ईश्वर दुबे
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Bhilai
समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव ने विधान सभा चुनाव में समाजवादी पार्टी को मिली हार का ठीकरा चुनाव आयोग पर उस समय फोड़ा है जब महीने-दो महीने के भीतर नगर निकाय चुनाव की घोषणा होने वाली है। लगता है कि अखिलेश यादव चुनाव आयोग पर हार का ठीकरा फोड़कर एक साथ कई टॉरगेट साधना चाहते हैं। एक तरफ वह राज्य निर्वाचन आयोग को सचेत कर रहे हैं कि वह केन्द्रीय चुनाव आयोग की तरह अपनी सीमाएं नहीं लांघे तो दूसरी तरफ ऐसे आरोप लगाकर सपा प्रमुख अपनी पार्टी के नेताओं और कार्यकर्ताओं को निराशा से भी उभारना चाहते हैं।
उत्तर प्रदेश में नगर निगम चुनाव नवंबर में होने की संभावना व्यक्त की जा रही हैं। अगले महीने के अंत तक आचार संहिता भी लग सकती है। सड़क पर नगर निगम चुनाव के संभावित उम्मीदवारों के बैनर-पोस्टर नजर आने लगे हैं तो राजनैतिक दलों द्वारा भी निकाय चुनाव के लिए रणनीति बनाई जा रही है। जहां बीजेपी हर छोटे-बड़े चुनाव को गंभीरता से लेते हुए नगर निकाय चुनाव में भी पूरी ताकत के साथ उतरने की तैयारी में है, वहीं समाजवादी पार्टी की ओर से बनाए गए नगर निगम प्रभारी संबंधित क्षेत्र में डेरा डालकर अपनी रणनीति को अमली जामा पहनाने में लगे हैं। कांग्रेस में नगर निकाय चुनाव को लेकर कोई खास गहमागहमी नहीं है, लेकिन कुछ पुराने कांग्रेसी नेता व्यक्तिगत तौर पर पंजे के सहारे छोटे सदन में जाने के लिए जरूर उतावले नजर आ रहे हैं। बसपा नगर निकाय चुनाव को लेकर कभी गंभीर नहीं रही है, वह यह मानकर चलती है कि यह शहरी वोटरों का चुनाव है और बसपा की शहरी क्षेत्र में पकड़ काफी ढीली है। वहीं आम आदमी पार्टी जैसे कुछ और राजनैतिक दल भी नगर निकाय चुनाव के लिए जोर-आजमाईश में लगे हुए हैं।
सभी दलों के आलाकमान द्वारा जातीय समीकरण के साथ ही उम्मीदवारों की ताकत की भी थाह लेने में लगे हैं। समाजवादी पार्टी की तरफ से कहा गया है कि सितंबर के अंत तक सभी जिला प्रभारी प्रत्येक सीट पर तीन-तीन उम्मीदवारों का पैनल प्रदेश मुख्यालय भेजेंगे। फिर राष्ट्रीय अध्यक्ष एक नाम तय करेंगे। नगर निगम चुनाव में धमाकेदार उपस्थिति दर्ज कराने के लिए पार्टी ने पुख्ता रणनीति बनाई है। पार्टी के विधायकों को अलग-अलग निगमों का प्रभारी बनाया गया है। अलग-अलग जिले के विधायकों को अलग-अलग नगर निगम की जिम्मेदारी देकर स्थानीय गुटबंदी को खत्म करने और जिताऊ उम्मीदवार चयन की रणनीति तैयार की गई है।
समाजवादी पार्टी की रणनीति है कि वार्ड का आरक्षण तय होते ही वहां टीमें उतार दी जाएं। वार्ड में आबादी के हिसाब से 50 से 60 परिवार पर एक-एक प्रभारी बनाया जाएगा। सितंबर में हर सप्ताह वार्डवार बैठक करने की तैयारी है। वाराणसी के प्रभारी बनाए गए डॉ. मनोज पांडेय ने बताया कि नगर निगम की तैयारी शुरू कर दी गई है। जल्द ही निगम चुनाव लड़ने वाले उम्मीदवारों और स्थानीय नेताओं के साथ बैठक कर अगली रणनीति बनाई जाएगी। सभी नगर निकाय क्षेत्रों के प्रभारी स्थानीय नेताओं से संपर्क कर चुनाव की तैयारी में लगे हुए हैं।
प्रदेश के शहरों में ग्रास रूट की राजनीति यानी शहरी निकाय चुनाव में इस बार नए दलों की भी आमद होगी। बहुजन समाज पार्टी, आम आदमी पार्टी के साथ ही राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी भी उत्तर प्रदेश के नगर निगम के चुनाव में अपने प्रत्याशी उतारेगी। महाराष्ट्र में शिवसेना व कांग्रेस के साथ गठबंधन में सरकार बनाने वाली राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी ने अब उत्तर प्रदेश का रुख किया है। उत्तर प्रदेश नगर निगम के चुनाव से उत्तर प्रदेश में अपनी पारी का आगाज करने के साथ ही राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) अपने संगठन का भी विस्तार करेगी। इनके साथ ही बहुजन समाज पार्टी ने भी नगर निगम के चुनाव को लेकर तैयारी शुरू कर दी है। बसपा मुखिया लगातार पार्टी के नेताओं को नगर निगम चुनाव की तैयारी के टिप्स भी दे रही हैं। इनके साथ आम आदमी पार्टी भी इस बार मोर्चे पर डटेगी। लब्बोलुआब यह है कि उत्तर प्रदेश में नगर निकाय के चुनाव में एक बार फिर विभिन्न राजनैतिक दल अपनी ताकत का आकलन करेंगे। फिलहाल भारतीय जनता पार्टी का ही पलड़ा भारी लग रहा है। वैसे भी भारतीय जनता पार्टी को कभी शहरी पार्टी की तौर पर देखा जाता था और नगर निकाय चुनाव शहरी वोटरों का ही चुनाव माना जाता है।
स्वदेश कुमार
लेखक उत्तर प्रदेश के पूर्व राज्य सूचना आयुक्त हैं
भारतीय राजनीति में आपराधिक छवि वाले या किसी अपराध के आरोपों का सामना कर रहे लोगों को जनप्रतिनिधि बनाए जाने एवं महत्वपूर्ण मंत्रालय की जिम्मेदारी देने के नाम पर गहरा सन्नाटा पसरा है, जो लोकतंत्र की एक बड़ी विडम्बना बनती जा रही है। कैसा विरोधाभास एवं विसंगति है कि एक अपराध छवि वाला नेता कानून मंत्री बन जाता है, एक अनपढ़ या कम पढ़े-लिखे प्रतिनिधि को शिक्षा मंत्री बना दिया जाता है। ऐसे ही अन्य महत्वपूर्ण मंत्रालय के साथ होता है। यह कैसी विवशता है राजनीतिक दलों की? अक्सर राजनीति को अपराध मुक्त करने के दावे की हकीकत तब सामने आ जाती है जब किसी राज्य या केंद्र में गठबंधन सरकार के गठन का मौका आता है। बिहार में नई सरकार में कानून मंत्री बने राष्ट्रीय जनता दल के विधायक कार्तिकेय सिंह हैं। जिन्हें पटना के दानापुर में अदालत के सामने समर्पण करना था, मगर वे राजभवन में शपथ लेने पहुंच गए।
बिहार में नीतीश कुमार को सुशासन बाबू के तौर पर जाना जाता है जिन्होंने राज्य में अपराध के खात्मे की घोषणा के बूते ही अपने राजनीतिक कद को ऊंचा किया। लेकिन ताजा उलटफेर में जिन लोगों को मंत्रिमंडल में शामिल किया गया है, उनमें से कई पर लगे आरोपों के बाद एक बार फिर इस सवाल ने जोर पकड़ा है कि जो लोग राजनीति को अपराधीकरण से मुक्त बनाने की बात करते हैं, वे हर बार मौका मिलने पर अपने संकल्प एवं बेदाग राजनीति के दावों से पीछे क्यों हट जाते हैं? गौरतलब है कि 2014 में कार्तिकेय सिंह सहित सत्रह अन्य लोगों पर पटना के बिहटा थाने में अपहरण का मामला दर्ज कराया गया था। कार्तिकेय सिंह पर आरोप है कि उन्होंने एक बिल्डर को मारने के मकसद से अपहरण की साजिश रची थी। यह अजीब स्थिति है कि अक्सर साफ-सुथरी और ईमानदार सरकार देने के दावों के बीच आपराधिक छवि के लोगों को उच्च पद देने का सवाल उभर जाता है। सवाल है कि क्या नीतीश कुमार अपने ही दावों को लेकर वास्तव में गंभीर हैं? ऐसे जिम्मेदार राजनेता अपने दावों से पीछे हटेंगे तो राजनीति को कौन नैतिक संरक्षण देगा?
आज भारत की आजादी का अमृत महोत्सव की परिसम्पन्नता पर एक बड़ा प्रश्न है भारत की राजनीति को अपराध मुक्त बनाने का। यह बेवजह नहीं है कि देशभर में अपराधी तत्त्वों के राजनीति में बढ़ते दखल ने एक ऐसी समस्या खड़ी कर दी है कि अपहरण के आरोपी अदालत में पेश होने की जगह मंत्री पद की शपथ लेने पहुंच जाते हैं। हम ऐसे चरित्रहीन एवं अपराधी तत्वों को जिम्मेदारी के पद देकर कैसे सुशासन स्थापित करेंगे? कैसे आम जनता के विश्वास पर खरे उतरेंगे? इस तरह अपराधी तत्वों को महिमामंडित करने के बाद नीतीश कुमार के उन दावों की क्या विश्वसनीयता रह जाती है कि वे बिहार को अपराध और भ्रष्टाचार से मुक्त कराएंगे?
बड़ा प्रश्न है कि आखिर राजनीति में तब कौन आदर्श उपस्थित करेगा? क्या हो गया उन लोगों को जिन्होंने सदैव ही हर कुर्बानी करके आदर्श उपस्थित किया। लाखों के लिए अनुकरणीय बने, आदर्श बने। चाहे आज़ादी की लड़ाई हो, देश की सुरक्षा हो, धर्म की सुरक्षा हो, अपने वचन की रक्षा हो अथवा अपनी संस्कृति और अस्मिता की सुरक्षा का प्रश्न हो, उन्होंने फर्ज़ और वचन निभाने के लिए अपना सब कुछ होम कर दिया था। महाराणा प्रताप, भगत सिंह, दुर्गादास, छत्रसाल, शिवाजी जैसे वीरों ने अपनी तथा अपने परिवार की सुख-सुविधा को गौण कर बड़ी कुर्बानी दी थी। गुरु गोविन्दसिंह ने अपने दोनों पुत्रों को दीवार में चिनवा दिया और पन्नाधाय ने अपनी स्वामी भक्ति के लिए अपने पुत्र को कुर्बान कर दिया। ऐसे लोगों का तो मन्दिर बनना चाहिए। इनके मन्दिर नहीं बने, पर लोगों के सिर श्रद्धा से झुकते हैं, इनका नाम आते ही। लेकिन आज जिस तरह से हमारा राष्ट्रीय जीवन और सोच विकृत हुए हैं, हमारी राजनीति स्वार्थी एवं संकीर्ण बनी है, हमारा व्यवहार झूठा हुआ है, चेहरों से ज्यादा नकाबें ओढ़ रखी हैं, उसने हमारे सभी मूल्यों को धराशायी कर दिया। राष्ट्र के करोड़ों निवासी देश के भविष्य को लेकर चिन्ता और ऊहापोह में हैं। वक्त आ गया है जब देश की संस्कृति, गौरवशाली विरासत को सुरक्षित रखने के लिए कुछ शिखर के व्यक्तियों को भागीरथी प्रयास करना होगा। दिशाशून्य हुए नेतृत्व वर्ग के सामने नया मापदण्ड रखना होगा। अगर किसी हत्या, अपहरण या अन्य संगीन अपराधों में कोई व्यक्ति आरोपी है तो उसे राजनीतिक बता कर संरक्षण देने की कोशिश या राजनीतिक लाभ उठाने की कुचेष्टा पर विराम लगाना ही होगा।
सीमाओं पर राष्ट्र की सुरक्षा करने वालों की केवल एक ही मांग सुनने में आती है कि मरने के बाद हमारी लाश हमारे घर पहुंचा दी जाए। ऐसा जब पढ़ते हैं तो हमारा मस्तक उन जवानों को सलाम करता है, लगता है कि देश भक्ति और कुर्बानी का माद्दा अभी तक मरा नहीं है। लेकिन राजनीति में ऐसा आदर्श कब उपस्थित होगा। राजनीति में चरित्र एवं नैतिकता के दीये की रोशनी मन्द पड़ गई है, तेल डालना होगा। दिल्ली सरकार में मंत्रियों के घरों पर सीबीआई के छापे और जेल की सलाखें हो या बिहार मंत्री परिषद के गठन में अपराधी तत्वों की ताजपोशी- ये गंभीर मसले हैं, जिन पर राजनीति में गहन बहस हो, राजनीति के शुद्धिकरण का सार्थक प्रयास हो, यह नया भारत-सशक्त भारत की प्राथमिकताएं होनी ही चाहिए।
सभी अपनी-अपनी पहचान एवं स्वार्थपूर्ति के लिए दौड़ रहे हैं, चिल्ला रहे हैं। कोई पैसे से, कोई अपनी सुंदरता से, कोई विद्वता से, कोई व्यवहार से अपनी स्वतंत्र पहचान के लिए प्रयास करते हैं। राजनीति की दशा इससे भी बदतर है कि यहां जनता के दिलों पर राज करने के लिये नेता अपराध, भ्रष्टाचार एवं चरित्रहीनता का सहारा लेते हैं। जातिवाद, प्रांतवाद, साम्प्रदायिकता को आधार बनाकर जनता को तोड़ने की कोशिशें होती हैं। पर हम कितना भ्रम पालते हैं। पहचान चरित्र के बिना नहीं बनती। बाकी सब अस्थायी है। चरित्र एक साधना है, तपस्या है। जिस प्रकार अहं का पेट बड़ा होता है, उसे रोज़ कुछ न कुछ चाहिए। उसी प्रकार राजनीतिक चरित्र को रोज़ संरक्षण चाहिए और यह सब दृढ़ मनोबल, साफ छवि, ईमानदारी एवं अपराध-मुक्ति से ही प्राप्त किया जा सकता है। नीतीश कुमार से बहुत उम्मीदें है, वे अपनी छवि के मुताबिक फैसले लें और ईमानदार लोगों को मंत्री बनाएं। यही उनके लिये सुविधाजनक होगा और यही उनके राजनीतिक जीवन का दीर्घता प्रदान करेंगा।
बिहार ही नहीं समूचे देश में जन प्रतिनिधि बनने एवं उसे मंत्री बनाये जाने की न्यूनतम अपेक्षाओं में उसका अपराधमुक्त होना जरूरी होना चाहिए। उस पर किसी भी अदालत में कोई मामला विचाराधीन नहीं होना चाहिए। बिहार की मौजूदा सरकार में हालत यह है कि जितने विधायकों को मंत्री बनाया गया है, उनमें से बहत्तर फीसद के खिलाफ आपराधिक मामले दर्ज हैं। गैरसरकारी संगठन एसोसिएशन आफ डेमोक्रेटिक रिसर्च की ताजा रिपोर्ट में यह बताया गया है कि तेईस मंत्रियों ने अपने खिलाफ दर्ज आपराधिक मामलों की जानकारी दी है। इनमें सत्रह मंत्रियों के खिलाफ गंभीर अपराधों का धाराएं लगी हुई हैं। कब मुक्ति मिलेगी इन अपराधी तत्वों से राष्ट्र को? राजनीति में चरित्र-नैतिकता सम्पन्न नेता ही रेस्पेक्टेबल (सम्माननीय) हो और वही एक्सेप्टेबल (स्वीकार्य) हो।
-ललित गर्ग
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तम्भकार हैं)
जम्मू-कश्मीर को लेकर अब एक और नया विवाद छिड़ गया है। चुनाव आयोग ने घोषणा की है कि जम्मू-कश्मीर में रहने वाले अन्य प्रांतों के नागरिकों को अब वोट डालने का अधिकार मिलने वाला है। जम्मू-कश्मीर की लगभग सभी पार्टियां इस नई पहल पर परेशान दिखाई पड़ रही हैं। पहले तो वे धारा 370 और 35 ए को ही हटाने का विरोध कर रही थीं। अब उन्हें लग रहा है कि उनके सिर पर एक नया पहाड़ टूट पड़ा है।
उनका मानना है कि केंद्र सरकार के इशारे पर किया जा रहा यह कार्य अगला चुनाव जीतने का भाजपाई पैंतरा भर है लेकिन इससे जम्मू-कश्मीर का असली चरित्र नष्ट हो जाएगा। सारे भारत की जनता कश्मीर पर टूट पड़ेगी और कश्मीरी मुसलमान अपने ही प्रांत में अल्पसंख्यक बन जाएंगे। इस वक्त वहां की स्थानीय मतदाताओं की संख्या लगभग 76 लाख है। यदि उसमें 25 लाख नए मतदाता जुड़ गए तो उन बाहरी लोगों का थोक वोट भाजपा को मिलेगा।
जम्मू के भी ज्यादातर वोटर भाजपा का ही साथ देंगे। ऐसे में कश्मीर की परंपरागत प्रभावशाली पार्टियां हमेशा के लिए हाशिए में चली जाएंगी। पहले ही निर्वाचन-क्षेत्रों के फेर-बदल के कारण घाटी की सीटें कम हो गई हैं। इसी का विरोध करने के लिए नेशनल कांफ्रेंस के अध्यक्ष डॉ. फारुक अब्दुल्ला ने भाजपा को छोड़कर सभी दलों की एक बैठक भी बुलाई है। पीडीपी की नेता महबूबा मुफ्ती भी काफी गुस्से में नजर आ रही हैं।
इन कश्मीरी नेताओं का गुस्सा बिल्कुल स्वाभाविक है, क्योंकि नेता लोग राजनीति में आते ही इसीलिए हैं कि उन्हें येन-केन-प्रकरेण सत्ता-सुख भोगना होता है। केंद्र सरकार इधर जो भी सुधार वहां कर रही है, वह उन नेताओं को बिगाड़ के अलावा कुछ नहीं लगता। ऐसे में इन कश्मीरी नेताओं से मेरा निवेदन है कि वे अपनी दृष्टि ज़रा व्यापक क्यों नहीं करते हैं?
कश्मीरी नेता देश के गृहमंत्री, राज्यपाल, सांसद, राजदूत और केंद्र सरकार के पूर्ण सचिव बन सकते हैं तथा कश्मीरी नागरिक देश में कहीं भी चुनाव लड़ सकते हैं और वोट डाल सकते हैं तो यही अधिकार गैर-कश्मीरी नागरिकों को कश्मीर में दिए जाने का विरोध क्यों होना चाहिए? देश के जैसे अन्य प्रांत, वैसा ही कश्मीर भी। वह कुछ कम और कुछ ज्यादा क्यों रहे?
यदि कश्मीरी लोग देश के किसी भी हिस्से में जमीन खरीद सकते हैं तो देश के कोई भी नागरिक कश्मीर में जमीन क्यों नहीं खरीद सकते? हमारे कश्मीरी नेता कश्मीर जैसे सुंदर और शानदार प्रांत को अन्य भारतीयों के लिए अछूत बनाकर क्यों रखना चाहते हैं? मैं तो वह दिन देखने को तरस रहा हूं कि जबकि कोई पक्का कश्मीरी मुसलमान भारत का राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री बन जाएं।
-डॉ. वेदप्रताप वैदिक
अरविंद केजरीवाल को दिल्ली की जनता ने मुख्यमंत्री बनाया लेकिन वह तो प्रधानमंत्री बनने का ख्वाब देखते हैं इसलिए दिल्ली की जनता से मिली जिम्मेदारियों को निभाने के प्रति उनका पूरा ध्यान ही नहीं है। केजरीवाल से अगर आपको मिलना है तो दिल्ली की बजाय गुजरात या हिमाचल प्रदेश जाकर मिलना होगा क्योंकि आजकल वह इन्हीं राज्यों में ज्यादा पाये जाते हैं। आपको जानकर हैरानी होगी कि केजरीवाल ऐसे मुख्यमंत्री हैं जिन्होंने अपने पास एक भी विभाग नहीं रखा है। उन्होंने अपने डिप्टी मनीष सिसोदिया को 18 विभागों की जिम्मेदारी सौंपी हुई है। केजरीवाल ने यह सब इसलिए किया है ताकि उनका ध्यान आम आदमी पार्टी को राष्ट्रीय स्तर पर खड़ा करने में लगा रहे और दिल्ली की सफलता का ढिंढोरा पीट-पीट कर वह अपने प्रधानमंत्री पद की दावेदारी को मजबूत कर सकें। आप एक बात पर ध्यान दीजिये। केजरीवाल दिल्ली की शिक्षा और स्वास्थ्य क्षेत्र में सफलता का जो ढिंढोरा पीट रहे हैं यदि उसे सही मान भी लिया जाये तो शिक्षा मंत्री मनीष सिसोदिया हैं और स्वास्थ्य मंत्री हाल तक सत्येंद्र जैन रहे हैं। केजरीवाल ने खुद किस विभाग का कायापलट किया है इसके बारे में भी उन्हें जनता को बताना चाहिए। साथ ही शिक्षा और स्वास्थ्य यदि दिल्ली सरकार की बड़ी उपलब्धियां हैं तो राज्य सरकार को यह भी बताना चाहिए कि उसके कार्यकाल में कितने स्कूल खोले गये और कितने नये अस्पताल बनाये गये। दिल्ली में शराब की दुकानों को बढ़ाने में रुचि दिखाने वाली केजरीवाल सरकार को यह भी बताना चाहिए कि उसने कितने नये शिक्षकों की भर्ती कर शिक्षा व्यवस्था को सुधारा है?
बहरहाल, भाजपा की ओर से हाल ही में ऐलान कर दिया गया है कि 2024 में भी उनकी तरफ से प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी ही होंगे। नरेंद्र मोदी के मुकाबले में कौन होगा यह कांग्रेस तथा अन्य विपक्षी दल अभी तक तय नहीं कर पाये हैं लेकिन आम आदमी पार्टी के दो बड़े नेताओं ने साफ कर दिया है कि 2024 का लोकसभा चुनाव मोदी बनाम केजरीवाल होगा। पहले आम आदमी पार्टी के राज्यसभा सांसद संजय सिंह ने ऐलान किया कि 2024 का चुनाव भाजपा बनाम आम आदमी पार्टी होगा तो उसके दूसरे दिन दिल्ली के उपमुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया ने दावा कर दिया कि 2024 का लोकसभा चुनाव मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल बनाम प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी होगा। उन्होंने आरोप लगाया कि प्रधानमंत्री मोदी आम आदमी पार्टी के राष्ट्रीय संयोजक केजरीवाल को डराने के लिए सभी हथकंडे आजमा रहे हैं इसलिए सीबीआई के छापे पड़वाये जा रहे हैं। जहां तक केजरीवाल और मोदी की भिड़ंत की बात है तो केजरीवाल 2014 में भी प्रधानमंत्री पद का ख्वाब देख रहे थे और इसीलिए उन्होंने दिल्ली के मुख्यमंत्री का पद छोड़कर वाराणसी संसदीय क्षेत्र से भाजपा उम्मीदवार नरेंद्र मोदी के खिलाफ लोकसभा का चुनाव लड़ा था। परिणाम क्या रहा यह सभी जानते हैं। यही नहीं, 2020 के दिल्ली विधानसभा चुनावों के दौरान आम आदमी पार्टी के पक्ष में वोट डालने के लिए दिल्ली के लोगों से अपील करते हुए केजरीवाल ने कहा था कि इस छोटे चुनाव में हमें वोट दे दीजिये बड़े चुनाव में आप मोदी जी को वोट दे देना। वैसे कई बार लगता है कि 2014 और 2019 में राहुल गांधी से मुकाबला कर चुके मोदी भी इस बार चाहते हैं कि 2024 के लोकसभा चुनावों में केजरीवाल से मुकाबला किया जाये। इसलिए वह कांग्रेस के परिवारवाद के साथ ही आम आदमी पार्टी की ओर से बढ़ावा दिये जा रहे रेवड़ी कल्चर के खिलाफ लगातार बोल रहे हैं।
दूसरी ओर, जहां केजरीवाल खुद को प्रधानमंत्री की रेस में मान रहे हैं तो दूसरे नेता भी अपने नाम को आगे करवाने में लग गये हैं। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के विपक्ष की ओर से प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में उभरने की चर्चा के बीच, उनकी पार्टी जनता दल यूनाइटेड ने कहा है कि अगर अन्य दल चाहें तो नीतीश कुमार एक विकल्प हो सकते हैं। जद (यू) अध्यक्ष ललन सिंह ने कहा कि नीतीश कुमार का मुख्य ध्यान 2024 के लोकसभा चुनावों में भाजपा से मुकाबला करने के लिए विपक्षी दलों को एकजुट करने पर है। यानि नीतीश अब पटना की बजाय दिल्ली पर पूरा ध्यान लगाना चाहते हैं। बताया जा रहा है कि अगले सप्ताह बिहार विधानसभा में विश्वास मत हासिल करने के बाद विभिन्न दलों के नेताओं से मिलने के लिए नीतीश कुमार राष्ट्रीय राजधानी का दौरा करेंगे और उसके बाद ऐसे दौरे करते रहेंगे। यानि जिस तरह से प्रधानमंत्री पद की रेस में शामिल ममता बनर्जी लगातार दिल्ली का दौरा कर आगे की संभावनाएं टटोल रहीं हैं उसी तरह अब नीतीश कुमार भी दिल्ली आ आकर अपने लिए संभावनाएं टटोलेंगे। लेकिन इन नेताओं को हम 2019 के लोकसभा चुनावों के दौरान आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे एन. चंद्रबाबू नायडू का हश्र याद दिलाना चाहेंगे। उस समय चंद्रबाबू नायडू को लग रहा था कि वह देशभर में विपक्ष को जोड़ने का माद्दा रखते हैं इसलिए अपने राज्य के विधानसभा और लोकसभा चुनावों की चिंता नहीं करते हुए वह कभी दिल्ली, कभी मुंबई, कभी कोलकाता, कभी लखनऊ तो कभी अन्य किसी स्थान के चक्कर लगाते रहे और विपक्षी नेताओं के साथ फोटो खिंचवाते रहे। इस व्यस्तता के बीच कब जनता ने चंद्रबाबू की जमीन पूरी तरह खिसका दी इसका पता उन्हें चुनाव परिणाम आने के बाद लगा।
बहरहाल, प्रधानमंत्री पद के दावेदारों की बढ़ती संख्या की बात है तो ऐसे बहुत से नेता हैं जो इस रेस में शामिल हैं। कुछ ने अपने नाम सार्वजनिक कर दिये हैं तो कुछ मौके की तलाश में हैं। लेकिन यहां गौर करने वाली बात यह है कि इस रेस में शामिल सभी विपक्षी नेताओं में एकता की कमी है। पीएम पद की रेस में शामिल नेताओं के नाम पर गौर करें तो एक के नाम पर दूसरा राजी नहीं होगा तो दूसरे के नाम पर तीसरा राजी नहीं होगा। साथ ही यह नेता देश के लिए विजन पेश करने की बजाय सिर्फ इस बात के गुणा-भाग में लगे हैं कि किस राज्य में भाजपा की कितनी सीट कम हो सकती है और फिर कैसे किसको मिलाकर अपना नंबर लग सकता है। ऐसे में देश को तय करना होगा कि वापस खिचड़ी सरकारों के दौर में जाना है या फिर 2047 तक भारत को विकसित राष्ट्र बनाने के संकल्प के साथ काम कर रहे लोगों के साथ खड़ा रहना है।
-नीरज कुमार दुबे
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 15 अगस्त को लाल किले से दिए भाषण में सबसे ज्यादा चिंता देश में फैले भ्रष्टाचार जताई। कहा कि भ्रष्टाचार देश को दीमक की तरह खोखला कर रहा है। भ्रष्टाचार से देश को लड़ना होगा। हमारी कोशिश है कि जिन्होंने देश को लूटा है, उनसे लूटा धन वसूला जाए। उन्होंने यहां तक कहा कि जब तक भ्रष्टाचार और भ्रष्टाचारी के प्रति नफरत का भाव पैदा नहीं होगा, तब तक भ्रष्टाचार खत्म नहीं होगा।
वास्तव में भ्रष्टाचार आज बड़ा मुद्दा है। ये देश में जड़ तक व्याप्त हो गया है। इसे खत्म करने के लिए बड़ा अभियान चलाना होगा। आज से 50−60 साल पहले पैसे की महत्ता नहीं थी। ईमानदार और ईमानदारी को सम्मान दिया जाता था। आज उसका उलटा हो गया है। आज हालत यह हो गई है कि ईमानदारी पर चलने वालों को उनके रिश्तेदार, पड़ोसी, परिवार वाले और उनके बच्चे तक बेवकूफ बताने लगे हैं। ईमानदार कहकर उनका मजाक उड़ाया जाता है।
2014 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार आने के बाद से उन पर और उनकी सरकार पर किसी तरह की खरीद में भ्रष्टाचार के आरोप तो नहीं लगे, लेकिन निचले स्तर पर इसे रोकने के लिए कुछ ज्यादा नहीं हुआ। 2014 के चुनाव प्रचार के दौरान नरेंद्र मोदी ने घोषणा की थी कि बैंकों को लूटकर भागने वालों से बैंकों का पैसा वसूला जाएगा। उन्हें जेल भेजा जाएगा। विदेशी बैकों में जमा पैसा देश में वापस लाया जाएगा। उस चुनाव में जनता ने उन्हें पूर्ण बहुमत देकर प्रधानमंत्री बनाया। दूसरी बार भी वे बहुमत से प्रधानमंत्री बने, किंतु दूसरे देशों के बैंकों में जमा धनवापसी के दिशा में कुछ नहीं हुआ। विश्व के बैंकों में कितना पैसा जमा है, यह भी सही ढंग से पता नहीं चल पाया।
प्रधानमंत्री की इस घोषणा से लगता है कि देश में भ्रष्टाचार के विरुद्ध चल रही कार्रवाई और तेज होगी। विपक्ष के नेताओं के शोर मचाने से कार्रवाई रुकने वाली नहीं है। कार्रवाई होनी भी चाहिए। देश का लूटा गया धन आना चाहिए। पिछले कुछ सालों में भ्रष्टाचार करने वाले पर कार्रवाई जरूर हुई, किंतु जिस स्तर पर होना चाहिए थी, उस स्तर पर नहीं हुई। भ्रष्टाचार के विरुद्ध कार्रवाई से लगता है कि भ्रष्टाचार करने में विपक्षी दल वाले ही शामिल हैं। भाजपाई सब दूध के धुले हैं। विपक्ष के आरोप हैं कि भ्रष्टाचार के कई पुराने आरोपी भाजपा में शामिल हो कर आराम से रह रहे हैं। विपक्ष कहता रहा है क्या भाजपा में जाकर सब गंगा में धुले हो जाते हैंॽ भाजपा में आकर भ्रष्टाचारी भी शुद्ध हो जाते हैं। लोग−बाग तो यह कहने लगे हैं कि भाजपा ऐसी गंगा बन गई है जिसमें आने वाले भ्रष्टाचारी और बेईमान शुद्ध हो जाते हैं उनके पाप धुल जाते हैं। इसलिए पहले भ्रष्टाचार में शामिल रहे बड़े मगरमच्छों पर कार्रवाई की जरूरत है। इनके खिलाफ कार्रवाई होती देख, छोटी मछलियां खुद सुधार जाएंगी। ऐसा हो भी रहा है किंतु उसमें उतनी गति नहीं, जितनी होनी चाहिए।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का भ्रष्टाचार के विरुद्ध ये अभियान बड़ा अभियान है। बहुत बड़ा अभियान है। पर वह इसे अपनी पार्टी से शुरू करें जो ज्यादा असर होगा। जरूरत है कि भाजपा अपने अंदर के बेईमानों को भी देखे। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार अपने से शुरुआत करे। अपने सांसद और विधायकों को शुचिता का पाठ पढ़ाया जाना चाहिए। उनसे यह भी कहा जाना चाहिए कि वे अपने और अपने परिवार वालों की चल−अचल संपत्ति की घोषणा भी करें। यदि भ्रष्टाचार के विरुद्ध अभियान भाजपा अपनी पार्टी से शुरू करती है, तो उसकी कार्रवाई पर विपक्ष आरोप नहीं लगा पाएगा। आरोप लगाए तो जनता ध्यान नहीं देगी।
भाजपा शासित कई प्रदेशों में देखने में आ रहा है कि मुख्यमंत्री ईमानदार हैं। भ्रष्टाचार रोकना चाहते हैं। कार्यकर्ताओं को भी ताकीद की है। किंतु प्रशासनिक अमला आकंठ भ्रष्टाचार में डूबा है। पहले जो काम सौ रुपये में हो जाता था। वह हो आज भी रहा है, किंतु उसके लिए व्यक्ति को दस हजार रुपये देने पड़ रहे हैं। सचिवालय से लेकर जिले तक बैठे अधिकारी किसी की सुनने को तैयार नहीं हैं। जहां भी जांच हो भ्रष्टाचार ही भ्रष्टाचार मिलेगा।
लगभग दो-तीन साल पहले बिजनौर में मेरे घर के सामने सड़क बनी। दबाव के कारण अन्य के मुकाबले अच्छी गुणवत्ता का सामान प्रयोग किया गया। बढ़िया सड़क बनाई। किंतु बातों बातों में ठेकेदार यह कह बैठा कि ऊपर 40 प्रतिशत कमीशन जा रहा है। इसके बाद उसे भी कुछ चाहिए। यह हालात नहीं सच्चाई है। इसे रोकना होगा। विदेशों के बैंकों में जमा धन वापस लाने के काम में भी तेजी लानी होगी।
-अशोक मधुप
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
लाल किले से हर पंद्रह अगस्त को प्रधानमंत्री लोग जो भाषण देते हैं, उनसे देश में कोई विवाद पैदा नहीं होता। वे प्रायः विगत वर्ष में अपनी सरकार द्वारा किए गए लोक-कल्याणकारी कामों का विवरण पेश करते हैं और अपनी भावी योजनाओं का नक्शा पेश करते हैं लेकिन इस बार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के भाषण के लगभग एक घंटे के हिस्से पर किसी विरोधी ने कोई अच्छी या बुरी टिप्पणी नहीं की लेकिन सिर्फ दो बातों को लेकर विपक्ष ने उन पर गोले बरसाने में कोई कसर नहीं छोड़ी।
कांग्रेसी नेताओं को बड़ा एतराज इस बात पर हुआ कि मोदी ने महात्मा गांधी, नेहरु और पटेल के साथ-साथ इस मौके पर वीर सावरकर और श्यामाप्रसाद मुखर्जी का नाम क्यों ले लिया? चंद्रशेखर, भगतसिंह, बिस्मिल आदि के नाम भी मोदी ने लिये और स्वातंत्र्य-संग्राम में उनके योगदान को प्रणाम किया। क्या इससे नेहरुजी की अवमानना हुई है? कतई नहीं। फिर भी सोनिया गांधी ने एक गोल-मोल बयान जारी करके मोदी की निंदा की है। कुछ अन्य कांग्रेसी नेताओं ने सावरकर को पाकिस्तान का जनक बताया है। उन्हें द्विराष्ट्रवाद का पिता कहा है। इन पढ़े-लिखे हुए नेताओं से मेरा विनम्र अनुरोध है कि वे सावरकर के लिखे ग्रंथों को एक बार फिर ध्यान से पढ़ें।
पहली बात तो यह है कि सावरकर और उनके भाई ने जो कुर्बानियां की हैं और अंग्रेजी राज के विरुद्ध जो साहस दिखाया है, वह कितना अनुपम है। इसके अलावा अब से लगभग 40 साल पहले राष्ट्रीय अभिलेखागार से अंग्रेजों के गोपनीय दस्तावेजों को खंगालकर सावरकर पर लेखमाला लिखते समय मुझे पता चला कि अब के कांग्रेसियों ने उन पर अंग्रेजों से समझौते करने के निराधार आरोप लगा रखे हैं। यदि सावरकर इतने ही अछूत हैं तो प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने मुंबई में बने उनके स्मारक के लिए अपनी निजी राशि से दान क्यों दिया था? हमारे स्वातंत्र्य-संग्राम में हमें क्रांतिकारियों, गांधीवादियों, मुसलमान नेताओं यहां तक कि मोहम्मद अली जिन्ना के योगदान का भी स्मरण क्यों नहीं करना चाहिए? विभाजन के समय उनसे मतभेद हो गए, यह अलग बात है। कर्नाटक के भाजपाइयों ने नेहरु को भारत-विभाजन का जिम्मेदार बताया, यह बिल्कुल गलत है।
मोदी की दूसरी बात परिवारवाद को लेकर थी। उस पर कांग्रेसी नेता फिजूल भन्नाए हुए हैं। वे अब कुछ भाजपाई मंत्रियों और सांसदों के बेटों के नाम उछालकर मोदी के परिवारवाद के आरोप का जवाब दे रहे हैं। वे बड़ी बुराई का जवाब छोटी बुराई से दे रहे हैं। बेहतर तो यह हो कि भारतीय राजनीति से ‘बापकमाई’ की प्रवृत्ति को निर्मूल करने का प्रयत्न किया जाए। विपक्ष को मोदी की आलोचना का पूरा अधिकार है लेकिन वह सिर्फ आलोचना करे और मोदी द्वारा कही गई रचनात्मक बातों की उपेक्षा करे तो जनता में उसकी छवि कैसी बनेगी? ऐसी बनेगी कि जैसे खिसियानी बिल्ली खंभा नोचती है। विपक्ष में बुद्धि और हिम्मत होती तो भाजपा के इस कदम की वह कड़ी भर्त्सना करता कि उसने 14 अगस्त (पाकिस्तान के स्वाधीनता दिवस) को ‘विभाजन विभीषिका स्मृति दिवस’ के तौर पर मनाया। अब तो जरूरी यह है कि भारत और पाक ही नहीं, दक्षिण और मध्य एशिया के 16-17 देश मिलकर ‘आर्यावर्त्त’ के महान गौरव को फिर लौटाएं।
-डॉ. वेदप्रताप वैदिक
भारतीय स्वतंत्रता का एक नया दौर प्रारंभ हो रहा है या यूं कहूं कि हमारी आजादी अब अमृत महोत्सव मनाने के बाद शताब्दी वर्ष की ओर अग्रसर हो रही है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने जिस तरह स्वतंत्रता की 75वीं वर्षगांठ पर लाल किले की प्राचीर से अपना एक गैर-राजनीतिक वक्तव्य देकर देश की जनता को जगाया वहीं राजनीतिक दलों की नींद उड़ा दी। उन्होंने परिवारवाद और भ्रष्टाचार पर प्रहार करते हुए अनेक ऐसी समस्याओं का जिक्र किया जो एक प्रधानमंत्री के मुख से कम ही सुनने को मिलती है। इससे यह तो साफ हो गया कि वे इन बुराइयों से निपटने और उनके खिलाफ जनमत का निर्माण करने के लिए संकल्प ले चुके हैं। उन्होंने राजनीति ही नहीं बल्कि जन-जन में व्याप्त होते भाई-भतीजावाद जैसी अनेक विसंगतियों एवं विषमताओं को देश के लिये गंभीर खतरा बताया। उन्होंने यह तो स्पष्ट नहीं किया कि राजनीति से इतर कहां-कहां वंशवाद व्याप्त है, लेकिन सब जानते हैं कि देश में व्यापारिक घरानों से लेकर, पत्रकारिता, साहित्य, शिक्षा, न्याय-प्रक्रिया, धार्मिक, सामाजिक संगठनों में यह व्यापक स्तर पर परिव्याप्त है। एक लंबे अर्से से न्यायपालिका में परिवारवाद को लेकर गंभीर सवाल उठ रहे हैं।
आमतौर पर स्वाधीनता दिवस को लाल किले की प्राचीर से प्रधानमंत्री सरकार की उपलब्धियों और भविष्य की योजनाओं पर बात करते हैं। मगर इस बार नरेन्द्र मोदी ने इस परंपरा को तोड़ते हुए देश के सामने कुछ ऐसी बड़ी चुनौतियों को रेखांकित किया, जिसे लेकर विपक्ष की भृकुटि कुछ तन गई है। उनका अमृत महोत्सव उद्बोधन एक छोटी-सी किरण है, जो सूर्य का प्रकाश भी देती है और चन्द्रमा की ठण्डक भी। और सबसे बड़ी बात, वह यह कहती है कि ''अभी सभी कुछ समाप्त नहीं हुआ''। अभी भी सब कुछ ठीक हो सकता है। मोदी-उद्बोधन कोई स्वप्न नहीं, जो कभी पूरा नहीं होता। यह तो भारत को सशक्त एवं विकसित बनाने के लिए ताजी हवा की खिड़की है।
देश की दो शीर्ष नेतृत्व शक्तियों की सूझबूझ, दूरगामी सोच एवं दृढ़ता से भारत की आजादी का अमृत महोत्सव न केवल यादगार बना बल्कि ऐतिहासिक भी बना। मोदी की राष्ट्रवादी सोच के कारण यह गौरवशाली अवसर अनेक नये संकल्पों के साथ इतिहास में दर्ज हो गया है। लगभग देश के कोने-कोने हर मुहल्ले में कोई न कोई विशेष आयोजन और हर घर तिरंगा अभियान तो कुल मिलाकर बहुत यादगार रहा है। इस खास पड़ाव पर जितना महत्वपूर्ण राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू का उद्बोधन है, उतनी ही चर्चा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के भाषण की हुई है। स्वतंत्रता दिवस की पूर्व संध्या पर राष्ट्र को संबोधित करते हुए राष्ट्रपति ने कहा कि हम भारतीयों ने संदेह जताने वाले लोगों को गलत साबित कर दिया है। इस मिट्टी में न केवल लोकतंत्र की जड़ें बढ़ी हैं, बल्कि समृद्ध भी हुईं। राष्ट्रपति ने कहा कि देश का विकास अधिक समावेशी होता जा रहा है और क्षेत्रीय असमानताएं भी कम हो रही हैं। द्रौपदी मुर्मू ने गौरव के साथ याद किया कि अधिकांश लोकतांत्रिक देशों में वोट देने का अधिकार प्राप्त करने के लिए महिलाओं को लंबे समय तक संघर्ष करना पड़ा था, लेकिन हमारे गणतंत्र की शुरुआत से ही भारत ने सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार को अपनाया। राष्ट्रपति मुर्मू ने अपने पहले उद्बोधन से न केवल देशवासियों को प्रेरित किया है, बल्कि उन्हें गर्व का भी एहसास कराया है।
मोदी ने लाल किले से संबोधन के दौरान भ्रष्टाचारियों पर जमकर प्रहार किया। उन्होंने इसके खिलाफ जंग में देशवासियों का सहयोग भी मांगा। प्रधानमंत्री के इस उपयोगी उद्बोधन के अनेक अर्थ निकाले जा रहे हैं, प्रशंसा हो रही है, तो आलोचक भी कम नहीं हैं। भ्रष्टाचार देश में अगर बढ़ रहा है, तो किसकी जिम्मेदारी बनती है? भ्रष्टाचार को कौन खत्म करेगा? आजादी के 75वें साल में इस सवाल का उठना अपने आप में गंभीर बात है। आजादी के स्वप्न में भ्रष्टाचार से मुक्ति भी शामिल थी। आज भ्रष्टाचार पर प्रधानमंत्री अगर चिंता जता रहे हैं, तो देश अच्छी तरह से वस्तुस्थिति को समझ रहा है। प्रधानमंत्री ने बिल्कुल सही कहा है कि किसी के पास रहने को जगह नहीं और किसी के पास चोरी का माल रखने की जगह नहीं है। निस्संदेह, भ्रष्टाचार और भाई-भतीजावाद के खिलाफ हमें मिलकर कदम उठाने पड़ेंगे। भारतीय जनता को सदैव ही किसी न किसी स्रोत से ऐसे संदेश मिलते रहे हैं। कभी हिमालय की चोटियों से, कभी गंगा के तटों से और कभी सागर की लहरों से। कभी ताज, कुतुब और अजन्ता से, तो कभी श्रीराम, श्रीकृष्ण, बुद्ध और महावीर से। कभी गुरु नानक, कबीर, रहीम और गांधी से और कभी कुरान, गीता, रामायण, भगवत् और गुरुग्रंथों से। यहां तक कि हमारे पर्व होली, दीपावली भी संदेश देते रहते हैं। लेकिन इस बाद आजादी का अमृत महोत्सव एवं लालकिले की प्राचीर से प्रधानमंत्री का उद्बोधन इस सन्देश का माध्यम बना। निश्चित ही इन संदेशों से भारतीय जन-मानस की राष्ट्रीयता सम्भलती रही, सजती रही और कसौटी पर आती रही तथा बचती रही। एक बार फिर प्रधानमंत्री ने राजनीति से परे जाकर देश को जोड़ने, सशक्त बनाने एवं नया भारत निर्मित करने का सन्देश दिया है और इस सन्देश को जिस तरह आकार दिया जाना है, उसके पांच प्रण भी व्यक्त किये गये हैं।
कोई भी विकसित होता हुआ देश किन्हीं समस्याओं पर थमता नहीं है। समाधान तलाशते हुए आगे बढ़ना ही जीवंत एवं विकसित देश की पहचान होती है। प्रधानमंत्री ने पांच प्रण की बात की है। उन प्रण यानी संकल्पों को अगले 25 वर्षों में जब देश अपनी आजादी के 100 साल पूरे करेगा, तब तक हमें पूरा करना है। पहला संकल्प है, विकसित देश बनना। दूसरा संकल्प, देश के किसी कोने में गुलामी का अंश न रह जाए। उन्होंने सही कहा है कि हमें औरों के जैसा दिखने की कोशिश करने की जरूरत नहीं है। हम जैसे भी हैं, वैसे ही सामर्थ्य के साथ खड़े होंगे। तीसरा संकल्प, हमें अपनी विरासत पर गर्व होना चाहिए। चौथा संकल्प, देश में एकता और एकजुटता रहे। पांचवां संकल्प, नागरिकों का कर्तव्य। वाकई देश में सबको अपना कर्तव्य निभाना होगा। प्रधानमंत्री ने उचित ही कहा है कि यदि सरकार का कर्तव्य है- हर समय बिजली देना, तो नागरिक का कर्तव्य है- कम से कम बिजली खर्च करना। अगर हमने इन संकल्पों को गंभीरता से लिया, तो भारत को विश्वगुरु होने से कोई नहीं रोक सकेगा।
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद जीवन धारा को जो रास्ता लेना था, वह नहीं मिला। हम स्वतंत्रता का सदुपयोग नहीं कर सके। मनुष्य-मनुष्य में जब तक प्रेम और सहयोग का अटल नियम नहीं माना जायेगा तब तक उभयपक्षी की स्वतंत्रता नहीं रह सकती। हमने यह अनदेखा किया। न्याय हमें एक-दूसरे के अधिकारों की सीमा को लांघने के लिए विवश नहीं करता। स्वार्थवश यह दृष्टि हम नहीं अपना सके। सहिष्णुता ऐसी किसी उल्लंघन की अवस्था में परस्पर विद्वेष, कलह और संबंध को रोकती है। इसका भी हम अर्थ नहीं समझ सके। विपरीत स्थितियां आती रहीं, चुनौतियां आती रहीं पर सत्य, अहिंसा, राष्ट्रवाद के शाश्वत संदेश सदैव मिलते रहे। यह और बात है कि हम राष्ट्रीय चरित्र के पात्र नहीं बन सके। आजादी के बाद से जोड़-तोड़ की राजनीति चलती रही। पार्टियां बनाते रहे फिर तोड़ते रहे। अनुशासन का अर्थ हम निजी सुविधानुसार निकालते रहे। जिसका विषैला असर प्रजातंत्र के सर्वोच्च मंच से लेकर साधारण नागरिक की छोटी से छोटी इकाई गृहस्थी तक देखा जा सकता है। बच्चा-बच्चा अपनी जाति में वापिस चला गया। कस्बे-कस्बे में हिन्दुस्तान-पाकिस्तान की सीमायें खिंच गईं। क्रांति का मतलब मारना नहीं राष्ट्र की व्यवस्था को बदलना होता है। मोदी के आह्वान का हार्द व्यवस्था को सशक्त बनाते हुए राष्ट्र को नयी शक्ल देने का है। वास्तव में यदि हम भारत को विकसित राष्ट्र बनाने के अपने सपने को साकार करना चाहते हैं तो हमें अपनी सोच और अपने तौर-तरीके बदलने होंगे। जब प्रधानमंत्री देश को बदलने और आगे ले जाने के लिए संकल्प व्यक्त कर रहे हैं तो फिर देश की जनता का भी यह दायित्व बनता है कि वह अपने हिस्से के संकल्प ले।
-ललित गर्ग
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार एवं स्तम्भकार हैं)
भारत आजादी का अमृत महोत्सव मना रहा है। इस दौरान देश के हर कोने में जश्न का माहौल है। जैसे-जैसे घड़ी की सुइयां 15 अगस्त 2022 की ओर बढ़ रही हैं, वैसे-वैसे लोगों का हर्षोल्लास बढ़ता जा रहा है। लेकिन इस खुशी के मौके पर हमें अपने उन देशवासियों की भी याद करनी चाहिए जिन्हें राष्ट्र के विभाजन के कारण अपनी जान गंवानी पड़ी थी। भारत के विभाजन के समय हुए सांप्रदायिक दंगों के दौरान जो लाखों लोग मारे गये और जिन लाखों लोगों को अपनी जड़ों से विस्थापित होना पड़ा, राष्ट्र उन्हें आज विभाजन विभीषिका स्मृति दिवस मनाकर श्रद्धांजलि दे रहा है। उल्लेखनीय है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पिछले साल ऐलान किया था कि हर साल 14 अगस्त को विभाजन विभीषिका स्मृति दिवस मनाया जायेगा। विभाजन विभीषिका स्मृति दिवस मनाने की घोषणा के पीछे उद्देश्य यह था कि वर्तमान और आने वाली पीढ़ी विभाजन के दौरान लोगों द्वारा झेले गए दर्द और पीड़ा को जाने। विभाजन विभीषिका स्मृति दिवस हमें भेदभाव, वैमनस्य और दुर्भावना के जहर को खत्म करने के लिए न केवल प्रेरित कर रहा है बल्कि इससे देश की एकता, सामाजिक सद्भाव और मानवीय संवेदनाएं भी मजबूत होंगी।
इन 75 वर्षों के सफर में भारत यकीनन बहुत आगे बढ़ गया है और दुनिया का सबसे बड़ा और सफल लोकतंत्र तथा तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन गया है। लेकिन देश के विभाजन के दर्द को कभी भुलाया नहीं जा सकता है। अपनी आजादी का जश्न मनाते हुए एक कृतज्ञ राष्ट्र, मातृभूमि के उन बेटे-बेटियों को विभाजन विभीषिका स्मृति दिवस पर नमन कर रहा है, जिन्हें हिंसा के उन्माद में अपने प्राणों की आहुति देनी पड़ी थी। देखा जाये तो आजादी के आंदोलन में हर किसी का योगदान सराहनीय रहा लेकिन सियासी सेनानियों ने कुछ ऐसी गलतियां भी कीं जिसकी बड़ी कीमत आम लोगों को चुकानी पड़ी थी। इसलिए सवाल उठता है कि जो लोग भारत की आजादी का श्रेय अकेले लेना चाहते हैं वह यह बताएं कि भारत के विभाजन के लिए किसे दोषी ठहराया जाये?
उल्लेखनीय है कि भारत को 15 अगस्त, 1947 को ब्रिटिश शासन से आज़ादी मिली। हालाँकि, स्वतंत्रता की मिठास के साथ-साथ देश को विभाजन का आघात भी सहना पड़ा था। नए स्वतंत्र भारतीय राष्ट्र का जन्म विभाजन के हिंसक दर्द के साथ हुआ था जिसने लाखों भारतीयों पर पीड़ा के स्थायी निशान छोड़े। देखा जाये तो भारत का विभाजन मानव इतिहास में सबसे बड़े विस्थापनों में से एक है, जिससे लगभग 20 से 25 लाख लोग प्रभावित हुए। लाखों परिवारों को अपने पैतृक गांवों, कस्बों और शहरों को छोड़ना पड़ा था और शरणार्थी के रूप में एक नया व संघर्षमय जीवन जीने के लिए मजबूर होना पड़ा था। खास बात यह कि विभाजन के समय भड़के सांप्रदायिक दंगों को रोकने के लिए उस वक्त महात्मा गांधी बंगाल के नोआखली में अनशन पर बैठ गए थे और स्वतंत्रता दिवस समारोह में भी शामिल नहीं हुए थे।
15 अगस्त 1947 की सुबह जहां आजादी लेकर आई थी और सभी के चेहरों पर खुशी थी वहीं यह भी दृश्य देखने को मिल रहे थे कि लोग ट्रेनों, बैलगाड़ियों, घोड़ों या खच्चरों पर बैठकर या फिर पैदल ही सर पर सामान लादे हुए और अपने बच्चों का हाथ पकड़े हुए अपनी मातृभूमि को छोड़कर अलग-अलग बन चुके देश की ओर रवाना हो रहे थे। भारत के विभाजन के समय भड़के सांप्रदायिक दंगों में लोगों की मौत का आंकड़ा 20 लाख तक बताया जाता है। ना जाने उन दंगों में कितने परिवार बिछड़ गये, कितनी महिलाओं को अपनी इज्जत से हाथ धोना पड़ा, कितने लोगों के शरीर के टुकड़े कर दिये गये, कितने लोगों के घर लूट लिये गये या फूंक दिये गये...तत्कालीन सरकार और प्रशासन बस शांति की अपील करता रह गया। तत्कालीन राजनेताओं की यह सबसे बड़ी नाकामी थी कि ना तो वह देश का विभाजन रोक पाये और ना ही कत्लेआम।
अंग्रेज भारत का विभाजन धार्मिक आधार पर करने में सफल रहे थे। बहुत से विद्वान मानते हैं कि उस समय कांग्रेस ने सत्ता लोलुपता ना दिखाई होती और अंग्रेजों के आगे घुटने नहीं टेके होते तो ना तो देश का विभाजन होता ना ही लोगों को विस्थापित होना पड़ता। अंग्रेजों ने कांग्रेस की किसी भी कीमत पर सत्ता पाने की आतुरता को भांप लिया था इसलिए योजनाबद्ध तरीके से स्वतंत्रता की घोषणा पहले और विभाजन की घोषणा बाद में की थी। इससे भारत और पाकिस्तान की नयी सरकारों के सर पर एकदम से शांति कायम रखने की जिम्मेदारी आ गयी। जाहिर तौर पर दोनों ही सरकारें शांति व्यवस्था कायम करने के लिए तैयार नहीं थीं। इस वजह से हालात बिगड़ते चले गये। देखते-देखते दंगे भड़कते गये और जब पाकिस्तान से ट्रेनों में भरकर हिंदुओं और सिखों की लाशें आने लगीं तो यहां भी लोग उन्मादी हो गये।
बहरहाल, आजादी के समय हुए नरसंहार के लिए तत्कालीन कांग्रेस नेतृत्व को ही जिम्मेदार कहा जायेगा क्योंकि उसकी अदूरदर्शिता की वजह से कई गलत निर्णय हुए थे। महात्मा गांधी धर्म के आधार पर देश के विभाजन के विरोधी थे इसलिए वह आजादी के जश्न में भी शामिल नहीं हुए थे। यह वह आजादी नहीं थी जिसके लिए महात्मा गांधी ने लड़ाई लड़ी थी। महात्मा गांधी ने शांति और अमन चैन वाली पूर्ण आजादी की मांग की थी लेकिन कांग्रेस के तत्कालीन नेताओं की वजह से उन्हें अपने उद्देश्य में आधी-अधूरी ही कामयाबी मिली थी। खैर...आज जब हम आजादी का जश्न मना रहे हैं तो देश के विभाजन और हिंसा का दर्द भी हमें सता रहा है।
- नीरज कुमार दुबे
कर्नाटक हाईकोर्ट के भ्रष्टाचार निरोधक ब्यूरो को खत्म करने के आदेश के बाद देशभर में भ्रष्टाचार के खिलाफ राज्यों में कार्यरत ऐसे ब्यूरो पर सवालिया निशान लग गया है। हाईकोर्ट ने इस ब्यूरो को नाकारा और भ्रष्टाचार का संरक्षण देने वाला मानते हुए भंग करने के आदेश दिए हैं। संभव है कि कर्नाटक सरकार इस फैसले को सुप्रीम कोर्ट तक चुनौती दे। यह भी संभव है कि अदालत इस फैसले पर रोक लगा दे या बदल दे। किन्तु इतना जरूर है कि इस फैसले ने राज्यों में भ्रष्टाचार की रोकथाम के लिए गठित ऐसे ब्यूरो के औचित्य पर सवालिया निशान लगा दिए हैं। ऐसा नहीं है कि सिर्फ कर्नाटक में ही भ्रष्टाचार निरोधक ब्यूरो के औचित्य पर सवाल उठाया गया है, बल्कि देश के ज्यादातर राज्यों के ब्यूरो का यही हाल है। राज्यों में कार्यरत भ्रष्टाचार निरोधक ब्यूरो राजनीतिक विरोधियों को ठिकाने लगाने के अड्डे बन गए हैं। राज्यस्तरीय भ्रष्टाचार निरोधक ब्यूरो का गठन राज्य सरकारें करती हैं। इनमें खासतौर पर क्षेत्रीय सत्तारुढ़ दल ब्यूरो में ऐसे पुलिस अफसरों को तैनात करते हैं, जोकि उनकी उंगलियों पर नाच सकें। ब्यूरो का गठन भले ही भ्रष्टाचार मिटाने के लिए किया गया हो, किन्तु हकीकत में इनका टारगेट सरकार के इशारे पर तय होता है। खासतौर पर क्षेत्रीय सरकारें अपने विरोधियों को सबक सिखाने के लिए इसका इस्तेमाल करती रही हैं। कर्नाटक का फैसला इसी बात का प्रमाण है।
वैसे भी ब्यूरो की पकड़ में कभी भ्रष्टाचार के मगरमच्छ नहीं आते। इनकी पकड़ सिर्फ छोटी मछलियों तक रहती है, ताकि सरकार को लगे कि वाकई ब्यूरो भ्रष्टाचार के खात्मे की दिशा में अग्रसर है। इसके विपरीत भ्रष्ट बड़े अधिकारी और नेताओं के काले कारनामों की तरफ ब्यूरो आंख फेरे रहता है। ब्यूरो के अफसरों को इनकी काली कमाई नजर नहीं आती। राज्यों में खासतौर से क्षेत्रीय दलों पर किसी का अंकुश नहीं और पार्टी के प्रति जवाबदेयी तय नहीं होती, जबकि राष्ट्रीय पार्टियों में फिर भी कुछ जिम्मेदारी रहती है। ऐसे में सत्तारुढ़ क्षेत्रीय पार्टियां मनमानी पर उतर आती हैं। ब्यूरो के अफसर राज्य सरकार के सामने नतमस्तक हुए रहते हैं।
दशकों से चली आ रही राज्यों के भ्रष्टाचार ब्यूरो की कार्यशैली से आम लोगों को यह भरोसा पूरी तरह उठ चुका है कि यह सरकारी विभाग भ्रष्टाचार को खत्म करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है। इसके विपरीत ब्यूरो सत्ताधारियों और वरिष्ठ अफसरों की अवैध कमाई का खुलासा करने के बजाए कार्रवाई के लिए सरकार का मुंह ताकता रहता है। ब्यूरो में पुलिसकर्मियों और अफसरों की तैनाती की जाती है। अलबत्ता तो ब्यूरो में पुलिसकर्मी जाने के इच्छुक नहीं रहते, कारण साफ है, वर्दी नहीं होने से वहां रौब-दाब और ऊपरी कमाई गायब रहती है। ऐसे में ब्यूरो के कार्मिक बेमन से अपनी ड्यूटी को अंजाम देते हैं, उनकी कोशिश यही होती है कि किसी न किसी तरह जुगाड़ बिठा कर वापस पुलिस विभाग में चले जाएं। इतना ही नहीं राज्यों की सरकारों ने ब्यूरो के कामकाज में बाधा डालने में कोई कोर-कसर बाकी नहीं रखी है। सरकार की मंजूरी के बगैर आईएएस, आईपीएस और अन्य अधिकारियों के खिलाफ ब्यूरो को अदालत में आरोप पत्र दाखिल करने की अनुमति नहीं है। इसके लिए राज्य सरकार की मंजूरी लेना आवश्यक है। ज्यादातर राज्य सरकार ब्यूरो की स्वीकृति मांगने वाली फाइल पर कुंडली मार कर बैठ जाती हैं। ऐसे में जो ब्यूरो अफसरों का भ्रष्टाचार के खिलाफ जो थोड़ा बहुत साहस बचा रहता है, वो भी खत्म हो जाता है।
राज्यों के भ्रष्टाचार ब्यूरो के कामकाज की असलियत का पता प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) और केंद्रीय जांच ब्यूरो की कार्रवाई से चलता है। उदाहरण के तौर पर पश्चिमी बंगाल का कोयला घोटाला, चिटफंड सारदा घोटाला, सीमा पार पशुओं की तस्करी और हाल ही में चल रहा शिक्षक भर्ती घोटाला है। इन घोटालों में ईडी और सीबीआइ ने मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के कई मंत्रियों, विधायकों, सांसदों को गिरफ्तार किया गया है। ये घोटाले सालों तक चलते रहे किन्तु राज्य के भ्रष्टाचार निरोधक ब्यूरो ने आंख उठा तक नहीं देखी। कमोबेश यही हाल दूसरे राज्यों की क्षेत्रीय दलों की सरकारों का भी रहा है। ब्यूरो घोटाले करने वाले नेताओं और अफसरों पर कार्रवाई करने की हिम्मत नहीं जुटा सके। उनकी हालत पानी में रह कर मगर से बैर कौन ले, वाली ही बनी रही। ईडी और सीबीआई की कार्रवाई के बाद भ्रष्टाचार का पर्दाफाश हो सका। ऐसा नहीं है कि ईडी और सीबीआई पर भेदभाव के आरोप नहीं लगे हों। इन दोनों केंद्रीय एजेंसियों पर भी कई बार भ्रष्टाचारियों को बचाने और केंद्र सरकार के इशारे पर कार्रवाई करने के आरोप लग चुके हैं। इसके बावजूद दोनों एजेंसियों ने कई राज्यों में कार्रवाई करके क्षेत्रीय दलों की सरकारों की भ्रष्टाचार के खिलाफ असलियत को जरूर उजागर किया है।
-योगेन्द्र योगी
बिहार में ‘सुशासन बाबू’ कहलाने वाले नीतीश कुमार अब पक्के तौर पर ‘पलटू राम’ हो गये हैं। दो दिन की गहमागहमी के बाद उन्होंने पहले इस्तिफा देकर आखिर राज्यपाल से मुलाकात कर 160 विधायकों के समर्थन से सरकार बनाने का दावा भी पेश कर दिया। इसे अस्तित्व की लड़ाई कहें या राजनीतिक महत्त्वाकांक्षा लेकिन यह सच है कि सत्ता की खातिर पाला बदलने में कोई दल पीछे नहीं रहता। लोकतांत्रिक मूल्य, प्रामाणिकता, राजनीतिक सिद्धान्त तो शायद राजनीतिक दलों के शब्दकोश से गायब ही हो गए लगते हैं। भले ही गठबंधन राजनीति में टूट-फूट नई बात न हो और न ही जनादेश की अनदेखी किया जाना, लेकिन यह एक तथ्य है कि बार-बार पाला बदलने वाले दल अपनी साख गंवाते हैं। भारतीय राजनीति से नैतिकता इतनी जल्दी भाग रही है कि उसे थामकर रोक पाना किसी के लिए सम्भव नहीं है।
आज राष्ट्र पंजों के बल खड़ा राजनीतिक नैतिकता की प्रतीक्षा कर रहा है। कब होगा वह सूर्योदय जिस दिन राजनीतिक जीवन में मूल्यों के प्रति विश्वास जगेगा। मूल्यों की राजनीति कहकर कीमत की राजनीति चलाने वाले राजनेता नकार दिये जायेंगे। राजनीति की ये परिभाषाएं बदल जायेंगी कि राजनीति के हमाम में सब नंगे हैं या राजनीति में न कोई स्थायी दोस्त होता है और न ही स्थायी दुश्मन। राजनीति हो, सामाजिक हो चाहे धार्मिक हो, सार्वजनिक क्षेत्र में जब मनुष्य उतरता है तो उसके स्वीकृत दायित्व, स्वीकृत सिद्धांत व कार्यक्रम होते हैं, वरना वह सार्वजनिक क्षेत्र में उतरे ही क्यों? जिन्हें कि उसे क्रियान्वित करना होता है या यूं कहिए कि अपने कर्तृत्व के माध्यम से राजनीतिक प्रामाणिकता को जीकर बताना होता है परन्तु आज इसका नितांत अभाव है। राजनीतिक मूल्यों के रेगिस्तान में कहीं-कहीं नखलिस्तान की तरह कुछ ही प्रामाणिक व्यक्ति दिखाई देते हैं जिनकी संख्या अंगुलियों पर गिनी जा सकती है। ऐसे लोगों का अभाव ही बार-बार तख्ता पलट करते हैं या गठबंधन को नकारते हैं।
यह सही है कि नीतीश कुमार के पास अब पहले से अधिक विधायकों का समर्थन होगा, लेकिन अब उनकी राजनीतिक ताकत पहले की तुलना में कम होगी, वे अब अपने हिसाब से शासन का संचालन करने में ज्यादा सक्षम नहीं होंगे। एक बड़ा सवाल यह भी है कि यदि नीतीश कुमार 77 सदस्यों वाली भाजपा के दबाव का सामना नहीं कर पा रहे थे, तो फिर 79 सदस्यों वाली राजद के दबाव से कैसे निपट पाएंगे? अब तो उन्हें राजद के साथ महागठबंधन के अन्य दलों को भी संतुष्ट करना होगा। यह आसान नहीं होगा, क्योंकि इस बार संख्या बल ही नहीं बल्कि नैतिक बल के मामले में जदयू ज्यादा कमजोर है। बिहार में सत्ता की चाभी भले ही जदयू के पास हो, लेकिन अब वह तीसरे नंबर की पार्टी रह गई है। इसकी भी अनदेखी नहीं की जा सकती कि जब नीतीश कुमार ने महागठबंधन को छोड़ा था तो इससे आजिज आकर कि राजद नेता शासन संचालन में अनावश्यक हस्तक्षेप कर रहे थे और वह उसे रोक नहीं पा रहे थे। क्या इस बार वह ऐसा करने में सक्षम होंगे और वह भी ऐसे समय, जब सुशासन बाबू की उनकी छवि पर प्रश्नचिह्न लग चुके हैं और बिहार विकास के पैमाने पर पिछड़ा है। अब तो उसके और पिछड़ने का अंदेशा है। नीतीश कुमार को उन सवालों के भी जवाब देने होंगे, जिनके तहत वह राजद नेताओं के भ्रष्टाचार को रेखांकित किया करते थे।
जहां तक भाजपा की बात है, उसके सामने बिहार में अपने बलबूते अपनी जड़ें जमाने की चुनौती आ खड़ी हुई हैं और इस चुनौती को झेलने में वह सक्षम है। ताजा घटनाक्रम भाजपा के लिये शुभ एवं श्रेयस्कर साबित होगा। क्योंकि भाजपा जिन मूल्यों एवं सिद्धान्तों की बात करती है, वह उन्हीं मूल्यों को आधार बनाकर अपने धरातल को मजबूत कर सकेगी। विशेष रूप से भाजपा को ध्यान रखना होगा कि बिहार की जनता के बीच उसे बिना सत्ता के एक नया विश्वास अर्जित करना है। आम लोग तो यही चाहेंगे कि बिहार के विकास के लिए विपक्ष और सत्ता पक्ष, दोनों ही ज्यादा ईमानदारी से काम करें। कोई शक नहीं, आने वाले कम से कम तीन-साढ़े तीन साल बिहार में जमकर राजनीति होगी, बिहार में बहुत काम शेष हैं और तेजस्वी यादव बखूबी कमियां गिनाते रहे हैं, अब उन्हें मौका मिल रहा है, तो लोगों की शिकायतों को दूर करें। लेकिन ऐसा होना संभव नहीं लगता, यही भाजपा के लिये सकारात्मक परिस्थितियों का निर्माण करेगा।
बिहार की राजनीति तो आदर्श की राजनीति मानी जाती रही है, जिसने अनेक नैतिक राजनीति के शीर्षक व्यक्तित्व दिये हैं। वहीं से भ्रष्टाचार एवं अराजकता की राजनीति को चुनौती देने के लिये जयप्रकाश नारायण से समग्र क्रांति का शंखनाद किया। जहां से हम प्रामाणिकता एवं नैतिकता का अर्थ सीखते रहे हैं, जहां से राष्ट्र और समाज का संचालन होता रहा है, अब उस प्रांत के शीर्ष नेतृत्व को तो उदाहरणीय किरदार अदा करना चाहिए। लेकिन अब वहां पद के लिए होड़ लगी रहती है, व प्रतिष्ठा का प्रश्न बनाकर पद को येन-केन-प्रकारेण, लॉबी बनाकर प्राप्त करने के लिये गठबंधन टूटते हैं, तख्ता पलट होता है, तय मानकों को बदला जाता है। अरे पद तो क्रॉस है- जहां ईसा मसीह को टंगना पड़ता है। पद तो जहर का प्याला है, जिसे सुकरात को पीना पड़ता है। पद तो गोली है जिसे गांधी को सीने पर खानी होती है। पद तो फांसी का फन्दा है जिसे भगत सिंह को चूमना पड़ता है। सार्वजनिक जीवन में जो भी शीर्ष पर होते हैं वे आदर्शों को परिभाषित करते हैं तथा उस राह पर चलने के लिए उपदेश देते हैं। पर ऐसे व्यक्ति जब स्वयं कथनी-करनी की भिन्नता से प्रामाणिकता एवं राजनीतिक मूल्यों के हाशिये से बाहर निकल आते हैं तब रोया जाए या हंसा जाए। लोग उन्हें नकार देते हैं। ऐसे व्यक्तियों के जीवन चरित्र के ग्राफ को समझने की शक्ति/दक्षता आज आम जनता में है। जो ऊपर नहीं बैठ सका वह आज अपेक्षाकृत ज्यादा प्रामाणिक एवं ताकतवर है कि वह सही को सही और गलत को गलत देखने की दृष्टि रखता है। समझ रखता है। यह गौर करना भी जरूरी है कि आजादी के तुरंत बाद बिहार कहां खड़ा था और आज आजादी के अमृत महोत्सव में कहां खड़ा है?
राजनीति में जब नीति गायब होने लगती है तो बेमेल गठबंधनों के बनते भी देर नहीं लगती। और, इस बुराई के लिए कमोबेश सभी राजनीतिक दल समान रूप से जिम्मेदार हैं। देखा जाए तो सबकी नजर में 2024 का लोकसभा चुनाव है जहां 40 सीटों वाले बिहार की भूमिका भी अहम रहने वाली है। बिहार में नया सियासी गठबंधन कितना बदलाव लाएगा, यह भविष्य ही बताएगा। ऐसे में लंबे समय से कयास लगाए जा रहे थे कि नीतीश कुमार कभी भी भाजपा का साथ छोड़ सकते हैं। उनका झुकाव भी राष्ट्रीय जनता दल की तरफ अधिक देखने को मिल रहा था। तेजस्वी यादव के प्रति उनका नरम रुख प्रकट होने लगा था। मगर जब जनता दल (एकी) के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष आरसीपी सिंह ने इस्तीफा देकर भाजपा का दामन थाम लिया तो परदे के पीछे चल रहा खेल सामने उभर कर आ गया।
दरअसल यह अवसरवादिता और मौकापरस्ती की हद है जिसका राजनीति में प्रतिकार होना चाहिए और ऐसे नेताओं को जनता द्वारा नकारा जाना चाहिए। वास्तव में बिहार का ही सबसे बड़ा दुर्भाग्य है कि इस राज्य में जातिवादी और परिवारवादी राजनीति ने इस प्रदेश की जनता के मौलिक अधिकारों से उनको वंचित किया हुआ है और इस प्रांत के लोगों को भारत का सबसे गरीब आदमी बनाया हुआ है। जबकि बिहारियों का भारत के सर्वांगीण विकास में योगदान कम नहीं है, सबसे अधिक मेहनती एवं बुद्धिजीवी लोग यही से आते हैं। इसकी धरती में अपार सम्पत्ति छिपी है और भारतीय सांस्कृतिक इतिहास के स्वर्णिम अध्याय लिखे हुए हैं। इसके बावजूद इस राज्य में पर्यटन उद्योग का विकास नहीं हो पाया। जिस राज्य के पास नालन्दा विश्वविद्यालय के अवशेष हों उसके ज्ञान की क्षमता का अन्दाजा तो सदियां बीत जाने के बाद 21वीं सदी में भी लगाया जा सकता है। लेकिन दूषित राजनीति की कालिमाएं यहां के धवलित इतिहास को धुंधलाती रही हैं। यहां की राजनीति की सत्तालोलुपता एवं भ्रष्टता लोकतांत्रिक मूल्यों को ध्वस्त करती रही है। जबकि प्रामाणिकता एवं सिद्धान्तवादिता राजनीतिक क्षेत्र में सिर का तिलक है और अप्रामाणिकता मृत्यु का पर्याय होती है। आवश्यकता है, राजनीति के क्षेत्र में जब हम जन मुखातिब हों तो प्रामाणिकता का बिल्ला हमारे सीने पर हो। उसे घर पर रखकर न आएं। राजनीति के क्षेत्र में हमारा कुर्ता कबीर की चादर हो। नीतीश बाबू जिस महागठबन्धन की सरकार अब चलायेंगे वह बिहार के विकास की गाड़ी को उल्टी दिशा में ले जायेगी।
ललित गर्ग
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तम्भकार हैं)
2020 के बिहार विधानसभा चुनावों के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जनता से वोट मांगते हुए कहा था कि मुझे बिहार में नीतीश कुमार की जरूरत है। इसलिए जनता दल युनाइटेड की कम सीटें आने के बावजूद भाजपा ने प्रधानमंत्री की बात का मान रखते हुए मुख्यमंत्री पद नीतीश कुमार को सौंप दिया था। लेकिन दो साल के भीतर ही जनता दल युनाइटेड के नेता नीतीश कुमार ने अपने रुख में परिवर्तन करते हुए भाजपा के साथ गठबंधन तोड़ दिया। देखा जाये तो 2020 का जनादेश एनडीए सरकार के लिए था और भाजपा की 74 सीटों की संख्या दर्शा रही थी कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नाम पर ही वोट पड़ा था। यही नहीं, भाजपा कई बार ऐलान कर चुकी थी कि जनता दल युनाइटेड के साथ उसका गठबंधन 2024 के लोकसभा चुनाव और 2025 के विधानसभा चुनावों में भी बरकरार रहेगा लेकिन नीतीश कुमार ने इस गठबंधन को चलने नहीं दिया।
देखा जाये तो इस बार नीतीश कुमार ने अपने रुख में परिवर्तन कर अपनी खुद की विश्वसनीयता गिरायी है। नेता दल बदल या गठबंधन बदल करें इसमें कुछ गलत नहीं है। लेकिन यदि नेता सिर्फ गठबंधन बदल पर ही ध्यान देता रहे तो इससे उसकी साख घटती है। नीतीश कुमार को सोचना होगा कि क्या उनके गठबंधन सहयोगी बदल लेने भर से बिहार की किस्मत बदल जायेगी? बिहार में हाल में बदले माहौल के चलते जो निवेश आ रहा था यदि वह बाधित हुआ तो बिहार और पीछे चला जायेगा। नीतीश कुमार को इस सवाल का जवाब भी देना ही चाहिए कि जिनको कुशासन का प्रतीक बताकर उन्होंने अपनी छवि सुशासन बाबू की गढ़ी थी, आखिर वह उन्हीं कथित कुशासन के प्रतीकों के साथ क्यों खड़े हो गये? नीतीश कुमार अब भले राष्ट्रीय जनता दल के नेताओं के गुणगान गायें लेकिन उन्हें यह पता होना चाहिए कि अबकी बार राजद के नेता भी उनसे सतर्क ही रहेंगे कि कहीं फिर से सुशासन बाबू का मूड ना बदल जाये!
दूसरी ओर, भारतीय राजनीति में भाजपा के नाम इस बात का रिकॉर्ड रहेगा कि उसने भले अब तक किसी को धोखा नहीं दिया हो लेकिन उसे सर्वाधिक धोखे मिले जरूर हैं। उत्तर प्रदेश में भाजपा और बसपा के बीच आधे-आधे कार्यकाल के लिए मुख्यमंत्री पद संभालने का समझौता हुआ था। भाजपा ने पहला मौका मायावती को दिया लेकिन मायावती ने अपनी बारी पूरी होने पर भाजपा नेता कल्याण सिंह की सरकार नहीं चलने दी। कर्नाटक में जनता दल सेक्युलर के साथ भाजपा ने मुख्यमंत्री पद बारी-बारी से संभालने का समझौता किया लेकिन एचडी कुमारस्वामी ने अपनी बारी पूरी करने के बाद भाजपा नेता बीएस येदियुरप्पा की सरकार बीच में ही गिरा दी। भाजपा ने झारखंड में शिबू सोरेन के झारखंड मुक्ति मोर्चा के साथ गठबंधन कर सरकार बनाई लेकिन सोरेन ने बीच में ही समर्थन वापस लेकर अर्जुन मुंडा के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार गिरा दी थी। यही नहीं महाराष्ट्र में 2019 के विधानसभा चुनावों में जनादेश भाजपा-शिवसेना गठबंधन के पक्ष में था लेकिन शिवसेना ने कांग्रेस और राकांपा का समर्थन लेकर अपने नेतृत्व में सरकार बना ली थी। इसके अलावा भी कई ऐसे छोटे-बड़े मामले मिल जाएंगे जब भगवा दल को सहयोगी दल से मिले धोखे का सामना करना पड़ा।
बहरहाल, यह भी एक रिकॉर्ड है कि राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन को छोड़ने वाले दल अन्य गठबंधनों में जाकर कुछ खास हासिल नहीं कर पाये। शिरोमणि अकाली दल, शिवसेना, आरएलएसपी के ताजा उदाहरण तो सामने हैं ही साथ ही उत्तर प्रदेश में ओम प्रकाश राजभर का उदाहरण भी मौजूद है। नेताओं को यह समझना होगा कि आज के दौर में जनता को बरगलाया नहीं जा सकता क्योंकि अब वह नेता को उसके द्वारा किये गये काम के आधार पर ही वोट देती है। अब वह समय गया जब किसी अन्य के बारे में भ्रम फैलाकर या उसका डर दिखाकर वोट हासिल कर लिया जाता था।
-नीरज कुमार दुबे
अल कायदा नेता अयमन अल-जवाहिरी का मारा जाना आतंकवाद के खिलाफ विश्वस्तरीय अभियानों के इतिहास में एक बड़ी कामयाबी इसलिये है कि आतंकवाद ने दुनिया में भय, क्रूरता, हिंसा एवं अशांति को पनपाया है। जवाहिरी जैसे हिंसक, क्रूर, उन्मादी एवं आतंकी लोगों ने शांति का उजाला छीनकर अशांति का अंधेरा फैलाया है। दरअसल, वह इतना खूंखार एवं बर्बर इंसान था कि उसको मार गिराना असंभव-जैसा ही था। ऐसे अंतरराष्ट्रीय आतंकी गिरोह के शीर्ष नेताओं तक पहुंचना और दूसरे देश की सीमा में उन्हें मार गिराना साहस एवं शौर्य का काम है। इससे पहले दुनिया भर में अन्य आतंकवादी संगठनों के मामले में भी इस तरह की जटिलताओं का अनुभव दुनिया की महाशक्तियां करती रही हैं। इसलिए जवाहिरी को उसके घर में घुस कर मारना अमेरिका की एक बड़ी उपलब्धि है।
दुनिया में अब आतंकवाद पर काबू पाने की दृष्टि से वातावरण बन रहा है, जवाहिरी का खात्मा उसी दिशा में एक बड़ी सफलता है। अमेरिका में विश्व व्यापार केंद्र पर हमले में हुई तबाही ने अमेरिका के महाशक्ति होने पर ही प्रश्न लगा दिया था। उस घटना ने आतंकवाद की जड़ें मजबूत होने को ही उजागर किया था। उस घटना ने अमेरिका की शक्ति को गहरी चुनौती दी। इसीलिये उस घटना के दो दशकों बाद जवाहिरी का मारा जाना एक बेहद अहम कामयाबी है। अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडेन ने खुद यह बताया कि उनके निर्देश पर काबुल में ड्रोन हमले में अल कायदा सरगना अल-जवाहिरी मारा गया। इस अभियान के क्रम में पहले हर पल के लिए कार्ययोजना तैयार की गई, नजदीक से जवाहिरी के ठिकाने और उसकी गतिविधियों पर नजर रखी गई और खास बात यह रही कि हमले के लिए ड्रोन और लेजर जैसी आधुनिकतम तकनीक का सहारा लिया गया। यही वजह रही कि इस अभियान के दौरान किसी भी अन्य व्यक्ति की मौत नहीं हुई और ज्यादा नुकसान नहीं हुआ
11 नवंबर, 2001 को हुए उन हमलों की याद आज भी बहुत सारे लोगों को डराती है, कंपकंपाती है और यही वजह है कि विश्व में जवाहिरी के मारे जाने को आतंकी हमले के पीड़ितों को न्याय दिलाने की दिशा में एक और कदम के तौर पर देखा जा रहा है। इससे दुनिया ने राहत की सांस ली है। यह एक जगजाहिर तथ्य है कि अनेक देशों में सख्ती की वजह से आतंकवादी संगठनों की हरकतों को सीमित किया गया है, मगर आज भी दुनिया अलग-अलग स्तर पर आतंकवाद के कई खतरों का सामना कर रही है, जूझ रही है। विशेषतः भारत इन्हीं आतंकवादी घटनाओं का लम्बे समय से शिकार रहा है। इसमें कोई दो राय नहीं कि अफगानिस्तान में अब तालिबान का शासन है और वहां से अमेरिकी सैनिकों की वापसी के बाद यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि इस हमले के लिए क्या संबंधित देश की सहमति की औपचारिकता हासिल की गई थी। मगर आतंकवाद दुनिया भर के लिए जिस स्वरूप में एक जटिल समस्या बन चुका है, उसमें इस पर काबू पाने और खत्म करने के लिए अगर कोई ठोस पहलकदमी होती है तो उससे शायद ही किसी देश को असहमति होगी।
आज अफगानिस्तान खुद भी आतंकवाद से जूझ रहा है। इस्लामिक कट्टरपंथी ताक़तें पूरी दुनिया में अमन और भाईचारे का माहौल बिगाड़ने का काम कर रही हैं। जबकि इस्लाम के नाम पर दुनिया के हर कोने में हो रहे आतंकवादी हमलों एवं वारदातों के विरुद्ध इस्लाम के अनुयायियों के बीच से ही आवाज़ उठनी चाहिए। पाकिस्तान जैसे इस्लाम को धुंधलाने वाले राष्ट्र की गुमराह करने वाली बातों से दूरी बनाई जानी चाहिए। उसके द्वारा मज़हब के नाम पर किये जा रहे ख़ून-खराबे का खंडन करना चाहिए था। उसे सच्चा इस्लाम न मानकर कुछ विकृत मानसिकता का प्रदर्शन माना-बतलाया जाना चाहिए था।
विश्व के आतंकवादी संगठनों ने इन दिनों अफगानिस्तान को अपना केन्द्र बनाया है। इसलिये आतंकवाद के खतरे की संभावनाओं को देखते हुए भारत ने अफगानिस्तान पर दबाव बढ़ा दिया है। भारत ने अफगानिस्तान से साफ कहा है कि उसे यह सुनिश्चित करना होगा कि वह अपनी जमीन का इस्तेमाल आतंकवाद के लिए न होने दे। साथ ही, अल कायदा, लश्कर-ए-तैयबा और जैश-ए-मोहम्मद जैसे आतंकी संगठनों के खिलाफ कार्रवाई भी करे। दरअसल, आतंकवाद को लेकर भारत की चिंता बेवजह नहीं है। भारत ने लंबे समय से आतंकवाद के खतरे को झेला है एवं कश्मीर की मनोरम वादियों सहित भारत के भीतरी हिस्सों ने तीन दशक से भी ज्यादा समय तक सीमा पार आतंकवाद झेला है।
मानवता की रक्षा एवं आतंकवाद मुक्त दुनिया की संरचना की कोशिश होनी चाहिए। यह इसलिये अपेक्षित है कि किसी भी जाति, धर्म एवं सम्प्रदाय के लोगों को बंदूकों के सहारे ही जिंदगी न काटनी पड़े। महिलाओं की तौहीन एवं अस्मत न लूटी जाये। कोई भी देश दुनिया में नफरत और हिंसा बढ़ाने की वजह न बने। कुल मिलाकर, मानवीयता, उदारता और समझ की खिड़की खुली रहनी चाहिए, ताकि इंसानियत शर्मसार न हो, इसके लिये समूची दुनिया को व्यापक प्रयत्न करने होंगे। इसके साथ इस्लाम की ऐसी शक्तियां जो आतंकवाद के खिलाफ हैं, उनको भी सक्रिय होना होगा। क्योंकि उनके धर्म एवं जमीन को कलंकित एवं शर्मसार करने का षड्यंत्र हो रहा है।
अफगानिस्तान में तालिबान के सत्ता में आने के बाद से ही यह आशंका बढ़ती जा रही है कि यह मुल्क अब आतंकियों का गढ़ बन जाएगा। ये आशंकाएं बेबुनियाद नहीं हैं। तालिबान का उदय एक मजहबी संगठन के तौर पर हुआ था, लेकिन इसकी बुनियाद तो आतंकी संगठनों पर ही टिकी है। अमेरिका तो तालिबान को आतंकी संगठन कहता भी है। दो दशक पहले भी जब अफगानिस्तान में तालिबान का राज कायम हुआ था, तो इसके पीछे अलकायदा की ताकत थी। इससे उसकी आर्थिक दशा बदतर हो चुकी है और राजनीतिक अस्थिरता कायम है। इसलिए इस समस्या से निपटना खुद उसके लिए भी जरूरी है। जरूरत इस बात की है कि इस समस्या की जड़ों पर चोट किया जाए। तालिबान भारत-विरोधी है, पाकिस्तान अपने मंसूबों को पूरा करने के लिये तालिबान की इस विरोधी मानसिकता का उपयोग करते हुए अफगानिस्तान की भूमि से भारत पर आतंकवादी निशाने साधेगा। तालिबान ने विगत दशकों में एकाधिक आतंकी हमले सीधे भारतीय दूतावास पर किए हैं। कंधार विमान अपहरण के समय तालिबान की भूमिका भारत देख चुका है। इन स्थितियों को देखते हुए आतंकवाद को पनपने की आशंकाएं बेबुनियाद नहीं हैं।
दरअसल, जवाहिरी भी विश्व व्यापार केंद्र पर हुए हमले का एक मुख्य आरोपी था और ओसामा बिन लादेन के बाद अल कायदा का दूसरे नंबर का नेता था। स्वाभाविक ही, उसके मारे जाने की घटना को वैश्विक आतंकवाद का पर्याय बन चुके ऐसे संगठनों की गतिविधियों को खत्म करने के लिहाज से एक बड़ी उपलब्धि के तौर पर देखा जा रहा है। बड़ा प्रश्न है कि एक जवाहिरी नहीं बल्कि आतंकवाद को पोषण देने वाले सभी जवाहरियों का ऐसा ही हश्र होना चाहिए। दुनिया की महाशक्तियों को एकजुट होकर आतंकवाद के खिलाफ शंखनाद करना होगा। सबसे पहले दुनिया के आतंकवादियों को अफगानिस्तान में सुरक्षित ठिकाना बनाने से रोकना होगा। क्योंकि ये आतंकवादी खूंखार नेता एवं आतंकवादी संगठन पैसे लेकर सभ्य देशों को परेशान करने और निशाना बनाने का ही काम करेंगे? जो देश प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से तालिबान की पीठ पीछे खड़े हैं, उनकी भी मानवीय जिम्मेदारी बनती है कि वे दुनिया को अशांति, हिंसा, साम्प्रदायिक कट्टरता एवं आतंकवाद की ओर अग्रसर करने वाली इस कालिमा को धोयें।
-ललित गर्ग
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तम्भकार हैं)
कुछ समय पूर्व एक पत्रकार मिलने आए। बात-बात में उन्होंने पूछा कि स्वतंत्रता आन्दोलन में संघ का सहभाग क्या था? शायद वे भी संघ के खिलाफ चलने वाले असत्य प्रचार के शिकार थे। मैंने उनसे प्रतिप्रश्न किया कि आप स्वतंत्रता आन्दोलन किसको मानते हैं? वे इसके लिए तैयार नहीं थे। कुछ बोल ही नहीं सके। फिर धीरे से शंकित स्वर में उन्होंने कहा, वही जो महात्मा गांधी जी ने किया था। मैंने पूछा क्या लाल, बाल, पाल त्रिमूर्ति का कोई योगदान नहीं था? क्या सुभाष बाबू की कोई भूमिका स्वतंत्रता आन्दोलन में नहीं थी? वे चुप थे। फिर मैंने पूछा कि गांधीजी के नेतृत्व में कितने सत्याग्रह हुए? वे अनजान थे। मैंने कहा कि तीन हुए- 1921, 1930 और 1942। उन्हें जानकारी नहीं थी। मैंने कहा- संघ संस्थापक डॉ. हेडगेवार ने (उनकी मृत्यु 1940 में हुई थी) संघ स्थापना से पहले (1921) और बाद के (1930) सत्याग्रह में भाग लिया था और उन्हें कारावास भी सहना पड़ा।
यह घटना इसलिए कही क्योंकि एक योजनाबद्ध तरीके से आधा इतिहास बताने का एक प्रयास चल रहा है। भारत के लोगों को ऐसा मानने के लिए बाध्य किया जा रहा है कि स्वतंत्रता केवल कांग्रेस के और 1942 के सत्याग्रह के कारण मिली है। और किसी ने कुछ नहीं किया। यह बात पूर्ण सत्य नहीं है। गांधी जी ने सत्याग्रह के माध्यम से, चरखा और खादी के माध्यम से सर्व सामान्य जनता को स्वतंत्रता आन्दोलन में सहभागी होने का एक सरल एवं सहज तरीका, साधन उपलब्ध कराया। और लाखों की संख्या में लोग स्वतंत्रता आन्दोलन से जुड़ सके, यह बात सत्य है। परन्तु सारा श्रेय एक ही आन्दोलन या पार्टी को देना यह इतिहास से खिलवाड़ है, अन्य सभी के प्रयासों का अपमान है।
अब संघ की बात करनी है तो डॉ. हेडगेवार से ही करनी पड़ेगी। केशव (हेडगेवार) का जन्म 1889 का है। नागपुर में स्वतंत्रता आन्दोलन की चर्चा 1904-1905 से शुरू हुई। उसके पहले अंग्रेजों के खिलाफ स्वतंत्रता आन्दोलन का बहुत वातावरण नहीं था। फिर भी 1897 में रानी विक्टोरिया के राज्यारोहण के हीरक महोत्सव के निमित्त स्कूल में बांटी गई मिठाई 8 साल के केशव ने ना खाकर कूड़े में फेंक दी। यह था उसका अंग्रेजों के गुलाम होने का गुस्सा और चिढ़। 1907 में रिस्ले सेक्युलर नाम से ‘वंदे मातरम्’ के सार्वजनिक उद्घोष पर पाबंदी का जो अन्यायपूर्ण आदेश घोषित हुआ था, उसके विरोध में केशव ने अपने नील सिटी विद्यालय में सरकारी निरीक्षक के सामने अपनी कक्षा के सभी विद्यार्थियों द्वारा ‘वन्दे मातरम्’ उद्घोष करवा कर विद्यालय के प्रशासन का रोष और उसकी सजा के नाते विद्यालय से निष्कासन भी मोल लिया था। डॉक्टरी पढ़ने के लिए मुंबई में सुविधा होने के बावजूद क्रांतिकारियों का केंद्र होने के नाते उन्होंने कलकत्ता को पसंद किया। वहां वे क्रांतिकारियों की शीर्षस्थ संस्था ‘अनुशीलन समिति’ के विश्वासपात्र सदस्य बने थे।
1916 में डॉक्टर बनकर वे नागपुर वापस आए। उस समय स्वतंत्रता आन्दोलन के सभी मूर्धन्य नेता विवाहित थे, गृहस्थ थे। अपनी गृहस्थी के लिए आवश्यक अर्थार्जन का हरेक का कोई न कोई साधन था। इसके साथ-साथ वे स्वतंत्रता आन्दोलन में अपना बहुमूल्य योगदान दे रहे थे। डॉक्टर हेडगेवार भी ऐसा ही सोच सकते थे। घर की परिस्थिति भी ऐसी ही थी। परन्तु उन्होंने डॉक्टरी एवं विवाह नहीं करने का निर्णय लिया। उनके मन में स्वतंत्रता प्राप्ति की इतनी तीव्रता और ‘अर्जेंसी’ थी कि उन्होंने अपने व्यक्तिगत जीवन का कोई विचार न करते हुए अपनी सारी शक्ति, समय और क्षमता राष्ट्र को अर्पित करते हुए स्वतंत्रता के लिए चलने वाले हर प्रकार के आन्दोलन से अपने आपको जोड़ दिया।
लोकमान्य तिलक पर उनकी अनन्य श्रद्धा थी। तिलक के नेतृत्व में नागपुर में होने जा रहे 1920 के कांग्रेस अधिवेशन की सारी व्यवस्थाओं की जिम्मेदारी डॉ. हर्डीकर और डॉ. हेडगेवार को दी गई थी और उसके लिए उन्होंने 1,200 स्वयंसेवकों की भर्ती करवाई थी। उस समय डॉ. हेडगेवार कांग्रेस की नागपुर शहर इकाई के संयुक्त सचिव थे। उस अधिवेशन में पारित करने हेतु कांग्रेस की प्रस्ताव समिति के सामने डॉ. हेडगेवार ने ऐसे प्रस्ताव का सुझाव रखा था कि कांग्रेस का उद्देश्य भारत को पूर्ण स्वतंत्र कर भारतीय गणतंत्र की स्थापना करना और विश्व को पूंजीवाद के चंगुल से मुक्त करना होना चाहिए। सम्पूर्ण स्वातंत्र्य का उनका सुझाव कांग्रेस ने 9 वर्ष बाद 1929 के लाहौर अधिवेशन में स्वीकृत किया। इससे आनंदित होकर डॉक्टर जी ने संघ की सभी शाखाओं में (संघ कार्य 1925 में प्रारंभ हो चुका था) 26 जनवरी, 1930 को कांग्रेस का अभिनंदन करने की सूचना दी थी। नागपुर तिलकवादियों का गढ़ था। 1 अगस्त, 1920 को लोकमान्य तिलक के देहावसान के कारण नागपुर के सभी तिलकवादियों में निराशा छा गई। बाद में महात्मा गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस का स्वतंत्रता आन्दोलन चला।
असहयोग आन्दोलन के समय, 1921 में, साम्राज्यवाद विरोधी आन्दोलन के सामाजिक आधार को व्यापक करने की दृष्टि से, अंग्रेजों द्वारा तुर्किस्तान में खिलाफत को निरस्त करने से आहत मुस्लिम मन को अंग्रेजों के खिलाफ स्वतंत्रता आन्दोलन के साथ जोड़ने के उद्देश्य से महात्मा गांधी ने खिलाफत का समर्थन किया। इस पर कांग्रेस के अनेक नेता तथा राष्ट्रवादी मुस्लिमों को आपत्ति थी। इसलिए, तिलकवादियों का गढ़ होने के कारण नागपुर में असहयोग आन्दोलन बहुत प्रभावी नहीं रहा। परन्तु डॉ. हेडगेवार, डॉ. चोलकर, समिमुल्ला खान आदि ने यह परिवेश बदल दिया। उन्होंने खिलाफत को राष्ट्रीय आन्दोलन से जोड़ने पर आपत्ति होते हुए भी उसे सार्वजनिक नहीं किया। इसी मापदंड के आधार पर साम्राज्यवाद का विरोध करने के लिए उन्होंने तन-मन-धन से आन्दोलन में सहभाग लिया। व्यक्तिगत सामाजिक संबंधों से अलग हटकर उन्होंने तत्कालीन राष्ट्रीय परिस्थिति का विश्लेषण किया और आसपास के राजनीतिक वातावरण एवं दबंग तिलकवादियों के दृष्टिकोण की चिंता नहीं की। उन पर चले राजद्रोह के मुकदमे में उन्हें एक वर्ष का कारावास सहना पड़ा। वे 19 अगस्त, 1921 से 11 जुलाई, 1922 तक कारावास में रहे। वहां से छूटने के बाद 12 जुलाई को उनके सम्मान में नागपुर में एक सार्वजनिक सभा का आयोजन हुआ था। समारोह में प्रांतीय नेताओं के साथ-साथ कांग्रेस के अन्य राष्ट्रीय नेता हकीम अजमल खां, पंडित मोतीलाल नेहरू, राजगोपालाचारी, डॉ. अंसारी, विट्ठल भाई पटेल आदि डॉ. हेडगेवार का स्वागत करने के लिए उपस्थित थे।
स्वतंत्रता प्राप्ति का महत्व तथा प्राथमिकता को समझते हुए भी एक प्रश्न डॉ. हेडगेवार को सतत् सताता रहता था कि, 7000 मील से दूर व्यापार करने आए मुट्ठी भर अंग्रेज, इस विशाल देश पर राज कैसे करने लगे? जरूर हममें कुछ दोष होंगे। उनके ध्यान में आया कि हमारा समाज आत्म-विस्मृत, जाति प्रान्त-भाषा-उपासना पद्धति आदि अनेक गुटों में बंटा हुआ, असंगठित और अनेक कुरीतियों से भरा पड़ा है जिसका लाभ लेकर अंग्रेज यहां राज कर सके। स्वतंत्रता मिलने के बाद भी समाज ऐसा ही रहा तो कल फिर इतिहास दोहराया जाएगा। वे कहते थे कि ‘नागनाथ जाएगा तो सांपनाथ आएगा’। इसलिए इस अपने राष्ट्रीय समाज को आत्मगौरव युक्त, जागृत, संगठित करते हुए सभी दोष, कुरीतियों से मुक्त करना और राष्ट्रीय गुणों से युक्त करना अधिक मूलभूत आवश्यक कार्य है और यह कार्य राजनीति से अलग, प्रसिद्धि से दूर, मौन रहकर सातत्यपूर्वक करने का है, ऐसा उन्हें प्रतीत हुआ। उस हेतु 1925 में उन्होंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना की। संघ स्थापना के पश्चात् भी सभी राजनीतिक या सामाजिक नेताओं, आन्दोलन एवं गतिविधि के साथ उनके समान नजदीकी के और आत्मीय संबंध थे।
1930 में गांधी के आह्वान पर सविनय अवज्ञा आन्दोलन 6 अप्रैल को दांडी (गुजरात) में नमक सत्याग्रह के नाम से शुरू हुआ। नवम्बर 1929 में ही संघचालकों की त्रिदिवसीय बैठक में इस आन्दोलन को बिना शर्त समर्थन करने का निर्णय संघ में हुआ था। संघ की नीति के अनुसार डॉ. हेडगेवार ने व्यक्तिगत तौर पर अन्य स्वयंसेवकों के साथ इस सत्याग्रह में भाग लेने का निर्णय लिया। और संघ कार्य अविरत चलता रहे इसके लिए उन्होंने सरसंघचालक पद का दायित्व अपने पुराने मित्र डॉ. परांजपे को सौंप कर बाबासाहब आप्टे और बापू राव भेदी को शाखाओं के प्रवास की जिम्मेदारी दी। इस सत्याग्रह में उनके साथ प्रारंभ में 21 जुलाई, को 3-4 हजार लोग थे। वर्धा, यवतमाल होकर पुसद पहुंचते-पहुंचते सत्याग्रह स्थल पर 10,000 लोग इकट्ठे हो गए। इस सत्याग्रह में उन्हें 9 महीने का कारावास हुआ। वहां से छूटने के पश्चात् सरसंघचालक का दायित्व पुन: स्वीकार कर वे फिर से संघ कार्य में जुट गए।
1938 में भागानगर (हैदराबाद) में निजाम के द्वारा हिन्दुओं पर होने वाले अत्याचार के खिलाफ हिन्दू महासभा और आर्य समाज के तत्वावधान में ‘भागानगर नि:शस्त्र प्रतिकार मंडल’ के नाम से सत्याग्रह का आह्वान हुआ उसमें सहभागी होने के लिए जिन स्वयंसेवकों ने अनुमति मांगी उन्हें डॉक्टरजी ने सहर्ष अनुमति दी। जिन पर केवल संघ का प्रमुख दायित्व था उन्हें केवल संगठन के कार्य की दृष्टि से बाहर ही रहने के लिए कहा गया था। उन्होंने स्पष्ट कहा था कि सत्याग्रह में जिन्हें भाग लेना है वे व्यक्ति के नाते अवश्य भाग ले सकते हैं। भागनगर सत्याग्रह के संचालकों के द्वारा प्रसिद्धि पत्रक में ‘संघ’ ने सहभाग लिया, ऐसा बार-बार प्रकाशित होने पर डॉक्टर हेडगेवार ने उन्हें पत्र लिखकर संघ का उल्लेख न करने की सूचना उनके प्रसिद्धि विभाग को देने को कहा था।
राजकीय आन्दोलन का तात्कालिक, नैमित्तिक व संघर्षमय स्वरूप और संघ का नित्य, अविरत (अखंड) व रचनात्मक स्वरूप इन दोनों की भिन्नता को समझ कर आन्दोलन भी यशस्वी हो, परन्तु उस समय भी चिरंतन संघकार्य अबाधित रहे, इस दूरदृष्टि से विचारपूर्वक यह नीति डॉक्टर हेडगेवार ने अपनाई थी। इसीलिए जंगल सत्याग्रह के समय भी सरसंघचालक का दायित्व डॉ. परांजपे को सौंप कर व्यक्ति के नाते वे अनेक स्वयंसेवकों के साथ सत्याग्रह में सह्भागी हुए थे।
8 अगस्त, 1942 को मुंबई के गोवलिया टैंक मैदान पर कांग्रेस अधिवेशन में महात्मा गांधीजी ने ‘अंग्रेज! भारत छोड़ो’ यह ऐतिहासिक घोषणा की। दूसरे दिन से ही देश में आन्दोलन ने गति पकड़ी और जगह-जगह आन्दोलन के नेताओं की गिरफ्तारी शुरू हुई। विदर्भ में बावली (अमरावती), आष्टी (वर्धा) और चिमूर (चंद्रपुर) में विशेष आन्दोलन हुए। चिमूर के समाचार बर्लिन रेडियो पर भी प्रसारित हुए। यहां के आन्दोलन का नेतृत्व कांग्रेस के उद्धवराव कोरेकर और संघ के अधिकारी दादा नाईक, बाबूराव बेगडे, अण्णाजी सिरास ने किया। इस आन्दोलन में अंग्रेज की गोली से एकमात्र मृत्यु बालाजी रायपुरकर नामक संघ स्वयंसेवक की हुई। कांग्रेस, श्री तुकडो महाराज द्वारा स्थापित श्री गुरुदेव सेवा मंडल एवं संघ के स्वयंसेवकों ने मिलकर 1943 का चिमूर का आन्दोलन और सत्याग्रह किया। इस संघर्ष में 125 सत्याग्रहियों पर मुकदमा चला और असंख्य स्वयंसेवकों को कारावास में रखा गया।
भारतभर में चले इस आन्दोलन में स्थान-स्थान पर संघ के वरिष्ठ कार्यकर्ता, प्रचारक स्वयंप्रेरणा से कूद पड़े। अपने जिन कार्यकर्ताओं ने स्थान-स्थान पर अन्य स्वयंसेवकों को साथ लेकर इस आन्दोलन में भाग लिया उनके कुछ नाम इस प्रकार हैं- राजस्थान में प्रचारक जयदेवजी पाठक, जो बाद में विद्या भारती में सक्रिय रहे। आर्वी (विदर्भ) में डॉ. अण्णासाहब देशपांडे। जशपुर (छत्तीसगढ़) में रमाकांत केशव (बालासाहब) देशपांडे, जिन्होंने बाद में वनवासी कल्याण आश्रम की स्थापना की। दिल्ली में श्री वसंतराव ओक जो बाद में दिल्ली के प्रान्त प्रचारक रहे। बिहार (पटना), में वहां के प्रसिद्ध वकील कृष्ण वल्लभप्रसाद नारायण सिंह (बबुआजी) जो बाद में बिहार के संघचालक रहे। दिल्ली में ही श्री चंद्रकांत भारद्वाज, जिनके पैर में गोली धंसी और जिसे निकाला नहीं जा सका। बाद में वे प्रसिद्ध कवि और अनेक संघ गीतों के रचनाकार हुए। पूर्वी उत्तर प्रदेश में माधवराव देवडे जो बाद में प्रान्त प्रचारक बने और इसी तरह उज्जैन (मध्य प्रदेश) में दत्तात्रेय गंगाधर (भैयाजी) कस्तूरे का अवदान है जो बाद में संघ प्रचारक हुए। अंग्रेजों के दमन के साथ-साथ एक तरफ सत्याग्रह चल रहा था तो दूसरी तरफ अनेक आंदोलनकर्ता भूमिगत रहकर आन्दोलन को गति और दिशा देने का कार्य कर रहे थे। ऐसे समय भूमिगत कार्यकर्ताओं को अपने घर में पनाह देना किसी खतरे से खाली नहीं था। 1942 के आन्दोलन के समय भूमिगत आन्दोलनकर्ता अरुणा आसफ अली दिल्ली के प्रान्त संघचालक लाला हंसराज गुप्त के घर रही थीं और महाराष्ट्र में सतारा के उग्र आन्दोलनकर्ता नाना पाटील को भूमिगत स्थिति में औंध के संघचालक पंडित सातवलेकर ने अपने घर में आश्रय दिया था। ऐसे असंख्य नाम और हो सकते हैं। उस समय इन सारी बातों का दस्तावेजीकरण (रिकार्ड) करने की कल्पना भी संभव नहीं थी।
डॉ. हेडगेवार के जीवन का अध्ययन करने पर ध्यान में आता है कि बाल्यकाल से आखिरी सांस तक उनका जीवन केवल और केवल अपने देश और उसकी स्वतंत्रता के लिए ही था। उस हेतु उन्होंने समाज को दोषमुक्त, गुणवान एवं राष्ट्रीय विचारों से जाग्रत कर उसे संगठित करने का मार्ग चुना था। संघ की प्रतिज्ञा में भी 1947 तक संघ कार्य का उद्देश्य ‘हिन्दू राष्ट्र को स्वतंत्र करने के लिए’ ही था।
हेडगेवार दृष्टि-संघ दृष्टि
भारतीय राष्ट्रीय जीवन में ‘एक्सट्रीम पोजीशंस’ लेने की स्थिति दिखती थी। डॉक्टर जी के समय भी समाज कांग्रेस-क्रांतिकारी, तिलक-गांधी, हिंसा-अहिंसा, हिन्दू महासभा-कांग्रेस ऐसे द्वन्द्वों में उलझा हुआ था। एक दूसरे को मात करने का वातावरण बना था। कई बार तो आपसी भेद के चलते ऐसा बेसिर का विरोध करने लगते थे कि साम्राज्यवाद के विरोध में अंग्रेजों से लड़ने के बदले आपस में ही भिड़ते दिखते थे। 1921 में मध्य प्रान्त कांग्रेस की प्रांतीय बैठक में लोकनायक अणे की अध्यक्षता में क्रांतिकारियों की निंदा का प्रस्ताव आने वाला था। डॉ. हेडगेवार ने उन्हें समझाया कि क्रांतिकारियों के मार्ग पर आपका विश्वास भले ही ना हो पर उनकी देशभक्ति पर शंका नहीं करनी चाहिए। ऐसी स्थिति में डॉ. जी का जीवन राजनीतिक दृष्टिकोण, दर्शन एवं नीतियां, तिलक-गांधी, हिंसा-अहिंसा, कांग्रेस-क्रांतिकारी, इन संकीर्ण विकल्पों के आधार पर निर्धारित नहीं था। व्यक्ति अथवा विशिष्ट मार्ग से कहीं अधिक महत्वपूर्ण स्वातंत्र्य प्राप्ति का मूल ध्येय था।
भारत को केवल राजनीतिक इकाई मानने वाला एक वर्ग हर प्रकार के श्रेय को अपने ही पल्ले में डालने पर उतारू दिखता है। स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए दूसरों ने कुछ नहीं किया, सारा का सारा श्रेय हमारा ही है ऐसा (‘प्रोपगंडा’) एकतरफा प्रचार करने पर वह आमादा दिखता है। यह उचित नहीं है। सशस्त्र क्रांति से लेकर अहिंसक सत्याग्रह, सेना में विद्रोह, आजाद की हिन्द फौज इन सभी के प्रयासों का एकत्र परिणाम स्वतंत्रता प्राप्ति में हुआ है। इसमें द्वितीय महायुद्ध में जीतने के बाद भी इंग्लैंड की खराब हालत और अपने सभी उपनिवेशों पर शासन करने की असमर्थता और अनिच्छा के योगदान को नकारा नहीं जा सकता। स्वतंत्रता के लिए भारत के समान दीर्घ संघर्ष नहीं हुआ, ऐसे उपनिवेशों को भी अंग्रेजों ने क्रमश: स्वतंत्र किया है।
1942 का सत्याग्रह, महात्मा गांधी द्वारा किया हुआ आखिरी सत्याग्रह था और उसके पश्चात् 1947 में देश स्वतंत्र हुआ, यह बात सत्य है। परन्तु इसलिए स्वतंत्रता केवल 1942 के आन्दोलन के कारण ही मिली, और जो लोग उस आन्दोलन में कारावास में रहे उनके ही प्रयास से भारत स्वतंत्र हुआ यह कहना हास्यास्पद, अनुचित और असत्य है।
एक रूपक कथा है। एक किसान को बहुत भूख लगी। पत्नी खाना परोस रही थी और वह खाए जा रहा था। पर तृप्ति नहीं हो रही थी, दस रोटी खाने के बाद जब उसने ग्यारहवीं रोटी खाई तो उसे तृप्ति की अनुभूति हुई। उससे नाराज होकर वह पत्नी को डांटने लगा कि यह ग्यारहवीं रोटी जिससे तृप्ति हुई, उसने पहले क्यों नहीं दी। इतनी सारी रोटियां खाने की मेहनत बच जाती और तृप्ति जल्दी अनुभूत होती। यह कहना हास्यास्पद ही है।
इसी तरह यह कहना कि केवल 1942 के आन्दोलन के कारण ही भारत को स्वतंत्रता प्राप्त हुई, हास्यास्पद बात है। इसके बारे में अन्य इतिहासकार क्या कहते हैं जरा देखिए-
भारत को आजाद करते समय ब्रिटिश प्रधानमंत्री क्लेमेंट एटली ने कहा था, ‘‘महात्मा गांधी के अहिंसा आंदोलन का ब्रिटिश सरकार पर असर शून्य रहा है।’’ कोलकाता उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश और पश्चिम बंगाल के कार्यकारी गवर्नर रहे पी़एम़ चक्रवर्ती के शब्दों में, ‘‘जिन दिनों मैं कार्यकारी गवर्नर था, उन दिनों भारत दौरे पर आए लॉर्ड एटली, जिन्होंने अंग्रेजों को भारत से बाहर कर कोई औपचारिक आजादी नहीं दी थी, दो दिन के लिए गवर्नर निवास पर रुके थे। भारत से अंग्रेजी हुकूमत के चले जाने के असली कारणों पर मेरी उनके साथ लंबी बातचीत हुई थी। मैंने उनसे सीधा प्रश्न किया था कि चूंकि गांधी जी का ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ तब तक हल्का पड़ चुका था और 1947 के दौरान अंग्रेजों को यहां से आनन-फानन में चले जाने की कोई मजबूरी भी नहीं थी, तब वह क्यों गए ? इसके जवाब में एटली ने कई कारण गिनाए, जिनमें से सबसे प्रमुख था भारतीय सेना और नौसेना की ब्रिटिश राज के प्रति वफादारी का लगातार कम होते जाना। इसका मुख्य कारण नेताजी सुभाषचंद्र बोस की सैन्य गतिविधियां थीं। हमारी बातचीत के अंत में मैंने एटली से पूछा कि अंग्रेजी सरकार के भारत छोड़ जाने में गांधी जी का कितना असर था। सवाल सुनकर एटली के होंठ व्यंग्यमिश्रित मुस्कान के साथ मुड़े और वह धीमे से बोले- न्यूनतम (मिनिमल)’’ (रंजन बोरा, ‘सुभाषचंद्र बोस, द इंडियन नेशनल आर्मी, द वार ऑफ इंडियाज लिबरेशन’। जर्नल ऑफ हिस्टोरिकल रिव्यू, खंड 20,(2001), सं. 1, संदर्भ 46)
अपनी पुस्तक ‘द इंडियाज स्ट्रगल’ में नेताजी ने लिखा है,
'' और महात्मा जी को स्वयं अपने द्वारा प्रतिपादित योजना के प्रति स्पष्टता नहीं थी और भारत को उसकी स्वतंत्रता के अमूल्य लक्ष्य तक ले जाने से जुड़े अभियान के क्रमबद्ध चरणों से संबंधित कोई साफ विचार भी नहीं था।’’
रमेश चंद्र मजूमदार कहते हैं, '' और यह तीनों का एकजुट असर था जिसने भारत को आजाद कराया। इसमें भी विशेष रूप से आईएनए मुकदमे के दौरान सामने आए तथ्य और इस कारण भारत में उठी प्रतिक्रिया, जिसके कारण पहले से ही युद्ध में टूट चुकी ब्रिटिश सरकार को साफ हो गया था कि वह भारत पर शासन करने के लिए सिपाहियों की वफादारी पर निर्भर नहीं रह सकती। भारत से जाने के उनके निर्णय का यह संभवत: सबसे बड़ा कारण था।’’ (मजूमदार, रमेश चंद्र, - थ्री फेजेज ऑफ इंडियाज स्ट्रगल फॉर फ्रीडम, बीवीएन बॉम्बे, इंडिया 1967, पृ़ 58-59)
यह सारा वृत्तांत पढ़ने के बाद, यह सोचना कि 1942 के ‘भारत छोड़ो’ आन्दोलन का स्वतंत्रता प्राप्ति में कुछ भी योगदान नहीं है यह असत्य है। जेल में जाना यही देशभक्त होने का परिचायक है ऐसा मानना भी ठीक नहीं है। स्वतंत्रता आन्दोलन में सक्रिय लोगों में, आन्दोलन कर कारावास भोगने वाले, उनके परिवारों की देखभाल करने वाले, भूमिगत आन्दोलन करने वाले, ऐसे भूमिगत आन्दोलनकारियों को अपने घरों में पनाह देने वाले, विद्यालयों के द्वारा विद्यार्थियों में देशभक्ति का भाव जगाने वाले, स्वदेशी के द्वारा अंग्रेजों की आर्थिक नाकाबंदी करने वाले, स्वदेशी उद्योग के माध्यम से सशक्त भारतीय पर्याय देने वाले, लोककला, पत्रकारिता, कथा उपन्यास, नाटकादि के माध्यम से राष्ट्र जागरण करने वाले सभी का योगदान महत्व का है।
भारत केवल एक राजनीतिक इकाई नहीं है। यह तो हजारों वर्षों के चिंतन के आधार पर निर्मित एक शाश्वत, समग्र, एकात्म जीवन दृष्टि पर आधारित एक सांस्कृतिक इकाई है। यह जीवन दृष्टि, संस्कृति ही आसेतु हिमाचल इस वैविध्यपूर्ण समाज को एकसूत्र में गूंथकर एक विशिष्ट पहचान देती है। इसलिए, भारत के इतिहास में जब-जब सफल राजनीतिक परिवर्तन हुआ है, उसके पहले और उसके साथ-साथ एक सांस्कृतिक जागरण भारत की आध्यात्मिक शक्ति के द्वारा हुआ दिखता है। परिस्थिति जितनी अधिक विकट होती दिखती है उतनी ही ताकत के साथ यह आध्यात्मिक शक्ति भी भारत में सक्रिय हुई है, ऐसा दिखता है। इसीलिए मुगलों के शासन के साथ 12वीं शताब्दी से 16वीं शताब्दी तक सारे भारत में एक साथ भक्ति आन्दोलन प्रस्फुटित हुआ दिखता है। उत्तर में स्वामी रामानन्द से लेकर सुदूर दक्षिण में रामानुजाचार्य तक प्रत्येक प्रदेश में साधु, संत, संन्यासी ऐसे आध्यात्मिक महापुरुषों की एक अखंड परंपरा चल पड़ी है ऐसा दिखता है। अंग्रेजों की गुलामी के साथ-साथ स्वामी दयानंद सरस्वती, श्री रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानंद जैसे आध्यात्मिक नेतृत्व की परंपरा चल पड़ी दिखती है। भारत के इतिहास में सांस्कृतिक जागरण के बिना कोई भी राजनीतिक परिवर्तन सफल और स्थाई नहीं हुआ है। इसलिए सांस्कृतिक जागरण के कार्य का मूल्यांकन राजनीति के मापदंड से नहीं होना चाहिए। मौन, शांत रीति से सतत चलने वाले आध्यात्मिक, सांस्कृतिक जागरण का महत्व भारत जैसे देश के लिए अधिक मायने रखता है, यह अधोरेखित होना चाहिए।
-डॉ. मनमोहन वैद्य
(लेखक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सह सर कार्यवाह हैं)
न्याय में देर करना अन्याय है। भारत की न्यायप्रणाली इस मायने में अन्यायपूर्ण कही जा सकती है, क्योंकि भारत की जेलों में 76 प्रतिशत कैदी ऐसे हैं, जिनका अपराध अभी तय नहीं हुआ है और वे दो दशक से अधिक समय से जेलों में नारकीय जीवन जीते हुए न्याय होने की प्रतिक्षा कर रहे हैं। इन्हें विचाराधीन कैदी कहा जाता है। नैशनल क्राइम रेकॉर्ड ब्यूरो की 2020 की रिपोर्ट के मुताबिक देश भर की जेलों में कुल 4,88,511 कैदी थे जिनमें से 76 फीसदी यानी 3,71,848 विचाराधीन कैदी थे। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ऐसे विचाराधीन कैदियों के मुद्दे को गंभीरता से उठाते हुए ईज ऑफ लिविंग यानी जीने की सहूलियत और ईज ऑफ डूइंग बिजनेस यानी व्यापार करने की सहूलियत की ही तरह ईज ऑफ जस्टिस की जरूरत बताते हुए कहा कि देश भर की जेलों में बंद लाखों विचाराधीन कैदियों की न्याय तक पहुंच जल्द से जल्द सुनिश्चित की जानी चाहिए।
आजादी का अमृत महोत्सव मनाते हुए न्यायप्रणाली की धीमी रफ्तार को गति देकर ही ऐसे विचाराधीन कैदियों के साथ न्याय देना संभव है और इसी से सशक्त भारत का निर्माण होगा। डिस्ट्रिक्ट लीगल सर्विसेज अथॉरिटीज के सम्मेलन में प्रधानमंत्री द्वारा इस मसले को उठाना खास तौर पर महत्वपूर्ण होने के साथ-साथ इसकी गंभीरता को भी दर्शाता रहा है। विचाराधीन कैदियों का मुद्दा अति गंभीर इसलिये है कि बिना अपराध निश्चित हुए असीमित समय के लिये व्यक्ति सलाखों के पीछे अपने जीवन का महत्वपूर्ण समय सजा के रूप में काट देता है, जब ऐसे व्यक्ति को निर्दोष घोषित किया जाता है, तो उसके द्वारा बिना अपराध के भोगी सजा का दोषी किसे माना जाये? ऐसे में कुछ ठोस कदम उठाए जाने की आवश्यकता है, ताकि यह व्यवस्था अधिकतम संख्या में नागरिकों को न्यायिक उपचार सुलभ कराने में सक्षम हो सके। सबसे पहले तो किसी व्यक्ति को दोषी ठहराए बिना जेल में रखे जाने की एक निश्चित समय सीमा होनी चाहिए। यह अवधि अनिश्चित नहीं होनी चाहिए। इसके अलावा एक ट्रैकिंग प्रणाली विकसित करने की आवश्यकता है, जो न्यायप्रणाली में विचाराधीन कैदियों का विश्लेषण कर यह बताए कि उनकी ओर से सलाखों के पीछे भेजे गए लोगों में से कितने आखिर में निर्दोष साबित हुए? ऐसी कानूनी एजेंसियों की पहचान होनी चाहिए और उनके खिलाफ कार्रवाई भी होनी चाहिए, जो अपनी ताकत का दुरुपयोग करती हैं। सरकार को उन मामलों में अपनी जिम्मेदारी स्वीकार करनी होगी, जिनमें अंतहीन सुनवाइयों के कारण जिंदगियां जेलों में सड़ गईं।
विचाराधीन कैदियों का मुद्दा गंभीर है तभी प्रधानमंत्री ने पहले भी अप्रैल माह में राज्यों के मुख्यमंत्रियों और हाईकोर्टों के मुख्य न्यायाधीशों के सम्मेलन में भी यह विषय उठाया था। सुप्रीम कोर्ट भी समय-समय पर इस मसले को उठाता रहा है। बावजूद इन सबके पता नहीं क्यों, इस मामले में जमीन पर कोई ठोस प्रगति होती नहीं दिखती। नरेंद्र मोदी के द्वारा इस मुद्दे को उठाने लिए जो समय चुना गया है, वो सटीक भी है और ऐतिहासिक दृष्टि से महत्वपूर्ण भी है। देश अपनी आजादी के 75 साल पूरे कर रहा है, यह समय हमारी आजादी के अमृत काल का है अतः देश में लम्बे समय से चले आ रहे अन्याय, शोषण, अकर्मण्यता, लापरवाही, प्रशासनिक-कानूनी शिथिलताओं एवं संवेदनहीनताओं पर नियंत्रण पाया जाना चाहिए। यह समय उन संकल्पों का है जो हमारी कमियों एवं विसंगतियों से मुक्ति दिलाकर अगले 25 वर्षों में देश को आदर्श की नई ऊंचाई पर ले जाएंगे। देश की इस अमृतयात्रा में न्याय प्रणाली को चुस्त, दुरुस्त एवं न्यायप्रिय बनाने की सर्वाधिक आवश्यकता है। तभी प्रख्यात साहित्यकार प्रेमचन्द ने कहा था कि न्याय वह है जो कि दूध का दूध, पानी का पानी कर दे, यह नहीं कि खुद ही कागजों के धोखे में आ जाए, खुद ही पाखण्डियों के जाल में फंस जाये।’
विचाराधीन कैदियों का 73 प्रतिशत हिस्सा दलित, ओबीसी और आदिवासी समुदायों से आता है। इनमें से कई कैदी आर्थिक रूप से इतने कमजोर होते हैं जो वकील की फीस तो दूर जमानत राशि भी नहीं जुटा सकते। इसे देश की न्यायिक प्रक्रिया की ही कमी कहा जाएगा कि दोषी साबित होने से पहले ही इनमें से बहुतों को लंबा समय जेल में गुजारना पड़ा है। आलम यह है कि इनकी जमानत पर भी समय से सुनवाई नहीं हो पा रही। उत्तर प्रदेश से जुड़े ऐसे ही एक मामले में सुप्रीम कोर्ट मई महीने में आदेश दे चुका है कि राज्य के ऐसे तमाम विचाराधीन कैदियों को जमानत पर छोड़ दिया जाए जिनके खिलाफ इकलौता मामला हो और जिन्हें जेल में दस साल से ज्यादा हो चुका हो। फिर भी जब ऐसी कोई पहल नहीं हुई तो पिछले हफ्ते सुप्रीम कोर्ट ने राज्य सरकार और इलाहाबाद हाईकोर्ट के रुख पर नाराजगी जताते हुए कहा कि अगर आप लोग ऐसा नहीं कर सकते तो हम खुद ऐसा आदेश जारी कर देंगे। देखना होगा कि यह मामला आगे क्या नतीजा लाता है, लेकिन समझना जरूरी है कि बात सिर्फ यूपी या किसी भी एक राज्य की नहीं है। पूरे देश के ऐसे तमाम मामलों को संवेदनशील ढंग से देखे जाने और इन पर जल्द से जल्द सहानुभूतिपूर्ण फैसला करने की जरूरत है। ग्रेट ब्रिटेन, अमेरिका, न्यूजीलैण्ड, श्रीलंका जैसे मुल्कों ने जमानत के लिए अलग से कानून बनाया है और उसके अच्छे परिणाम आए हैं। भारत में भी ऐसे कदम उठाये जाने की जरूरत है।
कानून के मुताबिक, विचाराधीन कैदियों को जमानत मिलना उनका अधिकार है, लेकिन जागरूकता के अभाव, कानूनी प्रक्रिया की विसंगतियों के चलते या कई बार तकनीकी कारणों से वे लंबे समय से बगैर दोष साबित हुए जेल में बंद हैं। दंड शास्त्र का स्थापित सिद्धांत है कि बिना अपराध साबित हुए किसी व्यक्ति को जेल में बंद नहीं रखा जाना चाहिए। जमानत के प्रार्थनापत्र का शीघ्रता से निस्तारण संविधान के अनुच्छेद 21 के अंतर्गत जीवन और दैहिक स्वतंत्रता के मूल अधिकार का हिस्सा है। ऐसे प्रार्थनापत्रों का एक समय-सीमा में निस्तारण होना चाहिए और जब तक अभियुक्त को छोड़ने से न्याय पर प्रतिकूल असर पड़ने की आशंका न हो, तब तक उसे जमानत से इनकार नहीं किया जाना चाहिए। पर हकीकत इससे अलग है। तभी मोदी ने सम्मेलन में भाग लेने वाले जिला न्यायाधीशों से आग्रह किया कि वे विचाराधीन मामलों की समीक्षा संबंधी जिला-स्तरीय समितियों के अध्यक्ष के रूप में अपने कार्यालयों का उपयोग करके विचाराधीन कैदियों की रिहाई में तेजी लाएं।
राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के अनुसार देश में करीब 76 प्रतिशत कैदी विचाराधीन हैं। इनमें से एक बड़ी संख्या ऐसे कैदियों की होती है जिन्हें शायद निर्दोष पाया जाएगा। सारे विचाराधीन कैदियों में यह बात आमतौर पर देखी जाती है कि वे गरीब, युवा और अशिक्षित होते हैं। शायद सबसे बड़ा जोखिम गरीबी के कारण पैदा होता है, जो दो तरह से चोट करती है। एक, आर्थिक रूप से पिछड़े लोग कानूनी रूप से असहाय हो जाते हैं, क्योंकि उनके पास जेल जाने से बचाने वाली कानूनी लड़ाई के लिए पैसे नहीं होते। दूसरे, अगर जमानत मिल भी गई तो कई बंदी जमानत की रकम चुका नहीं पाते। ऐसे लोगों के लिये सरकार को कदम उठाते हुए सरकारी निःशुल्क कानूनी सहायता के उपक्रमों को विस्तारित करना चाहिए। हर उस व्यक्ति को सरकार से मुआवजा मिलना चाहिए जिसे न्यायिक हिरासत में एक साल बिताने के बाद निर्दोष पाया जाता है, क्योंकि सरकार समय पर कानूनी प्रक्रिया पूरी करने में विफल रही। भारत को अपनी न्याय प्रक्रिया में इस दृष्टि से आमूल-चूल परिवर्तन, परिवर्द्धन करने की आवश्यकता है कि अगर किसी आरोपित के पास जमानत के पैसे नहीं हैं तो सरकार उसकी आर्थिक मदद करे या जमानत हासिल करने के लिए उसे ऋण उपलब्ध कराए। गरीबी के कारण किसी को जेल में नहीं रखा जा सकता। विचाराधीन कैदियों में निश्चित ही कई निर्दोष होंगे। अन्याय का शिकार होने वाले ऐसे लोगों का मुद्दा ज्वलंत एवं अति-संवेदनशील होना चाहिए। यह एक ऐसा मुद्दा है, जिस पर तत्काल कार्रवाई की आवश्यकता है। ऐसी सरकारी व्यवस्था निरर्थक होती है, जो न्याय न दे सके और देरी से मिला न्याय अन्याय ही होता है।
- ललित गर्ग