संपादकीय

संपादकीय (272)

रूस ने अपने नजदीकी और बहुत छोटे देश यूक्रेन पर लगभग छह माह पूर्व हमला किया। उसके टैंक और तोप पूरी शक्ति से यूक्रेन पर कब्जा करने के लिए बढ़े। रूस ने खूब मिसाइल दागीं। हमला करते समय ही लगा था कि वह हफ्ते−दस दिन में यूक्रेन को तबाह कर देगा।

अमेरिक−रूस और चीन इस समय दुनिया की तीन महाशक्तियां मानी जाती हैं। इन्हें अपनी ताकत पर घमंड है। थोड़ा बहुत नहीं, बहुत ज्यादा घमंड है। इसी घमंड में की गयी गलतियां इनकी शक्ति की पोल खोलने में लगी हैं। पिछले लगभग एक डेढ़ साल में स्पष्ट हो गया कि ये कितना भी दंभ भरें इनमें छोटे से छोटे देश से लड़ने तक की ताकत नहीं है। एक साल पहले अमेरिका अफगानिस्तान से जिस तरह दुम दबाकर भागा, वह पूरी दुनिया ने देखा। यहां अपनी सेना के लिए एकत्र शस्त्र भी साथ अमेरिकी सेना नहीं ले जा सकी। उन्हें अफगानिस्तान में काबिज होने वाले तालिबान के लिए छोड़ दिया गया। शस्त्र ही नहीं लड़ाकू विमान और दुनिया के सबसे उन्नत हैलिकाप्टर भी अपनी सेना के साथ अमेरिका नहीं ले जा सका। अफगानिस्तान से भागने से पूरे विश्व में उसकी छवि सबसे ज्यादा खराब हुई। उसकी विश्वसनीयता को बड़ी  आंच पहुंची।

एक और विश्व शक्ति रूस ने अपने नजदीकी और बहुत छोटे देश यूक्रेन पर लगभग छह माह पूर्व हमला किया। उसके टैंक और तोप पूरी शक्ति से यूक्रेन पर कब्जा करने के लिए बढ़े। रूस ने खूब मिसाइल दागीं। हमला करते समय ही लगा था कि वह हफ्ते−दस दिन में यूक्रेन को तबाह कर देगा। उसे चुटकियों में मसल देगा। और अपनी विजय पताका फहरा देगा। रूस को यूक्रेन से युद्ध करते छह माह से ज्यादा बीत गए। उसकी सेनाएं वहां कुछ भी न कर सकीं। अब पता चला है कि उसकी सेनाएं वापस हो रही हैं। दुनिया की एक बड़ी शक्ति को एक छोटे देश से लड़ते छह माह से ज्यादा हो गए। वह महाशक्ति रूस मुट्ठी भर   आबादी के देश यूक्रेन को परास्त नहीं कर सका।

 

चीन दुनिया की तीन बड़ी ताकतों में से एक है। उसके पास विशाल सेना के साथ ही हैं महाविनाशक हथियार। काफी समय से वह ताइवान पर कब्जा करने की कोशिश में है। चीन के कई बार विरोध जताने के बावजूद अमेरिकी कांग्रेस की स्पीकर नैंसी पेलोसी के ताइवान पहुंचने के बाद चीन के रवैये से लगा कि वह ताइवान को सबक सिखाकर ही रहेगा। ताइवान के समुद्री क्षेत्र में उसका सैन्याभ्यास भी कुछ ऐसा ही बता  रहा था। किंतु वह उछल−कूद कर रह गया। अखाड़े से बाहर ही उछल−कूद की। बर्दाश्त की सीमा निकलती देख इतना जरूर हुआ कि अपनी सीमा में आए चीनी ड्रोन को ताइवान ने मार गिराया। अपना ड्रोन मार गिराए जाने के बाद भी भी महाशक्ति बना चीन चुप्पी साधे रहा। अब अमेरिका ने ताइवान के मामले में अपनी नीति साफ कर दी है। अमेरिका के बाइडेन प्रशासन ने हाल में कहा है कि अगर चीन, ताइवान पर हमला करता है तो उसकी सेना ताइवान की मदद करने को उतरेगी। बाइडेन प्रशासन ने इस बार संकेत में ही अपनी नीति को साफ किया है। अमेरिका का अभी पूरी तरह से पक्ष स्पष्ट नहीं था। यूक्रेन के बारे में भी अमेरिका और नाटो देश ऐसा ही कह रहे थे किंतु रूस के यूक्रेन पर हमले के बाद वे चुप्पी साध गए। कहने लगे कि उनके सीधे युद्ध में उतरने से युद्ध सीमित न रहकर विश्व युद्ध में बदल जाएगा। हालांकि वे यूक्रेन को शस्त्र और सैन्य उपकरण लगातार दे रहे हैं।

अब तक ताइवान के बारे में भी चीन का यही मानना था। अफगानिस्तान से वापसी के समय से वह ताइवान से कह रहा था कि अमेरिका अपने वायदे पर खरा नहीं उतरा। अफगानिस्तान और उसकी जनता को अधर में छोड़कर वहां से भाग आया। अब अमेरिका के यह स्पष्ट कर देने पर कि ताइवान पर हमला होने की हालत में उसकी सेना ताइवान की मदद करेगी। चीन ने अपने रुख को स्पष्ट कर दिया है। उसका पारा एकदम से आसमान से जमीन पर आ गया। ऐसी पल्टी मारी कि सोचा भी नहीं जा सकता। उसका ताजा बयान आया है कि वह ताइवान को शांति के साथ चीन में मिलाने का पक्षधर है। वह शाक्ति प्रयोग करना  नहीं चाहता। पुरानी कहावत है कि दुशमन तभी तक ताकतवर है, जब तक आप चुप हैं, उसकी गलत बात का उत्तर नहीं देते, जिस दिन उत्तर देने पर आ जाएंगे, सामने वाला आपके हौसले देख खुद पीछे हट  जाएगा।

 

-अशोक मधुप

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

गुजरात के वडनगर रेलवे स्टेशन पर चाय बेचने वाले से लेकर वर्ल्ड स्टेज पर दुनिया के सबसे प्रभावशाली नेताओं में शुमार होने तक की प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की यात्रा बड़ी रोचक और प्रेरणादायक रही है। उन्होंने भारत को सर्वशक्तिमान बनाने की दिशा में कई अहम काम किये हैं।

देश को आत्मनिर्भरता की राह पर आगे बढ़ाने वाले, देश को गुलामी की मानसिकता से निजात दिलाने वाले, मुश्किल से भी मुश्किल समय में देश को कुशल नेतृत्व देने वाले, बात महामारी की हो या आतंकवाद की...रणनीति और साहस के साथ उनका खात्मा करने वाले, विस्तारवादी ताकतों की सारी हेकड़ी निकालने वाले, देश को अगले 25 सालों के लिए नव-संकल्प दिलाकर सबको साथ लेकर, सबको विश्वास में लेकर आगे बढ़ाने वाले नरेंद्र मोदी के नेतृत्व कौशल की आज पूरी दुनिया कायल है। 'मोदी है तो मुमकिन है', यह कोई महज चुनावी नारा नहीं बल्कि आश्वस्ति का वह भाव है जो देश की जनता के मन में है। देश की जनता सिर्फ इसी बात से निश्चिंत है कि मोदी हैं तो हमारे देश की संप्रभुता और अखण्डता को कोई आंच नहीं आ सकती। जनता बार-बार देख चुकी है कि 'कोई भारत को छेड़ेगा तो हम छोड़ेंगे नहीं' यह बात सिर्फ मोदी कहते भर नहीं हैं इसे समय-समय पर हकीकत भी बना कर दिखाते हैं। सिर्फ रक्षा क्षेत्र की ही बात कर लें तो मोदी ने हमारी तीनों सेनाओं को आधुनिक हथियारों और सभी प्रकार की सुविधाओं से लैस ही नहीं किया है बल्कि दुश्मन को मुँहतोड़ जवाब देने के लिए जवानों को पूरी छूट भी दी है। हमारी सेना, वायुसेना और नौसेना जिन अत्याधुनिक हथियारों, लड़ाकू विमानों की बाट दशकों से जोह रही थीं उन्हें मोदी ने आते ही प्रदान भी किया और जिस तरह से देश को रक्षा मामले में आत्मनिर्भर बनाने का अभियान चलाया है वह आने वाले वर्षों में हमारी दूसरों पर निर्भरता तो कम करेगा ही साथ ही हम रक्षा निर्यात से भी बड़ी आमदनी कमा सकेंगे। इसके अलावा हमारे अर्ध सैनिक बलों की ताकत और सुविधाओं में भी काफी वृद्धि की गयी है। 

गुजरात के वडनगर रेलवे स्टेशन पर चाय बेचने वाले से लेकर वर्ल्ड स्टेज पर दुनिया के सबसे प्रभावशाली नेताओं में शुमार होने तक की प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की यात्रा बड़ी रोचक और प्रेरणादायक रही है। नरेंद्र मोदी वैसे तो भारत के 14वें प्रधानमंत्री हैं लेकिन इस मामले में वह पहले प्रधानमंत्री हैं जिसने गरीबी को सबसे करीब से देखा है। जिसकी माँ दूसरों के घरों में काम करती हो, जिसने खुद कभी रेलवे स्टेशन पर चाय बेची हो, जिसने अपने जीवन का बड़ा हिस्सा दो जोड़ी कपड़ों में गुजारा हो, जिसने हिमालय की चोटियों पर बरसों संन्यासी के रूप में गुजारे हों, जिसने मुख्यमंत्री के रूप में गुजरात को ऐसा चमकाया हो कि दुनिया भारत के इस राज्य की चकाचौंध से जुड़ने के लिए खुद आतुर हुई हो, जिसने प्रधानमंत्री के रूप में भारत को गरीबी और निराशा की स्थिति से निकाला हो और देश को एकजुट कर 'न्यू इंडिया' की परिकल्पना साकार करने के लिए निकल पड़ा हो, उस हस्ती का देश-दुनिया वंदन कर रही है। वाकई ऐसे जुझारू, कर्मठ, कर्तव्यनिष्ठ, भारत की संस्कृति के प्रचारक और राष्ट्रभक्त जनसेवक बिरले ही होते हैं। अनुच्छेद 370 हटाकर जम्मू-कश्मीर से आतंकवाद की लगभग समाप्ति कर कश्मीरी युवाओं को मुख्यधारा से जोड़ने की बात हो या फिर पूर्वोत्तर क्षेत्र में उग्रवाद और कुछ राज्यों में आधार रखने वाले माओवाद पर काबू पाने की बात हो, मोदी सरकार के कार्यकाल में देश में पूर्णतः शांति बनी हुई है और हर जगह सिर्फ कानून का राज है।

नरेंद्र मोदी को जनप्रतिनिधि के रूप में विभिन्न पदों पर रहते हुए बीस साल से ज्यादा समय हो चुका है लेकिन देखिये उनके पास अन्य नेताओं की तरह ना तो आलीशान बंगला है, ना ही बड़े-बड़े बैंक बैलेंस हैं और ना ही चमचमाती कारें हैं। हाँ, उनके पास अपनी माँ का आशीर्वाद और भारत की जनता का प्यार जरूर है तभी तो चुनावों के समय जनता खुद ही नारा लगाती है- 'नमो नमो', 'मोदी मोदी', 'मोदी है तो मुमकिन है', 'हर हर मोदी घर घर मोदी' लेकिन भारत के प्रधानमंत्री के रूप में नरेंद्र मोदी ने देश को जो बड़े नारे या फिर कहिये सूत्रवाक्य दिये वह हैं- 'एक भारत, श्रेष्ठ भारत', 'सबका साथ सबका विकास सबका विश्वास और सबका प्रयास'। नरेंद्र मोदी ने अपने लिए बड़ा घर बनाने की जगह प्रधानमंत्री आवास योजना के तहत रिकॉर्ड संख्या में जरूरतमंदों के सिर पर छत प्रदान की। नरेंद्र मोदी ने सिर्फ अपने निर्वाचन क्षेत्र या अपने गृहराज्य की चिंता करने की बजाय देश को समान रूप से विकास की ऐसी ढेरों परियोजनाएं प्रदान कीं जिससे नये भारत का निर्माण चारों ओर होता दिख रहा है।

 

भारत का पहला वॉर मेमोरियल, सेंट्रल विस्टा परियोजना आदि मोदी के कार्यकाल में ही साकार हुईं। राम मंदिर, काशी विश्वनाथ कॉरिडोर, स्वच्छ भारत, जीएसटी, वन रैंक वन पेंशन, सीडीएस, स्मार्ट सिटी, डिजिटल इंडिया अभियान, नयी राष्ट्रीय शिक्षा नीति और जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 को हटाने के वादे भारत में बरसों से सुने जाते थे लेकिन यह सब साकार मोदी सरकार के कार्यकाल में ही हुए। यही वह सरकार है जिसने उद्योगों को मजबूती प्रदान करने के लिए तमाम कदम उठाये, उद्योगों की स्थापना संबंधी प्रक्रियाओं का सरलीकरण किया, मंजूरियां प्रदान करने की प्रक्रिया को भ्रष्टाचार मुक्त बनाया, युवाओं को रोजगार पाने की जद्दोजहद में जुटने की बजाय उन्हें रोजगार प्रदान करने लायक स्थिति में पहुँचाने के लिए तमाम योजनाओं को पेश किया, कोरोना के कहर से देश को बचाने के लिए भारत में वैक्सीन के निर्माण को प्रोत्साहित भी किया तथा दुनिया में सबसे ज्यादा और तीव्र गति से वैक्सीन लगाने का रिकॉर्ड भी बनाया, संकट के समय महीनों तक गरीब जनता को मुफ्त राशन उपलब्ध कराया। यही नहीं ओलम्पिक, पैरालम्पिक और राष्ट्रमंडल खेलों के सभी पदक विजेताओं और प्रतिभागी खिलाड़ियों का हौसला प्रधानमंत्री ने निजी रूप से बढ़ाया। विभिन्न क्षेत्रों में मुकाम हासिल करने वालों से बात कर उनका हौसला बढ़ाने की बात हो, युवाओं का विभिन्न अवसरों पर मार्गदर्शन करने की बात हो, छात्रों से परीक्षा पर चर्चा कर उनका हौसला बढ़ाने की बात हो...नरेंद्र मोदी से पहले किसी प्रधानमंत्री ने यह काम नहीं किया।

 

यह सही है कि मोदी की छवि हिंदूवादी नेता की रही है, लेकिन उन्होंने सदैव दूसरे धर्मों को भी समान रूप से सम्मान दिया। भोलेनाथ के भक्त और काशी के जनसेवक मोदी ने रामनगरी अयोध्या में श्रीराम मंदिर निर्माण कार्य का शुभारम्भ कर हिन्दुस्तान की जनता का सैंकड़ों वर्षों पुराना सपना साकार कर दिया तो मोदी सरकार के कार्यकाल में ही अल्पसंख्यक मंत्रालय ने मुस्लिमों के लिए इतनी योजनाएं पेश कीं कि आज यह वर्ग पहले की अपेक्षा ज्यादा पढ़ा-लिखा और संपन्न नजर आ रहा है। मोदी ने इस देश में बरसों से चल रही तुष्टिकरण की राजनीति को तो समाप्त किया ही मुस्लिम महिलाओं को तीन तलाक के अभिशाप से भी मुक्ति दिलाई। आज प्रधानमंत्री का जन्मदिन हो या फिर रक्षा बंधन या भैया दूज का त्योहार, मुस्लिम महिलाएं मोदी को भाई के रूप में राखी भेजती हैं, तिलक भेजती हैं। प्रधानमंत्री स्वयं कई बार अल्पसंख्यक वर्ग के प्रबुद्ध लोगों से बात कर उनकी समस्याएं हल करने की दिशा में कदम उठा चुके हैं। यही कारण है कि देश में लोकसभा और विधानसभा की कई ऐसी सीटें हैं जो अल्पसंख्यक बहुल होने के बावजूद भाजपा के पास हैं। यह दर्शाता है कि मुस्लिमों को वोट बैंक के रूप में देखने वालों के दिन अब लद चुके हैं।

इस देश में दलितों और पिछड़ों को भी सिर्फ वोट बैंक के रूप में देखा जाता था लेकिन मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद से उनकी सामाजिक और आर्थिक दशा में बड़े बदलाव आये हैं। सबको याद होगा कि प्रयागराज के कुंभ मेले में स्वच्छता कर्मियों के पैर खुद प्रधानमंत्री ने धोये थे और उन्हें सम्मानित किया था। आज पिछड़े वर्गों को आगे बढ़ाने का काम जितना नरेंद्र मोदी ने किया है उतना आजाद भारत के इतिहास में कभी नहीं हुआ। यही नहीं गांवों और किसानों की चिंता करते हुए प्रधानमंत्री ने उन्हें सभी प्रकार की सुविधाएं प्रदान करने के लिए ना सिर्फ अनेकों योजनाएं पेश कीं बल्कि उनके क्रियान्वयन पर खुद निगाह भी रखी। गरीब किसानों की मदद के वादे तो पहले भी किये जाते थे लेकिन नरेंद्र मोदी ने किसान सम्मान योजना के जरिये ना सिर्फ उनकी आर्थिक मदद की बल्कि तमाम तरह की फसलों का एमएसपी समय-समय पर बढ़ाकर उन्हें और सशक्त भी किया। कारीगरों और मजदूरों का काम पहले निर्माण के बाद खत्म समझा जाता था लेकिन मोदी के कार्यकाल में इन श्रमिकों को सम्मान मिल रहा है। कर्तव्य पथ बनाने वाले श्रमिकों से प्रधानमंत्री ने खुद बात की यही नहीं जो मजदूर नई संसद के निर्माण कार्य में लगे हैं उनके बारे में एक संग्रहालय भी बनाया जायेगा।

 

मोदी भ्रष्टाचार, परिवारवाद जैसी बुराई का कचरा तो साफ कर ही रहे हैं साथ ही वह स्वच्छ भारत के लिए कितने गंभीर रहते हैं यह देश कई बार देख चुका है। गंदगी दिखे तो झाडू लगा देना, समुद्र तट पर जायें तो कचरा एकत्र कर उसे डस्टबिन में डालना और किसी परियोजना के उद्घाटन के समय सिर्फ रिब्बन ही नहीं काटना बल्कि कचरा दिखे तो उसे भी उठा देना...ऐसा सिर्फ आज तक एक ही प्रधानमंत्री ने करके दिखाया है। प्रधानमंत्री योग से निरोग रहने का संदेश ही नहीं देते उसे खुद भी जीवन में अपनाते हैं। सेना के किसी कार्यक्रम में जाते हैं तो सैन्य वर्दी को शान से पहनते हैं। मोदी से पहले किसी अन्य प्रधानमंत्री ने जनता से मन की बात अगर की थी तो सिर्फ चुनावों के समय की थी लेकिन मोदी हर महीने के अंत में रेडियो के माध्यम से अपने मन की बात रखते हैं। यही कारण है कि मोदी के मन से वाकिफ जनता उनके एक आह्वान पर उठ खड़ी होती है। मोदी ने कोरोना काल में जो-जो आह्वान किये देश की जनता उनसे जुड़ी, हाल ही में आजादी की 75वीं वर्षगांठ पर मोदी ने 'हर घर तिरंगा' अभियान का आह्वान किया तो देश के प्रत्येक नागरिक ने मिलकर उसे सफल बनाया।

 

मोदी वैसे तो भारत के प्रधानमंत्री हैं लेकिन वह अपने काम से वैश्विक नेता की छवि रखते हैं। अमेरिकी रेटिंग एजेंसियों के अनुसार मोदी की ग्लोबल अप्रूवल रेटिंग 75 प्रतिशत है और उनके आसपास दुनिया का कोई नेता नहीं है। मोदी ने भारतीय विदेश नीति को जिस तरह आगे बढ़ाया है उससे पूरी दुनिया आश्चर्यचकित है। भारत में विपक्ष भले राजनीतिक मजबूरी के चलते मोदी की विदेश नीति की सराहना नहीं करे लेकिन दुनिया मोदी की नीतियों को सराह रही है। जब हम दुनिया सराह रही है कह रहे हैं तो इसका मतलब सिर्फ यह नहीं है कि दुनिया के बड़े नेता मोदी की तारीफ कर रहे हैं बल्कि इसका मतलब यह भी है कि दुनिया के तमाम देशों की जनता भी चाह रही है कि उनके यहां भी मोदी जैसा नेता हो जो अपने या अपने परिजनों के बारे में नहीं बल्कि सिर्फ देश के बारे में सोचे।

 

तमाम तरह की चुनौतियों पर गौर करें तो आज पूरे विश्व भर का जो माहौल है उसमें भारी बहुमत की ताकत रखने वाला नेता ही देश के हितों से जुड़े मुद्दों को वैश्विक मंचों पर पूरी ताकत के साथ उठा सकता है। देखा जाये तो मोदी राष्ट्र हित में फैसले लेने के लिए राजनीतिक नुकसान की परवाह नहीं करते इसलिए वह देश के लिए कई साहसिक निर्णय ले पाये हैं। प्रतिदिन 24 में से 18 घंटे काम करने वाले भारत के लोकप्रिय प्रधानमंत्री के लिए देश सेवा ही सबकुछ है और दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के सबसे बड़े पद तक पहुँचने का उनका सफर हमारे लोकतंत्र की ताकत को दर्शाता है जहाँ सामान्य परिवार से जुड़ा व्यक्ति भी शीर्ष पद तक पहुँच सकता है। मोदी देश को विश्व की पांचवीं बड़ी अर्थव्यवस्था बना ही चुके हैं। उम्मीद है कि उनके ही नेतृत्व में हम पहले नंबर पर भी पहुँचेंगे। बहरहाल, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भले अपना जन्मदिन नहीं मनाते हों लेकिन देश उनके जन्मदिन को बड़े धूमधाम से मनाता है क्योंकि भारत की जनता यही चाहती है कि उसे बरसों बाद जो सशक्त नेता मिला है वह अनंत काल तक नेतृत्व करता रहे।

 

-नीरज कुमार दुबे

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की संवाद शैली का असर है कि रेडियो फिर से जनमाध्यम बन गया। प्रधानमंत्री मोदी के ‘मन की बात’ को सुनने के लिए गाँव-शहर में चौपाल लगती हैं। वह जब विदेश में जाते हैं तो प्रवासी भारतीय उनको सुनने के लिए आतुर हो जाते हैं।

सार्वजनिक जीवन में संवाद कला का बहुत महत्व है। व्यक्तिगत स्तर और छोटे समूह में लोगों को आकर्षित करना एवं उन्हें अपने से सहमत करना अपेक्षाकृत आसान होता है। किंतु, जन (मास) को अपने विचारों से सहमत करना और अपने प्रति उसका विश्वास अर्जित करना कठिन बात है। सार्वजनिक जीवन में काम करने वाले लोग किसी न किसी माध्यम से ही जन सामान्य तक अपनी पहुँच बनाते हैं। इस प्रक्रिया में सबसे महत्वपूर्ण है, व्यक्ति किस प्रकार अपने विचार प्रस्तुत करता है। आवश्यक है कि वह जिस रूप में सोच रहा है, वह उसी रूप में जनता के बीच पहुँचे। जो लोग इस प्रकार संवाद कला को साध लेते हैं, वह जनसामान्य से जुड़ जाते हैं। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने इसी संवाद कला को सिद्ध कर लिया है। वह असाधारण वक्ता और प्रभावी संचारक हैं।

प्रधानमंत्री मोदी संचार के 7-सी (7-C) के सिद्धांत को जीते हैं। संचार के विशेषज्ञ फ्रांसिस बेटजिन ने बताया है कि 7-सी के सिद्धांत का उपयोग कर संचारक बहुत ही सरलता और प्रभावी ढंग से जन (मास) के मस्तिष्क में अपनी बात (संदेश) को पहुंचा सकता है। बहुत बड़े जनसमुदाय से अपनत्व स्थापित कर सकता है। इस सिद्धांत के सातों तत्व- स्पष्टता (Clarity), संदर्भ (Context), निरंतरता (Continuty), विश्वसनीयता (Credibility), विषय वस्तु (Content), माध्यम (Channel) और पूर्णता (Completeness) प्रधानमंत्री मोदी के भाषण में झलकते हैं। प्रधानमंत्री मोदी जो संदेश देना चाहते हैं, समाज तक वह संदेश स्पष्ट रूप से पहुँचता है। वह अपनी बात को संदर्भ के साथ प्रस्तुत करते हैं, इससे लोगों को उनका संदेश समझने में आसानी होती है और उसमें रुचि भी जाग्रत होती है। वह अपनी बात को निरंतरता और पूर्णता के साथ कहते हैं। किस तरह की बात करने के लिए कौन-सा माध्यम उपयुक्त है, यह भी वह भली प्रकार जानते हैं। युवाओं के साथ संवाद करना है तो वह नवीनतम तकनीक का उपयोग करते हैं। सोशल मीडिया के सभी मंच और नमो एप के माध्यम से वह तकनीक के साथ जीने वाली नयी पीढ़ी से संवाद करते हैं। सुदूर क्षेत्रों में संवाद करना है तो वह रेडियो को चुनते हैं। अन्य भारतीय भाषाई क्षेत्रों में क्षेत्रीय भाषा में अपने भाषण की शुरुआत कर, वहाँ उपस्थित जनता का अभिवादन कर, वे उनका दिल जीत लेते हैं। यही कारण है कि उनको चाहने वाले लोग गुजरात और उत्तर भारत में ही नहीं, वरन भारत के दूसरे क्षेत्रों में भी समानुपात में हैं। कुल मिलाकर हम कह सकते हैं कि प्रधानमंत्री मोदी किसी कुशल संचारक की तरह प्रभावी संचार के सभी तत्वों को ध्यान में रखकर जन संवाद करते हैं।

   

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की यात्रा को नजदीक से देखते हैं तो हमें ध्यान आता है कि आज वह जिस शिखर पर हैं, वहाँ पहुँचने में उनकी संवाद शैली की सबसे महत्वपूर्ण भूमिका रही है। भारतीय राजनीति को लंबे समय बाद ऐसा राजनेता मिला है, जिसके संबोधन की प्रतीक्षा समूचे देश को रहती है। लाल किले की प्राचीर से दिए जाने वाले भाषण अब औपचारिक नहीं रह गए। वह एक विशेष वर्ग तक भी सीमित नहीं रह गए हैं। अब देश का जनसामान्य उनको सुनता है। जब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी बोलते हैं तो देश ही नहीं अपितु दुनिया के कान उनके वक्तव्य पर टिके होते हैं। मोदी को चाहने वाले ही नहीं, अपितु उनकी आलोचना करने वाले लोग भी उन्हें अत्यंत ही ध्यानपूर्वक सुनते हैं।

 

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की संवाद शैली का असर है कि रेडियो फिर से जनमाध्यम बन गया। प्रधानमंत्री मोदी के ‘मन की बात’ को सुनने के लिए गाँव-शहर में चौपाल लगती हैं। वह जब विदेश में जाते हैं तो प्रवासी भारतीय उनको सुनने के लिए आतुर हो जाते हैं। विदेशों में भारतीय राजनेता को सुनने के लिए इतनी भीड़ कभी नहीं देखी गई है। दरअसल, उन्हें यह अच्छे से ज्ञात है कि कब, कहाँ और किसके बीच अपनी बात को कैसे कहना है? यदि हम यह मान भी लें कि राजनीतिक सभाओं में भीड़ जुटाना एक प्रकार का प्रबंधन है। फिर भी अब वह दौर नहीं रहा जब आम आदमी हेलीकॉप्टर देखने के आकर्षण में सभा स्थल तक पहुँच जाता था। उस समय अपने प्रिय नेता को देखने के लिए संचार के अत्यधिक माध्यम भी नहीं थे। जबकि आज तो हर समय राजनेता की छवि हमारे सामने उपस्थित रहती है। दूसरी बात यह कि सभा स्थल की अपेक्षा घर में बैठकर अधिक आराम और अच्छे से अपने प्रिय नेता को टेलीविजन पर सीधे प्रसारण में सुना-देखा जा सकता है। ऐसे समय में भी प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को प्रत्यक्ष सुनने के लिए जनता जुटती है तो यह अपने आप में आश्चर्य और शोध-अध्ययन का विषय है। यह उनकी असाधारण भाषण कला का जादू है जो लोग खिंचे चले आते हैं। वे अपनी इस कला से श्रोताओं को मंत्रमुग्ध करना जानते हैं। 

              

वह जानते हैं कि आज के युवाओं को किस तरह की भाषा सुनना पसंद है। हिन्दी प्रेमी होने के बाद भी वह अपने भाषण में कुछ वाक्य/तुकबंदी अंग्रेजी के शब्दों की करते हैं। वह तुकबंदी तेजी से लोगों की जुबान पर चढ़ जाती है, जैसा कि वह चाहते हैं। जैसे- रिकॉर्ड देखिए, टेप रिकॉर्ड नहीं, मिनिमम गवर्नमेंट-मैक्सिमम गवर्नेंस, रिफोर्म-परफोर्म-ट्रांसफोर्म, नेशन फर्स्ट (राष्ट्र सबसे पहले)। जीएसटी को उन्होंने कुछ इस तरह परिभाषित किया- ग्रोइंग स्ट्रॉन्गर टुगेदर। वहीं, भीम एप को उन्होंने डॉ. भीमराव आंबेडकर से जोड़ दिया। उनका दिया नारा ‘सबका साथ-सबका विकास’ और ‘अच्छे दिन आएंगे’ आज भी चर्चा और बहस के केंद्र में रहते हैं। अपने राजनीतिक विरोधियों पर जोरदार और असरदार हमला बोलने के लिए वह कैसे ‘आकर्षक शब्द’ गढ़ते हैं, उसका एक उदाहरण स्कैम भी है। उत्तर प्रदेश के चुनाव के दौरान प्रधानमंत्री मोदी ने मेरठ की एक रैली में स्कैम का नया अर्थ बताया था। उन्होंने एस से समाजवादी, सी से कांग्रेस, ए से अखिलेश और एम से मायावती को बताया था। उनके इस प्रयोग को बाद में उनके विरोधियों ने भी इस्तेमाल किया। कांग्रेस राहुल गांधी भी आजकल प्रभावी संवाद के लिए उनकी शैली का अनुसरण करते हैं। गुजरात चुनाव के दौरान उन्होंने जीएसटी को गब्बर सिंह टैक्स बताया था। हालाँकि, प्रधानमंत्री मोदी की तरह इस प्रयोग का लाभ राहुल गांधी को नहीं मिला, बल्कि कुछ हद तक नुकसान ही उठाना पड़ा।

        

वाकपटुता में उनका मुकाबला कोई नहीं कर सकता। अपने विरोधियों के आरोपों और अमर्यादित शब्दों को भी वह अपने हित में उपयोग कर लेते हैं। वह स्वयं स्वीकारते हैं कि विरोधियों के फेंके पत्थर (अपशब्दों) से उन्होंने अपने लिए पहाड़ बना लिया है। गुजरात चुनाव प्रचार के दौरान कांग्रेस के वरिष्ठ नेता मणिशंकर अय्यर ने उनके लिए ‘नीच’ शब्द का उपयोग किया, जिसकी क्षतिपूर्ति कांग्रेस ने गुजरात चुनाव में अपनी पराजय से की। उत्तर प्रदेश चुनाव के दौरान अखिलेश यादव ने प्रधानमंत्री मोदी के गधा बताया था। जिस पर प्रधानमंत्री मोदी ने जवाबी वार करते हुए कहा कि मैं गर्व से गधे से प्रेरणा लेता हूं और देश के लिए गधे की तरह काम करता हूं। सवा सौ करोड़ देशवासी मेरे मालिक हैं। गधा वफादार होता है उसे जो काम दिया जाता है वह पूरा करता है। यह गधा शब्द कांग्रेस को भारी पड़ गया। कहने का अभिप्राय इतना है कि प्रधानमंत्री संवाद कला में इस स्तर तक निपुण हैं कि वह अपने लिए कहे गए अपशब्दों को भी अपनी ताकत बना लेते हैं। 

              

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के भाषण देश की जनता के बीच विश्वास का एक वातावरण बनाते हैं। वह आह्वान करते हैं और देश की जनता उनका अनुसरण करने निकल पड़ती है। प्रधानमंत्री मोदी की वाणी का जादू है कि देश के निश्छल नागरिकों के अंतर्मन में स्वच्छता के प्रति आंदोलन का भाव प्रकट हो जाता है। छोटे बच्चे से लेकर बुजुर्ग तक स्वच्छाग्रही बन जाते हैं। मोदी के कहने पर लाखों लोग गैस की सबसिडी छोड़ देते हैं। देशवासी उनके कहने पर अंतरराष्ट्रीय योग दिवस को किसी बड़े धार्मिक-राष्ट्रीय उत्सव की तरह मनाते हैं। यह प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की वाणी के प्रति जनता का भरोसा था कि अनेक प्रकार के कष्ट सहकर भी लोगों ने नोटबंदी के बाद पूरी तरह अनुशासन का पालन किया, जबकि समूचा विपक्ष और कुछ मीडिया संस्थान जनता को विद्रोह के लिए लगातार भड़का रहे थे। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को देश की जनता क्रिकेट के महान बल्लेबाज सचिन तेंदुलकर की तरह देखती है। भारतीय दल कठिन स्थिति में फंसा है, किंतु यदि पिच पर सचिन खड़े हैं तो देश की जनता को एक उम्मीद रहती है कि मुकाबले का परिणाम देश के पक्ष में आएगा। इसी तरह का विश्वास देश की जनता को नरेन्द्र मोदी पर है। जब मोदी बल्लेबाजी (अपना पक्ष रखने) के लिए राजनीति की पिच पर उतरते हैं तो समूचा देश नि:शब्द हो, उन्हें ध्यानपूर्वक सुनता है। बहरहाल, भारतीय राजनीति में इतने अच्छे वक्ता राजनेता कम ही हैं। वर्तमान समय में तो प्रधानमंत्री मोदी के मुकाबले का कुशल संचारक अन्य कोई दिखाई नहीं देता है। पिछले सात-आठ वर्ष से नरेन्द्र मोदी लगातार बोल रहे हैं, इसके बाद भी उनको सुनने की भूख देश की जनता में बची हुई है।

 

-- लोकेन्द्र सिंह

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार एवं स्तंभकार हैं। वर्तमान में माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल में सहायक प्राध्यापक हैं।)

अंग्रेज़ी भी अच्छी भाषा है। इंसान को अंग्रेज़ी ही नहीं, दूसरी देसी-विदेशी भाषाएं भी सीखनी चाहिए। इल्म हासिल करना तो अच्छी बात है, लेकिन अपनी मातृभाषा की क़ुर्बानी देकर किसी दूसरी भाषा को अपनाए जाने को किसी भी सूरत में जायज़ नहीं ठहराया जा सकता है।

हर भाषा की अपनी अहमियत होती है। फिर भी मातृभाषा हमें सबसे प्यारी होती है, क्योंकि उसी ज़ुबान में हम बोलना सीखते हैं। बच्चा सबसे पहले मां ही बोलता है। इसलिए भी मां बोली हमें सबसे अज़ीज़ होती है। लेकिन देखने में आता है कि कुछ लोग जिस भाषा के सहारे ज़िन्दगी बसर करते हैं, यानी जिस भाषा में लोगों से संवाद क़ायम करते हैं, उसी को 'तुच्छ' समझते हैं। बार-बार अपनी मातृभाषा का अपमान करते हुए अंग्रेज़ी की तारीफ़ में क़सीदे पढ़ते हैं। हिन्दी के साथ ऐसा सबसे ज़्यादा हो रहा है। वे लोग जिनके पुरखे अंग्रेज़ी का 'ए' नहीं जानते थे, वे भी हिन्दी को गरियाते हुए मिल जाएंगे। हक़ीक़त में ऐसे लोगों को न तो ठीक से हिन्दी आती है और न ही अंग्रेजी। दरअसल, वह तो हिंदी को गरिया कर अपनी 'कुंठा' का 'सार्वजनिक प्रदर्शन' करते रहते हैं।

अंग्रेज़ी भी अच्छी भाषा है। इंसान को अंग्रेज़ी ही नहीं, दूसरी देसी-विदेशी भाषाएं भी सीखनी चाहिए। इल्म हासिल करना तो अच्छी बात है, लेकिन अपनी मातृभाषा की क़ुर्बानी देकर किसी दूसरी भाषा को अपनाए जाने को किसी भी सूरत में जायज़ नहीं ठहराया जा सकता है। यह अफ़सोस की बात है कि हमारे देश में हिंदी और दूसरी क्षेत्रीय भाषाओं की लगातार अनदेखी की जा रही है। हालत यह है कि अब तो गांव-देहात में भी अंग्रेज़ी का चलन बढ़ने लगा है। पढ़े-लिखे लोग अपनी मातृभाषा में बात करना पसंद नहीं करते, उन्हें लगता है कि अगर वे ऐसा करेंगे तो गंवार कहलाएंगे। क्या अपनी संस्कृति की उपेक्षा करने को सभ्यता की निशानी माना जा सकता है, क़तई नहीं। हमें ये बात अच्छे से समझनी होगी कि जब तक हिंदी भाषी लोग ख़ुद हिन्दी को सम्मान नहीं देंगे, तब तक हिंदी को वो सम्मान नहीं मिल सकता, जो उसे मिलना चाहिए।

देश को आज़ाद हुए साढ़े सात दशक बीत चुके हैं। इसके बावजूद अभी तक हिंदी को राष्ट्रीय भाषा का दर्जा हासिल नहीं हो पाया है। यह बात अलग है कि हर साल 14 सितम्बर को हिंदी दिवस पर कार्यक्रमों का आयोजन कर रस्म अदायगी कर ली जाती है। हालत यह है कि कुछ लोग तो अंग्रेज़ी में भाषण देकर हिंदी की दुर्दशा पर घड़ियाली आंसू बहाने से भी नहीं चूकते।

 

हमारे देश भारत में बहुत सी भाषायें और बोलियां हैं। इसलिए यहां यह कहावत बहुत प्रसिद्ध है- कोस-कोस पर पानी बदले, चार कोस पर वाणी। भारतीय संविधान में भारत की कोई राष्ट्र भाषा नहीं है। हालांकि केन्द्र सरकार ने 22 भाषाओं को आधिकारिक भाषा के रूप में स्थान दिया है। इसमें केन्द्र सरकार या राज्य सरकार अपने राज्य के मुताबिक़ किसी भी भाषा को आधिकारिक भाषा के रूप में चुन सकती है। केन्द्र सरकार ने अपने काम के लिए हिन्दी और रोमन भाषा को आधिकारिक भाषा के रूप में जगह दी है। इसके अलावा राज्यों ने स्थानीय भाषा के मुताबिक़ आधिकारिक भाषाओं को चुना है। इन 22 आधिकारिक भाषाओं में असमी, उर्दू, कन्नड़, कश्मीरी, कोंकणी, मैथिली, मलयालम, मणिपुरी, मराठी, नेपाली, ओडिया, पंजाबी, संस्कृत, संतली, सिंधी, तमिल, तेलुगू, बोड़ो, डोगरी, बंगाली और गुजराती शामिल हैं।

 

ग़ौरतलब है कि संवैधानिक रूप से हिंदी भारत की प्रथम राजभाषा है। यह देश की सबसे ज़्यादा बोली जाने वाली भाषा है। इतना ही नहीं, चीनी के बाद हिंदी दुनियाभर में सबसे ज़्यादा बोली और समझी जाती है। भारत में उत्तर और मध्य भागों में हिंदी बोली जाती है, जबकि विदेशों में फ़िज़ी, गयाना, मॉरिशस, नेपाल और सूरीनाम के कुछ बाशिंदे हिन्दी भाषी हैं। एक अनुमान के मुताबिक़ दुनियाभर के 132 देशों में क़रीब 60 करोड़ लोग हिंदी बोलते हैं, जिनमें तक़रीबन तीन करोड़ अप्रवासी शामिल हैं। दुनिया के 157 विश्वविद्यालयों में हिंदी पढ़ाई जा रही है। हिंदी का व्याकरण सर्वाधिक वैज्ञानिक माना जाता है। हिंदी का श्ब्द भंडार भी बहुत विस्तृत है। अंग्रेज़ी में जहां 10 हज़ार शब्द हैं, वहीं हिंदी में इसकी तादाद अढ़ाई लाख बताई जाती है। हिंदी मुख्यतः देवनागरी में लिखी जाती है, लेकिन अब इसे रोमन में भी लिखा जाने लगा है। मोबाइल संदेश और इंटरनेट से हिंदी को काफ़ी बढ़ावा मिल रहा है। सोशल मीडिया पर भी हिंदी का ख़ूब चलन है। 

 

देश में सबसे ज़्यादा बोली जाने वाली भाषा होने के बाद भी हिंदी राष्ट्रीय भाषा नहीं बन पाई है। हिंदी हमारी राजभाषा है। राष्ट्रीय और आधिकारिक भाषा में काफ़ी फ़र्क़ है। जो भाषा किसी देश की जनता, उसकी संस्कृति और इतिहास को बयान करती है, उसे राष्ट्रीय या राष्ट्रभाषा भाषा कहते हैं। मगर जो भाषा कार्यालयों में उपयोग में लाई जाती है, उसे आधिकारिक भाषा कहा जाता है। इसके अलावा अंग्रेज़ी को भी आधिकारिक भाषा का दर्जा हासिल है।

संविधान के अनुचछेद-17 में इस बात का ज़िक्र है कि आधिकारिक भाषा को राष्ट्रीय भाषा नहीं माना जा सकता है। भारत के संविधान के मुताबिक़ देश की कोई भी अधिकृत राष्ट्रीय भाषा नहीं है। यहां 23 भाषाओं को आधिकारिक भाषा के तौर पर मंज़ूरी दी गई है। संविधान के अनुच्छेद 344 (1) और 351 के मुताबिक़ भारत में अंग्रेज़ी सहित 23 भाषाएं बोली जाती हैं, जिनमें आसामी, बंगाली, बोडो, डोगरी, गुजराती, कन्नड़, कश्मीरी, कोंकणी, मैथिली, मलयालम, मणिपुरी, मराठी, नेपाली, उड़िया, पंजाबी, संस्कृत, संथाली, सिंधी, तमिल, तेलुगु और उर्दू शामिल हैं। ख़ास बात यह भी है कि राष्ट्रीय भाषा तो आधिकारिक भाषा बन जाती है, लेकिन आधिकारिक भाषा को राष्ट्रीय भाषा बनाने के लिए क़ानूनी तौर पर मंज़ूरी लेना ज़रूरी है। संविधान में यह भी कहा गया है कि यह केंद्र का दायित्व है कि वह हिन्दी के विकास के लिए निरंतर प्रयास करे। विभिन्नताओं से भरे भारतीय परिवेश में हिंदी को जनभावनाओं की अभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम बनाया जाए।

 

भारतीय संविधान के मुताबिक़ कोई भी भाषा, जिसे देश के सभी राज्यों द्वारा आधिकारिक भाषा के तौर पर अपनाया गया हो, उसे राष्ट्रीय भाषा का दर्जा दिया जाता है। मगर हिंदी इन मानकों को पूरा नहीं कर पा रही है, क्योंकि देश के सिर्फ़ 10 राज्यों ने ही इसे आधिकारिक भाषा के तौर पर अपनाया है, जिनमें बिहार, छत्तीसगढ़, दिल्ली, हिमाचल प्रदेश, हरियाणा, झारखंड, मध्य प्रदेश, राजस्थान और उत्तर प्रदेश शामिल है। इन राज्यों में उर्दू को सह-राजभाषा का दर्जा दिया गया है। उर्दू जम्मू-कश्मीर की राजभाषा है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 343 में हिंदी को आधिकारिक भाषा का दर्जा दिया गया है। संविधान के लिए अनुच्छेद 351 के तहत हिंदी के विकास के लिए विशेष प्रावधान किया गया है।

 

ग़ौरतलब है कि देश में 26 जनवरी 1950 को भारतीय संविधान लागू हुआ था। देश में हिंदी और अंग्रेज़ी सहित 18 भाषाओं को आधिकारिक भाषा का दर्जा हासिल है, जबकि यहां क़रीब 800 बोलियां बोली जाती हैं। दक्षिण भारत के राज्यों ने स्थानीय भाषाओं को ही अपनी आधिकारिक भाषा बनाया है। दक्षिण भारत के लोग अपनी भाषाओं के प्रति बेहद लगाव रखते हैं, इसके चलते वे हिंदी का विरोध करने से भी नहीं चूकते। साल 1940-1950 के दौरान दक्षिण भारत में हिंदी के ख़िलाफ़ कई अभियान शुरू किए गए थे। उनकी मांग थी कि हिंदी को देश की राष्ट्रीय भाषा का दर्जा न दिया जाए।

 

संविधान सभा द्वारा 14 सितम्बर, 1949 को सर्वसम्मति से हिंदी को संघ की राजभाषा घोषित किया गया था। तब से केन्द्रीय सरकार के देश-विदेश स्थित समस्त कार्यालयों में प्रतिवर्ष 14 सितम्बर हिंदी दिवस के रूप में मनाया जाता है। इसीलिए हर साल 14 सितम्बर को हिंदी दिवस के तौर पर मनाया जाता है। संविधान के अनुच्छेद 343 (1) के मुताबिक़ भारतीय संघ की राजभाषा हिंदी और लीपी देवनागरी होगी। साथ ही अंकों का रूप अंतर्राष्ट्रीय स्वरूप यानी 1, 2, 3, 4 आदि होगा। संसद का काम हिंदी और अंग्रेज़ी दोनों भाषाओं में किया जा सकता है, मगर राज्यसभा या लोकसभा के अध्यक्ष विशेष परिस्थिति में सदन के किसी सदस्य को अपनी मातृभाषा में सदन को संबोधित करने की अनुमति दे सकते हैं। संविधान के अनुच्छेद 120 के तहत किन प्रयोजनों के लिए केवल हिंदी का इस्तेमाल किया जाना है, किनके लिए हिंदी और अंग्रेज़ी दोनों भाषाओं का इस्तेमाल ज़रूरी है और किन कार्यों के लिए अंग्रेज़ी भाषा का इस्तेमाल किया जाना है। यह राजभाषा अधिनियम-1963, राजभाषा अधिनियम-1976 और उनके तहत समय-समय पर राजभाषा विभाग गृह मंत्रालय की ओर से जारी किए गए दिशा-निर्देशों द्वारा निर्धारित किया गया है।

पाश्चात्य संस्कृति के प्रभाव के कारण अंग्रेज़ी भाषा हिंदी पर हावी होती जा रही है। अंग्रेज़ी को स्टेट्स सिंबल के तौर पर अपना लिया गया है। लोग अंग्रेज़ी बोलना शान समझते हैं, जबकि हिंदी भाषी व्यक्ति को पिछड़ा समझा जाने लगा है। हैरानी की बात तो यह भी है कि देश की लगभग सभी बड़ी प्रतियोगी परीक्षाएं अंग्रेज़ी में होती हैं। इससे हिंदी भाषी योग्य प्रतिभागी इसमें पिछड़ जाते हैं। अगर सरकार हिंदी भाषा के विकास के लिए गंभीर है, तो इस भाषा को रोज़गार की भाषा बनाना होगा। आज अंग्रेज़ी रोज़गार की भाषा बन चुकी है। अंग्रेज़ी बोलने वाले लोगों को नौकरी आसानी से मिल जाती है। इसलिए लोग अंग्रेज़ी के पीछे भाग रहे हैं। आज छोटे क़स्बों तक में अंग्रेज़ी सिखाने की 'दुकानें' खुल गई हैं। अंग्रेज़ी भाषा नौकरी की गारंटी और योग्यता का 'प्रमाण' बन चुकी है। अंग्रेज़ी शासनकाल में अंग्रेज़ों ने अपना वर्चस्व बनाए रखने के लिए अंग्रेज़ियत को बढ़ावा दिया था, मगर आज़ाद देश में मैकाले की शिक्षा पध्दति को क्यों ढोया जा रहा है, यह समझ से परे है।

 

हिंदी के विकास में हिंदी साहित्य के अलावा हिंदी पत्रकारिता का बहुत बड़ा योगदान रहा है। इसके अलावा हिंदी सिनेमा ने भी हिंदी के प्रचार-प्रसार को बढ़ावा दिया है। मगर अब सिनेमा की भाषा भी 'हिन्गलिश' होती जा रही है। छोटे पर्दे पर आने वाले धारावाहिकों में ही बिना वजह अंग्रेज़ी के वाक्य ठूंस दिए जाते हैं। हिंदी सिनेमा में काम करके अपनी रोज़ी-रोटी कमाने वाले कलाकार भी हर जगह अंग्रेज़ी में ही बोलते नज़र आते हैं। आख़िर क्यों हिंदी को इतनी हेय दृष्टि से देखा जाने लगा है? यह एक ज्वलंत प्रश्न है।

 

अधिकारियों का दावा है कि हिंदी राष्ट्रभाषा, संपर्क भाषा, जनभाषा के सोपानों को पार कर विश्व भाषा बनने की ओर अग्रसर है, मगर देश में हिंदी की जो हालत है, वो जगज़ाहिर है। साल में एक दिन को ‘हिंदी दिवस’ के तौर पर मना लेने से हिंदी का भला होने वाला नहीं है। इसके लिए ज़रूरी है कि हिंदी के प्रचार-प्रसार के लिए ज़मीनी स्तर पर ईमानदारी से काम किया जाए। 

 

रूस में अपनी मातृभाषा भूलना बहुत बड़ा शाप माना जाता है। एक महिला दूसरी महिला को कोसते हुए कहती है- अल्लाह, तुम्हारे बच्चों को उनकी मां की भाषा से वंचित कर दे। अल्लाह तुम्हारे बच्चों को उनसे महरूम कर दे, जो उन्हें उनकी ज़ुबान सिखा सकता हों। नहीं, अल्लाह तुम्हारे बच्चों को उससे महरूम करे, जिसे वे अपनी ज़ुबान सिखा सकते हों। मगर पहा़ड़ों में तो किसी तरह के शाप के बिना भी उस आदमी की कोई इज्ज़त नहीं रहती, जो अपनी ज़ुबान की इज्ज़त नहीं करता। पहाड़ी मां विकृत भाषा में लिखी अपने बेटे की कविताएं नहीं पढ़ेगी। रूस के प्रसिद्ध लेखक रसूल हमज़ातोव ने अपनी किताब मेरा दाग़िस्तान में ऐसे कई क़िस्सों का ज़िक्र किया है, जो मातृभाषा से जुड़े हैं। कैस्पियन सागर के पास काकेशियाई पर्वतों की ऊंचाइयों पर बसे दाग़िस्तान के एक छोटे से गांव त्सादा में जन्मे रसूल हमज़ातोव को अपने गांव, अपने प्रदेश, अपने देश और उसकी संस्कृति से बेहद लगाव रहा है। मातृभाषा की अहमियत का ज़िक्र करते हुए ‘मेरा दाग़िस्तान’ में वह लिखते हैं, मेरे लिए विभिन्न जातियों की भाषाएं आकाश के सितारों के समान हैं। मैं नहीं चाहता कि सभी सितारे आधे आकाश को घेर लेने वाले अतिकाय सितारे में मिल जाएं। इसके लिए सूरज है, मगर सितारों को भी तो चमकते रहना चाहिए। हर व्यक्ति को अपना सितारा होना चाहिए। मैं अपने सितारे अपनी अवार मातृभाषा को प्यार करता हूं। मैं उन भूतत्वेत्ताओं पर विश्वास करता हूं, जो यह कहते हैं कि छोटे-से पहाड़ में भी बहुत-सा सोना हो सकता है।

 

एक बेहद दिलचस्प वाक़िये के बारे में वह लिखते हैं, किसी बड़े शहर मास्को या लेनिनग्राद में एक लाक घूम रहा था। अचानक उसे दाग़िस्तानी पोशाक पहने एक आदमी दिखाई दिया। उसे तो जैसे अपने वतन की हवा का झोंका-सा महसूस हुआ, बातचीत करने को मन ललक उठा। बस भागकर हमवतन के पास गया और लाक भाषा में उससे बात करने लगा। इस हमवतन ने उसकी बात नहीं समझी और सिर हिलाया। लाक ने कुमीक, फिर तात और लेज़गीन भाषा में बात करने की कोशिश की। लाक ने चाहे किसी भी ज़बान में बात करने की कोशिश क्यों न की, दाग़िस्तानी पोशाक में उसका हमवतन बातचीत को आगे न बढ़ा सका। चुनांचे रूसी भाषा का सहारा लेना पड़ा। तब पता चला कि लाक की अवार से मुलाक़ात हो गई थी। अवार अचानक ही सामने आ जाने वाले इस लाक को भला-बुरा कहने और शर्मिंदा करने लगा। तुम भी कैसे दाग़िस्तानी, कैसे हमवतन हो, अगर अवार भाषा ही नहीं जानते, तुम दाग़िस्तानी नहीं, मूर्ख ऊंट हो। इस मामले में मैं अपने अवार भाई के पक्ष में नहीं हूं। बेचारे लाक को भला-बुरा कहने का उसे कोई हक़ नहीं था। अवार भाषा की जानकारी हो भी सकती है, नहीं भी हो सकती है। अहम बात यह है कि उसे अपनी मातृभाषा, लाक भाषा आनी चाहिए। वह तो दूसरी कई भाषाएं जानता था, जबकि अवार को वे भाषाएं नहीं आती थीं।

 

अबूतालिब एक बार मास्को में थे। सड़क पर उन्हें किसी राहगीर से कुछ पूछने की आवश्यकता हुई। शायद यही कि मंडी कहां है? संयोग से कोई अंग़्रेज़ ही उनके सामने आ गया। इसमें हैरानी की तो कोई बात नहीं। मास्को की सड़कों पर तो विदेशियों की कोई कमी नहीं है।

अंग्रेज़ अबूतालिब की बात न समझ पाया और पहले तो अंग्रेज़ी, फिर फ्रांसीसी, स्पेनी और शायद दूसरी भाषाओं में भी पूछताछ करने लगा। अबूतालिब ने शुरू में रूसी, फिर लाक, अवार, लेज़गीन, दार्ग़िन और कुमीक भाषाओं में अपनी बात को समझाने की कोशिश की। आख़िर एक-दूसरे को समझे बिना वे दोनों अपनी-अपनी राह चले गए। एक बहुत ही सुसंस्कृत दाग़िस्तानी ने जो अंग्रेज़ी भाषा के ढाई शब्द जानता था, बाद में अबूतालिब को उपदेश देते हुए यह कहा-देखो संस्कृति का क्या महत्व है। अगर तुम कुछ अधिक सुसंस्कृत होते तो अंग्रेज़ से बात कर पाते। समझे न? समझ रहा हूं। अबूतालिब ने जवाब दिया। मगर अंग्रेज़ को मुझसे अधिक सुसंस्कृत कैसे मान लिया जाए? वह भी तो उनमें से एक भी ज़ुबान नहीं जानता था, जिनमें मैंने उससे बात करने की कोशिश की?

 

रसूल हमज़ातोव लिखते हैं, एक बार पेरिस में एक दाग़िस्तानी चित्रकार से मेरी भेंट हुई। क्रांति के कुछ ही समय बाद वह पढ़ने के लिए इटली गया था, वहीं एक इतावली लड़की से उसने शादी कर ली और अपने घर नहीं लौटा। पहाड़ों के नियमों के अभ्यस्त इस दाग़िस्तानी के लिए अपने को नई मातृभूमि के अनुरूप ढालना मुश्किल था। वह देश-देश में घूमता रहा, उसने दूर-दराज़ के अजनबी मुल्कों की राजधानियां देखीं, मगर जहां भी गया, सभी जगह घर की याद उसे सताती रही। मैंने यह देखना चाहा कि रंगों के रूप में यह याद कैसे व्यक्त हुई है। इसलिए मैंने चित्रकार से अपने चित्र दिखाने का अनुरोध किया। एक चित्र का नाम ही था मातृभूमि की याद। चित्र में इतावली औरत (उसकी पत्नी) पुरानी अवार पोशाक में दिखाई गई थी। वह होत्सातल के मशहूर कारीगरों की नक़्क़ाशी वाली चांदी की गागर लिए एक पहाड़ी चश्मे के पास खड़ी थी। पहाड़ी ढाल पर पत्थरों के घरों वाला उदास-सा अवार गांव दिखाया गया था और गांव के ऊपर पहाड़ी चोटियां कुहासे में लिपटी हुई थीं। पहाड़ों के आंसू ही कुहासा है- चित्रकार ने कहा, वह जब ढालों को ढंक देता है, तो चट्टानों की झुर्रियों पर उजली बूंदें बहने लगती हैं। मैं कुहासा ही हूं। दूसरे चित्र में मैंने कंटीली जंगली झाड़ी में बैठा हुआ एक पक्षी देखा। झाड़ी नंगे पत्थरों के बीच उगी हुई थी। पक्षियों को गाता हुआ दिखाया गया था और पहाड़ी घर की खिड़की से एक उदास पहाडिन उसकी तरफ़ देख रही थी। चित्र में मेरी दिलचस्पी देखकर चित्रकार ने स्पष्ट किया- यह चित्र पुरानी अवार की किंवदंती के आधार पर बनाया गया है।

 

किस किंवदंती के आधार पर?

 

एक पक्षी को पकड़कर पिंजरे में बंद कर दिया गया। बंदी पक्षी दिन-रात एक ही रट लगाए रहता था-मातृभूमि, मेरी मातृभूमि, मातृभूमि… बिल्कुल वैसे ही, जैसे कि इन तमाम सालों के दौरान मैं भी यह रटता रहा हूं। पक्षी के मालिक ने सोचा, जाने कैसी है उसकी मातृभूमि, कहां है? अवश्य ही वह कोई फलता-फूलता हुआ बहुत ही सुन्दर देश होगा, जिसमें स्वार्गिक वृक्ष और स्वार्गिक पक्षी होंगे। तो मैं इस परिन्दे को आज़ाद कर देता हूं, और फिर देखूंगा कि वह किधर उड़कर जाता है। इस तरह वह मुझे उस अद्भुत देश का रास्ता दिखा देगा। उसने पिंजरा खोल दिया और पक्षी बाहर उड़ गया। दस एक क़दम की दूरी पर वह नंगे पत्थरों के बीच उगी जंगली झाड़ी में जा बैठा। इस झाड़ी की शाख़ाओं पर उसका घोंसला था। अपनी मातृभूमि को मैं भी अपने पिंजरे की खिड़की से ही देखता हूं। चित्रकार ने अपनी बात ख़त्म की।

 

तो आप लौटना क्यों नहीं चाहते?

 

देर हो चुकी है। कभी मैं अपनी मातृभूमि से जवान और जोशीला दिल लेकर आया था। अब मैं उसे सिर्फ़ बूढ़ी हड्डियां कैसे लौटा सकता हूं?

 

रसूल हमज़ातोव ने अपनी कविताओं में भी अपनी मातृभाषा का गुणगान किया है। अपनी एक कविता में वह कहते हैं-

मैंने तो अपनी भाषा को सदा हृदय से प्यार किया है

हमें भी अपनी मातृ भाषा के प्रति अपने दिल में यही जज़्बा पैदा करना होगा।

 

-फ़िरदौस ख़ान

(लेखिका स्टार न्यूज़ एजेंसी में सम्पादक हैं)

निकाय चुनाव से पहले भाजपा के पास जनता से सीधे तौर पर जुड़ने का एक और मौका सेवा पखवाड़ा के तौर पर सामने आ रहा है। भाजपा, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के जन्मदिन 17 सितंबर से गांधी जयंती यानी दो अक्टूबर तक सेवा पखवाड़ा मनाएगी।

उत्तर प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी नए 'क्लेवर और फ्लेवर' के साथ 2024 के लोकसभा चुनाव की तैयारी में जुटी है। विधानसभा चुनाव के बाद बीजेपी में काफी कुछ बदल गया है। पार्टी को नया प्रदेश अध्यक्ष मिल गया है। संगठन मंत्री भी बदल गए हैं। जातीय समीकरण भी काफी दुरुस्त कर लिए गए हैं तो योगी सरकार टू का चेहरा भी काफी बदला बदला है। कई पुराने मंत्री हाशिये पर चले गए हैं जिनकी जगह नए नेताओं ने ले ली है। इन नए नवेले चेहरों के साथ योगी भी अपनी दूसरी पारी में काफी आक्रामक अंदाज में लोकसभा चुनाव की तैयारी में जुटे हैं। यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी कि योगी सरकार और बीजेपी एवं संघ पूरी तरह से चुनावी मोड में आ गए हैं। जबकि अन्य दलों- कांग्रेस, समाजवादी पार्टी और बसपा में चुनाव को लेकर कोई सुगबुगाहट नहीं दिखाई दे रही है।

राजनीति के जानकार कहते हैं कि निश्चित ही बीजेपी को इस तेजी का फायदा 2024 के चुनाव में मिलेगा। भारतीय जनता पार्टी के कार्यकर्ता, पदाधिकारी और नेता लगातार जनता के बीच जा रहे हैं, उनकी समस्याओं को सुनते हैं और सरकार से उसका समाधान कराने की कोशिश करते हैं। देश में 18वीं लोकसभा के सदस्यों के लिए चुनाव में अभी करीब डेढ़ साल का समय बचा है लेकिन यूपी में बीजेपी ने अभी से जिस स्तर की तैयारी शुरू कर दी है उससे वो सपा और बसपा से कोसों आगे दिखने लगी है। यहां एक तरफ सीएम योगी आदित्यनाथ के धुआंधार दौरों का दौर चल रहा है तो दूसरी ओर पार्टी की कमान सम्भालते ही नए प्रदेश अध्यक्ष भूपेन्द्र चौधरी और प्रदेश महामंत्री संगठन धर्मपाल सिंह ने भी सभी क्षेत्रवार बैठकों का सिलसिला चलाकर सांगठनिक दृष्टिकोण से प्रदेश के कोने-कोने को मथ दिया है। बीजेपी में लगातार बैठकों और संवादों का दौर जारी है। संगठन में महत्वपूर्ण पदों पर बैठे सभी नेताओं और सरकार के मंत्रियों को लगातार यह बताया जा रहा है कि उन्हें जनता से कैसे संवाद करना है। इसके साथ इन नेताओं और मंत्रियों की मॉनिटरिंग भी आलाकमान द्वारा की जा रही है। 

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इस साल हुए यूपी विधानसभा चुनाव में बीजेपी ने 403 में से 255 सीटें जीतकर नया रिकॉर्ड बनाया। तभी से पार्टी के रणनीतिकार 2024 में यूपी की सभी लोकसभा सीटें जीतने के भी दावे करने लगे। बीजेपी के बारे में कहा जाता है कि वहां चुनावी तैयारी कभी भी थमती नहीं है। पिछले विधानसभा चुनाव में मिली प्रचंड जीत के बाद बीजेपी ने लोकसभा चुनाव में यूपी से 80 सीटें जीतने का जो लक्ष्य निर्धारित किया उसके बाद उसकी तैयारी की रफ्तार देखते ही बनती है। बीजेपी आलाकमान चाहता है कि उत्तर प्रदेश में फिर से एक बार 2014 जैसा या उससे अच्छा जनादेश आए। दरअसल, 2019 के लोकसभा चुनाव में यूपी में बीजेपी को 80 में से 62 सीटें मिली थीं। उसकी सहयोगी अपना दल को 2 सीटों पर जीत मिली जबकि बीएसपी को 10 और सपा को 5 सीटों पर संतोष करना पड़ा था। कांग्रेस के खाते में एक सीट आई थी जबकि आरएलडी के खाते में एक भी सीट नहीं आई।

 

इस बार बीजेपी का दावा और तैयारी एनडीए को सभी 80 सीटों पर जीत दिलाने की है। पिछली बार की हारी सीटों पर बीजेपी को नंबर दो से नंबर एक बनना है। निकाय चुनाव के बहाने पार्टी इसी लक्ष्य को ध्यान में रखकर यूपी का मंथन कर रही है। इसके लिए बाकायदा अभी से 2024 तक के कार्यक्रम निर्धारित किए जा रहे हैं। बीजेपी के आत्मविश्वास की एक वजह यह भी है कि 1985 के बाद पहली बार यूपी में कोई सरकार अपना 5 वर्ष का कार्यकाल पूरा करने के बाद दोबारा पूर्ण बहुमत से सत्ता में लौटी है। यूपी में बीजेपी 2014 के बाद से लगातार हर चुनाव शानदार तरीके से जीत रही है। उधर, राज्य की प्रमुख मुख्य विपक्षी पार्टियां समाजवादी पार्टी और बसपा अपने ही अंतर्द्वंद्वों से बाहर नहीं निकल पा रही हैं।

 

समाजवादी पार्टी की बात करें तो अखिलेश यादव ने पार्टी सदस्यता अभियान और तिरंगा यात्रा जैसे कार्यक्रमों से संगठन में जान फूंकने की कोशिश की लेकिन आजमगढ़ और रामपुर लोकसभा उपचुनाव में मिली हार, ओमप्रकाश राजभर जैसे नेताओं के गठबंधन से बाहर जाने और चाचा शिवपाल सिंह यादव की तल्ख बयानबाजियों से आजकल वह जूझते नजर आ रहे हैं। विधानसभा चुनाव में सिर्फ एक सीट पर सिमट गईं मायावती भी पार्टी को फिर से खड़ा करने, मुस्लिमों-दलितों के साथ सर्वसमाज का गठजोड़ बनाने जैसे दावे तो कर रही हैं लेकिन उनकी ज्यादातर ऊर्जा अखिलेश यादव पर हमले करने और उनकी प्रतिक्रियाओं का जवाब देने में लगती दिख रही है।

इन सबसे अलग बीजेपी मिशन 2024 की तैयारी में अभी से पूरी ताकत के साथ जुट गई है। एक तरफ मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और दोनों डिप्टी सीएम केशव प्रसाद मौर्य और ब्रजेश पाठक लगातार दौरे कर माहौल बनाने में जुटे हैं तो दूसरी यूपी बीजेपी की कमान सम्भालने वाले प्रदेश अध्यक्ष भूपेन्द्र चौधरी और प्रदेश महामंत्री संगठन धर्मपाल सिंह ने अपनी नई जिम्मेदारी संभालने के पहले ही दिन से क्षेत्रवार मंथन का दौर चला रखा है। बीजेपी निकाय चुनाव को 2024 में होने वाले लोकसभा चुनावों से पहले सांगठनिक ताकत को एक बार फिर आजमाने और कार्यकर्ताओं में जोश भरने का मौका मानकर चल रही है। भूपेंद्र चौधरी और धर्मपाल सिंह के लिए भी निकाय चुनाव अपने रणनीतिक कौशल को साबित करने का पहला बड़ा अवसर है। लिहाजा दोनों नेता लगातार बैठकें कर पदाधिकारियों और कार्यकर्ताओं को निकाय और स्नातक चुनाव में शत प्रतिशत जीत का आह्वान कर रहे हैं।

 

पिछले दिनों बीजेपी की कोर कमेटी की बैठक में ही तय किया गया था कि छह क्षेत्रों में से दो की बैठक प्रदेश अध्यक्ष और चार की संगठन महामंत्री लेंगे। इसकी शुरुआत हो चुकी है, संगठन मंत्री धर्मपाल सिंह ने पार्टी पदाधिकारियों से कहा है कि वे निकाय और शिक्षक चुनाव में शत-प्रतिशत लक्ष्य पाने के लिए अभी से तैयारियों में जुट जाएं। निकाय चुनावों में अपेक्षा के मुताबिक पार्टी टॉप करे इसके लिए निकाय संयोजकों की तैनाती की जा चुकी है। जल्द ही हर जिले में निकाय प्रभारी और निकायों में प्रभारियों की तैनाती भी कर दी जाएगी। इस महीने के अंत तक ये सभी पदाधिकारी आवंटित निकायों में प्रवास पर जाएंगे। मतदाता सूची के पुनरीक्षण में छूटे नाम जुड़वाने के साथ ही पार्टी में निकायों के लिए प्रत्याशियों के चयन की प्रक्रिया भी शुरू हो जाएगी।

 

निकाय चुनाव से पहले भाजपा के पास जनता से सीधे तौर पर जुड़ने का एक और मौका सेवा पखवाड़ा के तौर पर सामने आ रहा है। भाजपा, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के जन्मदिन 17 सितंबर से गांधी जयंती यानी दो अक्टूबर तक सेवा पखवाड़ा मनाएगी। इसके तहत बूथ स्तर तक कार्यक्रम तो होंगे ही, सेवा कार्यों की प्रतिस्पर्धा भी होगी। कहने का तात्पर्य यह है कि बीजेपी इतनी तेजी से दौड़ना चाहती है कि उसके पीछे नंबर दो या तीन की रेस में कोई नजर ही नहीं आए और ऐसा होता दिखाई भी दे रहा है। अगर जल्द सपा बसपा ने अपनी स्थिति में सुधार नहीं किया तो आने वाला समय इन पार्टियों के लिए अच्छा नहीं होगा।

 

-अजय कुमार

बिना नक्शा पास कराए ये चार सितारा होटल लेवाना सुइट्स उस लखनऊ में चल रहा था, जहां खुद मुख्यमंत्री और प्रमुख सचिव बैठते हैं। सारे वीवीआईपी के जहां निवास हैं। इससे इतर पूरे प्रदेश में यह सब कैसे चल रहा होगा, इसका आसानी से अनुमान लगाया जा सकता है।

लखनऊ में हजरतगंज के चार सितारा होटल लेवाना सुइट्स में बीते सोमवार सुबह भीषण आग के बाद प्रशासन जाग गया। इसकी जांच शुरू हुई तो गड़बड़ियों की परतें खुलने लगीं। घटना न होती तो शायद सब कुछ ऐसे ही चलता रहता। इस होटल में लगी आग में दम घुटने से चार लोगों की मौत हो गई। 16 लोग घायल हो गए। होटल के निर्माण और अवैध रूप से संचालन के लएि कार्रवाई शुरू तो हो गई। मंडलायुक्त ने बिना नक्शा पास कराए चल रहे इस होटल के भवन को गिराने के आदेश भी दे दिए। किंतु क्या अनियमितता के लिए जिम्मेदार अधिकारियों पर होटल में चार मरने वालों की हत्या का मुकदमा भी चलेगा। ये अनुमति देने वाले अधिकारी तो इन चारों की मौत के लिए सीधे−सीधे जिम्मेदार हैं।

मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के निर्देश पर प्रमुख सचिव गृह संजय प्रसाद ने जांच के लिए मंडलायुक्त डॉ. रोशन जैकब और पुलिस आयुक्त एसबी शिरडकर की कमेटी बनाई है। अब तक इतना ही पता चला कि होटल लेवाना सुइट्स एलडीए के इंजीनियरों और अफसरों की सांठगांठ से बिना नक्शे के ही अवैध तरीके से खड़ा हो गया। मंडलायुक्त ने एलडीए को होटल का अवैध निर्माण तोड़ने का आदेश दिया है। साथ ही होटल संचालन में जिम्मेदार एलडीए के अधिकारी, इंजीनियर और कर्मचारियों पर भी कार्रवाई कर रिपोर्ट तलब की है। यही नहीं, यह भी आदेश दिए कि एलडीए ने जिन होटलों के अवैध निर्माण तोड़ने का पूर्व में आदेश किया है, उसे सील किया जाएगा।

 

एलडीए के अधिकारियों के मुताबिक वर्ष 1996 में बंसल कंस्ट्रक्शन कंपनी के नाम से गुलमोहर अपार्टमेंट बनाने के लिए ग्रुप हाउसिंग का नक्शा पास कराया गया था। कंपनी ने अपार्टमेंट के पास खाली जमीन छोड़ी थी। इस पर ऑफिस बनना था। ग्रुप हाउसिंग सोसायटी बनने के बाद इसका इस्तेमाल वापस आवासीय उपयोग के लिए करना था, लेकिन एलडीए की कृपा से वर्ष 2017 में इसकी जगह होटल लेवाना शुरू हो गया। इसे बनवाने में एलडीए के इलाकाई तत्कालीन अधिशासी अभियंता, सहायक अभियंता एवं अवर अभियंता की सरपरस्ती रही। यही नहीं, इससे पहले गोमतीनगर के होटल सेवीग्रैंड में आग लगने के बाद सात मई को जोन छह के जोनल अधिकारी राजीव कुमार ने होटल लेवाना को नोटिस जारी किया था। इसके जवाब में होटल ने फायर की साल 2021 की एनओसी दिखाई, लेकिन होटल प्रबंधन नक्शा नहीं दिखा पाया। इस पर भी एलडीए ने कोई कार्रवाई नहीं की।

घटनाएं होती रहती हैं। घटना होने पर शोर मचता है। बाद में धीरे-धीरे सब सामान्य हो जाता है। पैसे के बल पर सब काम पुराने ढर्रे पर चलता रहता है। चार साल पहले भी राजधानी लखनऊ के एक प्रसिद्ध विराट होटल में भी इसी तरह आग लगी थी। उस वक्त आग में छह लोगों की जिंदा जलकर मौत हो गई थी। तीन लोग गंभीर रूप घायल हुए थे। कुछ दिन शोर मचा फिर सब सामान्य हो गया। दरअसल योगी   आदित्यनाथ सख्त हैं। ईमानदार हैं किंतु उनके नीचे का प्रशासनिक अमला तो वही है। नीचे तो अधिकतर बेईमान और रिश्वतखोर बैठे हैं। उन्हें धन चाहिए। कुछ भी करा लीजिए। इस होटल को बिना नक्शा पास हुए फायर की एनओसी मिल गई। कैसे मिल गई? क्या मुफ्त में मिल गई होगी? अब हादसा हो गया तो पता चला।

 

दरअसल फायर बुझाने वाला ये विभाग एनओसी के नाम पर मोटी कमाई करता है। इसकी रुचि आग बुझाने में नहीं, एनओसी देने में है। नियम से बने नर्सिंग होम, होटल, मॉल और व्यवसायिक प्रतिष्ठानों से भी एनओसी के लिए लाखों रुपये लिए जाते हैं। अग्निशमन यंत्र इनका व्यक्ति आपूर्ति करता है। बिजनौर जनपद के तो फायर आफिसर पर व्यापारी आरोप लगाते रहे हैं कि वे एनओसी देने के लिए मोटी रकम तो लेते  ही हैं, यह भी शर्त रहती है कि मांगी गई राशि देने के बावजूद निर्माण उसका ही ठेकेदार करेगा। आप शिकायत किए जाइए।

 

बिना नक्शा पास कराए ये चार सितारा होटल लेवाना सुइट्स उस लखनऊ में चल रहा था, जहां खुद मुख्यमंत्री और प्रमुख सचिव बैठते हैं। सारे वीवीआईपी के जहां निवास हैं। इससे इतर पूरे प्रदेश में यह सब कैसे चल रहा होगा, इसका आसानी से अनुमान लगाया जा सकता है। वहां किस तरह अनुमति होती होगी, सोचा जा सकता है। अभी सोशल मीडिया पर एक जनपद के एआरटीओ कार्यालय में काम कराने की रेट लिस्ट घूम रही है, तो एक अन्य जनपद के थाने में काम कराने की रेट लिस्ट भी प्रचार में है। अधिकारी किसी की सुनने को तैयार नहीं। उसे तो धन से मतलब है। अभी उत्तर प्रदेश में कृषि, स्वास्थ्य और लोक निर्माण विभाग के तबादलों में कथित भ्रष्टाचार सामने आ ही चुका है। खुद उपमुख्यमंत्री को स्वास्थ्य विभाग के तबादलों में गड़बड़ को प्रकाश में लाना पड़ा। पंचायत राज विभाग में तो घोटाले ही घोटाले हैं। पंचायत सचिव की करोड़ों की संपत्ति और पेट्रोल पंप तक चल रहे हैं। अधिकारियों के तो क्या कहने।

 

मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने पिछले दिनों आदेश दिया था कि प्रदेश सरकार के मंत्री और अधिकारी अपनी और अपने परिवार के सदस्यों की संपत्ति की सार्वजनिक घोषणा करेंगे। किंतु आदेश के बाद मामला आगे नहीं बढ़ा। होना यह चाहिए कि मंत्री, विधायक सांसद और अधिकारियों की संपत्ति की घोषणा के लिए सरकारी साइट हो। जिस पर ये डाटा डाला जाए, वह साइट सबकी नजर में हों, सब देख सकें। योगी जी ने जिस तरह अपराधियों के विरुद्ध कार्रवाई की, उसी तरह भ्रष्ट अफसरों के खिलाफ भी कार्रवाई होनी चाहिए। इस मामले में अवैध रूप से होटल संचालन के जिम्मेदार अधिकारियों की संपत्ति जब्त करके उन पर होटल में लगी आग में मरने वालों की हत्या का मुकदमा चलाया जाना चाहिए। अपराधियों की तरह जब तक भ्रष्ट अधिकारियों के विरुद्ध कार्रवाई नहीं होगी, भ्रष्टाचार और होटल की आग में जल कर मरने का सिलसिला रुकेगा नहीं।

 

-अशोक मधुप

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

ऐसा नहीं है कि राहुल का भाषण बिल्कुल बेदम था। उसमें कई ठोस और उचित आलोचनाएं भी थीं लेकिन देश के श्रोताओं के दिमाग में जो छवि राहुल की पहले से बनी हुई है, उसके कारण उसका कोई खास असर होने की संभावना बहुत कम है।
 

रामलीला मैदान की रैली में कांग्रेस ने काफी लोग जुटा लिये। हरियाणा से भूपेंद्र हुड्डा और राजस्थान से अशोक गहलोत ने जो अपना जोर लगाया, उसने कांग्रेसियों में उत्साह भर दिया लेकिन यह कहना मुश्किल है कि इस रैली ने कांग्रेस पार्टी को कोई नई दिशा दिखाई है। इस रैली में कांग्रेस का कोई नया नेता उभर कर सामने नहीं आया। कई कांग्रेसी मुख्यमंत्री और प्रादेशिक नेता मंच पर दिखाई दिए लेकिन उनकी हैसियत वही रही, जो पिछले 50 साल से थी।

सारे अनुभवी, योग्य और उम्रदराज़ नेता ऐसे लग रहे थे, जैसे किसी प्राइवेट लिमिटेड कंपनी के मैनेजर या बाबू हों। पिछले दिनों कांग्रेस के पुनर्जन्म की जो हवा बह रही थी, वह उस मंच से नदारद थी। राहुल गांधी इस पार्टी के अध्यक्ष रहें या न रहें, बनें या न बनें, असली मालिक तो वही हैं, यह इस रैली ने सिद्ध कर दिया है। रामलीला मैदान में हुई यह राहुललीला क्या यह स्पष्ट संकेत नहीं दे रही है कि ‘भारत-जोड़ो यात्रा’ का नेतृत्व कौन करेगा?

आप ज़रा सोचिए कि जो पार्टी लोकसभा की 400 सीटें जीतती थी, वह सिकुड़कर के 50 के आस-पास आ जाए, फिर भी उसमें नेतृत्व परिवर्तन न हो, वह पार्टी अंदर से कितनी जर्जर हो चुकी होगी। रामलीला मैदान में भाषण तो कई नेताओं के हुए लेकिन टीवी चैनलों और अखबारों में सिर्फ राहुल गांधी ही दिखाई पड़ रहे है। इसका अर्थ यह भी लगाया जा सकता है कि ऐसा जान-बूझकर करवाया जा रहा है ताकि कांग्रेस की मज़ाकिया छवि बनती चली जाए!

 

ऐसा नहीं है कि राहुल का भाषण बिल्कुल बेदम था। उसमें कई ठोस और उचित आलोचनाएं भी थीं लेकिन देश के श्रोताओं के दिमाग में जो छवि राहुल की पहले से बनी हुई है, उसके कारण उसका कोई खास असर होने की संभावना बहुत कम है। राहुल और सोनियाजी को पता है कि अकेली कांग्रेस मोदी के मुकाबले इस बार पासंग भर भी नहीं रहने वाली है लेकिन इसके बावजूद राहुल गांधी ने देश की अन्य प्रांतीय पार्टियों को अपने कथन से चिढ़ा दिया है। उन्होंने कह दिया कि इन पार्टियों के पास कोई विचारधारा नहीं है।

 

क्या राहुल की कांग्रेस अन्य विरोधी पार्टियों के बिना मोदी का मुकाबला कर सकती है? राहुल का यह कहना भी कोरी अतिरंजना है कि संसद में विरोधियों को बोलने नहीं दिया जाता और मीडिया का गला घोंटा जा रहा है। राहुल ने न्यायपालिका को भी नहीं बख्शा। कांग्रेस के पास श्रेष्ठ वक्ताओं का अभाव है, यह बात राहुल के अलावा सबको पता है। हर सरकार मीडिया को फिसलाने की कोशिश करती है लेकिन यदि भारतीय मीडिया गुलाम होता तो क्या राहुल को आज इतना प्रचार मिल सकता था?

राहुल ने महंगाई और बेरोजगारी का रोना रोया, सो ठीक तो है लेकिन क्या यह तथ्य सबको पता नहीं है कि अपने पड़ौसी देशों में मंहगाई दो सौ और तीन सौ प्रतिशत तक बढ़ गई है। वे आर्थिक भूकंप का सामना कर रहे हैं और अमेरिका और यूरोप भी बेहाल हैं। उनके मुकाबले भारत कहीं बेहतर स्थिति में है।

 

यदि राहुल किसी विशाल जन-आंदोलन का सूत्रपात करते तो इस रैली का महत्व एतिहासिक हो जाता लेकिन ‘भारत-जोड़ो’ के पहले यह ‘कांग्रेस जोड़ो’ जैसी कोशिश दिखाई पड़ रही थी। इस राहुललीला से कांग्रेसी कार्यकर्ताओं में कुछ जोश पैदा हो जाए तो भारतीय लोकतंत्र कुछ न कुछ सशक्त जरूर हो जाएगा।

 

-डॉ. वेदप्रताप वैदिक

‘मेक इन इंडिया’ जैसी पहल के सफल परिणाम अब विश्वभर में माने जा रहे हैं। भारत दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा मोबाइल निर्माता बन गया है। इतना ही नहीं, दस साल पहले जो इलेक्ट्रॉनिक्स उद्योग नगण्य था, वह आज बढ़कर लगभग 80 बिलियन अमरीकी डॉलर का हो गया।

महंगाई और बेरोजगारी के खिलाफ हल्ला बोल रैली कांग्रेस की ओर से अपनी शक्ति का प्रदर्शन करने एवं अपनी लगातार कम होती राजनीति ताकत को पाने का जरिया मात्र है। इस रैली में अपनी ताकत दिखाने की दृष्टि से तो काफी हद तक कांग्रेस सफल रही, लेकिन यह कहना कठिन है कि इस प्रदर्शन से वह अपनी राजनीतिक अहमियत बढ़ा सकेगी। यह रैली एक ओर कारण से भी आयोजित हुई है और वह है राहुल गांधी की पार्टी में आम-स्वीकार्यता का वातावरण बनाना। इस दृष्टि से रैली कितनी सफल हुई, यह वक्त ही बतायेगा। इतना तय है कि कांग्रेस पार्टी अपनी तमाम गलतियों एवं नाकामयाबियों से कोई सीख लेती हुई नहीं दिख रही है।

इस रैली के माध्यम से राहुल गांधी को एक ताकतवर नेता के रूप में प्रस्तुति देने के तमाम प्रयास किये गये। यही कारण है कि इस रैली में सबकी निगाहें इस बात पर लगी थीं कि राहुल गांधी क्या कहते हैं, क्या नया करते हैं, क्या अनूठा एवं विलक्षण करते हुए स्वयं को सक्षम नेतृत्व के लिये प्रस्तुत करते हैं। वे किन वक्ताओं को बोलने का अवसर देते हैं? राहुल गांधी ने अपने चिर-परिचित अंदाज में रैली को संबोधित किया, लेकिन उनके भाषण में ऐसी कोई नई बात नहीं थी जिसे वह पहले न कहते रहे हों। सदैव की तरह उन्होंने महंगाई और बेरोजगारी के साथ अन्य अनेक समस्याओं के लिए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को जिम्मेदार ठहराया और यह पुराना आरोप नए सिरे से दोहराया कि वह चंद उद्यमियों के लिए काम कर रहे हैं। इतना सब करते हुए यही प्रतीत हुआ कि अपने स्वार्थ हेतु, प्रतिष्ठा हेतु, आंकड़ों की ओट में राहुल-नेतृत्व झूठा श्रेय लेता रहा और भीड़ आरती उतारती रही। कांग्रेस की आज विडम्बना है कि सभी राहुल की बातें मानें और जिसकी प्रशस्ति गायें, लेकिन यह नेतृत्व की सबसे कमजोर कड़ी है, जहां सत्य को सत्य कहने का साहस न हो।

कांग्रेस एवं राहुल वास्तव में महंगाई एवं बेरोजगारी के खिलाफ आवाज बुलन्द करना ही चाहते हैं तो ठोस तथ्य प्रस्तुत करते, इन समस्याओं के निवारण का कोई रोड-मेप प्रस्तुत करते। सच्चाई यह है कि विगत आठ वर्षों के दौरान प्रधानमंत्री ने महंगाई के कारकों पर कड़ी निगाह रखी क्योंकि महंगाई सबसे ज्यादा गरीबों को प्रभावित करती है। जब प्रधानमंत्री ने काम संभाला तो भारतीय अर्थव्यवस्था उच्च इन्फ्लेशन के दौर से गुजर रही थी। परंतु उनके मार्गदर्शन में यह इन्फ्लेशन सफलतापूर्वक छह प्रतिशत से नीचे आया। विकास का एक नया चरण शुरू करने के लिए जब 2019 में अर्थव्यवस्था सुधरने लगी तब तक दुनिया 2020 में कोविड वैश्विक महामारी की चपेट में आ गई थी। भारत को भी गंभीर कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। मोबिलिटी में अवरोध उत्पन्न हुए, सप्लाई चेन बाधित हुई, स्वास्थ्य प्रणाली ने भी नई चुनौतियों को देखा। वर्ष 2020 में, प्रधानमंत्री ने आत्मनिर्भरता के विजन पर केंद्रित, एक नए भारत के निर्माण का मार्ग प्रशस्त किया। यह सुनिश्चित करने पर ध्यान दिया कि सदी की इस सबसे भीषण महामारी के दौरान कोई भी परिवार भूखा न रहे। और साथ ही, उन्होंने अर्थव्यवस्था के लिए एक नया निवेश चक्र शुरू किया। क्या राहुल गांधी के पास है इन बातों का कोई जवाब।

 

हल्ला बोल रैली के जरिये कांग्रेस ने शक्ति प्रदर्शन अवश्य किया, लेकिन वह एकजुटता का प्रदर्शन करने में नाकाम रही। इस रैली में भूपेंद्र सिंह हुड्डा को छोड़कर उन नेताओं को कोई प्राथमिकता नहीं दी गई जो पार्टी के संचालन के तौर-तरीकों को लेकर लंबे अर्से से सवाल उठाते आ रहे हैं और इन दिनों अध्यक्ष पद के चुनाव में पारदर्शिता की मांग कर रहे हैं। इस रैली ने यह भी स्पष्ट किया कि कांग्रेस नेता राहुल को ही नेतृत्व सौंपने पर जोर दे रहे हैं। पता नहीं राहुल अध्यक्ष पद का चुनाव लड़ेंगे या नहीं, लेकिन यदि वह नहीं भी लड़ते तो आसार इसी के हैं कि नेतृत्व गांधी परिवार के पसंदीदा नेता को ही मिलेगा। जब यही सब होना है तो क्यों बिना वजह की एक्सरसाइज की जा रही है। कांग्रेस को नेतृत्व की प्रारंभिक परिभाषा से परिचित होने की जरूरत है। नेतृत्व की पुरानी परिभाषा थी, ”सबको साथ लेकर चलना, निर्णय लेने की क्षमता, समस्या का सही समाधान, कथनी-करनी की समानता, लोगों का विश्वास, दूरदर्शिता, कल्पनाशीलता और सृजनशीलता।'' इन शब्दों को तो कांग्रेस ने किताबों में डालकर अलमारियों में रख दिया गया है।

कहना कठिन है कि राहुल की बातों से आम जनता कितना प्रभावित होगी, लेकिन इससे भी इन्कार नहीं किया जा सकता कि महंगाई और बेरोजगारी सरीखी समस्याएं सिर उठाए हुए हैं। पता नहीं सरकार इन समस्याओं पर कब तक नियंत्रण पाएगी, लेकिन आम जनता यह जान-समझ रही है कि ये वे समस्याएं हैं जिनसे देश ही नहीं, बल्कि पूरी दुनिया जूझ रही है। बेहतर होता कि प्रमुख विपक्षी दल के रूप में कांग्रेस इन समस्याओं के समाधान पर भी चर्चा करती, लेकिन वह यह काम न तो संसद में कर रही है और न ही संसद के बाहर। हम स्वर्ग को जमीन पर नहीं उतार सकते, पर बुराइयों से तो लड़ अवश्य सकते हैं, यह लोकभावना कांग्रेस में जागे। महानता की लोरियाँ गाने से किसी भी राजनीतिक दल एवं उसके नेता का भाग्य नहीं बदलता, बल्कि तन्द्रा आती है। इसे तो जगाना होगा, भैरवी गाकर। महानता को सिर्फ छूने का प्रयास जिसने किया वह स्वयं बौना हो गया और जिसने संकल्पित होकर स्वयं को ऊंचा उठाया, महानता उसके लिए स्वयं झुकी है। राहुल बाबा कोरे महान् बनने का नाटक न करो, महान बनने जैसे काम भी करो।

हमें गुलाम बनाने वाले सदैव विदेशी नहीं होते। अपने ही समाज का एक वर्ग दूसरे को गुलाम बनाता है- शोषण करता है। इसी मानसिकता से मुक्ति दिलाने के लिये ही नरेन्द्र मोदी ने सुशासन और विकास केंद्रित गुजरात मॉडल में ‘निवेश’ को विकास के वाहन के रूप में सफलतापूर्वक इस्तेमाल किया था। गुजरात का उनका अनुभव और वैश्विक अर्थव्यवस्थाओं में विकास के चरणों की उनकी गहरी समझ ने देश में मैन्युफैक्चरिंग, खनन, आवास और इंफ्रास्ट्रक्चर में नए निवेश कार्यक्रमों को आकार दिया। अर्थव्यवस्था के ये तीन क्षेत्र रोजगार के सबसे बड़े सृजक हैं। अर्थव्यवस्था में सेवा क्षेत्र की ग्रोथ भी इन क्षेत्रों के विकास पर ही निर्भर है।

 

‘मेक इन इंडिया’ जैसी पहल के सफल परिणाम अब विश्वभर में माने जा रहे हैं। भारत दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा मोबाइल निर्माता बन गया है। इतना ही नहीं, दस साल पहले जो इलेक्ट्रॉनिक्स उद्योग नगण्य था, वह आज बढ़कर लगभग 80 बिलियन अमरीकी डॉलर का हो गया। भारत का निर्यात लैंडमार्क 600 बिलियन अमेरिकी डॉलर को पार कर चुका है। कांग्रेस को चाहिए कि वह हल्ला बोल रैली जैसे आयोजनों के साथ जनता की वास्तविक समस्याओं को जोड़े, केवल राजनीति करने के लिये हल्ला बोल का सहारा न लें। जनता सब समझती है। देश हर दिन नयी-नयी उपलब्धियों एवं खुशियों से रूबरू हो रहा है। जमीन से आसमान तक हर जरूरतों को देश में ही निर्मित किया जाने लगा है।

 

यह देश के लिए बड़ी खुशखबरी है कि भारतीय नौसेना को पहला स्वदेशी विमानवाहक पोत भी मिल गया। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की मौजूदगी में केरल तट पर विशाल पोत आईएनएस विक्रांत भारत की आन-बान-शान में शुमार हो गया। इसी के साथ आजादी के अमृत महोत्सव मनाते हुए हमने अनेक गुलामी की निशानियों को भी समाप्त कर दिया है। यह अतिरिक्त खुशी की बात है कि नौसेना का ध्वज न केवल बदल गया है, बल्कि अब उस पर शिवाजी की छाप दिखने लगी है। हालांकि, यह अफसोस की बात है कि गुलामी के दौर के अंत के इतने वर्ष बाद भी नौसेना के झंडे में अंग्रेजों का एक प्रतीक चिह्न सेंट जॉर्ज क्रॉस शामिल था। आखिर पूर्व सरकारें गुलामी के इस प्रतीक को क्यों ढोती रहीं? क्या ऐसे ही अनेक शर्मनाक प्रतीक अब भी देश पर लदे हुए हैं? नए भारत में गुलाम भारत की कोई चीज बची न रहे, यह सुनिश्चित करना चाहिए। बेशक, आईएनएस विक्रांत का पदार्पण एक आगाज होना चाहिए। भारत में सामरिक निर्माण विकास में तेजी लाने की जरूरत है। भारत जिस तरह से चुनौतियों से घिरता जा रहा है, उसमें स्वदेशी तैयारी और जरूरी हो गई है। भारतीयों को रक्षा मामले में सच्चा गौरव तब हासिल होगा, जब हम अपने अधिकतम अस्त्र-शस्त्र, सैन्य साजो-सामान, वाहन स्वयं बनाने लगेंगे। ऐसी बातों पर भी कांग्रेस का ध्यान जाना चाहिए। 

 

-ललित गर्ग

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार एवं स्तम्भकार हैं)

जस्टिस ललित से हम आशा करते हैं कि वे अपने छोटे-से कार्यकाल में कुछ ऐसा कर जाएं, जो पिछले 75 साल में कोई नहीं कर सका और उनके किए हुए को लोग सदियों तक याद रखें। एक तो कानून की पढ़ाई सारे देश में मातृभाषा के जरिए हो।

सर्वोच्च न्यायालय ने यू.यू. ललित के मुख्य न्यायाधीश बनते ही कैसे दनादन फैसले शुरू कर दिए हैं, यह अपने आप में एक मिसाल है। ऐसा लगता है कि अपने ढाई माह के छोटे से कार्यकाल में वे हमारे सारे न्यायालयों को शायद नए ढांचे में ढाल जाएंगे। इस समय देश की अदालतों में 4 करोड़ से ज्यादा मुकदमे लटके पड़े हुए हैं। कई मुकदमे तो लगभग 30-40 साल से घसिट रहे हैं। मुकदमों में फंसे लोगों की जबर्दस्त ठगाई होती है, उसकी कहानी अलग है ही। न्यायमूर्ति ललित की अदालत ने गुजरात के दंगों की 11 याचिकाओं, बाबरी मस्जिद से संबंधित मुकदमों और बेंगलुरु के ईदगाह मैदान के मामले में जो तड़ातड़ फैसले दिए हैं, उनसे आप सहमति व्यक्त करें, यह जरूरी नहीं है लेकिन उन्हें दशकों तक लटकाए रखना तो बिल्कुल निरर्थक ही है।

जॉन स्टुअर्ट मिल ने अपने प्रसिद्ध ग्रंथ ‘लिबर्टी’ में क्या पते का वाक्य लिखा है। उन्होंने कहा है ‘‘देर से दिया गया न्याय तो अन्याय ही है।’’ जस्टिस ललित से हम आशा करते हैं कि वे अपने छोटे-से कार्यकाल में कुछ ऐसा कर जाएं, जो पिछले 75 साल में कोई नहीं कर सका और उनके किए हुए को लोग सदियों तक याद रखें। एक तो कानून की पढ़ाई सारे देश में मातृभाषा के जरिए हो, अदालत की सारी बहसें और फैसले अपनी भाषाओं में हों ताकि न्याय के नाम पर चल रहा जादू-टोना खत्म हो। वादी और प्रतिवादी को भी पता चले कि उनके वकीलों ने क्या बहस की है और न्यायाधीशों ने अपने फैसलों में कहा क्या है।

ललित की अदालत में अभी तीन महत्वपूर्ण मुकदमे भी आने वाले हैं। इन तीनों मामलों में उनके फैसले युगांतरकारी हो सकते हैं। पहला मामला है- गरीबों और मुसलमानों को आरक्षण देने के विरुद्ध ! मैं मानता हूं कि गरीबी, जाति और धर्म के आधार पर सरकारी नौकरियों में आरक्षण देना बिल्कुल गलत है, अनैतिक है और देश को तोड़ने वाला है। आरक्षण सिर्फ शिक्षा में दिया जा सकता है, वह भी सिर्फ गरीबी के आधार पर। नौकरियां शुद्ध गुणवत्ता के आधार पर दी जानी चाहिए। जहां तक दूसरे मामले- मुस्लिम बहुविवाह और निकाह हलाला का सवाल है, तीन तलाक की तरह इस पर भी कानूनी प्रतिबंध होना चाहिए। भारत के मुसलमानों को पीछेदेखू नहीं, आगेदेखू बनना है।

 

तीसरा मामला है, राज्यों में अल्पसंख्यकों की पहचान का। यदि भारतीय संविधान के अनुसार यदि सभी भारतीय नागरिक एक समान हैं, तो किसी राज्य में उनकी संख्या के आधार पर बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक का तमगा उनके चेहरे पर चिपका देना उचित नहीं है। यह ठीक है कि ऐसा कर देने से थोक वोट की राजनीति का धंधा बड़े मजे से चल सकता है लेकिन न तो यह भारत की एकता के हिसाब से ठीक है और न ही स्वतंत्र लोकतंत्र के लिए लाभदायक है। यदि अगले दो-ढाई माह की अवधि में सर्वोच्च न्यायालय जरा हिम्मत दिखाए और इन मसलों पर अपने निष्पक्ष और निर्भय फैसले दे सके तो देश के लोगों को लगेगा कि सर्वोच्च न्यायालय ने भारत के लोकतंत्र की रक्षा के लिए अद्भुत पहल की है।

 

-डॉ. वेदप्रताप वैदिक

जहां तक बेरोजगारी के आंकड़ों की बात है तो आपको बता दें कि शहरी क्षेत्रों में 15 वर्ष और उससे अधिक उम्र के व्यक्तियों के लिए बेरोजगारी दर अप्रैल-जून, 2022 के दौरान सालाना आधार पर 12.6 प्रतिशत से घटकर 7.6 प्रतिशत रह गई है।

जो लोग भारत में मंदी की अफवाहें फैलाते हैं उन्हें राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय (एनएसओ) की ओर से जारी जीडीपी के आंकड़ों पर गौर कर लेना चाहिए। विपक्ष के जो लोग सरकार पर आरोप लगाते हैं कि मोदी सरकार की आर्थिक नीतियों की वजह से देश की अर्थव्यवस्था बर्बाद हो रही है और बेरोजगारी बढ़ रही है उन्हें तो सबसे पहले एनएसओ के आंकड़ें देखने चाहिए। हम आपको बता दें कि यह आंकड़े दर्शाते हैं कि भारत दुनिया में सबसे तेज आर्थिक वृद्धि हासिल करने वाली बड़ी अर्थव्यवस्था बना हुआ है। यही नहीं देश में बेरोजगारी भी कम हो रही है क्योंकि सरकार की नीतियों की बदौलत रोजगार के अवसर तेजी से बढ़ रहे हैं। इसके अलावा जीएसटी कलेक्शन का भी देश नया रिकॉर्ड बनाने वाला है यानि विकास परियोजनाओं के लिए पैसा ही पैसा रहेगा। यह भी माना जा रहा है कि आरबीआई ने जो कदम पिछले दिनों उठाये हैं उसके चलते महंगाई भी जल्द ही कम होगी। बहुत-सी वस्तुओं के दामों में तो कमी आने की शुरुआत हो भी चुकी है। जरूरी खाद्य वस्तुओं के निर्यात पर रोक लगाने के अलावा जिस तरह दलहनों और चना का आवंटन राज्यों को बढ़ाया गया है उससे लोगों को बड़ी राहत मिलेगी। यही नहीं खाद्य तेलों के दामों में कमी के सरकारी प्रयास पहले ही रंग ला चुके हैं।

हालांकि इन अच्छी खबरों के बीच चिंता इस बात की है कि हम तो तेज तरक्की कर रहे हैं लेकिन दुनिया पिछड़ रही है। अगर दुनिया ऐसे ही पिछड़ती रही तो हमारे लिये मुश्किल हो सकती है। यह बात इस आंकड़े से समझिये। चालू वित्त वर्ष 2022-23 की पहली तिमाही में भारत की सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) की वृद्धि दर 13.5 प्रतिशत रही वहीं इसी तिमाही में चीन की वृद्धि दर 0.4 प्रतिशत रही है। ऐसा ही हाल दुनिया की अन्य बड़ी अर्थव्यवस्थाओं का है। यदि हमारे और अन्यों के बीच यह अंतर इसी तरह बरकरार रहा तो मुश्किल हो सकती है।

हम आपको यह भी बता दें कि भारत की जीडीपी अब महामारी यानि कोरोना काल से पहले के स्तर से करीब चार प्रतिशत अधिक है। इसके अलावा जिस तरह से वृद्धि को खपत से गति मिली है उससे संकेत मिलता है कि खासकर सेवा क्षेत्र में घरेलू मांग पटरी पर आ रही है। महामारी के असर के कारण दो साल तक विभिन्न पाबंदियों के बाद अब खपत बढ़ती दिख रही है। लोग खर्च के लिये बाहर आ रहे हैं। सेवा क्षेत्र में तेजी देखी जा रही है और आने वाले महीनों में त्योहारों के दौरान इसे और गति मिलने की उम्मीद है। अब जीडीपी आंकड़ा बेहतर होने से रिजर्व बैंक मुद्रास्फीति को काबू में लाने पर ध्यान दे सकेगा। उल्लेखनीय है कि खुदरा महंगाई दर अभी आरबीआई के संतोषजनक स्तर यानि छह प्रतिशत से ऊपर बनी हुई है।

 

एनएसओ के आंकड़ों के अनुसार, चालू वित्त वर्ष की पहली तिमाही में निजी निवेश सालाना आधार पर 20.1 प्रतिशत बढ़ा। सरकारी खर्च इस दौरान 1.3 प्रतिशत जबकि निजी खपत 25.9 प्रतिशत बढ़ी है। एनएसओ के आंकड़ों के अनुसार, सकल मूल्यवर्धन इस साल अप्रैल-जून तिमाही में 12.7 प्रतिशत रहा। इसमें सेवा क्षेत्र में 17.6 प्रतिशत, उद्योग में 8.6 प्रतिशत और कृषि क्षेत्र में 4.5 प्रतिशत की वृद्धि हुई। 

 

जहां तक बेरोजगारी के आंकड़ों की बात है तो आपको बता दें कि शहरी क्षेत्रों में 15 वर्ष और उससे अधिक उम्र के व्यक्तियों के लिए बेरोजगारी दर अप्रैल-जून, 2022 के दौरान सालाना आधार पर 12.6 प्रतिशत से घटकर 7.6 प्रतिशत रह गई है। हम आपको बता दें कि देश में अप्रैल-जून, 2021 में कोविड-19 महामारी से संबंधित प्रतिबंधों के कारण बेरोजगारी दर अधिक थी। लेकिन अब नवीनतम आंकड़े इस बात की ओर इशारा करते हैं कि महामारी की छाया से निकलकर अर्थव्यवस्था सुधार की ओर बढ़ रही है। आंकड़े दर्शाते हैं कि शहरी क्षेत्रों में महिलाओं (15 वर्ष और उससे अधिक आयु की) में बेरोजगारी दर अप्रैल-जून, 2022 में घटकर 9.5 प्रतिशत रह गई, जो एक साल पहले की समान अवधि में 14.3 प्रतिशत थी। वहीं शहरी क्षेत्रों में पुरुषों में बेरोजगारी दर एक साल पहले के 12.2 प्रतिशत की तुलना में अप्रैल-जून, 2022 में घटकर 7.1 प्रतिशत रह गई है।

अर्थव्यवस्था के दूसरे मोर्चों की बात करें तो विनिर्माण क्षेत्र में वृद्धि धीमी पड़कर 4.8 प्रतिशत रही जो चिंता का कारण है। इसके अलावा निर्यात के मुकाबले आयात का अधिक होना भी चिंताजनक है। साथ ही विकसित देशों में मंदी की आशंका से आने वाली तिमाहियों में वृद्धि दर की गति धीमी पड़ने की आशंका है। 

 

बहरहाल, इन आंकड़ों पर गौर करें तो माना जा सकता है कि भारतीय अर्थव्यवस्था चालू वित्त वर्ष में सात प्रतिशत से अधिक की वृद्धि दर हासिल करने की ओर बढ़ रही है। सरकार को बस चालू वित्त वर्ष में राजकोषीय घाटे को जीडीपी के 6.4 प्रतिशत पर बनाए रखना होगा। यह आंकड़े यह भी दर्शाते हैं कि अन्य बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में नरमी के संकेतों के बीच भारत की वृद्धि दर बेहतर होने से वैश्विक निवेशकों का भरोसा बढ़ेगा और देश में निवेश आकर्षित करने में मदद मिलेगी।

 

-नीरज कुमार दुबे

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