ईश्वर दुबे
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Bhilai
भारत के पड़ोसी देशों यथा- श्रीलंका, पाकिस्तान, बांग्लादेश, मालदीव, नेपाल, अफगानिस्तान, लाओस एवं कुछ अफ्रीकी देशों की आर्थिक स्थिति लगातार बिगड़ती जा रही है और ऐसा शायद इनमें से कुछ देशों द्वारा भारत के ही एक अन्य पड़ोसी देश चीन से लिए गए बहुत बड़ी राशि के कर्ज के चलते हो रहा है। चीन ने इन देशों को पहले तो अपने प्रभाव में लिया एवं फिर इनके यहां अधोसंरचना सम्बंधी सुविधाएं विकसित करने के उद्देश्य से ऊंची ब्याज दरों पर ऋण उपलब्ध कराया और जो योजनाएं विकसित करने हेतु चुनी गईं उनसे अब इतनी आय भी अर्जित नहीं हो पा रही है कि इन ऋणों के ब्याज का भुगतान भी किया जा सके।
दूसरे, चीन ने इनमें से कई देशों को अपनी महत्वाकांक्षी सीपीईसी (आर्थिक गलियारा) योजना में भी शामिल कर एक और कर्ज के जाल में फंसाया है। अब तो इनमें से कुछ देश दिवालिया होने के कगार पर पहुंच गए हैं। इन देशों की अर्थव्यवस्थाएं आज से लगभग 10 वर्ष पूर्व तक फलफूल रहीं थीं। विशेष रूप से श्रीलंका तो एक तरह से सम्पन्न देश की श्रेणी में शामिल होने की स्थिति में पहुंच गया था क्योंकि यहां अंतरराष्ट्रीय पर्यटन बहुत अच्छी गति से आगे बढ़ रहा था। परंतु श्रीलंका के चीन के जाल में फंसते ही श्रीलंका की आर्थिक स्थिति लगातार बिगड़ती चली गई और आज श्रीलंका की सामाजिक, आर्थिक एवं सामरिक परिस्थितियां हमारे सामने हैं। श्रीलंका सरकार ने तो अपना हंबनटोटा बंदरगाह का नियंत्रण भी चीन को 99 वर्षों के लिए पट्टे पर दे दिया है और इस प्रकार आज चीन की श्रीलंका में हंबनटोटा से कोलम्बो तक आसान उपस्थिति हो गई है। यही हाल पाकिस्तान का भी है। पाकिस्तान आज चीन के बने जाल में इस प्रकार फंस गया है कि, सुना तो यहां तक जा रहा है कि, पाकिस्तान आज अपने विदेशी ऋणों के ब्याज एवं किश्तों का भुगतान करने हेतु, विदेशी मुद्रा भंडार में वृद्धि करने के उद्देश्य से, अपने देश की कई अहम संपत्तियों की अंतरराष्ट्रीय स्तर पर नीलामी करने पर विचार कर रहा है। इस प्रकार चीन ने जिस किसी देश की आर्थिक मदद की है, उन देशों की आर्थिक स्थिति अत्यंत दयनीय स्थिति में पहुंचा कर उस देश की परिसंपत्तियों पर अपना कब्जा करने का प्रयास किया है। इसीलिए अब तो यह भी कहा जा रहा है कि चीन एक उपनिवेशिक मानसिकता वाला देश है एवं अपने पड़ोसियों को गुलाम बनाने के लिए उक्त प्रकार के काम करता रहता है। श्रीलंका, पाकिस्तान, मालदीव, लाओस आदि देशों को अपने जाल में फंसाने के बाद बांग्लादेश, नेपाल, भूटान जैसे देशों को भी अपने प्रभाव में लेने का प्रयास चीन कर रहा है।
भारत की तुलना में आज चीन आर्थिक दृष्टि से अधिक मजबूत राष्ट्र है। परंतु, चीन अपने पड़ोसी एवं अन्य देशों की मदद एक खास मकसद को प्राप्त करने के उद्देश्य से करता है, जैसे कि किस प्रकार इन पड़ोसी देशों को अपने कब्जे में लिया जाये और इनकी परिसंपत्तियों पर अपना हक जमाया जाये। इसके ठीक विपरीत भारत अपने पड़ोसी एवं अन्य देशों की आर्थिक मदद निस्वार्थ भाव से करता है। आज तक का इतिहास देखने पर ध्यान में आता है कि भारत ने कभी भी किसी भी देश का एक इंच मात्र भूमि का टुकड़ा भी नहीं हथियाया है। हालांकि भारत की आर्थिक परिस्थितियां चीन की तुलना में उतनी मजबूत नहीं हैं कि अपने पड़ोसी देशों की खुलकर मदद कर सके परंतु फिर भी भारत ने अपना बड़ा हृदय दिखाते हुए विपरीत परिस्थितियों के बीच भी हाल ही के समय में श्रीलंका की वास्तविक मदद की है। चाहे वह अनाज, तेल आदि जैसे पदार्थों को श्रीलंका की जनता को उपलब्ध कराना हो अथवा श्रीलंका सरकार को लगभग 3.5 अरब डॉलर की आर्थिक सहायता उपलब्ध कराना हो। भारत आज श्रीलंका के लिए एक देवदूत के रूप में उभरा है। भारत ने श्रीलंका को अभी तक 40 हजार मीट्रिक टन डीजल एवं 40 हजार टन चावल उपलब्ध कराए हैं। भारत ने इसी प्रकार तालिबान के शासन वाले अफगानिस्तान को भी मानवीय आधार पर 50 हजार टन गेहूं, 13 टन जीवनरक्षक दवाइयां, चिकित्सीय उपकरण और पांच लाख कोविड रोधी टीकों की खुराकों के साथ अन्य आवश्यक वस्तुएं (ऊनी वस्त्र सहित) भी उपलब्ध कराईं हैं। अब तो भारत के सभी पड़ोसी देशों को भी यह समझ में आने लगा है कि केवल भारत ही उनके आपत्ति काल में उनके साथ खड़े रहने की क्षमता रखता है। विशेष रूप से पिछले 8 वर्षों के खंडकाल में भारत के लिए परिस्थितियां तेजी से बदली हैं एवं भारत पुनः वैश्विक स्तर पर एक महाशक्ति बनने की ओर अग्रसर हो रहा है। अब भारत कई क्षेत्रों में आत्मनिर्भरता हासिल करते हुए अपने पड़ोसी देशों की सहायता में बहुत आगे आ रहा है। हाल ही के समय में भारत अपने कई पड़ोसी देशों का संकटमोचक बना है।
ऐसा आभास होता है कि श्रीलंका के साथ ही उक्त वर्णित अन्य देशों से भी अपने मित्र राष्ट्र चुनने में कहीं न कहीं कुछ चूक हुई है। इन देशों के भारत के साथ संबंध जब तक मजबूत रहे एवं भारत की ओर से इनको भरपूर सहायता एवं सहयोग मिलता रहा तब तक ये सभी राष्ट्र सुखी एवं सम्पन्न राष्ट्र बने रहे। क्योंकि भारत ने कभी भी इन देशों की किसी भी मजबूरी का गलत फायदा उठाने की कोशिश नहीं की। इसके ठीक विपरीत जब जब ये देश अपनी नजदीकियां चीन से बढ़ाने लगे तो स्वाभाविक तौर पर इनके आर्थिक रिश्ते भी चीन के साथ मजबूत होते चले गए। चीन ने इन देशों के आर्थिक दृष्टि से मजबूत हो रहे रिश्तों का भरपूर लाभ उठाया और इन्हें अपनी सबसे बड़ी बेल्ट एवं रोड परियोजना में शामिल कर लिया एवं इन देशों को भारी मात्रा में कर्ज उपलब्ध कराकर अपने जाल में फंसा लिया।
चीन ने भारत को घेरने के लिए दक्षिण एशियाई देशों की बड़ी मदद करनी शुरू कर दी थी और इन्हें अपनी महत्वाकांक्षी आर्थिक गलियारा योजना में भी शामिल कर लिया था लेकिन इसके बदले में चीन इन देशों से जो कीमत वसूल रहा है वह इन देशों को बहुत ही भारी पड़ रही है। आज जो श्रीलंका में हालात हैं वैसा ही कुछ थोड़े समय पहले मालदीव में भी दिख रहा था जोकि चीन के कर्ज के जाल में बुरी तरह फंस चुका था। वह तो भारत ने सही समय पर आगे आकर मालदीव की आर्थिक मदद की थी जिसके चलते मालदीव इस आर्थिक संकट से बाहर आ गया। कुछ समय पूर्व नेपाल का झुकाव भी चीन की ओर दिखाई दे रहा था एवं चीन की शह पर नेपाल भारत से भी अपने सम्बन्धों को खराब करता नजर आ रहा था। लेकिन बहुत शीघ्र ही नेपाल को यह समझ में आ गया कि चीन उसको निगलने की फिराक में है। भूटान तो चीन के कई परियोजना प्रस्तावों को ठुकरा चुका है। बांग्लादेश भी समझ रहा है कि चीन आजकल क्यों उस पर ज्यादा मेहरबान होता दिख रहा है। जहां तक पाकिस्तान की बात है तो वह भी चीन के कर्ज के जाल में बुरी तरह उलझा हुआ है और अपनी आर्थिक जरूरतों को पूर्ण करने के लिए आवश्यकता से अधिक चीन पर निर्भर हो गया है। लेकिन कई विशेषज्ञों का मत है कि पाकिस्तान के लिए जल्द ही वह दिन आने वाला हे जब वह चीन से दोस्ती की बड़ी कीमत अदा करता नजर आएगा।
परंतु अब तो कई देशों का भारत पर विश्वास बढ़ता जा रहा है एवं ये देश भारत की सहायता से अपनी सैन्य शक्ति को बढ़ाने के ओर अग्रसर हैं। जैसे कि फिलीपींस ने अपनी सैन्य शक्ति को मजबूत करने के उद्देश्य से भारत से 37.49 करोड़ डॉलर के ब्रह्मोस मिसाइल क्रय करने की प्रक्रिया प्रारम्भ कर दी है। भारत से ब्रह्मोस मिसाइल खरीदने के सम्बंध में इसी प्रकार के निर्णय वियतनाम, मलेशिया, थाईलैंड और सिंगापुर भी शीघ्र ही लेने वाले हैं। इसी प्रकार अभी हाल ही में भारत का स्वदेशी निर्मित तेजस हल्का लड़ाकू विमान मलेशिया की पहली पसंद बनाकर उभरा है। मलेशिया ने अपने पुराने लड़ाकू विमानों के बेड़े को बदलने के लिए प्रतिस्पर्धा की थी। जिसमें चीन के जेएफ-17, दक्षिण कोरिया के एफए-50 और रूस के मिग-35 के साथ-साथ याक-130 से कड़ी प्रतिस्पर्धा के बावजूद मलेशिया ने भारतीय विमान तेजस को पसंद किया है। आज देश की कई सरकारी एवं निजी क्षेत्र की कंपनियां विश्व स्तर के रक्षा उपकरण भारत में बना रही हैं एवं उनके लिए विदेशी बाजारों के दरवाजे खोले दिए गए हैं। इस कड़ी में 30 दिसम्बर 2020 को आत्म निर्भर भारत योजना के अंतर्गत केंद्र सरकार ने स्वदेशी मिसाइल आकाश के निर्यात को अपनी मंजूरी प्रदान की थी। आकाश मिसाइल भारत की पहचान है एवं यह एक स्वदेशी (96 प्रतिशत) मिसाइल है। दक्षिणपूर्व एशियाई देश वियतनाम, इंडोनेशिया, और फिलिपींस के अलावा बहरीन, केन्या, सऊदी अरब, मिस्र, अल्जीरिया और संयुक्त अरब अमीरात ने आकाश मिसाइल को खरीदने में अपनी रुचि दिखाई है। आकाश मिसाइल के साथ ही कई अन्य देशों ने तटीय निगरानी प्रणाली, राडार और एयर प्लेटफार्मों को खरीदने में भी अपनी रुचि दिखाई है।
-प्रह्लाद सबनानी
सेवानिवृत्त उप महाप्रबंधक
भारतीय स्टेट बैंक
भ्रष्टाचार के खेल ने दुनिया के सारे लोकतंत्रों को खोखला कर दिया है। भारतीय लोकतंत्र दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है, इसलिए इसकी साफ-सफाई ज्यादा जरूरी है। इन दिनों गैरभाजपा प्रांतों में भ्रष्टाचार के मामले बड़ी संख्या में उजागर हो रहे हैं। पहले दिल्ली में आम आदमी सरकार के स्वास्थ्य मंत्री सतेन्द्र जैन और अब पश्चिम बंगाल में उद्योग मंत्री पार्थ चटर्जी की गिरफ्तारी बता रही है कि ममता बनर्जी एवं अरविन्द केजरीवाल भ्रष्टाचार मुक्त शासन के कितने ही दावे क्यों न करें, लेकिन उनके वरिष्ठ मंत्री भी भ्रष्टाचार के गंभीर आरोपों के घेरे में हैं। विभिन्न राजनीतिक दलों एवं विभिन्न प्रांतों की सरकारों में भ्रष्टाचार की बढ़ती स्थितियां गंभीर चिन्ता का विषय है, चिन्ताजनक स्थितियां भ्रष्टाचार जैसे मुद्दों पर किसी सार्थक एवं राष्ट्रहित की बहस का न होकर राजनीति का होना भी है।
भ्रष्टाचार, राजनीतिक अपराधीकरण एवं जाति-सम्प्रदाय के हिंसक आग्रहों पर हमारी राजनीति में अभी कोई बहस नहीं है। राजनीति में लगे लोगों में जब इन मसलों की गहराई तक जाने का धैर्य और गंभीरता चुक जाए, तो इसके मंच के संवाद पहले निम्न दर्जे तक गिरते हैं और फिर कीचड़ को ही संवाद का विकल्प मान लिया जाता है। इन दिनों यही हो रहा है। भ्रष्टाचार के लिए मोदी सरकार जो कार्रवाइयाँ कर रही है, वह सराहनीय है लेकिन उन पर गैर-भाजपा नेता एवं दल विशेष पर ऐसी कार्रवाइयाँ करने का आरोप भी एक तरह का भ्रष्टाचार ही है। जिन दलों पर ऐसी कार्रवाइयाँ हो रही है उनका सवाल यह है कि ये सब कार्रवाइयाँ विरोधी दलों के नेताओं और सिर्फ उन धनाढ्य घरानों के खिलाफ क्यों हो रही हैं, जो कुछ गैर-भाजपा दलों के साथ नत्थी रहे हैं? यह एक तरह की पूर्वाग्रहग्रस्त कीचड़ उछाल राजनीति है।
यह सब उस दौर में हो रहा है जब देश के राजनीतिक दल धीरे-धीरे अपनी साख खोते जा रहे हैं। राजनीतिज्ञों की साख गिरेगी, तो राजनीति की साख बचाना भी आसान नहीं होगा। हमारे पास राजनीति ही समाज की बेहतरी का भरोसेमंद रास्ता है और इसकी साख गिराने वाले कारणों में अपराधीकरण और भ्रष्टचार के बाद तीसरा नंबर इस कीचड़ उछाल का भी है। ये तीनों ही राजनीति के औजार नहीं हैं, इसलिए राजनीति को तबाही की ओर ले जाते हैं। अपराधीकरण और भ्रष्टाचार का मसला काफी गहरा है और इससे खिलाफ लड़ाई के लिए काफी वक्त और ऊर्जा की जरूरत है, लेकिन कीचड़ उछाल से परहेज करके और सार्थक बहस चलाकर देश की राजनीति का सुधार आंदोलन शुरू किया जा सकता है। राजनैतिक कर्म में अपना जीवन लगाने वालों से इतनी उम्मीद तो की ही जानी चाहिए।
आज हम जीवन नहीं, राजनीतिक मजबूरियां जी रहे हैं। राजनीति की सार्थकता नहीं रही। अच्छे-बुरे, उपयोगी-अनुपयोगी का फर्क नहीं कर पा रहे हैं। मार्गदर्शक यानि नेता शब्द कितना पवित्र व अर्थपूर्ण था पर नेता अभिनेता बन गया। नेतृत्व व्यवसायी बन गया। आज नेता शब्द एक गाली है। जबकि नेता तो पिता का पर्याय था। उसे पिता का किरदार निभाना चाहिए था। पिता केवल वही नहीं होता जो जन्म का हेतु बनता है अपितु वह भी होता है, जो अनुशासन सिखाता है, ईमानदारी का पाठ पढ़ाता है, विकास की राह दिखाता है। आगे बढ़ने का मार्गदर्शक बनता है।
अब यह केवल तथाकथित नेताओं के बलबूते की बात नहीं रही कि वे गिरते मानवीय, नैतिक एवं चारित्रिक मूल्यों को थाम सकें, समस्याओं से ग्रस्त सामाजिक व राष्ट्रीय ढांचे को सुधार सकें, तोड़कर नया बना सकें। राजनेता एक आदर्श किरदार निभाएं, एक प्रशस्त मार्ग दें। सही वक्त में सही बात कहें। आज ईमानदारी को नहीं, येनकेन प्राप्त सफलता एवं सत्ता प्राप्ति को एकमात्र राजनीतिक एवं मानवीय गुण माना जाता है। इन स्थितियों ने नैतिक प्रयासों एवं लोकतांत्रिक मूल्यों के सामने प्रश्न चिन्ह खड़ा कर दिया है। आज विचारों और दिखावटी आदर्श के गरिष्ठ बौद्धिक हलुवे की जरूरत नहीं बल्कि सहज सनातन मानवीय गुणों से राजनेताओं को परिचित करवाने की जरूरत है। एकाएक ऐसा होना सम्भव नहीं। इसके लिए विभिन्न राजनीतिक दलों में मूल्यों की चेतना को जगाने के साथ भ्रष्टाचार मुक्ति का वातावरण बनाना होगा। ऐसे सद्प्रयासों के खिलाफ बवेला मचाने वाले, इनकी जड़ों में मट्ठा डालने वाले हर कदम पर मिलेंगे। जागृत चेतना ही इनके प्रहार झेलने की ढाल बन सकती है। यह गम्भीर चिन्ता और चुनौती का विषय है। अगुवाई का दायित्व कठमुल्लाओं और व्यवसायी नेताओं को नहीं दिया जाना चाहिये, चाहे उनका रंग, रूप, नाम कुछ भी क्यों न हो। वे दीवारों पर विज्ञापन चस्पा सकते हैं, पुल नहीं बना सकते, राष्ट्र के चरित्र पर दाग लगा सकते हैं, उसकी साख नहीं बढ़ा सकते।
प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) राजनीतिक भ्रष्टाचार के सफाई अभियान में लगी है। उसने शिक्षक भर्ती घोटाले की जांच के सिलसिले में शुक्रवार को पश्चिम बंगाल में उद्योग मंत्री पार्थ चटर्जी और शिक्षा राज्य मंत्री परेश चंद्र अधिकारी के यहां छापे मारे थे। ईडी ने चटर्जी से घंटों पूछताछ की। उसके बाद उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। यह मामला तब और तूल पकड़ गया जब ईडी ने चटर्जी की करीबी अर्पिता मुखर्जी के यहां से बीस करोड़ रुपए से ज्यादा रकम बरामद की। पुख्ता जानकारी के मुताबिक, चटर्जी के यहां छापे के दौरान मिले दस्तावेजों की जांच करती हुई ईडी टीम अर्पिता के घर पहुंची थी। ईडी का दावा है कि यह शिक्षक भर्ती घोटाले की ही रकम है। देखें तो इतनी बड़ी रकम मिलना इसलिए भी गंभीर मामला है कि महिला पार्थ चटर्जी की करीबी बताई जा रही है। ऐसे में ममता सरकार पर सवाल क्यों नहीं उठेंगे, जिसका मंत्री ही सवालों के घेरे में है?
ऐसा भी नहीं कि भ्रष्टाचार का यह अकेला मामला हो। ममता सरकार के पिछले दो कार्यकालों में भ्रष्टाचार के कई बड़े मामले सामने आए हैं और सरकार के मंत्रियों को जेल भी भेजा गया है। हालांकि पार्थ चटर्जी के खिलाफ मामला अभी अदालत में चलेगा और जांच एजेंसियों को साबित करना होगा कि बीस करोड़ रुपए उसी घूस के हैं जो शिक्षक भर्ती घोटाले में लोगों से ली गई थी। हालांकि जांच एजेंसियां ऐसी भारी-भरकम नगदी बरामद करती रहती हैं। ऐसे बेहिसाब धन की बरामदगी भ्रष्टाचार मुक्त शासन का वादा और दावा करने वाली सरकारों पर बड़े सवाल खड़े करती हैं। यानी अगर सरकारों में ईमानदारी से काम हो रहा है तो आखिर इतनी बेहिसाब दौलत आ कहां से रही है? किसी मंत्री के करीबी या रिश्तेदार के पास से इतनी भारी नगदी मिलना संदेह पैदा क्यों नहीं करेगा?
याद किया जा सकता है कि कुछ समय पहले झारखंड की एक वरिष्ठ आइएएस अधिकारी के सीए के यहां से सत्रह करोड़ से ज्यादा की नगदी बरामद हुई थी। पिछले साल उत्तर प्रदेश चुनाव के दौरान कानपुर के एक कारोबारी के यहां से भी लगभग दो सौ करोड़ रुपए नगद मिले थे। यह तो तब है जब मामले ईडी और सीबीआई या राज्यों की भ्रष्टाचार निरोधक एजेंसियों की पकड़ में आ जाते हैं और उनका खुलासा हो जाता है। वरना कैसे करोड़ों-अरबों के राजनीतिक भ्रष्टाचार के लेन-देन खुलेआम होते होंगे, कौन जानता है!
आखिर भ्रष्टाचार के वैश्विक सूचकांक में भारत की स्थिति दयनीय यों ही नहीं बनी हुई है! बात केवल आम आदमी पार्टी, कांग्रेस, तृणमूल कांग्रेस की ही नहीं है, भ्रष्टाचार जहां भी हो, उसकी खिलाफ बिना किसी पक्षपात के कार्रवाई की जानी चाहिए। भाजपा एक राष्ट्रवादी पार्टी है, नये भारत एवं सशक्त भारत को निर्मित करने के लिये तत्पर है तो उसकी पार्टी के भीतर भी यदि भ्रष्टाचार है तो उसकी सफाई ज्यादा जरूरी है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अन्य दलों के साथ भाजपा के नेताओं के भ्रष्टाचार के खिलाफ कार्रवाई का बिगुल बजायें तो यह आजादी के अमृत महोत्सव मनाने की सार्थक पहल होगी, जिसके माध्यम से वे भारत के विलक्षण और एतिहासिक प्रधानमंत्री माने जाएंगे। भाजपा के कई मंत्रियों और मुख्यमंत्रियों को उनके पद से हटाया जाना काफी नहीं है। उनकी जाँच करवाना और दोषी पाए जाने पर उन्हें सजा दिलवा दी जाए तो भारतीय राजनीति में स्वच्छता का शुभारंभ हो सकता है। एक नये राजनीतिक परिवेश से भारत का लोकतंत्र समृद्ध हो सकेगा।
-ललित गर्ग
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व स्तम्भकार हैं)
अमेरिका और रूस के संबंध कैसे हैं यह पूरी दुनिया जानती है। खासकर यूक्रेन पर रूसी आक्रमण के बाद से यह संबंध और खराब हो गये हैं। यही नहीं रूस के संबंध सिर्फ अमेरिका ही नहीं बल्कि यूरोपीय देशों से भी खराब हो गये हैं। इसी बीच रूस ने घोषणा कर दी है कि वह 2024 के बाद अंतरराष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन (आईएसएस) से हट जाएगा। रूस की इस घोषणा के बाद से अंतरराष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन में भागीदार देशों के बीच खलबली का माहौल है। उल्लेखनीय है कि अमेरिका, यूरोप, रूस, कनाडा और जापान की भागीदारी से अंतरराष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन की स्थापना हुई थी और जिस तरह से इस स्टेशन का अब तक सफलतापूर्वक संचालन किया गया वह अंतरराष्ट्रीय सहयोग की एक सफल मिसाल थी। लेकिन अब रूस-यूक्रेन युद्ध के बाद जिस तरह के हालात बने हैं उनके बीच रूस की यह घोषणा पश्चिम के साथ एक और रूसी संपर्क के खात्मे के रूप में देखी जा रही है।
आईएसएस के समक्ष क्या-क्या दिक्कतें आएंगी?
माना जा रहा है कि यदि रूस अंतरिक्ष स्टेशन से बाहर आता है तो इसके संचालन में बड़ी बाधा आयेगी। हम आपको बता दें कि अंतरराष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन में शामिल देशों की जिम्मेदारियां बंटी हुई हैं। जैसे रूस आईएसएस के 17 में से छह मॉड्यूल संचालित करता है- जिसमें ज़्वेज़्दा भी शामिल है। ज़्वेज़्दा में ही मुख्य इंजन सिस्टम है। यह इंजन स्टेशन की कक्षा में बने रहने की क्षमता और खतरनाक अंतरिक्ष मलबे के रास्ते से अलग रहने के लिए महत्वपूर्ण है। रूस के आईएसएस से बाहर होने पर इन छह मॉड्यूलों का संचालन कैसे होगा यह सवाल अमेरिकी अधिकारियों के समक्ष खड़ा हो गया है।
उल्लेखनीय है कि आईएसएस संबंधी समझौतों के तहत, रूस अपने मॉड्यूल पर पूर्ण नियंत्रण और कानूनी अधिकार रखता है। रूस ने आईएसएस से 2024 के बाद वापसी की बात तो कह दी है लेकिन यह नहीं बताया है कि इसकी रूपरेखा क्या होगी। रूस ने अभी यह भी नहीं बताया है कि क्या वह आईएसएस के भागीदारों को रूसी मॉड्यूल का नियंत्रण लेने और स्टेशन का संचालन जारी रखने की अनुमति देगा या क्या वह अपने मॉड्यूल के उपयोग पर पूरी तरह से रोक लगा देगा। हालांकि रूस ने अंतरराष्ट्रीय समुदाय को यह आश्वासन दिया है कि वह परियोजना छोड़ने से पहले अंतरराष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन में अन्य भागीदारों के लिए अपने दायित्वों को पूरा करेगा।
अंतरिक्ष विज्ञानियों की चिंता बढ़ी
रूस की घोषणा के बाद अंतरिक्ष वैज्ञानिकों की सबसे बड़ी चिंता दो बातों को लेकर है। पहला- रूसी मॉड्यूल अगर संचालन में नहीं होंगे तो क्या उनके बिना अंतरिक्ष स्टेशन काम कर पायेगा? दूसरा अहम सवाल यह है कि रूसी मॉड्यूल को आईएसएस के बाकी हिस्सों से अलग कैसे किया जायेगा? क्योंकि पूरे स्टेशन को आपस में जोड़ने के लिए जो डिजाइन बनाया गया था उसमें रूसी मॉड्यूल अहम कड़ी थे। अब जब रूसी मॉड्यूल अगर हट जाते हैं तो वैसे ही डिजाइन वाले मॉड्यूल कब तक बन जायेंगे और क्या वह सफलतापूर्वक आईएसएस से जुड़ पायेंगे? आजकल दुनिया के बड़े अंतरिक्ष विज्ञानियों की बैठकें भी हो रही हैं जिनमें इस बात पर चर्चा हो रही है कि रूस के हटने के बाद भागीदार देशों को अंतरिक्ष स्टेशन बचाने के लिए क्या-क्या करना होगा। यह भी विचार चल रहा है कि क्या अंतरिक्ष स्टेशन को पूरी तरह से हटा दिया जाए या इसे आकाश में रखने के लिए कोई रचनात्मक समाधान खोजा जाए।
आकाश में कैसे पनपा तनाव?
दूसरी ओर दुनिया यह भी जानना चाहती है कि रूस ने आखिर इतना बड़ा कदम क्यों उठाया? कई कारणों की चर्चा हो भी रही है। कुछ कारण धरती पर रूस और अमेरिका के बीच दिख रहे तनाव से संबंधित हैं तो कई कारण आकाश में बने तनाव से भी संबंधित हैं। बताया जा रहा है कि हाल के महीनों में अंतरराष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन पर कुछ छोटी-मोटी घटनाएं भी हुई हैं जिस पर रूस ने कड़ा संज्ञान लिया। पहली घटना मार्च में हुई थी, जब तीन रूसी अंतरिक्ष यात्री पीले और नीले रंग के फ्लाइट सूट में अपने कैप्सूल से निकले थे जोकि यूक्रेनी ध्वज के रंग से मिलते जुलते थे। यह कदम अमेरिका को नहीं भाया। इसके बाद 7 जुलाई 2022 को नासा ने तीन रूसी अंतरिक्ष यात्रियों की जो तस्वीर दिखाई उसकी रूस ने सार्वजनिक रूप से आलोचना कर डाली। यही नहीं, यह भी बताया जा रहा है कि रूस ने अंतरिक्ष स्टेशन पर यूरोपीय देशों के साथ संयुक्त प्रयोगों में भाग लेना भी बंद कर दिया है। हालांकि इससे पहले तक स्टेशन पर अंतरिक्ष यात्री हर दिन साथ में मिलकर दर्जनों प्रयोग करते रहते हैं और साथ ही संयुक्त स्पेसवॉक भी करते हैं। लेकिन धरती पर बढ़ते तनाव का असर आकाश में भी देखा जा रहा है। वैसे अपने 23 साल के जीवनकाल में अंतरराष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन इस बात का एक महत्वपूर्ण उदाहरण रहा है कि विरोधी होने के बावजूद रूस और अमेरिका एक साथ कैसे काम कर सकते हैं।
अपना-अपना अंतरिक्ष स्टेशन
इसके अलावा यह भी माना जा रहा है कि एक दूसरे से ज्यादा ताकतवर बनने की होड़ अब धरती से आकाश तक पहुँच गयी है इसलिए हर देश अपना खुद का अंतरिक्ष स्टेशन बनाना चाहता है। अमेरिका ने रूस के इरादों को शायद पहले ही भांप लिया था तभी नासा ने एक वाणिज्यिक अंतरिक्ष स्टेशन के विकास की दिशा में काम शुरू कर दिया था। रूस भी आईएसएस से हटने के बाद अपना खुद का अंतरिक्ष स्टेशन बनाने पर ध्यान केंद्रित करेगा। हम आपको बता दें कि चीन भी इस समय अपना खुद का अंतरिक्ष स्टेशन बना रहा है। इसी सप्ताह उसके तीन अंतरिक्ष यात्री पहली बार कक्षा में स्थापित लैब मॉड्यूल में सफलतापूर्वक प्रवेश भी कर गए हैं। तो इस तरह दुनिया के बड़े देश अपना खुद का अंतरिक्ष स्टेशन बनाने के काम पर लग गये हैं।
बहरहाल, जहां तक भारत की बात है तो वह भी इस बात को समझ रहा है कि अगली चुनौती अंतरिक्ष से पैदा की जा सकती है इसलिए धरती की तरह आकाश में भी अपनी मजबूती की दिशा में देश तेजी से कदम बढ़ा रहा है। नरेंद्र मोदी सरकार ने अंतरिक्ष क्षेत्र को निजी क्षेत्र के लिए खोल दिया है जिससे भविष्य में इसके सकारात्मक परिणाम दिखेंगे। फिलहाल देश में सरकारी कंपनियों के अलावा अंतरिक्ष क्षेत्र में कम से कम 100 स्टार्टअप सक्रिय हैं जो उपग्रहों, प्रक्षेपण यानों और कक्षा में घूम रहे उपग्रहों के लिए ईंधन भरने वाले यान को डिजाइन कर रहे हैं।
- नीरज कुमार दुबे
उर्दू में एक कहावत है कि माले-मुफ़्त और दिले-बेरहम! इसे हमारे सभी राजनीतिक दल चरितार्थ कर रहे हैं याने चुनाव जीतने और सस्ती लोकप्रियता प्राप्त करने के लिए वे वोटरों को मुफ्त की चूसनियाँ पकड़ाते रहते हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इसे रेवड़ी संस्कृति कहा है, जो कि बहुत सही शब्द है। असली कहावत तो यह है कि ‘अंधा बांटे रेवड़ी, अपने-अपने को देय’ लेकिन हमारे नेता लोग अंधे नहीं हैं। उनकी तीन आंखें होती हैं। वे अपनी तीसरी आंख से सिर्फ अपने फायदे टटोलते हैं। इसलिए सरकारी रेवड़ियां बांटते वक्त अपने-पराए का भेद नहीं करते। उनकी जेब से कुछ जाना नहीं है।
वोटरों को मुफ्त माल बांटकर वे अपने लिए थोक वोट पटाना चाहते हैं। वे क्या-क्या बांट रहे हैं, उसकी सूची बनाने लगें तो यह पूरा पन्ना ही भर जाएगा। शराब की बोतलों और नोटों की गड्डियों की बात को छोड़ भी दें तो वे खुले-आम जो चीजें मुफ्त में बांटते हैं, उनका खर्च सरकारी खजाना उठाता है। इन चीजों में औरतों को एक हजार रु. महीना, सभी स्कूली छात्रों को मुफ्त वेश-भूषा और भोजन, कई श्रेणियों को मुफ्त रेल-यात्रा, कुछ वर्ग के लोगों को मुफ्त इलाज और कुछ को मुफ्त अनाज भी बांटा जाता है। इसका नतीजा यह है कि देश के लगभग सभी राज्य घाटे में उतर गए हैं। कई राज्य तो इतने बड़े कर्जे में दबे हुए हैं कि यदि रिजर्व बैंक उनकी मदद न करे तो उन्हें अपने आपको दिवालिया घोषित करना पड़ेगा। इन राज्यों में भाजपा और कांग्रेस सहित लगभग सभी दलों के राज्य हैं। तमिलनाडु और उत्तर प्रदेश पर लगभग साढ़े छह लाख करोड़, महाराष्ट्र, पं. बंगाल, राजस्थान, गुजरात और आंध्र प्रदेश पर 4 लाख करोड़ से 6 लाख करोड़ रु. तक का कर्ज चढ़ा हुआ है। इन राज्यों की हालत श्रीलंका-जैसी है। उसका कारण उनकी रेवड़ी-संस्कृति ही है।
इसे लेकर जनहित याचिकाएं लगाने वाले प्रसिद्ध वकील अश्विनी उपाध्याय ने सर्वोच्च न्यायालय के दरवाजे खटखटा दिए। अदालत के जजों ने चुनाव आयोग और सरकारी वकील की काफी खिंचाई कर दी। वित्त आयोग इस मामले में हस्तक्षेप करे, यह अश्विनी उपाध्याय ने कहा। चुनाव आयोग ने अपने हाथ-पांव पटक दिए। उसने अपनी असमर्थता जता दी। उसने कहा कि मुफ्त की इन रेवड़ियों का फैसला जनता ही कर सकती है। उससे पूछे कि जो जनता रेवड़ियों का मजा लेगी, वह फैसला क्या करेगी? मेरी राय में इस मामले में संसद को शीघ्र ही विस्तृत बहस करके इस मामले में कुछ पक्के मानदंड कायम कर देने चाहिए, जिनका पालन केंद्र और राज्यों की सरकारों को करना ही होगा। कुछ संकटकालीन स्थितियां जरूर अपवाद-स्वरूप रहेंगी। जैसे कोरोना-काल में 80 करोड़ लोगों को मुफ्त अनाज बांटा गया। वैसे ये रेवड़ियां जनता को दी जाने वाली शुद्ध रिश्वत के अलावा कुछ नहीं हैं।
-डॉ. वेदप्रताप वैदिक
राष्ट्रपति पद पर श्रीमती द्रौपदी मुर्मू के पदासीन होने से देश के उस वर्ग में व्यक्तिगत हर्ष व्याप्त हुआ है जो अभी तक उपेक्षित, असंरक्षित और विदेशी आक्रमणों का शिकार होता आया है। हम सबको जो जीवन में जनजातीय क्षेत्रों में काम करते रहे, उनके मध्य एकरस राष्ट्र के भाव को फैलते हुए उनके आर्थिक सामाजिक उन्नयन में जुटे रहे वे जानते हैं जनजातीय समाज को किन खतरों, घृणा युक्त एकाकीपन और विदेशी धन से धर्मान्तरण के हमले झेलने पड़े। द्रौपद मुर्मू उस दर्द और विषाद पर सत्य और धर्म की विजय का प्रतीक और हर्ष का कारण बनी हैं।
ग्यारह प्रतिशत के लगभग हमारा जनजातीय समाज है- और देश में 98 प्रतिशत आतंकवाद, विद्रोह और विदेशी धन का खेल इसी क्षेत्र में होता है। देश के स्कूलों में कभी भी जनजातीय वीरों की महँ गाथाओं को पढ़ाया नहीं गया, जाननजातीय वीर विशेषांक 1981 में सम्पादित किया गया था और देश के विभिन्न भागों में जाकर उनकी कथाएं एकत्र की थीं, चक्र बिश्रोई से लेकर बिरसा मुंडा और केरल के परसी राजा से लेकर अल्लुरी सीताराम राजू, नागा रानी गाईदिन्लयू, खासी योद्धा यू तीरथ सिंग, सिद्धो कान्हो चाँद और भैरो, मानगढ़ की पहाड़ी के वीर भील योद्धा जिन्होंने गोविन्द गुरु के नेतृत्व में अपनी जीवनाहुति दी (17 नवम्बर 1913) जैसी सहस्त्रों कथाएं हमारे देश में बिखरी पड़ीं हैं। लेकिन सेकुलर वामपंथी इतिहासकारों ने उनको कभी देश के सामने देशभक्त प्रतापी पराक्रमी मेधावी समाज के नाते प्रस्तुत नहीं होने दिया। प्रथम बार राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के द्वितीय सरसंघचालक परम पूज्य गुरुजी (माधव सदाशिव गोलवलकर) ने 1952 में वनवासी कल्याण आश्रम की कल्पना की और संगठन खड़ा कर जनजातीय समाज के मध्य देश का सबसे बड़ा अर्थी सामाजिक सांस्कृतिक विकास का उद्यम प्रारम्भ किया। उन्होंने देश के अन्य भागों में रह रहे नागरिकों को अपना सर्वस्व जनजातीय समाज के लिए अर्पित करने का आह्वान किया और आज हज़ारों एम् ए, एम् टेक, एम् बीबीएस, एम् डी, इंजीनियर प्रचारक अंडमान से लेकर तवांग और ओखा से लद्दाख तक जनजातीय समाज में आर्थिक शैक्षिक विकास का कार्य कर रहे हैं।
आज गृह मंत्रालय की रिपोर्ट के अनुसार जिन 42 संगठनों को आतंकवाद और विद्रोही गतिविधियों के लिए प्रतिबंधित किया गया हैं उनमें से 35 केवल जनजातीय क्षेत्रों में सक्रिय हैं। नागालैंड से अरुणाचल, मणिपुर से असम और छत्तीसगढ़, आंध्र से बिहार और बंगाल, राजस्थान से केरल के नीलगिरि क्षेत्रों में जो माओवादी, नक्सल-अति-कम्युनिस्ट संगठन, मणिपुर की पीपुल्स लिबरेशन आर्मी (नाम से कुछ ध्यान आया ?) जमात और इस्लामिक उग्रवादी संगठन- यह सब जनजातीय क्षेत्रों को अपना शिकार बनाना अधिक सरल और सुविधाजनक मानते हैं। विदेशी धन और चर्च के असीम निवेश से अधिकांश जनजातीय क्षेत्रों में धर्मान्तरण तीव्र गति से हुआ है। अंग्रेजों के समय यह कार्य शुरू हुआ होगा लेकिन सेक्युलर गणतंत्र में जनजातीय संस्कृति और धरम का अधिकतम ह्रास हुआ है। एक उदहारण अरुणाचल प्रदेश का ही है। श्रीमती इंदिरा गाँधी ने कभी मदर टेरेसा को अरुणाचल आने की अनुमति नहीं दी। लेकिन बाद में ईसाइयत का कांग्रेस पर इतना असर हुआ कि पूरा अरुणाचल ईसाई धर्मांतरण का शिकार हो गया। अनेक गाँव ईसाई हो गए, अनेक मंत्री और गाँवों के प्रमुख धर्मान्तरित हो गए, सीमा तक चर्च पहुँच गए। अगला मुख्यमंत्री ईसाई होगा यह स्पष्ट घोषणा की गयी। अरुणाचल प्रदेश में कुछ वर्ष पहले स्थानीय मूल जनजातीय आस्था की रक्षा के लिए ''इंडीजीनियस फेथ" विभाग खोला गया, ईसाई प्रचारकों ने इसका इतना तीव्र विरोध किया कि सरकार को इसका नाम बदलना पड़ा और अब इसे सिर्फ जनजातीय विभाग या इंडीजीनियस डिपार्टमेंट कहते हैं- फेथ शब्द से ईसाई धर्मान्तरित लाभ नहीं ले पाते थे लेकिन फेथ हटाने से ईसाई अल्पसंख्यक होने का और जनजातीय होने से एसटी वर्ग के फायदे भी उनको मिल जाते हैं। हिन्दू होना, जनजातीय होना घाटे का विषय है- अहिन्दु होना दुगुना लाभ देता है- यह कुव्यवस्था स्वतंत्र भारत की सामाजिक समरसता नीतियों पर एक प्रश्नचिन्ह हैं।
जनजातीय समाज का विकास भारत के समक्ष सर्वाधिक बड़ी चुनौती है। कई प्रदेश जनजातीय क्षेत्रों में व्याप्त आतंकवाद के कारण वामपंथी आतंकवाद प्रभावित घोषित किये गए हैं। देश के शहरी नागरिकों को इस बात का अहसास भी शायद काम होगा कि द्रौपदी मुर्मू जी और उनके सहजातीय जनजातीय समाज के करोड़ों लोग भारत की सीमाओं के प्रथम रखवाले हैं। वे केवल जनजातीय वीर नागरिक हैं जो लद्दाख, कश्मीर, जम्मू, हिमाचल, उत्तराखंड, जैसलमेर, सिक्किम, बिहार, नागालैंड, अरुणाचल से लेकर लक्षद्वीप और अंडमान तक, भारत की प्रथम सुरक्षा पंक्ति निर्मित करते हैं। कारगिल की घुसपैठ भी वहां के जनजातीय गडरिये ने बतायी थी, उत्तराखंड हिमाचल के गद्दी, भूतिए, टोलिया, मर्तोलिया से लेकर सिक्किम के बौद्ध, अरुणाचल के इदु मिश्मी, यही हमारे प्रथम रक्षक हैं, सेना बाद में आती है।
भगवन जगन्नाथ की भक्त, सामाजिक समरसता की प्रतीक द्रौपदी मुर्मू जी पर देश के इतने बड़ी समाज की आशाओं, अपेक्षाओं और सपनों का बोझ है। बोझ नहीं बल्कि जिम्मेदारी है। उनका विनम्र जीवन, सामान्य गृहस्थी, अति सामान्य पृष्ठ्भूमि, भारतीय जनता पार्टी की विचारधारा में रचे पगे होना, इन सबकी परीक्षा का काल अब प्रारम्भ होता है। प्रशंसा तो पद की होती है, बड़े पद पर बैठने वाले में सबको सिर्फ गुण ही दिखते हैं। परन्तु आने वाले समय में कौन अब्दुल कलाम और राजेंद्र प्रसाद बनते हैं यह काल के गर्भ में छिपा होता है और पदासीन व्यक्ति की चैतन्य धारा की शक्ति ही बता पाती है। द्रौपदी मुर्मू ने देश में एक असामान्य हर्ष और आशा का संचार किया है। यह नरेंद्र मोदी की आंतरिक आध्यात्मिक गहराई का सुपरिणाम है। नरेंद्र भाई ने बचपन से जिस गरीबी और उपेक्षा का दर्द सहा है उसे वह भूले नहीं हैं, द्रौपदी मुर्मू जी का चयन और उन पर देश के विश्वास को टिकना यह मोदी युग का एक क्रन्तिकारी कदम है। यह सफल हो यही महादेव से प्रार्थना है।
-तरुण विजय
(लेखक पूर्व सांसद और वरिष्ठ पत्रकार हैं और वर्तमान में एनएमए के चेयरमैन हैं)
भारत के लिये यह दुर्भाग्यपूर्ण एवं चिन्ता का विषय है कि भारत के लोग भारत की नागरिकता छोड़ रहे हैं। पिछले तीन साल से औसतन 358 लोग प्रतिदिन और प्रतिवर्ष लगभग 1 लाख 63 हजार लोग भारत की नागरिकता त्यागकर विदेशों में बस गये हैं। भारत से पलायन कर विदेशों में बसने के क्या कारण है? ऐसा क्यों हो रहा है? क्या आम नागरिकों को जिस तरह का सहज एवं शांतिपूर्ण जीवन अपेक्षित होता है, उसका अभाव पलायन का कारण है? क्या रोजगार एवं जीवन-निर्वाह की मूलभूत सुविधाएं सुलभ कराने में सरकार नाकाम हो रही है? जो भी कारण हो, नागरिकों का भारत से पलायन एक गंभीर समस्या है, इसके कारणों का पता लगाकर उस पर नियंत्रण किया जाना नितान्त अपेक्षित है।
हालांकि, भारत दुनिया में तेजी से आर्थिक महाशक्ति बनने की ओर अग्रसर होता राष्ट्र है। देश में विकास की फिजां बन रही है, शांति का हिंसामुक्त वातावरण बन रहा है। रोजगार एवं व्यापार की अनेक संभावनाएं उजागर हो रही हैं। तभी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पूर्व में नागरिकों से अपील की थी कि उनका उद्देश्य अपने देश की सेवा एवं विकास होना चाहिए, फिर भी न जाने क्यों, इतनी बड़ी संख्या में भारतीय पलायन कर रहे हैं? उनको समझना चाहिए कि यदि इसी गति से प्रतिभाओं एवं नागरिकों का पलायन होता रहेगा, तो राष्ट्र विरोधी तत्व अधिक मजबूत होंगे। संभवतः देश की शिक्षा नीति में ही कोई कमी रही होगी कि पिछले अनेक वर्षों से हमारा देश पैसा बनाने की मशीनें तैयार करता रहा है। जिम्मेदार और जागरूक नागरिक अब भी कम दिखाई पड़ते हैं। ये लोग इतने स्वार्थी हैं कि केवल पैसा कमाने के चक्कर में जननी-जन्मभूमि का ही त्याग कर रहे हैं। ऐश्वर्य एवं भौतिकता के पीछे भागते लोगों को आत्मचिन्तन करते हुए राष्ट्र के प्रति अपनी जिम्मेदारियों का अहसास जगाना चाहिए।
रोजगार की दृष्टि से ही नहीं, शिक्षा की दृष्टि से भी विदेशों का आकर्षण बढ़-चढ़कर सामने आ रहा है। ‘ओपन डोर’ संस्था की ताजा रिपोर्ट के अनुसार 2015-16 में अमेरिकी कॉलेजों में दाखिला लेने वाले भारतीय छात्रों में पच्चीस फीसद वृद्धि हुई है। अमेरिकी अर्थव्यवस्था में उन्होंने पांच अरब रुपए का योगदान दिया है। सिर्फ अमेरिका ही नहीं बल्कि पिछले कुछ साल में यूरोप और ऑस्ट्रेलिया जाने वाले छात्रों में भी नाटकीय ढंग से वृद्धि हुई है। जबकि इसी दौर में भारत में बड़ी संख्या में उच्च शिक्षण संस्थान और विश्वविद्यालय खुले हैं। आखिर ये छात्र देश के उच्च शिक्षण संस्थानों में क्यों नहीं पढ़ना चाहते? विदेश वे ही छात्र जा पाते हैं जिनके पास पैसे की कमी नहीं है चाहे वह कालेधन के रूप में ही क्यों न हो?
एक ओर भारत में उच्च शिक्षा के स्तर को लेकर सवाल उठते रहे हैं तो दूसरी ओर पढ़ने के लिए छात्र बड़ी संख्या में विदेशों का रुख कर रहे हैं। जिसका दुष्प्रभाव हमारी अर्थव्यवस्था पर पड़ रहा है। यह स्थिति भारत के विकास की एक बड़ी बाधा है। बिना प्रतिभाओं के कैसा विकास? भारत में विभिन्न क्षेत्रों के प्रवीण, प्रतिभासम्पन्न एवं विलक्षण क्षमता वाले व्यक्तियों की बड़ी तादाद हैं, जिनमें वैज्ञानिक, प्रौद्योगिकी विशेषज्ञ, साहित्य या कलाओं के विद्वान, चित्रकार, कलाकार, प्रशासनिक अधिकार, डॉक्टर, सी.ए. आदि। असाधारण प्रतिभा संपन्न ऐसे लोगों का अपने देश की प्रगति और समृद्धि में योगदान होना चाहिए, जबकि वे विदेशों में रहकर अपनी प्रतिभा का उन देशों को लाभ पहुंचा रहे हैं। हो सकता है ऐसे योग्य व्यक्तियों में से कुछ लोगों को अपने ही देश में कोई संतोषजनक काम नहीं मिल पाता या किसी न किसी कारण से वे अपने वातावरण से तालमेल नहीं बिठा पाते। ऐसी परिस्थितियों में ये लोग बेहतर काम की खोज के लिए या अधिक भौतिक सुविधाओं के लिए दूसरे देशों में चले जाते हैं। क्या ऐसे लोगों का देश के प्रति कोई दायित्व नहीं है, निश्चित ही लोगों को अपने गिरेबान में झांकना चाहिए।
कोई व्यक्ति विदेश तब जाता है जब उसके सामने कोई मजबूरी होती है जिसके कारण बाहर जाने में ही वह अपना भला समझता है। इन कारणों में देश में प्रशासनिक स्तर पर व्याप्त भ्रष्टाचार, कोटा सिस्टम, जटिल कानून एवं प्रशासनिक व्यवस्थाएं, योग्यता के स्थान पर आरक्षण को मान्यता और राजनीतिक स्तर पर भाई भतीजावाद प्रमुख हैं। जब समृद्ध और विकसित देशों के प्रतिभाशाली युवा अपने देश की नीतियों के कारण भारत में नहीं बसते तो फिर भारतीय युवाओं को क्यों नहीं देश में रहकर अपनी योग्यता के अनुसार अवसर देने की व्यवस्था की जा सकती, इस पर भारत सरकार को चिन्तन करना चाहिए। अपनी प्रतिभाएं अपने ही देश के काम आनी चाहिए। भारत में व्यापार करने की स्थितियां भी सहज एवं सरल होने के जगह जटिल होती जा रही हैं। छोटे व्यापारियों के लिये व्यापार करने की जहां अनेक चुनौतियां हैं, वहीं उनके लिये प्रशासनिक जटिलताएं भी कम नहीं हैं। भ्रष्ट अधिकारियों के कारण व्यापार करना अनेक संकटों से घिरा है। ऐसा सरकार की गलत नीतियों की वजह से हो रहा है। कुछ समय पहले तो यह बताया जा रहा था कि देश का गौरव इतना बढ़ रहा है कि विदेश से लोग भारत की नागरिकता और पासपोर्ट लेकर सम्मान महसूस करने लगे हैं, फिर अचानक ऐसा कैसे हो गया कि इतनी भारी तादाद में लोग देश छोड़कर जा रहे हैं?
भारत से पलायन कर अमेरिका जाने वाले 44 प्रतिशत भारतीय बाद में वहां की नागरिकता हासिल कर वहीं बस जाते हैं। कनाडा और आस्ट्रेलिया जाने वाले 33 प्रतिशत भारतीय भी ऐसा ही करते हैं। ब्रिटेन, सऊदी अरब, कुवैत, संयुक्त अरब अमीरात, कतर और सिंगापुर आदि देशों में भी बड़ी संख्या में भारतीय बसे हैं। गृह मंत्रालय के अनुसार 1.25 करोड़ भारतीय नागरिक विदेश में रह रहे हैं, जिनमें 37 लाख लोग ओसीआइ यानी ओवरसीज सिटीजनशिप ऑफ इंडिया कार्डधारक हैं। हालांकि इन्हें भी वोट देने, देश में चुनाव लड़ने, कृषि संपत्ति खरीदने या सरकारी कार्यालयों में काम करने का अधिकार नहीं होता है। पढ़ाई, बेहतर कॅरियर, आर्थिक संपन्नता और भविष्य को देखते हुए भारत से बड़ी संख्या में लोग विदेश का रुख करते हैं। पढ़ाई के लिए विदेश जाने वाले लोगों में से करीब 80 प्रतिशत लोग वापस भारत नहीं लौटते हैं। कॅरियर की संभावनाओं को देखते हुए और अच्छे अवसर मिलने के कारण वे विदेश में ही बस जाते हैं।
भारत जब सशक्त बन रहा है, दुनिया की महाशक्ति बनने की ओर अग्रसर हो रहा है, नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व एवं नीतियों की दुनिया में सराहना हो रही है, विकास की अनंत संभावनाएं उजागर हो रही हैं, इन सकारात्मक स्थितियों के बीच ऐसे क्या कारण हैं कि नागरिक एवं प्रतिभा पलायन जारी है। मानव संसाधन विकास मंत्रालय और एसोचैम जैसे संस्थानों को इस बात पर ध्यान देने कि जरूरत है कि इसे कैसे रोका जाए। प्रतिभा पलायन अब निश्चित रूप से घाटे का सौदा बनता जा रहा है। प्रतिभा पलायन रोकने के लिए आइआइटी और आइआइएम जैसे और संस्थान स्थापित किए जाने की जरूरत है। विदेशी विश्वविद्यालयों को भारत में अपने कैंपस खोलने के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। उनके लिए कर रियायतें और प्रोत्साहन दी जानी चाहिएं जिससे हमारे देश का शिक्षा स्तर ऊपर हो। इससे प्रतिभा पलायन पर भी लगाम लगेगी।
दूसरी तरफ उच्च शिक्षा के लिए सिर्फ सरकार पर ही निर्भर रहना उचित नहीं है बल्कि उद्योग और अकादमिक सहयोग से नई संस्थाएं स्थापित करना चाहिए और उनका स्तर बढ़ाया जाना चाहिए। आम नागरिक के पलायन को रोकने के लिये रोजगार के नये अवसर, भ्रष्टाचारमुक्त शासन व्यवस्था, सरल एवं सहज प्रशासनिक कार्यप्रणाली, व्यापार के लिये प्रोत्साहन योजना, उन पर तरह-तरह के कानून एवं नियमों को सरल करना आदि उपचार अपेक्षित है। आम नागरिकों को जागना होगा तो सरकारों को भी इस विषय पर गंभीर होना होगा। हम स्वर्ग को जमीन पर नहीं उतार सकते, पर कमियों से तो लड़ अवश्य सकते हैं, यह लोकभावना जागे। महानता की लोरियाँ गाने से किसी राष्ट्र का भाग्य नहीं बदलता, बल्कि तन्द्रा आती है। इसे तो जगाना होगा, भैरवी गाकर। महानता को सिर्फ छूने का प्रयास जिसने किया वह स्वयं बौना हो गया और जिसने संकल्पित होकर स्वयं को ऊंचा उठाया, महानता उसके लिए स्वयं झुकी है। विदेशों की ओर पलायन की मानसिकता त्याग कर महानता का वरण करना होगा।
-ललित गर्ग
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तम्भकार हैं)
भारतीय अर्थव्यवस्था में कृषि क्षेत्र का एक अलग स्थान है क्योंकि देश की 60 प्रतिशत से अधिक आबादी अभी भी गांवों में निवास करती है एवं अपनी आजीविका के लिए मुख्यतः कृषि क्षेत्र पर ही निर्भर है। कोरोना महामारी के दौरान अर्थव्यवस्था के सभी क्षेत्र विपरीत रूप से प्रभावित हुए थे एवं इन सभी आर्थिक क्षेत्रों में ऋणात्मक वृद्धि दर्ज की गई थी। परंतु, केवल कृषि क्षेत्र ही इस खंडकाल में भी अच्छी वृद्धि दर हासिल करता रहा और यह अभी भी जारी है। यह कहने में कोई अतिश्योक्ति नहीं है कि भारत सरकार द्वारा लागू की गई आर्थिक नीतियों की बदौलत अब भारत के किसान सम्पन्न हो रहे हैं एवं भारत के सकल घरेलू उत्पाद में कृषि क्षेत्र का योगदान 14.2 प्रतिशत से बढ़कर 18.8 प्रतिशत हो गया है। अभी हाल ही में भारतीय स्टेट बैंक द्वारा जारी किए गए एक प्रतिवेदन में यह बताया गया है कि वित्तीय वर्ष 2017-18 से वित्तीय वर्ष 2021-22 के बीच भारतीय किसानों की आय औसतन 1.3 से 1.7 गुना बढ़ गई है। इसी प्रतिवेदन के अनुसार, भारत में कृषि उत्पादों के न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) में भी वर्ष 2014 के बाद से 1.5 से 2.3 गुना तक की वृद्धि दर्ज हुई है। इससे किसान अधिक समर्थन मूल्य वाली फसलों का उत्पादन बढ़ा रहे हैं एवं अपनी आय में तेज गति से वृद्धि करने में सफल हो रहे हैं। इसी प्रकार, भारत से अनाज का निर्यात भी वित्तीय वर्ष 2021-22 में बढ़कर 5000 करोड़ अमेरिकी डॉलर से भी अधिक हो गया है।
भारतीय स्टेट बैंक के साथ ही एक अन्य भारतीय संस्थान इंडियन काउन्सिल ऑफ ऐग्रिकल्चरल रिसर्च (आईसीएआर) द्वारा 17 जुलाई 2022 को जारी किए गए एक प्रतिवेदन में भी यह बताया गया है कि भारत में कृषि के क्षेत्र में तकनीकी विकास एवं केंद्र सरकार द्वारा लागू की जा रही नीतियों के चलते भारत के किसानों की आय वर्ष 2016-17 की तुलना में वर्ष 2020-21 में 150 से 200 प्रतिशत तक बढ़ गई है। किसानों की आय में हुई इस आकर्षक वृद्धि दर में बागवानी एवं पशुपालन जैसे क्षेत्रों ने विशेष भूमिका निभाई है। भारत में लगभग 14 करोड़ भूमिधारी किसान हैं इनमें से 85 प्रतिशत से अधिक किसान छोटे किसान की श्रेणी के हैं जिनके पास 2 हेक्टेयर (5 एकड़) से कम भूमि उपलब्ध है। यह हर्षित करने वाला तथ्य उभरकर सामने आया है कि बहुत छोटी जोत वाले किसानों की वास्तविक आय में 2013 और 2019 के बीच वार्षिक 10 प्रतिशत की वृद्धि प्रतिवर्ष दर्ज हुई है वहीं अधिक बड़ी जोत वाले किसानों की वास्तविक आय में केवल 2 प्रतिशत की वृद्धि प्रतिवर्ष दर्ज हुई है। इसी प्रकार, आर्थिक सुधार कार्यक्रम लागू होने के बाद से भारत में प्रति व्यक्ति दूध की खपत में वृद्धि एवं आहार सम्बंधी प्राथमिकताओं में बदलाव दिखाई दे रहा है। साथ ही, देश में लगातार बढ़ रहे शहरीकरण के चलते वित्तीय वर्ष 2021-22 में डेयरी उद्योग ने लगभग 9-11 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की है। जिसका सीधा-सीधा लाभ किसानों को मिल रहा है। आज 8 करोड़ से अधिक किसानों को डेयरी उद्योग में रोजगार मिल रहा है।
वर्ष 2014 में केंद्र में नरेंद्र मोदी की सरकार के आने के बाद से लगातार प्रयास किए जा रहें कि भारतीय किसानों की आय को दुगुना किया जाये। इस संदर्भ में केंद्र सरकार के प्रयास अब फलीभूत होते दिख रहे हैं क्योंकि भारतीय स्टेट बैंक के उक्त प्रतिवेदन के अनुसार वित्तीय वर्ष 2018 की तुलना में वित्तीय वर्ष 2022 में कुछ उपजों के क्षेत्र में भारतीय किसानों की आय दुगनी हो चुकी है। जैसे महाराष्ट्र में सोयाबीन एवं कर्नाटक में कपास की खेती करने वाले किसानों की आय उक्त अवधि में दुगुनी से अधिक हो गई है एवं अन्य उपजों की पैदावार लेने वाले किसानों की आय 1.3 से 1.7 गुना बढ़ गई है। सहायक एवं गैर कृषि आधारित कार्य में संलग्न किसानों की आय भी 1.4 से 1.8 गुना बढ़ गई है। नकदी फसल (कपास, सोयाबीन, सरसों, मूंगफली, फल, सब्जी, आदि) लेने वाले किसानों की आय गैर-नकदी फसलें लेने वाले किसानों की तुलना में अधिक तेजी से बढ़ी है।
जनवरी 2018 में प्रधानमंत्री द्वारा चालू की गई आकांक्षी जिला योजना के अंतर्गत भी देश के अति पिछड़े 124 जिलों में बहुत सराहनीय कार्य हुआ है। इन जिलों में स्वयं सहायता समूहों के माध्यम से विशेष रूप से महिलाओं को वित्तीय सुविधा उपलब्ध कराई गई है, जिससे किसान परिवारों की आय में वृद्धि दृष्टिगोचर हुई है। देश में स्वयं सहायता समूहों को प्रदान की गई वित्त सहायता का 18 प्रतिशत भाग इन अति पिछड़े 124 आकांक्षी जिलों में प्रदान किया गया है।
प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि योजना भी इस संदर्भ में विशेष भूमिका निभाती नजर आ रही है। इस योजना के अंतर्गत प्रति वर्ष तीन बार लगभग 10 करोड़ किसानों के खातों में रुपए 2000 (पूरे वर्ष में रुपए 6000) जमा किए जाते हैं। यह योजना वर्ष 2019 में चालू की गई थी और प्रत्येक वर्ष लगभग 63,000 करोड़ रुपए सीधे ही 10 करोड़ से अधिक किसानों के खातों में जमा किए जा रहे हैं।
बैंकों द्वारा सफलतापूर्वक चलाई जा रही किसान क्रेडिट कार्ड योजना ने भी किसानों की आय को बढ़ाने में विशेष भूमिका निभाई है। केंद्र सरकार द्वारा किसानों को किसान क्रेडिट कार्ड पर ब्याज की सब्सिडी प्रदान की जा रही है, इससे किसानों द्वारा लिए जा रहे ऋण उन्हें बहुत कम ब्याज पर उपलब्ध हो रहे हैं। आज देश में 7.37 करोड़ किसान क्रेडिट कार्ड जारी किए जा चुके हैं। आज भारतीय किसान न केवल अपने देश के नागरिकों को अन्न उपलब्ध करा रहा है बल्कि अब तो दुनिया के अन्य देशों की भी सहायता में आगे आ रहा है। जहां पूरी दुनिया में खाद्यान्न का संकट गहराता जा रहा है, वहीं भारत खाद्यान्न उत्पादन में नए-नए कीर्तिमान बना रहा है। केंद्रीय कृषि एवं किसान कल्याण मंत्रालय ने वर्ष 2021-22 के लिए मुख्य कृषि फसलों के उत्पादन के तृतीय अग्रिम अनुमान जारी किए हैं। इसके अनुसार भारत में 31.451 करोड़ टन खाद्यान्न के उत्पादन का अनुमान है, जो वर्ष 2020-21 के दौरान के खाद्यान्न उत्पादन की तुलना में 37.7 लाख टन अधिक है। वर्ष 2021-22 के दौरान खाद्यान्न उत्पादन पिछले 5 वर्षों के औसत खाद्यान्न उत्पादन की तुलना में 2.38 करोड़ टन अधिक है। भारत के लिए यह एक नया कीर्तिमान होगा। इसी प्रकार, केंद्र सरकार ने चालू वित्त वर्ष 2022-23 में 32.8 करोड़ टन रिकॉर्ड खाद्य उत्पादन का लक्ष्य रखा है। जो पिछले वर्ष के मुकाबले 3.8% अधिक है।
खाद्यान्न उत्पादन के साथ ही खाद्यान्न सामग्री के निर्यात में भी भारत नित नए रिकॉर्ड बना रहा हैं। वर्ष 2021-22 के लिए कृषि उत्पाद का निर्यात 5000 करोड़ अमेरिकी डॉलर पार कर गया है। जो अब तक का सबसे अधिक कृषि उत्पाद निर्यात है। रूस-यूक्रेन युद्ध संकट के बीच दुनिया के कई देश खाद्यान्नों के लिए भारत की ओर देख रहे हैं। वहीं 2020-21 में 4187 करोड़ अमेरिकी डॉलर के कृषि उत्पादों का निर्यात किया गया था। गेहूं के निर्यात में अप्रत्याशित 273% की वृद्धि दर्ज हुई है। जहां 2020-21 में गेहूं निर्यात 56.8 करोड़ अमेरिकी डॉलर का था वहीं यह 2021-22 में चार गुना बढ़कर 211.9 करोड़ अमेरिकी डॉलर का हो गया है।
एक अनुमान के अनुसार भारत में वर्ष 2021-22 में बागवानी का उत्पादन 34.2 करोड़ टन होने जा रहा है। यह 2.1 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज करते हुए 70.3 लाख टन से बढ़ने जा रहा है। जो वर्ष 2020-21 में 33.46 करोड़ टन पर रहा था। फलों का उत्पादन वर्ष 2020-21 के 10.25 करोड़ टन से बढ़कर वर्ष 2021-22 में 10.71 करोड़ टन पर पहुंचने की सम्भावना है और सब्ज़ियों का उत्पादन वर्ष 2020-21 के 2.66 करोड़ टन से बढ़कर 3.17 करोड़ टन पर पहुंचने की सम्भावना है। बागवानी के तेजी से बढ़ रहे उत्पादन से किसानों की आय में अधिक वृद्धि दृष्टिगोचर हो रही है।
चालू वित्त वर्ष 2022-23 की पहली तिमाही (अप्रैल से जून) में देश के कृषि एवं खाद्य पदार्थों के निर्यात में 14 प्रतिशत की उल्लेखनीय वृद्धि दर्ज हुई है। पिछले वर्ष इसी अवधि में 525 करोड़ अमेरिकी डॉलर कीमत की वस्तुओं का निर्यात हुआ था जो इस वर्ष बढ़कर 598 करोड़ अमेरिकी डॉलर तक पहुंच गया है। अप्रैल जून 2021 में ताजे फल और सब्ज़ियों का निर्यात 64.2 करोड़ अमरीकी डॉलर का रहा था जो चालू वित्त वर्ष की इसी अवधि में बढ़कर 69.7 करोड़ अमेरिकी डॉलर का हो गया है। अन्य अनाज का निर्यात अप्रैल जून 2021 में 23.7 करोड़ अमेरिकी डॉलर का रहा था जो इस वर्ष इसी अवधि में बढ़कर 30.6 करोड़ अमेरिकी डॉलर का हो गया है। इसी प्रकार मांस, डेयरी और पोल्ट्री उत्पादों का निर्यात अप्रैल-जून 2021 में 102.3 करोड़ अमेरिकी डॉलर का रहा था जो इस वर्ष इसी अवधि में बढ़कर 112 करोड़ अमेरिकी डॉलर का हो गया है। विभिन्न कृषि उत्पादों के निर्यात में हो रही भारी वृद्धि का लाभ भी सीधे-सीधे भारतीय किसानों को मिल रहा है जिससे उनकी आय में वृद्धि दृष्टिगोचर है।
-प्रह्लाद सबनानी
सेवानिवृत्त उप महाप्रबंधक
भारतीय स्टेट बैंक
उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ जब जनता के बीच अपनी सरकार के सौ दिन के कामकाज का जश्न मना रही थी, उसी समय योगी सरकार के एक दलित राज्य मंत्री ने ब्यूरोक्रेसी पर गंभीर आरोप लगा कर सरकार की किरकिरी करा दी है। बात यहीं तक सीमित नहीं है। चर्चा यह भी है कि योगी सरकार के कई और मंत्री भी नौकरशाही के अड़ियल रवैये से त्रस्त हैं, लेकिन अभी यह खुलकर सामने नहीं आए हैं। कहा यह भी जा रहा है कि योगी सरकार के कई राज्य मंत्री ब्यूरोक्रेसी के अलावा अपने ऊपर बैठे कैबिनेट मंत्रियों के रवैये को भी नहीं पचा पा रहे हैं। राज्य मंत्रियों की आम शिकायत है कि उनके विभाग के बड़े यानी कैबिनेट मंत्रियों ने उनके (राज्य मंत्रियों के) हाथ बांध रखे हैं। वहीं कैबिनेट मंत्रियों का अपना दर्द है। क्योंकि ब्यूरोक्रेसी सुन उनकी भी नहीं रही है।
डिप्टी सीएम ब्रजेश पाठक और लोक निर्माण मंत्री जितिन प्रसाद की भी तबादला नीति को लेकर नाराजगी सामने आ चुकी है। डिप्टी सीएम ब्रजेश पाठक जिनके पास स्वास्थ्य शिक्षा विभाग है, वह तबादलों को लेकर गड़बड़ी की शिकायत कर चुके हैं, जिसके खिलाफ सीएम योगी आदित्यनाथ ने जांच बैठाने के साथ तबादला नीति का उल्लघंन करने के आरोपी अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई भी की है। तबादला नीति को लेकर नाराजगी जितिन प्रसाद की भी सामने आई है, लेकिन जितिन प्रसाद के बारे में यह भी चर्चा है कि उन्होंने नियमों का उल्लंघन कर अपना ओएसडी रखा था, जिसे योगी द्वारा हटाए जाने से जितिन नाखुश हैं। वैसे जितिन प्रसाद ने नाराजगी वाली बात को सिरे से खारिज कर दिया है।
बहरहाल, यह सब तब हो रहा है जब सीएम योगी आदित्यनाथ भ्रष्टाचार के खिलाफ जीरो टॉलरेंस की बात कर रहे है, कानून व्यवस्था को दुरुस्त रखने से लेकर यूपी को वन ट्रिलियन डॉलर इकॉनमी बनाने के लिए अभियान चल रखा है। सीएम लगातार ब्यूरोक्रेसी से कह रहे हैं कि जनप्रतिनिधियों को सम्मान दिया जाए, उनकी बात सुनी जाए। लेकिन ब्यूरोक्रेसी योगी सरकार प्रथम के दिनों को नहीं भूल पा रही है, जब सीएम पद की शपथ लेने के बाद योगी ने आदेश जारी किया था कि कोई जनप्रतिनिधि सचिवालय, पुलिस-चौकी नहीं जाएगा। योगी का फरमान था कि ब्यूरोक्रेसी अपने विवेकानुसार फैसले ले, इससे नाराज विधायकों को एक बार विधान सभा तक में अपनी ही सरकार के खिलाफ धरना-प्रदर्शन करना पड़ गया था। करीब 150 विधायकों ने ब्यूरोक्रेसी के खिलाफ विधान सभा में हो-हल्ला मचाया था। राजनीति के इतिहास में यह बड़ी घटना थी।
योगी सरकार टू की बात कि जाए तो चुस्त-दुरुस्त योगी सरकार के सामने एक बार फिर वही पुरानी समस्या खड़ी होती दिख रही है। योगी सरकार के पहले कार्यकाल में ब्यूरोक्रेसी पर तमाम आरोप लगे थे कि विधायकों, सांसदों से लेकर मंत्रियों तक की सुनवाई नहीं होती है। वही आरोप अब 100 दिन पूरा करने के बाद योगी सरकार 2.0 में भी सामने आने लगे हैं। राज्यमंत्री दिनेश खटीक का इस्तीफा इसी कड़ी का हिस्सा है। यह सब तब हो रहा है जबकि स्वयं सीएम योगी आदित्यनाथ अपने दूसरे कार्यकाल में लगातार नौकरशाही को कसने में लगे हैं। भ्रष्टाचार के मामलों में कई बड़े अफसरों पर गाज गिर चुकी है। अनुशासन को लेकर तमाम फरमान जारी हो रहे हैं।
नहीं भूलना चाहिए कि उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में भाजपा के तमाम विधायकों की तरफ से आरोप लगाए गए थे कि यूपी सरकार में ब्यूरोक्रेसी निरंकुश है। प्रदेश में लखनऊ से लेकर जिलों तक अफसर मंत्रियों, सांसदों और विधायकों की बात को तवज्जो नहीं देते, उनके दिए गए सुझावों पर टालमटोल वाला रवैया अपनाते हैं। आईजीआरएस (इंटीग्रेटेड ग्रीवान्स रिड्रेसल सिस्टम), जिसे मुख्यमंत्री ने खुद पारदर्शिता बनाने के लिए बनवाया। जिसके माध्यम से कोई भी व्यक्ति सीधे मुख्यमंत्री से शिकायत कर सकता है। इसी आईजीआरएस पर तमाम मंत्रियों, नेताओं ने अफसरों के खिलाफ शिकायत करनी शुरू कर दी। कानपुर के विधायक सुरेंद्र मैथानी, महोली एमएलए शशांक त्रिवेदी, लखनऊ में विधायक नीरज बोरा, बदायूं से धर्मेंद्र शाक्य, कासगंज एमएलए देवेंद्र प्रताप, बरेली एमएलए डॉ. अरुण कुमार से लेकर तत्कालीन राज्यमंत्री स्वाति सिंह और सांसद कौशल किशोर ने शिकायतें दर्ज कराईं। यूपी चुनावों के दौरान भी ये बात काफी चर्चा में रही थीं, लेकिन चुनाव परिणाम आने के बाद बात शांत हो गई।
योगी सरकार के मंत्रियों ने जिस तरह से ब्यूरोक्रेसी के खिलाफ नाराजगी जताई थी, ऐसी नाराजगी शायद ही किसी और सरकार में देखने को मिली होगी। बीजेपी के ही पूर्व मुख्यमंत्री कल्याण सिंह के एक बयान को यहां उद्धृत करना जरूरी है, जिसमें उन्होंने कहा था कि ब्यूरोक्रेसी एक बेलगाम घोड़े जैसी है, इस बेलगाम घोड़े की सवारी वही घुड़सवार कर सकता है जिसकी रानों में दम होता है। यह और बात है कि कल्याण सिंह जब दूसरी बार सीएम बने थे तो वह भी ब्यूरोक्रेसी पर लगाम लगाने में असफल रहे थे।
बात बसपा राज की कि जाए तो उस समय ब्यूरोक्रेसी थर-थर कांपती थी। सीएम मायावती जो कहती थीं, ब्यूरोक्रेसी हां में हां मिलाती थी। माया राज में जो भी भ्रष्टाचार की खबरें आईं, उसमें बसपा सुप्रीमो का भी योगदान कम नहीं रहा था। चीनी मिल बिक्री घोटाला, ताज कॉरिडोर घोटाला इस बात का बड़ा प्रमाण है। वहीं ब्यूरोक्रेसी की सबसे खराब स्थिति सपा राज में देखने को मिलती थीं, सपा का अदना-सा कार्यकर्ता भी धड़धड़ाते हुए बड़े-बड़े अधिकारियों के दफ्तर में घुस कर अपना काम डंके की चोट पर करा लेता था।
खैर, योगी सरकार ने दूसरा कार्यकाल बड़े जोर-शोर से शुरू किया। खुद सीएम योगी एक तरफ काम में जुटे दिखे तो तमाम मंत्री भी औचक निरीक्षण के माध्यम से सिस्टम की खामियों को दुरुस्त करते नजर आए। लेकिन 100 दिन का कार्यकाल पूरा करते-करते तस्वीर बदलने लगी। मंत्रियों के औचक निरीक्षण के बाद तमाम आरोप सामने आए कि मंत्री के कहने के बाद भी कोई एक्शन नहीं हुआ। इसी दौरान उत्तर प्रदेश में तबादला नीति जारी हुई। जिसके बाद बड़े पैमाने पर स्वास्थ्य विभाग, पीडब्ल्यूडी सहित तमाम विभागों में तबादले हुए। तबादला होने के फौरन बाद ही भ्रष्टाचार की शिकायतें आनी शुरू हो गईं। मामले ने तब तूल पकड़ लिया, जब यूपी के डिप्टी सीएम और स्वास्थ्य मंत्री बृजेश पाठक ने अपने ही विभाग में ही हुए तबादलों पर सवाल खड़े कर दिए। बृजेश पाठक ने इस संबंध में पत्र लिखकर अपर मुख्य सचिव अमित मोहन से जवाब-तलब कर लिया। उन्होंने कहा कि जो ट्रांसफर हुए हैं, उनमें तबादला नीति को पूरी तरह दरकिनार करने का आरोप है। एक ही जिले में तैनात पति-पत्नी को अलग-अलग जिला भेजा दिया गया, किसी अस्पताल में डॉक्टरों की भारी कमी को नजरअंदाज कर वहां से भी डॉक्टर दूसरी जगह शिफ्ट कर दिए गए। स्थिति यह रही कि एक डॉक्टर का तो दो जिलों में तबादला कर दिया गया। तबादला नीति में मनमानी की खबर बृजेश पाठक के पत्र के सामने आने के बाद सुर्खियां बटोरने लगी। देखते ही देखते पीडब्ल्यूडी में भी हुए तबादलों पर सवाल खड़े हो गए।
जानकार कहते हैं कि बृजेश पाठक के इस पत्र को योगी सरकार द्वारा कहीं न कहीं ब्यूरोक्रैसी और जन प्रतिनिधियों के बीच टकराव के रूप में देखा गया। सवाल उठे कि अपने ही विभाग में तबादलों की जानकारी मंत्री को नहीं है? इसका जिम्मेदार कौन है? योगी सरकार द्वारा जांच कराई गई तो पता चला कि पीडब्ल्यूडी में हुए तबादले का फर्जीवाड़ा किया गया। मामले में फौरन एक्शन हुआ और पीडब्ल्यूडी मंत्र जितिन प्रसाद के ओएसडी अनिल पांडेय को दोषी मानते हुए उन्हें हटाने का फरमान जारी हो गया। दरअसल अनिल कुमार पांडेय भारत सरकार से प्रतिनियुक्ति पर आए थे, उन्हें वापस भेजने के साथ ही उनके खिलाफ विजिलेंस जांच और विभागीय कार्रवाई की भी संस्तुति कर दी गई। ये भी बातें सामने आई कि जितिन प्रसाद ही अनिल पांडेय को लेकर आए थे, वो उनके करीबी माने जाते हैं। सवाल ये भी उठने लगे कि इस फर्जीवाड़े की जानकारी मंत्री को ही नहीं थी?
अब दिनेश खटीक का इस्तीफा सामने आ गया है। उनके इस्तीफे पर गौर करें तो उन्होंने गृह मंत्री अमित शाह को संबोधित करते हुए पत्र लिखा है। राज्यपाल, सीएम या पार्टी अध्यक्ष को पत्र भेजने की बजाए गृह मंत्री को संबोधित पत्र लिखने के पीछे की सोच तो दिनेश खटीक ही बता सकते हैं। उनके पत्र पर गौर किया जाए तो उन्होंने यूपी की नौकरशाही पर कई गंभीर आरोप लगाए हैं जो निरर्थक नहीं हैं। योगी सरकार को बेलगाम ब्यूरोक्रेसी पर लगाम लगाने के लिए कुछ जरूरी कदम उठाने ही पड़ेंगे।
-अजय कुमार
सर्वोच्च न्यायालय में आजकल एक अजीब-से मामले पर बहस चल रही है। मामला यह है कि क्या भारत के कुछ राज्यों में हिंदुओं को अल्पसंख्यक माना जाए या नहीं? अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक होने का फैसला राष्ट्रीय स्तर पर होना चाहिए या राज्यों के स्तर पर? अभी तक सारे भारत में जिन लोगों की संख्या धर्म की दृष्टि से कम है, उन्हें ही अल्पसंख्यक माना जाता है। इस पैमाने पर केंद्र सरकार ने मुसलमानों, ईसाइयों, पारसियों, सिखों, बौद्धों और जैनियों को अल्पसंख्यक होने की मान्यता दे रखी है। यह मान्यता इन लोगों पर सभी प्रांतों में भी लागू होती है। जिन प्रांतों में ये लोग बहुसंख्यक होते हैं, वहां भी इन्हें अल्पसंख्यकों की सारी सुविधाएं मिलती हैं। ऐसे समस्त अल्पसंख्यकों की संख्या सारे भारत में लगभग 20 प्रतिशत है।
अब अदालत में ऐसी याचिका लगाई गई है कि जिन राज्यों में हिंदू अल्पसंख्यक हैं, उन्हें वहां भी बहुसंख्यक क्यों माना जाता है? जैसे लद्दाख, मिजोरम, लक्षद्वीप, कश्मीर, नागालैंड, मेघालय, पंजाब, अरुणाचल प्रदेश और मणिपुर में हिंदुओं की संख्या सिर्फ 1 प्रतिशत से लेकर ज्यादा से ज्यादा 41 प्रतिशत है। इन राज्यों में उन्हें अल्पसंख्यकों को मिलने वाली सभी सुविधाएं क्यों नहीं दी जातीं? यही बात भाषा के आधार पर भी लागू होती है। यदि महाराष्ट्र में कन्नड़भाषी अल्पसंख्यक माने जाएंगे तो कर्नाटक में मराठीभाषी अल्पसंख्यक क्यों नहीं कहलाएंगे?
यदि अल्पसंख्यकता का आधार भाषा को बना लिया जाए तो भारत के लगभग सभी भाषाभाषी किसी न किसी प्रांत में अल्पसंख्यक माने जा सकते हैं। सर्वोच्च न्यायालय इस मुद्दे पर जो बहस चलाएगा, वह बंधे-बंधाए घेरे में चलाएगा और उक्त कुछ राज्यों में हिंदुओं को शायद वह अल्पसंख्यकों का दर्जा भी दे दे। लेकिन यह अल्पसंख्यकवाद ही मेरी राय में त्याज्य है। देश के किसी भी व्यक्ति को जाति, धर्म और भाषा के आधार पर अल्पसंख्यक या बहुसंख्यक का दर्जा देना अपने आप में गलत है। यदि यह राज्यों में भी सभी पर लागू कर दिया गया तो यह अनगिनत मुसीबतें खड़ी कर देगा। हर वर्ग के लोग सुविधाओं के लालच में फंसकर अपने आप को अल्पसंख्यक घोषित करवाने पर उतारू हो जाएंगे। इसके अलावा राज्यों का नक्शा बदलता रहता है। जो लोग किसी राज्य में आज बहुसंख्यक हैं, वे ही वहां कल अल्पसंख्यक बन सकते हैं। जाति, धर्म और भाषा के आधार पर लोगों को दो श्रेणियों में बांटकर रखना राष्ट्रीय एकता की दृष्टि से भी उचित नहीं है।
अपने आप को ये लोग भारतीय कहने के पहले फलां-फलां जाति, धर्म या भाषा का व्यक्ति बताने पर आमादा होंगे। यह सांप्रदायिक और सामाजिक बंटवारा हमारे लोकतंत्र को भी अंदर से खोखला करता रहता है। जब साधारण लोग मतदान करने जाते हैं तो अक्सर वे जाति, धर्म और भाषा को आधार बनाते हैं, जो कि भेड़ियाधसान के अलावा कुछ नहीं है। लोकतंत्र तभी मजबूत होता है, जब मतदाता लोग शुद्ध गुणावगुण के आधार पर वोट डालते हैं। यह तभी संभव है, जबकि हमारे सार्वजनिक और सामूहिक जीवन में जाति, धर्म और भाषा को अत्यंत सीमित महत्व दिया जाए। निजी जीवन की महत्वपूर्ण पहचानों को सार्वजनिक जीवन पर लादना किसी भी स्वस्थ लोकतंत्र के लिए खतरनाक है।
-डॉ. वेदप्रताप वैदिक
हाल ही में वर्ल्ड इकनोमिक फोरम की ग्लोबल जेंडर गैप 2022 रिपोर्ट आई है जिसमें भारत 146 देशों की सूची में 135वें स्थान पर है। यानी लैंगिक समानता के मुद्दे पर भारत मात्र ग्यारह देशों से ऊपर है। हमारे पड़ोसी देशों की बात करें तो हम नेपाल (98), भूटान (126) और बांग्लादेश (143) से भी पीछे हैं। बता दिया जाए कि ग्लोबल जेंडर गैप इंडेक्स में मुख्य तौर पर महिलाओं से जुड़े चार आयामों के आधार पर किसी देश का स्थान तय किया जाता है, उनकी शिक्षा एवं उसके अवसर, उनकी आर्थिक भागीदारी, उनका स्वास्थ्य और उनकी राजनीतिक अधिकारिता।
संयोग से यह रिपोर्ट उस समय आई है जब देश सावन माह में शिव जी की भक्ति से सरोबार है। देखा जाए तो यह परिदृश्य बड़ा विचित्र-सा है कि यह देश शिवजी को तो पूजता है लेकिन उनके द्वारा दिए संदेश को आत्मसात नहीं कर पाता। क्योंकि महादेव वो देव हैं जो अर्धनारीश्वर के रूप में पूजे जाते हैं और यह बताते हैं कि स्त्री एवं पुरुष मिलकर ही पूर्ण होते हैं। दअरसल ऐसा माना जाता है कि ईश्वर की बनाई इस सृष्टि में मानव के रूप में जन्म लेना एक दुर्लभ सौभाग्य की बात होती है। और जब वो जन्म एक स्त्री के रूप में मिलता है तो वो परमसौभाग्य का विषय होता है। क्योंकि स्त्री ईश्वर की सबसे खूबसूरत वो कलाकृति है जिसे उसने सृजन करने की पात्रता दी है। सनातन संस्कृति के अनुसार संसार के हर जीव की भांति स्त्री और पुरुष दोनों में ही ईश्वर का अंश होता है लेकिन स्त्री को उसने कुछ विशेष गुणों से नवाजा है। यह गुण उसमें नैसर्गिक रूप से पाए जाते हैं जैसे सहनशीलता, कोमलता, प्रेम, त्याग, बलिदान ममता। यह स्त्री में पाए जाने वाले गुणों की ही महिमा होती है कि अगर किसी पुरुष में स्त्री के गुण प्रवेश करते हैं तो वो देवत्व को प्राप्त होता है लेकिन अगर किसी स्त्री में पुरुषों के गुण प्रवेश करते हैं तो वो दुर्गा का अवतार चंडी का रूप धर लेती है जो विध्वंसकारी होता है। किंतु वही स्त्री अपने स्त्रियोचित नैसर्गिक गुणों के साथ एक गृहलक्ष्मी के रूप में अन्नपूर्णा और एक माँ के रूप में ईश्वर स्वरूपा बन जाती है।
हमारी सनातन संस्कृति में स्त्री और पुरुष को एक दूसरे का पूरक माना जाता है। लेकिन जब ग्लोबल जेंडर गैप इंडेक्स की रिपोर्ट आती है तो यह तथ्य सामने आता है कि इस देश में महिलाओं की स्थिति दुनिया के अन्य देशों की तुलना में काफी कमजोर ही नहीं बल्कि दयनीय है। क्योंकि इस देश में हम महिलाओं के अधिकारों और लैंगिग समानता की बात करते हैं तो हम मुद्दा तो सही उठाते हैं लेकिन विषय से भटक जाते हैं। मुद्दे की अगर बात करें, तो आज महिलाएं हर क्षेत्र में अपने कदम रख रही हैं। धरती हो या आकाश, आईटी सेक्टर हो या मेकैनिकल, समाजसेवा हो या राजनीति... महिलाएं आत्मविश्वास के साथ आगे बढ़ रही हैं। और अपनी कार्यकुशलता के दम पर अपनी प्रतिभा का लोहा भी मनवा रही हैं। लेकिन यह तसवीर का एक रुख है। तस्वीर का दूसरा रुख यह है कि 2021 की एक सर्वे रिपोर्ट में यह बात सामने आती है कि 37 प्रतिशत महिलाओं को उसी काम के लिए पुरुषों के मुकाबले कम वेतन दिया जाता है। 85 फीसद महिलाओं का कहना है कि उन्हें पदोन्नति और वेतन के मामले में नौकरी में पुरुषों के समान अवसर नहीं मिलते।
लिंक्डइन की इस सर्वे रिपोर्ट के अनुसार आज भी कार्य स्थल पर कामकाजी महिलाओं के साथ भेदभाव किया जाता है। महिलाओं को काम करने के समान अवसर उपलब्ध कराने के मामले में 55 देशों की सूची में भारत 52वें नम्बर पर है। इसे क्या कहा जाए कि हम राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर महिला दिवस जैसे आयोजन करते हैं। ऐसे कार्यक्रमों में हम महिलाओं को पुरुषों के समान अधिकार देने की बातें करते हैं लेकिन जब तनख्वाह, पदोन्नति, समान अवसर प्रदान करने जैसे विषय आते हैं तो हम 55 देशों की सूची में अंतिम पायदानों पर होते हैं।
जाहिर है कि जब इस मुद्दे पर चर्चा होती है तो अनेक तर्क वितर्कों के माध्यमों से महिला सशक्तिकरण से लेकर नारी मुक्ति और स्त्री उदारवाद से लेकर लैंगिक समानता जैसे भारी भरकम शब्द भी सामने आते हैं। और यहीं हम विषय से भटक जाते हैं। क्योंकि उपरोक्त विमर्शों के साथ शुरू होता है पितृसत्तात्मक समाज का विरोध। यह विरोध शुरू होता है पुरुषों से बराबरी के आचरण के साथ। पुरुषों जैसे कपड़ों से लेकर पुरुषों जैसा आहार विहार जिसमें मदिरा पान, सिगरेट सेवन तक शामिल होता है। जाहिर है कि तथाकथित उदारवादियों का स्त्री विमर्श का यह आंदोलन उदारवाद के नाम पर फूहड़ता के साथ शुरू होता है और समानता के नाम पर मानसिक दिवालियेपन पर खत्म हो जाता है।
हमें यह समझना चाहिए कि जब हम महिलाओं के लिए लैंगिक समानता की बात करते हैं तो हम उनके साथ होने वाले लैंगिग भेदभाव की बात कर रहे होते हैं। इस क्रम में समझने वाला विषय यह है कि अगर यह लैंगिक भेदभाव केवल महिलाओं द्वारा पुरुषों के समान कपड़े पहनने या फिर आचरण रखने जैसे सतही आचरण से खत्म होना होता तो अमेरिका और यूरोपीय संघ जैसे तथाकथित विकसित और आधुनिक देशों में यह कब का खत्म हो गया होता। लेकिन सच्चाई तो यह है कि इन देशों की महिलाएं भी अपने अधिकारों के लिए आज भी संघर्ष कर रही हैं। दरअसल महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि जब हम महिला अधिकारों के लिए लैंगिक समानता की बात करते हैं तो उसके मूल में एक वैचारिक चिंतन होता है कि एक सभ्य और विकसित समाज अथवा परिवार अथवा एक व्यक्ति के रूप में महिलाओं के प्रति हमारा व्यवहार समान, हमारी सोच समान, हमारा दृष्टिकोण समान, समान कार्य के लिए उन्हें दिया जाने वाला वेतन पुरुष के समान और जीवन में आगे जाने के लिए उन्हें मिलने वाले अवसर समान रूप से उपलब्ध हों। जिस दिन किसी भी क्षेत्र में आवेदक अथवा कर्मचारी को उसकी योग्यता के दम पर आंका जाएगा ना कि उसके महिला या पुरुष होने के आधार पर, तभी सही मायनों में हम जेंडर गैप को कम ही नहीं बल्कि खत्म कर देंगे।
-डॉ. नीलम महेंद्र
(लेखिका वरिष्ठ स्तंभकार हैं)
मानसून की शुरुआत से ही इस साल देश के कई हिस्सों में मूसलाधार बारिश, बाढ़, बादल फटने, बिजली गिरने और भू-स्खलन से तबाही का सिलसिला अनवरत जारी है। पहाड़ों पर आसमानी आफत टूट रही है तो देश के कई इलाके बाढ़ के कहर से त्राहि-त्राहि कर रहे हैं। असम के बाद गुजरात तथा महाराष्ट्र भी अब बाढ़ के प्रकोप से त्रस्त हैं, जहां अब तक बाढ़ के शिकार होकर सैंकड़ों लोग मौत के आगोश में समा चुके हैं। देशभर के अनेक इलाकों में नदियां और जलाशय उफान पर हैं। हालांकि उत्तर भारत के कई इलाके मानसूनी बारिश के लिए अब तक तरस रहे हैं। कमोवेश हर साल मानसून के दौरान विभिन्न राज्यों में अब इसी प्रकार का नजारा देखा जाने लगा है। निःसंदेह यह सब पर्यावरण असंतुलन का ही दुष्परिणाम है, जिसके कारण मानूसन से होती तबाही की तीव्रता साल दर साल बढ़ रही है। मानसून का मिजाज इस कदर बदल रहा है कि जहां मानसून के दौरान महीने के अधिकांश दिन अब सूखे निकल जाते हैं, वहीं कुछेक दिनों में ही इतनी बारिश हो जाती है कि लोगों की मुसीबतें कई गुना बढ़ जाती हैं। दरअसल वर्षा के पैटर्न में अब ऐसा बदलाव नजर आने लगा है कि बहुत कम समय में ही बहुत ज्यादा पानी बरस रहा है, जो प्रायः भारी तबाही का कारण बनता है।
मानसून प्रकृति प्रदत्त ऐसा खुशनुमा मौसम है, भीषण गर्मी झेलने के बाद जिसकी बूंदों का हर किसी को बेसब्री से इंतजार रहता है। यह ऐसा मौसम है, जब प्रकृति हमें भरपूर पानी देती है किन्तु पानी की कमी से बूरी तरह जूझते रहने के बावजूद हम इस पानी को सहेजने के कोई कारगर इंतजाम नहीं करते और बारिश का पानी व्यर्थ बहकर समुद्रों में समा जाता है। ‘प्रदूषण मुक्त सांसें’ पुस्तक के मुताबिक एक समय था, जब हर कहीं बड़े-बड़े तालाब और गहरे-गहरे कुएं होते थे और पानी अपने आप धीरे-धीरे उनमें समा जाता था, जिससे भूजल स्तर भी बढ़ता था लेकिन अब विकास की अंधी दौड़ में तालाबों की जगह ऊंची-ऊंची इमारतों ने ले ली है, शहर कंक्रीट के जंगल बन गए हैं, अधिकांश जगहों पर कुंओं को मिट्टी डालकर भर दिया गया है। दरअसल हमारी फितरत कुछ ऐसी हो गई है कि हम मानसून का भरपूर आनंद तो लेना चाहते हैं किन्तु इस मौसम में किसी भी छोटी-बड़ी आपदा के उत्पन्न होने की प्रबल आशंकाओं के बावजूद उससे निपटने की तैयारियां ही नहीं करते। इसीलिए बदइंतजामी और साथ ही प्रकृति के बदले मिजाज के कारण अब प्रतिवर्ष प्रचण्ड गर्मी के बाद बारिश रूपी राहत को देशभर में आफत में बदलते देर नहीं लगती और तब मानसून को लेकर हमारा सारा उत्साह छू-मंतर हो जाता है।
हालांकि ‘रेन वाटर हार्वेस्टिंग’ का शोर तो सालभर बहुत सुनते हैं लेकिन ऐसी योजनाएं सिरे कम ही चढ़ती हैं। इन्हीं नाकारा व्यवस्थाओं के चलते चंद घंटों की मूसलाधार बारिश में ही दिल्ली, मुम्बई, हैदराबाद, बेंगलुरु जैसे बड़े-बड़े शहरों में भी सड़कें दरिया बन जाती हैं और जल-प्रलय जैसी स्थिति उत्पन्न हो जाती है। यह कोई इसी साल की बात नहीं है बल्कि हर साल यही नजारा सामने आता है लेकिन स्थानीय प्रशासन द्वारा ऐसे पुख्ता इंतजाम कभी नहीं किए जाते, जिससे बारिश के पानी का संचयन किया जा सके और ऐसी समस्याओं से निजात मिले।
दरअसल हमारी व्यवस्था का काला सच यही है कि न कहीं कोई जवाबदेह नजर आता है और न ही कहीं कोई जवाबदेही तय करने वाला तंत्र दिखता है। हर प्राकृतिक आपदा के समक्ष उससे बचाव की हमारी समस्त व्यवस्था ताश के पत्तों की भांति ढह जाती है। ऐसी आपदाओं से बचाव तो दूर की कौड़ी है, हम तो मानसून में सामान्य वर्षा होने पर भी बारिश के पानी की निकासी के मामले में साल दर साल फेल साबित हो रहे हैं। देशभर के लगभग तमाम राज्यों में प्रशासन के पास पर्याप्त बजट के बावजूद प्रतिवर्ष छोटे-बड़े नालों की सफाई का काम मानसून से पहले अधूरा रह जाता है, जिसके चलते ऐसे हालात उत्पन्न होते हैं। अनेक बार ऐसे तथ्य सामने आ चुके हैं, जिनसे पता चलता रहा है कि मानूसन की शुरुआत से पहले ही करोड़ों रुपये का घपला करते हुए केवल कागजों में ही नालों की सफाई का काम पूरा कर दिया जाता है। कई जगहों पर मानसून से पहले नालों की सफाई की भी जाती है तो उस दौरान सैंकड़ों मीट्रिक टन सिल्ट निकालकर उसे नाले के करीब ही छोड़ दिया जाता है, जो तेज बारिश के दौरान दोबारा बहकर नाले में चली जाती है और थोड़ी-सी बारिश में ही ये नाले उफनते लगते हैं।
बारिश के कारण बाढ़, भू-स्खलन जैसी आपदाओं को लेकर हम जी भरकर प्रकृति को तो कोसते हैं किन्तु यह समझने का प्रयास नहीं करते कि मानसून की जो बारिश हमारे लिए प्रकृति का वरदान होनी चाहिए, वही बारिश अब हर साल बड़ी आपदा के रूप में तबाही बनकर क्यों सामने आती है? अति वर्षा और बाढ़ की स्थिति के लिए जलवायु परिवर्तन के अलावा विकास की विभिन्न परियोजनाओं के लिए वनों की अंधाधुंध कटाई, नदियों में होता अवैध खनन इत्यादि भी प्रमुख रूप से जिम्मेदार हैं, जिससे मानसून प्रभावित होने के साथ-साथ भू-क्षरण और नदियों द्वारा कटाव की बढ़ती प्रवृत्ति के चलते तबाही के मामले बढ़ने लगे हैं।
-योगेश कुमार गोयल
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार, पर्यावरण मामलों के जानकार तथा बहुचर्चित पुस्तक ‘प्रदूषण मुक्त सांसें’ के लेखक हैं)
श्रीलंका के राष्ट्रपति गोटबाया राजपक्ष देश छोड़कर भाग खड़े हुए हैं। इधर श्रीलंका में प्रधानमंत्री रानिल विक्रमसिंघे कार्यवाहक राष्ट्रपति बन गए हैं। राष्ट्रपति भवन में जनता ने कब्जा कर रखा है और रनिल के घर को भी जला दिया गया है। रानिल विक्रमसिंघे को श्रीलंका में कौन कार्यवाहक राष्ट्रपति के तौर पर स्वीकार करेगा? अब तो श्रीलंकाई संसद ही राष्ट्रपति का चुनाव करेगी लेकिन बड़ा सवाल यह है कि इस संसद की कीमत ही क्या रह गई है?
राजपक्ष की पार्टी की बहुमत वाली संसद को अब श्रीलंका की जनता कैसे बर्दाश्त करेगी? विरोध पक्ष के नेता सजित प्रेमदास ने दावा किया है कि वे अगले राष्ट्रपति की जिम्मेदारी लेने को तैयार हैं लेकिन 225 सदस्यों की संसद में राजपक्ष की सत्तारुढ़ पार्टी की 145 सीटें हैं और प्रेमदास की पार्टी की सिर्फ 54 सीटें हैं। यदि प्रेमदास को सभी विरोधी दल अपना समर्थन दे दें तब भी वे बहुमत से राष्ट्रपति नहीं बन सकते। सजित काफी मुंहफट नेता हैं। उनके पिता रणसिंह प्रेमदास भी श्रीलंका के प्रधानमंत्री रहे हैं। उनके साथ यात्रा करने और कटु संवाद करने का अवसर मुझे कोलंबो और अनुराधपुरा में मिला है। वे भयंकर भारत-विरोधी थे। इस समय सबको पता है कि भारत की मदद के बिना श्रीलंका का उद्धार असंभव है। यदि सजित प्रेमदास संयत रहेंगे और सत्तारुढ़ दल के 42 बागी सांसद उनका साथ देने को तैयार हो जाएं तो वे राष्ट्रपति का पद संभाल सकते हैं लेकिन राष्ट्रपति बदलने पर श्रीलंका के हालत बदल जाएंगे, यह सोचना निराधार है।
सबसे बड़ा आश्चर्य यह है कि इन बुरे दिनों में श्रीलंका की प्रचुर सहायता के लिए चीन आगे क्यों नहीं आ रहा है? राजपक्ष परिवार तो पूरी तरह चीन की गोद में ही बैठ गया था। चीन के चलते ही श्रीलंका विदेशी कर्ज में डूबा है। चीन की वजह से अमेरिका ने चुप्पी साध रखी है। लेकिन भारत सरकार का रवैया बहुत ही रचनात्मक है। वह कोलंबो को ढेरों अनाज और डॉलर भिजवा रहा है। भारत जो कर रहा है, वह तो ठीक ही है लेकिन यह भी जरूरी है कि वह राजनीतिक तौर पर जरा सक्रियता दिखाए। जैसे उसने सिंहल-तमिल द्वंद्व खत्म कराने में सक्रियता दिखाई थी, वैसे ही इस समय वह कोलंबो में सर्वसमावेशी सरकार बनवाने की कोशिश करे तो वह सचमुच उत्तम पड़ोसी की भूमिका निभाएगा। ज़रा याद करें कि इंदिराजी ने 1971 में प्रधानमंत्री श्रीमावो बंदारनायक के निवेदन पर रातोंरात उनको तख्ता-पलट से बचाने के लिए केरल से अपनी फ़ौजें कोलंबो भेज दी थीं और राजीव गांधी ने 1987 में भारतीय शांति सेना को कोलंबो भेजा था।
-डॉ. वेदप्रताप वैदिक
यूं देखा जाये तो श्रीलंका भी भारत के एक राज्य जितना बड़ा है। यदि श्रीलंका को भारत में मिलाया जाये तो वह भारत के किसी भी एक राज्य के समान ही रहेगा। आज भारत के कुछ राज्यों की आर्थिक स्थिति भी एक तरह से श्रीलंका की राह पर जाती दिख रही है। भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा भारतीय राज्यों की वित्तीय स्थिति के सम्बंध में अभी हाल ही में जारी किए गए एक प्रतिवेदन में इन राज्यों को चेताया गया है क्योंकि भारत के समस्त राज्यों का संयुक्त ऋण-सकल घरेलू उत्पाद अनुपात 31 प्रतिशत से अधिक हो गया है। जबकि वित्तीय वर्ष 2022-23 तक इसके 20 प्रतिशत रहने का लक्ष्य निर्धारित किया गया था और केंद्र सरकार का ऋण-सकल घरेलू उत्पाद अनुपात नियंत्रण में रहकर 19 प्रतिशत ही है। कुछ राज्यों की हालत तो दयनीय स्थिति में पहुंच गई है। यदि समय पर ये राज्य नहीं चेते एवं इन्होंने अपनी आर्थिक स्थिति में सुधार नहीं किया तो ये राज्य अपने भारी भरकम ऋणों पर ब्याज अदा करने में चूक करने की ओर आगे बढ़ते दिखाई दे रहे हैं।
जाहिर तौर पर जब राज्यों की आर्थिक स्थिति की चर्चा होती है तो इसका असर राज्यों के विकास और इन राज्यों में निवास कर रहे नागरिकों के जीवन पर भी पड़ता है। लोकलुभावन राजनीति इन राज्यों की वित्तीय स्थिति को बहुत बुरे तरीके से प्रभावित कर रही है। भारतीय रिजर्व बैंक के उक्त वार्षिक प्रतिवेदन में राज्यों की वित्तीय स्थिति को लेकर कई गंभीर पहलु और सवाल खड़े किए गए हैं। विशेष रूप से पंजाब, केरल, झारखंड, राजस्थान और पश्चिम बंगाल आदि राज्य बढ़ते कर्ज के बोझ तले दबे जा रहे हैं और इन राज्यों की अर्थव्यवस्था संकट के दौर से गुजर रही है। हाल ही के समय में पंजाब, केरल, राजस्थान, पश्चिम बंगाल एवं बिहार की वित्तीय सेहत बहुत बिगड़ी है।
राज्यों की वित्तीय सेहत का विस्तार से आकलन करने पर ध्यान जाता है कि कई राज्यों द्वारा अनियंत्रित रूप से चलाई जा रही मुफ्त योजनाओं, लोकलुभावन घोषणाओं, अत्यधिक सब्सिडी देने एवं पुरानी पेंशन योजना बहाली से इन राज्यों की वित्तीय सेहत बहुत बुरी तरह से बिगड़ रही है। राज्य, विशेष रूप से सत्ता प्राप्त करने के उद्देश्य से, कई लोकलुभावन घोषणाएं करते हैं जैसे कि बिजली एवं पानी मुफ्त में उपलब्ध कराने का वादा, उर्वरकों पर सब्सिडी प्रदान करने का वादा आदि जिसका सीधा असर राज्य की माली हालत पर पड़ता है। पंजाब की आर्थिक स्थिति पूर्व में ही बहुत गम्भीर अवस्था में पहुंच चुकी है फिर वहां नई सरकार ने किए गए चुनावी वादे अर्थात मुफ्त बिजली उपलब्ध कराने के अपने वादे पर कार्य करना शुरू कर दिया है जिससे पंजाब की स्थिति निश्चित रूप से और अधिक बिगड़ने जा रही है और पंजाब को ऋण की किश्त एवं ऋणों पर ब्याज अदा करने हेतु भी ऋण लेना पड़ रहा है।
किन परिस्थितियों में, कितने प्रकार की, कितनी और किस स्तर तक लोक लुभावन घोषणाएं की जानी चाहिए, इस सम्बंध में अब नियम बनाने का समय आ गया है। वैसे यदि ऋण को उत्पादक कार्यों पर खर्च किया जाये तो अधिक ऋण-सकल घरेलू अनुपात अपने आप में बुराई नहीं है परंतु जब ऋण लेकर इसे अनुत्पादक कार्यों जैसे मुफ्त बिजली एवं मुफ्त पानी उपलब्ध कराने जैसे कार्यों पर खर्च किया जाता है तो इसका राज्य की आर्थिक व्यवस्था पर बहुत ही बुरा असर पड़ता है। चुनावों के वादे पूरे करने के लिए राज्यों द्वारा ऋण लिए जा रहे हैं। इन्हीं कारणों के चलते पंजाब की आर्थिक हालत आज बहुत ही दयनीय स्थिति में पहुंच गई हैं। देश के कई राज्य आज ऐसी स्थिति में पहुंच गए हैं कि इन राज्यों को केंद्र सरकार द्वारा आर्थिक मदद यदि समय पर नहीं पहुंचाई जाती तो इन राज्यों की स्थिति भी श्रीलंका अथवा ग्रीक जैसी बनती दिखाई देती।
आज अकेले पंजाब का ऋण-सकल घरेलू उत्पाद अनुपात 50 प्रतिशत के आसपास हो गया है। जो देश के समस्त राज्यों में सबसे अधिक है। पंजाब का वित्तीय घाटा भी सबसे अधिक है। पंजाब एवं कुछ अन्य राज्य आज अपने सामान्य कार्य चलाने के लिए भी ऋण ले रहे हैं। कुछ राज्यों की स्थिति तो यह है कि इनके रोजमर्रा के खर्चे चलाने के लिए उनकी कुल आय का 90 प्रतिशत भाग इन खर्चों पर उपयोग हो जाता है जिसके परिणाम स्वरूप राज्य के विकास कार्यों पर खर्च करने को कुछ बचता ही नहीं है। अब इन राज्यों की आय कैसे बढ़े। इन राज्यों द्वारा लगातार की जा रही लोक लुभावन घोषणाओं के कारण इन राज्यों के खर्चे लगातार अनियंत्रित रूप से बढ़ते जा रहे हैं। इस तरह के खर्चों को करने के लिए नित नए ऋण लिए जा रहे हैं और इन ऋण राशि का उपयोग उत्पादक कार्यों में नहीं लगा पाने के कारण ये राज्य अपनी आय में वृद्धि भी नहीं कर पा रहे हैं। इस प्रकार ये राज्य “डेट ट्रैप” की स्थिति में फंसते जा रहे हैं। आय का 25 से 30 प्रतिशत भाग ऋण का ब्याज भुगतान करने में ही खर्च हो रहा है। पंजाब तो अब आर्थिक मदद के लिए केंद्र सरकार से लगातार गुहार लगा रहा है। इसी तरह राजस्थान, केरल, पश्चिम बंगाल एवं बिहार की स्थिति भी बिगड़ रही है। अगर राज्य पूंजीगत खर्च नहीं कर रहे हैं तो अपना भविष्य अंधकारमय बना रहे हैं। इस प्रकार तो भविष्य में इन राज्यों की विकास दर भी रुक जाने वाली है।
राजस्थान राज्य की स्थिति भी तेजी से बिगड़ रही है। क्योंकि यह राज्य भी मुफ्त सुविधाएं प्रदान करने की घोषणाएं करता जा रहा है। राज्य इस मामले में एक दूसरे से प्रतिस्पर्धा करते दिखाई दे रहे हैं। राजस्थान, केरल और पश्चिम बंगाल के लिए ऋण-सकल घरेल उत्पाद अनुपात 35 प्रतिशत के आसपास पहुंच गया है। कर्ज से सबसे ज्यादा बोझ वाले राज्य हैं- पंजाब, राजस्थान, केरल, पश्चिम बंगाल, बिहार, आंध्र प्रदेश, झारखंड, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश और हरियाणा। इन 10 राज्यों की देश के सभी राज्यों के कुल खर्च में आधी हिस्सेदारी है। इन राज्यों के सरकारी उपक्रमों की स्थिति बहुत दयनीय हो गई है एवं इन राज्य सरकारों के पास पैसा नहीं है कि इन उपक्रमों की मदद कर सकें। आय बढ़ाने का कोई प्रयास नहीं किया जा रहा है बल्कि केवल खर्चे ही बढ़ाए जा रहे हैं।
सभी राज्यों की आर्थिक स्थिति खराब है ऐसा नहीं है। देश में कुछ राज्यों में बहुत अच्छा विकास हो रहा है और इनकी आय भी तेजी से बढ़ रही है जिससे इनकी आर्थिक स्थिति नियंत्रण में है। इन राज्यों में शामिल हैं गुजरात, महाराष्ट्र, कर्नाटक, ओड़िसा एवं दिल्ली। दरअसल राज्यों द्वारा गरीब से गरीब व्यक्तियों की आय बढ़ाए जाने के प्रयास किए जाने चाहिए एवं सहायता की राशि उनके खातों में सीधे ही हस्तांतरित की जानी चाहिए। सहायता की राशि केवल चिन्हित व्यक्तियों को ही प्रदान की जानी चाहिए न कि राज्य की पूरी जनता को उपलब्ध करायी जाये। जैसा कि बिजली माफी योजना के अंतर्गत किया जा रहा है। राज्य के समस्त परिवारों को 330 यूनिट बिजली मुफ़्त में उपलब्ध कराए जाने के प्रयास हो रहे हैं।
विभिन्न राज्यों के वित्तीय घाटे की स्थिति एवं प्रवृत्ति पर गम्भीरता पूर्वक विचार कर इस पर रोक लगने का समय अब आ गया है। उत्पादक कार्यों पर सब्सिडी दी जाये तो ठीक है परंतु यदि यह लोक लुभावन वायदों को पूरा करने पर दी जा रही है तो इन पर अब अंकुश लगाया जाना चाहिए। केंद्र सरकार द्वारा आगे बढ़कर इस सम्बंध में कुछ नियम जरूर बनाए जाने चाहिए। यदि इन राज्यों की वित्तीय स्थिति लोक लुभावन घोषणाओं को पूरा करने की नहीं है तो, इस प्रकार की घोषणाएं चिन्हित राज्यों द्वारा नहीं की जानी चाहिए, ऐसे नियम बनाए जाने चाहिएं। यदि राज्य की आर्थिक हालत बिगड़ रही है तो इसका खामियाजा भी अंततः उस प्रदेश की जनता को ही भुगतना पड़ता है। यह राज्य शिक्षा, स्वास्थ्य सेवाओं, आदि मदों पर होने वाले खर्च में कटौती करते हैं, जो राज्य के आर्थिक विकास एवं भविष्य में आने वाली पीढ़ी के लिए ठीक नहीं है। राज्य में आर्थिक विकास की गति कम होने से इन राज्यों में रोजगार के अधिक अवसर भी निर्मित नहीं हो पा रहे हैं।
-प्रह्लाद सबनानी
सेवानिवृत्त उप महाप्रबंधक
भारतीय स्टेट बैंक
कर्ज के जाल में फंसा श्रीलंका इस समय अराजकता के दौर से गुजर रहा है। वहां संकट के समय राष्ट्रपति गोटाबाया राजपक्षे अपनी जान बचाने के लिए देश छोड़कर भाग गये। इसके साथ ही गोटाबाया राजपक्षे का नाम उन कुछ राष्ट्राध्यक्षों और शासकों की सूची में शुमार हो गया है जो मुश्किल दौर में अपने देश को बेहाली की स्थिति में छोड़कर भागे हैं। अभी पिछले साल ही दुनिया ने देखा था कि अमेरिकी सैनिकों की वापसी के बाद जब तालिबानी लड़ाके काबुल की ओर बढ़ रहे थे तो कैसे रातोंरात राष्ट्रपति अशरफ गनी अफगानिस्तान छोड़कर भाग खड़े हुए थे। ऐसे ही उदाहरण पाकिस्तान में भी अक्सर देखने को मिलते हैं जब वहां सत्ता में बदलाव होने पर राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री देश छोड़कर चले जाते हैं। देखा जाये तो एक ओर गोटाबाया राजपक्षे और अशरफ गनी जैसे शासक हैं जो संकट के समय सिर्फ अपनी जान और माल की परवाह करते हैं तो दूसरी ओर यूक्रेन के राष्ट्रपति वोलोडिमिर जेलेंस्की हैं जोकि रूस की ओर से महीनों पहले छेड़े गये युद्ध का डटकर सामना कर रहे हैं।
विश्व इतिहास में ऐसे अनेकों उदाहरण देखने को मिल जायेंगे जिसमें जनता के हितों की परवाह नहीं करने वाले, लोकतंत्र को नुकसान पहुंचाने वाले और खुद को ही सर्वशक्तिमान समझने वाले नेताओं को जनता ने एक दिन सबक सिखाया है। ऐसे देशों में जब-जब सत्ता में बदलाव हुए हैं तब-तब निरंकुश शासकों को जेल, निर्वासन या मृत्युदंड भोगना पड़ा है। बहरहाल, अब अशरफ गनी या गोटाबाया राजपक्षे चाहे जितना भी धन लेकर भागे हों उससे हो सकता है कि उनका जीवन भर गुजारा हो जाये लेकिन विश्व इतिहास में उनका नाम ऐसे भगोड़े शासकों के रूप में लिखा जायेगा जो अपनी जनता को लूट कर और उनको मुश्किलों में छोड़कर भागे हैं। सवाल यह भी उठता है कि यह नेता दूसरे देश में दोयम दर्जे के नागरिक बनकर जब रहेंगे तो कैसे सिर उठाकर चल पायेंगे?
-नीरज कुमार दुबे