया जाता है, जबकि कांग्रेसियों, कम्युनिस्टों और समाजवादियों ने अपने गिरते राजनीतिक वर्चस्व के कारण इन सब घटनाओं को अंजाम दिया है। भला कोई भी सत्ताधारी पार्टी ऐसे दंगों एवं साम्प्रदायिक हिंसा को अंजाम देकर अपनी शासन-व्यवस्था पर क्यों दाग लगायेगी? इस देश की बढ़ती साख एवं राष्ट्रीयता को गिराने की मंशा रखने वाले राजनीतिक दलों एवं समुदायों का यह स्थायी चरित्र बन गया है कि वे अपने राष्ट्र से भी कहीं ज्यादा महत्व अपने स्वार्थ, अपनी जात और अपने मज़हब को देते हैं। 1947 के बाद जिस नए शक्तिशाली और एकात्म राष्ट्र का हमें निर्माण करना था, उस सपने का इन संकीर्ण एवं साम्प्रदायिक दलों की राजनीति ने चूरा-चूरा कर दिया। थोक वोट के लालच में सभी राजनीतिक दल जातिवाद और सांप्रदायिकता का सहारा लेने में ज़रा भी संकोच नहीं करते। जो कोई अपनी जात और मजहब को बनाए रखना चाहते हैं, उन्हें उसकी पूरी आजादी होनी चाहिए लेकिन उनके नाम पर घृणा फैलाना, ऊँच-नीच को बढ़ाना, दंगे और तोड़-फोड़ करना कहां तक उचित है? यही प्रवृत्ति देश में पनपती रही तो भौगोलिक दृष्टि से तो भारत एक ही रहेगा लेकिन मानसिक दृष्टि से उसके टुकड़े-टुकड़े हो जाएंगे। यह खंड-खंड में बंटा भारत क्या कभी महाशक्ति बन सकेगा? क्या वह अपनी गरीबी दूर कर सकेगा? क्या वह विकास योजनाओं को आकार दे सकेगा?
बेहतर तो यही होता कि सभी धर्मों के शीर्ष लोग मिलते और ऐसी मिसालें पेश करते कि साम्प्रदायिक दंगों की नयी पनपती विकृति विराम लेती। वे अपने-अपने समुदाय का मार्गदर्शन करते, मगर जब राष्ट्र से ज्यादा वजनी सम्प्रदाय हो जाये, सांप्रदायिक दुराव शांति-व्यवस्था के लिए खतरा जाये, तो राज्य-सत्ता का हस्तक्षेप जरूरी हो जाता है। ऐसा करना सरकर एवं प्रशासन का दायित्व भी है और जरूरत भी। देश को समग्र तरक्की के लिए शांत भारत चाहिए। दंगे और तनाव उसकी खुशहाली व प्रतिष्ठा को ग्रहण ही लगाएंगे। ऐसे में सशक्त भारत-विकासशील भारत का सपना आकार कैसे ले सकेगा?
कैसी विसंगतिपूर्ण साम्प्रदायिक सोच है कि जब हमारी ऊर्जा विज्ञान व पर्यावरण, शिक्षा एवं चिकित्सा के जटिल मुद्दों को सुलझाने में खर्च होनी चाहिए थी, वो ऊर्जा सांप्रदायिक ताकत को बढ़ाने के लिए खर्च हो रही है। ऐसा क्यों है? यह दूषित एवं संकीर्ण राजनीति एवं तथाकथित सम्प्रदायों के आग्रहों-पूर्वाग्रहों का परिणाम है। किसी भी धार्मिक जुलूस या शोभायात्रा के मार्ग, समय-अवधि या इसमें शिरकत करने वाले श्रद्धालुओं के संख्याबल को लेकर पुलिस की अपनी नियमावली है। यदि इसका ईमानदारी से पालन हो, तो न ट्रैफिक की समस्या हो सकती है और न सामाजिक माहौल बिगड़़ सकता है, पर अक्सर इसकी अनदेखी होती है, जैसा कि जहांगीरपुरी विवाद में बताया जा रहा है। मुख्यमंत्री योगी का उत्तर प्रदेश में इसे सख्ती से लागू करने और पारंपरिक जुलूसों व शोभायात्राओं से पहले सभी धर्मों के सम्मानित गुरुओं की बैठकें करने का निर्देश टकराव टालने में अहम साबित होगा। प्रशासन को शोभायात्राओं में घातक हथियारों के प्रदर्शन के मामले में भी कठोर निगरानी करनी चाहिए। इसी तरह, मौजूदा यांत्रिक युग में अब बहुत ऊंची आवाज लगाने की आवश्यकता भी नहीं बची है। साम्प्रदायिक आग्रह-पूर्वाग्रह जब जीवन का आवश्यक अंग बन जाता है तब पूरी पीढ़ी शाप को झेलती, सहती और शर्मसार होकर लम्बे समय तक बर्दाश्त करती है। साम्प्रदायिक आग्रह-पूर्वाग्रह के इतिहास को गर्व से नहीं, शर्म से पढ़ा जाता है। आज हमें झण्डे, तलवारें और नारे नहीं सत्य की पुनः प्रतिष्ठा चाहिए।
-ललित गर्ग
पूंजीवादी मॉडल के अंतर्गत आर्थिक विकास की गति को बढ़ाने के उद्देश्य से विभिन्न पदार्थों के अधिक से अधिक उत्पादन एवं उपभोग पर जोर दिया जाता है, जिसके चलते प्राकृतिक संसाधनों का शोषण किया जाता है।
आज अमेरिका, यूरोप एवं अन्य विकसित देश कई प्रकार की समस्याओं का सामना कर रहे हैं एवं इन समस्याओं का हल निकालने में अपने आप को असमर्थ महसूस कर रहे हैं। दरअसल विकास का जो मॉडल इन देशों ने अपनाया हुआ है, इस मॉडल में स्पष्ट रूप से दिखाई दे रहे कई छिद्रों को भर नहीं पाने के कारण इन देशों में कई प्रकार की समस्याएं बद से बदतर होती जा रही है। जैसे- प्राकृतिक संसाधनों का तेजी से क्षरण होना, ऊर्जा का संकट पैदा हो जाना, वनों के क्षेत्र में तेजी से कमी होना, प्रतिवर्ष जंगलों में आग का लगना, भूजल का स्तर तेजी से नीचे की ओर चले जाना, जलवायु एवं वर्षा के स्वरूप में लगातार परिवर्तन होते रहना, नैतिक एवं मानवीय मूल्यों में लगातार ह्रास होते जाना, सुख एवं शांति का अभाव होते जाना, इन देशों में निवास कर रहे लोगों में हिंसा की प्रवृति विकसित होना एवं मानसिक रोगों का फैलना। इन सभी समस्याओं के मूल में विकसित देशों द्वारा आर्थिक विकास के लिए अपनाए गए पूंजीवादी मॉडल को माना जा रहा है।
पूंजीवादी मॉडल के अंतर्गत आर्थिक विकास की गति को बढ़ाने के उद्देश्य से विभिन्न पदार्थों के अधिक से अधिक उत्पादन एवं उपभोग पर जोर दिया जाता है, जिसके चलते प्राकृतिक संसाधनों का शोषण किया जाता है। प्राकृतिक संसाधनों के अत्यधिक शोषण से इन संसाधनों का तेजी से क्षरण होने लगता है और ऐसा पूरे विश्व में हो भी रहा है परंतु फिर भी चूंकि आर्थिक विकास की गति को बनाए रखना है अतः इन प्राकृतिक संसाधनों के शोषण पर रोक लगाने के बारे में बिलकुल सोचा नहीं जा रहा है। इस प्रकार विकसित देश एक ऐसे दुष्चक्र में फंस गए हैं जिससे निकलना अब उनके लिए सम्भव होता नहीं दिख रहा है।
विकसित देशों ने आज जो आर्थिक प्रगति की है उसकी बहुत बड़ी कीमत लगभग पूरे विश्व ने ही चुकाई है। इस विषय पर यदि विचार किया जाये तो ध्यान में आता है कि विकसित देशों यथा अमेरिकी नागरिकों जैसी जीवन शैली यदि अन्य देशों के नागरिकों द्वारा भी जीने के बारे सोचा जाये तो आज पूरे विश्व में इतने प्राकृतिक संसाधन शेष नहीं बचे हैं कि इस जीवन शैली को पूरे विश्व में उतारने के बारे में सोचा भी जा सके। फिर विकास के ऐसे मॉडल का क्या लाभ, जिसे पूरा विश्व अपना ही नहीं सके। विकसित देशों की कुल जनसंख्या पूरे विश्व की जनसंख्या का यदि 20 प्रतिशत है तो ये सम्पन्न देश पूरे विश्व के कुल संसाधनों के लगभग 80 प्रतिशत भाग का उपयोग करते हैं जबकि उनके पास पूरे विश्व के प्राकृतिक संसाधनों का केवल 50 प्रतिशत भाग ही है। विकसित देश अपने उपभोग एवं उत्पादन के स्तर को बनाए रखने के चलते विश्व के कुल ग्रीन हाउस गैसों का 80 प्रतिशत भाग वातावरण में भेजते हैं। अकेले अमेरिका ही अल्यूमिनीयम का इतना कचरा फेंकता है कि इससे वर्ष भर में 6000 जेट विमान बनाए जा सकते हैं। हालांकि उक्त वर्णित आंकड़े आज के नहीं बल्कि कुछ पहले के हैं, परंतु इससे स्थिति की भयावहता का पता तो चलता ही है।
विकसित देशों का पूंजीवादी विकास मॉडल चूंकि भौतिकवाद पर टिका हुआ है अतः आर्थिक जगत की एक इकाई द्वारा दूसरी इकाई का शोषण करते हुए ही अपना विकास सुनिश्चित किया जाता है। ग्रामीण इकाई का नगर इकाई द्वारा, नगर इकाई का महानगर इकाई द्वारा, प्राथमिक वस्तुओं के उत्पादक देश का औद्योगिक देश द्वारा, उपभोक्ताओं का बहुराष्ट्रीय कम्पनियों द्वारा, श्रमिकों का औद्योगिक इकाईयों द्वारा, छोटे उत्पादक का बड़े उत्पादक द्वारा शोषण करके ही अपने विकास की राह बनाई जाती है। आज पश्चिमी यूरोप या अमेरिका ने जो भी विकास हासिल किया है वह कुछ अन्य देशों का शोषण करते हुए ही हासिल किया है। ब्रिटेन यदि अपने आर्थिक विकास के लिए भारत का शोषण नहीं करता तो ब्रिटेन में औद्योगिक विकास सम्भव ही नहीं था। ब्रिटेन ने पहले भारत की औद्योगिक इकाईयों को तबाह किया एवं भारत से कच्चा माल ले जाकर ब्रिटेन में औद्योगिक इकाईयां खड़ी कर लीं और भारत में बेरोजगारी निर्मित करते हुए अपने देश में रोजगार के नए अवसर निर्मित किए। इस प्रकार भारत के प्राकृतिक संसाधनों का शोषण करते हुए ब्रिटेन ने अपना आर्थिक विकास किया। यह पूंजीवादी मॉडल उपभोक्ता की मजबूरी का फायदा उठाकर उसे या तो अधिक कीमत पर वस्तु बेचता है अथवा अपेक्षाकृत कम गुणवत्ता की वस्तु बेचकर अधिक से अधिक लाभ कमाने की मानसिकता से कार्य करता है। इसी प्रकार श्रमिकों को कम पारिश्रमिक अदा कर अथवा उससे अधिक समय तक काम लेकर उसका शोषण करता है। पूंजीवादी मॉडल के अंतर्गत प्रत्येक इकाई के लिए समान विकास की भावना पनप ही नहीं पाती है एवं एक इकाई दूसरी इकाई का शोषण करती हुई दिखाई देती है। साथ ही इस मॉडल के अंतर्गत चूंकि समस्त इकाईयां तेजी से विकास करना चाहती हैं एवं येन केन प्रकारेण अधिक से अधिक धनार्जन करना चाहती हैं इसलिए नैतिक, मानवीय एवं सामाजिक सरोकार कहीं पीछे छूट गए हैं।
केवल आर्थिक सम्पन्नता को ही विकास की निशानी मान लिया गया है, अतः विशेष रूप से विकसित देशों के नागरिकों में सामाजिक एवं मनोवैज्ञानिक परेशानियों ने भी अपना घर बना लिया है। विकसित देशों में आज विवाह संबंधों में बढ़ती कुरीतियों के चलते पारिवारिक बिखराव की प्रक्रिया तेज हुई है। बहुत बड़ी संख्या में विवाह टूट रहे हैं एवं इनकी परिणति तलाक में हो रही है। विवाहेत्तर सम्बंध एवं विवाह पूर्व रिश्ते तथा विवाह के पूर्व ही बच्चियों का गर्भवती हो जाना तो जैसे आम बात हो गई है। कुछ विकसित देशों में तो स्कूल में बच्चों को कंडोम बांटने का निर्णय भी लिया गया था। हत्याएं, आत्महत्याएं, बलात्कार, चोरी डकैती, नशीली दवाओं का सेवन आदि जैसे अपराधों में वृद्धि दृष्टिगोचर है। कुल मिलाकर समाज में अपराधों की संख्या में वृद्धि हो रही है। आज अमेरिकी की आधी से अधिक आबादी किसी न किसी प्रकार के मानसिक रोग से पीड़ित है।
इसके ठीक विपरीत, लगभग 1000 वर्ष पूर्व तक भारत आर्थिक रूप से एक समृद्धिशाली देश था और भारतीय नागरिकों को जीने के लिए चिंता नहीं थी एवं इन्हें आपस में कभी भी स्पर्धा करने की आवश्यकता ही नहीं पड़ी। देश में भरपूर मात्रा में संसाधन उपलब्ध थे, प्रकृति समस्त जीवों को भरपूर खाना उपलब्ध कराती थी अतः छल-कपट, चोरी-चकारी, शोषण, हत्याएं, आत्महत्याएं आदि जैसी समस्याएं प्राचीन भारत में दिखाई ही नहीं देती थीं। उस समय समाज में यह भी मान्यता थी कि हमारा जन्म उपभोग के लिए नहीं बल्कि तपस्या का लिए हुआ है। भारतीय दर्शन में तो न केवल मानव बल्कि पशु एवं पक्षियों के जीने की भी चिंता की जाती रही है। है। साथ ही, सनातन धर्म में धरा (पृथ्वी) को मां का दर्जा दिया गया है एवं ऐसा माना जाता है कि प्रत्येक जीव को ईश्वर ने इस धरा पर खाने एवं तन ढकने की व्यवस्था करते हुए भेजा है। इसलिए इस धरा से केवल उतना ही लिया जाना चाहिए जितना जरूरी है। यह बात अर्थ पर भी लागू होती है अर्थात प्रत्येक व्यक्ति को उतना ही अर्थ रखना चाहिए जितने से आवश्यक कार्य पूर्ण हो सके बाकी के अर्थ को जरूरतमंदों के बीच बांट देना चाहिए, जिससे समाज में आर्थिक असमानता समूल नष्ट की जा सके। इस मूल नियम में ही बहुत गहरा अर्थ छिपा है। ईश्वर ने प्रत्येक जीव को इस धरा पर मूल रूप से आनंद के माहौल में रहने के लिए भेजा है। विभिन्न प्रकार की चिंताएं तो हमने कई प्रपंच रचते हुए स्वयं अपने लिए खड़ी की हैं। सनातन धर्म में उपभोक्तावाद निषिद्ध है। उपभोक्तावाद पर अंकुश लगाने से उत्पाद की मांग नियंत्रित रहती है एवं उसकी आपूर्ति लगातार बनी रहती है जिसके चलते मूल्य वृद्धि पर अंकुश बना रहता है और यदि परिस्थितियां इस प्रकार की निर्मित हों कि आपूर्ति लगातार मांग से अधिक बनी रहे तो कीमतों में कमी भी देखने में आती है। इससे आम नागरिकों की आय की क्रय शक्ति बढ़ती है एवं बचत में वृद्धि दृष्टिगोचर होने लगती है।
आज केवल भारत ही “वसुधैव कुटुम्बकम” की भावना के साथ आगे बढ़ने का प्रयास कर रहा है, इसी कारण से पूरा विश्व ही आज भारत की ओर आशा भरी नजरों से देख रहा है। ऐसा भी आभास होता है कि आज पूरा विश्व भारतीय परम्पराओं को अपनाने की ओर आगे बढ़ रहा है जैसे कृषि के क्षेत्र में केमिकल, उर्वरक, आदि के उपयोग को त्याग कर ''ऑर्गेनिक फार्मिंग” अर्थात गाय के गोबर का अधिक से अधिक उपयोग किए जाने की चर्चाएं जोर शोर से होने लगी हैं। पहले हमारी आयुर्वेदिक दवाईयों का मजाक बनाया गया था और विकसित देशों ने तो यहां तक कहा था कि फूल, पत्ती खाने से कहीं बीमारियां ठीक होती हैं, परंतु आज पूरा विश्व ही “हर्बल मेडिसिन” एवं भारतीय आयुर्वेद की ओर आकर्षित हो रहा है। हमारे पूर्वज हमें सैंकड़ों वर्षों से सिखाते रहे हैं कि पेड़ की पूजा करो, पहाड़ की पूजा करो, नदी की रक्षा करो, तब विकसित देश इसे भारतीयों की दकियानूसी सोच कहते थे। परंतु पर्यावरण को बचाने के लिए यही विकसित देश आज अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कई सम्मेलनों का आयोजन कर यह कहते हुए पाए जाते हैं कि पृथ्वी को यदि बचाना है तो पेड़, जंगल, पहाड़ एवं नदियों को बचाना ही होगा। इसी प्रकार कोरोना महामारी के फैलने के बाद पूरे विश्व को ही ध्यान में आया कि भारतीय योग, ध्यान, शारीरिक व्यायाम, शुद्ध सात्विक आहार एवं उचित आयुर्वेदिक उपचार के साथ इस बीमारी से बचा जा सकता है। कुल मिलाकर ऐसा आभास हो रहा है कि जैसे पूरा विश्व ही आज अपनी विभिन्न समस्याओं के हल हेतु भारतीय परम्पराओं को अपनाने हेतु आतुर दिख रहा है।
-प्रह्लाद सबनानी
सेवानिवृत्त उप महाप्रबंधक
भारतीय स्टेट बैंक
भारत मुस्लिम सम्प्रदायवाद से आतंकित रहा है। जब इस्लामवाद भारत की मूल संस्कृति को लहूलुहान करने पर आमादा दिख रहा है और प्रतिक्रिया स्वरूप यदि उदार हिन्दू भी इसी आधार पर गोल बन्द हो रहे हैं तो गलती किनकी मानी जायेगी।
रामनवमी एवं हनुमान जयन्ती पर एक सम्प्रदाय विशेष के लोगों ने जो हिंसा, नफरत एवं द्वेष को हथियार बनाकर अशांति फैलायी, वह भारत की एकता, अखण्डता एवं भाईचारे की संस्कृति को क्षति पहुंचाने का माध्यम बनी है। क्या इससे बुरी बात और कोई हो सकती है कि क्यों शांति एवं सद्भाव का संदेश देने वाले पर्व और उनसे जुड़े आयोजन हिंसा का शिकार हों? ध्यान रहे कि जब ऐसा होता है तो बैर बढ़ने के साथ देश की छवि पर भी बुरा असर पड़ता है। निःसंदेह इस सम्प्रदाय विशेष को भी यह समझने की आवश्यकता है कि जब देश कई चुनौतियों से दो-चार है, तब राष्ट्रीय एकता एवं सद्भाव को बल देना सबकी पहली और साझी प्राथमिकता बननी चाहिए। ताली एक हाथ से नहीं बज सकती। एक विभाजित और वैमनस्यग्रस्त समाज न तो अपना भला कर सकता है और न ही देश को आगे ले जा सकता है। समय आ गया है कि उन मूल कारणों पर विचार किया जाए, जिनके चलते तनाव बढ़ाने वाली घटनाएं थम नहीं रही हैं।
विडंबना यह है कि हिंसा, असहिष्णुता और घृणा की ये घटनाएं भगवान श्रीराम के जन्मदिन पर हुईं, जो मर्यादा पुरुषोत्तम कहलाते हैं, जो भारतीयता के प्रतीक हैं और नीतिपरायणता की साक्षात मिसाल हैं। ऐसी दिव्यआत्मा की जन्म जयन्ती पर देश के विभिन्न भागों में शोभायात्राओं पर हमले होना न केवल दुर्भाग्यपूर्ण है बल्कि यह राष्ट्रीय एकता को आघात पहुंचाने की कुचेष्टा भी है। अभी रामनवमी पर हमलों एवं अशांति फैलाने की घटनाओं की चर्चा जारी ही थी कि दिल्ली में हनुमान जन्मोत्सव पर निकाली गई एक शोभायात्रा भी हिंसा की चपेट में आ गई। इसी तरह की हिंसा हरिद्वार में भी हुई और आंध्र एवं कर्नाटक के शहरों में भी। इसके पहले हिंदू नववर्ष के अवसर पर भी हिंसक घटनाएं हो चुकी हैं, जिनमें राजस्थान के करौली की घटना की गूंज तो अभी तक सुनाई दे रही है। ऐसी घटनाएं सामाजिक तानेबाने को क्षति पहुंचाने के साथ कानून एवं व्यवस्था के समक्ष चुनौती भी खड़ी करती हैं। यह चिंता की बात है कि यह एक चलन-सा बनता जा रहा है कि जब सार्वजनिक स्थलों पर कोई धार्मिक आयोजन होता है तो प्रायः पहले किसी बात को लेकर विवाद होता है और फिर हिंसा शुरू हो जाती है। कई बार तो यह हिंसा बड़े पैमाने पर और किसी सुनियोजित साजिश के तहत होती दिखती है। मध्य प्रदेश के खरगोन और गुजरात के हिम्मतनगर एवं खंभात में हुई भीषण हिंसा यही संकेत करती है कि उसे लेकर पूरी तैयारी की गई थी। दिल्ली के जहांगीरपुरी इलाके की हिंसा भी इसी ओर इशारा कर रही है।
देश का चरित्र बनाना है तथा स्वस्थ, सौहार्दपूर्ण एवं शांतिपूर्ण समाज की रचना करनी है तो हमें एक ऐसी आचार संहिता को स्वीकार करना होगा जो जीवन में पवित्रता दे। राष्ट्रीय प्रेम व स्वस्थ समाज की रचना की दृष्टि दे। कदाचार के इस अंधेरे कुएँ से निकाले। बिना इसके देश का विकास और भौतिक उपलब्धियां बेमानी हैं। व्यक्ति, परिवार और राष्ट्रीय स्तर पर हमारे इरादों की शुद्धता महत्व रखती है, जबकि हमने इसका राजनीतिकरण कर परिणाम को महत्व दे दिया। घटिया उत्पादन के पर्याय के रूप में जाना जाने वाला जापान आज अपनी जीवन शैली को बदल कर उत्कृष्ट उत्पादन का प्रतीक बन विश्वविख्यात हो गया। यह राष्ट्रीय जीवन शैली की पवित्रता का प्रतीक है। इसी तरह भारत भी आज विश्वविख्यात होने की दिशा में अग्रसर हो रहा है, तो उसकी बढ़ती साख एवं समझ को खण्डित करने वाली शक्तियों को सावधान करना ही होगा। भारत जैसी माटी में जन्म लेना बड़ी मुश्किल से मिलता है। विश्व बंधुत्व एवं वसुधैव कुटुम्बकम की विचारधारा वाला यह राष्ट्र विभिन्न संस्कृतियों एवं सम्प्रदायों को अपने में समेटे है तो यह यहां के बहुसंख्यक समुदाय की उदार सोच का ही परिणाम रहा है, इसी बहुसंख्यक हिन्दू समुदाय को आखिर कब तक कमजोर किया जाता रहेगा? क्यों किया जायेगा? कल पर कुछ मत छोड़िए। कल जो बीत गया और कल जो आने वाला है- दोनों ही हमारी पीठ के समान हैं, जिसे हम देख नहीं सकते। आज हमारी हथेली है, जिसकी रेखाओं को हम देख सकते हैं। अब हथेली की रेखाओं को कमजोर करने एवं उसे लहूलुहान होते हुए नहीं देखा जा सकता?
ताजा घटनाओं के मूल में भड़काऊ नारे एवं संकीर्ण राजनीति के मंसूबे सामने आये हैं। इन आरोपों की जांच होने के साथ यह भी देखा जाना चाहिए कि क्या कुछ राजनीतिक दल किसी भी बहाने भड़कने और हिंसा करने के लिए तैयार बैठे रहते हैं? वास्तव में जैसे यह एक सवाल है कि क्या भारतीय संस्कृति के अस्तित्व एवं अस्मिता से जुड़े इन धार्मिक आयोजनों पर पथराव, तोड़फोड़ और आगजनी करना जरूरी समझ लिया गया है? इन प्रश्नों पर दलगत राजनीति से परे होकर गंभीरता के साथ विचार होना चाहिए। इसी तरह पुलिस प्रशासन को भी यह देखना होगा कि वैमनस्य बढ़ाने वाली घटनाएं क्यों बढ़ती चली जा रही हैं?
हिजाब, हलाल और अजान के नाम पर साम्प्रदायिक शक्तियों को संगठित करने एवं दूसरे धर्मों के आयोजनों पर हिंसक हमलों ने आज तेजी के साथ हिंसा, असहिष्णुता, नफरत, बिखराव और घृणा की साम्प्रदायिक जीवन शैली का रूप ग्रहण कर लिया है। यह खतरनाक स्थिति है, कारण सबको अपनी-अपनी पहचान समाप्त होने का खतरा दिख रहा है।
भारत मुस्लिम सम्प्रदायवाद से आतंकित रहा है। जब इस्लामवाद भारत की मूल संस्कृति को लहूलुहान करने पर आमादा दिख रहा है और प्रतिक्रिया स्वरूप यदि उदार हिन्दू भी इसी आधार पर गोल बन्द हो रहे हैं तो गलती किनकी मानी जायेगी। आवश्यकता है धर्म को प्रतिष्ठापित करने के बहाने राजनीति का खेल न खेला जाए। धर्म और सम्प्रदाय के भेद को गड्मड् न करें। धर्म सम्प्रदाय से ऊपर है। राजनीति में सम्प्रदाय न आये, नैतिकता आए, आदर्श आए, श्रेष्ठ मूल्य आएँ, सहिष्णुता आये, सह-अस्तित्व के प्राचीन मूल्य एवं जीवनशैली आये। नैतिकता मनुष्य की मूलभूत आवश्यकता है। ''कर्तव्य'' और ''त्याग'' भावना पूर्ति करने वाली है। अतः न ही इनका विरोध हो और न ही इनकी तरफ से दृष्टि मोड़ लेना उचित है। अतः सम्प्रदायवाद से ऊपर उठकर सार्वभौम धर्म का साक्षात्कार ही हममें नवीन आत्मविश्वास, सशक्त भारत-विकसित भारत का संचार करेगा। जो समाज को धारण करे, उसे धर्म कहते हैं। लेकिन आज के युग में इसका सीधा अर्थ हिन्दू, मुसलमान, सिख, ईसाई, बौद्ध और जैन आदि में से किसी एक को लिया जाता है। उपनिषदों में कहा गया है कि सभी मनुष्य सुखी हों, सभी भयमुक्त हों, सभी एक-दूसरे को भाई समान समझें। यह भारतीय धर्म चिन्तन का निचोड़ है और यही हिन्दू धर्म का निचोड़ है। जहां विश्व एक ही नीड़-सा लगे।
प्रश्न उठता है, आखिर सार्वभौम मानव धर्म क्या है? भारतीय दृष्टि में पाश्चात्य मत ही धर्म की अवधारणा एकांगी और सम्प्रदाय की अवधारणा के अधिक नजदीक है। जबकि धर्म शब्द ''रिलिजन'' से ज्यादा व्यापक है। भारतीयों ने इस शब्द का प्रयोग कभी सम्प्रदाय या पंथ के लिए नहीं किया, अपितु सर्वश्रेष्ठ जीवन मूल्यों, अहिंसा, सत्य, दया, प्रेम, करुणा, सह-अस्तित्व, सहिष्णुता तथा मानवता के लिए किया। अन्याय का प्रतिकार करना आत्मा का गुण-धर्म है। असत्य से सत्य की ओर, अंधकार से प्रकाश की ओर, मृत्यु से जीवन की ओर, हिंसा से अहिंसा की ओर तथा भोग से त्याग की ओर जाना ही धर्म है। यह धर्म देश, काल की सीमा तक सीमित न रहकर देशकालातीत है।
धर्म की विशालता के आगे सम्प्रदाय छोटे-छोटे द्वीप दिखाई देते हैं। सबकी पूजा, प्रार्थना, उपासना की स्वतंत्रता भारतीय संस्कृति की विशेषता है। यही सबको भयमुक्त रखता है। किसी का कोई विरोध नहीं। सम्प्रदाय नहीं लड़ता है सम्प्रदायवाद लड़ता है। यह सम्प्रदायवाद तब बनता है जब इसका प्रयोग किसी दूसरे सम्प्रदाय के विरुद्ध राजनीतिक या सामाजिक लक्ष्य की प्राप्ति के लिए किया जाता है। दरअसल साम्प्रदायिक विद्वेष के बीज वहीं जन्म लेते हैं जहां एक सम्प्रदाय का हित दूसरे सम्प्रदाय के हितों से टकराता है। भारत में हिन्दू-मुस्लिम हित परस्पर टकरा रहे हैं, इसलिए साम्प्रदायिकता बढ़ रही है। धार्मिकता नष्ट हो रही है। साम्प्रदायिकता का जन्म अनेक जटिल तत्वों से जुड़ा है- आर्थिक, धार्मिक एवं मनोवैज्ञानिक। इसमें मनोवैज्ञानिक ज्यादा महत्वपूर्ण है। हमारा जीवन दिशासूचक बने। गिरजे पर लगा दिशा-सूचक नहीं, वह तो जिधर की हवा होती है उधर ही घूम जाता है। कुतुबनुमा बने, जो हर स्थिति में सही दिशा बताता है।
-ललित गर्ग
इस यात्रा के दौरान अमेरिकी पक्ष ने भारत में मानव अधिकारों के हनन का सवाल भी उठाया। जयशंकर ने उसका भी करारा जवाब दिया। उन्होंने पूछा कि पहले बताइए कि आपके देश में ही मानव अधिकारों का क्या हाल है?
यूक्रेन के बारे में भारत पर अमेरिका का दबाव बढ़ता ही चला जा रहा था और ऐसा लग रहा था कि हमारे रक्षा और विदेश मंत्रियों की इस वाशिंगटन-यात्रा के दौरान कुछ न कुछ अप्रिय प्रसंग उठ खड़े होंगे लेकिन हमारे दोनों मंत्रियों ने अमेरिकी सरकार को भारत के पक्ष में झुका लिया। इसका सबसे बड़ा प्रमाण वह संयुक्त विज्ञप्ति है, जिसमें यूक्रेन की दुर्दशा पर खुलकर बोला गया लेकिन रूस का नाम तक नहीं लिया गया। उस विज्ञप्ति को आप ध्यान से पढ़ें तो आपको नहीं लगेगा कि यह भारत और अमेरिका की संयुक्त विज्ञप्ति है बल्कि यह भारत का एकल बयान है।
भारत ने अमेरिका का अनुकरण करने की बजाय अमेरिका से भारत की हां में हां मिलवा ली। अमेरिका ने भी वे ही शब्द दोहराए, जो यूक्रेन के बारे में भारत अंतरराष्ट्रीय मंचों पर कहता रहा है। दोनों राष्ट्रों ने न तो रूस की भर्त्सना की और न ही रूस पर प्रतिबंधों की मांग की। अमेरिकी विदेश मंत्री एंटनी ब्लिंकन ने यह मांग जरूर की कि दुनिया के सारे लोकतांत्रिक देशों को यूक्रेन के हमले की भर्त्सना करनी चाहिए। भारतीय विदेश मंत्री जयशंकर ने यूक्रेन की जनता की दी जा रही भारतीय सहायता का भी जिक्र किया और रूस के साथ अपने पारंपरिक संबंधों का भी! ब्लिंकन ने भारत-रूस संबंधों की गहराई को सार्वजनिक तौर पर स्वीकार भी किया।
भारत प्रशांत-क्षेत्र में अमेरिकी चौगुटे के साथ अपने संबंध घनिष्ट बना रहा है। इस यात्रा के दौरान दोनों मंत्रियों ने अंतरिक्ष में सहयोग के नए आयाम खोले, अब अमेरिकी जहाजों की मरम्मत का ठेका भी भारत को मिल गया है और अब भारत बहरीन में स्थित अमेरिकी सामुद्रिक कमांड का सदस्य भी बन गया है। इस यात्रा के दौरान अमेरिकी पक्ष ने भारत में मानव अधिकारों के हनन का सवाल भी उठाया। जयशंकर ने उसका भी करारा जवाब दिया। उन्होंने पूछा कि पहले बताइए कि आपके देश में ही मानव अधिकारों का क्या हाल है?
अमेरिका के काले और अल्पसंख्यक लोग जिस दरिद्रता और असमानता को बर्दाश्त करते रहते हैं, उसे जयशंकर ने बेहिचक रेखांकित कर दिया। जयशंकर का अभिप्राय था कि अमेरिका की नीति ‘पर उपदेशकुशल बहुतेरे’ की नीति है। जहां तक रूसी एस-400 प्रक्षेपास्त्रों की खरीद का सवाल है, उस विवादास्पद मुद्दे पर भी जयशंकर ने दो-टूक जवाब दिया। उन्होंने कहा कि यह पाबंदी का अमेरिकी कानून है।
इसकी चिंता अमेरिका करे कि वह किसी खरीददार पर पाबंदिया लगाएगा या नहीं? यह हमारी चिंता का विषय नहीं है। जयशंकर पहले अमेरिका में भारत के राजदूत रह चुके हैं। उन्हें उसकी विदेश नीति की बारीकियों का पता है। इसीलिए उन्होंने भारत का पक्ष प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत करने में कोई कोताही नहीं बरती।
-डॉ. वेदप्रताप वैदिक
विडम्बना एवं विसंगति की हदें पार हो रही हैं। ये मुफ्त एवं खैरात कोई भी पार्टी अपने फंड से नहीं देती। टैक्स दाताओं का पैसा इस्तेमाल करती है। हम 'नागरिक नहीं परजीवी’ तैयार कर रहे हैं। जब ये आर्थिक समीकरण फेल होगा तब ये मुफ्त खोर पीढ़ी बीस तीस साल की हो चुकी होगी।
भारत की राजनीति में खैरात बांटने एवं मुफ्त की सुविधाओं की घोषणाएं करके मतदाताओं को ठगने एवं लुभाने की कुचेष्टाओं में सभी राजनीतिक दल लगे हैं। महज राजनीतिक लाभ एवं वोट बैंक को प्रभावित करने के उद्देश्य से मुफ्तखोरी को बढ़ावा देना सरकारों के आर्थिक असंतुलन के साथ ही आत्मघाती उपक्रम है। केंद्र सरकार को उन राज्यों को चेताना चाहिए जो कर्ज चुकाने की क्षमता खोते चले जाने के बाद भी मुफ्त की योजनाओं को बढ़ावा दे रहे हैं। इससे उत्पन्न गंभीर आर्थिक संकट को नजरअंदाज करना राजनीतिक अपरिपक्वता का द्योतक है, वही अवसरवादी एवं स्वार्थ की राजनीति को पनपाने का जरिया है। इस तरह की मुफ्त की संस्कृति एवं जनधन को खैरात में बांटने से किस तरह किसी देश में राजनीतिक संकट खड़ा करने के साथ कानून एवं व्यवस्था के लिए भी चुनौती बन सकता है, इसका ताजा उदाहरण है श्रीलंका। वहां की स्थितियां जिस तेजी से बिगड़ रही हैं, वे भारत के लिए भी चिंता का विषय बन गई हैं।
भारत में यह कैसा लोकतांत्रिक ढ़ांचा बन रहा है जिसमें पार्टियां अपनी सीमा से कहीं आगे बढ़कर लोक-लुभावन वादे करने लगी हैं, उसे किसी भी तरह से जनहित में नहीं कहा जा सकता। बेहिसाब लोक-लुभावन घोषणाएं, अपने आर्थिक संसाधनों से परे जाकर और पूरे न हो सकने वाले आश्वासन पार्टियों को तात्कालिक लाभ तो जरूर पहुंचा सकते हैं, पर इससे देश के दीर्घकालिक सामाजिक और आर्थिक हालात पर प्रतिकूल असर पड़ने की भी आशंका है। प्रश्न है कि राजनीतिक पार्टियां एवं राजनेता सत्ता के नशे में डूब कर इतने आक्रामक कैसे हो सकते हैं? यह स्थिति चिन्ताजनक है। इसी तरह की स्थितियों से श्रीलंका में आर्थिक हालात बिगड़ने और महंगाई के बेलगाम हो जाने के कारण एक ओर जहां जनता का अंसतोष बढ़ता जा रहा है, वहीं दूसरी ओर राजनीतिक अस्थिरता भी गहराती जा रही है। करीब-करीब हर जरूरी वस्तु के आसमान छूते दामों से नाराज श्रीलंका की जनता सड़कों पर उतर रही है और वहां के राष्ट्रपति को यह समझ नहीं आ रहा है कि वे करें तो क्या करें?
श्रीलंका के बेकाबू होते हालात भारत के लिये एक सबक है, क्योंकि पिछले कुछ दौर से भारत में हर दल में मुफ्त बांटने की संस्कृति का प्रचलन बढ़ता ही जा रहा है। लोकतंत्र में इस तरह की बेतुकी एवं अतिश्योक्तिपूर्ण घोषणाएं एवं आश्वासन राजनीति को दूषित करते हैं, जो न केवल घातक है बल्कि एक बड़ी विसंगति का द्योतक हैं। किसी भी सत्तारुढ़ पार्टी को जनता की मेहनत की कमाई को लुटाने के लिये नहीं, बल्कि उसका जनहित में उपयोग करने के लिये जिम्मेदारी दी जाती है। इस जिम्मेदारी का सम्यक् निर्वहन करके ही कोई भी सत्तारुढ़ पार्टी या उसके नेता सत्ता के काबिल बने रह सकते हैं।
श्रीलंका की आर्थिक स्थिति जिन कारणों से बिगड़ी, उनमें चीन से कठोर शर्तों पर लिया गया कर्ज तो जिम्मेदार है ही, इसके अलावा वे लोकलुभावन नीतियां भी उत्तरदायी हैं, जो आर्थिक नियमों को धता बताती थीं। कर्ज के बढ़ने और विदेशी मुद्रा भंडार खाली होते जाने के बाद भी इन नीतियों को आगे बढ़ाकर श्रीलंका ने अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारने का ही काम किया। यह ठीक है कि भारत श्रीलंका के हालात पर नजर रखे हुए है, लेकिन केवल इतना ही पर्याप्त नहीं है। इसी के साथ ही उन कारणों पर भी ध्यान देने की आवश्यकता है, जिनके चलते श्रीलंका गहरे संकट में धंस गया। इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि हाल में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने जब शीर्ष अधिकारियों के साथ एक बैठक की तो कई अफसरों ने यह कहा कि कुछ राज्यों की ओर से मुफ्त वस्तुएं और सुविधाएं देने का जो काम किया जा रहा है, वह उन्हें श्रीलंका जैसी स्थिति में ले जा सकता है। इन अफसरों की मानें तो कर्ज में डूबे राज्य मुफ्तखोरी वाली योजनाएं चलाकर अर्थव्यवस्था का बेड़ा गर्क कर रहे हैं।
प्रश्न है कि क्या सार्वजनिक संसाधन किसी को बिल्कुल मुफ्त में उपलब्ध कराए जाने चाहिए? क्या जनधन को चाहे जैसे खर्च करने का सरकारों को अधिकार है? तब, जब सरकारें आर्थिक रूप से आरामदेह स्थिति में न हों। यह प्रवृत्ति राजनीतिक लाभ से प्रेरित तो है ही, सांस्थानिक विफलता को भी ढकती है और इसे किसी एक पार्टी या सरकार तक सीमित नहीं रखा जा सकता। केजरीवाल सरकार ने अभियान चलाकर आम आदमी की गाढ़ी कमाई के करोड़ों रुपये सरकार की तथाकथित योजनाओं को बताने में खर्च कर दिये हैं कि किस तरह उन्होंने दिल्ली को चमका दिया है। किस तरह मुफ्त पानी-बिजली देने के नाम पर सरकारी खजाना खाली कर रहे हैं। जबकि दिल्ली के हालात किसी से छिपे हुए नहीं हैं। इस तरह का बड़बोलेपन एवं मुफ्त की संस्कृति को पढ़े-लिखे बेरोजगारों ने अपना अपमान समझा। कई बार सरकारों के पास इतने संसाधन नहीं होते कि वे अपने लोगों के अभाव, भूख, बेरोजगारी जैसी विपदाओं से बचा सकें। लेकिन जब उनके पास इन मूलभूत जनसमस्याओं के निदान के लिये धन नहीं होता है तो वे मुफ्त में सुविधाएं कैसे बांटते हैं? क्यों करोड़ों-अरबों रुपये अपने प्रचार-प्रसार में खर्च करते हैं?
अर्थव्यवस्था और राज्य की माली हालत को ताक पर रखकर लगभग सभी पार्टियों व सरकारों ने गहने, लैपटॉप, टीवी, स्मार्टफोन से लेकर चावल, दूध, घी तक बांटा है या बांटने का वादा किया है। यह मुफ्तखोरी की पराकाष्ठा है। मुफ्त दवा, मुफ्त जाँच, लगभग मुफ्त राशन, मुफ्त शिक्षा, मुफ्त विवाह, मुफ्त जमीन के पट्टे, मुफ्त मकान बनाने के पैसे, बच्चा पैदा करने पर पैसे, बच्चा पैदा नहीं (नसबंदी) करने पर पैसे, स्कूल में खाना मुफ्त, मुफ्त जैसी बिजली 200 रुपए महीना, मुफ्त तीर्थ यात्रा। जन्म से लेकर मृत्यु तक सब मुफ्त। मुफ्त बाँटने की होड़ मची है, फिर कोई काम क्यों करेगा? मुफ्त बांटने की संस्कृति से देश का विकास कैसे होगा? कैसे सरकारों का आर्थिक संतुलन बनेगा? पिछले दस सालों से लेकर आगे बीस सालों में एक ऐसी पूरी पीढ़ी तैयार हो रही है या हमारे नेता बना रहे हैं, जो पूर्णतया मुफ्त खोर होगी। अगर आप उनको काम करने को कहेंगे तो वे गाली देकर कहेंगे, कि सरकार क्या कर रही है?
विडम्बना एवं विसंगति की हदें पार हो रही हैं। ये मुफ्त एवं खैरात कोई भी पार्टी अपने फंड से नहीं देती। टैक्स दाताओं का पैसा इस्तेमाल करती है। हम 'नागरिक नहीं परजीवी’ तैयार कर रहे हैं। जब ये आर्थिक समीकरण फेल होगा तब ये मुफ्त खोर पीढ़ी बीस तीस साल की हो चुकी होगी। जिसने जीवन में कभी मेहनत की रोटी नहीं खाई होगी, वह हमेशा मुफ्त की खायेगा। नहीं मिलने पर, ये पीढ़ी नक्सली बन जाएगी, उग्रवादी बन जाएगी, पर काम नहीं कर पाएगी। यह कैसा समाज निर्मित कर रहे हैं? यह कैसी विसंगतिपूर्ण राजनीति है? राजनीति छोड़कर, गम्भीरता से चिंतन करने की जरूरत है।
वर्तमान दौर की सत्ता लालसा की चिंगारी इतनी प्रस्फुटित हो चुकी है, सत्ता के रसोस्वादन के लिए जनता और व्यवस्था को पंगु बनाने की राजनीति चल रही है। राजनीतिक दलों की बही-खाते से सामाजिक सुधार, रोजगार, नये उद्यमों का सृजन, खेती को प्रोत्साहन, ग्रामीण जीवन के पुनरुत्थान की प्राथमिक जिम्मेवारियां नदारद हो चुकी हैं, बिना मेहंदी लगे ही हाथ पीले करने की फिराक में सभी राजनीतिक दल जुट चुके हैं। जनता को मुफ्तखोरी की लत से बचाने की जगह उसकी गिरफ्त में कर अपना राजनीतिक उल्लू सीधा करने में लगे हैं। लोकतंत्र में लोगों को नकारा, आलसी, लोभी, अकर्मण्य, लुंज बनाना ही क्या राजनीतिक कर्त्ता-धर्त्ताओं की मिसाल है? अपना हित एवं स्वार्थ-साधना ही सर्वव्यापी हो चला है? इन स्थितियों के कारण श्रीलंका जैसे हालात विभिन्न राज्यों में बनने की आहट सुनाई देने लगी है।
बेरोजगारी, व्यापार-व्यवसाय की टूटती सांसें एवं किसानों की समस्याओं को भी हल करने में ईमानदारी बरतने की बजाय सरकारें इसी तरह के लोक-लुभावन कदमों के जरिए उन्हें बहलाती रही हैं। ऐसी नीतियों पर अब गंभीरता से गौर करने की जरूरत है। अपने राज्य की स्त्रियों की सुरक्षा सुनिश्चित करना हरेक सरकार का अहम दायित्व है, लेकिन उनकी मुकम्मल सुरक्षा मेट्रो या बस में मुफ्त यात्रा की सुविधा में नहीं, बल्कि अन्य सुरक्षा उपायों के साथ टिकट खरीदकर उसमें सफर करने की आर्थिक हैसियत हासिल कराने में है। हकीकत में मुफ्त तरीकों से हम एक ऐसे समाज को जन्म देंगे जो उत्पादक नहीं बनकर आश्रित और अकर्मण्य होगा और इसका सीधा असर देश की पारिस्थितिकी और प्रगति, दोनों पर पड़ेगा। सवाल यह खड़ा होता है कि इस अनैतिक राजनीति का हम कब तक साथ देते रहेंगे? इस पर अंकुश लगाने का पहला दायित्व तो हम जनता पर ही है।
-ललित गर्ग
इस्लामिक विद्वान मौलाना सज्जाद नोमानी भी बोर्ड के महासचिव के बयान से असहमत हैं। हालांकि वह यह भी कहते हैं कि जबसे केंद्र में भाजपा की सरकार बनी, तबसे देश की धर्मनिरपेक्षता और संप्रभुता को खोखला करने का प्रयास किया जा रहा है।
केन्द्र में मोदी और यूपी में योगी सरकार का होना चंद लोगों को रास नहीं आता है। इसमें नेता से लेकर कथित इतिहासकार, बुद्धिजीवी, समाजसेवी, लेखक, कलाकार, धर्मगुरुओं सहित तमाम जानी-अनजानी हस्तियां शामिल हैं। यह वह शख्सियते हैं जो लोकतंत्र की बात तो करती हैं, लेकिन लोकतांत्रिक तौर पर चुनी हुई सरकार के खिलाफ कुचक्र और साजिश भी रचती रहती हैं। यहां तक कि अदालतों के फैसलों पर भी उंगली उठाती रहती हैं। यह फिरकापरस्त ताकतें वर्षों से अपनी मनमानी कर रही हैं, इन्हीं ताकतों के चलते देश में तमाम समाज सुधार के कार्य अधर में लटके हुए थे। यह वह ताकतें हैं जिनके सामने अक्सर कई राज्यों की ही नहीं देश की सरकारों को भी नतमस्तक होते देखा जा चुका है।
अपनी सियासत चमकाने के लिए नेता जिनकी चौखट पर नाक रगड़ते नजर आते थे। तुष्टिकरण जिनकी रग-रग में बसा था। यह इतने ताकतवर लोग हुआ करते थे कि इनकी जिद्द के चलते कई कानून दशकों तक ठंडे बस्ते में पड़े रहे। कौन भूल सकता है कि राजीव गांधी सरकार ने ऐसे ही कठमुल्लाओं के दबाव में आकर एक मुस्लिम महिला शाहबानो को उसके पति से गुजारा भत्ता दिलाए जाने के सुप्रीम कोर्ट के आदेश को कानून बनाकर पलट दिया था। इन्हीं कट्टरपंथियों के चलते देश में समान नागरिक संहिता और परिवार नियंत्रण कार्यक्रम अमली जामा नहीं पहन सका है। यह लोग अयोध्या पर कोर्ट के फैसले पर उंगली उठाते हैं तो हिजाब पर कर्नाटक हाईकोर्ट का फैसले पर भी सियासी रंग चढ़ा देते हैं। यही लोग सीएए और एनआरसी के खिलाफ लोगों को बरगलाते हैं। हाल ही में हिजाब को लेकर बवाल भी ऐसी सोच वालों की ही देन थी। केन्द्र में बीजेपी की सरकार आने के बाद एक नया ट्रैंड बन गया है, बार-बार मुसलमानों के मन में भय पैदा किया जाता है कि मोदी-योगी राज में मुसलमानों पर बेहद अत्याचार हो रहा है। दुख तो तब होता है जब उप-राष्ट्रपति रह चुके हामिद अंसारी जैसे लोग कहते हैं कि हिन्दुस्तान मुलसमानों के लिए सुरक्षित नहीं रह गया है।
खैर, देश में बीजेपी का प्रभाव बढ़ने के बाद वह दौर थम-सा गया है, लेकिन ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड (एआइएमपीएलबी) जैसी संस्थाओं के रहनुमा अभी भी बदलने को तैयार नजर नहीं आ रहे हैं। इसी लिए तो पर्सनल लॉ बोर्ड के महासचिव मौलाना खालिद सैफुल्लाह रहमानी और ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के महासचिव मौलाना खालिद सैफुल्लाह रहमानी यह कहने की हिमाकत करने से बाज नहीं आते हैं कि देश के मुसलमान अपने धार्मिक रीति-रिवाजों के मामले में वर्ष 1857 और 1947 से भी ज्यादा मुश्किल हालात से गुजर रहे हैं। उन्होंने मुसलमानों, खासकर मुस्लिम महिलाओं से गुजारिश की है कि वे मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के खिलाफ किए जा रहे दुष्प्रचार के प्रभाव में न आएं। मौलाना रहमानी ने अपने फेसबुक पेज पर वीडियो संदेश जारी कर आरोप लगाया है कि फिरकापरस्त ताकतें चाहती हैं कि हमें बरगलाएं, उकसाएं और हमारे नौजवानों को सड़क पर ले आएं। ऐसे ही मामलों में एक हिजाब का मसला भी है जो अभी कर्नाटक में मुसलमानों के लिए एक बड़ी आजमाइश का सबब बना हुआ है।
बहरहाल, अच्छी बात यह है कि रहमानी के बयान को मुस्लिम विद्वानों ने ही खारिज कर दिया है। उनका मानना है कि यह मुस्लिमों को मुख्य धारा से अलग करने की साजिश है। हमारा देश संविधान से चलता है, किसी को कोई दिक्कत है तो वह न्यायालय की शरण में जा सकता है। भाजपा ने भी इसे दुष्प्रचार बताया है। रहमानी ने कहा था कि देश में मुसलमानों के लिए 1857 व 1947 से भी मुश्किल हालात हैं। रहमानी के बयान पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए इस्लामिक विद्वान मौलाना सलमान हुसैनी नदवी ने कहा कि 1857 और 1947 की परिस्थितियां बिल्कुल अलग थीं। आज देश संविधान से चल रहा है, कोर्ट और कानून अपना काम कर रहे हैं। ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के महासचिव का बयान पूरी तरह गलत है। कुछ लोग अपने खास एजेंडे पर काम कर रहे हैं। यदि कहीं कुछ गलत हो रहा है तो उसके लिए देश में न्यायालय हैं।
उधर, इस्लामिक विद्वान मौलाना सज्जाद नोमानी भी बोर्ड के महासचिव के बयान से असहमत हैं। हालांकि वह यह भी कहते हैं कि जबसे केंद्र में भाजपा की सरकार बनी, तबसे देश की धर्मनिरपेक्षता और संप्रभुता को खोखला करने का प्रयास किया जा रहा है। वहीं उत्तर प्रदेश मदरसा शिक्षा परिषद के अध्यक्ष डॉ. इफ्तिखार अहमद जावेद कहते हैं कि ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड देश के चंद लोगों द्वारा बनाया हुआ एक गिरोह है। इस बोर्ड का मकसद मुसलमानों को भड़काना, उलझाना व उन्हें हाशिये पर धकेलना है। बोर्ड खासकर पिछड़े मुसलमानों व महिलाओं को मुख्यधारा से अलग-थलग करने की एक सुनियोजित साजिश रच रहा है। उत्तर प्रदेश राज्य हज समिति के चेयरमैन मोहसिन रजा कहते हैं कि कि आज आम मुसलमानों के हालात तो बेहतर हुए हैं, किंतु उनके ठेकेदारों के जरूर खराब हुए हैं। उन्होंने कहा कि ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड का असली नाम ऑल इंडिया मुल्ला पर्सनल लॉ बोर्ड रख देना चाहिए। मोहसिन रजा ने कहा कि भाजपा सरकार में मुसलमानों के ठेकेदारों की दुकानें बंद हो गईं हैं, इसलिए वे इस तरह की बातें कर रहे हैं।
बात ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड की कि जाए तो इस बोर्ड की स्थापना ही सियासी तौर पर हुई थी। जब 1973 में बोर्ड का गठन हुआ तब केन्द्र में इंदिरा सरकार थी, जिनकी नजर मुसलमानों के एकमुश्त वोटों पर थीं। इसी वजह से ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड अस्तित्व में आया था। पर्सलन लॉ बोर्ड वैसे तो एक गैर-सरकारी संगठन है, जो भारत में मुस्लिम पर्सनल लॉ की सुरक्षा और निरंतर प्रयोज्यता को अपनाने के लिए बनाया गया है, लेकिन बोर्ड में मौजूद लोग सियासत करने में कभी पीछे नहीं रहते हैं। यह और बात है कि बोर्ड भारत में मुस्लिम मत के अग्रणी निकाय के रूप में खुद को प्रस्तुत करता है, जिसकी एक भूमिका है, लेकिन पर्सनल लॉ बोर्ड की सियासत में दखलंदाजी के चलते आलोचना भी होती रही है। वैसे बोर्ड में अधिकांश मुस्लिम संप्रदायों का प्रतिनिधित्व किया जाता है और इसके सदस्यों में भारतीय मुस्लिम समाज के प्रमुख वर्गों जैसे धार्मिक नेता, विद्वान, वकील, राजनेता और अन्य पेशेवर शामिल हैं। हालांकि, ताहिर महमूद जैसे मुस्लिम विद्वानों, आरिफ़ मोहम्मद ख़ान जैसे राजनेताओं और न्यायविद् मार्कंडेय काटजू (सेवानिवृत्त सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश) जैसे तमाम लोग समय-समय पर ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड को समाप्त करने की वकालत भी करते रहे हैं।
-अजय कुमार
बीजेपी के सत्ता में आने के बाद उसको (बीजेपी) लेकर विपक्षी दलों और मुल्ला-मौलवियों द्वारा फैलाया गया एक भ्रम और दूर हो गया है कि बीजेपी सत्ता में आएगी तो मुसलमान दोयम दर्जे का नागरिक बन जाएगा। उसके सारे अधिकार छिन जाएंगे आदि-आदि।
हालिया उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में इस बात की एक बार फिर पुष्टि हो गई कि बीजेपी को हराने के लिए मुसलमानों का एक बड़ा धड़ा किसी भी हद से आगे जाने से गुरेज नहीं करता है। यह स्वाभाविक नहीं है, इसके लिए दशकों से सियासी साजिश रची जा रही है। पहले कांग्रेस ने मुसलमानों के मन में भाजपा के खिलाफ जहर भरा और बाद में यही काम यूपी में सपा-बसपा जैसे दलों ने किया। मुसलमान इन दलों के पीछे भागते हुए भाजपा को हराने का सपना देखते रहे। उनका यह सपना कई बार पूरा भी हुआ, लेकिन पिछले चार चुनावों (दो विधानसभा और दो लोकसभा चुनावों) से बीजेपी के खिलाफ मुसलमानों की ‘दाल’ नहीं गल पा रही है। इसकी सबसे प्रमुख वजह यह है कि हिंदू अब जातियों में और बंटने को तैयार नहीं हैं। उनकी समझ में आ गया है कि आपस में लड़ के कहीं ना कहीं अपना ही नुकसान कर रहे थे। इसीलिए उन्होंने हिन्दुओं को अगड़े-पिछड़े, ठाकुर-बनिया आदि के नाम पर लड़ाने वालों से तौबा कर ली है। इसी वजह से बीजेपी का ग्राफ लगातार बढ़ता और अन्य दलों का गिरता जा रहा है।
बीजेपी के सत्ता में आने के बाद उसको (बीजेपी) लेकर विपक्षी दलों और मुल्ला-मौलवियों द्वारा फैलाया गया एक भ्रम और दूर हो गया है कि बीजेपी सत्ता में आएगी तो मुसलमान दोयम दर्जे का नागरिक बन जाएगा। उसके सारे अधिकार छिन जाएंगे आदि-आदि। बीजेपी के खिलाफ यह भ्रम इसलिए फैलाया गया था क्योंकि कुछ राजनैतिक दल मुसलमानों को वोट बैंक की तरह इस्तेमाल करते रहे थे, लेकिन अब हालात बदल रहे हैं। योगी राज में किसी भी नागरिक के साथ भेदभाव नहीं हो रहा है। यदि प्रधानमंत्री आवास हिन्दुओं को मिल रहा है तो मुसलमानों को भी इसका फायदा पहुंच रहा है। फ्री राशन हिन्दुओं को दिया जा रहा है तो मुसलमान परिवार भी इससे वंचित नहीं हैं। स्वास्थ्य कार्ड यदि हिन्दुओं के बन रहे हैं तो मुस्लिमों के भी बिना भेदभाव के बनाए जा रहे हैं। श्रमिक कार्ड में भी सबके खाते में बिना भेदभाव के पैसा आ रहा है। इसी वजह से मुसलमानों के मन में भाजपा के खिलाफ जो खौफ पैदा किया गया था, वह दूर होता जा रहा है। धीरे-धीरे ही सही मुसलमान बीजेपी से जुड़ने लगे हैं। यह और बात है कि यह बदलाव कुछ राजनैतिक दलों और कट्टरपंथियों को रास नहीं आ रहा है, जो अभी भी बीजेपी के खिलाफ जहर उगल रहे हैं और घृणा की राजनीति में लगे हैं।
हाल यह है कि यदि बीजेपी के पक्ष में कोई मुसलमान आगे आता है तो उसको न केवल परेशान किया जाता है बल्कि कई बार तो बीजेपी समर्थक मुसलमानों को मौत के घाट उतार दिया जाता है। जैसा हाल ही में बीजेपी समर्थक बाबर के साथ हुआ। बाबर का कसूर इतना था कि वह बीजेपी की जीत की खुशी में मिठाई बांट रहा था। कट्टरपंथियों ने उसे मौत के घाट उतार दिया। बात उत्तर प्रदेश के जिला कुशीनगर की है, जहां चुनाव नतीजे आने के बाद बीजेपी कार्यकर्ता बाबर की उसके पटीदारों द्वारा बेरहमी से पीट कर हत्या कर दी गई थी। परिजनों की मानें तो बाबर को कई बार धमकी मिल चुकी थी, जिसकी वजह से उसने थाने में शिकायत पत्र भी दिया था। इसको पुलिस ने नजरअंदाज कर दिया, जिसके बाद बाबर की हत्या कर दी गई। मामला जब मीडिया में आया तो पुलिस महकमे में हड़कंप मच गया। इसके बाद एसपी सचिंद्र पटेल ने थाना प्रभारी सहित दो अन्य उप निरीक्षकों को भी लाइन हाजिर कर दिया है। पुलिस ने बाबर की हत्या के मामले में नामजद चार आरोपियों को भी गिरफ्तार कर लिया है।
हैरानी की बात यह है कि बाबर की जान लेने वाले लोग अनजान नहीं थे, वे उसके अपने रिश्तेदार और पड़ोसी थे, जो उसे बचपन से जानते थे। जब बाबर अली ने सुरक्षा की गुहार लगाई तो कुशीनगर जिले के रामकोला थाने की पुलिस ने कोई ऐक्शन नहीं लिया। इसी तरह से कानपुर में भी एक मुस्लिम युवक द्वारा बीजेपी का झंडा फहराना उसके लिए मुसीबत का सबब बन गया है। उसके पड़ोसी और रिश्तेदार ही उसकी जान के दुश्मन बन गए हैं। शकील नामक यह शख्स जिसे जान से मारने की धमकियां मिल रही हैं, लम्बे समय से बीजेपी के साथ जुड़ा हुआ है। मामला कानपुर शहर में किदवई नगर थाना क्षेत्र अंतर्गत जूही लाल कालोनी का है। यहां रहने वाले शकील अहमद ने अपने पड़ोसियों पर मारपीट करने का आरोप लगाते हुए जान को खतरा बताया है।
अब बदायूं में भी एक मुस्लिम शख्स को जान से मारने की धमकी दी जा रही है। पीड़ित की शिकायत के बाद पुलिस ने एफआईआर दर्ज कर ली है। बदायूं में शाहरुख सैफी नाम के शख्स को कथित तौर पर उसकी बिरादरी के ही कुछ लोग जान से मारने की धमकी दे रहे हैं। चुनाव में भाजपा को समर्थन देने की वजह से उसे मौत के घाट उतारने की धमकी दी जा रही है। लक्ष्मीपुर गांव के निवासी शाहरुख ने अपनी सुरक्षा के लिए पुलिस के पास गुहार लगाई है। शाहरुख का कहना है कि उसके फेसबुक पेज पर भी उसे गालियां दी जा रही हैं। एसपी (रूरल) सिद्धार्थ वर्मा ने कहा, ''सैफी की शिकायत के बाद हमने बुधवार को एक केस दर्ज किया है। मामले की जांच की जा रही है।''
ध्यान रहे आज के समय में अल्पसंख्यकों को लेकर तमाम तरह की बातें हो रही हैं। अल्पसंख्यकों को लेकर संविधान और कोर्ट क्या कहता है ये भले ही लम्बी बहस का हिस्सा हो लेकिन सही मायनों में असली माइनॉरिटी बाबर जैसे लोग हैं जो भाजपा की नीतियों के चलते उसे पसंद कर रहे हैं, पीएम मोदी के सबका साथ सबका विश्वास का गहनता से अवलोकन कर रहे हैं और फिर भाजपा के नजदीक आ रहे हैं। ऐसे लोगों का भाजपा के करीब आना जटिलताएं भरा है। इसे हम बाबर की मौत मामले के अलावा बरेली की उस घटना से समझ सकते हैं जहां एक मुस्लिम महिला का भाजपा को वोट देना उसकी पर्सनल लाइफ की परेशानियां बढ़ाता नजर आ रहा है। असल में अभी हाल ही में गुजरे विधानसभा चुनाव में बरेली की एक महिला ने भाजपा को वोट दिया था। ये बात महिला के पति को नागवार गुजरी और उसने उसे घर से निकाल दिया। साथ ही महिला के पति ने उसे तलाक की धमकी भी दी है। मामले में सबसे रोचक बात ये है कि महिला और पुरुष दोनों की लव मैरिज हुई थी लेकिन बात फिर वही है प्यार अपनी जगह और पार्टी और विचारधारा अपनी जगह।
उधर, बीजेपी नेता निदा खान ने भी ससुरालवालों पर धमकाने का आरोप लगाया है। तीन तलाक की लड़ाई लड़ने वाले आला हजरत हेल्पिंग सोसाइटी की अध्यक्ष निदा खान को उनकी ममेरी बहन की शादी में शामिल होने से रोकने और धारदार हथियार से हमला करने के मामले में पुलिस ने उनके पति समेत आठ लोगों के खिलाफ एफआईआर दर्ज कर ली है। निदा ने इस मामले में तहरीर दी थी। उन्होंने खुद और परिवार पर जानलेवा हमले का आरोप भी लगाया था। निदा का आरोप है कि उन पर बीजेपी छोड़ने का दबाव बनाया गया। उससे तौबा करने की धमकी दी गई और कहा गया कि जब तक वह बीजेपी से तौबा नहीं करतीं शादी समारोह में शामिल नहीं होने दिया जाएगा। निदा खान आला हजरत हेल्पिंग सोसाइटी चलाती हैं। पिछले दिनों निदा ने भाजपा की सदस्यता ग्रहण की तो अब उनके विरोधी गुस्से में हैं। निदा खान ने पुलिस को दी तहरीर में कहा कि वो अपने मामा की बेटी की शादी में 26 मार्च को पीलीभीत रोड स्थित एक मैरिज होम पहुंची थीं। वहां कुछ लोगों ने भाजपा छोड़ने का दबाव बनाया और नारे लगाने लगे। शादी में परिवार के सदस्य भी पहुंचे थे। उन्होंने आरोप लगाया कि शादी समारोह में पहुंचने से पहले ही मामा के बेटे बरकात ने मुझे मैसेज किया कि मेरे खालू तस्तीम मियां, शीरान रजा व अर्सलान और मेरे मामू जरताब व बुरहान विरोध कर रहे हैं। उन्होंने शर्त रखी है कि अगर निदा भाजपा ज्वाइन करने पर तौबा करे तो उसे आने दिया जाएगा वरना समारोह में शामिल नहीं होने देंगे। निदा ने बताया कि उन्होंने यह भी कहा कि अगर मैं शादी समारोह में जबरदस्ती आई तो जान से मार देंगे। इस तरह भाजपा के साथ खड़े होने वाले मुस्लिमों को मुसीबतों का सामना भी करना पड़ रहा है।
-अजय कुमार
जहां तक बात अमेरिकी उप राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार दलीप सिंह के बयान की है तो उसे अमेरिका की तिलमिलाहट के तौर पर देखा जा सकता है। अमेरिका ने कई तरह के प्रयास किये ताकि रूस के मामले पर भारत अमेरिकी रुख का समर्थन करे लेकिन भारत टस से मस नहीं हुआ।
यूक्रेन के खिलाफ चल रहे रूसी युद्ध के मामले में भारत ने संतुलित रवैया अपनाया है और अपनी विदेश नीति की तटस्थता को बनाये रखा है। लेकिन यह तटस्थता जिन देशों को चुभ रही है उनमें अमेरिका भी है। अमेरिका के उप राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार दिल्ली यात्रा के दौरान कह कर गये हैं कि भारत भले रूस से ऊर्जा तथा अन्य वस्तुओं के आयात में तीव्र वृद्धि कर ले लेकिन उसे यह अपेक्षा नहीं करनी चाहिए कि यदि चीन ने वास्तविक नियंत्रण रेखा का उल्लंघन किया तो रूस भारत की रक्षा करने के लिए दौड़ा चला आयेगा। अमेरिका के इस बयान के ठीक एक दिन बाद खुद रूस के विदेश मंत्री ने भारत आकर कह दिया कि भारत और रूस की दोस्ती समय की कसौटी पर सदैव खरी उतरी है और दिल्ली की स्वतंत्र विदेश नीति इस देश की सबसे बड़ी खासियत है।
भारत का साथ कौन देता है?
जहां तक बात अमेरिकी उप राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार दलीप सिंह के बयान की है तो उसे अमेरिका की तिलमिलाहट के तौर पर देखा जा सकता है। अमेरिका ने कई तरह के प्रयास किये ताकि रूस के मामले पर भारत अमेरिकी रुख का समर्थन करे लेकिन भारत टस से मस नहीं हुआ और सरकार ने देशहित को सर्वोपरि रखा। अमेरिका कह रहा है कि जरूरत पड़ी तो रूस भारत का साथ नहीं देगा लेकिन इतिहास पर नजर डालें तो जब-जब जरूरत पड़ी है तब-तब रूस ने भारत का पूरा साथ दिया है जबकि अमेरिका ने कभी भी मुसीबत में भारत का साथ नहीं दिया उलटे पाकिस्तान को शह दी। कश्मीर को लेकर भारत और पाकिस्तान पिछले 75 वर्षों से आमने-सामने की लड़ाई लड़ रहे हैं। संयुक्त राष्ट्र में कश्मीर पर जब भी भारत के खिलाफ प्रस्ताव आया तब-तब रूस ने उसका विरोध किया लेकिन अमेरिका ने कभी ऐसा नहीं किया। 1971 की जंग के दौरान भी अमेरिका भारत नहीं बल्कि पाकिस्तान के साथ खड़ा था। जबकि रूस ने उस समय भारत का साथ दिया था।
अमेरिका ने औरों के साथ क्या किया?
भारत की चीन के साथ पूर्वी लद्दाख में तनातनी हुई तो अमेरिका चाह रहा था कि चीन को सबक सिखाने के लिए भारत और आगे बढ़कर कार्रवाई करे लेकिन भारत ने सूझबूझ का परिचय देते हुए चीनी सैनिकों को वापस खदेड़ा और अपने सैनिकों की तैनाती बढ़ाकर चीनी सेना को दबाव में ला दिया। मान लीजिये यदि उस समय भारत ने अमेरिका के कहने पर चीन के खिलाफ कार्रवाई कर दी होती तो क्या गारंटी थी कि अमेरिका भारत का साथ देता? संभव है अमेरिका जैसे अभी रूस के खिलाफ यूक्रेन को मदद देने से पीछे हट गया है वैसा ही कदम भारत के मामले में भी उठाता। पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान ने एक दिन पहले अपने संबोधन में जो कहा है उसे भी समझिये। इमरान खान ने कहा है मतलब निकलते ही अमेरिका ने पाकिस्तान को छोड़ दिया। जरा अफगानिस्तान को देख लीजिये उसे कितनी बुरी हालत में छोड़कर अमेरिका भागा है। अमेरिका के ऐसे कारनामे भरे पड़े हैं इसलिए कहा जा सकता है कि भारत ने रूस-यूक्रेन युद्ध पर जो रास्ता अपनाया है वह एकदम सही है।
अमेरिका चाहता क्या है?
अमेरिका की दरअसल यह इच्छा रहती है कि पूरी दुनिया में उसकी ही दादागिरी चले। जरा अमेरिकी उप राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार दलीप सिंह का बयान देखिये। उन्होंने भारत में कहा कि हम डॉलर आधारित वित्तीय प्रणाली की अनदेखी करने वाले तंत्र या हमारे वित्तीय प्रतिबंधों में गतिरोध उत्पन्न करने वाले तंत्र को नहीं देखना चाहेंगे। हम आपको बता दें कि रूस के साथ भारत तेल खरीदने सहित द्विपक्षीय व्यापार के लिए रूबल (रूसी मुद्रा)-रुपया भुगतान तंत्र पर चर्चा कर रहा है जोकि अमेरिकी डॉलर तंत्र को नुकसान पहुंचायेगी। यही नहीं अमेरिका का यह भी कहना है कि भारत की हर जरूरत को वह पूरी करने के लिए तैयार है भले वह ऊर्जा या रक्षा निर्यात से जुड़ी हो। यानि अमेरिका चाहता है कि भारत बिजनेस करे तो सिर्फ उसके साथ।
भारत ने रूस का कैसे साथ दिया?
वैसे भारत हर मुसीबत में आजमाये हुए दोस्त रूस का साथ तो दे रहा है लेकिन उससे यूक्रेन में चल रहे युद्ध को रोकने की अपील भी कर रहा है। ऐसे समय में जबकि दुनिया के कई बड़े देश रूस पर तमाम तरह के प्रतिबंध लगा चुके हैं तब भारत ने रूस का साथ देकर उसकी ऐसी मदद की है जो रूस की आने वाली पीढ़ियां भी याद रखेंगी। यही कारण है कि रूसी विदेश मंत्री सर्गेई लावरोव ने भारत यात्रा के दौरान स्पष्ट कहा है कि हम भारत को किसी भी सामान की आपूर्ति करने के लिए तैयार रहेंगे जो वो हमसे खरीदना चाहते हैं। विदेश मंत्री एस़. जयशंकर से मुलाकात के दौरान सर्गेई लावरोव ने कहा कि दोनों देशों के संबंध बेहद मजबूत हैं। सर्गेई लावरोव ने कहा कि अतीत में कई मुश्किल मौकों पर भी दोनों देशों के बीच संबंध चिरस्थायी बने रहे। रूस के विदेश मंत्री सर्गेई लावरोव ने जयशंकर के साथ वार्ता के दौरान मौजूदा स्थिति में भारत के रुख की सराहना की। यूक्रेन पर पिछले महीने रूस के आक्रमण के बाद से लावरोव की भारत की यह पहली यात्रा है। रूसी विदेश मंत्री चीन की यात्रा समाप्त करने के बाद भारत आए हैं।
हम आपको याद दिला दें कि भारत ने अभी तक यूक्रेन पर आक्रमण के लिए रूस की आलोचना नहीं की है और उसने रूसी आक्रमण की निंदा करने वाले प्रस्तावों पर संयुक्त राष्ट्र के मंचों पर मतदान में हिस्सा लेने से परहेज किया है। वहीं, पिछले बृहस्पतिवार को यूक्रेन में मानवीय संकट को लेकर रूस द्वारा पेश प्रस्ताव पर मतदान के दौरान भी भारत अनुपस्थित रहा। यह इस संघर्ष को लेकर भारत के निष्पक्ष रुख को प्रदर्शित करता है। हम आपको यह भी बताना चाहेंगे कि संघर्ष शुरू होने के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन से तीन बार और यूक्रेन के राष्ट्रपति वोलोदिमीर जेलेंस्की से भी दो बार बात कर चुके हैं। बातचीत में प्रधानमंत्री मोदी दोनों देशों से शांति की अपील कर चुके हैं।
-नीरज कुमार दुबे
इस उत्सव में नव-संवत के अतिरिक्त अन्य अनेक प्रसंग भी जुड़े हुए हैं। ऐसा माना जाता है कि इसी दिन के सूर्योदय से ब्रह्माजी ने सृष्टि की रचना प्रारंभ की। सम्राट विक्रमादित्य ने इसी दिन अपना राज्य स्थापित किया। इन्हीं के नाम पर विक्रमी संवत् का पहला दिन प्रारंभ होता है।
भारतीय नववर्ष हमारी संस्कृति व सभ्यता का स्वर्णिम दिन है। यह दिन भारतीय गरिमा में निहित अध्यात्म व विज्ञान पर गर्व करने का अवसर है। जिस भारत भूमि पर हमारा जन्म हुआ, जहां हम रहते हैं, जिससे हम जुड़े हैं उसके प्रति हमारे अंदर अपनत्व व गर्व का भाव होना ही चाहिए। भारतीय नववर्ष, इसे नव संवत्सर भी कह सकते हैं। इसी दिन ब्रह्मा जी ने सृष्टि का निर्माण किया था और सभी देवताओं ने सृष्टि के संचालन का दायित्व संभाला था। यह भारतीय या हिंदू रीति से नववर्ष का शुभारंभ है। यह उत्सव चैत्र शुक्ल प्रथमा को मनाया जाता है। जब पूरा विश्व एक जनवरी को नए वर्ष का आरंभ मानता है और भारत में भी 31 दिसंबर की रात को बारह बजे नए वर्ष का जश्न मनाया जाता है, उस मदहोशी में अपने देश की विस्मृत परंपरा को बनाए रखना अँधेरी रात में दिया जलाने के समान है। लेकिन जागरूक भारतीय समाज के प्रयासों से पिछले कई दशकों से इस परंपरा को कायम रखने में सज्जन शक्ति अपने-अपने स्थान पर लगी हुई है। यदि जापान अपनी परंपरागत तिथि अनुसार अपना नववर्ष 'याबुरी' मना सकता है। म्यांमार अप्रैल माह के मध्य में अपना नववर्ष 'तिजान' मना सकता है। ईरान मार्च माह में अपना नववर्ष 'नौरोज' मना सकता है। चीन चंद्रमा आधारित अपना नववर्ष 'असरीयन' मना सकता है। थाईलैंड व कंबोडिया अप्रैल में अपना नववर्ष मना सकते हैं, तो हम भारतीय चैत्र शुक्ल प्रथमा को अपना नववर्ष मनाने में गुरेज क्यों करते हैं?
यह नववर्ष हमारा गौरव एवं पहचान
वर्ष प्रतिपदा को विभिन्न प्रान्तों में अलग-अलग नामों से मनाया जाता है. प्रायः ये तिथि मार्च और अप्रैल के महीने में पड़ती है। पंजाब में नया साल बैसाखी नाम से 13 अप्रैल को मनाया जाता है। सिख नानकशाही कैलंडर के अनुसार 14 मार्च होला मोहल्ला नया साल होता है। इसी तिथि के आसपास बंगाली तथा तमिल नव वर्ष भी आता है। तेलगु नया साल मार्च-अप्रैल के बीच आता है। आंध्र प्रदेश में इसे उगादि के रूप में मनाते हैं। यह चैत्र महीने का पहला दिन होता है। तमिल नया साल विशु 13 या 14 अप्रैल को तमिलनाडु और केरल में मनाया जाता है। तमिलनाडु में पोंगल 15 जनवरी को नए साल के रूप में आधिकारिक तौर पर भी मनाया जाता है। कश्मीरी कैलेंडर नवरेह 19 मार्च को होता है। महाराष्ट्र में गुड़ी पड़वा के रूप में मार्च-अप्रैल के महीने में मनाया जाता है, कन्नड नया वर्ष उगाडी कर्नाटक के लोग चैत्र माह के पहले दिन को मनाते हैं, सिंधी उत्सव चेटी चांद, उगाड़ी और गुड़ी पड़वा एक ही दिन मनाया जाता है। मदुरै में चित्रैय महीने में चित्रैय तिरूविजा नए साल के रूप में मनाया जाता है। मारवाड़ी नया साल दीपावली के दिन होता है। गुजराती नया साल दीपावली के दूसरे दिन होता है। बंगाली नया साल पोहेला बैसाखी 14 या 15 अप्रैल को आता है। पश्चिम बंगाल और बांग्लादेश में इसी दिन नया साल होता है।
चैत्र शुक्ल प्रतिपदा का ऐतिहासिक महत्व
इस उत्सव में नव-संवत के अतिरिक्त अन्य अनेक प्रसंग भी जुड़े हुए हैं। ऐसा माना जाता है कि इसी दिन के सूर्योदय से ब्रह्माजी ने सृष्टि की रचना प्रारंभ की। सम्राट विक्रमादित्य ने इसी दिन अपना राज्य स्थापित किया। इन्हीं के नाम पर विक्रमी संवत् का पहला दिन प्रारंभ होता है। हम सबके आदर्श एवं प्रभु श्री राम के राज्याभिषेक का दिन भी यही है। शक्ति की आराधना माँ दुर्गा की उपासना में नवरात्रों का प्रारंभ हमारे भारतीय नववर्ष यानी वर्ष प्रतिपदा से होता है। सिखों के द्वितीय गुरु श्री अंगद देव जी का जन्म दिवस भी आज के दिन ही होता है। स्वामी दयानंद सरस्वती जी ने इसी दिन आर्य समाज की स्थापना की एवं कृणवंतो विश्वमआर्यम का संदेश दिया। सिंध प्रान्त के प्रसिद्ध समाज रक्षक वरूणावतार भगवान झूलेलाल इसी दिन प्रगट हुए। राजा विक्रमादित्य की भांति शालिवाहन ने हूणों को परास्त कर दक्षिण भारत में श्रेष्ठतम राज्य स्थापित करने हेतु यही दिन चुना था। युधिष्ठिर का राज्यभिषेक भी इसी दिन हुआ। संघ संस्थापक प.पू. डॉ. केशवराव बलिराम हेडगेवार का जन्मदिन भी आज के पावन दिन ही होता है। महर्षि गौतम जयंती का दिन भी विक्रमी संवत का प्रथम दिन होता है। इसके साथ-साथ वसंत ऋतु का आरंभ वर्ष प्रतिपदा से ही होता है जो उल्लास, उमंग, खुशी तथा चारों तरफ पुष्पों की सुगंधि से भरी होती है। फसल पकने का प्रारंभ यानि किसान की मेहनत का फल मिलने का भी यही समय होता है। इसी समय में नक्षत्र शुभ स्थिति में होते हैं अर्थात् किसी भी कार्य को प्रारंभ करने के लिये यह शुभ मुहूर्त होता है।
भारतीय नववर्ष कैसे मनाएँ
जैसे प्रत्येक त्यौहार हमारे अंदर एक नयी स्फूर्ति लेकर आता है और हम उसे पूरे उत्साह व उमंग से मनाकर समाज में समरसता एवं सौहार्द का संदेह देते हैं। उसी प्रकार यह भारतीय नववर्ष भी हमारे लिए ऐसा ही एक अवसर लेकर आता है। इस दिन हम परस्पर एक दूसरे को नववर्ष की शुभकामनाएँ दें। पत्रक बांटें, झंडे, बैनर आदि लगावें। अपने परिचित मित्रों, रिश्तेदारों को नववर्ष के शुभ संदेश भेजें। इस मांगलिक अवसर पर अपने-अपने घरों पर भगवा पताका फहराएँ। अपने घरों के द्वार, आम के पत्तों की वंदनवार से सजाएँ। घरों एवं धार्मिक स्थलों की सफाई कर रंगोली तथा फूलों से सजाएँ। इस अवसर पर होने वाले धार्मिक एवं सांस्कृतिक कार्यक्रमों में भाग लें अथवा कार्यक्रमों का आयोजन करें। प्रतिष्ठानों की सज्जा एवं प्रतियोगिता करें। झंडी और फरियों से सज्जा करें। वाहन रैली, कलश यात्रा, विशाल शोभा यात्राएं कवि सम्मेलन, भजन संध्या, महाआरती आदि का आयोजन करें। चिकित्सालय, गौशाला में सेवा, रक्तदान जैसे कार्यक्रम कर इस दिन के महत्व को व्यापकता के साथ समाज में लेकर जाएं।
पिछले कुछ वर्षों से समाज में नववर्ष को लेकर सजगता एवं इसे बहुत ही हर्षोल्लास के साथ मनाने का भाव पहले से बहुत बढ़ा है। अब जरूरत केवल इस बात की है कि हम भारतवासी अपने आत्मगौरव को पहचानें तथा अपने इस भारतीय नववर्ष को धूमधाम के साथ पारिवारिक एवं सामाजिक स्तर पर और अधिक हर्षता एवं व्यापकता के साथ मनाएं, क्योंकि यह भारतीय नववर्ष हमारा गौरव, हमारी पहचान है। इस वर्ष भारतीय नवसंवत्सर 2079 का शुभारम्भ 2 अप्रैल 2022 से हो रहा है। यह दिन वास्तव में हम सबके लिए संकल्प का दिन है। अपने प्रति, अपने समाज व राष्ट्र के प्रति संकल्प लेकर उस पर चलने का दिन है। तो आईये, हम सब इस भारतीय नव वर्ष के दिन कुछ संकल्पों के साथ आगे बढ़ते हैं।
-डॉ. पवन सिंह
(लेखक मीडिया विभाग, जे.सी. बोस विश्वविद्यालय, फरीदाबाद में एसोसिएट प्रोफेसर हैं)
बीरभूम की हिंसा को लेकर नाराज विपक्ष मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के खिलाफ नारेबाजी कर रहा था, क्योंकि उनके पास गृह मंत्रालय भी है। इसी दौरान सत्ता पक्ष के विधायक भी आक्रामक हो उठे और यह अशोभनीय घटना घट गई।
पश्चिम बंगाल विधानसभा में सत्ता पक्ष और विपक्ष के विधायकों के बीच हाथापाई और नेता प्रतिपक्ष समेत पांच भाजपा विधायकों के निलंबन की घटना एक बार फिर भारतीय लोकतंत्र को शर्मसार कर गई। भारत का लोकतंत्र दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है, इसको सशक्त बनाने की बात सभी राजनैतिक दल करते हैं, सभी ऊंचे मूल्यों को स्थापित करने की, आदर्श की बातों के साथ आते हैं पर सत्ता-संचालन एवं विधायी कार्रवाही में सारी मर्यादाओं एवं लोकतांत्रिक मूल्यों पर ताक पर रखकर एक ही संस्कृति-हिंसा एवं अराजकता की संस्कृति को अपना लेते हैं।
पश्चिम बंगाल विधानसभा में हिंसा का जो तांडव हुआ उससे न केवल भारत के लोकतांत्रिक मूल्यों को गहरा आघात लगा है, बल्कि आम जनता को भी भारी हैरानी हुई है। पश्चिम बंगाल में न केवल सार्वजनिक जीवन में बल्कि सदन में हो रही हिंसा की घटनाएं गहन चिन्ता का विषय है। डर, भय, खौफ एवं हिंसा की बुनियाद पर शासन की पद्धति चिन्ताजनक है। यह सब लोकतांत्रिक एवं अभिव्यक्ति की सर्वोच्च प्रक्रिया की गरिमा और महत्ता को समाप्त करने का प्रयास है।
बीरभूम की हिंसा को लेकर नाराज विपक्ष मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के खिलाफ नारेबाजी कर रहा था, क्योंकि उनके पास गृह मंत्रालय भी है। इसी दौरान सत्ता पक्ष के विधायक भी आक्रामक हो उठे और यह अशोभनीय घटना घट गई। यह सिर्फ पश्चिम बंगाल विधानसभा की बात नहीं है, देश की लगभग तमाम विधायी संस्थाओं में हर कुछ अंतराल पर ऐसे अशोभनीय दृश्य उपस्थित होने लगे हैं और इस तरह लोकतंत्र को तार-तार करने की घटनाओं को लेकर तमाम भारतीयों का चिंतित होना भी स्वाभाविक है। आखिर बीरभूम की जिस भयावह घटना ने सारे देश को झकझोर दिया हो, उस पर विधानसभा में चर्चा क्यों नहीं होनी चाहिए थी? इससे विडम्बनापूर्ण बात और कोई नहीं कि सत्तापक्ष के सदस्यों ने न केवल चर्चा से इन्कार किया, बल्कि चर्चा की मांग कर रहे भाजपा विधायकों से मारपीट भी की, इन शर्मनाक दृश्यों को टीवी चैनलों पर समूचे देश ने देखा। आम तौर पर विधानसभाओं में हंगामा, धक्कामुक्की और मारपीट करने का आरोप विपक्ष पर लगता है, लेकिन बंगाल विधानसभा में इस आरोप के दायरे में सत्तापक्ष के सदस्य भी हैं। यह बात और है कि इस हिंसा के लिए केवल भाजपा विधायकों को जिम्मेदार माना गया और उनमें से पांच को साल भर के लिए निलंबित भी कर दिया गया। ऐसी घटनाएं केवल लोकतंत्र को शर्मिंदा ही नहीं करतीं बल्कि राजनीतिक दलों के बीच कटुता एवं द्वेष भी बढ़ाती हैं। इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि बंगाल का राजनीतिक वातावरण लगातार विषाक्त एवं विसंगतिपूर्ण होता जा रहा है। वास्तव में इसी कारण वहां राजनीतिक हिंसा का सिलसिला थम नहीं रहा है।
विधानसभा में जो अनहोनी घटी, उसका कारण ममता और उनके दल के विधायक हैं। क्योंकि ममता सरकार बीरभूम की दिल दहलाने वाली घटना पर चर्चा करने के लिए तैयार नहीं थी। यह भी किसी से छिपा नहीं कि वह इस घटना की सीबीआई जांच भी नहीं चाह रही थीं। जब कलकत्ता उच्च न्यायालय ने मामले की जांच सीबीआई को सौंप दी तो मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने यह कहते हुए एक तरह से उसे धमकी दे दी कि अगर जांच सही तरीके से नहीं की गई तो वह सड़कों पर उतरेंगी। यह दादागिरी ही नहीं, बल्कि हिंसक मानसिकता है। प्रश्न है कि कलकत्ता उच्च न्यायालय को बंगाल पुलिस पर भरोसा होता तो वह घटना की जांच सीबीआई के हवाले करता ही क्यों? भरोसा टूटने का कारण यह भी हो सकता है कि विधानसभा चुनावों के बाद हुई भीषण हिंसा में बंगाल पुलिस ने उस दौरान हिंसक तत्वों की घोर अनदेखी एवं पक्षपात किया था। यह अनदेखी बीरभूम की घटना के मामले में भी देखने को मिल रही है और कोई भी समझ सकता है कि इसी कारण तृणमूल कांग्रेस यह नहीं चाह रही थी कि विधानसभा में इस विषय पर चर्चा हो। अपने अक्षम्य अपराधों को ढंकने की इन कुचेष्टाओं पर आखिर नियंत्रण कैसे स्थापित होगा।
सत्ता पक्ष की नाकामियों एवं त्रासद स्थितियों पर रचनात्मक आलोचना ही लोकतंत्र की जीवंतता का द्योतक है। यह किसी भी विपक्ष का पहला संवैधानिक दायित्व है और पश्चिम बंगाल विधानसभा में भाजपा विधायकों को यह अधिकार है कि वे किसी शासकीय चूक पर, प्रशासनिक लापरवाही पर सरकार से जवाब-तलब करें। स्वस्थ चर्चा एवं आलोचना क्यों हिंसा का कारण बन जाती है? इस तरह की हिंसा का वातावरण बनना भारतीय लोकतंत्र के आगे सबसे गंभीर चुनौती है। विडंबना यह है कि हमारे जन-प्रतिनिधियों के लिये लोकतांत्रिक प्रशिक्षण की कोई व्यवस्था नहीं है। ऐसे प्रशिक्षण सदस्यों को संसदीय कार्यों की बारीकियां ही नहीं सिखाते, बल्कि सदन के भीतर आचरण के विभिन्न पहलुओं से भी अवगत कराते हैं। इतना ही नहीं, सदनों के भीतर संसदीय दल के नेताओं ने भी अभिभावकीय भूमिका छोड़ दी है। इसलिए शाब्दिक तकरार शारीरिक दुर्व्यवहार तक पहुंचने लगी है। इन सबसे जनता की नजरों में जन-प्रतिनिधियों की प्रतिष्ठा को कितनी चोट पहुंच चुकी है, इसे बार-बार दर्ज कराने की भी आवश्यकता नहीं।
इसमें कोई संदेह नहीं कि ममता के विधायकों ने विधानसभा में अपनी सत्ता एवं अधिकारों का जमकर दुरुपयोग किया है। पश्चिम बंगाल विधानसभा की ताजा हिंसक घटना ने एक बार फिर देश के तमाम राजनीतिक दलों को यह बात याद दिलायी है कि सफल एवं आदर्श लोकतंत्र वही है जिसमें सिर्फ शोर-गुल, हाथापायी एवं मारपीट से नहीं, कहकहों, गले मिलकर, शांति-सौहार्दपूर्ण वातावरण में विधायी कार्यवाही संचालित हो। साफ है, सत्ता और विपक्ष जब तक एक-दूसरे को विश्वास में नहीं लेंगे, बदले की भावना एवं संकीर्णताएं नहीं छोड़ेंगे तब तक पश्चिम बंगाल विधानसभा जैसी अप्रिय एवं त्रासद स्थितियां पैदा होती रहेंगी और इससे भारतीय लोकतंत्र बार-बार लहूलुहान होता रहेगा।
विधानसभा हो या फिर लोकसभा हो, व्यापक हिंसा एवं अराजकता होती रही है, लेकिन जिस तरह पश्चिम बंगाल की वर्तमान सरकार ने विधानसभा में गुंडागर्दी को संरक्षण दिया उसकी उम्मीद ममता बनर्जी से नहीं की जा सकती थी। क्योंकि यही ममता बनर्जी विपक्ष में रहते हुए वामपंथी शासन पर हिंसा करने के आरोप लगाते नहीं थकती थीं, अब वैसी ही हिंसा उनके शासन में भी हुई है। जो इन बुराइयों एवं हिंसा के खूनी खेल को लोकतांत्रिक व्यवस्था की कमजोरियां बताते हैं, वे भयंकर भ्रम में हैं। बुराई हमारे चरित्र में है इसलिए व्यवस्था बुरी है। हमारा रूपांतरण होगा तो व्यवस्था का तंत्र सुधरेगा, तभी लोकतंत्र मजबूत होगा। इसलिए बेहतर होगा कि जिम्मेदार राजनीतिक पार्टियां लोकतंत्र को शुद्ध सांसें देने की पहल करें, अपने विधायकों, कार्यकर्ताओं एवं नेताओं को लोकतंत्र एवं अहिंसा का प्रशिक्षण दें। चुनाव सुधारों के लिए काम करने वाले संगठन द एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) की चुनाव-दर-चुनाव रिपोर्ट बता रही है कि निर्वाचित सदनों का चरित्र क्यों बदल रहा है? क्यों हिंसक एवं अराजक हो रहा है? क्योंकि विधानसभाओं में दागी विधायकों की तादाद पचास प्रतिशत तक पहुंचने लगी है। ऐसे में, कैसे अपेक्षा की जा सकती है कि वहां मर्यादाएं एवं अनुशासन बहाल रहेगा?
इन स्थितियों से गुजरते हुए, विश्व का अव्वल दर्जे का कहलाने वाला भारतीय लोकतंत्र आज अराजकता के चौराहे पर है। जहां से जाने वाला कोई भी रास्ता निष्कंटक नहीं दिखाई देता। इसे चौराहे पर खड़े करने का दोष जितना जनता का है उससे कई गुना अधिक राजनैतिक दलों व नेताओं का है जिन्होंने निजी व दलों के स्वार्थों की पूर्ति को माध्यम बनाकर इसे बहुत कमजोर कर दिया है। आज ये दल, ये लोग इसे दलदल से निकालने की क्षमता खो बैठे हैं। जब एक अकेले व्यक्ति का जीवन भी मूल्यों के बिना नहीं बन सकता, तब एक राष्ट्र एवं प्रांत मूल्यहीनता में कैसे शक्तिशाली बन सकता है? अनुशासन के बिना एक परिवार एक दिन भी व्यवस्थित और संगठित नहीं रह सकता तब संगठित देश एवं प्रांत की कल्पना अनुशासन के बिना कैसे की जा सकती है? हिंसा की संस्कृति भारत के लोकतंत्र की जड़ों में गहरी पैठती जा रही है। जब तक राजनीतिक दल बाहुबलियों और असामाजिक तत्वों को अपने से अलग नहीं करते तब तक लोगों का खून बहता ही रहेगा। बिना विचारों के दर्शन और शब्दों का जाल बुने यही कहना है कि लोकतंत्र के इस सुन्दर नाजुक वृक्ष को अहिंसा की माटी, नैतिकता का पानी और अनुशासन की ऑक्सीजन चाहिए।
-ललित गर्ग
(लेखक, पत्रकार एवं समाजसेवी)
आइये आपको विश्व भर में महंगाई के हालात से रूबरू कराने के क्रम में सबसे पहले पड़ोसी देश पाकिस्तान की बात करते हैं। वहां इमरान खान की सरकार पर संकट ही इसलिए आया है क्योंकि पाकिस्तान में महंगाई बेलगाम हो गयी है।
बढ़ती महंगाई के खिलाफ पूरा विपक्ष मोदी सरकार के खिलाफ हमलावर है। देश के विभिन्न राज्यों में विपक्ष के नेता और कार्यकर्ता भाजपा पर महंगाई रोकने में नाकाम रहने का आरोप लगाते हुए प्रदर्शन भी कर रहे हैं। मोदी सरकार वैश्विक हालात को महंगाई का कारण बता रही है तो विपक्ष का कहना है कि सरकार आम आदमी की जेब काटकर अपना खजाना भर रही है और चंद उद्योगपतियों को फायदा पहुँचा रही है। ऐसे में आम आदमी के मन में यह प्रश्न उठना स्वाभाविक ही है कि सरकार सही बोल रही है या विपक्ष?
कोरोना महामारी ने वैश्विक अर्थव्यवस्था पर ऐसा कहर ढाया है कि अमीर देशों में गरीबी बढ़ गयी और गरीब देशों के लिए जीना दुश्वार हो गया है। महामारी थमी और अर्थव्यवस्थाओं ने फिर से पटरी पर दौड़ना शुरू किया तो यूक्रेन पर रूस के युद्ध ने ऐसे हालात पैदा कर दिये कि कोई देश प्रभावित होने से नहीं बचा। ये जो महंगाई आपको भारत में देखने को मिल रही है वह सिर्फ हमारे देश की नहीं बल्कि विश्व की इस समय की सबसे बड़ी समस्या हो गयी है। रूस-यूक्रेन युद्ध से सप्लाई चेन पर असर पड़ा है, तेल की कीमतों में इजाफे के चलते हर चीज की महंगाई बढ़ी है जिससे दुनिया के लगभग सभी देशों की सरकारों को जनता की नाराजगी झेलनी पड़ रही है।
आइये आपको विश्व भर में महंगाई के हालात से रूबरू कराने के क्रम में सबसे पहले पड़ोसी देश पाकिस्तान की बात करते हैं। वहां इमरान खान की सरकार पर संकट ही इसलिए आया है क्योंकि पाकिस्तान में महंगाई बेलगाम हो गयी है। पाकिस्तान में महंगाई ने अब तक के सारे रिकॉर्ड तोड़ दिये हैं जिसके चलते इमरान खान की कुर्सी खतरे में पड़ गयी है। श्रीलंका के हालात सबके सामने ही हैं। अभूतपूर्व आर्थिक संकट के दौरान श्रीलंका में महंगाई बेलगाम हो गयी है। श्रीलंका में हालात ये हैं कि चावल 500 और चीनी 300 रुपये किलो तक बिक रही है। बांग्लादेश, भूटान, म्यांमार, नेपाल, मालदीव में भी महंगाई चरम पर है।
थोड़ा दक्षिण एशिया से बाहर चलें और पश्चिमी देशों की ओर देखें तो अमेरिका में महंगाई ने 40 सालों का रिकॉर्ड तोड़ दिया है। देखा जाये तो अमेरिकियों को 1982 के बाद से सबसे अधिक महंगाई का सामना करना पड़ रहा है। अमेरिका में मंदी का खतरा मंडरा रहा है जो वहां की सरकार की चिंता बढ़ा रहा है और हर चीज की बढ़ी कीमतों ने वहां आम आदमी की कमर तोड़ कर रख दी है। ब्रिटेन की बात करें तो वहां भी बेतहाशा महंगाई देखने को मिल रही है। बैंक ऑफ इंग्लैंड ने अनुमान जताया है कि सालाना महंगाई की दर इस साल 8.0 फीसदी को पार कर सकती है और अप्रैल में यह 7.25 फीसदी पर रह सकती है। बैंक ऑफ इंग्लैंड ने एक बयान में माना है कि यूक्रेन पर रूस के आक्रमण ने महंगाई के मोर्चे पर दिक्कत और बढ़ा दी है।
जर्मनी की बात कर लें तो वहां भी तीन दशक में महंगाई सबसे ज्यादा देखने को मिल रही है जिससे खाने-पीने की वस्तुओं समेत बुनियादी चीजों और ईंधन के दामों में बड़ा उछाल आने की वजह से लोगों का गुस्सा बढ़ रहा है। जर्मनी में जमा पर बैंक ब्याज दरें घटने से बचत पर जोर देने वाले लोग भी निराश दिख रहे हैं। ऑस्ट्रेलिया में महंगाई से इतना बुरा हाल है कि वहां की सरकार के खिलाफ लोगों की नाराजगी बढ़ती जा रही है। आस्ट्रेलिया में मई में होने वाले चुनावों को देखते हुए वहां की सरकार ने महंगाई को नियंत्रित करने के लिए कुछ उपाय किये हैं जिसके तहत कुछ करों को कम किया गया है। तुर्की में मुद्रास्फीति की दर बढ़कर 20 साल के उच्च स्तर पर पहुंच गई है। तुर्की में ऊर्जा की कीमतें लागतार चढ़ रही हैं। तुर्की सांख्यिकी संस्थान के अनुसार, उपभोक्ता वस्तुओं की कीमतें पिछले महीने 4.81% बढ़ी हैं। महंगाई को काबू में करने के लिए तुर्की के राष्ट्रपति ने करों में कटौती का ऐलान किया है। स्पेन में महंगाई लगभग चार दशकों में सबसे तेज दर से बढ़ी है और उम्मीदों से आगे निकल गई है जिससे जनता बेहाल है। चीन में भी महंगाई बढ़ रही है और कोरोना के चलते कुछ शहरों में लगे लॉकडाउन की वजह से अर्थव्यवस्था पर विपरीत प्रभाव पड़ा है।
ग्लोबल महंगाई के जिम्मेदार देश रूस का खुद भी महंगाई से बुरा हाल हो गया है। रूस में वार्षिक मुद्रास्फीति 25 मार्च तक बढ़कर 15.66% हो गई, जो सितंबर 2015 के बाद से उच्चतम है। रूस में मुद्रास्फीति पिछले कुछ हफ्तों में तेजी से बढ़ी है क्योंकि रूबल की गिरावट अब तक के सबसे निचले स्तर पर है। रूस में खाद्य उत्पादों से लेकर कारों तक की मांग में तेज वृद्धि है क्योंकि लोगों को लगता है कि आने वाले समय में इनकी कीमत और बढ़ जायेगी। जापान की बात करें तो वहां महंगाई मार्च महीने में रिकॉर्ड उच्च स्तर पर पहुंच गई है। यूक्रेन संकट के चलते जापान में ऊर्जा और खाद्य उत्पादों की कीमतें तेजी से बढ़ी हैं। कनाडा में भी बढ़ती महंगाई के बीच माना जा रहा है कि 7 अप्रैल को आने वाले केंद्रीय बजट में सरकार शायद कुछ राहत उपायों की घोषणा कर सकती है। ईरान में महंगाई ने लगभग 60 सालों का, न्यूजीलैंड में 30 सालों और सिंगापुर में लगभग दस सालों का रिकॉर्ड तोड़ा है तो इजराइल, इटली, दक्षिण अफ्रीका, फ्रांस, आयरलैंड, स्पेन, चेक गणराज्य, एस्टोनिया, लिथुआनिया, बेल्जियम, आस्ट्रिया आदि देशों की जनता भी महंगाई से त्राहिमाम कर रही है। यही नहीं खाड़ी देशों में भी महंगाई का असर साफ देखने को मिल रहा है।
बहरहाल, इसमें कोई दो राय नहीं कि सरकारों को गरीब जनता को महंगाई से राहत दिलाने के उपाय करने ही चाहिए। भारत की सरकार ने इस दिशा में क्या किया है यदि इस पर बात कर लें तो हाल ही में प्रधानमंत्री गरीब कल्याण अन्न योजना को छह महीने के लिए विस्तार दे दिया गया है ताकि गरीबों को हर माह मुफ्त राशन मिलता रहे। यही नहीं केंद्रीय कर्मचारियों के लिए महंगाई भत्ते में तीन प्रतिशत की वृद्धि की गयी है। कई राज्य सरकारों ने भी अपने कर्मचारियों का महंगाई भत्ता बढ़ाया है। लेकिन यह भी एक तथ्य है कि सरकारी कर्मचारियों से ज्यादा संख्या निजी क्षेत्र के कर्मचारियों की है और उन्हें भी राहत मिलनी ही चाहिए। अंत में एक सवाल विपक्ष से भी है जोकि इन दिनों महंगाई के मोर्चे पर मोदी सरकार को घेर रहा है। विपक्ष को यह बताना चाहिए कि जिन राज्यों में वह सत्ता में है वहां महंगाई कम करने के लिए उसने क्या उपाय किये?
-नीरज कुमार दुबे