ईश्वर दुबे
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Bhilai
अफगानिस्तान पर कब्जा करने के बाद से वैसे तो तालिबान महिलाओं के खिलाफ कई आदेश जारी कर चुका है लेकिन अब उसने जो हालिया आदेश जारी किया है उसके चलते अफगानिस्तान में महिला टीवी एंकरों को कार्यक्रम के प्रसारण के दौरान अपना चेहरा ढकने पर मजबूर होना पड़ा है।
अफगानिस्तान में महिलाओं की स्थिति दिन पर दिन दयनीय होती जा रही है। तालिबान सरकार एक के बाद एक ऐसे हुक्म जारी कर रही है जिससे महिलाओं के सपनों, उनकी उम्मीदों, उनके अधिकारों पर तो चोट पहुँच ही रही है साथ ही अफगानिस्तान के पुनर्निर्माण में महिलाओं की भूमिका भी पूरी तरह खत्म होती जा रही है। दुनिया में अफगानिस्तान के अलावा शायद ही इस समय कोई ऐसा देश होगा जो अपनी ही आधी आबादी की खुशियों को कुचल देने पर आमादा होगा।
15 अगस्त 2021 को अफगानिस्तान पर कब्जा करने के बाद से वैसे तो तालिबान महिलाओं के खिलाफ कई आदेश जारी कर चुका है लेकिन अब उसने जो हालिया आदेश जारी किया है उसके चलते अफगानिस्तान में महिला टीवी एंकरों को कार्यक्रम के प्रसारण के दौरान अपना चेहरा ढकने पर मजबूर होना पड़ा है। अफगानिस्तान के सबसे बड़े मीडिया संस्थान ‘टोलो न्यूज’ चैनल के एक ट्वीट के मुताबिक तालिबान के आचरण और नैतिकता मंत्रालय और सूचना एवं संस्कृति मंत्रालय के बयानों में यह आदेश जारी किया गया है। तालिबान सरकार के बयान में कहा गया है कि यह आदेश ‘‘अंतिम’’ है और इसमें ‘‘कोई बदलाव नहीं किया जा सकता।’’
तालिबान सरकार के इस आदेश के बाद से अफगान मीडिया में हड़कंप है क्योंकि एकतरफा जारी किये गये इस आदेश में चर्चा की कोई गुंजाइश नहीं रखी गयी है। इसलिए अब अफगान टीवी चैनलों के समक्ष कोई विकल्प नहीं बचा होने के चलते वहां महिला टीवी एंकरों ने अपने चेहरे ढक लिये हैं। तालिबान सरकार के इस आदेश के बाद कई महिला टीवी कार्यक्रम प्रस्तोताओं ने सोशल मीडिया पर अपनी तस्वीरें साझा कीं हैं जिनमें वे कार्यक्रम प्रस्तुत करने के दौरान अपने चेहरे को मास्क से ढके हुए दिख रही हैं। ‘टोलो न्यूज’ की एक प्रमुख प्रस्तोता यल्दा अली ने चेहरे पर मास्क पहनते हुए अपना एक वीडियो पोस्ट किया और इसका शीर्षक लिखा, ‘‘आचरण एवं नैतिकता मंत्रालय के आदेश पर एक महिला को मिटाया जा रहा है।’’
हम आपको याद दिला दें कि तालिबान जब 1996 से 2001 तक सत्ता में रहा था, तो उसने महिलाओं पर कई तरह के प्रतिबंध लगाए थे। तालिबान अफगानिस्तान में पिछले साल अगस्त में फिर से सत्ता पर काबिज होने के बाद शुरुआत में महिलाओं पर प्रतिबंधों को लेकर थोड़ा नरम रुख अपनाते प्रतीत हुआ था, लेकिन हालिया सप्ताहों में उसने फिर से प्रतिबंध कड़े करने शुरू कर दिए हैं। तालिबान ने इस महीने की शुरुआत में ही महिलाओं को सार्वजनिक स्थानों पर सिर से लेकर पैर तक बुर्के में ढके रहने का आदेश दिया था। तालिबान के आदेश के मुताबिक, सार्वजनिक स्थानों पर महिलाओं की केवल आंखें दिख सकती हैं।
देखा जाये तो कुल मिलाकर तालिबान सरकार का प्रयास है कि सार्वजनिक जीवन में महिलाओं की भूमिका को पूरी तरह खत्म किया जाये। तालिबान का मानना है कि शिक्षित महिला अपने अधिकारों के प्रति जागरूक होती है इसलिए उसे शिक्षित होने से रोका जाये। इसके लिए तालिबान ने अफगानिस्तान पर कब्जा करते ही स्कूल, कॉलेजों में लड़कियों के जाने पर रोक लगाई और उसके बाद नौकरीपेशा महिलाओं को घर बैठने के लिए कहा गया। फिर टीवी कार्यक्रमों में महिलाओं को दिखाये जाने पर रोक लगा दी, फिर महिलाओं के ब्यूटी पार्लर बंद करवा दिये, फिर महिलाओं के अकेले कहीं आने-जाने या घूमने पर रोक लगा दी, फिर बच्चियों को बगैर हिजाब के स्कूल जाने पर मनाही कर दी, फिर लड़कियों के खेलों में भाग लेने पर रोक लगा दी, फिर लड़के और लड़कियों के एक साथ शिक्षा हासिल करने पर रोक लगाते हुए तीन दिन कॉलेज लड़कों के लिए और बाकी तीन दिन लड़कियों के लिए खोले जाने का फरमान सुना दिया। इसके बाद तालिबान सरकार ने अपनी आलोचक महिलाओं को नॉटी बताते हुए उन्हें घर पर ही रहने की सख्त हिदायत दे डाली। इसके बाद तालिबान ने महिलाओं के कॉफी शॉप में जाने और हमाम को इस्तेमाल करने पर रोक लगा दी। उसके बाद तालिबान सरकार ने आदेश जारी कर दिया कि सार्वजनिक स्थानों पर महिलाएं बुर्के से पूरी तरह ढकी होनी चाहिएं और अब टीवी एंकरों के चेहरे भी ढकवा दिये।
जो हालात दिख रहे हैं उसके मुताबिक अफगानिस्तान में महिलाएं इस समय सबसे कठिन दौर से गुजर रही हैं क्योंकि अपने जीवन के बारे में निर्णय लेने का उनको कोई अधिकार नहीं रह गया है। उन्हें क्या पहनना है, कैसे रहना है, कहां जाना है, क्या काम करना है...आदि बातें अब खुद तय करने का हक नहीं है। एक बार फिर से वही दौर लौट आया है जब तालिबान लड़ाके कभी भी महिलाओं को उठा ले जाते हैं, उनसे जबरन निकाह करते हैं या बलात्कार करके छोड़ देते हैं और आवाज उठाने को गुनाह मानते हैं। महिलाएं यदि हिम्मत करके आवाज उठाने को आगे भी आयें तो उन्हें गोलियों से भून देने की धमकी दी जाती है जिसके चलते वह चुप हो जाती हैं। तालिबान ने महिलाओं के बारे में जितने भी फरमान निकाले हैं यदि उनका पालन नहीं होता तो उनके घर वालों को भी सजा दी जाती है इसीलिए महिलाएं डर और मजबूरी के चलते तालिबानियों के अनर्गल फरमानों को मानने के लिए मजबूर हैं। हाल ही में एक रिपोर्ट भी सामने आई थी जिसमें बताया गया कि तालिबानी लड़ाके कपड़ों की दुकानों में जाकर जांचते हैं कि महिलाओं को क्या बेचा जा रहा है। यही नहीं दर्जियों को भी हिदायत दी जाती है कि महिलाओं के कपड़े बड़े होने चाहिए ताकि उनके शरीर का कोई अंग बाहर नहीं दिख सके।
यही नहीं, तालिबान शासन सिर्फ महिलाओं पर ही जुल्म नहीं कर रहा बल्कि उसने अफगानी जनता के मानवाधिकारों को भी एक तरह से अपने कब्जे में लेते हुए अफगानिस्तान के मानवाधिकार आयोग को भी खत्म कर दिया। इस बारे में तालिबान सरकार के उप प्रवक्ता इन्नामुल्लाह समांगानी ने कहा कि ये विभाग आवश्यक नहीं है और बजट भी कम है इसलिए इसे खत्म कर दिया गया है। देखा जाये तो तालिबान सरकार की बात भी सही है क्योंकि जब अफगानिस्तान में किसी का मानवाधिकार ही नहीं है तो यह आयोग करता भी क्या?
बहरहाल, अफगानिस्तान में महिलाएं जो कष्ट झेल रही हैं उनसे सिर्फ और सिर्फ ईश्वर ही बचा सकता है क्योंकि संयुक्त राष्ट्र से या किसी अन्य देश से किसी प्रकार की मदद की उम्मीद करना बेमानी होगा। अमेरिका के अफगानिस्तान छोड़कर भागने के समय जब वहां बड़ा मानवीय संकट देखने को मिल रहा था तब भी आम अफगानियों को पूरी दुनिया ने सिर्फ भाग्य के भरोसे ही छोड़ दिया था।
- नीरज कुमार दुबे
बात लखनऊवासियों की आस्था के प्रतीक लक्ष्मण टीला की कि जाए तो अब ‘लक्ष्मण टीला’ का नाम इतिहास के पन्नों में सिमट चुका है। यह स्थान अब ‘टीले वाली मस्जिद’ के नाम से जाना जाता है। यह कहना गलत नहीं होगा कि लखनऊ की संस्कृति पर यह जबरदस्ती थोपा गया है।
आजादी के बाद कांग्रेस ने कई दशक तक देश पर राज किया, लेकिन उसने इस बात की कभी कोशिश नहीं की कि हिन्दुओं के तीन सबसे बड़े धार्मिक स्थलों- अयोध्या में प्रभु श्रीराम और मथुरा में भगवान श्रीकृष्ण की जन्मस्थली और वाराणसी में बाबा भोलेनाथ के शिवलिंग स्थान को लेकर मुगलकाल से चले आ रहे विवाद को सुलझा दिया जाए। हिन्दुओं की आस्था के प्रतीक इन तीनों धार्मिक स्थलों के बड़े भाग पर मुगलकाल में कब्जा कर वहां मस्जिद बना दी गई थी। इसके अलावा आगरा में ताजमहल और जौनपुर में अटाला मस्जिद एवं लखनऊ में लक्ष्मण टीले पर मस्जिद बनाए जाने का विवाद भी सदियों से सुर्खियां बटोर रहा है। जौनपुर में अटाला मस्जिद को लेकर इतिहासकार बताते हैं कि यहां अटल देवी की मंदिर को तोड़कर अटाला मस्जिद बना दी गई है। नगर के सिपाह मोहल्ले में गोमती किनारे स्थित यह मस्जिद पूरे भारतभर में अपनी सुंदरता के लिए प्रसिद्ध है। वहीं लखनऊ के लक्ष्मण टीला पर भी मुगलकाल में औरंगजेब ने कब्जा करके वहां मस्जिद बनवा दी थी।
हिन्दुओं को अपने देवी-देवताओं की जन्मस्थली और धार्मिक स्थलों पर कब्जा पाने के लिए क्यों सदियों तक भटकना पड़ा, यहां तक की देश के आजाद होने के बाद भी हिन्दुओं की आस्था से खिलवाड़ किया जाता रहा तो इसकी जड़ में तुष्टिकरण की सियासत और उस समय की कांग्रेस के नेतृत्व का मुसलमानों के प्रति मोह था। भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू तो यहां तक कहा करते थे, “मैं शिक्षा से अंग्रेज, संस्कृति से मुस्लिम और जन्म से हिंदू हूँ”। हालांकि इस बयान की प्रमाणिकता को लेकर अक्सर सवाल खड़े किए जाते रहे हैं। इसी तरह से कांग्रेस नेता और पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के उस बयान को कौन भूल सकता है जिसमें उन्होंने कहा था कि देश के संसाधनों पर पहला हक मुसलमानों का है। कांग्रेस के एक और प्रधानमंत्री स्वर्गीय राजीव गांधी ने तो एक मुस्लिम महिला को उसके पति से मुआवजा दिलाए जाने के सुपीम कोर्ट आदेश को कठमुल्लाओं को खुश करने के लिए कानून बनाकर पलट दिया था। कांग्रेस की अध्यक्षा सोनिया गांधी आतंकवादियों के मारे जाने पर रोने लगती थीं, तो गांधी परिवार के एक ‘चिराग’ राहुल गांधी तो विदेश में जाकर कहते फिरते थे कि भारत को आतंकवादियों से नहीं हिन्दुओं से खतरा है।
हिन्दुओं पर तमाम हुकूमतों ने इसलिए अत्याचार किया क्योंकि उन्हें धर्म-जाति के नाम पर बांट दिया गया था। वहीं मुसलमानों को वोट बैंक की सियासत के चलते एकजुट रखा गया था। कांग्रेस जब कमजोर पड़ने लगी तो मुलायम और लालू यादव जैसे नेता मुसलमानों के पैरोकार बन गए। उनकी हर सही-गलत बात मानते रहे। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री मुलायम सरकार द्वारा अयोध्या में कारसेवकों पर गोली चलाना और फिर उसका ढिंढोरा पीटना, बिहार के मुख्यमंत्री लालू यादव द्वारा मुसलमान वोटरों को खुश करने के लिए बीजेपी के दिग्गज नेता लालकृष्ण आडवाणी की रथ यात्रा को तब रोकना जब 25 सितंबर 1990 को आडवाणी ने गुजरात के सोमनाथ मंदिर में पूजा कर अपनी रथयात्रा की शुरुआत की थी। इस रथयात्रा का मकसद राम मंदिर निर्माण के लिए समर्थन जुटाना था। लालकृष्ण आडवाणी सोमनाथ से रथ यात्रा लेकर अयोध्या के लिए निकले। इस रथ यात्रा को राम भक्तों का भरपूर जन समर्थन मिल रहा था। हालांकि, यह रथ यात्रा पूरी नहीं हो पाई। बिहार में लालकृष्ण आडवाणी को गिरफ्तार कर लिया गया। इसी प्रकार बीजेपी नेता प्रेम शुक्ला का आरोप है कि 2004 में मुसलमानों को खुश करने के लिए तुष्टिकरण की राजनीति के तहत मुलायम सरकार ने श्रृंगार गौरी मंदिर में पूजा को रोकने का काम किया गया था, जिसे बहाल करने की मांग लगातार हिंदू पक्ष कर रहा है। उन्होंने कहा कि 1992 में बाबरी विध्वंस के दौरान भी मंदिर में पूजा नहीं रुकी थी। बीजेपी नेता प्रेम शुक्ला ने कहा, “1996 में महाशिवरात्री के दिन मैंने खुद श्रृंगार गौरी मंदिर में अभिषेक किया था और तब वहां 365 दिन अभिषेक होता था। उन्होंने कहा कि यूपी के तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव की सरकार ने प्लेस आफ वर्शिप एक्ट 1991 का उल्लंघन किया था। मुलायम राज में ही लखनऊवासियों की आस्था के प्रतीक लक्ष्मण टीले का नाम बदल कर वहां बनी एक मस्जिद के नाम पर टीले वाली मस्जिद कर दिया गया।
इसी तरह के तमाम सियासी षड़यंत्र अब धीरे-धीरे बेपर्दा हो रहे है। भले ही कोई इसे उकसावे की राजनीति समझे, हकीकत यही है कि यदि हिन्दुओं के धार्मिक स्थलों पर किसी धर्म विशेष के लोगों ने बलपूर्वक कब्जा कर लिया था, उसको यदि हिन्दू पक्ष वापस हासिल करना चाहता है, वह भी बलपूर्वक नहीं, न्यायिक प्रक्रिया से तो, इस पर किसी को आपत्ति नहीं होनी चाहिए। यदि किसी को लगता है कि हिन्दुओं को उनका हक दिलाने की किसी कोशिश से देश में वैमनस्यता और नफरत फैल रही है तो यह उसकी अपनी सोच हो सकती है। बल्कि इसके उलट वैमनस्यता और नफरत तो वह फैला रहे हैं जो लोकतांत्रिक तरीके से चुनी गई सरकार द्वारा बनाए गए कानून और अदालत के फैसले पर प्रश्नचिन्ह लगाते हैं, जो कोर्ट की अवमानना तो है ही देश विरोधी कृत्य भी है। आश्चर्य होता है कि दो समुदायों (हिन्दू-मुसलमानों) के बीच सदियों से लड़ाई-झगड़े की वजह रहे अयोध्या के रामजन्म भूमि विवाद पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला हो या फिर कोर्ट के आदेश पर वाराणसी की ज्ञानवापी मस्जिद का सर्वे अथवा मुस्लिम महिलाओं के हितों से जुड़ा तीन तलाक, हिजाब, तलाकशुदा महिलाओं को मुआवजा देने का मामला हो, अदालत के प्रत्येक फैसले पर मुसलमानों का एक बड़ा धड़ा हायतौबा मचाने लगता है। यह वह धड़ा है जो एक तरफ हिन्दुओं के खिलाफ उग्र रहता है तो दूसरी ओर इस्लाम का लबादा ओढ़कर कुरान के पैगाम से अधिक शरीयत को महत्व देता है। मुसलमानों को कुरान की शिक्षा देने वाले मुल्ला-मौलवी अपनी कौम को यह नहीं बताते हैं कि किसी विवादित जगह पर पढ़ी गई नमाज अल्लाह को कबूल नहीं होती है।
सबसे अधिक आश्चर्य तब होता है जब एक तरफ ज्ञानवापी मस्जिद के पैरोकार यह कहते हैं कि किसी मंदिर को तोड़कर ज्ञानवापी मस्जिद नहीं बनाई गई है तो दूसरे ही पल यह लोग कहने लगते हैं कि ज्ञानवापी मस्जिद पर हिन्दुओं की दावेदारी प्लेस ऑफ वर्शिप एक्ट 1991 का उल्लंघन है। बताते चलें कि यह एक्ट 1991 में कांग्रेस सरकार के प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा की ओर से लाया गया था। उस दौरान देश में राम जन्मभूमि के लिए आंदोलन चरम पर था, जिस कारण देश में सांप्रदायिक तनाव काफी बढ़ गया था। हालांकि इस अधिनियम से रामजन्म भूमि विवाद को अलग रखा गया था जिसकी सुनवाई कोर्ट में चल रही थी। खैर, प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा की चर्चा 1991 में वर्शिप अधिनियम लाने से अधिक इस बात पर होती है कि उन्होंने 1992 में जब कारसेवकों ने विवादित ढांचा गिरा दिया था, तब तत्कालीन उन्होंने इस पर दुख जताते हुए यहां तक घोषणा कर दी थी कि उनकी सरकार दोबारा से बाबरी मस्जिद बनवाएगी, जबकि कारेसेवकों ने जिस ढांचे को तोड़ा था उसे एक पक्षकार मस्जिद मानता ही नहीं था।
आश्चर्य होता है कि एक तरफ ओवैसी जैसे कट्टरपंथी नेता अदालतों के फैसलों पर संशय का माहौल बनाते हैं, वहीं जब उन्हीं की नाक के नीचे हैदराबाद में एक दलित युवक को इस लिए मौत के घाट उतार दिया जाता है क्योंकि उसने एक मुस्लिम से शादी की थी, तब वह कहने लगते हैं कि हिन्दू लड़के की मुस्लिम लड़के से शादी इस्लाम के खिलाफ है। इस्लाम ऐसी शादियों को मान्यता नहीं देता है, लेकिन जब बात लव जेहाद की आती है तो इसे वह मुसलमानों को बदनाम करने की साजिश करार दे देते हैं और कहते हैं प्यार में धर्म आड़े नहीं आना चाहिए। इसी तरह से ओवैसी ताजमहल पर भी मुसलमानों की दावेदारी रखते हैं, लेकिन किसी को यह नहीं बताते हैं कि ताजमहल जैसी नायाब इमारत बनाने वालों के हाथ मुगल शासक ने सिर्फ इसलिए कटवा दिए थे कि वह कारीगर ताजमहल जैसी दूसरी इमारत नहीं बना सकें।
बहरहाल, अयोध्या का विवाद सुलझ चुका है और ज्ञानवापी मस्जिद और मथुरा में श्रीकृष्ण भगवान की जन्मस्थली का विवाद कोर्ट में है। ताजमहल का विवाद भी कोर्ट में गया था, लेकिन उसे कोर्ट ने सुनने से ही इंकार कर दिया। वहीं जौनपुर में अटल देवी मंदिर जिस पर कब्जा करके वहां अटाला मस्जिद बना दी गई है और लखनऊ का लक्ष्मण टीला, जिसे टीले वाली मस्जिद का नाम दे दिया गया, उसकी लड़ाई भी अभी बाकी बताई जाती है। जौनपुर के अटाला मस्जिद विवाद की तह में जाने पर पता चलता है कि नगर के सिपाह मोहल्ले में गोमती किनारे स्थित यह मस्जिद कभी पूरे भारत में अटल देवी मंदिर की सुंदरता के लिए प्रसिद्ध थी। जौनपुर जिले की इतिहास पर लिखी त्रिपुरारि भास्कर की पुस्तक जौनपुर का इतिहास में अटाला मस्जिद के बारे में भी लिखा गया है। अटाला मस्जिद के संबंध पर बताया जाता है कि यहां पहले अटल देवी का मंदिर था। अभी जौनपुर के मोहल्ला सिपाह के पास गोमती नदी किनारे अटल देवी का विशाल घाट है। इस मंदिर का निर्माण कन्नौज के राजा विजयचंद्र ने कराया था और इसकी देखरेख जफराबाद के गहरवार लोग किया करते थे। कहा जाता है कि इस मंदिर को पहली बार गिरा देने का हुक्म फिरोज शाह ने दिया था, परंतु हिंदुओं ने बहादुरी से इसका विरोध किया, जिसके कारण समझौता होने पर उसे उसी प्रकार रहने दिया गया था। बाद में 1364 ई. में ख्वाजा कमाल खां ने इसे मस्जिद का रूप देना प्रारंभ किया और 1408 में इसे इब्राहिम शाह ने पूरा किया। इसके विशाल लेखों से पता चलता है कि इसके पत्थर काटने वाले राजगीर हिंदू थे जिन्होंने इस पर हिंदू शैली के नमूने तराशे हैं। कहीं-कहीं पर कमल का पुष्प उत्कीर्ण है। यह कथित मस्जिद जौनपुर की शिल्पकला का एक अति सुंदर नमूना है। इसके मध्य के कमरे का घेरा करीब 30 फीट है यह एक विशाल गुंबद से घिरी है जिसकी कला, सजावट और बनावट मिस्र शैली के मंदिरों की भांति है।
बात लखनऊवासियों की आस्था के प्रतीक लक्ष्मण टीला की कि जाए तो अब ‘लक्ष्मण टीला’ का नाम इतिहास के पन्नों में सिमट चुका है। यह स्थान अब ‘टीले वाली मस्जिद’ के नाम से जाना जाता है। यह कहना गलत नहीं होगा कि लखनऊ की संस्कृति पर यह जबरदस्ती थोपा गया है। यह दावा लखनऊ का इतिहास लिखने वाले तमाम इतिहासकार करते रहे हैं। पूर्व बीजेपी सांसद लालजी टंडन (अब दिवंगत) ने अपनी किताब ‘अनकहा लखनऊ’ में भी इसका जिक्र किया है। लक्ष्मण टीले पर मुगल शासकों की नजर हमेशा टेढ़ी रही। इसीलिए कई मुगल शासकों द्वारा बार-बार लक्ष्मण टीला ध्वस्त करने की कार्रवाई की गई। बाद में सिर्फ लक्ष्मण टीला नाम ही बचा रह गया था। कहते हैं बाद में औरंगजेब ने यहां पर मस्जिद बनवा दी, जबकि 1857 के पहले के लखनऊ के एक भी नक्शे में इस मस्जिद का कोई जिक्र नहीं मिलता है। कहा तो यह भी जाता है कि 1857 की क्रांति के बाद यहां बनी ‘गुलाबी मस्जिद’ पर अंग्रेज अफसर घोड़े बांधने लगे। बाद में राजा जंहागीराबाद की गुहार पर अंग्रेजों ने मस्जिद को खाली किया, लेकिन हर दौर में इसका नाम लक्ष्मण टीला बना रहा। टंडन जी का आरोप था कि समाजवादी पार्टी की मुलायम सरकार में गुलाबी मस्जिद का नाम बदलकर टीले वाली मस्जिद करके लक्ष्मण टीला के वजूद को ही नकार दिया गया। इतिहासकार स्वर्गीय योगेश प्रवीन ने तो यहां तक कहा था कि लक्ष्मण टीले का मामला भी ठीक बाबरी मस्जिद जैसा ही है, अधिकतर मुगलकालीन इमारतें या मस्जिदें पुरानी इमारतों को तोड़कर ही बनाए गए हैं, लेकिन इस सबके बीच लक्ष्मण टीले पर गुफा की कहानी बिल्कुल गायब हो गई।
वैसे टंडन जी अकेले ऐसे नहीं थे, कई इतिहासकार यहां तक कि आम जनता भी इस बात से इत्तेफाक रखती है। लखनऊ की संस्कृति के साथ यह जबरदस्ती की गई है। लखनऊ के पौराणिक इतिहास को नकार कर नवाबी कल्चर में ढालने के लिए ऐसा किया गया है। लक्ष्मण टीले पर शेष गुफा थी, जहां बड़ा मेला लगता था। टीले पर लक्ष्मण जी का एक छोटा-सा मंदिर भी था। खिलजी के वक्त यह गुफा ध्वस्त की गई और उसके बाद यह जगह टीले में तब्दील कर दी गई। औरंगजेब ने बाद में यहां एक मस्जिद बनवा दी, जिसे टीले वाली मस्जिद के नाम से जाना जाने लगा। तब हिन्दू पक्ष ने इसका बेहद जोरदार तरीके से विरोध भी किया था, लेकिन मुगल शासन के दौरान उनकी एक नहीं सुनी गई और उनकी आवाज जोर-जुल्म से दबा दी गई थी। यह सब इतिहास में दर्ज है, लेकिन यहां भी कठमुल्ले इसे मानने को तैयार नहीं हैं।
-अजय कुमार
प्रधानमंत्री का लुंबिनी में स्वागत वास्तव में बहुत अभूतपूर्व रहा। जब वह मायादेवी मंदिर में पूजा अर्चना के बाद बाहर निकले तो लोग उनको देखने और उनसे मिलने के लिए आतुर हो रहे थे। सड़क के दोनों ओर खड़े लोग भारत माता की जय की नारे लगा रहे थे।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बुद्ध पूर्णिमा के अवसर पर नेपाल की यात्रा की, यह यात्रा ऐसे समय में हुई है जब विश्व का बहुत बड़ा हिस्सा युद्ध और हिंसा के वातावरण के दौर से गुजर रहा है। विश्व के कई देश कोविड महामारी के बाद आंतरिक अशांति से गुजर रहे हैं तथा पूरा विश्व समुदाय भारत की ओर आशा की दृष्टि से देख रहा है। इसके अतिरिक्त ये ऐसा समय है जब नेपाल में बहुत दिनों के बाद भारत का समर्थन करने वाली सरकार बनी है।
ज्ञातव्य है कि प्रधानमंत्री शेर बहादुर देउबा के पहले वाली सरकार पर चीन का प्रभुत्व था और चीन की शह पर नेपाल भारत के खिलाफ चल पड़ा था यहाँ तक कि उसने भारत के कुछ हिस्सों पर अपना दावा भी पेश करना शुरू कर दिया था जिसके कारण नेपाल और भारत सरकार के बीच सम्बन्धों की मधुरता समाप्त प्राय हो गयी थी। इसी बीच नेपाल में आंतरिक राजनैतिक उठापटक हुई और शेर बहादुर देउबा वहां के नए प्रधानमंत्री बने जिसके बाद अब एक बार फिर भारत और नेपाल के बीच सकारात्मक वातावरण बना है।
बुद्ध पूर्णिमा के दिन नेपाल पहुंचकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लुम्बिनी स्थित माया देवी मंदिर में पूजा अर्चना की और विश्व शांति का वरदान मांगा। प्रधानमंत्री ने वहां अशोक स्तम्भ के भी दर्शन किये और दीप जलाये। इस अवसर पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जिस प्रकार से लुम्बिनी में नेपाल की जनता को संबोधित किया वह एक बहुत ही सुखद व सकारात्मक संदेश दे रहा था और वह संबोधन कई मायने में ऐतिहासिक कहा जायेगा क्योंकि उसमें चीन सहित उन सभी लोगों को संदेश दिया गया जो यह समझ रहे थे कि नेपाल और भारत के बीच अब खाई इतनी गहरी हो गयी है कि उसे भर पाना बहुत ही मुश्किल है।
प्रधानमंत्री ने धर्म, आस्था, संस्कृति के समागम के साथ भारत-नेपाल मैत्री के नये युग की शुरूआत के संकेत दिये। प्रधानमंत्री ने अपनी नेपाल यात्रा के माध्यम से सारनाथ से लुंबिनी वाया कुशीनगर के विकास का खाका तैयार कर दिया है। इस बीच भारत और नेपाल के मध्य छह समझौते भी हुए तथा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और नेपाल के प्रधानमंत्री शेर बहादुर देउबा के मध्य द्विपक्षीय वार्ता भी हुई जिसमें कई महत्वपूर्ण बिंदुओं पर चर्चा की गई।
प्रधानमंत्री का लुंबिनी में स्वागत वास्तव में बहुत अभूतपूर्व रहा। जब वह मायादेवी मंदिर में पूजा अर्चना के बाद बाहर निकले तो लोग उनको देखने और उनसे मिलने के लिए आतुर हो रहे थे। सड़क के दोनों ओर खड़े लोग भारत माता की जय की नारे लगा रहे थे। वहां के जनमानस में भारत के प्रति प्रेम उमड़ रहा था। ऐसा प्रतीत ही नहीं हो रहा था कि यह लोग चीन की भारत विरोधी नीतियों से प्रभावित हो सकते हैं। जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लुम्बिनी में वहां उपस्थित जनसमुदाय को संबोधित किया और लोगों ने जिस प्रकार से मोदी-मोदी के नारे लगाकर उनका स्वागत और समर्थन किया उससे भारत के प्रति उनके सहज प्रेम का अनुमान पूरे विश्व को हुआ।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लुम्बिनी में अपने सम्बोधन में कहा कि अयोध्या में बन रहे राम मंदिर से नेपाल के लोग भी खुश हैं जिसके बाद वहां उपस्थित जनसमुदाय में आनंद की नयी लहर दौड़ गयी। उन्होंने आगे कहा कि प्रभु राम के युग से ही नेपाल भारतीयों के लिए आस्था का केंद्र रहा है क्योंकि वह माता सीता का घर है। दोनों देश मिलकर मानवता के लिए काम करेंगे और पूरे विश्व में भगवान बुद्ध के शांति के संदेश को पहुंचाएंगे। वर्तमान वैश्विक हालात को देखते हुए तय है कि भारत और नेपाल का सम्बंध और मजबूत होगा। दोनों देशों के बीच सिर्फ व्यावसायिक सम्ंबध नहीं है अपितु सांस्कृतिक और सामाजिक सम्बंध भी हैं।
प्रधानमंत्री की यात्रा के दौरान भारत और नेपाल के बीच छह समझौते हुए हैं जिनमें भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद और लुंबिनी बौद्ध विश्व विद्यालय के बीच डॉ. अम्बेडकर पीठ को स्थापित करने के लिए करार हुआ। नेपाली विश्व विद्यालय में भारतीय अध्ययन पीठ बनाने, काठमांडू विश्व विद्यालय और भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान मद्रास के बीच भी एक समझौता हुआ है। काठमांडू विश्व विद्यालय और आईआईटी मद्रास के बीच स्नातक स्तर पर संयुक्त डिग्री पाठयक्रम शुरू करने को लेकर भी सहमति पत्र पर हस्ताक्षर किये गये हैं। सतलुज जल विद्युत् निगम और नेपाल इलेक्ट्रिसिटी अथॉरिटी के बीच पनबिजली परियोजना लगाने के लिए समझौता हुआ है। साथ ही लुंबिनी और कुशीनगर को जुड़वा शहरों के रूप में विकसित करने पर भी दोनों देशों के बीच सैद्धांतिक समहति बनी है।
प्रधानमंत्री ने अपनी यात्रा से प्रेम, सौहार्द्र, भाईचारे की भावना की मजबूती पर बल दिया है। पीएम मोदी ने धर्म, शिक्षा, संस्कृति, व्यापार के बुनियादी ढांचे को मजबूती प्रदान करने की बात कही। प्रधानमंत्री ने लुम्बिनी में कहा कि सारनाथ, बोधगया, कुशीनगर और लुम्बिनी को जोड़कर बौद्ध सर्किट बनेगा। बुद्ध के सभी स्थानों को एक सूत्र में पिरोने की जरूरत है। प्रधानमंत्री ने कहा कि सारनाथ, बोधगया, कुशीनगर और लुबिंनी दोनों देशों की साझी विरासत है। इन्हें साथ मिलकर विकसित करना है। प्रधानमंत्री का यह कहना कि भारत रिश्तों में नेपाल को हिमालय जैसी ऊंचाई देगा, आगामी भविष्य के लिए बहुत कुछ संकेत दे रहा है। प्रधानमंत्री ने बताया कि आठ वर्ष पहले हमने जो पौधा भेजा था अब वह वृक्ष होने जा रहा है। प्रधानमंत्री के नेपाल दौरे की एक सबसे बड़ी विषेषता यह रही कि भारत-नेपाल सीमा सोनौली में इंटीग्रेटेड चेकपोस्ट का निर्माण करीब 20 साल से अधर में है तथा किसानों के साथ कई दौर की बातचीत के बाद भी मसला हल नहीं हुआ है लेकिन लुंबिनी में अपने संबोधन में प्रधानमंत्री ने उसका उल्लेख किया है जिसके कारण उसे भी संजीवनी मिल गयी है।
प्रधानमंत्री की नेपाल यात्रा से नेपाली पीएम देउबा भी बहुत गदगद नजर आ रहे थे। नेपाली पीएम देउबा ने कहा कि प्रधानमंत्री की नेपाल यात्रा से विशेषकर लुम्बिनी को वैश्वकि पहचान मिलेगी। उनके यहां आने से दोनों देशों के बीच सांस्कृतिक सम्बंधों को और मजबूती मिलेगी। नेपाली शहर लुंबिनी में नेपाल के प्रधानमंत्री शेर बहादुर देउबा के साथ हुई द्विपक्षीय मुलाकात से दोनों देशों के बीच विगत दिनों उपज रहे तनाव को दूर कर सम्बंध सशक्त करने में मदद मिली है। दोनों देशों की तरफ से शुरू होने वाले विशेष कार्यक्रमों के अलावा कनेक्टिविटी, अर्थव्यवस्था, कारोबार, ऊर्जा के क्षेत्र में भावी समझौतों और परियोजनाओं पर भी बात हुई है। प्रधानमंत्री की नेपाल यात्रा से दोनों देशों के बीच मैत्री को और मजबूती प्रदान हुई है। प्रधानमंत्री की नेपाल यात्रा से पहले नेपाल के पीएम शेर बहादुर देउबा भी रिश्ते सुधारने के लिए दिल्ली यात्रा पर आये थे। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी नेपाल के साथ रिश्तों को सुधारने व मजबूती प्रदान करने के लिए वहां के प्रमुख ऐतिहासिक मंदिरों व स्थलों का पहले भी भ्रमण कर चुके हैं तब परिस्थितियां कठिन थीं लेकिन वर्तमान में पहले से सुधार है।
- मृत्युंजय दीक्षित
सरकारी अनुमान है कि इस साल गेहूं का उत्पादन 10 करोड़ टन से भी कम होगा। लगभग 4-5 करोड़ टन के निर्यात के समझौते हो चुके हैं और लगभग डेढ़ करोड़ टन निर्यात भी हो चुका है। हजारों टन गेहूं हम अफगानिस्तान और श्रीलंका भी भेज चुके हैं।
अभी महिना भर पहले तक सरकार दावे कर रही थी कि इस बार देश में गेहूं का उत्पादन गज़ब का होगा। उम्मीद थी कि वह 11 करोड़ टन से ज्यादा ही होगा और भारत इस साल सबसे ज्यादा गेहूं निर्यात करेगा और जमकर पैसे कमाएगा। इसकी संभावना इसलिए भी बढ़ गई थी कि रूस-यूक्रेन युद्ध के कारण दुनिया में गेहूं की कमी पड़ने लगी है लेकिन ऐसा क्या हुआ कि सरकार ने रातों-रात फैसला कर लिया कि भारत अब गेहूं निर्यात नहीं करेगा?
इसका पहला कारण तो यह है कि गेहूं का उत्पादन अचानक घट गया है। इसका मुख्य कारण मार्च, अप्रैल और मई में पड़ने वाली भयंकर गर्मी है। सरकार ने पिछले साल अपने गोदामों में सवा चार करोड़ टन गेहूं खरीदकर भर लिया था लेकिन इस बार वह सिर्फ दो करोड़ टन गेहूं ही खरीद पाई है। पिछले 15 साल में इतना कम सरकारी भंडारण पहली बार हुआ है। सरकार को उम्मीद थी कि इस बार 11 करोड़ टन से भी ज्यादा गेहूं पैदा होगा और वह लगभग एक-डेढ़ करोड़ टन निर्यात करेगी।
सरकारी अनुमान है कि इस साल गेहूं का उत्पादन 10 करोड़ टन से भी कम होगा। लगभग 4-5 करोड़ टन के निर्यात के समझौते हो चुके हैं और लगभग डेढ़ करोड़ टन निर्यात भी हो चुका है। हजारों टन गेहूं हम अफगानिस्तान और श्रीलंका भी भेज चुके हैं। अब इस निर्यात पर जो प्रतिबंध लगाया गया है, उसके पीछे तर्क यही है कि एक तो लगभग 80 करोड़ लोगों को निःशुल्क अनाज बांटना है और दूसरा यह कि अनाज के दाम अचानक बहुत बढ़ गए हैं।
20-22 रुपए किलो का गेहूं आजकल बाजार में 30 रु. किलो तक बिक रहा है। यह ठीक है कि अंतरराष्ट्रीय बाजार में इस समय गेहूं के दामों में काफी उछाल आ गया है और भारत उससे काफी पैसा कमा सकता है लेकिन सरकार का यह डर बहुत स्वाभाविक है कि यदि निर्यात बढ़ गया तो गेहूं इतना कम न पड़ जाए कि भारत में संकट खड़ा हो जाए। सरकार की यह सोच तो व्यावहारिक है लेकिन यदि गेहूं का निर्यात रूक गया तो हमारे किसानों की आमदनी काफी घट जाएगी। उन्हें मजबूर होकर अपने गेहूं को सस्ते से सस्ते दाम पर बेचना होगा।
इस समय सबसे बड़ी चांदी उन व्यापारियों की है, जिन्होंने ज्यादा कीमतों पर गेहूं खरीदकर अपने गोदामों में दबा लिया है लेकिन गेहूं का निर्यात रूक जाने से उसके दाम गिरेंगे और इससे किसानों से भी ज्यादा व्यापारी घाटे में उतर जाएंगे। सरकार चाहती तो निर्यात किए जाने वाले गेहूं के दाम बढ़ा सकती थी। उससे निर्यात की मात्रा घटती लेकिन सरकार की आमदनी बढ़ जाती। वह किसानों से भी थोड़ी ज्यादा कीमत पर गेहूं खरीदती तो उसका भंडारण दुगुना हो सकता था। गेहूं के निर्यात पर रोक लगाने के पीछे श्रीलंका से टपक रहा सबक भी है। इस समय देश में खाद्य-पदार्थों की महंगाई से लोगों का पारा चढ़ना स्वाभाविक हो गया है।
-डॉ. वेदप्रताप वैदिक
नेतृत्व का महत्व हर देश की राजनीति में बहुत ज्यादा होता है। भारत-जैसे देश में तो इसका महत्व सबसे ज्यादा है। भारत दुनिया का सबसे बड़ा मूर्तिपूजक देश है। मूर्ति चाहे बेजान पत्थर की ही हो लेकिन भक्तों को सम्मोहित करने के लिए वह काफी होती है।
उदयपुर में कांग्रेस का चिंतन-शिविर आयोजित किया जा रहा है। सबसे आश्चर्य तो मुझे यह जानकर हुआ कि इस जमावड़े का नाम चिंतन-शिविर रखा गया है। हमारे नेता और चिंतन! इन दो शब्दों की यह जोड़ी तो बिल्कुल बेमेल है। भला, नेताओं का चिंतन से क्या लेना-देना? छोटी-मोटी प्रांतीय पार्टियों की बात जाने दें, देश की अखिल भारतीय पार्टियों के नेताओं में चिंतनशील नेता कितने हैं? क्या उन्होंने गांधी, नेहरु, जयप्रकाश, लोहिया, नरेंद्रदेव की तरह कभी कोई ग्रंथ लिखा है? अरे लिखना तो दूर, वे बताएंगे कि ऐसे चिंतनशील ग्रंथों को उन्होंने पढ़ा तक नहीं है।
अरे भाई, वे इन किताबों में माथा फोड़ें या अपनी राजनीति करें? उन्हें नोट और वोट उधेड़ने से फुरसत मिले तो वे चिंतन करें। वे चिंतन शिविर नहीं, चिंता-शिविर आयोजित कर रहे हैं। उन्हें चिंता है कि उनके नोट और वोट खिसकते जा रहे हैं। इस चिंता को खत्म करना ही इस शिविर का लक्ष्य है। ऐसा नहीं है कि यह चिंतन-शिविर पहली बार हो रहा है। इसके पहले भी चिंतन-शिविर हो चुके हैं। उनकी चिंता भी यही रही कि नोट और वोट का झांझ कैसे बजता रहे? किसी भी राजनीतिक दल की ताकत बनती है, दो तत्वों से! उसके पास नीति और नेतृत्व होना चाहिए। कांग्रेस के पास इन दोनों का अभाव है।
नेतृत्व का महत्व हर देश की राजनीति में बहुत ज्यादा होता है। भारत-जैसे देश में तो इसका महत्व सबसे ज्यादा है। भारत दुनिया का सबसे बड़ा मूर्तिपूजक देश है। मूर्ति चाहे बेजान पत्थर की ही हो लेकिन भक्तों को सम्मोहित करने के लिए वह काफी होती है। आज कांग्रेस में ऐसी कोई मूर्ति नहीं है। अशोक गहलोत, भूपेश बघेल और कमलनाथ ने अपने-अपने प्रांत में अच्छा काम कर दिखाया है लेकिन क्या कांग्रेसी इनमें से किसी को भी अपना अध्यक्ष बना सकते हैं ? कांग्रेस की देखादेखी हमारी सभी पार्टियां प्राइवेट लिमिटेड कंपनियां बन गई हैं। उक्त सुयोग्य नेताओं की हैसियत भी सिर्फ मैनेजरों से ज्यादा नहीं है। यदि कांग्रेस पार्टी में राष्ट्रीय और प्रांतीय अध्यक्षों और पदाधिकारियों का चुनाव गुप्त मतदान से हो तो इस महान पार्टी को खत्म होने से बचाया जा सकता है। लेकिन सिर्फ कोई नया नेता क्या क्या कर लेगा? जब तक उसके पास कोई नई वैकल्पिक नीति, कोई सामायिक विचारधारा और कोई प्रभावी रणनीति नहीं होगी तो वह भी मरे सांप को ही पीटता रहेगा। वह सिर्फ सरकार पर छींटाकशी करता रहेगा, जिस पर कोई ध्यान नहीं देगा। आजकल कांग्रेस, जो मां-बेटा पार्टी बनी हुई है, वह यही कर रही है।
कांग्रेस के नेता अगर चिंतनशील होते तो देश में शिक्षा, चिकित्सा और रोजगार को लेकर कोई क्रांतिकारी योजना पेश करते और करोड़ों लोगों को अपने साथ जोड़ लेते लेकिन हमारी सभी पार्टियां चिंतनहीन हो चुकी है। चुनाव जीतने के लिए वे भाड़े के रणनीतिकारों की शरण में चली जाती हैं। सत्तारुढ़ होने पर उनके नेता अपने नौकरशाहों की नौकरी करते रहते हैं। उनके इशारों पर नाचते हैं और सत्तामुक्त होने पर उन्हें बस एक ही चिंता सताती रहती है कि उन्हें येन, केन, प्रकारेण कैसे भी फिर से सत्ता मिल जाए।
- डॉ. वेदप्रताप वैदिक
राजद्रोह कानून इसलिए भी रद्द होने लायक है कि इसके तहत लगाए गए आरोप प्रायः सिद्ध ही नहीं होते। पिछले 12 साल में 13306 लोगों पर राजद्रोह के मुकदमे चले लेकिन सिर्फ 13 लोगों को सजा हुई याने मुश्किल से एक प्रतिशत आरोप सही निकले।
अंग्रेजों के बनाए हुए 152 साल पुराने राजद्रोह कानून की शामत आ चुकी है। सर्वोच्च न्यायालय ने उसे पूरी तरह से अवैध घोषित नहीं किया है लेकिन वैसा करने के पहले उसने केंद्र सरकार को कहा है कि 10 जून तक वह यह बताए कि उसमें वह क्या-क्या सुधार करना चाहती है। दूसरे शब्दों में सरकार भी सहमत है कि राजद्रोह का यह कानून अनुचित और असामयिक है। यदि सरकार की यह मंशा प्रकट नहीं होती तो अदालत इस कानून को रद्द ही घोषित कर देती। फिलहाल अदालत ने इस कानून को स्थगित करने का निर्देश जारी किया है। अंग्रेजों ने यह कानून 1857 के स्वातंत्र्य संग्राम के तीन साल बाद बना दिया था। यह कानून भारत की दंड सहिता की धारा 124ए में वर्णित है।
इस कानून के तहत किसी भी व्यक्ति को यदि अंग्रेज सरकार के खिलाफ बोलते या लिखते हुए, आंदोलन या प्रदर्शन करते हुए, देश की शांति और व्यवस्था को भंग करते पाया गया तो उसे तत्काल गिरफ्तार किया जा सकता है, उसे जमानत पर छूटने का अधिकार भी नहीं होगा और उसे आजन्म कारावास भी मिल सकता है। इस कानून का दुरुपयोग अंग्रेज सरकार ने किस-किसके खिलाफ नहीं किया? यदि भगत सिंह के खिलाफ किया गया तो महात्मा गांधी, बाल गंगाधर तिलक, सरदार पटेल, जवाहरलाल नेहरु ने भी इसी कानून के तहत जेल काटी। आजादी के बाद भी यह कानून जारी रहा। इंदिरा गांधी के राज में इसे और भी सख्त बना दिया गया। किसी भी नागरिक को अब राजद्रोह के अपराध में वारंट के बिना भी जेल में सड़ाया जा सकता है। ऐसे सैंकड़ों लोगों को सभी सरकारों ने वक्त-बेवक्त गिरफ्तार किया है, जिन्हें वे अपना विरोधी समझती थीं।
किसी प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री की आलोचना या निंदा क्या राजद्रोह कहलाएगी? देश में चलने वाले शांतिपूर्ण और अहिंसक आंदोलन के कई नेताओं को राजद्रोह का अपराधी घोषित करके जेल में डाला गया है। कई पत्रकार भी इस कानून के शिकार हुए जैसे विनोद दुआ, सिद्दीक़ कप्पन और अमन चोपड़ा। आगरा में तीन कश्मीरी छात्रों को इसलिए जेल भुगतनी पड़ी कि उन्होंने पाकिस्तानी क्रिकेट टीम को भारत के विरुद्ध उसकी जीत पर व्हाट्साप के जरिए बधाई दे दी थी। बेंगलुरु की दिशा रवि को पुलिस ने इसलिए पकड़ लिया था कि उसने किसान आंदोलन के समर्थन में एक ‘टूलकिट’ जारी कर दिया था। जितने लोगों को इस ‘राजद्रोह कानून’ के तहत गिरफ्तार किया गया, उनसे आप असहमत हो सकते हैं, वे गलत भी हो सकते हैं लेकिन उन्हें ‘राजद्रोही’ की संज्ञा दे देना तो अत्यंत आपत्तिजनक है।
यह कानून इसलिए भी रद्द होने लायक है कि इसके तहत लगाए गए आरोप प्रायः सिद्ध ही नहीं होते। पिछले 12 साल में 13306 लोगों पर राजद्रोह के मुकदमे चले लेकिन सिर्फ 13 लोगों को सजा हुई याने मुश्किल से एक प्रतिशत आरोप सही निकले। नागरिक स्वतंत्रता की यह हत्या नहीं तो क्या है? इस दमघोंटू औपनिवेशिक कानून को आमूल-चूल रद्द किया जाना चाहिए। वास्तविक राजद्रोह और देशद्रोह को रोकने के लिए कई अन्य कानून पहले से बने हुए हैं। उन कानूनों का प्रयोग भी बहुत सावधानी के साथ किया जाना चाहिए।
-डॉ. वेदप्रताप वैदिक
पत्नी की असहमति से शारीरिक संबंध बनाना अपराध की श्रेणी में आता है तो कितने परिवार बिखरने की कगार पर आ सकते हैं। यदि उक्त कानून के तहत किसी की पत्नी ने अपने पति पर जबरन शारीरिक संबंध बनाने का केस दर्ज करा दिया तब सोचिये क्या होगा?
देश में वैवाहिक बलात्कार नाम से एक नई बहस शुरू हुई है। मांग की जा रही है कि बिना पत्नी की सहमति से शारीरिक संबंध बनाने को वैवाहिक बलात्कार मानते हुए इसे अपराध की श्रेणी में रखा जाये। कुछ लोग इस मांग को लेकर दिल्ली हाईकोर्ट भी गये। हाईकोर्ट में दायर की गयी याचिकाओं में कानून के उस अपवाद को चुनौती दी गई जिसके तहत पत्नियों के साथ बिना सहमति के शारीरिक संबंध बनाने पर मुकदमे से पतियों को छूट हासिल है। लेकिन अदालत लंबी सुनवाई के बाद किसी एक निष्कर्ष पर नहीं पहुँच सकी। अब मामला सुप्रीम कोर्ट में चला गया है जहां यह तय होगा कि वैवाहिक बलात्कार को आपराधिक श्रेणी में रखा जाये या नहीं।
वैसे यह वैवाहिक बलात्कार है क्या? दरअसल विवाह जैसे पवित्र रिश्ते के साथ बलात्कार जैसे घिनौने शब्द को जोड़ कर भारतीय पारिवारिक व्यवस्था को नष्ट करने की कुचेष्टा की जा रही है। इस अभियान को चलाने वाले लोगों के नाम देखेंगे तो आपको सारे वामपंथी मिलेंगे जिनका पहले से ही भारतीय सामाजिक व्यवस्था में विश्वास नहीं है या फिर ऐसे लोग मिलेंगे जिनका खुद का विवाह संबंध असफल रहा है। या फिर ऐसे लोग यह मांग कर रहे हैं जो विवाह में ही विश्वास नहीं करते या यह मांग करने वालों में ऐसे लोग हैं जो अपने परिवार को एक नहीं रख सके। ऐसे लोग ही हमेशा समाज में अशांति और असंतोष बनाये रखना चाहते हैं इसलिए वह इस तरह की मांग कर रहे हैं। यह वही लोग हैं जो महिलाओं को भरमा कर कभी-कभी उनका घर भी तुड़वा देते हैं और फिर बाहर से तमाशा देखते हुए ट्वीट ट्वीट खेलते हैं।
जरा सोचिये यदि यह कानून बन जाये कि पत्नी की असहमति से शारीरिक संबंध बनाना अपराध की श्रेणी में आता है तो कितने परिवार बिखरने की कगार पर आ सकते हैं। यदि उक्त कानून के तहत किसी की पत्नी ने अपने पति पर जबरन शारीरिक संबंध बनाने का केस दर्ज करा दिया तब सोचिये क्या होगा? पुलिस जब घर पर आयेगी तो मोहल्ले वाले या परिजन पूछेंगे कि क्या हुआ? क्या मामला है? पुलिस जब महिला का बयान लिख रही होगी तो वह क्या-क्या सवाल पूछेगी? देखा जाये तो पति अपनी पत्नी के साथ किसी प्रकार की जबरदस्ती नहीं करे इसके लिए उनके बेडरूम में पुलिस बिठाने की जरूरत नहीं है। जरूरत इस बात की है कि उन्हें शिक्षित किया जाये और इस संबंध में जागरूकता अभियान चलाया जाये। पति-पत्नी के बीच प्यार और आपसी सम्मान स्वतः आता है उसे जबरन या कानून के डर से नहीं लाया जा सकता। और बात यदि बेडरूम में पुलिस बैठाने की है तो क्या इतने पुलिसकर्मी हैं आपके पास? बात यदि पतियों पर जबरन केस करने की है तो क्या अदालतें ऐसे केसों का बोझ झेलने के लिए तैयार हैं? सोचिये जरा क्या ऐसे केसों के बाद परिवार एकजुट रह सकेंगे? क्या जोड़ियां टूटने से अवसाद, अकेलेपन और आत्महत्या करने जैसी स्थितियां नहीं पैदा होंगी?
इसमें कोई दो राय नहीं कि हमारे यहां महिलाओं को घरेलू हिंसा और यौन उत्पीड़न का सामना करना पड़ता है जोकि बिल्कुल बर्दाश्त नहीं किया जाना चाहिए। यह भी सही है कि विवाह हो जाने का मतलब यह नहीं है कि महिला ने अपनी हर इच्छा भी अपने पति के नाम पर कर दी है। लेकिन यह भी सही है कि आज भी महिलाएं अपने पति की किसी भी गलत हरकत या जबरन यौनाचार किये जाने के खिलाफ पुलिस थाने जा सकती हैं, अदालत जा सकती हैं और न्याय पा सकती हैं। आज केंद्र और राज्य सरकारों के अलावा स्थानीय थाना स्तर पर भी हेल्पलाइन्स बनाई गयी हैं जहां पर अपने साथ दुर्व्यवहार या किसी भी प्रकार का अपराध होने पर महिलाएं तत्काल शिकायत कर सकती हैं। ऐसे में क्या जरूरत है वैवाहिक बलात्कार की परिभाषा गढ़ने की और उसे अपराध की श्रेणी में लाने की? यह तो सिर्फ भारत की विवाह संस्था को बदनाम करने और उसे तोड़ने की एक साजिश ही लगती है। यहां यह भी याद रखिये कि आज जो लोग इस तरह की मांग कर रहे हैं वही लोग यह भी प्रश्न उठाते हैं कि क्यों महिलाएं ही करवा चौथ का व्रत रखती हैं? क्यों महिलाएं ही अपनी संतान की लंबी आयु या उसकी समृद्धि के लिए व्रत रखती हैं? यह वामपंथी हमेशा से भारतीय समाज और परिवार की संस्कृति और परम्पराओं को ढकोसला बताते रहे हैं इसलिए इनसे और क्या उम्मीद रखी जा सकती है?
क्या कहा हाईकोर्ट की खंडपीठ ने?
आइये अब जरा इस मामले से जुड़े महत्वपूर्ण पहलुओं की बात करते हुए सबसे पहले आपको बताते हैं कि सुनवाई के दौरान दिल्ली उच्च न्यायालय के माननीय न्यायाधीशों ने क्या कहा। खंडपीठ की अगुवाई कर रहे न्यायमूर्ति राजीव शकधर ने वैवाहिक बलात्कार के अपवाद को समाप्त करने का समर्थन किया और कहा कि भारतीय दंड संहिता लागू होने के ‘‘162 साल बाद भी एक विवाहित महिला की न्याय की मांग नहीं सुनी जाती है तो दुखद है।'' जबकि न्यायमूर्ति सी. हरिशंकर ने कहा कि भारतीय दंड संहिता के तहत प्रदत्त ‘‘यह अपवाद असंवैधानिक नहीं हैं और संबंधित अंतर सरलता से समझ में आने वाला है।’’
केंद्र सरकार का क्या रुख रहा?
जहां तक इस मामले में केंद्र सरकार के रुख की बात है तो उसने साल 2017 के अपने हलफनामे में कहा था कि वैवाहिक बलात्कार को आपराधिक श्रेणी में नहीं रखा जा सकता है क्योंकि यह एक ऐसी घटना बन सकती है जो विवाह की संस्था को अस्थिर कर सकती है और पतियों को परेशान करने का एक आसान साधन बन सकती है। हालांकि, केंद्र सरकार ने इस साल जनवरी में अदालत से कहा कि वह याचिकाओं पर अपने पहले के रुख पर ‘‘फिर से विचार’’ कर रही है। केंद्र ने इस मामले में अपना रुख स्पष्ट करने के लिए अदालत से फरवरी में और समय देने का आग्रह किया था, जिसे पीठ ने इस आधार पर खारिज कर दिया था कि मौजूदा मामले को अंतहीन रूप से स्थगित करना संभव नहीं है।
इस मामले का इतिहास क्या है?
इस मामले से जुड़े इतिहास की बात करें तो शुरुआत सन् 1860 से करनी होगी जब भारतीय दंड संहिता लागू हुई थी। उस समय 10 साल से अधिक उम्र की महिलाओं के संबंध में वैवाहिक बलात्कार अपवाद लागू किया गया था लेकिन 1940 में भादंसं में संशोधन किया गया और 10 साल की उम्र सीमा को बदल कर 15 वर्ष किया गया। 11 जनवरी, 2016 को दिल्ली उच्च न्यायालय ने केंद्र को नोटिस जारी किया और भादंसं में वैवाहिक बलात्कार अपवाद को चुनौती देने वाली पहली याचिका पर पक्ष रखने को कहा। जिस पर 29 अगस्त, 2017 को केंद्र ने उच्च न्यायालय से कहा कि वैवाहिक बलात्कार को अपराध नहीं बनाया जा सकता क्योंकि इससे विवाह की संस्था अस्थिर हो सकती है। इसके अलावा 11 अक्टूबर, 2017 को उच्चतम न्यायालय ने वैवाहिक बलात्कार के अपवाद को खारिज कर दिया और व्यवस्था दी कि किसी पुरुष द्वारा अपनी पत्नी के साथ यौन संबंध बनाना बलात्कार नहीं है, अगर पत्नी की उम्र 18 वर्ष से कम नहीं है। इसके बाद 18 जनवरी, 2018 को दिल्ली सरकार ने उच्च न्यायालय से कहा कि वैवाहिक बलात्कार पहले से ही कानून के तहत क्रूर अपराध है और कोई महिला अपने पति के साथ यौन संबंध स्थापित करने से इनकार करने की हकदार है। इसके बाद इस साल 7 जनवरी से उच्च न्यायालय ने वैवाहिक बलात्कार को अपराध घोषित करने के अनुरोध वाली याचिकाओं पर रोजाना आधार पर सुनवाई शुरू की। सुनवाई के दौरान केंद्र ने उच्च न्यायालय से कहा कि वह "पहले से ही मामले से अवगत है" और वैवाहिक बलात्कार को अपराध घोषित करने के मुद्दे पर "रचनात्मक दृष्टिकोण" के साथ विचार कर रहा है तथा राज्य सरकारों और केंद्र शासित प्रदेशों सहित विभिन्न हितधारकों से सुझाव मांगे गए हैं। इस पर 17 जनवरी को उच्च न्यायालय ने केंद्र से कहा कि वह अपनी सैद्धांतिक स्थिति स्पष्ट करे। 24 जनवरी को केंद्र ने अदालत से अपनी स्थिति रखने के लिए "उचित समय" देने का आग्रह किया और कहा कि वैवाहिक बलात्कार को अपराध बनाने में ऐसे मुद्दे शामिल हैं जिन्हें "सूक्ष्म नजरिए" से नहीं देखा जा सकता है। इसके बाद 28 जनवरी को उच्च न्यायालय ने केंद्र से यह बताने के लिए कहा कि क्या वह अपने 2017 के हलफनामे को वापस लेना चाहता है जिसमें कहा गया है कि वैवाहिक बलात्कार को अपराध नहीं बनाया जा सकता है। इस सवाल का जवाब 1 फरवरी को देते हुए केंद्र ने उच्च न्यायालय से कहा कि वह अपने पहले के रुख पर "पुनर्विचार" कर रहा है। इसके बाद 3 फरवरी को केंद्र ने अदालत से वैवाहिक बलात्कार को अपराध बनाने की दलीलों पर सुनवाई टालने का आग्रह किया और कहा कि वह एक समयबद्ध कार्यक्रम प्रदान करेगा और इसके तहत वह इस मुद्दे पर प्रभावी परामर्श प्रक्रिया को पूरा करेगा। इसके बाद 7 फरवरी को अदालत ने केंद्र को याचिकाओं पर अपना रुख स्पष्ट करने के लिए दो सप्ताह का समय दिया। फिर 21 फरवरी को उच्च न्यायालय ने याचिकाओं पर फैसला सुरक्षित रखा तथा केंद्र को और समय देने से इनकार करते हुए कहा कि मामले को स्थगित करना संभव नहीं है क्योंकि इस मुद्दे पर सरकार के परामर्श समाप्त होने की कोई तारीख निश्चित नहीं है। अब 11 मई को उच्च न्यायालय ने वैवाहिक बलात्कार को अपराध बनाए जाने के मुद्दे पर खंडित फैसला सुनाया और उच्चतम न्यायालय के समक्ष अपील दायर करने के लिए पक्षों को अनुमति दी।
बहरहाल, अब मामला सुप्रीम कोर्ट के दरवाजे पर पहुँच गया है। हाईकोर्ट ने भले इस मामले में खंडित निर्णय सुनाया हो लेकिन उम्मीद है उच्चतम न्यायालय से स्पष्ट फैसला आयेगा। भारतीय समाज को यदि तेजी से और स्थायी तरक्की करनी है तो हमें महिलाओं का सशक्तिकरण करना होगा, उनके अधिकारों की रक्षा करनी होगी, उनके मान-स्वाभिमान, आत्मसम्मान की रक्षा करनी होगी। हमारे यहां तो कहा भी जाता है कि यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते, रमन्ते तत्र देवता।
-नीरज कुमार दुबे
भारत को पूरे विश्व के आर्थिक क्षेत्र में यदि अपना दबदबा कायम करना है तो देश की मानव पूंजी पर अपना पूरा ध्यान केंद्रित करना होगा एवं बेरोजगार युवाओं को रोजगार के पर्याप्त अवसर उपलब्ध कराने ही होंगे ताकि देश में उपलब्ध मानव पूंजी का देश हित में उचित उपयोग किया जा सके।
किसी भी आर्थिक गतिविधि में सामान्यतः पांच घटक कार्य करते हैं- भूमि, पूंजी, श्रम, संगठन एवं साहस। हां, आजकल छठे घटक के रूप में आधुनिक तकनीकि का भी अधिक इस्तेमाल होने लगा है। परंतु पूंजीवादी अर्थव्यवस्थाओं में चूंकि केवल पूंजी पर ही विशेष ध्यान दिया जाता है अतः सबसे अधिक परेशानी, श्रमिकों के शोषण, बढ़ती बेरोजगारी, समाज में लगातार बढ़ रही आर्थिक असमानता और मूल्य वृद्धि को लेकर होती है। पूंजीवाद के मॉडल में उपभोक्तावाद एवं पूंजी की महत्ता इस कदर हावी रहते हैं कि उत्पादक लगातार यह प्रयास करता है कि उसका उत्पाद भारी तादाद में बिके ताकि वह उत्पाद की अधिक से अधिक बिक्री कर लाभ का अर्जन कर सके। पूंजीवाद में उत्पादक के लिए चूंकि उत्पाद की अधिकतम बिक्री एवं अधिकतम लाभ अर्जन ही मुख्य उद्देश्य है अतः श्रमिकों का शोषण इस व्यवस्था में आम बात है। आज तक भी उत्पादन के उक्त पांच/छह घटकों में सामंजस्य स्थापित नहीं किया जा सका है। विशेष रूप से पूंजीपतियों एवं श्रमिकों के बीच टकराव बना हुआ है। पूंजीपति, श्रमिकों को उत्पादन प्रक्रिया का केवल एक घटक मानते हुए उनके साथ कई बार अमानवीय व्यवहार करते पाए जाते हैं। जबकि, श्रमिकों को भी पूंजी का ही एक रूप मानते हुए, उनके साथ मानवीय व्यवहार होना चाहिए। क्योंकि, किसी भी संस्थान की सफलता में श्रमिकों का बहुत ही महत्वपूर्ण योगदान रहता है। बिना श्रमिकों के सहयोग के कोई भी संस्थान सफलता पूर्वक आगे नहीं बढ़ सकता। इसीलिए संस्थानों में कार्य कर रहे श्रमिकों को “श्रम शक्ति” की संज्ञा दी गई है। हमारे देश में भी दुर्भाग्य से श्रमिकों के शोषण की कई घटनाएं सामने आती रही हैं। यथा, श्रमिकों को निर्धारित मजदूरी का भुगतान नहीं करना एवं उनसे निर्धारित समय सीमा से अधिक कार्य लेना आदि, प्रमुख रूप से शामिल हैं।
भारत में श्रमिकों की विभिन्न समस्याओं के निदान करने एवं उन्हें और अधिक सुविधाएं उपलब्ध कराए जाने के उद्देश्य श्रम कानून से जुड़े तीन अहम विधेयक केंद्र सरकार ने संसद में पास कराए हैं। जिनमें सामाजिक सुरक्षा बिल 2020, आजीविका सुरक्षा, स्वास्थ्य एवं कार्यदशा संहिता बिल 2020 और औद्योगिक संबंध संहिता बिल 2020 शामिल हैं। इससे पहले तक देश में 44 श्रम कानून थे जो कि अब चार लेबर कोड में शामिल किए जा चुके हैं। श्रम कानूनों को लेबर कोड में शामिल करने का काम वर्ष 2014 में शुरू हो गया था। ऐसा कहा जा रहा है कि उक्त ऐतिहासिक श्रम कानून, कामगारों के साथ-साथ कारोबारियों के लिए भी मददगार साबित होंगे।
केंद्र सरकार एवं विभिन्न राज्य सरकारें तो अपने स्तर पर श्रमिकों के हितार्थ विभिन्न कानून बनाने का कार्य करती रही हैं और आगे भी करती रहेंगी परंतु आज जब भारत विश्व का सबसे युवा राष्ट्र कहा जा रहा है क्योंकि देश की दो तिहाई जनसंख्या की उम्र 35 वर्ष से कम है (देश की 36 प्रतिशत जनसंख्या की आयु 15 से 35 वर्ष के बीच है और देश में 37 करोड़ युवाओं की आयु 15 से 29 वर्ष के बीच है) तो इतने बड़े वर्ग को रोजगार के अवसर उपलब्ध कराने हेतु इन्हें केवल श्रमिक न बनाकर इनमें उद्यमिता का विकास कर इन्हें स्वावलंबी बनाए जाने की आज महती आवश्यकता है। हालांकि सरकारें विभिन्न स्तरों पर इस दिशा में अपना कार्य बखूबी कर रही हैं परंतु देश के प्रत्येक नागरिक को यदि स्वावलंबी बनाना है तो अन्य स्वयंसेवी, धार्मिक, सामाजिक, औद्योगिक एवं व्यापारिक संगठनों को आपस में मिलकर इस नेक कार्य को आगे बढ़ाने के लिए प्रयास करने चाहिए। इसी क्रम में, भारत में बेरोजगारी की समस्या को हल करने के मुख्य उद्देश्य से अभी हाल ही में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने अन्य कई संगठनों को अपने साथ लेकर एक स्वावलंबी भारत अभियान की शुरुआत की है। संघ द्वारा सहकार भारती, लघु उद्योग भारती, ग्राहक पंचायत, भारतीय मजदूर संघ, भारतीय किसान संघ, अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद, भाजपा एवं स्वदेशी जागरण मंच जैसे संगठनों एवं कई अन्य सामाजिक, आर्थिक एवं स्वयंसेवी संगठनों को भी इस अभियान के साथ जोड़ा जा रहा है।
स्वावलंबी भारत अभियान को चलाने हेतु एक कार्यक्रम की घोषणा भी की गई है। जिसके अंतर्गत उद्यमिता, रोजगार व अर्थ सृजन को एक जन आंदोलन बनाते हुए युवाओं को श्रम का महत्व समझाया जाएगा एवं उन्हें जॉब सीकर के बजाय जॉब प्रवाइडर बनाने के प्रयास वृहद स्तर पर किए जाएंगे। साथ ही, जॉब सीकर एवं जॉब प्रवाइडर के बीच समन्वय स्थापित करने के प्रयास भी किए जाएंगे। प्रत्येक जिले में वहां के प्रमुख विश्वविद्यालय अथवा महाविद्यालय के सहयोग से एक रोजगार सृजन केंद्र की स्थापना की जाएगी जहां केंद्र एवं राज्य सरकारों की रोजगार सृजन सम्बंधी विभिन्न योजनाओं की जानकारी, उद्यमिता प्रशिक्षण एवं युवाओं में कौशल विकास करने के प्रयास किए जाएंगे। साथ ही उस केंद्र पर बैंक ऋण प्राप्त करने संबंधी मार्गदर्शन, स्वरोजगार के क्षेत्र में आने वाली सम्भावित कठिनाईयों का समाधान एवं सफल स्वरोजगारियों तथा उद्यमियों से संवाद आदि की व्यवस्था भी की जाएगी। युवाओं में कौशल विकसित करने हेतु सबंधित कम्पनियों को आगे आना चाहिए एवं इस सम्बंध में केवल सरकारी योजनाओं पर निर्भर रहने से यह कार्य सम्भव नहीं होगा। इन केंद्रों पर स्थानीय एवं स्वदेशी उत्पादों को बढ़ावा देने के सम्बंध में नागरिकों में जागरूकता उत्पन्न करने सम्बंधी प्रयास भी किए जाएंगे। साथ ही, ग्रामीण स्तर पर ग्रामोद्योग व ग्रामशिल्प को बढ़ावा देने संबंधी प्रयास किए जाएंगे।
भारत को पूरे विश्व के आर्थिक क्षेत्र में यदि अपना दबदबा कायम करना है तो देश की मानव पूंजी पर अपना पूरा ध्यान केंद्रित करना होगा एवं बेरोजगार युवाओं को रोजगार के पर्याप्त अवसर उपलब्ध कराना ही होगें ताकि देश में उपलब्ध मानव पूंजी का देश हित में उचित उपयोग किया जा सके। जब तक भारत पूर्ण रोजगार युक्त नहीं होता, तब तक वह पूर्ण स्वावलम्बन व वैश्विक मार्गदर्शक के रूप में अपने आप को स्थापित करने सम्बंधी लक्ष्य को हासिल नहीं कर सकता। देश की समस्त जनसंख्या के लिए रोजगार के अवसर निर्मित कर आर्थिक विकास की गति को तेज किया जा सकता है और सही अर्थों में भारत के लिए जनसांख्यिकी का लाभांश तो तभी उपलब्ध होगा।
आज यदि वर्तमान परिप्रेक्ष्य में भी देखा जाय तो भारत में प्राकृतिक संसाधनों (कच्चे माल) के साथ साथ मानव शक्ति (श्रम) भी पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध है परंतु उसके पास रोजगार के पर्याप्त अवसर उपलब्ध नहीं हैं। किसी भी कुटीर अथवा लघु उद्योग को स्थापित करने के लिए मुख्य रूप से कच्चे माल एवं श्रम की आवश्यकता ही रहती है और ये दोनों ही तत्व भारत में प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हैं, केवल आवश्यकता है इन दोनों तत्वों को आपस में जोड़ने के लिए एक ऐसा माहौल बनाने की जिसके अंतर्गत भारतीय आगे बढ़कर ग्रामीण इलाकों में कुटीर उद्योगों की स्थापना करें एवं इन्हीं इलाकों में रोजगार के अवसर भी निर्मित करें एवं इन इलाकों के निवासियों का शहरों की ओर पलायन रोकें। इस संदर्भ में संघ का स्पष्ट मत है कि मानव केंद्रित, पर्यावरण के अनुकूल, श्रम प्रधान तथा विकेंद्रीकरण एवं लाभांश का न्यायसंगत वितरण करने वाले भारतीय आर्थिक प्रतिमान (मॉडल) को महत्त्व दिया जाना चाहिए, जो ग्रामीण अर्थव्यवस्था, सूक्ष्म उद्योग, लघु उद्योग और कृषि आधारित उद्योगों को संवर्धित करता है। ग्रामीण रोजगार, असंगठित क्षेत्र एवं महिलाओं के रोजगार और अर्थव्यवस्था में उनकी समग्र भागीदारी जैसे क्षेत्रों को बढ़ावा देना चाहिए। देश की सामाजिक परिस्थितियों के अनुरूप नई तकनीकी तथा सॉफ्ट स्किल्स को अंगीकार करने के गम्भीर प्रयास भी किए जाने चाहिए।
-प्रह्लाद सबनानी
सेवानिवृत्त उप महाप्रबंधक
भारतीय स्टेट बैंक
भारतीय चिंतन धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चार स्तंभों पर स्थापित है। इस दृष्टि से चाहे व्यक्ति हो, परिवार हो, देश यो अथवा विश्व हो, किसी के भी विषय में चिंतन का आधार एकांगी न मानकर एकात्म माना जाता है।
हाल ही के समय में न केवल भारत बल्कि विश्व के कई देशों यथा, स्वीडन, ब्रिटेन, फ्रांस, नार्वे, भारत, अमेरिका आदि में आतंकवाद की समस्या ने सीधे तौर पर इन देशों के आम नागरिकों को एवं कुछ हद तक इन देशों की अर्थव्यवस्था को विपरीत रूप से प्रभावित किया है। आतंकवाद के पीछे धार्मिक कट्टरता को मुख्य कारण बताया जा रहा है और आश्चर्य होता है कि पूरे विश्व में ही आतंकवाद फैलाने में एक मजहब विशेष के लोगों का अधिकतम योगदान नजर आ रहा है। अभी हाल ही में भारत के कई नगरों में रामनवमी एवं हनुमान जयंती पर हिंदू समुदाय द्वारा निकाले गए देवी देवताओं के जुलूस पर पत्थरबाजी की गई है। इसकी शुरुआत राजस्थान के करौली से हुई फिर मध्य प्रदेश के खरगौन, कर्नाटक के हुबली, आंध्र प्रदेश के कुरनूल के होलागुंडा, उत्तराखंड के हरिद्वार जिले के भगवानपुर के एक गांव, गुजरात के आणंद और हिम्मतनगर, पश्चिम बंगाल के बांकुरा आदि शहरों तक फैल गई। इन नगरों में पुलिस भी हालत को नियंत्रित करने में एक तरह से असफल रही है। इसी प्रकार अभी हाल ही में स्वीडन में भी हमलावर भीड़ (मुस्लिम शरणार्थियों) द्वारा पुलिस वाहनों पर हमला कर दिया गया एवं पुलिस की कई गाड़ियों को जला दिया गया। अत्यधिक सूचना तंत्र और हथियारों से लैस पुलिस भी हालत को नियंत्रित करने में असफल रही। स्वीडन के साथ ही यूरोप के कई देशों में मुस्लिम शरणार्थी वहां की कानून व्यवस्था के लिए बड़ी चुनौती बन गए हैं।
उक्त कुछ घटनाओं का वर्णन तो केवल उदाहरण के तौर पर किया गया है अन्यथा आतंकवाद की स्थिति तो पूरे विश्व में ही बद से बदतर होती जा रही है एवं अब तो इन देशों की अर्थव्यस्थाओं को भी प्रभावित कर रही है। इन देशों में एक मजहब विशेष के लोगों द्वारा देश की सम्पत्ति को नुकसान तो पहुंचाया ही जाता है साथ ही पुलिस एवं आम नागरिकों पर भी हमले किए जाते हैं जिससे कई बार तो इन हमलों में पुलिस एवं आम नागरिक अपनी जान भी गंवा देते हैं। इस प्रकार की लगातार बढ़ रही घटनाओं के चलते अब विश्व के आम नागरिक इन घटनाओं के कारणों के समझने लगे हैं एवं आतंकवादियों की धार्मिक कट्टरता के विरुद्ध एक होने लगे हैं। जैसे बताया जा रहा है कि अभी हाल ही में सूडान ने अपने देश में इस्लाम के अनुपालन पर प्रतिबंध लगा दिया है। यूरोप के कई देशों में वहां के नागरिक इस्लाम धर्म को त्याग कर अब ईसाई धर्म अपना रहे हैं। जापान ने भी इस्लाम धर्म का पालन करने वाले लोगों के लिए कड़े कानून लागू कर दिए हैं। चीन द्वारा मुस्लिम समाज पर लगातार किए जा रहे अत्याचारों से तो अब पूरा विश्व ही परिचित हो गया है। एक समाचार के अनुसार नार्वे ने एक बड़ी संख्या में इस्लाम मजहब को मानने वाले लोगों को अपने देश से निकाल दिया है, इस कदम को उठाने के बाद नार्वे में अपराध की दर में 72 प्रतिशत तक की कमी आ गई है एवं वहां की जेलें 50 प्रतिशत तक खाली हो गई हैं तथा पुलिस अब नार्वे के मूल नागरिकों के हितों के कार्यों में अपने आप को व्यस्त कर पा रही है। विश्व के कई अन्य देशों ने भी इसी प्रकार के कठोर निर्णय लिए हैं। कुछ अन्य देशों में तो वहां के नागरिकों द्वारा “मैं पूर्व मुस्लिम” नाम से आंदोलन ही चलाया जा रहा है जिसके अंतर्गत ये लोग घोषणा करने लगे हैं कि अब मैंने इस्लाम मजहब का परित्याग कर दिया है।
भारत वैसे तो हिंदू सनातन संस्कृति को मानने वाले लोगों का देश है और इसे राम और कृष्ण का देश भी माना जाता है, इसलिए यहां हिंदू परिवारों में बचपन से ही “वसुधैव कुटुम्बमक”, “सर्वे भवन्तु सुखिन:” एवं “सर्वजन हिताय सर्वजन सुखाय” की भावना जागृत की जाती है एवं इसी के चलते भारत ने अन्य देशों में हिंदू धर्म को स्थापित करने अथवा उनकी जमीन हड़पने के उद्देश्य से कभी भी किसी देश पर आक्रमण नहीं किया है। भारत में तो जीव, जंतुओं एवं प्रकृति को भी देवता का दर्जा दिया जाता है। परंतु हाल ही के समय में भारत में भी इस्लाम के अनुयायियों की जनसंख्या बहुत तेजी से बढ़ी है। विशेष रूप से वर्ष 1947 में स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद से तो भारत में हिंदुओं की स्थिति लगातार दयनीय होती जा रही है। आज भारत के 9 प्रांतों में हिंदू अल्पसंख्यक हो गए हैं एवं इस्लामी/ईसाई मतावलंबी बहुमत में आ गए हैं। जैसे, नागालैंड में 8%, मिजोरम में 2.7%, मेघालय में 11.5%, अरुणाचल प्रदेश में 29%, मणिपुर में 41.4%, पंजाब में 39%, केंद्र शासित प्रदेश जम्मू-कश्मीर में 32%, लक्षद्वीप में 2%, लदाख में 2% आबादी हिंदुओं की रह गई है। कुछ राज्यों में तो हिंदुओं की आबादी विलुप्त होने के कगार पर पहुंच गई है। जिन जिन क्षेत्रों, जिलों अथवा प्रदेशों में इस्लाम को मानने वाले अनुयायियों की संख्या बढ़ी है उन उन क्षेत्रों, जिलों एवं प्रदेशों में हिंदुओं द्वारा निकाले जाने वाले धार्मिक जुलूसों पर पत्थरों से आक्रमण किया जाता है एवं हिंदुओं को हत्तोत्साहित किया जाता है ताकि वे अपने धार्मिक आयोजनों को नहीं कर पाएं।
हाल ही के इतिहास पर यदि नजर डालें तो आभास होता है कि जब जब देश के कुछ इलाकों में हिंदुओं की संख्या कम हुई है तब तब इस देश और समाज को नुकसान हुआ है। जैसे वर्ष 1947 में पाकिस्तान बना, वर्ष 1971 में बंगला देश, वर्ष 1990 में जम्मू एवं कश्मीर में इस प्रकार की दुर्घटनाएं हिंदुओं के साथ घट चुकी हैं। इसके बाद भी मामला यहां तक रुका नहीं है बल्कि गोधरा, मुंबई, अक्षरधाम, नंदीग्राम, दिल्ली आदि शहरों में आतंकवादी हमले किए गए हैं। हमें यह स्मरण रखना चाहिए कि बर्मा, श्रीलंका, अफगानिस्तान आदि भी कभी भारत के ही भाग रहे हैं। भारत के अलावा भी अन्य देशों में ईसाई, बौध, हिंदू धर्म के अनुयायियों पर लगातार हमले करके इन देशों को इस्लामी राष्ट्र में परिवर्तित कर दिया गया है जैसे, अफगानिस्तान, ईरान, लेबनान, सिल्क रूट के लगभग सभी देश, तुर्की, मध्य पूर्व, मिस्र, उत्तरी अफ्रीका और बाकी अफ्रीका। इस प्रकार आज पूरे विश्व में इस्लाम को मानने वाले देशों की संख्या 57 हो गई है।
भारतीय चिंतन धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चार स्तंभों पर स्थापित है। इस दृष्टि से चाहे व्यक्ति हो, परिवार हो, देश यो अथवा विश्व हो, किसी के भी विषय में चिंतन का आधार एकांगी न मानकर एकात्म माना जाता है। भारत के उपनिषदों, वेदों, ग्रंथों में भी यह बताया गया है कि मनुष्य का जीवन अच्छे कर्मों को करने के लिए मिलता है एवं देवता भी मनुष्य के जीवन को प्राप्त करने के लिए लालायित रहते हैं। अच्छे कर्म कर मनुष्य अपना उद्धार कर सकता है इसीलिए भारतीय धरा को कर्मभूमि माना गया है जबकि अन्य धराओं को भोगभूमि कहा गया है। साथ ही, वर्णाश्रम व्यवस्था हिंदू सनातन संस्कृति का मूल बताया जाता है। हमारे शास्त्रों में यह भी वर्णन मिलता है कि सभी वर्णों तथा आश्रमों में पूर्णतः प्रतिष्ठित व्यक्ति जीवन के सर्वोत्तम लक्ष्य अर्थात मोक्ष को प्राप्त करने का अधिकारी बन जाता है। अन्य धर्म, भोग को बढ़ावा देते हैं जबकि हिंदू सनातन संस्कृति योग को बढ़ावा देती है।
इस प्रकार हिंदू धर्म के शास्त्रों, पुराणों एवं वेदों में किसी भी जीव के दिल को दुखाने अथवा उसकी हत्या को निषिद्ध बताया गया है जबकि अन्य धर्म के शास्त्रों में इस प्रकार की बातों का वर्णन नहीं मिलता है। इसी कारण के चलते हिंदू धर्म को मानने वाले अनुयायी बहुत कोमल स्वभाव एवं पूरे विश्व में निवास कर रहे प्राणियों को अपने कुटुंब का सदस्य मानने वाले होते हैं। बचपन में ही इस प्रकार की शिक्षाएं हमारे बुजुर्गों द्वारा प्रदान की जाती हैं। इसका प्रमाण भी इस रूप में दिया जा सकता है कि पूरे विश्व में केवल भारत ही एक ऐसा देश है जहां इस्लाम मजहब को मानने वाले लगभग सभी फिरके पाए जाते हैं। ईरान में मूल रूप से पारसी निवास करते थे, आज ईरान में केवल इस्लाम के अनुयायी ही पाए जाते हैं और पारसी उनके मूल देश में ही निवासरत नहीं हैं जबकि भारत में पारसी अच्छी संख्या में निवास कर रहे हैं। इसी प्रकार जब इजराइल पर इस्लाम के अनुयायियों का हमला हुआ था तब वहां के मूल निवासी यहूदी भी भारत में आश्रय लेने के उद्देश्य से आए थे और आज भारत में भी यहूदी बिना किसी भेदभाव के आनंद पूर्वक अपना जीवन यापन कर रहे हैं। विश्व के लगभग सभी धर्मों के विभिन्न फिरकों के अनुयायी भारत में भाई चारा निभाते हुए प्रसन्नता पूर्वक निवास कर रहे हैं। इसी कारण से अब वैश्विक स्तर पर यह विश्वास बनता जा रहा है कि विश्व में तेजी से फैल रहे आतंकवाद का हल केवल हिंदू सनातन संस्कृति में ही दिखाई देता है।
-प्रह्लाद सबनानी
सेवानिवृत्त उप महाप्रबंधक
भारतीय स्टेट बैंक
योग किसी भी धर्म, सम्प्रदाय, जाति या भाषा से नहीं जुड़ा है। योग का अर्थ है जोड़ना, इसलिए यह प्रेम, अहिंसा, करूणा और सबको साथ लेकर चलने की बात करता है। योग, जीवन की प्रक्रिया की छानबीन है। यह सभी धर्मों से पहले अस्तित्व में आया।
मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल देश एवं दुनिया में मुफ्त की सुविधाओं के लिये जाने जाते हैं। अब उन्होंने दिल्ली में रहने वाले लोगों के लिए निशुल्क योग कराने का निर्णय लिया है, क्योकि दिल्ली के आम-आदमी का भागदौड़ की प्रदूषणभरी जिंदगी में शरीर, मन और आत्मा स्वस्थ्य नहीं है, ऐसे में योग उनकी बड़ी मदद कर सकेगा, ऐसा विश्वास है। निश्चित ही यह एक स्वागतयोग्य कदम है। राजनीति का मकसद सिर्फ सत्ता हासिल करना नहीं, बल्कि उन्नत एवं स्वस्थ जीवनशैली प्रदत्त करना भी है, इस दृष्टि से दिल्ली सरकार ने योग और मेडिटेशन को जन आंदोलन बनाकर दिल्ली के घर-घर तक पहुंचाने का निर्णय लेकर सूझबूझ एवं आदर्श शासन-व्यवस्था का संकेत दिया है।
इन दिनों दिल्ली योग के पोस्टरों से पटी है। जनवरी से दिल्ली में जगह-जगह योग की क्लासेज भी शुरू हो जायेगी। यह पूरे देश में अपने किस्म का पहला विलक्षण कार्यक्रम है, जिसके तहत दिल्ली सरकार लोगों को फ्री में योग कराएगी। इसके लिए 400 शिक्षकों को प्रशिक्षित किया गया है। दिल्ली में निशुल्क सुविधाओं की आंधी का अनुकरण देश के अन्य प्रांतों की सरकारें भी करने लगी हैं, ठीक इसी तरह यदि दिल्ली सरकार की योग मुहिम को देखकर पूरे देश के अंदर भी योग शालाएं शुरू होती हैं तो घर-घर तक योग पहुंचेगा, लोगों का जीवन स्वस्थ, संतुलित एवं शांतिमय होगा। भारतभूमि अनादिकाल से योग भूमि के रूप में विख्यात रही है। यहां का कण-कण, अणु-अणु न जाने कितने योगियों की योग-साधना से आप्लावित हुआ है। तपस्वियों की गहन तपस्या के परमाणुओं से अभिषिक्त यह माटी धन्य है और धन्य है यहां की हवाएं, जो साधना के शिखर पुरुषों की साक्षी हैं। इसी भूमि पर कभी वैदिक ऋषियों एवं महर्षियों की तपस्या साकार हुई थी तो कभी भगवान महावीर, बुद्ध एवं आद्य शंकराचार्य की साधना ने इस माटी को कृतकृत्य किया था।
साक्षी है यही धरा रामकृष्ण परमहंस की परमहंसी साधना की, साक्षी है यहां का कण-कण विवेकानंद की विवेक-साधना का, साक्षी है क्रांत योगी से बने अध्यात्म योगी श्री अरविन्द की ज्ञान साधना का और साक्षी है महात्मा गांधी की कर्मयोग-साधना का। योग साधना की यह मंदाकिनी न कभी यहां अवरुद्ध हुई है और न ही कभी अवरुद्ध होगी, क्योंकि पहले प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और अब केजरीवाल जैसे शासक इसे जन-जन की जीवनशैली बनाने को तत्पर हुए हैं। इसी योग मंदाकिनी से अब दिल्ली आप्लावित होगा, निश्चित ही यह एक शुभ संकेत है सम्पूर्ण दिल्लीवासियों के लिये। दिल्ली में योग आन्दोलन की सार्थकता इसी बात में है कि सुधरे व्यक्ति, समाज व्यक्ति से, विश्व मानवता का कल्याण हो। सचमुच योग वर्तमान की सबसे बड़ी जरूरत है। लोगों का जीवन योगमय हो, इसी से युग की धारा को बदला जा सकता है। मेरी दृष्टि में योग मानवता की न्यूनतम जीवनशैली होनी चाहिए। आदमी को आदमी बनाने का यही एक सशक्त माध्यम है। एक-एक व्यक्ति को इससे परिचित- अवगत कराने और हर इंसान को अपने अन्दर झांकने के लिये प्रेरित करने हेतु दिल्ली में योग आन्दोलन को व्यवस्थित ढंग से आयोजित करने के उपक्रम होने चाहिए। इसी से संतुलित इंसान बनने और अच्छा बनने की ललक पैदा होगी। योग मनुष्य ही नहीं बल्कि राजनीतिक जीवन की विसंगतियों पर नियंत्रण का माध्यम है। दिल्ली का जीवन जीने लायक बन सकेगा।
आजादी का अमृत महोत्सव मनाते हुए दिल्ली की महत्वपूर्ण उपलब्धि और असफलता को दो बिन्दुओं में बताना हो तो दिल्ली की सबसे बड़ी उपलब्धि होगी योग-क्रांति और असफलता होगी बढ़ता प्रदूषण। जहां तक व्यवस्था का प्रश्न है, यह दोनों ही बातें सही हैं। योग की ही भांति हमें प्रदूषण को ''शून्य दर'' पर ले जाना होगा जिसके बिना सभी क्षेत्रों में हमारी तरक्की बेमानी मानी जायेगी। कोई भी राष्ट्र केवल व्यवस्था से ही नहीं जी सकता। उसका सिद्धांत पक्ष भी सशक्त होना चाहिए। किसी भी राष्ट्र की ऊंचाई वहां की इमारतों की ऊंचाई से नहीं मापी जाती बल्कि वहां के नागरिकों के चरित्र से मापी जाती है। उनके काम करने के तरीके से मापी जाती है। हमारी सबसे बड़ी असफलता है कि आजादी के 75 वर्षों के बाद भी राष्ट्रीय चरित्र, स्वस्थ जीवनशैली नहीं दे पाये। राष्ट्रीय चरित्र का दिन-प्रतिदिन नैतिक हृास हो रहा है। हर गलत-सही तरीके से हम सब कुछ पा लेना चाहते हैं। अपनी स्वार्थ सिद्धि के लिए कर्त्तव्य को गौण कर दिया है। इस तरह से जन्मे हर स्तर पर भ्रष्टाचार ने राष्ट्रीय जीवन में एक विकृति पैदा कर दी है। लेकिन केजरीवाल की इस दृष्टि से बरती जा रही सख्ती एवं दिल्ली को उन्नत एवं स्वस्थ जीवनशैली देने का संकल्प एक प्रेरणा है, एक उजाला है।
मुख्यमंत्री केजरीवाल ने हैपीनेस क्लासेज, एंटरप्रिन्योर क्लासेज, देशभक्ति क्लासेज के प्रयोग किए और स्कूल पहले से बेहतर कर दिए हैं। लोगों को यकीन नहीं होता है कि दिल्ली में मुफ्त बिजली-पानी मिलता है। पहली बार ऐसा हो रहा है कि अब लोग मुफ्त में तीर्थ यात्रा पर जा रहे हैं। दिल्ली के मोहल्ला क्लीनिक का प्रयोग भी सफल एवं स्वास्थ्य-क्रांति का प्रेरक बना, जिसकी हर जगह चर्चा है। किसी भी बीमारी के ईलाज के लिए पैसे की बगैर चिंता किए मुफ्त दवाई मिल रही है। छोटी-सी खांसी से लेकर बड़ी सर्जरी अगर 70-80 लाख रुपए की भी होगी, तो दिल्ली सरकार इलाज का सारा खर्च उठा रही है। मुख्यमंत्री के ये दावे कुछ अनूठा करने के संकल्प, सुशासन की द्योतक है। भले ही केजरीवाल का मुफ्त सुविधाएं देने का गवर्नेस मॉडल बहस के केन्द्र में है। दिल्ली में केजरीवाल सरकार को लेकर जिस तरह का मानस तैयार किया गया है, उसमें किसी भी विषय पर सम्यक विमर्श की गुंजायश का लगातार घटते जाना विडम्बनापूर्ण है। निश्चित तौर पर चर्चा के इस आदर्श मॉडल को बढ़ावा देने में केजरीवाल की राजनीति, सूझबूझ एवं कौशल का बड़ा योगदान है।
कुछ दिन पहले एक कॉल आया। चंडीगढ़ नंबर से अरविंद केजरीवाल की तरफ से, जो पहले से ही रिकॉर्ड किया गया था। उन्होंने कहा कि अगर आप में से 25 लोग योग करना चाहते हैं तो उनकी सरकार हर दिन एक योग प्रशिक्षक भेजेगी।’ क्या कोई सरकार इस तरह के प्रयोग कर सकती है? आज योगिक विज्ञान जितना महत्वपूर्ण हो उठा है, इससे पहले यह कभी इतना महत्वपूर्ण नहीं रहा। आज हमारे पास विज्ञान और तकनीक के तमाम साधन मौजूद हैं, जो दुनिया के विध्वंस का कारण भी बन सकते हैं। ऐसे में यह बेहद महत्वपूर्ण हो जाता है कि हमारे भीतर जीवन के प्रति जागरूकता और ऐसा भाव बना रहे कि हम हर दूसरे प्राणी को अपना ही अंश महसूस कर सकें, वरना अपने सुख और भलाई के पीछे की हमारी दौड़ सब कुछ बर्बाद कर सकती है।
आत्म विकास हेतु योग एक प्रमुख साधना है। पतंजलि योगशास्त्र में योग का अर्थ चित्तवृत्ति-निरोध किया है। चित्त की वृत्तियों को रोककर एकाग्रता अथवा स्थिरता लाने को योग कहा है। वास्तव में इनका अर्थ मन, वचन, काया का निरोध कर एकाग्रता लाना व उनका आत्म-विकास के मार्ग में प्रवृत्ति करना है। अगर लोगों ने अपने जीवन का, जीवन में योग का महत्व समझ लिया और उसे महसूस कर लिया तो दिल्ली में खासा बदलाव आ जाएगा। जीवन के प्रति अपने नजरिये में विस्तार लाने, व्यापकता लाने में ही मानव-जाति की सभी समस्याओं का समाधान है। उसे निजता से सार्वभौमिकता या समग्रता की ओर चलना होगा। दिल्ली सरकार की पहल एक महत्वपूर्ण कदम है, जो इस पूरी दिल्ली में मानव कल्याण और आत्मिक विकास की लहर पैदा कर सकता है।
योग में गहरी दिलचस्पी लेने वाले केजरीवाल ने एक महान संकल्प लेकर उसे कार्यान्वित करने की ठानी है। निश्चित ही उनकी योग-क्रांति दिल्ली के जीवन में विकास, सुख और शांति का माध्यम बनेगी। योग केवल सुंदर एवं व्यवस्थित रूप से जीवन-यापन करना ही नहीं सिखाता अपितु व्यक्तित्व को निखारने, साम्प्रदायिक सौहार्द एवं संतुलित जीवन की कला को भी सिखाता है। योग के नाम पर राजनीति करने वाले मानवता का भारी नुकसान कर रहे है। क्योंकि योग किसी भी धर्म, सम्प्रदाय, जाति या भाषा से नहीं जुड़ा है। योग का अर्थ है जोड़ना, इसलिए यह प्रेम, अहिंसा, करूणा और सबको साथ लेकर चलने की बात करता है। योग, जीवन की प्रक्रिया की छानबीन है। यह सभी धर्मों से पहले अस्तित्व में आया और इसने मानव के सामने अनंत संभावनाओं को खोलने का काम किया। आंतरिक व आत्मिक विकास, मानव कल्याण से जुड़ा यह विज्ञान सम्पूर्ण दुनिया के लिए एक महान तोहफा है तो दिल्लीवासियों के लिये निश्चित रूप से वरदान साबित होगा।
-ललित गर्ग
जम्मू-कश्मीर में लोगों की शिकायत यह भी है कि अगस्त 2019 में उसका जो विशेष दर्जा खत्म किया गया था, उसे केंद्र सरकार कब तक अधर में लटकाए रखेगी? प्रधानमंत्री और गृहमंत्री दोनों ने आश्वासन दिया था कि उसे राज्य का दर्जा फिर से वापस किया जाएगा
पंचायती राज दिवस के उपलक्ष्य में प्रधानमंत्री ने जम्मू में ऐसी परियोजनाओं का शिलान्यास किया है, जिनसे जम्मू-कश्मीर की जनता को बड़ी राहत मिलेगी। 20 हजार करोड़ रुपए सरकार लगाएगी और 38 हजार करोड़ रुपए का निवेश पिछले दो साल में हो चुका है। प्रधानमंत्री के साथ दुबई और अबू धाबी के निवेशक भी उस समारोह में उपस्थित थे। इस निवेश से कश्मीर के लोगों की सुविधाएं बढ़ेंगी और लाखों नए रोजगार भी पैदा होंगे। जम्मू के पल्ली गांव में 500 किलोवाट के सोलर प्लांट का शुभारंभ करके उन्होंने सारे देश को संदेश दिया है कि भारत चाहे तो अगले कुछ ही वर्षों में बिजली, ईंधन और तेल के प्रदूषण से मुक्त हो सकता है।
बनीहाल से क़ाजीगुंड तक की सुरंग जैसे कई निर्माण-कार्य संपन्न होंगे, जिनके परिणामस्वरूप आवागमन और यातायात अधिक सुरक्षित और सुगम हो जाएगा। केंद्र सरकार आजकल जम्मू-कश्मीर के लिए पहले की तुलना में ज्यादा योगदान कर रही है। उसके कुल खर्च का 64 प्रतिशत हिस्सा केंद्र सरकार देती है। देश के बहुत कम राज्यों को इतनी बड़ी मात्रा में केंद्र सरकार की मदद मिलती है। पंचायत राज दिवस के दिन जम्मू-कश्मीर के लिए की गई इन घोषणाओं का स्वागत है लेकिन यह बड़ा सवाल भी विचारणीय है कि देश में पंचायतों को हमने अधिकार कितने दिए हैं? पंचायतों को ताकतवर बनाने का अर्थ है— सत्ता का विकेंद्रीकरण! क्या केंद्र और राज्यों की सरकारें इसके लिए सहर्ष तैयार हैं।
जम्मू-कश्मीर में लोगों की शिकायत यह भी है कि अगस्त 2019 में उसका जो विशेष दर्जा खत्म किया गया था, उसे केंद्र सरकार कब तक अधर में लटकाए रखेगी? प्रधानमंत्री और गृहमंत्री दोनों ने आश्वासन दिया था कि उसे राज्य का दर्जा फिर से वापस किया जाएगा। गुपकर गठबंधन ने उस विशेष दर्जे की मांग जोरों से की है। उसने 2020 के जिला विकास परिषद के चुनावों में स्पष्ट विजय भी हासिल की थी। उसे यह शिकायत भी है कि विधानसभा में जम्मू की 6 सीटें बढ़ाकर कश्मीर को हल्का किया जा रहा है। कश्मीरी नेताओं का वर्तमान प्रतिबंधों से दम घुट रहा है, इसमें शक नहीं है लेकिन कश्मीर में पहले के मुकाबले इस समय शांति और व्यवस्था बेहतर है, यह भी सत्य है। आतंकी घटनाएं भी कभी-कभी होती रहती हैं लेकिन बड़े पैमाने पर इधर कोई आतंकी घटना की खबर नहीं है। इसका श्रेय मुस्तैद उप-राज्यपाल मनोज सिन्हा और उनके योग्य अफसरों को है लेकिन जम्मू-कश्मीर में सामान्य स्थिति तभी बनेगी, जब लोकतांत्रिक प्रक्रिया वहां बाक़ायदा शुरू हो जाएगी।
अब जम्मू-कश्मीर बाहरी लोगों के लिए भी खुल गया है। वे वहां अन्य प्रांतों की तरह जाकर रह सकते हैं। गर्मियों में पर्यटकों की संख्या बढ़ जाने से लाखों लोगों की आर्थिक राहत भी बढ़ी है। इसके अलावा पाकिस्तान में शहबाज़ शरीफ की सरकार से उम्मीद की जाती है कि वह सीमा-पार आतंकवाद पर सख्ती से काबू करेगी और कश्मीर के सवाल पर भारत सरकार के साथ सार्थक संवाद भी करेगी। प्रधानमंत्री ने जम्मू-कश्मीरियों को जो यह संदेश दिया है कि आपके माता-पिता और उनके माता-पिता ने जैसी तकलीफें सही हैं, वैसी आपको अब नहीं सहनी पड़ेंगी, अपने आप में दिल को छूने वाला है। उम्मीद है कि ऐसा माहौल कश्मीर में शीघ्र ही बन सकेगा। कश्मीर में लोक-कल्याण तो बढ़ गया है लेकिन लोकतंत्र की वापसी भी उतनी ही जरूरी है।
-डॉ. वेदप्रताप वैदिक
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की कश्मीर यात्रा इसलिये महत्वपूर्ण मानी जा रही है कि वहां के लोगों ने साम्प्रदायिकता, राष्ट्रीय-विखण्डन, आतंकवाद तथा घोटालों के जंगल में एक लम्बा सफर तय करने के बाद अमन-शांति एवं विकास को साकार होते हुए देखा है।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की हाल ही में की गयी जम्मू-कश्मीर यात्रा पर इसलिए देश की निगाहें थीं, क्योंकि अनुच्छेद 370 हटने के बाद वह पहली बार जम्मू-कश्मीर की धरती पर पहुंचे। उनकी इस यात्रा ने अनेक सकारात्मक संदेश दिये, शांति एवं विकास का माध्यम बना है। निश्चित ही उनकी यह यात्रा इस प्रांत में एक नई फिजां का सबब बनी है। जम्मू-कश्मीर हमारे देश का वो गहना है जिसे जब तक सम्पूर्ण भारत के साथ जोड़ा नहीं जाता, वहां शांति, आतंकमुक्ति एवं विकास की गंगा प्रवहमान नहीं होती, अधूरापन-सा नजर आता रहा है। इसलिए इसे शेष भारत के साथ हर दृष्टि से जोड़ा जाना महत्वपूर्ण है और यह कार्य मोदी एवं उनकी सरकार ने किया है। निश्चित रूप से वहां एक नया दौर शुरू किया है। इसके लिये जम्मू में मोदी ने पंचायत दिवस के अवसर पर केवल देश भर के पंचायत अधिकारियों को ही संबोधित नहीं किया, बल्कि इस केंद्र शासित प्रदेश की विभिन्न योजनाओं-परियोजनाओं का शिलान्यास एवं उद्घाटन करने के साथ कश्मीर एवं लद्दाख की जनता को भी यह संदेश दिया कि भारत सरकार उनके हितों की रक्षा के लिए प्रतिबद्ध है।
अतीत की भूलों को सुधारना और भविष्य के निर्माण में सावधानी से आगे कदमों को बढ़ाना, हमारा संकल्प होना चाहिए। इसी संकल्प को मोदी ने सांबा के अपने उद्बोधन में व्यक्त किया है। नरेन्द्र मोदी ने जम्मू-कश्मीर में किए गए कार्यों का विवरण देकर यह भी रेखांकित किया कि अब कैसे विकास एवं जनकल्याण के काम तेजी से हो रहे हैं? न केवल विकास योजनाएं आकार ले रही हैं, बल्कि वहां शांति एवं सौहार्द का वातावरण बना है, आतंकवादी घटनाओं पर भी नियंत्रण किया जा सका है। मोदी की सरकार आने के बाद से जम्मू-कश्मीर के विकास को चरणबद्ध तरीके से आगे बढ़ाया जा सका है। सही समय पर केंद्र सरकार ने आतंकवाद पर अंकुश लगाने के साथ शेष वांछित कार्यों को पूरा करने के लिए वैसी ही दृढ़ता दिखाई है जैसी अनुच्छेद 370 हटाते समय दिखाई थी और देश के साथ दुनिया को यह संदेश दिया था कि कश्मीर में किसी का हस्तक्षेप स्वीकार्य नहीं, कश्मीर भारत का ताज है और हमेशा रहेगा।
मोदी की कश्मीर यात्रा इसलिये महत्वपूर्ण मानी जा रही है कि वहां के लोगों ने साम्प्रदायिकता, राष्ट्रीय-विखण्डन, आतंकवाद तथा घोटालों के जंगल में एक लम्बा सफर तय करने के बाद अमन-शांति एवं विकास को साकार होते हुए देखा है। उनकी मानसिकता घायल थी तथा जिस विश्वास के धरातल पर उसकी सोच ठहरी हुई थी, वह भी हिली है। इन स्थितियों के बीच मोदी ने वहां के लोगों का विशेषतकर युवाओं का इन शब्दों के साथ ध्यान विशेष रूप से आकर्षित किया कि आपके माता-पिता, दादा-दादी को जिन मुसीबतों का सामना करना पड़ा, उनका आपको कभी सामना नहीं करना पड़ेगा। उन्होंने साफ कहा कि वह अपने इस वचन को पूरा करके दिखाएंगे। आशा की जाती है कि उनकी इन बातों का सकारात्मक असर पड़ेगा। वैसे भी बीते कुछ समय में वहां अनेक ऐसे विकासमूलक काम हुए हैं, जो पहले नहीं हुए। विकास की योजनाएं तीव्रता से आकार ले रही है, इनमें विदेश से निवेश भी शामिल है।
गौर करने लायक बात यह भी रही कि प्रधानमंत्री के साथ वहां गए प्रतिनिधिमंडल में मुस्लिम ब्लॉक के एक महत्वपूर्ण सदस्य देश संयुक्त अरब अमीरात (यूएई) के टॉप बिजनेस लीडर्स भी शामिल थे, जो जम्मू-कश्मीर में निवेश में खास रुचि ले रहे हैं। कहा जा रहा है कि यूएई की कंपनियां वहां 3000 करोड़ रुपये से ज्यादा का निवेश करने वाली हैं। जम्मू-कश्मीर के लिए यह निश्चित ही नई बात होगी। इन सबके माध्यम से सरकार ने यह संदेश देने की कोशिश की है कि जम्मू-कश्मीर में शांति और सौहार्द के साथ लोकतंत्र और विकास की नई इबारत लिखी जा रही है। जम्मू-कश्मीर को अशांत और संवेदनशील क्षेत्र बनाए रखने की कोशिश में लगे तत्वों को सबसे ज्यादा परेशानी ऐसे ही संदेशों से होती है।
जम्मू के सांबा क्षेत्र के एक छोटे से गांव पल्ली में प्रधानमंत्री मोदी का संबोधन एक उजाला है। शांति की स्थापना का संकल्प है। जनता को आश्वासन है विकास एवं आतंकमुक्त जीवन की ओर अग्रसर करने का। वहां की आम जनता की मानसिकता में जो बदलाव अनुभव किया जा रहा है उसमें सूझबूझ एवं सौहार्द की परिपक्वता दिखाई दे रही है। मोदी की यह यात्रा ऐसे मौके पर हुई है जब यह प्रांत विभिन्न चुनौतियों से जूझकर बाहर आ रहा है। वहां की राजनीति के मंच पर ऐसा कोई महान व्यक्तित्व नहीं है जो भ्रम-विभ्रम से प्रांत को उबार सके। वहां के तथाकथित संकीर्ण एवं पूर्वाग्रहग्रस्त नेतृत्व पर विश्वास टूट रहा है, कैसे ईमानदार, आधुनिक एवं राष्ट्रवादी सोच और कल्याणकारी दृष्टिकोण वाले प्रतिनिधियों का उदय हो सके, इस ओर ध्यान देना होगा। इस दिशा में मोदी की इस यात्रा की निर्णायक भूमिका बनेगी। निःसंदेह अनुच्छेद 370 हटने के बाद से जम्मू-कश्मीर में बहुत कुछ बदला है और यह बदलाव दिखने भी लगा है, लेकिन अभी बहुत कुछ होना शेष है। जो घटनाएं हो रही हैं वे शुभ का संकेत नहीं दे रही हैं। घाटी में अशांति, आतंकवादियों की हताशापूर्ण गतिविधियां, सीमापार से छेड़खानी- ये काफी कुछ बोल रही हैं। वहां देर-सबेर और संभवतः परिसीमन की प्रक्रिया पूरी होने के बाद विधानसभा चुनाव तो होंगे ही, लेकिन चुनाव कराने के पहले आतंकवाद पर पूरी तरह लगाम लगाने की जो चुनौती है, उससे भी पार पाना होगा। तमाम आतंकियों के सफाये के बाद भी कश्मीर में जिस तरह रह-रह कर आतंकी घटनाएं हो रही हैं, उनके चलते कश्मीरी हिंदुओं की वापसी फिलहाल संभव नहीं दिख रही। भले ही कुछ भी करना पड़े, इस काम को संभव बनाना होगा, क्योंकि तभी आतंकियों और उनके समर्थकों को यह संदेश जाएगा कि उनकी दाल गलने वाली नहीं है। यह भी सर्वथा उचित होगा कि जम्मू-कश्मीर विधानसभा में कश्मीरी हिंदुओं और सिखों के लिए कुछ सीटें आरक्षित की जाएं।
मोदी की जम्मू यात्रा से कई उजाले हुए हैं। इस यात्रा से जम्मू-कश्मीर के निवासियों के साथ यहां की स्थिति पर चिंता जाहिर करने वाले बाहर के लोगों को भी रोशनी की किरणें दिखाई दी है, यह शुभ एवं श्रेयस्कर है। यह तथ्य भी सामने आया कि राज्य में लोकतंत्र को जीवंत करने का एक बड़ा काम इस बीच बगैर शोर-शराबे के पूरा कर लिया गया। प्रधानमंत्री ने इस अवसर पर 20000 करोड़ रुपये से ऊपर की विकास परियोजनाओं की शुरुआत की। जम्मू-कश्मीर के लेफ्टिनेंट गवर्नर मनोज सिन्हा का दिया यह तथ्य इस मामले में ज्यादा प्रासंगिक है कि पिछले छह महीने में राज्य में 80 लाख पर्यटक आए हैं। बहरहाल, जम्मू-कश्मीर के साथ परेशानियों का पुराना सिलसिला रहा है। खास तौर पर अनुच्छेद 370 के तहत विशेष दर्जा समाप्त किए जाने के बाद से लोगों के लोकतांत्रिक अधिकार भी सवालों के घेरे में हैं। 2018 से ही लगातार राष्ट्रपति शासन चल रहा है। ऐसे में शांति व्यवस्था और विकास संबंधी सरकार के दावों की भी असल परीक्षा इसी बात से होनी है कि वहां कितनी जल्दी विधानसभा चुनाव करवा कर निर्वाचित सरकार को शासन का जिम्मा सौंप दिया जाता है और लोगों को सामान्य लोकतांत्रिक माहौल मुहैया कराया जाता है।
भारत की महानता उसकी विविधता में है। साम्प्रदायिकता एवं दलगत राजनीति का खेल, उसकी विविधता में एकता की पीठ में छुरा भोंकता रहा है, घाटी उसकी प्रतीक बनकर लहूलुहान रहा है। जब हम नये भारत-सशक्त भारत बनने की ओर अग्रसर हैं, विश्व के बहुत बड़े आर्थिक बाजार बनने जा रहे हैं, विश्व की एक शक्ति बनने की भूमिका तैयार करने जा रहे हैं, तब हमारे जम्मू-कश्मीर को जाति, धर्म व स्वार्थी राजनीति से बाहर निकलना सबसे बड़ी जरूरत है। इसी दिशा में घाटी को अग्रसर करने में मोदी सरकार के प्रयत्न सराहनीय एवं स्वागतयोग्य है। घाटी की कमजोर राजनीति एवं साम्प्रदायिक आग्रहों का फायदा पडोसी उठा रहे हैं, जिनके खुद के पांव जमीन पर नहीं वे आंख दिखाते रहे हैं। अब ऐसा न होना, केन्द्र की कठोरता एवं सशक्तीकरण का द्योतक हैं। राष्ट्र के कर्णधारों! परस्पर लड़ना छोड़ो। अगर तेवर ही दिखाने हैं तो देश के दुश्मनों को दिखाओ।
- ललित गर्ग
स्थिति का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि दिल्ली दंगों के आरोपियों को चिन्हित करने के बाद उनके अवैध कब्जों को गिराने के लिए जब सरकार की ओर से कार्यवाही की गई तो कुछ घण्टों में ही सरकार की इस कार्यवाही के खिलाफ कोर्ट से स्टे आर्डर आ जाता है।
इस समय देश बड़ी विकट स्थिति से गुज़र रहा है। एक आम आदमी जोकि इस देश की नींव है उसके लिए जीवन के संघर्ष ही इतने होते हैं कि वो अपनी नौकरी, अपना व्यापार, अपना परिवार, अपने और अपने बच्चों के भविष्य के सपनों से आगे कुछ सोच ही नहीं पाता। वो रोज सुबह उम्मीदों की नाव पर सवार अपने काम पर जाता है और शाम को इस दौड़ती भागती जिंदगी में थोड़े सुकून की तलाश में घर वापस आता है।
तीज त्यौहार उसके इस नीरस जीवन में कुछ रंग भर देते हैं। एक आम आदमी का परिवार साल भर इन तीज त्योहारों का इंतजार करता है। घर के बड़े बुजुर्गों की अपनी पीढ़ियों पुरानी परंपराओं के प्रति आस्था तो बच्चों के मन की उमंग इन त्योहारों के जरिये उसके जीवन में कुछ रस और रंग भर देते हैं। लेकिन जब यही त्योहार जिंदगी को मौत में बदलने का कारण बन जाएं? जब इन त्यौहारों पर जीवन रंगहीन हो जाए? उनका घर उनका उनकी दुकानें उनका कारोबार उनकी जीवन भर की कमाई हिंसा की भेंट चढ़ जाए? पहले करौली में नवसंवत्सर के जुलूस पर हमला फिर रामनवमी पर मप्र, बंगाल, गुजरात, झारखंड, जेएनयू और उसके बाद हनुमान प्रकटोत्सव पर दिल्ली, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, उत्तराखंड और महाराष्ट्र के कुछ स्थानों पर शोभायात्रा निकालने के दौरान जो हिंसा भड़की वो अनेक और अनेकों पर सवाल खड़े करती है।
वैसे तो हिंसक घटनाएं इस देश के लिए नई नहीं हैं। कुछ समय पहले तक अतंकवादी घटनाएं जैसे सार्वजनिक स्थानों पर बम धमाकों से लेकर आत्मघाती हमले अक्सर होते थे। इस देश में आतंकवाद की स्थिति का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि हमने अपने दो प्रधानमंत्री (एक कार्यरत तो एक भूतपूर्व) आतंकवाद के कारण खो दिए। आज उस प्रकार की आतंकवादी घटनाओं पर तो विराम लग गया है। लेकिन आज जिस प्रकार की हिंसक घटनाएं देश के विभिन्न जगहों पर हो रही हैं वो बेहद चिंताजनक हैं क्योंकि ये घटनाएं उन आतंकवादी घटनाओं से अलग हैं।
उन घटनाओं में आतंकवादी संगठनों का या अलगाववादी नेताओं का हाथ होता था जिन्हें बकायदा प्रशिक्षण प्राप्त आतंकवादी अंजाम देते थे। लेकिन आज इन शोभायात्राओं में होने वाले उपद्रव स्थानीय हिंसा है। जिस प्रकार के खुलासे हो रहे हैं उनके अनुसार इन सभी जगह हिंसा की शुरुआत एक ही तरीके से हुई। क्षेत्र के आदतन अपराधी इन जुलूसों के निकलने के दौरान जुलूस में शामिल लोगों से रास्ता बदलने के लिए या फिर भजनों और नारों को बंद करने को लेकर वाद विवाद करते हैं जो हिंसा में तब्दील हो जाता है।
मस्जिदों और आसपास के घरों की छतों से पथराव शुरू हो जाता है। देखते ही देखते दुकानों और गाड़ियों को आग के हवाले कर दिया जाता है। दंगाइयों के बुलन्द हौसलों का अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि वे पुलिसकर्मियों पर भी हमला करने में नहीं हिचकते। इससे पहले किसान आंदोलन के दौरान 26 जनवरी के दंगों में भी देश ने उपद्रवियों द्वारा पुलिस प्रशासन पर हमला किए जाने की तस्वीरें देखी थीं। आप इसे क्या कहेंगे कि दिल्ली दंगों के मुख्य आरोपी अंसार को जब पुलिस कोर्ट में पेशी के लिए ले जा रही थी तो वो पुष्पा फ़िल्म का एक्शन "झुकेगा नहीं" कर रहा था। जिस पुलिस के सामने एक आम आदमी के पसीने छूट जाते हैं उसी पुलिस को इन अपराधियों को कोर्ट से सज़ा दिलवाना तो दूर की बात है उनकी बेल रुकवाने में पसीने छूट जाते हैं!
स्थिति का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि दिल्ली दंगों के आरोपियों को चिन्हित करने के बाद उनके अवैध कब्जों को गिराने के लिए जब सरकार की ओर से कार्यवाही की गई तो कुछ घण्टों में ही सरकार की इस कार्यवाही के खिलाफ कोर्ट से स्टे आर्डर आ जाता है। विडम्बना की पराकाष्ठा देखिए कि संविधान की दुहाई देने वाले संविधान को ताक पर रखकर किए गए अतिक्रमण को बचाने के लिए संविधान का सहारा लेकर कर कोर्ट जाते हैं और कोर्ट असंवैधानिक तरीके से किए गए निर्माण को गिराने से रोकने के लिए स्टे आर्डर दे भी देता है।
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के पैरोकार ये लोग उन लोगों को बचाने के लिए आगे आए हैं जिन्हें रामनवमी और हनुमान प्रकटोत्सव के जुलूसों में लोगों द्वारा अपनी आस्था की अभिव्यक्ति रास नहीं आई। इन परिस्थितियों में ये सवाल तो बहुत गौण हो जाते हैं कि कश्मीर के पत्थर देश की राजधानी दिल्ली से लेकर देश के विभिन्न हिस्सों में कैसे आए? देश के विभिन्न स्थानों पर निकलने वाली शोभायात्राओं पर एक साथ हमले क्या संयोग हैं? हमलावरों की इतनी भीड़ क्या अचानक इकट्ठा हो गई? इन हमलों के बाद जिन अवैध कब्जों को तोड़ने प्रशासन पहुंचा था ये अतिक्रमण प्रशासन के नाक के नीचे कैसे खड़े हुए? क्या ये रातों रात खड़े हुए?
क्या स्थानीय स्तर पर होने वाली इस प्रकार की घटनाएं देश भर में सामाजिक समरसता को चुनौती नहीं दे रहीं? क्या हमारे राजनैतिक दल और सरकारें इन सवालों के ईमानदार जवाब दे पाएंगी? वर्तमान परिस्थितियों को अगर सुधारना है तो इनके जवाब तो देश के सामने रखने ही होंगे क्योंकि जिस प्रकार के खुलासे इन घटनाओं की जांचों में हो रहे हैं वो स्थिति की गंभीरता की ओर इशारा कर रहे हैं। जहाँगीरपुरी की हिंसा की जांच में यह बात सामने आ रही है कि जिस जगह से शोभायात्रा पर पथराव के बाद हिंसा हुई थी वहीं से करीब सात बसों में भरकर बांग्लादेशी महिलाएं बच्चों व पुरुषों को शाहीनबाग प्रदर्शन में शामिल होने के लिए ले जाया गया था। अगर शाहीनबाग और शोभायात्रा पर हमलों के तार जांच में जुड़ रहे हैं तो क्या समझ जाए? यही कि इस प्रकार की हिंसक घटनाएं संयोग नहीं प्रयोग हैं?
-डॉ. नीलम महेंद्र
लेखिका वरिष्ठ स्तंभकार हैं
नवनीत राणा और उनके पति रवि राणा पेशे से दोनों राजनीतिक हस्तियां हैं। लेकिन नवनीत राणा असल में फिल्म अभिनेत्री रह चुकी हैं। पंजाबी माता-पिता की संतान नवनीत राणा कभी एनसीपी में हुआ करती थीं। लेकिन फिलहाल वो एक निर्दलीय सांसद हैं और अमरावती में शिवसेना को हराकर सदन पहुंची हैं।
कैप्टन विजयकांत और ममूटी जैसे दक्षिणी नायकों के साथ सिल्वर स्क्रीन साझा करने से लेकर बाबा रामदेव के सहयोग से सामूहिक विवाह समारोह के जरिये शादी के बंधन में बंधने तक विधायक रवि राणा और सांसद नवनीत राणा की पति-पत्नी की जोड़ी हमेशा लाइमलाइट में रही है। अमरावती जिले के रहने वाली दंपत्ति के दोनों सदस्य सक्रिय राजनीति में मौजूद हैं। 43 वर्षीय रवि राणा, तीन बार के निर्दलीय विधायक हैं, जो बडनेरा सीट का प्रतिनिधित्व करते हैं। वहीं उनकी पत्नी नवनीत राणा अमरावती से निर्दलीय सांसद हैं।
हनुमान चालीसा विवाद
नवनीत राणा और उनके पति रवि राणा पेशे से दोनों राजनीतिक हस्तियां हैं। लेकिन नवनीत राणा असल में फिल्म अभिनेत्री रह चुकी हैं। पंजाबी माता-पिता की संतान नवनीत राणा कभी एनसीपी में हुआ करती थीं। लेकिन फिलहाल वो एक निर्दलीय सांसद हैं और अमरावती में शिवसेना को हराकर सदन पहुंची हैं। नवनीत राणा ने मातोश्री के बाहर हनुमान चालीसा का पाठ करने का चैलेंज देकर सीधे-सीधे शिवसेना सहित उद्धव ठाकरे को निशाने पर लेने का काम किया। जिसके बाद वो बड़ी तैयारी के साथ मुंबई पहुंच भी गईं। मुंबई में हनुमान चालीसा पढ़ने की सांसद नवनीत राणा की चेतावनी के बाद पूरे दिन हंगामेदार रहा। शिवसेना के कार्यकर्ता उनके घर के बाहर जमा हो गए और उन्होंने बैरिकेडिंग भी तोड़ दी है। फिर भी नवनीत राणा अपने रुख पर कायम रहीं और हनुमान चालीसा का पाठ जरूर करूगीं। मुझे कोई रोक नहीं सकता। इस दौरान राणा ने शिवसेना के नेताओं पर जमकर कटाक्ष किए। हालांकि शाम होते-होते खबर आई कि नवनीत राणा मातोश्री के बाहर हनुमान चालीसा पढ़ने के अपने जिद को टाल दिया है। जिसके पीछे की वजह पीएम मोदी का रविवार को मुंबई में कार्यक्रम है। ऐसे में सुरक्षा को लेकर बड़े सवाल खड़े हो सकते हैं। इसलिए पुलिस से बातचीत में बीच का रास्ता निकाला जा रहा है। बताया जा रहा है कि नवनीत राणा मातोश्री के बाहर हनुमान चालीसा पढ़ने की जिद छोड़ दिया है।
नवनीत ने फिल्मों से राजनीति में एंट्री ली
अमरावती की बडनेरा सीट से रवि राणा का राजनीतिक ग्राफ बढ़ना शुरू हुआ जब उन्होंने 2009 में राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के उम्मीदवार के खिलाफ निर्दलीय के रूप में चुनाव लड़ा था। माना जाता है कि युवाओं के बीच राणा की पर्याप्त फॉलोइंग ने इस जीत में उनकी काफी मदद की। शहर भर में अपनी तस्वीर के साथ फ्लेक्स पोस्टर लगाने के लिए प्रतिद्वंद्वियों ने उन्हें "फ्लेक्स कुमार" के रूप में भी संदर्भित किया। 36 वर्षीय उनकी पत्नी नवनीत राणा एक पंजाबी परिवार में पैदा हुई और मुंबई में पली-बढ़ी। 2004 में उन्होंने एक कन्नड़ फिल्म के साथ टिनसेल की दुनिया में प्रवेश किया। द इंडियन एक्सप्रेस के साथ बातचीत में नवनीत राणा ने एक बार कहा था कि उन्होंने जाने-माने फिल्मी सितारों विजयकांत, जूनियर एनटीआर, ममूटी के साथ काम किया है और वो सात भाषाओं में पारंगत हैं। नवनीत ने कन्नड़ फिल्म 'दर्शन' से अपने फिल्मी सफर की शुरुआत की। इसके अलावा, नवनीत ने तेलुगु फिल्म सीनू, वसंथी और लक्ष्मी में भी एक्टिंग की। 2005 में तेलुगु फिल्म चेतना, जग्पथी, गुड बॉय और 2008 में भूमा में भी उन्होंने बतौर एक्ट्रेस काम किया।
बाबा रामदेव ने कराई शादी
बाबा रामदेव के साथ एक मुलाकात ने उनकी कहानी की पटकथा बदल दी। अमरावती में अपने कई 'योग शिविरों' के आयोजन के बाद रवि राणा रामदेव की गुड बुक्स में पहले से ही थे। कहा जाता है कि उन दोनों की मुलाकात एक ऐसे ही योग शिविर में हुई थी। रवि राणा से एक योग कैंप में मुलाकात हुई थी, जिसके बाद इस रिश्ते को आगे बढ़ाने के लिए दोनों ने बाबा रामदेव से स्वीकृति ली।
सामूहिक विवाह कार्यक्रम में कई नामचीन हस्तियां रहीं मौजूद
दोनों ने आखिरकार 2011 में योग गुरु द्वारा आयोजित एक सामूहिक विवाह समारोह में 3,000 से अधिक जोड़ों के साथ शादी कर ली। 2 फरवरी 2011 को हुए इस विवाह समारोह में कुल 3162 जोड़ों की शादी हुई थी इनमें 2443 हिन्दू, 739 बुद्ध, 150 मुस्लिम, 15 क्रिश्चियन और 13 दृष्टिहीन जोड़े शामिल थे। विधायक की शादी होने के कारण इस समारोह में काफी नामचीन हस्तियों ने भी अपनी उपस्थिति दर्ज कराई थी। इनमें महाराष्ट्र के तत्कालीन मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चव्हाण, योग गुरु बाबा रामदेव, सहारा प्रमुख सुब्रत रॉय और विवेक ओबरॉय भी इस विवाह में शामिल हुए थे।
कभी एनसीपी कभी बीजेपी
अमरावती का राणा दंपत्ति राजनीति में स्वतंत्र विचारों की वजह से किसी भी दल की सीमा से नहीं बंधा है। उदाहरण के लिए रवि राणा ने 2014 से पहले केंद्र में कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार के खिलाफ रामदेव द्वारा नियोजित महाराष्ट्र में विभिन्न आंदोलनों का नेतृत्व करने के बावजूद, पत्नी नवनीत राणा यूपीए के घटक राकांपा से 2014 के लोकसभा चुनाव में अमरावती से टिकट पाने में कामयाब रही थी। इस टिकट ने राणाओं को महाराष्ट्र में भाजपा-शिवसेना सरकार का समर्थन करने से भी नहीं रोका। अमरावती लोकसभा की अपनी पहली लड़ाई में राणा ने शिवसेना के उम्मीदवार के साथ चुनावी टक्कर ली। नवनीत ने अमरावती शिवसेना के सांसद आनंदराव अडसुल द्वारा उत्पीड़न की घटना का जिक्र करते हुए लाइव टीवी पर फफक पड़ी थीं। इस प्रकरण ने हालांकि उसकी मदद नहीं की, और वह चुनाव हार गई। 2019 के लोकसभा चुनाव में नवनीत राणा ने फिर से अमरावती लोकसभा सीट से एनसीपी के समर्थन से निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में चुनाव लड़ा, इस बार अडसुल के खिलाफ विजयी हुईं। लेकिन 2019 के विधानसभा चुनाव के बाद महाराष्ट्र के बदलते राजनीतिक समीकरण के बाद राणा दंपत्ति के स्टैंड में भी परिवर्तन आया। रवि राणा ने भाजपा का पक्ष लिया और अन्य निर्दलीय विधायकों से भी पार्टी का समर्थन करने को कहा। लेकिन महाविकास अघाड़ी की सरकार बनने के बाद रवि राणा शांत हो गए। वर्तमान में राणा दंपति की ओर से मातोश्री के बाहर लाउडस्पीकर पर हनुमान चालीसा का पाठ करने की धमकी उनके एक बार फिर भाजपा के करीब जाने का संकेत दे रही है।
जाति प्रमाण पत्र से लेकर तेजाब फेंकने की धमकी तक
सूत्रों ने कहा कि नवीनतम यू-टर्न अडसुल द्वारा नवनीत राणा पर अमरावती लोकसभा सीट से चुनाव लड़ने के लिए जाति प्रमाणपत्र से छेड़छाड़ का आरोप लगाने का परिणाम स्वरूप है। मार्च 2021 में नवनीत ने लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला से शिकायत की कि शिवसेना सांसद अरविंद सावंत ने उन्हें जेल में भेजने की धमकी दी है। जून 2021 में बॉम्बे हाईकोर्ट ने नवनीत का जाति प्रमाण पत्र रद्द कर दिया। आदेश के खिलाफ उनकी अपील सुप्रीम कोर्ट में लंबित है। इस साल जनवरी में, राणा और शिवसेना के बीच संबंधों में और भी तल्खी देखने को मिली जब अमरावती नगर आयुक्त पर हमले को लेकर रवि राणा पर हत्या के प्रयास के लिए मामला दर्ज किया गया। राणा का दावा है कि वह घटना के समय मौके पर मौजूद नहीं थे। मामले की जांच चल रही है। नवनीत राणा ने आरोप लगाया कि इससे पूर्व भी शिवसेना के लेटर हेड और फोन कॉल के माध्यम से उनके चेहरे पर तेजाब फेंकने की धमकी दी जा चुकी है। उन्होंने सावंत के बयान को न सिर्फ अपना, बल्कि पूरे देश की महिलाओं का अपमान करार दिया।
-अभिनय आकाश